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समवानो
समवाय ४ : टिप्पण
स्थानांग ७/८० में सात विकथाओं का उल्लेख है । स्त्रीकथा आदि चार के अतिरिक्त तीन विकथाएं और हैं- मृदुकारुणिकी,
दर्शनभेदिनी और चारित्रभेदिनी। ४. संज्ञा (सण्णा)
संज्ञा के दो अर्थ हैं-आभोग-संवेगात्मक ज्ञान या स्मृति और मनोविज्ञान ।' संज्ञाएं दस हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा । इनमें प्रथम आठ संवेगात्मक तथा अंतिम दो ज्ञानात्मक हैं । प्रस्तुत प्रकरण में चार संज्ञाएं निर्दिष्ट हैं। ये संवेगात्मक हैं१. आहार संज्ञा- इसका शब्दार्थ है आहार की अभिलाषा। यह क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से होनेवाला आत्म-परिणाम
है। इसकी उत्पत्ति के चार कारण ये हैं-१. पेट के खाली हो जाने से २. क्षुधा वेदनीय के उदय से
३. आहार की मति से ४. आहार के सतत चिन्तन से । २. भय संज्ञा- इसका अर्थ है-- भय का अभिनिवेश। यह भय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला आत्म-परिणाम है।
इसकी उत्पत्ति के चार कारण ये हैं-१. सत्त्वहीनता २. भय वेदनीय (मोहनीय) के उदय से ३. भय
की मति से ४. भय के सतत चिन्तन से । ३. मैथुन संज्ञा- मैथुन की अभिलाषा वेद मोहनीय का परिणाम है। इसकी उत्पत्ति के चार हेतु ये हैं-१. अत्यधिक
मांसशोणित का उपचय हो जाने से २. मोहनीय कर्म के उदय से ३. मैथुन की बात सुनने से ४. मैथुम
का सतत चिन्तन करने से। ४. परिग्रह संज्ञा--तीव्र लोभ के उदय से होनेवाली परिग्रह की अभिलाषा परिग्रह संज्ञा है। इसकी उत्पत्ति के चार कारण
ये हैं-१. अविमुक्तता २. लोभ वेदनीय के उदय से ३. परिग्रह की मति से ४. परिग्रह का सतत चिन्तन
करने से। विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं, टिप्पण पृष्ठ ६६८-१००० । ५. बंध (बंधे)
कषाय के कारण जीव-प्रदेशों के साथ कर्म-पुद्गलों का बंध जाना बंध कहलाता है। उसके चार प्रकार हैं१. प्रकृतिबंध - इसका अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का स्वभाव । कर्म पुद्गलों का जीव के साथ संबंध होने पर, ज्ञान को
रोकने का स्वभाव, दर्शन को रोकने का स्वभाव-इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्वभाव का होना प्रकृतिबंध है। २. स्थितिबंध - इसका अर्थ है-पुद्गलों की कालमर्यादा। कर्मों का निश्चित कालावधि तक जीव के साथ बंधे रहना,
स्थितिबंध है। ३. अनुभागबंध- इसका अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का सामर्थ्य । कर्मों का रस विपाक या फल देने की शक्ति अनुभाग
बंध है। ४. प्रदेशबंध - इसका अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का संचय । बंधने वाले कर्म-पुद्गलों के परिमाण को प्रदेशबंध कहते हैं । ६. योजन (जोयणे)
प्रस्तुत प्रसंग में चार गाउ-गव्यूति का एक योजन माना है। गव्यूत का अर्थ है-वह दूरी जिसमें गाय का रंभाना सुना जा सके।
विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं, ८/६२ का टिप्पण नं० ३४ पृष्ठ ८३८-८३६ ।
१. स्थानांगवत्ति, पत्र ४७८ :
संज्ञानं संज्ञा पाभोग इत्यर्थ: मनोविज्ञान मित्यन्ये । २ ठाण १०/१०५। ३. ठाणं ४/५७५-५८२। ४. बुद्धिस्टइंडिया, पृष्ठ ४१ :
Gavyuta, A Cow's Call.
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