________________
समवायो
६२
समवाय १२ : टिप्पण
इन उत्तरगुणों के सम्बन्ध में "संभोग” और “विसंभोग" की व्यवस्था निष्पन्न हुई थी। निशीथ चूर्णिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि "विसंभोग" उत्तरगुण में होता है या मूलगुण में ? इसके उत्तर में आचार्य ने कहा-'वह उत्तरगुण में होता है । मूलगुण का भेद होने पर साधु ही नहीं रहता, फिर सांभोगिक और विसांभोगिक का प्रश्न ही क्या ?
संभोग और विसंभोग की व्यवस्था का प्रारम्भ कब से हुआ, सहज ही यह जिज्ञासा उभरती है। निशीथ के चुणिकार ने इस जिज्ञासा पर विमर्श किया है। उनके अनुसार पहले अर्द्ध-भरत (उत्तर भारत) में सब संविग्न साधुओं का एक ही संभोग था, फिर कालक्रम से संभोग और असंभोग की व्यवस्था हुई और उसके आधार पर साधुओं की भी दो कक्षाएं, सांभोगिक और असांभोगिक, बन गईं।'
चूणिकार ने फिर एक प्रश्न उपस्थित किया है कि कितने आचार्यों तक एक संभोग रहा और किस आचार्य के काल में असंभोग की व्यवस्था का प्रवर्तन हुआ?
इसके उत्तर में भाष्यकार का अभिमत प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है- 'भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर सुधर्मा थे। उनके उत्तरवर्ती क्रमशः जम्बू, प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूत और स्थूलभद्र-ये आचार्य हुए हैं। इनके शासन-काल में एक ही संभोग रहा है।
स्थूलभद्र के दो प्रधान शिष्य थे-आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती। इनमें आर्य महागिरि ज्येष्ठ थे और आर्य सुहस्ती कनिष्ठ । आर्य महागिरि गच्छ-प्रतिबद्ध-जिनकल्प-प्रतिमा वहन कर रहे थे और आर्य सुहस्ती गण का नेतृत्व संभाल रहे थे । सम्राट संप्रति ने आर्य सहस्ती के लिए आहार, वस्त्र आदि की व्यवस्था कर दी। सम्राट ने जनता में यह प्रस्तावित कर दिया कि आर्य सुहस्ती के शिष्यों को आहार, वस्त्र आदि दिया जाए और जो व्यक्ति उनका मूल्य चाहे, वह राज्य से प्राप्त करे । आर्य सुहस्ती ने इस प्रकार का आहार लेते हुए अपने शिष्यों को नहीं रोका। आर्य महागिरि को जब यह विदित हुआ, तब उन्होंने आर्य सुहस्ती से कहा-'आर्य! तुम इस राजपिण्ड का सेवन कैसे कर रहे हो?' आर्य सुहस्ती ने इसके उत्तर में कहा---'यह राजपिण्ड नहीं है।' इस चर्चा में दोनों युग-पुरुषों में कुछ तनाव उत्पन्न हो गया। आर्य महागिरि ने कहा'आज से तुम्हारा और मेरा संभोग नहीं होगा-परस्पर भोजन आदि का सम्बन्ध नहीं रहेगा। इसलिए तुम मेरे लिए असांभोगिक हो।' इस घटना के घटित होने पर आर्य सुहस्ती ने अपने प्रमाद को स्वीकार किया, तब फिर दोनों का संभोग एक हो गया। यह संभोग और विसंभोग की व्यवस्था का पहला निमित्त है। आर्य महागिरि ने आने वाले युग का चिन्तन कर संभोग और विसंभोग की व्यवस्था को स्थायीरूप प्रदान कर दिया।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-इनसे सम्बन्धित संभोग और असंभोग का विकास कब हुआ, इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है।
१. निशीय भाष्य, गां० २०६६ (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ. ३४१ :
संभोगपरूवणता सिरिघर-सिवपाहुडे व संभुत्ते । दसणणाणचरित्ते, तवहेउं उत्तरगुणेसु ॥ २. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ. ३६३ : विसंभोगो कि उत्तरगुणे मलगणे ?
पायरियो भणति-'उत्तरगुणे।' ३. वही, पृ. ३५६ :
एस य पुम्मं सव्वसंविग्गाणं अड्ढमरहे एक्कसंभोगो पासी, पच्छा जाया इमे संभोइया इमे प्रसंभोइया। 7. निशीय चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ० ३६० : सीसो पुच्छति–कति पुरिसजुगे एक्को संभोगो मासीत् ? कम्मि वा पुरिसे असंभोगो पयट्टो ? केण वा कारणेण? ततो भणति-संपतिरण्णुप्पत्ती सिरिघर उज्जाणि हेतु बोधव्वा ।
प्रज्जमहागिरि हत्यिप्पभिती जाणह विसंभोगो ॥२१५४।।
बद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो। तस्स जंबणामा । तस्स वि पभवो। तस्स से जंभवो। तस्स वि सीसो जस्समद्दो। जस्समद्दसीसो संभूतो। संभूयस्स थूलभद्दो । थुलभ जाव सब्वेसि एक्कसंभोगो पासी। ५. वही, पृ० ३६२ : ततो अज्जमहागिरी प्रज्जसुत्थि भणति-प्रज्जभिति तुम मम प्रसंभोतियो। एवं पाहुदं-कलह इत्यर्थः । ततो अज्जसुहत्थी पच्चाउट्टो मिच्छादुक्कडं करेति, ण पुणो मेण्डामो। एवं भणिए संभुत्तो। एत्थ पुरिसे विसंभोगो उप्पण्णो। कारणं च भणियं । ततो अज्जमहागिरी उवउतो, पाएण मायाबहुलामण्य त्ति काउं विसंभोगं ठवेति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org