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________________ समवायो ३६४ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ६४-६५ ६४. सू० २२६ : देखें-हरिवंशपुराण, ६०/२४५-२४६ । ६५. सू० २३० (१,२) : श्वेताम्बर' तथा दिगम्बर–दोनों परंपराओं में तीर्थंकरों के दीक्षाकालीन तप का उल्लेख समान हैवासुपूज्य उपवासमल्ली और पार्श्व- तेला (तीन उपवाम) शेष बीस तीर्थंकर- बेला (दो उपवास) तीर्थंकर सुमति के दीक्षाकाल में कोई तप नहीं था। तीर्थंकरों के प्रथम भिक्षा (दीक्षाकालीन तप की पारणा) के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्ब रपरंपरा में भिन्न-भिन्न उल्लेख प्राप्त होते हैं। समवायांग में संकलित संग्रह गाथाओं के अनुसार प्रथम भिक्षा का क्रम इस प्रकार है ऋषभ-प्रथम भिक्षा एक वर्ष बाद । शेष तीर्थंकर-प्रथम भिक्षा दूसरे दिन । दिगम्बर साहित्य के अनुसारऋषभ---प्रथम भिक्षा एक वर्ष बाद । शेष तीर्थंकर-प्रथम भिक्षा तीसरे दिन । श्वेताम्बर साहित्य में प्राप्त प्रथम भिक्षा के उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि बेले और तेले की तपस्या में दीक्षित होने वाले तीर्थंकर तपस्या के अन्तिम दिन दीक्षित होते हैं और दूसरे दिन उनको प्रथम भिक्षा प्राप्त हो जाती है-तपस्या का पारणा हो जाता है। उत्तरपुराण से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। वहां ऐसे अनेक उल्लेख हैं कि तीर्थंकर दीक्षित होने के दूसरे ही दिन भिक्षा के लिए जाते हैं और उन्हें प्रथम भिक्षा प्राप्त होती है। किन्तु हरिवंश पुराण में जो तीसरे दिन की बात आई है, उसका आशय ज्ञात नहीं होता। यदि हम यह माने कि तीर्थंकरों ने दीक्षित होते समय उपवास, बेले या तेले की तपस्या स्वीकार की तो भी तीसरे दिन भिक्षा-प्राप्ति की बात संगत नहीं बैठती और यदि हम यह माने कि वे तीर्थंकर उन-उन तपस्याओं में दीक्षित हुए तो भी उक्त तथ्य की संगति नहीं होती। क्योंकि सभी का पारणा दूसरे दिन नहीं होता-किसी का दूसरे दिन, किसी का तीसरे दिन और किसी का चौथे दिन होता । लिपि या मुद्रण के प्रमाद से द्वितीय दिन के स्थान में तृतीय दिन हो गया हो, ऐसी संभावना की जा सकती है। ___ इस प्रकार विमर्श करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकर उपवास, वेले या तेले के दिन दीक्षित होते हैं और दूसरे दिन प्रथम भिक्षा प्राप्त करते हैं। १. (क) समवायांग, प्रकीर्णक समवाय, २२८ । (ख) आवश्यक नियुक्ति, गाथा २२८, प्रवचूणि प्रथम भाग, पृष्ठ २०३ : सुमईत्थ निच्चमत्तेण, निग्ग मो वासुपूज्ज जियो चउत्थेम। पासो मल्लावि म भट्टमेण सेसा उ छद्रेणं ॥ २. हरिवंशपुराण ६०/२१६, २१७ : निष्क्रांति: सुमतेर्भुक्त्वा, मल्ले: साष्टमभक्तका। तथा पार्श्वजिनस्यापि, जयाजस्य चतुर्थका ।। षष्ठमक्तमृतां दीक्षा, शेषाणं तीर्थदर्शिनाम् । ३. समवायांग, प्रकोणक समवाय, २३० । 1. हरिवंशपुराण /R0 वर्षेण पारणाचस्य, जिनेन्द्रस्य प्रकीर्तिता । वतीयदिबसेऽन्येषां पारणा प्रथमा पता ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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