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टिप्पण
१. लेश्या (लेसा)
जीव के शुभ-अशुभ परिणामों को लेश्या कहा जाता है । कर्मयुक्त आत्मा के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है और वे पुद्गल भाव और चिंतन को प्रभावित करते हैं । पौद्गलिक सहायता के बिना भाव और चिन्तन का प्रवर्तन नहीं होता । अच्छे पुद्गल अच्छे भावों और विचारों के और बुरे पुद्गल बुरे भावों और विचारों के सहायक बनते हैं । जैन परिभाषा के अनुसार आत्मीय भावों और विचारों को भावलेश्या और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्यलेश्या कहा जाता है ।
कर्मजन्य विकृति की न्यूनाधिकता के आधार पर आत्मा के परिणाम अच्छे बुरे बनते हैं । परिणामों की शुद्धि एवं अशुद्धि में अनन्त तरतमताएं होती हैं । पुद्गल जनित इन तरतमताओं को संक्षेप में छह भागों में बांटा जाता है । ये विभाग लेश्या शब्द से व्यवहृत हैं। विभाग या लेश्याएं छह हैं। पहली तीन अधर्म लेश्याएं हैं और शेष तीन धर्म लेश्याएं हैं। लेश्याओं के नाम द्रव्य लेश्याओं के आधार पर रखे गए हैं।
लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं । जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक वर्ग हैं। उनमें एक वर्ग का नाम "लेश्या" है । लेश्या शब्द का अर्थ है - आणविक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया । छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव परिणामों को भी लेश्या कहा गया है। प्राचीन साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले विचार - इन तीनों अर्थों में लेश्या की मार्गणा की गई है । शरीर के वर्ण और आणविक आभा को द्रव्यलेश्या ( पौद्गलिक लेश्या), तथा भाव और विचार को भावलेश्या ( मानसिक लेश्या ) कहा गया है ।
प्रस्तुत आलापक में छह लेश्याओं के नामों का उल्लेख मात्र है । उत्तराध्ययन सूत्र के चौतीसवें अध्ययन में इन सभी लेश्याओं के नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य का लेखा-जोखा है । लेश्या की पूरी जानकारी के लिए प्रज्ञापना का लेश्या पद बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
आधुनिक खोजों के आधार पर जो रंग चिकित्सा का प्रवर्तन हुआ है, उसका मूल लेश्याध्यान में खोजा जा सकता है । लेश्या ध्यान व्यक्तित्व के रूपान्तरण का घटक है और इसी स्तर पर रूपान्तरण हो सकता है। प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।
२. सूत्र ३, ४ :
इन दो आलापकों में तपस्या के बारह प्रकार निर्दिष्ट हैं। तप के दो प्रकार हैं—बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । प्रथम आलापक में बाह्य तप के छह प्रकार और दूसरे में आभ्यन्तर तप के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं। इनके आचरण से देहाध्यास छूट जाता है, और आत्मा की सन्निधि में रहने का अभ्यास हो जाताहै । इन बारह प्रकार के तपों की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है
१. अनशन - काल की निश्चित अवधि तक चतुविध आहार का त्याग करना ।
२. अवमोदरिका - अपनी भूख से कुछ कम खाना ।
३. वृत्तिसंक्षेप ( भिक्षाचरी ) - अभिग्रह करना ।
४. रस परित्याग – दूध, दही, घृत आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों का वर्जन करना ।
५. कायक्लेश – आसन आदि करना तथा शरीर के
ममत्व का परिहार करना ।
इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से दूर रखना ।
६. संलीनता - एकान्त या अनापात स्थान में रहना उपर्युक्त छह बाह्य तप हैं । इनका परिणाम इस प्रकार है
• अनशन और अवमोदरिका से भूख और प्यास पर विजय पाने की ओर गति होती है।
• वृत्तिसंक्षेप और रस परित्याग से आहार की लालसा सीमित होती है। जिह्वा की लोलुपता मिटती है तथा निद्रा आदि प्रमाद को प्रोत्साहन नहीं मिलता ।
• कायक्लेश से सहिष्णुता आदि का विकास होता है ।
• संलीनता से आत्मा की सन्निधि में रहने का अभ्यास होता है ।
श्रान्तरिक तप और उनके परिणाम
१. प्रायश्चित्त - दोष - विशुद्धि के लिए यथोचित अनुष्ठान करना ।
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इससे दोष भीरुता का विकास होता है, जागरूकता बढ़ती है ।
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