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समवाश्रो
३. छिन्नछेद-नयिक चतुष्क-नयिक ( छिष्णद्देयणइयाई चउवकणइयाई) :
दृष्टिवाद बारहवां अंग है । इसके पांच भेद हैं- ( १ ) परिकर्म, ( २ ) सूत्र, (३) पूर्वगत, (४) प्रथमानुयोग और (५) चूलिका । यहां दृष्टिवाद के दूसरे प्रस्थान ( सूत्र ) में अनेक परिपाटी के सूत्र हैं, इसका उल्लेख है । छिन्नछेद- नयिक
यह सूत्र - रचना की एक परिपाटी है। इसमें सभी सूत्र और अर्थ परस्पर अत्यन्त निरपेक्ष होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि उनमें पौर्वापर्य का संबंध नहीं होता। पहला सूत्र अपने आप में पूर्ण होता है । इसी प्रकार दूसरे, तीसरे आदि सूत्र भी अपने आप में पूर्ण होते हैं । यह निरपेक्ष या स्वतंत्र प्रतिपाद्य की रचना-पद्धति है । यह जैनागम की अपनी मौलिक पद्धति है ।
छछेद-afte
इस परिपाटी के अनुसार सूत्र और अर्थ सापेक्ष होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्ववर्ती सूत्र और अर्थ उत्तरवर्ती सूत्र और अर्थ से संबंधित रहते हैं। यह आजीवक मत की सूत्र - रचना की परिपाटी है ।
त्रिक-नयिक
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त्रैराशिक तीन नयों को स्वीकार करते हैं- ( १ ) द्रव्यास्तिक, ( २ ) पर्यायास्तिक और (३) उभयास्तिक ( द्रव्य-पर्यायास्तिक) । इनकी सूत्र परिपाटी इन तीन नयों पर आधृत होती है ।
वृत्तिकार ने ' त्रैराशिक' को आजीवक मत के आचार्य गोशालक का अनुयायी बतलाया है, क्योंकि वे सभी द्रव्यों को त्रयात्मक मानते हैं, जैसे—जीव, अजीव और जीव-अजीव; लोक, अलोक और लोक- अलोक ।' इस व्याख्या के अनुसार त्रैराशिक मत आजीवक सम्प्रदाय की एक शाखा प्रमाणित होता है ।
नंदी सूत्र में आए हुए 'तेरासिय' शब्द की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने त्रैराशिक और आजीवक की एकता का निर्देश किया है । आजीवक आचार्य जगत् को त्रयात्मक मानते थे और वे तीन नय स्वीकार करते थे । इसीलिए वे त्रैराशिक कहलाते थे ।
नंदी सूत्र के वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने भी त्रैराशिक को आजीवकमतानुयायी माना है ।'
ग्यारह अंगों में केवल स्व-समय का प्रतिपादन है और दृष्टिवाद में स्व-समय और पर समय दोनों का। जयधवला के इस निरूपण से त्रैराशिकों की नय-चिंता का उल्लेख सहज ही बुद्धिगम्य हो जाता है । श्रीगुप्त आचार्य के शिष्य रोहगुप्त ने वीर निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात् त्रैराशिक मत का प्रवर्तन किया। किन्तु वह यहां अभिप्रेत नहीं है ।
समवाय २२ : टिप्पण
चतुष्क-नायिक
जो सूत्र चार नय के अभिप्राय से प्रतिपादित हैं उन्हें चतुष्क-नायिक कहा जाता है। वे चार नय हैं - ( १ ) संग्रह, (२) व्यवहार, (३) ऋजुसूत्र और (४) शब्द । वृत्तिकार के अनुसार नैगम-नय दो प्रकार का होता है - ( १ ) सामान्य ग्राही और (२) विशेषग्राही । सामान्य ग्राही नैगम-नय संग्रह -नय के अन्तर्गत और विशेषग्राही नैगम-नय व्यवहार-नय के अन्तर्गत हो
वैराशिकाश्चाजीविका: ।
४ (क) जयधवला, पृ० १३२ :
एक्का र सहमं गाणं वतव्वं ससमग्र । (ख) वही. पृ० १४८ :
दिवादस्स वत्तव्यं तदुभनो ।
१. समवायांगवृत्ति, पत्र ४० :
इह त्रैराशिका गोशालक मतानुसारिणोऽभिधीयन्ते यस्मात् ते सर्वं व्यात्मकमिच्छन्ति तद् यथा--जीबोऽजीवो जीवाजीवश्चेति तथा लोकोऽलोको लोकालोकश्चेत्यादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधनयमिच्छन्ति तद् यथा - द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिकः, उभयास्तिकश्चेति एतदेव नयनयमाश्रित्य त्रिनयकानीत्युक्तमिति ।
२. नंदी चूर्ण, पृ० ७३ ।
३. नंदी वृत्ति, पृ० ८७ :
५. आवश्यकभाष्य, गा० १३५ ।
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