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________________ समवायो २१६ समवाय ५१ : टिप्पण (५) लोकसार (६) धुत (७) महापरिज्ञा (८) विमोक्ष (६) उपधानश्रुत दृत्तिकार ने उद्देशकों का उल्लेख करते हुए अन्त में सात उद्देशकों का उल्लेख किया है। वे कहते हैं-ये सात उद्देशक सातवें अध्ययन के हैं । वह सातवां अध्ययन ब्युच्छिन्न हो गया। अतः उसको अन्त में रखा गया है । समवाय ६/३ में भी यही क्रम है। वहां 'महापरिज्ञा' को नौवां अध्ययन माना है। वास्तव में यह सातवां अध्ययन है। नौवें समवाय को ध्यान में रखकर ही यहां उस अध्ययन के उद्देशक अन्त में गिनाएं हैं। वृत्तिकार ने समवाय ८५/१ की वृत्ति में भी यही क्रम रखा है।' २. सुप्रभ (सुप्पभे) सुप्रभ ये चौथे बलदेव अनंतजित तीर्थङ्कर के समय में हुए हैं । आवश्यकनियुक्ति (गा० ४०६) में उनका आयुष्य पचपन लाख वर्ष का बतलाया है। २. दर्शनावरण की उत्तर-प्रकृतियां (दसणावरणनामाणं "उत्तरपगडीओ) दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तर-प्रकृतियां हैं।' नामकर्म की बयालीस उत्तर-प्रकृतियां हैं।' १. समवायांगवृत्ति, पन्न ६७: प्राचारप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानां शस्त्रारीजादीनां, तत्र प्रयमे सप्तोद्देशका इति सप्तवोद्देशनकाला:, एवं द्वितीयादिषु क्रमेण षट् चत्वार: चत्वारः एवं षट् पञ्च अष्ट चत्वारः सप्तमे महापरिजाया: सप्तोद्देशा: व्युच्छिन्नं च तदिति प्रान्ते प्रागप्यध्ययनोल्लेखे उद्दिष्टं प्रान्त्य एवात्रोद्दिष्टा उद्देशा मपि तस्य क्रमापेक्षया सप्तमस्य चेत्येवमेकपञ्चाशदिति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ८६। ३. समवाय, ९/११॥ .बही, ४२/11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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