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टिप्पण
१. सूत्र १
प्रस्तुत समवाय में तेरह क्रियास्थान निर्दिष्ट हैं। क्रिया का अर्थ है-कर्म-बंधन की हेतुभूत चेष्टा और स्थान का अथ है-भेद-पर्याय ।
आवश्यक सूत्र की वृत्ति में हरिभद्रसूरी ने इन तेरह क्रियाओं के वाच्यार्थ को स्पष्ट करने वाली सतरह गाथाओं का उल्लेख किया है।
इन तेरह क्रियाओं का उल्लेख सूत्रकृतांग २/२/३-१७ में विस्तार से हुआ है। इनके तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखें
ठाणं २/२-३७ के टिप्पण पृष्ठ ११३-११६ । २. प्राणायु पूर्व के [पाणाउस्स णं पुव्वस्स]
पूर्व विशाल ज्ञानराशि की एक संज्ञा है । ये चौदह हैं। इनमें 'प्राणायु'-बारहवां पूर्व है । इसमें प्राणियों आर आयुष्य विषयक विस्तार से चर्चा है । उसके तेरह वस्तु-अध्ययन हैं।' ३. प्रयोग [पओगे]
प्रयोग का अर्थ है-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । उन्हें योग कहा जाता है। वे पन्द्रह हैं--मन के चार, वचन के चार और काया के सात । प्रस्तुत आलापक में तेरह का उल्लेख है। इनमें प्रथम चार मन के, पांच से आठ-ये चार वचन के तथा शेष पांच [६-१३] काया के प्रयोग हैं। तिर्यञ्च जाति के जीवों के आहारकशरीर काय-प्रयोग तथा आहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-ये दो कायप्रयोग नहीं होते। ये केवल संयत मुनियों के ही होते हैं।"
१. समवायांगवृत्ति, पव २४:
करणं किया, कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा, तस्या : स्थानानि भेदा: पर्याया: क्रियास्थानानि । २. मावस्यकवृत्ति, भाग १, पृष्ठ १०६ । 1. सयवार्यागवृत्ति, पत्न २५:
यन प्राणिनामायुविधान सभेदमभिधीयते-तत्प्राणायुादशं पूर्व तस्य दयोदश वस्तूनि-प्रध्ययनवद्विधागविशेषाः। इ.समवायांगवृत्ति, पत्र २५ प्रयोजनं-मनोवाक्कायानां व्यापारणं प्रयोग: स त्रयोदशविधः, पञ्वदशानां प्रयोगाणां मध्ये माहारकाहारकमिश्रलक्षणकायप्रयोगद्वयस्य तिरश्चामभावात्. तो हि संयमिनामेव स्तः, संयमश्च संवतमनुष्याणामेव न तिरश्चामिति, तत्र सत्यासत्योभयानुभयस्वभावाश्चत्वारो मन:प्रयोगा: बायोगाप्रवेति प्रष्टो पुनरोदारिकादयः पञ्च कायप्रयोगा: एवं त्रयोदशेति ।
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