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________________ १०२ समवानो समवाय १७ : टिप्पण ६. सूत्र १० प्रस्तुत आलापक में दसवें गुणस्थानवर्ती मुनि के कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध होता है, इसका उल्लेख है। १२० कर्म प्रकृतियों में वह केवल सतरह प्रकृतियों का बंध करता है । अवशिष्ट १०३ प्रकृतियों का पूर्ववर्ती गुणस्थान में, बंध की अपेक्षा से, व्यवच्छेदन हो जाता है। इन सतरह प्रकृतियों में भी सोलह प्रकृतियों का बंध इसी दसवें गुणस्थान में व्यवच्छिन्न हो जाता है-ज्ञान की पांच, दर्शन की चार, अन्तराय की पांच, उच्चगोत्र और यशकीति । केवल सातवेदनीय कर्म प्रकृति का बंध मात्र रह जाता है । मोहनीय कर्म के उदय में असातवेदनीय कर्म का बंध होता है । मोहनीय के उपशम या क्षय में केवल सातवेदनीय का ही बंध होता है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ३३ : सूक्ष्मसम्पराय: उपशमक: आपको वा सूक्ष्मलोभकषायकिट्टिकावेदको भगवान्-पूज्यत्वात् सूक्ष्मसंम्परायभावे वर्तमान:-तनैव गुणस्थानकेऽवस्थितः नातीतानागतसूक्ष्मसम्परायपरिणाम इत्यर्थः, सप्तदश कर्मप्रकृतिनिबध्नाति विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बनातीत्यर्थः पूर्वतरयणस्थानकेषु बन्छ प्रतीत्य तासां व्यवच्छिन्नत्वात्. तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका साताप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषाः षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, पदाह"नाणं । तराय १० दसगं दंसण चत्तारि १४ उच्च १५ जसकित्ति १६। एया सोलसपयडी सुहमकमामि वोच्छिन्न। ॥१॥" सूक्ष्मसम्परायात्परे न बन्नन्तीत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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