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समवाप्रो
३८६ प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण २२-२७ २२. दस अध्ययन " (दस अज्झयणा') सू०६१ :
__स्थानांग सूत्र के दस स्थान हैं। दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान के चार-चार उद्देशक, पांचवें स्थान के तीन उद्देशक और शेष छह स्थानों के एक-एक उद्देशक है। इस प्रकार सारे ४+४+४+३+६ इक्कीस उद्देशन काल हैं।'
२३. एकोत्तरिका (एगुत्तरिय ) सू० ६२ :
वृत्तिकार का कथन है कि सौ की संख्या तक एक-एक के परिमाण से वृद्धि होती गई है। यह एकोतरिका परिवृद्धि है। आगे वह क्रम नहीं है। २४. चौरासी हजार पद (चउरासीई पयसहस्साई) सू० ६३ :
प्रस्तुत सूत्र के चौरासी हजार पद माने हैं। सामान्यतः यह मान्यता है कि प्रथम अंग आचारांग से द्वितीय अंग का पद प्रमाण द्विगुणित होता है। इसी प्रकार भगवती का पद प्रमाण समवायांग से दुगुना दो लाख अस्सी हजार होना चाहिए।
किन्तु वह यहां इष्ट नहीं है। २५. उनतीस अध्ययन (एगणतीसं अज्झयणा) सू०६४ :
ज्ञाताधर्मकथा अंग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में घटित घटनाओं के उन्नीस उदाहरण प्रस्तुत हैं और दूसरे श्रुतस्कंध में दस धार्मिक कथाएं हैं। इसी के आधार पर ज्ञाता और धर्मकथा-इन दो पदों से यह नाम व्युत्पन्न हुआ है।
प्रस्तुत प्रसंग में प्रथम श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन ही विवक्षित हैं। २६. वर्ग (वग्गा) सू०६४
वर्ग का अर्थ है-समूह । ये दस हैं। यहां यह शब्द अध्ययन के अर्थ में प्रयुक्त है। २७. सू० ६४ :
ज्ञाताधर्म कथा आगम के दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन हैं। प्रथम दस अध्ययनों में आख्यायिका की संभावना नहीं है। शेष नौ अध्ययनों में आख्यिायिकाएं हैं। प्रत्येक अध्ययन की ५४०-५४० आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका की ५००-५०० उप-आख्यायिकाएं हैं और प्रत्येक उप-आख्यायिका की ५००-५०० आख्यायिका-उप-आख्यायिकाएं हैं। उनका कुल योग Ex५४०४५००४५००=१२१५०००००० । दूसरे श्रुतस्कंध के दस वर्ग (अध्ययन) हैं। प्रत्येक वर्ग में ५००-५०० आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका की ५००-५०० उप-आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक उप-आख्यायिका की ५००-५०० आख्यायिका-उप-आख्यायिकाएं हैं। उनका कुल योग है-१०४५००४५००-५००=१२५००००००० । वत्तिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में प्रतिपादित साढे तीन करोड़ आख्यायिकाओं की संख्या की संगति करते हुए लिखा है कि पूनरुक्त कथनों
का शोधन कर देने पर यह संख्या प्राप्त होती है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र १०४-१०५:
एकविंशतिकद्देशनकालाः कथं? द्वितीयततीयचतुर्थेष्वध्ययनेषु चत्वारश्चत्वार उद्देशका: पञ्चमे नय इत्येते पञ्चदश, शेषास्तु षट, षण्णामध्ययनानां षद्देशनकालत्वादिति । २. वही, पन्न १.१:
तन शतं यावदेकोत्तरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति। ३, वही, पत्र १०७-१०८:
चतुरशीति: पदसहस्राणि पदाग्रेणेति समवायापेक्षया द्विगूणताया इहानाश्रयणदन्यथा तद्विगुणत्वे वे लक्षे प्रष्टाशीतिः सहस्राणि च भवन्तीति । ४. वहीं, पत्र ११०: 'नायाधम्मकहासुग' मित्यादि कण्ठ्यमानिगमनात्, नवरं 'एकूणवीसमज्झयण' ति प्रथमथ तस्कन्धे एकोनविंशतिद्वितीये च दर्शति, तथा 'दस घम्मकहाण बग्गा'। ५. वही, पत्र ११0: वर्ग इति समूहः ततश्चाधिकारसमूहात्मकान्यध्ययनान्येव दश वर्गा दृष्टव्याः । वही, पन ११०।
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