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________________ समवानो १४३ समवाय २६ : सू० ८-११ ८. जे देवा मज्झिम-हेट्रिमगेवेज्जय- ये देवा मध्यम-अधस्तन-प्रैवेयक- ८. द्वितीय त्रिक की प्रथम श्रेणी के ग्रैवेयक विमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा, तेसि विमानेषु देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने णं देवाणं उक्कोसेणं छव्वीसं देवानामुत्कर्षेण षड्विंशति सागरो- वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। पमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। है. ते णं देवा छन्वीसाए अद्धमासाणं ते देवाः षडविंशत्या अर्द्ध मासै: आनन्ति आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा ऊससंति वा नीससंति वा। निःश्वसन्ति वा। ६. वे देव छब्बीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। १०. तेसि णं देवाणं छव्वीसाए तेषां देवानां षड्विंशत्या अर्द्धमास- १०. उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। ११. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये ११. कुछ भव-सिद्धिक जीव छब्बीस बार छन्वीसाए भवग्गहर्णोहं षड्विंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिन्झिस्संति बज्झिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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