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________________ समवाप्रो ३६७ प्रकीर्णक समवाय : सू० २२५-२२६ ६. चलचवलकंडलधरा, ६. चलचपलकुण्डलधराः, सच्छंदविउवियाभरणधारी । स्वच्छन्दविकृताभरणधारिणः । सुरअसुरवंदियाणं, सुरासुरवन्दितानां, वहंति सीयं जिणिवाणं ॥ वहन्ति शिबिकां जिनेन्द्राणाम् ।। ७. पुरओ वहति देवा, ७. पुरतो वहन्ति देवाः, नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि। नागाः पुनः दक्षिणे पावें । पच्चस्थिमेण असूरा, पश्चिमेन असुराः, गरुला पुण उत्तरे पासे ॥ गरुडाः पुनः उत्तरे पावं ।। को धारण किए हुए, अपनी इच्छा से विनिर्मित आभरणों को धारण किए हुए, सुर-असुरों से वंदित जिनवरों की शिबिका को वहन करते हैं। पूर्व पार्श्व में देवता, दक्षिण पार्श्व में नागकुमार, पश्चिम पार्श्व में असुरकुमार और उत्तर पार्श्व में गरुड देव उसे वहन करते हैं। य २२५.१. उसभो बारवईए अवसेसा निक्खंत्ता विणीयाए, १. ऋषभश्च अरिद्ववरणेमी। द्वारवत्या तित्थयरा, अवशेषाः जम्मभूमोसु ॥ निष्क्रान्ता विनीतायाः, २२५. भगवान् ऋषभ ने विनीता नगरी से, अरिष्टवरनेमिः। अरिष्टनेमि ने द्वारवती से और शेष तीर्थकराः, तीर्थङ्करों ने अपनी-अपनी जन्मभूमि से जन्मभूमिभ्यः ।। निष्क्रमण किया था-प्रव्रज्या के लिए घर से निकले थे। २२६. १. सब्वेवि एगदूसेण, गिया जिणवरा चउवीसं। ण य णाम अलिगे, ण य गिहिलिगे कुलिगे व॥ १. सर्वेऽपि __ एकदूष्येण, २२६. सभी चौबीस तीर्थङ्कर एक दूष्य से निर्गता जिनवराः चतुविशतिः । निर्गत हए थे, अन्यलिंग, गहिलिंग या न च नाम अन्यलिङ्गे, कुलिंग से नहीं। न च गृहिलिङ्गे कुलिङ्गे वा।। २०. .एक्को भगवं वीरो, १. एको भगवान् वारः, २२७. भगवान् महावीर अकेले प्रवजित हुए पासो मल्ली य तिहि-तिहिं सहि। पार्श्वः मल्ली च त्रिभिः त्रिभिः शतैः थे । पार्श्वनाथ और मल्लीनाथ तीन भयपि वासुपुज्जो, भगवानपि वासुपूज्यः, । सौ-तीन सौ पुरुषों के साथ और छहिं पुरिससएहि निक्खंत्तो॥ षभिः पुरुषशतैः निष्क्रान्तः ।। भगवान् वासुपूज्य छह सौ पुरुषों के २. उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं, २. उग्राणां भोगानां राजन्यानां, साथ प्रवजित हुए थे। भगवान् ऋषभ च खत्तियाणं च। च क्षत्रियाणां च। चार हजार उग्र, भोग (भोज), चाहिं सहस्सेहिं उसभो, चतुभिः सहस्रः ऋषभः, राजन्य और क्षत्रियों के साथ प्रवजित सेसा उ सहस्सपरिवारा॥ शेषास्तु सहस्रपरिवाराः ॥ हुए थे और शेष तीर्थङ्कर हजार-हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित हुए थे। २२१.१.समइत्थ णिच्चभत्तंण, णिग्गओ वासुपुज्जो जियो चउत्थेणं। पासो मल्ली वि य, अट्ठमेण सेसा उ छठेणं ॥ १. सुमतिः अत्र नित्यभक्तेन, २२८. भगवान् सुमति नित्यभक्त (उपवास निर्गत: वासुपूज्य: जिनः चतुर्थेन। रहित) प्रवजित हुए, वासुपूज्य चतुर्थ पावः मल्ल्यपि च, भक्त (एक उपवास), पार्श्व और अष्टमेन शेषास्तु षष्ठेन ॥ मल्ली अष्टम भक्त (तीन उपवास) और शेष बीस तीर्थङ्कर छट्ठ भक्त (दो उपवास) कर प्रव्रजित हुए थे। २२९. एएसि णं चउवीसाए तित्थगराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां २२६. इन चौबीस तीर्थङ्करों को प्रथम भिक्षा चउवीसं पढमभिक्खादया होत्था, चतुर्विंशतिः प्रथमभिक्षादातारो बभूवुः, देने वाले ये चौवीस व्यक्ति थे, जैसेतं जहा तद्यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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