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________________ समवाश्रो Jain Education International ३६८ प्रकीर्णक समवाय: टिप्पण८० उत्तरपुराण में निदान के कारण और वासुदेवों के पूर्वभववर्ती नाम भिन्न आए हैं। उनका संक्षेप इस प्रकार है— १. विश्वनंदी ( ५७ / ७० - ८२ ) - मगध देश में राजगृह नाम का नगर था। विश्वभूति वहां का राजा था। उसकी रानी का नाम जैनी था। उसके एक पुत्र हुआ । उसका नाम विश्वनंदी रखा गया। महाराज विश्वभूति के भाई का नाम विशाखभूति था । उसके पुत्र का नाम विशाखनंदी था। विश्वभूति ने अपने भाई को राज्य भार सौंपकर दीक्षा स्वीकार कर ली। राजगृह में एक नन्दन नाम का बगीचा था। वह विश्वनंदी को बहुत प्यारा था। एक बार विशाखनंदी ने जबरदस्ती उस उपवन को अपने अधीन कर लिया। विश्वनंदी और विशाखनंदी के मध्य युद्ध हुआ । विशाखनंदी हारकर भाग गया । विश्वनंदी का मन वैराग्य से भर गया और वह अपने चाचा विशाखभूति के साथ आचार्य संभूत के पास दीक्षित हो गया। एक दिन वह मथुरा में आया। वहां एक छोटे बछड़े वाली गाय ने क्रोध से उसे धक्का दिया । वह भूमि पर गिर पड़ा। विशाखनंदी, जो युद्ध में हारकर भाग गया था, वह उस समय वहीं एक वेश्या के घर पर झरोखे में बैठा था। मुनि विश्वनंदी को गिरते देख वह हंसा और व्यंग से बोला- 'तुम्हारा पराक्रम आज कहां गया ? ' - ये शब्द मुनि को तीर की भांति चुभे और तत्काल उसने निदान किया, और मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ । वहां से च्युत होकर पोतनपुर नगर के राजा प्रजापति की रानी मृगावती के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम त्रिपृष्ठ रखा गया । २. सुषेण, (५८/५६-७८ ) : कनकपुर के राजा सुषेण के पास गुणमंजरी नाम की नर्तकी थी । वह अत्यन्त रूपवती और कला कुशल थी । एक बार मलयदेश के राजा विन्ध्यशक्ति ने उस नर्तकी की मांग की। सुषेण ने दूत की भर्त्सना की । विन्ध्यशक्ति सुषेण से 'युद्ध करने कनकपुर आ पहुंचा। सुषेण पराजित हुआ। कुछ समय बाद वह विरक्त हो दीक्षित हो गया । किन्तु विन्ध्यशक्ति पर उसका क्रोध बढता रहा । अन्त में उसने निदान किया। वहां प्राण त्यागकर प्राणत स्वर्ग में अनुपम नामक विमान में देव बना । कालान्तर में वहां से च्युत होकर द्वारावती नगरी के राजा ब्रह्म की रानी उषा के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम द्विपृष्ठ रखा गया । ३. सुकेतू (५१ / ६३-८४ ) : में आसक्त कुणाल देश में श्रावस्ती नाम का नगर था। वहां सुकेतु नाम का राजा राज्य करता था। वह द्यूत रहता था। एक बार उसने अपना सर्वस्व हार दिया। शोक से व्याकुल हो वह सुदर्शनाचार्य के पास पहुंचा और जैन दीक्षा ग्रहण कर ली । दीर्घकाल तक कठोर तपस्या करते हुए उसने अन्त में निदान किया कि 'इस तप के द्वारा मेरे कला, गुण, चातुर्य और बल प्रगट हों ।' ४. वशुषेण (६०/ ४९-५६) : पोतनपुर नगर के राजा वसुषेण की रानी का नाम नंदा था। वह अत्यन्त रूपवती थी। मलयदेश के राजा चण्डशासन ने उसका हरण कर लिया । दुःखी होकर राजा वसुषेण श्रेय नामक गणधर के पास दीक्षित हो गया । घोर तपस्या कर यह निदान किया कि इस तपस्या का कुछ फल हो तो मैं ऐसा राजा बनूं, जिसका कोई अतिक्रमण न कर सके । मरकर बारहवें स्वर्ग में गया। वहां से च्युत होकर द्वारावती नगरी के राजा सोमपुत्र की रानी सीता के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम पुरुषोत्तम रखा गया । ५. श्री विजय ( ६२ / ३७८-४०६ ) : पूर्वभव में ये विद्याधर के अधिपति थे । इनका नाम श्रीविजय था । एक दिन इन्होंने अमरगुरु और देवगुरु नामक दो श्रेष्ठ मुनियों को नमस्कार किया और उनसे अपने तथा पिता के पूर्वभवों का संबंध पूछा । उन्होंने सारा वृतान्त कह सुनाया । उसे सुनकर श्रीविजय ने भोगों का निदान किया। ६. नाम अज्ञात ( ६५ / १७४, १७५ ) : पूर्वभव में इसने राजा सुकेत के आश्रय से शल्य सहित तप किया था इनका निदान का कारण प्राप्त नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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