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________________ प्रकोणक समवाय : सू० १४६ वजित कर मध्य के शेष आठ सौ योजन में वानमंतर देवों के असंख्य लाख तिरछे भौमेय नगरावास हैं। समवाओ ३४८ जोयणसयं वज्जेता मज्झे अट्ठसु योजनशतं वर्जयित्वा मध्ये अष्टसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमंतराणं योजनशतेष, अत्र वानमन्तराणां देवानां देवाणं तिरियमसंखेज्जा तिर्यग् असंख्येयानि भौमेयनगरावासभोमेज्जनगरावाससयसहस्सा शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । पण्णत्ता। ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा तानि भौमेयानि नगराणि बहिर्वृत्तानि अंतो चउरंसा, एवं जहा अन्तश्चतुरस्राणि, एवं यथा भवणवासीणं तहेव नेयम्वा, भवनवासिनां तथैव नेतव्यानि, नवरंनवरं---पडागमालाउला सुरम्मा पताकामालाकुलानि सुरम्याणि पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा प्रासादीयानि दर्शनोयानि अभिरूपाणि पडिरूवा। प्रतिरूपाणि । वे भौमेय नगर बाहर से वृत्त, भीतर से चतुष्कोण और नीचे पुष्कर-कणिका की आकृति वाले हैं। वे भूमि को खोद कर (सूत्र १४४ की भांति) सुगन्धित गन्धगुटिका जैसे लग रहे हैं । वे पताका की माला से आकुल, सुरम्य, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। १४६. केवडया णं भंते! जोइसियाणं कियन्तः भदन्त ! ज्योतिष्काणां १४६. भन्ते ! ज्योतिष देवों के विमानावास विमाणावासा पण्णता? विमानावासाः प्रज्ञप्ताः? कितने हैं ? गोयमा ! इमोसे णं रय गप्पभाए गौतम ! अस्या: रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ बहुसमरमणीयात् भूमिभागाद् भूमिभागाओ सतनउयाई सप्तनवति योजनशतानि ऊर्ध्व उत्पत्य, जोयणसयाई उड्ढे उप्पइत्ता, एत्य अत्र दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये तिर्यग् णं नसुत्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियं ज्योतिर्विषये ज्योतिष्काणां देवानां जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं असंख्येयाः ज्योतिष्कविमानावासाः असंखेज्जा जोइसियविमाणावासा प्रज्ञप्ताः । ते ज्योतिष्कविमानावासाः पण्णता। ते णं अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासिताः विविधजोइसियविमाणावासा अब्भुग्ग- मणिरत्न-भक्तिचित्राः, वातोद्धृतयमूसियपहसिया विविहमणिरयण- विजय-वैजयन्ती-पताका- छत्रातिच्छत्रभत्तिचित्ता वाउद्ध्य-विजय- कलिता: तुङ्गाः, गगनतलानुलिहन्वेजयंती - पडाग - छत्तातिछत्त- शिखराः जालान्तररत्नपञ्जरोन्मीलिता कलिया, तुंगा गगणतलमणुलिहंत- इव मणि-कनक-स्तूपिकाकाः विकसितसिहरा जालंतररयण- शतपत्र-पुण्डरीक - तिलक-रत्नार्द्धचन्द्रपंजरुम्मिलितव्व मणि-कणग- चित्राः अन्तर् बहिश्च श्लक्ष्णाः थभियागा विगसित-सयपत्त- तपनीयवालुका-प्रस्तटाः सुखस्पर्शाः पुंडरीय-तिलय - रयणड्डचंद-चित्ता अंतो बहिं च सहा तवणिज्जबालुगा-पत्थडा सुहफासा गौतम ! इस रलप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाने पर वहां एक सौ दस योजन के बाहल्य में तिरछे ज्योतिषिक क्षेत्र में ज्योतिष देवों के असंख्य ज्योतिषिक विमानावास हैं। वे चारों दिशाओं में प्रसृत प्रबल प्रभा से शुक्ल, विविध प्रकार के मणि और रत्नों की भक्तियों (धाराओं) से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले, वातप्रकम्पित विजय-वैजयन्ती पताका तथा छत्रातिछत्रों से युक्त और अत्यन्त ऊंचे हैं। उनके शिखर गगनतल को छू रहे हैं। उनकी खिड़कियों के अन्तराल में, पिंजरे से निकाल कर रखी हुई वस्तु की भांति, अनावृत रत्न रखे हुए हैं। उनके मणि और स्वर्ण की स्तुपिकाएं हैं। उनके द्वार विकसित शतपत्र और पुंडरीक कमलों से, उनकी भित्तियां तिलक से और द्वार के अग्र-प्रदेश रत्नमय अर्द्धचन्द्रों से चित्रित हैं। वे भीतर और बाहर से कोमल, स्वर्णमय बालुकाओं के प्रस्तट वाले, सुख-स्पर्श वाले, सुन्दर रूप वाले, मन को प्रसन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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