________________
समवाश्रो
३६६
प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ८१
७. नाम अज्ञात ( ६६ / १०२-१०५ ) :
पूर्वभव में वह अयोध्या नगर का राजपुत्र था। पिता के लिए यह प्रिय नहीं था, इसलिए पिता ने अपने छोटे भाई को युवराज पद दे दिया । उसने समझा कि यह सारा कार्य मंत्री ने किया है, इसलिए उस पर कुपित हुआ । कालान्तर में वह शिवगुप्त मुनि के पास दीक्षित हो गया। मंत्री के प्रति बैर बढ़ता गया । ग्रन्थकार ने निदान का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है |
Jain Education International
८. चन्द्रचूल (६७ / ८- १४४ ) :
मलयराष्ट्र में रत्नपुर नाम का नगर था। वहां प्रजापति नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम गुणकान्ता था । उसने एक पुत्र का प्रसव किया। उसका नाम इन्द्रचूल रखा गया। उसने एक सेठ की पुत्री से बलात्कार किया । राजा ने उसे मृत्यु-दंड दिया। मंत्री ने यह भार अपने ऊपर लिया और उसे एक मुनि के पास छोड़ दिया। उसने दीक्षा ली। एक बार वह खड्गपुर नगर के बाहर आतापना में स्थित था। उस समय वासुदेव पुरुषोतम दिग्विजय कर नगर में आ रहे थे । उनकी ऋद्धि को देखकर उसने निदान किया ।
६. निर्नामक (७१/१६६-२६८ ) :
एक बार देवकी ने वरदत्त गणधर से पूछा- 'भगवन् ! मेरे घर पर दो-दो कर छह मुनिराज भिक्षा के लिए आए थे । उनको देखकर मेरे मन में कुटुम्बियों जैसा स्नेह उत्पन्न हुआ था। इसका कारण स्पष्ट करें। गणधर ने सारा वृतान्त बताते हुए अन्त में कहा - 'ये छहों व्यक्ति तेरे पुत्र थे । कंस के भय के कारण नैगमषि देव ने उन्हें अलका सेठानी के यहां रख दिया था। अलका ने उनका पालन किया है। ये इसी भव में मुक्त होंगे। जो तेरा निर्नामक नाम का पुत्र था, उसने तपश्चर्या करते समय निदान करके मारने वाला कृष्ण हुआ है ।
'पूर्वभव में
उत्तरपुराण में वासुदेवों तथा बलदेवों के पूर्वभविक नामों में अंतर है। इसी प्रकार वासुदेवो के पूर्वभविक धर्माचार्यों के नाम, निदान भूमियां तथा निदान के कारण भी भिन्न रूप से उल्खिखित हैं
वासुदेवों के पूर्वभविक नाम -
१. विश्वनंदी २. सुषेण ३. सुकेतू ४. वसुषेण ५. श्रीविजय ६. अज्ञात ७. अज्ञात ८. चन्द्रचूल . निर्नामक । बलदेवों के पूर्व भविक नाम -
१. विशाखभूति २. वासुरथ ३. मित्रनंदी ४. महाबल ५. अपराजित ६. अज्ञात ७. अज्ञात ८. विजय ६. शंख । वासुदेवों के पूर्वभविक धर्माचार्य
१. सम्भूत २. सुव्रत ३. सुदर्शनाचार्य ४. श्रेय ५. नन्दन ६. अज्ञात ७. शिवगुप्त ८. महाबल ६. द्रुमसेन । वासुदेवों के पूर्वभव की निदान-भूमियां
१. मथुरा २. कनकपुर ३. श्रावस्ती ४. पोदनपुर ५. प्रभाकरी ६. अज्ञात ७ अयोध्या ८ खड़गपुर ६. अज्ञात । वासुदेवों के निदान के कारण
१. गाय के द्वारा गिरना २. युद्ध में पराजय ३. द्यूत में पराजय ४. स्त्री का हरण ५. भोग ६. अज्ञात ७. राज्य का अपहरण ८. परॠद्धि दर्शन &. एश्वर्य दर्शन ।
८१. प्रभराज ( पहराए ) ( रणे ? ) सू० २४६ ( १ ) :
समवायांग में दो स्थानों (प्रकीर्णक समवाय २४६ तथा २५७ ) पर पहराए' पाठ मिलता है। प्रथम स्थान में 'पहराय' सातवें प्रतिवासुदेव का नाम है और दूसरे स्थान में वह होने वाले पांचवें प्रतिवासुदेव का नाम है । इसका संस्कृत रूप 'प्रमराज' या 'पथराज' हो सकता है । आचार्य हेमचन्द्र ने सातवें प्रतिवासुदेव का नाम ' प्रल्हाद' माना है।' प्रल्हाद का प्राकृतरूप 'पल्हाए' हो सकता है। उसके लिए 'पहराए' रूप निर्माण की आवश्यकता नहीं होती । हरिवंशपुराण में सातवें प्रतिवासुदेव का नाम 'प्रहरण' है। 'पहाए' का इस नाम से संबंध ज्ञात होता है। यहां ऐसी परिकल्पना करना असंगत नहीं
१. अभिधावचिन्तामणि कोषः १/१६३ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org