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१. श्रमण-धर्म दस प्रकार का ( दसविहे समणधम्मे)
प्रस्तुत आलापक में श्रमण-धर्म के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं। स्थानांग सूत्र के पांचवें स्थान के दो सूत्रों ( ३४-३५ ) में पांचपांच श्रमण-धर्मो के तथा दसवें स्थान के १६ वें सूत्र के दस धर्मों का उल्लेख हुआ है। स्थानांग की वृत्ति के अनुसार इनका अर्थ यह है'
१. क्षान्ति - क्रोध निग्रह |
२. मुक्ति- लोभ निग्रह ।
३.
आर्जव - माया निग्रह |
४.
५.
६.
७.
८.
ε.
१०.
त्याग - विसर्जन |
ब्रह्मचर्यवास - कामभोग-विरति ।
हरिभद्रसूरी ने आवश्यकवृत्ति में श्रमण-धर्म के दस प्रकार ये माने हैं- क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य।' उन्होंने मतान्तर का उल्लेख भी किया है। उसके अनुसार दस धर्म ये हैं- क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, तप, संयम, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ।'
विशेष विवरण के लिए देखें - ठाणं, १०/१६ का टिप्पण नं० ७, पृष्ठ ६५६-६६१ ।
मार्दव - मान निग्रह |
लाघव - उपकरणों की अल्पता, ऋद्धि, रस और सात- इन तीनों गौरवों का त्याग ।
सत्य — काय - ऋजुता, भाव ऋजुता, भाषा ऋजुता और अविसंवादन योग- कथनी करनी की समानता ।
संयम - हिंसा आदि की निवृत्ति ।
तप - बारह प्रकार की तपस्या ।
२. चित्त की समाधि के स्थान ( हेतु) (चित्तसमाहिट्ठाणा )
समाधि शब्द के अनेक अर्थ हैं। दशवैकालिक के वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इसके तीन अर्थ किए हैं—हित, सुख और स्वास्थ्य | अगस्त्य सिंह स्थविर ने दशवैकालिक चूर्णि में समाधि का अर्थ गुणों का स्थिरीकरण या स्थापन किया है।'
चित्त की समाधि का अर्थ है-मन की समाधि मन का समाधान, मन की प्रशान्तता । स्थान शब्द के दो अर्थ हैंआश्रय अथवा भेद ।
प्रस्तुत आलापक में चित्तसमाधि के दस स्थान निर्दिष्ट किए हैं। उनमें कुछेक बहुत स्पष्ट हैं। जो अस्पष्ट हैं उनकी व्याख्या इस प्रकार है
१.
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५२, २८३ ।
२. घावश्यक, हारिभद्वीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ १०४ : खंतीय मद्दवज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं प्राकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥
धर्मचिन्ता - समवायांग के वृत्तिकार ने इस पद के तीन अर्थ किए हैं
१. पदार्थों के स्वभाव की अनुप्रेक्षा ।
३. प्रावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृ० १०४ : प्रन्ये त्वेवं वदन्ति
टिप्पण
खंती मृत्ती प्रज्जव मद्दव तह लाघवे तवे चेव । संयम चियागsकिचण बोद्धव्वे बंभचेरे य ॥
४. हारिभद्रीयावृत्ति ( दसर्वकालिक ), पत्र २५६ :
समाधानं समाधिः - परमार्थत प्रात्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम् ।
५. प्रगस्त्य चूर्णि ।
६. समवायांगवृत्ति पत्र १७:
चित्तस्य मनसः समाधि:- समाधानं प्रशान्तता ।
७ समवायांगवृत्ति पत्र १७ :
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स्थानानि प्राश्रया भेदा वा ।
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