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समवायो
प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण १४-१७
१४. छठे पोट्टिल भवग्रहण (छठे पोट्टिलभवग्गहणे) सू०८६ :
भगवान् महावीर के छह भवों की संगति वृत्तिकार ने इस प्रकार प्रस्तुत की है१. पोट्टिल नाम का राजपुत्र । २. देवभव । ३. अग्रछत्रा नगरी में नन्दन नाम का राजपुत्र । ४. दशवें देवलोक में देवरूप में उत्पन्न । ५. ब्राह्मण कुण्डग्राम में देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरण । ६. त्रिशला महारानी के गर्भ से उत्पन्न ।
इन छह भवों को ग्रहण किए बिना प्रस्तुत सूत्र का कथन संगत नहीं होता। इसलिए यह यथार्थ ही कहा है कि तीर्थंकर भवग्रहण से पूर्व छठे भव में। १५. गणिपिटक के बारह अंग हैं (दुवालसंगे गणिपिडगे) सू० ८८-१३४ :
तुलना के लिए देखें-नंदी, सूत्र ८१-१२६ । १६. आचार पांच प्रकार का है (से समासओ पंचविहे) सू० ८६ :
आचार के पांच प्रकार हैं१. ज्ञान आचार-श्रुतज्ञान के अध्ययन का व्यवहार । २. दर्शन आचार-सम्यक्त्वी का व्यवहार या दृष्टिकोण । ३. चारित्र आचार-साधुओं का समिति-गुप्तिरूप व्यवहार । ४. तपःआचार-बारह प्रकार के तप का अनुष्ठान । ५. वीर्य आचार-ज्ञान आदि के अर्जन में शक्ति का अगोपन ।'
१७. सू० ८६
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ शब्दों का अर्थ इस प्रकार है१. वाचना-सूत्र और अर्थ देना। २. अनुयोगद्वार-उपक्रम, अध्ययन । ३. प्रतिपत्ति-मतान्तर। ४. वेढा-वेष्टक नाम का छन्द अथवा एकार्थक शब्दों का संकलन । ५. नियुक्ति-सूत्र के प्रतिपाद्य को स्पष्ट करने वाली युक्ति ।
प्रस्तुत प्रसंग में आचारांग सूत्र के दो श्रुतस्कंध और पद परिमाण अठारह हजार बताया है । अठारहवें समवाय में भी चूलिकासहित आचारांग का पद परिमाण अठारह हजार बताया है। किन्तु वृत्तिकार ने वहां स्पष्ट करते हुए लिखा है
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययन हैं और वह नव ब्रह्मचर्य के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में पांच १. समशयांगवृत्ति, पन्न १६ । 'समणे' त्यादि, यतो भगवान् पोट्टिलाभिधान राजपुत्रो बभूव, ततवर्षकोटि प्रवज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदितिद्वितीयः ततो नन्दनाभिधानो राजसूनः छवामनगाँ जज्ञे इति तृतीयः, तत्रवर्षलक्षणं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशम देवलोके पुष्पोन्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मण कुण्डग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानाया: कुक्षावृत्पन्न इति पञ्चमस्तता व्यशीतितमे दिवसे क्षत्रिय - कूण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थ महाराजस्य विशलाभिधान पार्यायाः कुक्षाविन्द्रवचनकारिणा हरिनगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं षष्टं श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठ भवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठुच्यते तीर्थकर भवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे । २. वही, पन्न १.०: ज्ञानाचार:-श्रुतज्ञानविषयः कालाध्ययनविनयाध्ययनादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा, 'दर्शनाचार:' सम्यक्तवतां व्यवहारो नि:शङ्कितादिरूपोऽष्टधा, 'चारित्राचार' चारितिणां समित्यादिपालनात्मको व्यवहारा द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठितिः, 'वोर्याचारो' ज्ञानादिप्रयोजनेषु वीर्यस्यागोपनम् ।
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