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________________ समवाश्री १३१. दिट्टिवायरस णं परिता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संवेज्जाओ वित्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संग्रहणीओ । सेणं अंगाए बारसमे अंगे एगे सुखंधे चोदस पुव्वाई संखेज्जा वत्थू संखेज्जा चूलवत्थू संखेज्जा पाहुडा संखेज्जा पाहुडपाडा संखेज्जाओ पाहुडियाओ संखेज्जाओ पाहुडपाहुडियाओ संखेज्जाणि पय सय सहस्सा णि पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा अनंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण विज्जति दंसिज्जति उवदंसिज्जति । परू विज्जं ति निदंसिज्जं ति से एवं आया एवं जाया एवं विष्णाया एवं परूवणया पण विज्जति अथ एवमात्मा ' एवं ज्ञाता' ' एवं चरण-करण विज्ञाता' एवं चरण- करण- प्ररूपणा आघविज्जति आख्यायते प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दश्यते परुविज्जति निदर्श्यते उपदर्श्यते । सोऽसौ दृष्टिवादः । दंसिज्जति निदंसिज्जति तदेतत् द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् | उवदंसिज्जति । सेत्तं दिट्टिवाए । तं दुवासंगे गणिपिडगे । १३२. इच्चेतं दुबालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अणंता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरतं संसारकंतारं अणुपरिर्यासु । इच्चेतं दुबालसंगं गणिपिडगं पडपणे काले परित्ता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टांत । ३४१ प्रकीर्णक समवाय: सू० १३१-१३२ दृष्टिवादस्य परीताः वाचना: संख्येयानि १३१. दृष्टिवाद की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तयः अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः श्लोकाः संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येया: निर्युक्तः संख्येयाः संग्रहण्यः । संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्येय हैं और ग्रहणियां संख्ये हैं । Jain Education International स अङ्गार्थतया द्वादशमङ्ग एक: श्रुतस्कन्धः चतुर्दश पूर्वाणि संख्येन वस्तूनि संख्येयानि चूलावस्तूनि संख्येयानि प्राभृतानि संख्येयानि प्राभृतप्राभृतानि संख्येयाः प्राभृतिका: संख्येयाः प्राभृतप्राभृतिका संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ता: पर्यंवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः स्थावरा: शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः भावा: आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटक अतीते काले अनन्ताः जीवाः आज्ञया विराध्य चातुरन्तं संसारकान्तारं अनुपर्य वर्तिषत । इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं प्रत्युत्पन्ने काले परीताः जीवा आज्ञया विराध्य चातुरन्तं संसारकान्तारं अनुपरिवर्तन्ते । For Private & Personal Use Only यह अंग की दृष्टि से बारहवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध, चौदह पूर्व, संख्येय वस्तु ( दो सौ पच्चीस वस्तु), संख्येव चूलिका वस्तु (चौतीस चूलिकावस्तु) संख्येय प्राभृत, संख्येय प्राभृतप्राभृत, संख्येय प्राभृतिका, संख्येय प्राभृत- प्राभृतिका, पद- प्रमाण से संख्येय लाख पद संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा' - दृष्टिवादमय, ' एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है । इस प्रकार दृष्टिवाद में चरणकरण- प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है दृष्टिवाद । यह है द्वादशांग गणिपिटक । १३२. अतीत काल में अनन्त जीवों ने इस द्वादशांग गणिपिटिक की आज्ञा का पालन न करने के कारण विराधना कर चातुरंत संसार के कांतार में पर्यटन किया था । वर्तमान काल में परिमित जीव इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा का पालन न करने के कारण विराधना कर चातुरंत संसार के कांतार में पर्यटन करते हैं । www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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