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________________ सम्पादकीय आगम- सम्पादन की प्रेरणा विक्रम संवत् २०११ का वर्ष भौर चैत्र मास । आचार्य श्री तुलसी महाराष्ट्र की यात्रा कर रहे थे। पूना से नारायणगांव की ओर जाते जाते मध्यावधि में एक दिन का प्रवास मंचर में हुआ। आचार्यश्री एक जैन परिवार के भवन में ठहरे थे। वहां मासिक पत्रों की फाइलें पड़ी थीं । गृहस्वामी की अनुमति ले, हमलोग उन्हें पढ़ रहे थे । सांझ की वेला, लगभग छह बजे होंगे। मैं एक पत्र के किसी अंश का निवेदन करने के लिए आचार्यश्री के पास गया। आचार्यश्री पत्रों को देख रहे थे। जैसे ही मैं पहुंचा, आचार्यश्री ने धर्मदूत के सद्यस्क अंक की ओर संकेत करते हुए पूछा - " यह देखा कि नहीं ?" मैंने उत्तर में निवेदन किया- "नहीं, अभी नहीं देखा ।" आचार्यश्री बहुत गम्भीर हो गए। एक क्षण रुक कर बोले - " इसमें बौद्ध-पिटकों के सम्पादन की बहुत बड़ी योजना है। बौद्धों ने इस दिशा में पहले ही बहुत कार्य किया है और अब भी बहुत कर रहे हैं। जैन आगमों का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति से अभी नहीं हुआ है और इस ओर अभी ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।" आचार्यश्री की वाणी में अन्तर्-वेदना टपक रही थी, पर उसे पकड़ने में समय की अपेक्षा थी । आगम- सम्पादन का संकल्प रात्रिकालीन प्रार्थना के पश्चात् आचार्यश्री ने साधुओं का आमंत्रित किया। वे आए और वंदना कर पंक्तिबद्ध बैठ गए । आचार्यश्री ने सांय कालीन चर्चा का स्पर्श करते हुए कहा- 'जैन आगमों का कायाकल्प किया जाय, ऐसा संकल्प उठा है। उसकी पूर्ति के लिए कार्य करना होगा, पूर्ण श्रम करना होगा। बोलो, कौन तैयार है ?" सारे हृदय एक साथ बोल उठे - 'सब तैयार हैं।' आचार्यश्री ने कहा – 'महान् कार्य के लिए महान् साधना चाहिए । कल ही पूर्व तैयारी में लग जाओ, अपनी-अपनी रुचि का विषय चुनो और उसमें गति करो ।' मंचर से विहार कर आचार्य श्री संगमनेर पहुंचे। पहले दिन वैयक्तिक बातचीत होती रही। दूसरे दिन साधु-साध्वियों की परिषद् बुलाई गई । आचार्यश्री ने परिषद् के सम्मुख आगम सम्पादन के संकल्प की चर्चा की। सारी परिषद् प्रफुल्ल हो उठी। आचार्य श्री ने पूछा- 'क्या इस संकल्प को अब निर्णय का रूप देना चाहिए ?' समलय से प्रार्थना का स्वर निकला - 'अवश्य, अवश्य ।' आचार्यश्री औरंगाबाद पधारे। सुराणा भवन, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (वि० सं० २०११), महावीर जयन्ती का पुण्य पर्व । आचार्यश्री ने साधु साध्वी श्रावक और श्राविका - इस चतुविध संघ की परिषद् में आगम- सम्पादन की विधिवत् घोषणा की। आगम- सम्पादन का कार्यारम्भ वि० सं० २०१२ श्रावण मास ( उज्जैन चातुर्मास ) से आगम- सम्पादन का कार्यारम्भ गया। न तो सम्पादन का कोई अनुभव और न कोई पूर्व तैयारी । अकस्मात् धर्मदूत का निमित्त पा आचार्यश्री के मन में संकल्प उठा और उसे सबने शिरोधार्यं कर लिया । चिन्तन की भूमिका में इसे निरी भावुकता ही कहा जाएगा, किन्तु भावुकता का मूल्य चिन्तन से कम नहीं है। हम अनुभवविहीन थे, किन्तु आत्म-विश्वास से शून्य नहीं थे । अनुभव आत्म-विश्वास का अनुगमन करता है, किन्तु आत्म-विश्वास अनुभव का अनुगमन नहीं करता । प्रथम दो तीन वर्षों में हम अज्ञात दिशा में यात्रा करते रहे। फिर हमारी सारी दिशाएं और कार्य-पद्धतियां निश्चित और सुस्थिर हो गईं । आगम- सम्पादन की दिशा में हमारा कार्य सर्वाधिक विशाल और गुरुतर कठिनाइयों से परिपूर्ण रहा है, यह कह कर मैं किञ्चित् भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं । आचार्यश्री के अदम्य उत्साह व समर्थ प्रयत्न से हमारा कार्य निरन्तर गतिशील हो रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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