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समवायो
समवाय १ : सू० ४३-४६ ४३. जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं ये देवाः सागरं सुसागरं सागरकान्तं ४३. सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव,
भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं भवं मनु मानुषोत्तरं लोकहितं विमानं मनु, मानुसोत्तर और लोकहित विमानों विमाणं देवत्ताए उबवण्णा, तेसि देवत्वेन उपपन्ना:, तेषां देवानामुत्कर्षण में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों णं देवाणं उक्कोसेणं एगं एक सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता।
की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की सागरोवमं ठिई पण्णत्ता।
४४. ते णं वा एगस्स अद्धमासस्स ते देवा एकस्यार्द्धमासस्य आनन्ति वा ४४. वे देव एक पक्ष से आन, प्राण, उच्छ
आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वास और निःश्वास लेते हैं।' ऊससंति वा नीससंति वा। वा। ४५. तेसि णं देवाणं एगस्स वाससह- तेषां देवानामेकस्य वर्षसहस्रस्य आहा- ४५. उन देवों के एक हजार वर्ष से भोजन स्सस्स आहारठे समुपज्जइ। रार्थः समुत्पद्यते।
करने की इच्छा उत्पन्न होती है। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये एकेन ४६. कुछ भवसिद्धिक जीव' एक बार जन्म एणं भवग्गहणणं सिज्झिस्संति भवग्रहणेन सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिबज्झिस्संति मुच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- निर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करिस्संति।
करेंगे।
टिप्पण
१. आत्मा एक है (एगे आया)
आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन अनेक नयों से किया गया है । आत्मा के अनेक प्रदेश (अवयव ) होते हैं, फिर भी द्रव्यत्व की दृष्टि से वह एक है। आत्मा का प्रतिक्षण पर्याय-परिवर्तन होता है, फिर भी कालत्रयानुगामी चैतन्य की उपेक्षा से वह एक है। प्रत्येक आत्मा में पृथक् चैतन्य होता है, फिर भी संग्रहनय की दृष्टि से आत्मा एक है। इस प्रकार अनेक नयों से आत्मा का एकत्व विवक्षित है। शेष सतरह सूत्रों में भी इसी प्रकार नय-दृष्टि की योजना की जा सकती है। विशेष विवरण के लिए देखें :--ठाणं, १/२ का टिप्पण, पृष्ठ १८, १६ । २. वेदना एक है (एगा वेयणा)
वेदना-उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म-पुद्गलों का अनुभव करना। पहले कर्म-पुद्गलों की वेदना होती है फिर निर्जरा
कर्म-पुद्गलों का आत्मा से विलगाव। ३. सूत्र ४-२१
इन सूत्रों में एक-एक तत्त्व का कथन है। इसी प्रकार का प्रतिपादन स्थानांग सूत्र १/२-१६ में हुआ है । समवाओ में
अणाया, अदंडे, और अकिरिया-ये तीन शब्द अधिक हैं। इन सबके विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं, पृष्ठ १६, २० । ४. सूत्र ४४. ४५
देवताओं का उच्छवास-निःश्वास और भोजन उनकी आयुष्य के कालमान के आधार पर निर्धारित होता है। प्राचीन गाथा में कहा गया है'जस्स जइ सागरोवमाइं ठिई, तस्स तत्तिएहि तत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो तत्तिएहि पक्खेहिं ।' जिसकी जितने सागरोपम की आयुष्य-स्थिति होती है, उसके एक सागरोपम आयुष्य-स्थिति का एक पक्ष- इस अनुपात से श्वासोच्छवास की क्रिया होती है, और एक सागरोपम का एक हजार वर्ष- इस अनुपात से आहार का कालमान होता है ।
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