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________________ समवानो समवाय १६ : टिप्पण २. मेरु-मेरु देव के कारण पर्वत का नाम मेरु है।' ३. मनोरम-देवताओं के मन को भी प्रसन्न कर देता है। ४. सुदर्शन- स्वर्णमय और रत्नमय होने के कारण मन को सुखकर । ५. स्वयंप्रभ-रत्नों की बहुलता के कारण स्वयं प्रकाशी। ६. गिरिराज-समस्त पर्वतों में ऊंचा होने तथा तीर्थकरों के जन्माभिषेक का आश्रय होने के कारण गिरिराज । ७. रत्नोच्चय- नानाविध रत्नों का उपचय । ८. शिलोच्चय-जिस पर पांडुशिलाओं का उपचय है। ६. लोकमध्य-समस्त लोक का मध्यवर्ती । १०. लोकनाभि-लोक की नाभिरूप । ११. अच्छ-पवित्र । १२. सूर्यावर्त- सूर्य, चन्द्र आदि जिसकी प्रदक्षिणा करते हैं। १३. सूर्यावरण-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि जिसको आवेष्टित करते हैं । १४. उत्तम-समस्त पर्वतों में उत्तम ।' १५. दिशादि-सभी दिशाओं का आदि-प्रारंभ।' १६. अवतंश-समस्त पर्वतों का मुकुट रूप। सूत्रकृतांग १/६/६-१४ में महावीर की स्तुति के प्रसंग में मंदर पर्वत का सुन्दर वर्णन है। उस वर्णन के आधार पर मंदर पर्वत के कुछ नाम इस प्रकार निर्दिष्ट किए जा सकते हैं-सुदर्शन, गिरिराज, सुरालय, मुदाकर, त्रिकंडक, पंडकवैजयन्त, स्पृष्टनभः, सूर्यावर्त्त, हेमवर्ण, बहुनन्दन, शब्दमहाप्रकाश, कंचनमृष्टवर्ण, अनुत्तरगिरि, पर्वदुर्ग, गिरिवर, आकाशदीप, लोकमध्य, नगेन्द्र, सूर्यशुद्धलेश्य, भूरिवर्ण, मनोरम, अचिमाली। समवायांग के इस आलापक में संग्रहणी की जो दो गाथाएं उद्धत हैं, उनके विषय में वृत्तिकार का कथन है कि इन दो में एक 'गाथा' छंद में निबद्ध है और एक श्लोक है।' १. वृत्तिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि एक ही पर्वत के दो देव अधिष्ठाता कैसे हो सकते हैं ? उत्तर में कहा गया है-संभव है एक ही देव के ये दो नाम हों। शेष बहुश्रुत व्यक्ति ही इसका निर्णय दे सकते हैं। वृत्ति, पत्न ३७५ : मन्दरदेवयोगात् मन्दर : एवं मेरुदेवयोगात् मेरुरिति, नन्वेवं मेरो: स्वामिद्वयमापद्यतेति चेत्, उच्यते, एकस्यापि देवस्य नामद्वयं सम्भवतीति न काप्याशंका, निर्णीतिस्तु बहुश्रुतगम्येति । २. समवायांग में इसके स्थान पर 'मस्त' शब्द माना है। सूर्य मादि ग्रह, नक्षन इससे मन्तरित होकर प्रस्त हो जाते हैं, इसलिए इसकी संज्ञा 'मस्त' मानी गई है-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति पत्र ३७५ । ३. समवायांग में इसके स्थान पर 'उत्तर' पशब्द माना है। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-मंदर पर्वत भरत भादि क्षेत्रों के उत्तर में स्थित होने के कारण इसे 'उत्तर' कहा गया है । वृत्तिपत्र ३० । ४ दिशामों और विदिशाओं की उत्पत्ति प्रष्ट रुचक प्रदेश से होती है। वह रुचकाष्टक मेरु के मध्य में है। इसलिए मेरु को दिशा का जनक माना है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वृत्ति पत्र ३७६: दिशामादि:--प्रभवो दिगादि: तथाहि रुचकाद् दिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको मेरुमध्यवर्ती, ततो मेरुरपि दिगादिरुच्यते। ५. समवायांगवृत्ति, पन्न ३० : मेरुनामसूत्रे गाथा श्लोकश्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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