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१. भिक्षु प्रतिमाएं बारह हैं (बारस भिक्खुपडिमाओ)
भिक्षु प्रतिमाएं उन भिक्षुओं द्वारा आचरित होती हैं, जिनका शारीरिक संहनन सुदृढ़ और श्रुत ज्ञान विशिष्ट होता है । पंचाशक के अनुसार जो मुनि विशिष्ट संहनन-संपन्न, धृति-संपन्न और शक्ति-संपन्न तथा भावितात्मा होता है, वही गुरु की आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। उसकी न्यूनतम श्रुत-संपदा नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुत-संपदा कुछ न्यून दस पूर्व की होनी चाहिए।'
पहली प्रतिमा एक मास की होती है और उसमें मुनि आहार तथा पानी की एक-एक दत्ति लेता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। सातवीं प्रतिमा में मुनि आहार तथा पानी की सात-सात दत्तियां लेता है। आठवीं प्रतिमा सात अहोरात्र की होती है। उसमें मुनि उपवास करता है, गांव के बाहर रहता है और उत्तान आदि आसन में स्थित होता है। नौवीं प्रतिमा भी सात अहोरात्र की होती है। उसमें भी उपवास करना, गांव के बाहर रहना तथा उत्कटुक आदि आसन में स्थित रहना होता है । दसवीं प्रतिमा भी आठवीं की तरह है, परन्तु उसमें वीरासन आदि आसनों में स्थित रहना होता बारहवीं प्रतिमा तीसरे उपवास में की जाती है। इसमें मुनि की सटे हुए पैर, आगे की ओर कुछ झुका हुआ शरीर तथा अनिमेष
टिप्पण
है । ग्यारहवीं प्रतिमा दूसरे उपवास में करनी होती है। शारीरिक मुद्रा इस प्रकार होती है- प्रलम्बन बाहु, नयन ।
भगवान् महावीर ने म्लेच्छ प्रदेश दृढभूमि के पोलास नामक चैत्य में यह महा-प्रतिमा की थी। उसमें वे एक अहोरात्र तक एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाये रहे। उनमें भी वे अचित्त पुद्गल को ही देखते सचित्त से दृष्टि का संहरण कर लेते थे । ' उक्त विवेचन के आधार पर प्रतिमाओं का यंत्र निम्न रूप में बनता है
निवास
नाम
एकमासिकी भिक्षु प्रतिमा द्विमासिकी भिक्षु प्रतिमा
कालमान एक मास दो मास
त्रिमासिकी भिक्षु प्रतिमा चतुर्मासिकी भिक्षु प्रतिमा पञ्चमासिकी भिक्षु प्रतिमा षण्मासिकी भिक्षु प्रतिमा सप्तमासिकी भिक्षु प्रतिमा आठवीं भिक्षु प्रतिमा
तीन मास चार मास पांच मास छह मास सात मास सात दिन-रात
सात दिन-रात
नौवीं भिक्षु प्रतिभा दसवीं भिक्षु प्रतिमा सात दिन-रात ग्यारहवीं भिक्षु प्रतिमा एक दिन-रात बारहवीं भिक्षु प्रतिमा एक रात
१. श्रीपंचाशक १८ / ४, ५ :
पडिवज्जइ एयाम्रो संघयणं धिइजुम्रो महासत्तो । पडिमा भावियया सम्मं गुरुणा प्रणुष्णाम्रो || गच्छे च्चि निम्माम्रो, जा पुव्व दस भवे असंपूण्णा । णवमस्स तइय वत्थू होइ जणो सुयाहिगमो || २. समवायांगवृत्ति, पत्र २१ ।
३. आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २८८ ।
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आहार- पानी का परिमाण तपस्था
एक-एक दत्ति
दो-दो दत्तियां
तीन-तीन दत्तियां
चार-चार दत्तियां
पांच-पांच दत्तियां
छह-छह दत्तियां
सात-सात दत्तियां
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उपवास
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दो उपवास तीन उपवास
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आसन
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गांव के बाहर उत्तान आदि
उत्कटुक आदि वीरासन आदि
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२. संभोग बारह प्रकार का है (दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ते)
इस शब्द में श्रमण परम्परा में होने वाले अनेक परिवर्तनों का इतिहास है। भोजन, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-
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कायोत्सर्ग आदि ।
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