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समवायो
समवाय १२ : टिप्पण
आर्य महागिरि ने संयुक्त-संभोग की व्यवस्था के साथ ही इनकी व्यवस्था की या इनका विकास उनके उत्तरवर्ती-काल में हुआ, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। नियुक्ति-काल में संभोग के ये विभाग स्थिर हो चुके थे, यह नियुक्ति की गाथा (२०६६) से स्पष्ट है।
स्थानांग सूत्र के निर्देशानुसार पांच कारणों से सांभोगिक को विसांभोगिक किया जा सकता है। यदि संभोग की व्यवस्था आर्य महागिरि से मानी जाए तो यह स्वीकार करना होगा कि स्थानांग का प्रस्तुत सूत्र आर्य महागिरि के पश्चात् हुई आगम-वाचना में संदृब्ध है। इसी प्रकार समवायांग का प्रस्तुत सूत्र भी (१२।२) आर्य महागिरि के उत्तरकाल में संदृब्ध है। निशीथ भाष्यकार ने संभोग-विधि के छ: प्रकार बतलाए हैं --१. ओघ, २. अभिग्रह, ३. दान-ग्रहण, ४. अनुपालना, ५. उपपात और ६. संवास। इनमें से ओघ संभोग-विधि के बारह प्रकार बतलाए गए हैं । समवायांग के प्रस्तुत दो श्लोकों में उन्हीं बारह प्रकारों का निर्देश है । निशीथ भाष्य में भी ये दो श्लोक लगभग उसी रूप में मिलते हैं
उवहि सुत भत्तपाणे, अंजलीपग्गहेति य । दावणा य णिकाए य, अब्भुटाणेति यावरे ॥२०७१॥ कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणेति य । ।
समोसरण सणिसेज्जा, कथाए य पबंधणे ॥२०७२।। निशीथ भाष्य के अनुसार स्थितिकल्प, स्थापनाकल्प और उत्तरगुणकल्प-ये कल्प (आचार-मर्यादा) जिनके समान होते हैं, वे मुनि सांभोगिक कहलाते हैं और जिन मुनियों के ये कल्प समान नहीं होते वे असांभोगिक कहलाते हैं।' १. उपधि-संभोग
इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं के साथ उपधिग्रहण की मर्यादा के अनुसार उपधि का संग्रह किया जाता है। निशीथ भाष्य के अनुसार सांभोगिक साध्वी के साथ निष्कारण अवस्था में उपधि-याचना का संभोग वजित है।' २. श्रुत-संभोग
इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं को श्रुत की वाचना दी जाती है। वाचनाक्षम प्रवतिनी के न होने पर आचार्य साध्वी को वाचना देते हैं।'
३. भक्त-पान-संभोग
इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं के साथ एक मंडली में भोजन किया जाता है । समानकल्प वाली साध्वी के साथ एक मंडली में भोजन नहीं किया जाता।' ४. अंजलि-प्रग्रह-संभोग
इस व्यवस्था के अनुसार सांभोगिक या अन्यसांभोगिक साधुओं को वन्दना की जाती है। साध्वी को साधु वन्दना नहीं करते। साध्वियां पाक्षिक क्षमा-याचना आदि कार्य के लिए साधुओं के उपाश्रय में जाती हैं, तब साधुओं को वन्दना करती हैं। जब वे भिक्षा आदि के लिए जाती हैं तब मार्ग में साधुओं के मिलने पर उन्हें वन्दना नहीं करती हैं।'
१. ठाणं,५/४६ । २. निशीथ भाष्य, गा० २०७० : मोह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणा य उववातो। संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविधी मुणेयन्वो ।। ३. निशीथ भाष्य, गा० २१४६ : ठितिकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णयरे ।
उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स संभोगो । ४. वही, गा० २०७४। ५. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ० ३४७ :
संजतीण जद्द पाइरियं मोतं अण्णा पवत्तिणीमाती वायति पत्थि, पायरियो वायणातीणि सब्वाणि एताणि देति न दोसः। ६. वही, पृ० ३४८ । ७. वही, पृ०३४६ ।
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