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________________ समवायो २६८ समवाय ९८ : सू०५-७ ५. उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढम उत्तरस्यां काष्ठायां सूर्यः प्रथमं षण्मासं ५. प्रथम छह मासी तक उत्तर दिशा में छम्मासं अयमीणे आयान् एकोनपञ्चाशत्तममण्डलगत: गति करता हुआ सूर्य उनचासवें मंडल एगणपंचासतिममंडलगते अष्टनवति एकषष्टिभागान् मुहूर्तस्य । ___ में दिवस-क्षेत्र को , मुहूर्त प्रमाण न्यून अट्ठाणउइ एकसट्ठिभागे मुहत्तस्स दिवसक्षेत्रस्य निवर्ध्य, रजनीक्षेत्रस्य दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता अभिनिवर्ध्य सूर्यः चारं चरति । और रात्रि-क्षेत्र को इसी प्रमाण में रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता गं अधिक करता हुआ गति करता है। सूरिए चारं चरइ। ६. दक्खिणाओ णं कट्ठाओ सूरिए दक्षिणस्यां काष्ठायां सूर्यः द्वितीयं ६. दूसरी छह मासी तक दक्षिण दिशा में दोच्चं छम्मासं अयमीणे षण्मासं आयान् एकोनपञ्चाशत्तम- गति करता हआ सूर्य उनचासवें मंडल एगूणपण्णासइममंडलगते मण्डलगतः अष्टनवति एकषष्टिभागान में रात्री-क्षेत्र को मुहूर्त प्रमाण न्यून अट्ठाणउइ एकसट्ठिभाए मुहुत्तस्स मुहूर्तस्य रजनीक्षेत्रस्य निवऱ्या, रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसक्षेत्रस्य अभिनिवर्ध्य सूर्यः चारं और दिवस-क्षेत्र को इसी प्रमाण में दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं चरति । अधिक करता हुआ गति करता। सूरिए चारं चरइ। रेवतीप्रथमज्येष्ठपर्यवसानानां एकोन- ७. रेवती नक्षत्र से ज्येष्ठा नक्षत्र तक के एगूणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउई विंशत्याः नक्षत्राणां अष्टनवतिः ताराः उन्नीस नक्षत्रों के, तारा प्रमाण से, ताराओ तारग्गेणं पण्णत्ताओ। ताराग्रेण प्रज्ञप्ताः । अठानवे तारा हैं। लगत टिप्पण १. अठानवे तारा (अट्ठाणउताराओ) वृत्तिकार ने नक्षत्रों के ताराओं की संख्या का निर्देश किया है। उनके अनुसार सत्तानवे की संख्या प्राप्त होती है। उन्होंने सत्तानवे की संख्या को ग्रन्थान्तर का अभिमत माना है। उनके अनुसार किसी एक नक्षत्र का एक तारक अधिक होना चाहिए।' सूर्यप्रज्ञप्ति (१०/६२) के कुछ आदर्शों में अनुराधा के पांच तारों वाला पाठ मिलता है। उसकी वत्ति (पत्र १३१) में जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (७/१३१) की दो गाथाएं उद्धृत हैं। उसके अनुसार अनुराधा के चार तारा ही हैं। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति के कुछ आदर्शों में मिलने वाले पांच तारों के उल्लेख के अनुसार अठानवें तारों की संख्या घटित हो जाती १. समवायर्यागवृत्ति, पत्र ६२,६: सर्वतारामीलने यथोक्त ताराग्रमेकोमं ग्रन्थान्तराभिप्रायेण भवति, मधिकृतग्रन्धाभिप्रायेण त्वेषामेकतरस्य एकताराधिकत्वं सम्भाव्यते ततो यथोक्ता तत्संख्या भवतीति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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