SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवायो ३११ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६३-७१ ६३. पासस्स णं अरहो दस पार्श्वस्य अर्हतः दश अन्तेवासिशतानि ६३. अर्हत् पार्श्व के हजार अन्तेवासी अंतेवासिसयाई कालगयाइं कालगतानि व्यतिक्रान्तानि समुद्यातानि कालगत हुए, संसार का पार पा गए, वोडक्कता समज्जायाई छिन्नजातिजरामरणबंधनानि सिद्धानि ऊर्ध्वगामी हुए, जन्म, जरा और मरण छिष्णजाइजरामरणबंधणाई बुद्धानि मुक्तानि अन्तकृतानि के बंधन को छिन्न कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सिद्धाइं बुद्धाई मुत्ताई अंतगडाई परिनिर्वृतानि सर्वदुःखप्रहीणानि। अन्तकृत और परिनिर्वत हुए तथा सर्व परिणिन्वुयाई सन्वदुक्खप्पहीणाई। दुःखों से रहित हुए। ६४. पउमद्दह-पुंडरीयद्दहा य दस-दस पद्मद्रह-पुण्डरीकद्रहौ च दश-दश ६४. पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह हजार-हजार जोयणसयाई आयामेणं पण्णत्ता। योजनशतानि आयामेन प्रज्ञप्तौ । योजन लम्बे हैं। ६५. अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं अनुत्तरोपपातिकानां देवानां विमानानि ६५. अनुत्तरोपपातिक देवों के विमान ग्यारह विमाणा एक्कारस जोयणसयाइं एकादश योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सौ योजन ऊंचे हैं। उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ६६. पासस्स णं अरहओ इक्कारससयाई पार्श्वस्य अर्हतः एकादश शतानि ६६. अर्हत् पार्श्व के वैक्रियलब्धिसम्पन्न वेउन्वियाणं होत्था। वैक्रियकाणां आसन् । ___ मुनि ग्यारह सौ थे। ६७. महापउम-महापुंडरीयदहाणं दो- महापद्म-महापुण्डरीकद्रही द्वे-ढे ६७. महापद्मद्रह और महापुण्डरीकद्रह दो-दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं योजनसहस्राणि आयामेन प्रज्ञप्तौ । हजार योजन लम्बे हैं। पण्णत्ता। ६८. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ६८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के वज्रकांड के वडरकंडस्स उवरिल्लाओ वज्रकाण्डस्य उपरितनात् चरमान्तात् उपरितन चरमान्त से लोहिताक्षकांड चरिमंताओ लोहियक्खस्स कंडस्स लोहिताक्षस्य काण्डस्य अधस्तन के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक हेट्ठिल्ले चरिमंते, एस णं तिण्णि चरमान्तं, एतत् त्रीणि योजनसहस्राणि । अन्तर तीन हजार योजन का है। जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम । पण्णत्ते। ६६. तिगिच्छ-केसरिदहा णं चत्तारि- तिगिच्छ-केसरिद्रही चत्वारि-चत्वारि चत्तारि जोयणसहस्साइं आयामेणं योजनसहस्राणि आयामेन प्रज्ञप्तौ । पण्णत्ता। तिगिच्छद्रह और केसरीद्रह चार-चार हजार योजन लम्बे हैं। ७०. धरणितले मंदरस्स णं पव्वयस्स धरणीतले मन्दरस्य पर्वतस्य बहुमध्य- ७०. धरणीतल (सम-भूतल) में मन्दर पर्वत बहुमज्झदेसभाए रुयगनाभीओ देशभागे रुचकनाभितः चतुर्दिक्षु के वहुमध्यदेशभाग में नाभिरूप रुचक चउदिसि पंच-पंच जोयणसहस्साई पञ्च-पञ्च योजनसहस्राणि अबाधया प्रदेशों से चारों दिशाओं में मन्दर पर्वत अबाहाए मंदरपब्वए पण्णते।। मन्दरपर्वतः प्रज्ञप्तः । का व्यवधानात्मक अन्तर पांच-पांच हजार योजन' का है। ७१. सहस्सारे णं कप्पे विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता। छ सहस्रारे कल्पे पट विमानावाससहस्राणि ७१. सहस्रार कल्प में छह हजार विमान हैं। प्रज्ञप्तानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy