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________________ सेमवानी ३४७ प्रकोणक समवाय : सू० १४५-१४८ लण्हा घटा मट्ठा नोरया णिम्मला श्लक्ष्णानि लष्टानि घृष्टानि मृष्टानि जैसे लग रहे हैं। वे स्वच्छ, चिकने, वितिमिरा विसुद्धा सप्पमा समि. नोरजांसि निर्मलानि वितिमिराणि घुटे हुए, घिसे हुए, प्रमाजित, नीरज, निर्मल, अन्धकार रहित, विशुद्ध, रीया सउज्जोया पासाईया विशुद्धानि सप्रभाणि समरो चोनि प्रभायुक्त, किरणों से युक्त, उद्योत दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। सोद्योतानि प्रास दीयानि दर्शनीयानि वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि । दर्शनीय, अभिरूप (कमनीय) और प्रतिरूप-प्रत्येक द्रष्टा के लिए स्मरणीय हैं। १४५ एवं जस्स जंकमती तं तस्स, जं एव यस्य यत् क्रमते तत्तस्य, यत् यत् १४५. इसी प्रकार सभी भवनपति आवासों जं गाहाहि भणियं तह चेव गाथाभिः भणितं तथा चैव वर्णक: के लिए जहां जो घटित हो, उनका वण्णओ संक्षेप गाथाओं में है और उनका वर्णन असुरकुमारावास की भांति है। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा चतुःषष्ठिः असुराणा, चतुरशीतिश्च भवति नागानाम ।। द्विसप्ततिः सुपर्णानां, वायुकुमाराणां षण्णवतिः ।। १. असुरकुमारों के चौसठ लाख, नागकुमारों के चौरासी लाख, सुपर्णकुमारों के बहत्तर लाख और वायुकुमार के छानवे लाख आवास हैं। १. चउसट्टो असुराणं, चउरासोइं च होइ नागाणं। बावरि सुवन्नाण, वायुकुमाराण छण्णउति ॥ २. दीवदिसाउदहोणं, विज्जुकुमारिदथणियमग्गीणं ।। छण्हंपि जुवलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ।। दीपदिशाउदधीनां, विद्यत्कूमारेन्द्रस्तनितअग्नीनाम् । षण्णामपि युगलकानां, षट्सप्ततिः शतसहस्राणि ।। २. दीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार-इन छहों युगलों (दक्षिण और उत्तर दिशावासी भवनपति देवों) के छिहत्तर-छिहत्तर लाख आवास हैं। १४.केवड्या णं भंते! पढवीकाइया- कियन्तः भदन्त । कियन्तः भदन्त! पृथ्वीकायिकावासाः १४६. भंते ! पृथ्वी काय के आवास कितने वीमाHिETaTAT. वासा पण्णता? प्रज्ञप्ता:? गोयमा! असंखेज्जा पुढवीकाइया- गौतम ! असंख्येयाः वासा पण्णत्ता। पृथ्वीकायिकावासाः प्रज्ञप्ताः । गौतम ! पृथ्वीकाय के आवास असंख्य १४७. एवं जाव मणुस्सत्ति। एवं यावत् मनुष्य इति । १४७. इसी प्रकार शेष चार स्थावरकाय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य के आवास असंख्य-असंख्य हैं। १४८. केवइया णं भंते ! वाणमंतरावासा कियन्तः भदन्त ! वानमन्त रावासाः १४८. भंते ! वानमंतर देवों के आवास पण्णत्ता? प्रज्ञप्ता:? कितने हैं ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूढवीए रयणामयस्स कंडस्स रत्नमयस्य काण्डस्य योजनसहस्रजोयणसहस्सबाहल्लस्स उरि एगं बाहल्यस्य उपरि एक जोयणसयं ओगाहेता हेटा चेगं योजनशतं अवगाह्य अध: चैक गौतम ! इस रलप्रभा पृथ्वी का रत्नमय काण्ड एक हजार योजन मोटा है। उसके ऊपर से एक सौ योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से सौ योजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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