SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवायो ४७ समवाय १० : सू० १६-२५ १६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां देवानां १६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं दस पलिओवमाइं दश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। की स्थिति दस पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। २०. बंभलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं ब्रह्मलोके कल्पे देवानां उत्कर्षेण दश २०. ब्रह्मलोककल्प के देवों की उत्कृष्ट दस सागरोवमाइं ठिई पण्णता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति दस सागरोपम की है। २१. लंतए कप्पे देवाणं जहण्णणं लान्तके कल्पे देवानां जघन्येन दश २१. लान्तककल्प के देवों की जघन्य स्थिति दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। दस सागरोपम की है। २२. जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं ये देवा घोषं सुघोषं महाघोषं नन्दिघोषं २२. घोष, सुघोष, महाघोष, नंदीघोष, नंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्मं सुस्वरं मनोरमं रम्यं रम्यकं रमणीयं सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, रम्मगं रमणिज्जं मंगलावत्तं मंगलावर्त ब्रह्मलोकावतंसकं विमानं मंगलावर्त और ब्रह्मलोकावतंसक बंभलोगवडेंसगं विमाणं देवत्ताए देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षण विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले उववण्णा, तेसि णं देवाणं दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। देवों की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई की है। पण्णत्ता। २३. ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं ते देवा दशानामर्द्धमासानां आनन्ति वा २३. वे देव दस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्वसन्ति उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। वा। २४. तेसि णं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहिं तेषां देवानां दशभिर्वर्षसहस्रराहारार्थः २४. उन देवों के दस हजार वर्षों से भोजन आहारट्ठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है। २५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २५. कुछ भव-सिद्धिक जीव दस बार जन्म दसहिं भवग्गहहिं सिन्झिस्संति दशभिर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिबुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- निर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अंत निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करेंगे। करिस्संति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy