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________________ समवायो ३२५ प्रकीर्णक समवाय : सू० ९६ से णं अंगठ्याए सत्तमे अंगे एगे ताः अङ्गार्थतया सप्तममङ्गम् एकः सुयक्खंधे दस अज्झयणा दस श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि दश उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला उद्देशनकालाः दश समुद्देशन काला: संखेज्जाइं पयसयसहस्साई संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण, पयग्गेणं, संखेज्जाइं अक्खराइं संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अणंता गमा अणंता पज्जवा अनन्ताः पर्यवाः परोतास्त्रसाः अनन्ताः परित्ता तसा अणंता थावरा स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धाः सासया कडा णिबद्धा णिकाइया निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ता: भावाः जिणपण्णता भावा आधविज्जति आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते पण्णविनंति परूविज्जति निदर्श्यन्ते उपदयन्ते । दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति। यह अंग की दृष्टि से सातवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, दस उद्देशन-काल, दस समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से संख्येय लाख पद (ग्यारह लाख बावन हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्थव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आधविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते पण्णविज्जति परूज्जिति दंसिज्जति उपदयते । तदेता उपासकदशाः। निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं उवासगदसाओ। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-उपासकदशामय, एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार उपासकदशा में चरणकरण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है उपासकदशा। ६६. से कितं अंतगडदसाओ? अथ कास्ता: अन्तकृतदशा: ? ६६. अन्तकृतदशा क्या है ? अंतगडदसासू गं अंतगडाणं अन्तकृतदशासु अन्तकृतानां नगराणि नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः वणसंडाइं रायाणो अम्मापिपरो अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्याः समोसरणाई धम्मायरिया धर्मकथाः ऐहलौकिक-पारलौकिकाः धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया __ ऋद्धिविशेषाः भोगपरित्यागाः प्रव्रज्याः इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया श्रुतपरिग्रहाः तप-उपवानानि प्रतिमाः पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा बहुविधाः, क्षमा आर्जवं च, शौचं च तवोवहाणाई पडिमाओ सत्यसहितं, सप्तदशविधश्च संयमः, बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं उत्तमं च ब्रह्म, आकिञ्चन्यं तपस्त्यागः च, सोअं च सच्चसहियं, समितिगुप्तयश्चैव, तथा अप्रमादयोगः, सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च स्वाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयोयोरपि बंभ, आकिंचणया तवो चियाओ लक्षणानि । समिइगुत्तीओ चेव, तह अप्पमायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हंपि लक्खणाई। अन्तकृतदशा में अन्तकृत (तद्भव मोक्षगामी) जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पार-लौकिक ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, आर्जव, मार्दव, शौच, सत्य, सतरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, अकिंचनता, तप, त्याग (दान), समिति, गुप्ति, अप्रमादयोग तथा उत्तम स्वाध्याय और ध्यानइन दोनों के लक्षण आख्यात हैं। पत्ताण य संजमुत्तमं प्राप्तानां च संयममुत्तमं जितपरीषहाणां जियपरीसहाणं चउव्विह- चतुर्विधकर्मक्षये यथा केवलस्य लाभः, कम्मक्खयम्मि जह केवलस्स इसमें उत्तम संयम को प्राप्त करने तथा परीषहों को जीतने पर, चार कर्मों (घातीकर्मों) के क्षय होने से जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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