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समवानो
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समवाय १६ : टिप्पण
के आयुमान के अनुपात से प्रथम वय में प्रवजित हुए थे। इस तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे कुमार अवस्था में प्रवजित हुए थे । अवणिकार ने प्रथम वय को कुमार अवस्था और मध्यम वय को यौवन अवस्था माना है।' ___ तीसवें समवाय में पार्श्व और महावीर-दोनों के प्रसंगों में बतलाया गया है कि वे तीस वर्ष तक अगारवास में रहकर प्रवजित हुए। यह कथन उन्नीस तीर्थङ्करों के विषय में उक्त वचन से भिन्न नहीं है। इस जिज्ञासा के समाधान में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्नीस तीर्थङ्करों के विषय में जो पाठ है बह 'अगारमझावसित्ता' और प्रथम वय में प्रवजित होने वाले पांच तीर्थङ्करों के विषय में जो पाठ है वहां 'अगारमझे वसित्ता' होना चाहिए।
प्रस्तुत समवाय में वृत्तिकार अभयदेवसूरी के अनुसार 'अगारमझावसित्ता' में दो शब्द हैं-'अगारं' और 'अज्झावसित्ता'। 'अज्झावसित्ता' शब्द अधि+आ+उषित्वा--इन तीनों के योग से बना है। 'अधि' का अर्थ है अधिक, 'आ' मर्यादा का वाचक है और 'उषित्वा' का अर्थ है रहकर । वृत्तिकार ने इसका अर्थ यह किया है कि उन्नीस तीर्थङ्कर चिरकाल तक राज्य का परिपालन कर प्रवजित हए थे।' 'अगारमझे वसित्ता' में भी दो शब्द हैं-'अगारमझे' और 'वसित्ता' । इसका अर्थ है-घर में निवास कर ।
आदर्शों में 'अगारमझावसित्ता' और 'अगारमझे वसित्ता' का भेद प्राप्त नहीं है, क्योंकि लिपिकारों का इस भेद की ओर ध्यान नहीं था। अतएव स्थानांग के आदर्शों में 'कूमारवासमज्झे वसित्ता' का पाठान्तर 'कुमारवासमझावसित्ता' भी मिलता है और उन्नीसवें समवाय में 'अगारमज्जावसित्ता' का पाठान्तर 'अगारमझे वसित्ता' भी मिलता है । किन्तु अर्थ की मीमांसा करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि सुत्रकार ने मध्यम वय में प्रवजित होने वाले तीर्थङ्करों तथा प्रथम वय में प्रवजित होने वाले तीर्थङ्करों का भेद सूचित करने के लिए पाठ-रचना में भेद किया था। इस चर्चा से आपाततः हमारे मन पर पड़ने वाली यह छाप 'उन्नीस तीर्थकुर विवाहित होकर प्रवजित हुए और पांच तीर्थङ्कर कुमार (अविवाहित) अवस्था में प्रवजित हुए', फिर धुंधली हो जाती है।
यद्यपि इस विषय में कुछ चिन्तनीय प्रश्न शेष रहते हैं, जैसे-तीर्थङ्करों के विषय में अन्य अनेक बातों का विवरण दिया है वहां उनके विवाहित या अविवाहित होने का विवरण क्यों नहीं दिया ?
चक्रवर्ती भरत ७७ लाख पूर्व तक कुमारवास में रहे थे। फिर उनका महाराज्याभिषेक हुआ था। इस सूत्र में कुमारबास और महाराज्याभिषेक-ये दोनों शब्द उस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि जो पांच तीर्थङ्कर कुमारवास में प्रवजित हुए, उनका महाराज्याभिषेक नहीं हुआ। फलित की भाषा में यह कहा जा सकता है कि कुमारवास शब्द के द्वारा उनके अविवाहित होने की सूचना नहीं दी है, किन्तु राज्याभिषेक की पूर्वावस्था की सूचना दी है।
पउमचरिअ से भी हमारे निष्कर्ष की पुष्टि होती है। उसमें लिखा है-'पांच तीर्थङ्कर कुमार अवस्था में प्रवजित हुए और शेष तीर्थंकरों ने पृथ्वी का भोग कर अभिनिष्क्रमण किया।'
१. अावश्यक नियुक्ति, गा० २२६, पवणि प्रथम विभाग, पृ० २०३ :
प्रथमवयसि-कुमारत्वलक्षणे....", मध्ये वयसि-यौवनलक्षणे........। २. समवायांगवृत्ति, पत्र ३५ :
अगारं-गेहं, अधिक-पाधिक्येन चिरकालं राज्यपरिपालनत:, पा–मर्यादया नीत्या, वसित्वा उषित्वा तत्र वासं विधायेति, प्रध्येष्ट्या प्रवजिता:। ३. समदाय, ७७/१:
भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तत्तरि पुव्वसयसहस्साइ कुमारवासमझावसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते । ४. पउमचरिम, २०/५७,५८ : मल्ली अरिट्ठनेमी पासो वीरो य वासुपुज्जो।। एए कुमारसीहा गेहामो निग्गया जिणवरिंदा । सेसा वि हु रायाणो पुहई भोत्तूण निक्खंता ।।
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