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________________ टिप्पण १. कुछ अधिक बयालीस वर्षों तक (बायालोसं वासाइं साहियाई) भगवान् महावीर बारह वर्ष और साढे छह मास तक छद्मस्थ रहे और कुछ न्यून तीस वर्ष तक केवली। भगवान् को केवलज्ञान वैशाख शुक्ला दसमी को हुआ और निर्माण कार्तिक कृष्णा अमावस्था को। इससे यह फलित होता है कि भगवान् २६ वर्ष ५ मास और २० दिन तक केवली रहे। छद्मस्थ अवस्था को मिलाने पर उनका योग ४२ वर्ष ५ दिन होता है। इसीलिए प्रस्तुत सूत्र में कुछ अधिक बयालीस वर्षों का उल्लेख हुआ है। पर्युषणा कल्प में भगवान् महावीर का श्रामण्य-पर्याय-काल बयालीस वर्ष का बतलाया गया है। वहां अतिरिक्त दिनों की विवक्षा नहीं की गई है। २. व्यवधानात्मक अन्तर (अबाहाते अंतरे) 'व्यवधानात्मक'--यह अबाधा शब्द का अनुवाद है। अभयदेव सूरी ने अबाधा का अर्थ ---- 'व्यवधान की अपेक्षा से होने वाला'-किया है। आचार्य मलयगिरि ने इसका शाब्दिक अर्थ भी समझाया है। उन्होंने बाधा का अर्थ 'आक्रमण' किया है। इस आधार पर 'अबाधा' का अर्थ 'अनाक्रमण'-'एक दूसरे की संलग्नता न होना'—किया जा सकता है।' ३. जम्बूद्वीप..... पूर्वी चरमान्त (चउद्दिसि) प्रस्तुत सूत्र में 'चउद्दिसिं' पाठ है। पूर्व दिशा का निरूपण इससे पूर्ववर्ती सूत्र में किया जा चुका है, इसलिए यहां 'तिदिसिं' पाठ होना चाहिए। वृत्तिकार ने तेंतालीसवें समवाय में इस विषय का विमर्श किया है। प्रस्तुत सूत्र में उन्होंने इसका कोई विमर्श नहीं किया। उन्हें यह पाठ प्राप्त था या नहीं, इस विषय में कुछ भी निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता। चारों आवास-पर्वतों की अवस्थिति इस प्रकार है १. पूर्व में गोस्तूप पर्वत २. दक्षिण में दकावभास पर्वत ३. पश्चिम में शंख पर्वत ४. उत्तर में दकसीम पर्वत । १. समवायांगवृत्ति, पत्न ६३ : छद्मस्थपर्याये द्वादश वर्षाणि षण्मासा अर्द्धमासश्चेति, केवलिपर्यायस्तु देशोनानि त्रिंशद् वर्षाणीति, पर्युषणाकल्पे द्विचत्वारिशदेव वर्षाणि महावीरपर्यायोभिहितः, इह तु साधिक: उक्तः, तन्न पर्युषणाकल्पे यदल्पमधिकं तन्न विवक्षितमिति सम्भाव्यत इति । २. वही, पन्न ६३: प्रवाहाए त्ति व्यवधानापेक्षया। ३. जीवाजीवाभिगमवृत्ति, पन्न २२२ : इति बाधनं बाधा-पाक्रमणं तस्यामबाधायां कृत्वेति गम्यते, अपान्तरालेषु मुक्त्वेति भावः। ४. समवायांगवृत्ति, पन ६४: चउद्दिसिपि' ति उक्तदिगन्तवेिन चतस्रो दिश उक्ता अन्यथा एवं तिदिसिपि' सिपायं स्यात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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