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________________ समवायो ७८ समवाय १४ : टिप्पण ३. अग्रयणीय (अग्गेणीअस्स) यह दूसरा पूर्व है। इसके चौदह वस्तु विभाग हैं। वृत्तिकार का कथन है कि उसके मूल वस्तु चौदह हैं और चूलिका बारह हैं।' ४. जीवस्थान चौदह हैं (चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता) उत्तरवर्ती-साहित्य में जो 'गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं, उनका मूल नाम 'जीवस्थान' हैं। आगम-साहित्य में 'गुणस्थान' का प्रयोग प्राप्त नहीं हुआ है । तत्त्वार्थसूत्र में भी उसका उल्लेख नहीं है। कर्मग्रन्थ में उसका प्रयोग मिलता है।' गोम्मटसार में जीवों को 'गुण' कहा गया है। उसके अनुसार चौदह जीवस्थान कमों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि की भावाभावजनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं। परिणाम और परिणामी का अभेदोपचार करने पर जीवस्थानों को 'गुणस्थान' की संज्ञा दी गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हें 'जीवसमास' भी कहा गया है। धवला के अनुसार जीव गुणों में रहते हैं। इसलिए उन्हें जीवसमास कहा गया है । गुण पांच हैं १. औदयिक-कर्म के उदय से उत्पन्न गुण । २. औपशमिक-कर्म के उपशम से उत्पन्न गुण । ३. क्षायोपशमिक-कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न गुण । ४. क्षायिक-कर्म के क्षय से उत्पन्न गुण । ५. पारिणामिक-कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना उत्पन्न गुण । इन गुणों के साहचर्य से जीव को भी गुण कहा जाता है। जीवस्थान को उत्तरवर्ती-साहित्य में इसी अपेक्षा से गुणस्थान कहा गया है । संक्षेप और ओघ-ये दो गुणस्थान के पर्यायवाची शब्द हैं ।' चतुर्थ कर्मग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य तीन हैं-- १. जीवस्थान । २. मार्गणास्थान । ३. गुणस्थान । कर्मग्रन्थ में जो चौदह जीवस्थान निर्दिष्ट हैं, उन्हें प्रस्तुत समवाय में चौदह भूतग्राम कहा गया है और कर्मग्रन्थ में १. समबायांगवृत्ति पत्र २६ : द्वितीयपूर्वस्य वस्तूनि-विभागविशेषाः यानि च चतुर्दश मूलवस्तूनि, चूलावस्तूनि तु द्वादशेति । २. कर्मग्रन्थ ४, गा० १: नमिय जिणं जिसमग्गण, गुणठाणुवप्रोगजोगलेसायो। बंधप्पबहुभावे संखिज्जाई किमवि वच्छं। ३ गोम्मटसार, गा०,८: जेहिं तु लक्खिज्जते, उदयादिसु संभवेहि भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा, गिद्दिवा सव्वदरसीहिं॥ ४. वही. गा०१०। ५. षट्खंडागम, धवलावृत्ति, प्रथम खंड, पृ० १६०-१६१ : जीवसमास इति किम ? जीवा सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमास: । क्वासते ? गुणेषु । के गुणा: ? मोदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिक इति गुणाः । अस्य गमनिका, कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः प्रौदयिक: तेषामुपशमादौपशमिकः, क्षयात्क्षायिकः, तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोपशमिका । कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशममन्तरेणोत्पन्न: पारिणामिकः। गुणसहचरितत्वादात्मापि गुण संज्ञा प्रतिलभते । ६. गोम्मटसार, गा०३: संखेमो प्रोपोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा । ७ कर्मग्रन्य ४, गा०२: इह मुहुमबायरेगिदिबितिचउपसंन्निसन्निपंचिदी। मपज्जत्ता पज्जत्ता, कमेण चउदस जियटाणा ॥ ८. समवायांग, १४/१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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