________________
३८६
प्रकीर्णक समवाय: टिप्पण ३६-४०
समवायांग और नंदी के अनुसार प्रस्तुत आगम में नाना प्रकार के प्रश्नों, विद्याओं और दिव्य-संवादों का वर्णन है । ' नंदी में इसके पैंतालीस अध्ययनों का उल्लेख है । स्थानांग से उसकी कोई संगति नहीं है। समवायांग में इसके अध्ययनों का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके 'पण्हावागरणदसासु' इस आलापक ( पैराग्राफ) के वर्णन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। कि समवायांग में प्रस्तुत आगम के दस अध्ययनों की परम्परा स्वीकृत है । उक्त आलापक में बतलाया गया है कि प्रश्नव्याकरणदसा में प्रत्येकबुद्धभाषित, आचार्यभाषित, वीरमहर्षिभाषित, आदर्शप्रश्न, अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्त, अतिप्रश्न, मणिप्रश्न क्षीमप्रश्न, आदित्यप्रश्न आदि-आदि प्रश्न वर्णित हैं । इन नामों की स्थानांग में निर्दिष्ट दस अध्ययनों के नामों के साथ तुलना की जा सकती है। यद्यपि उद्देशन - काल पैंतालीस बतलाए गए हैं फिर भी अध्ययनों की संख्या का स्पष्ट निर्णय नहीं किया जा सकता। गंभीर विषय वाले अध्ययन की शिक्षा अनेक दिनों तक दी जा सकती है ।
समवाश्रो
तत्वार्थवार्तिक के अनुसार प्रस्तुत आगम में अनेक आक्षेप और निक्षेप के द्वारा हेतु और नय से आश्रित प्रश्नों का उत्तर दिया गया है, लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया गया है।"
जयधवला के अनुसार प्रस्तुत आगम आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी इन चारों कथाओं तथा प्रश्न के आधार पर नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन और मरण का वर्णन करता है।
उक्त ग्रन्थों में प्रस्तुत आगम का जो विषय वर्णित है वह आज उपलब्ध नहीं है । आज जो उपलब्ध है उसमें पांच आश्रवों (हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्यं और परिग्रह) तथा पांच संवरों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) का वर्णन है । नंदी में उसका कोई उल्लेख नहीं है । समवायांग में आचार्यभाषित आदि अध्ययनों का उल्लेख है तथा जयधवला में आक्षेपणी आदि चारों कथाओं का उल्लेख है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत आगम का उपलब्ध विषय भी प्रश्नों के साथ रहा हो, बाद में प्रश्न आदि विद्याओं की विस्मृति हो जाने पर वह भाग प्रस्तुत आगम के रूप में बचा हो । यह अनुमान भी किया जा सकता है कि प्रस्तुत आगम के प्राचीन स्वरूप के विच्छिन्न हो जाने पर किसी आचार्य के द्वारा नए रूप में रचना की गई हो । नंदी में प्रस्तुत आगम की जिस वाचना का विवरण है, उसमें आश्रवों और संवरों का वर्णन नहीं है, किन्तु नंदीचूर्ण में उनका उल्लेख मिलता है।" यह संभव है कि चूर्णिकार ने उपलब्ध आकार के आधार पर उनका उल्लेख किया है।
निशीथ भाग्य के चूर्णिकार विभिन्न विद्याओं की चर्चा करते हुए एक महत्त्वपूर्ण सूचना देते हैं कि प्राचीन काल में प्रश्नव्याकरण सूत्र में ( प्रश्नाप्रश्न आदि) ये विद्याएं थीं।' इस सूचना से यह निश्चित कहा जा सकता है कि चूर्णिकार के काल में जो प्रश्नव्याकरण था, उसमें इन विद्याओं का उल्लेख नहीं था ।
३६. दृष्टिवाद ( दिट्टिवाए) सूत्र १०० :
संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं-दृष्टिवाद और दृष्टिपात । जिस शास्त्र में सभी दृष्टियों ( दर्शनों) का विमर्श किया जाता है, वह दृष्टिवाद कहलाता है। जिस शास्त्र में सभी दृष्टियों (नयों) से वस्तुसत्य का विचार किया जाता है, वह दृष्टिपात कहलाता है । दृष्टिवाद प्रायः व्यवच्छिन्न है । नंदी तथा प्रस्तुत सूत्र में समागत द्वादशांगी के प्रकरण में उसका कुछ विवरण प्राप्त होता है ।
४०. परिकर्म (परिकम्मं ) सूत्र १०० :
परिकर्म का अर्थ है - संस्कारित करना । यह एक प्रकार की प्राथमिक विधि है जिससे सूत्र ग्रहण करने वाले साधक
१. (क) समवाप्रो, पइण्णगसमवाओ सूत्र १८:
पहा वागरणेसु भट्ठत्तर पसिणसयं प्रट्टुत्तरं प्रपसिणसयं प्रट्टुत्तरं परिणापसिणसयं विज्जाइसया, नागसुवण्णेद्दि सद्धि दिग्वा संवाया प्राघविज्जति ।
(ख) नंदी, सूत्र ६० ।
२. तवार्थदार्तिक १/२०० ७३, ७४ :
प्रक्षेपविक्षेपतुनयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम् । तस्मिल्लो किकर्ब विकानामर्थानां निर्णयः ।
२. कसायपाहुड भाग १, ५० १३१, १३२ :
पहवायरणं णाम अंगं प्रक्खेवणी-विक्खेवणी-संवेयणी- णिन्वेयणीणामाम्रो चउग्विहं कहा पहादो ण-मुट्ठि चिता-लाहालाह- सुखदुक्ख जीवियमरणाणि च वण्णेदि ।
४. नंदी सुत्र, चूर्णि सहित पु० ६४ ।
५. विशीय भाष्य गाया ४२८६, चूषि
परिया एते पण्डुला करणे पुण्वं प्रासी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org