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________________ समवायो २५५ समवाय ७२: टिप्पण लिए लौकिकशास्त्र देखने का निर्देश दिया है।' ५. लेख (लेहं) लेख के दो प्रकार हैं-लिपि और विषय । लिपि अनेक प्रकार की है-ब्राह्मी, यवनी आदि-आदि ।' वृत्ति में लिपि के विषय, आधार तथा अक्षरों की अभिव्यक्ति के प्रकार बतलाए गए हैं। लिपि के विषय हैं-स्वामि-भृत्य, पिता-पुत्र, गुरुशिष्य, भार्या-पति, शत्रु-मित्र आदि । पत्र (ताडपत्र, भोजपत्र आदि), वल्क, काष्ठ, दन्त, लोह, ताम्र, रजत आदि-ये लिपि के आधार हैं।' लेखन, उत्कीर्ण, स्यूत-सीना, व्यूत-बुनना, छिन्न, भिन्न, दग्ध और संक्रान्ति-ठप्पा मारना-ये अक्षरों की अभिव्यक्ति के साधन हैं। प्राचीनकाल में कागज पर विविध प्रकार की स्याही से लिखा जाता था। ताडपत्र व भोजपत्र पर तीखी नोक वाली लोहे की कलम से अक्षर उत्कीर्ण किए जाते थे । आज जिस प्रकार कपड़ों पर कसीदा निकाला जाता है, उसी प्रकार प्राचीन भारत में डोरों से सीकर कपड़ों पर चित्र या नाम भी उल्लिखित कर देते थे। किसी पदार्थ को छील कर, काष्ठ आदि को भेद कर-टुकड़े-टुकड़े कर-अक्षरों के आकार बना लिए जाते थे। किसी वस्तु को अत्यन्त गर्म कर काष्ठ पर उसको इधर-उधर घुमा कर अक्षर बनाए जाते थे । संक्रान्ति से अक्षरों को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया आज के लिथो या मुद्रण से मिलती है। अत्यन्त सूक्ष्म लिपि में लिखना, अति-स्थूल लिखना, विषमता से लिखना, पंक्तियों की वक्रता, असमान वर्गों को सदृशता से लिखना, (अर्थात् 'प' और 'य' लिखते समय उनके आकार-प्रत्याकार को एक बना देना) तथा अक्षरों के अवयवों का विभाग न करना, जैसे-वरवणिका के स्थान हर 'वखणिका' लिख देना, ये सारे लेखन के दोष माने जाते थे। वर्तमान में ईस्वीसन् की दूसरी शताब्दी के ताडपत्रीय लेख तथा चौथी शताब्दी के भोजपत्रीय लेख उपलब्ध होते हैं । कागज पर लिखी हुई अत्यन्त प्राचीन प्रति ईस्वी सन् की पांचवीं शताब्दी की उपलब्ध होती है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ७८,७६: ......"कला : विज्ञानानीत्यर्थः, ताश्च कलनीयभेदाद् द्विसप्ततिर्भवन्ति, तन्न लेखन...............। नाट्यकला..."स्वरूपं चान भरतशास्त्रादबसेयम्...... गीतकला..."इयं च विशाखिलशास्त्रादवसेया'.....। वाइयं ति वाद्यकला, सा च ततविततशुषिरधनवाद्यानां चतुष्पञ्च (व्ये) कप्रकारतया त्रयोदशधा''इत्यादिक : कलाविभागो लौकिकशास्त्रेभ्योऽवसेयः, वह च द्विसप्ततिरिति कलासंख्योक्ता, बहुतराणि च सूत्रे तन्नामाग्यपलभ्यन्ते, तवच कासांचित् कासुचिदन्तायोवगन्तव्य इति। २. (क) समवायांगवृत्ति, पत्न ७८, ७६ । (ब) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्ष २, सू०३०, वृत्ति पन १३६-१३९ । ३. समवायांगवृत्ति, पत्न ७८ : पनवल्ककाष्ठदम्तलोहताम्ररजतादयोऽक्षराणामाधाराः। 1. वही पत्र ७८ : लेखनोत्कीर्णनस्यूतव्युतछिन्नभिन्नदग्धसंक्रान्तितोऽशराणि भवन्ति । ५. वही, पन्न ७८ : पतिकायमतिस्थौल्यं, वैषम्यं पंक्तिवत्रता । पतुल्यानाञ्च सादृश्यमभागोऽवयवेषु च ॥ ६. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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