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के लिए अपना पर्याप्त समय दिया है। उनके मार्ग दर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पर हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं।
'अंगसुताण' भाग १ में समवाओ सूत्र का संपादित पाठ प्रकाशित है। वही पाठ यहां लिया गया है। वहां पाठान्तर पादटिप्पणों में दिए गए हैं । उनके आगे कोष्ठक में संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों के संकेत हैं । पाठ संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों का परिचय 'अंगसुताणि' भाग १ में दिया गया है।
प्रस्तुत सम्पादन में सहयोगी
इसके अनुवाद और टिप्पण - लेख में मुनि दुलहराजजी ने निष्ठापूर्ण प्रयत्न किया है और विषय सूची भी उन्हीं के प्रयत्न से निष्पन्न हुई है। कुछ टिप्पण मुनि श्रीचन्दजी ने लिखें हैं। इसकी संस्कृत छाया साध्वी कनक श्री ने की है और इसका परिशिष्ट मुनि हीरालालजी और मुनि श्रीचन्द्रजी ने तैयार किया है। पांडुलिपि का संशोधन भी मुनि हीरालालजी ने किया। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक साधुओं की पवित्र अंगुलियों का योग है। आचार्य श्री के वरदहस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं, फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं, जिनका इस कार्य में योग है और आशा करता हूं कि वे इस महान् कार्य के अग्रिम चरण में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे ।
आगमों के प्रबन्ध सम्पादक श्री श्रीचन्दजी रामपुरिया तथा स्वर्गीय श्री मदनचंदजी गोठी का भी इस कार्य में निरन्तर सहयोग रहा है ।
आदर्श साहित्य संघ के संचालक व व्यवस्थापक श्री हुनुतमल जी सुराना व जयचन्दलालजी दफ्तरी का भी अविरल योग रहा है । आदर्श साहित्य संघ की सहयुक्त सामग्री ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। एक लक्ष्य के लिए समान गति से चलने वालों की सम प्रवृत्ति में योगदान की परंपरा का उल्लेख व्यवहार- पूर्ति मात्र है । वास्तव में यह हम सबका पवित्र कर्त्तव्य है और उसीका हम सबने पालन किया है ।
आचार्य श्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत हैं। हमें इस कार्य में उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग- दोनों प्राप्त हैं, इसलिए हमारा कार्यपथ बहुत ऋजु हुआ है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं कार्य की गुरुता को बढ़ा नहीं पाऊंगा । उनका आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य - पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशंसा है ।
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- युवाचार्य महाप्रज्ञ
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