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________________ समवायो ३१६ प्रकोणक समवाय : सू० ६३ से णं अंगट्रयाए चउत्थे अंगे एगे सः अङ्गार्थतया चतुर्थमङ्गं एक अज्झयणे एगे सुयक्खंधे एगे अध्ययनं एकः श्रुतस्कन्धः एक: । उद्देसणकाले एगे समुद्देसणकाले उद्देशनकालः एक: समुद्देशनकालः एगे चोयाले पदसयसहस्से एकचत्वारिंशत् पदशतसहस्राणि पदग्गेणं, संखेज्जाणि अक्खराणि पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः अणंता गमा अणंता पज्जवा गमा: अनन्ताः पर्यवाः परीतास्त्रसाः परित्ता तसा अणंता थावरा अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः सासया कडा णिबद्धा णिकाइया निबद्धाः निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते पण्णविज्जंति परूविज्जंति दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदय॑न्ते । दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति। यह अंग की दृष्टि से चौथा अंग है। इसमें एक अध्ययन, एक श्रुतस्कंध, एक उद्देशन-काल, एक समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से एक लाख चौवालीस हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं 'आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आधविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते पणविज्जति परूविज्जति उपदर्श्यते । सोऽसौ समवायः। दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं समवाए। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-समवायमय, ‘एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' बन जाता है । इस प्रकार समवाय में चरण-करण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है समवाय। ६३. से कि तं वियाहे ? अथ केयं व्याख्या? वियाहे णं ससमया वियाहिज्जंति व्याख्यायां स्वसमयाः व्याख्यायन्ते परसमया वियाहिज्जंति परसमयाः व्याख्यायन्ते ससमयपरसमया वियाहिज्जति स्वसमयपरसमयाः व्याख्यायन्ते जीवाः जीवा वियाहिज्जति अजीवा व्याख्यायन्ते अजीवाः व्याख्यायन्ते वियाहिज्जति जीवाजीवा जीवाजीवाः व्याख्यायन्ते लोक: वियाहिज्जंति लोगे वियाहिज्जइ व्याख्यायते अलोकः व्याख्यायते अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे लोकालोकः व्याख्यायते । वियाहिज्जइ। ६३. व्याख्या (व्याख्याप्रज्ञप्ति) क्या है ? व्याख्या में स्वसमय की व्याख्या, परसमय की व्याख्या तथा स्वसमयपरसमय-दोनों की व्याख्या की गई है। जीवों की व्याख्या, अजीवों की व्याख्या तथा जीव-अजीव-दोनों की व्याख्या की गई है । लोक की व्याख्या, अलोक की व्याख्या तथा लोक-अलोकदोनों की व्याख्या की गई है। वियाहे णं नाणाविह-सुर-नरिंद- व्याख्यया नानाविध-सुर-नरेन्द्ररायरिसि . विविहसंसइय- राजऋषि - विविधसंशयित - पृष्टानां पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण जिनेन विस्तरेण भाषिताना द्रव्य-गुणभासियाणं दव्व-गुण-खेत-काल- क्षेत्र - काल - पर्यव - प्रदेश- परिणामपज्जव-पदेस - परिणाम - जहत्थि- यथास्तिभाव - अनुगम - निक्षेप - नयभाव-अणुगम-निक्खेव-णय-प्पमाण- प्रमाण - सुनिपुणोपक्रम - विविधप्रकारसुनिउणोवक्कम - विविहप्पगार इसमें विविध प्रकार के संशय वाले नाना प्रकार के देव, नरेन्द्र और राजर्षि द्वारा पूछे गए छत्तीस हजार प्रश्नों तथा भगवान् महावीर द्वारा किए गए विस्तृत व्याकरणों के निदर्शन द्वारा, शिष्य-हित के लिए, बहुविध श्रुत और अर्थ का व्याख्यान किया गया है । वे व्याकरण द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्यव, प्रदेश, परिणाम, यथा-अस्तिभाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण, सुनिपुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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