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________________ समवानो समवाय १६ : सू०४-१२ २. अन्य रयावतं. संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. मन्दर . लोकमध्य १. मंदर-मेरु-मणोरम, मन्दरो मेरुमनोरमः, २. मेरु १०. लोकनाभि सुदंसण सयंपभे य गिरिराया। सूदर्शनः स्वयंप्रभश्च गिरिराट् । ३. मनोरम ११. अस्त रयणुच्चय पियदंसण, रत्नोच्चयः प्रियदर्शनो, ४. सुदर्शन १२. सूर्यावर्त्त __ मज्झे लोगस्स नाभी य॥ मध्यं लोकस्य नाभिश्च ॥ ५. स्वयंप्रभ १३. सूर्यावरण अस्तश्च सूर्यावर्त्तः, ६. गिरिराज १४. उत्तर सूरियावरणेत्ति य। सूर्यावरण इति च। ७. रत्लोच्चय १५. दिग्आदि उत्तरे य दिसाई य, उत्तरश्च दिगादिश्च ८. प्रियदर्शन १६. अवतंसक। वडेंसे इअ सोलसे॥ अवतंस इति षोडशः ॥ ४. पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणी- पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य षोडश ४. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के उत्कृष्ट यस्स सोलस समणसाहस्सोओ श्रमण-साहस्यः उत्कृष्टा श्रमण-सम्पद् श्रमण-सम्पदा सोलह हजार श्रमणों की उक्कोसिआ समण-संपदा होत्था। आसीत् । ५. आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस आत्मप्रवादस्य पूर्वस्य षोडश वस्तूनि ५. आत्मप्रवाद पूर्व के वस्तु सोलह हैं । वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । सोमोसम चमरबल्योः अवतारिकालयने षोडश ६. चमर और बली के अवतारिकालयन जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भाभ्यां (मध्य में उन्नत और पार्श्वपीठ में पण्णत्ते। प्रज्ञप्ते। ढलवां) सोलह-सोलह हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। ७. लवणे णं समुद्दे सोलस लवणः समुद्रः षोडश योजनसहस्राणि ७. लवण समुद्र में उत्सेध (वेला) की जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्डीए उत्सेधपरिवृद्धया प्रज्ञप्तः। परिवृद्धि सोलह हजार योजन की है। पण्णत्ते। थी। ८. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस एकेषां नैरयिकाणां षोडश पल्योपमानि की स्थिति सोलह पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता । ६. पंचमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं पञ्चम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ६. पांचवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की नेरइयाणं सोलस सागरोवमाइं नैरयिकाणां षोडश सागरोपमाणि स्थिति सोलह सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। स्थितिःप्रज्ञप्ता। १०. असुरकूमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १०. कळ ना आस्त एकषा १०. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति सोलस पलिओवमाइं ठिई षोडश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सोलह पल्योपम की है। पण्णत्ता। ११. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ११. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं सोलस पलिओवमाई देवानां षोडश पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति सोलह पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १२. महासुक्के कप्पे देवाणं अत्थेगइ- महाशुक्रे कल्पे देवानामस्ति एकेषां १२. महाशुक्रकल्प के कुछ देवों की स्थिति याणं सोलस सागरोवमाई ठिई षोडश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सोलह सागरोपम की है। पण्णत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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