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________________ समवानो समवाय १६ : टिप्पण प्रस्तुत आलापक में चार मूल कषायों को चार वर्गों में विभक्त किया गया हैपहला वर्ग अनन्तानुबन्धी-क्रोध जैसे, पत्थर की रेखा (स्थिरतम) अनन्तानुबन्धी-मान जैसे, पत्थर का खंभा (दृढतम) अनन्तानुबन्धी-माया जैसे, बांस की जड़ (वत्रतम) अनन्तानुबन्धी-लोभ जैसे, कृमि-रेशम का रंग (गाढतम) दूसरा वर्गअप्रत्याख्यान-क्रोध जैसे, मिट्टी की रेखा (स्थिरतर) अप्रत्याख्यान-मान जैसे, हाड का खंभा (दृढतर) अप्रत्याख्यान-माया जैसे, मेंढे का सींग (वक्रतर) अप्रत्याख्यान-लोभ जैसे, कीचड़ का रंग (गाढतर) तीसरा वर्गप्रत्याख्यान-क्रोध जैसे, धूलि-रेखा (स्थिर) प्रत्याख्यान-मान जैसे, काठ का खंभा (दृढ) प्रत्याख्यान-माया जैसे, चलते बैल की मूत्रधारा (वक्र) प्रत्याख्यान-लोभ जैसे, खंजन का रंग (गाढ) चौथा वर्गसंज्वलन-क्रोध जसे, जल रेखा (अस्थिर-तात्कालिक) संज्वलन-मान जैसे, लता का खंभा (लचीला) संज्वलन-माया जैसे, छिलते बांस की छाल (स्वल्पतम वक्र) संज्वलन-लोभ जैसे, हल्दी का रंग (तत्काल उड़ने वाला) ये चारों वर्ग विशेष गुणों के बाधक हैं० अनन्तानुबंधी वर्ग के उदयकाल में सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं होती। ० अप्रत्याख्यान वर्ग के उदय से व्रतों की भूमिका प्राप्त नहीं होती। • प्रत्याख्यान वर्ग के उदय से महाव्रतों की भूमिका प्राप्त नहीं होती। ० संज्वलन वर्ग के उदय से वीतराग-चारित्र (यथाख्यात चारित्र) की प्राप्ति नहीं होती। कषायों के भेद-प्रभेद के लिए देखें-- ठाणं ४/७५-६१ । ३. मन्दर पर्वत के (मंदरस्स णं पव्वयस्स) : प्रस्तुत आलापक में मंदर पर्वत के सोलह नाम निर्दिष्ट हैं । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (४/२६०) में दो गाथाओं में ये ही सोलह नाम निर्दिष्ट हैं ।' उनमें आठवां नाम 'शिलोच्चय', ग्यारहवां नाम 'अच्छ' तथा चौदहवां नाम ‘उत्तम' है । प्रस्तुत आलापक में आठवां नाम 'प्रियदर्शन', ग्यारहवां नाम 'अस्त' तथा चौदहवां नाम ‘उत्तर' है । इसके अतिरिक्त दोनों गाथाओं की शब्दावली भी प्रायः समान है। जंबूद्वीप की वृत्ति में इन सोलह नामों की अर्थवत्ता भी दी गई है। वह इस प्रकार है१. मन्दर-मन्दर देव के योग से पर्वत का नाम मन्दर है। १. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति ४/२६.: मंदर मेरुमणोरमा, सुदंसण सयंपभे म गिरिराया । रयणोच्चए सिलोच्चए, मज्झे लोगस्स णामी य ॥ अच्छे अ सूरियावत्ते, सूरिघाबरणे तिम। उत्तमे म दिसादी अ, वडसेति म सोलस ॥ २. जम्बूद्वीप प्रशप्ति, ४२६०, वृत्ति पत्र ३७५, ३७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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