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समवायो
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समवाय ३०: सू०१
आत्मनो ऽहितो बालो,
मायामृषा बहु भाषते । स्त्रीविषयगृद्धया,
महामोहं प्रकरोति।।
१४. अप्पणो अहिए बाले,
मायामोसं बहुं भसे। इत्थोविसयगेहीए, महामोहं पकुव्वइ॥
(युग्मम्) १५. जं निस्सिए उव्वहइ,
जससाअहिमेण वा। तस्स लुम्भइ वित्तम्मि,
महामोहं पकुव्वइ ॥
अज्ञानी व्यक्ति अपनी आत्मा का अहित करता है और स्त्री विषयक आसक्ति के कारण मायायुक्त मिथ्यावचन का बहुत प्रयोग कर महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १५. जो व्यक्ति राजा आदि के आश्रित होकर उसके संबंध से प्राप्त यश और सेवा का लाभ उठा कर जीविका चलाता है और उसी के धन में लुब्ध होता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
यं निश्रितमुद्वहते,
यशसाधिगमेन तस्य लुभ्यति वित्ते,
महामोहं
वा।
प्रकरोति ।।
१६. ईसरेण अदुवा गामेणं, ईश्वरेणाथवा ग्रामेण,
अणिस्सरे ईसरीकए। अनीश्वर ईश्वरीकृतः । तस्स संपग्गहीयस्स, तस्य संप्रगहीतस्य,
सिरी अतुलमागया॥ श्रीरतुलाजगता १७. ईसादोसेण आइछे, ईर्ष्यादोषेणाविष्टः, कलुसाविलचेयसे
कलुषाविलचेताः । जे अंतरायं चेएइ, योऽन्तरायं चेतयते,
महामोहं पकुव्वइ ॥ महामोहं प्रकरोति ।।
१८. सप्पी जहा अंडउडं,
भत्तारं जो विहिंसइ। सेणावई पसत्थारं,
महामोहं पकुव्वइ ॥
सी यथाण्डपुटं,
भर्तारं यो विहिनस्ति । सेनापति प्रशास्तारं,
महामोहं प्रकरोति ॥
१६. जे नायगं व रटुस्स,
नेयारं निगमस्स वा। सेट्टि बहुरवं हंता,
महामोहं पकुव्वइ॥ २०. बहुजणस्स गेयारं,
दीवं ताणं च पाणिणं। एयारिसं नरं हंता,
महामोहं पकुव्वइ ॥
यो नायकं वा राष्ट्रस्य,
नेतारं वा निगमस्य । थेष्ठिनं बहुरवं हत्वा,
महामोहं प्रकरोति ।। बहुजनस्य नेतारं,
द्वीपं (दीपं) त्राणं च प्राणिनाम् । एतादृशं नरं हत्वा,
महामोहं प्रकरोति ॥
१६. १७. ईश्वर या ग्राम (जनता) ने किसी अनीश्वर को ईश्वर बनाया। उसके द्वारा पुरस्कृत होने पर उसे अतुल वैभव प्राप्त हुआ। वह ईर्ष्यादोष से आविष्ट तथा पाप से पंकिल चित्त वाला होकर अपने भाग्यनिर्माताओं के जीवन या सम्पदा में अन्तराय डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १८. जैसे नागिन अपने अंड-पुट को खा जाती है, वैसे ही जो व्यक्ति अपने पोषण करने वाले को तथा सेनापति
और प्रशास्ता' को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १६. जो व्यक्ति राष्ट्र के नायक तथा प्रचुर यशस्वी निगम-नेता श्रेष्ठी को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २०. जो व्यक्ति जन-नेता तथा प्राणियों के लिए द्वीप (आश्वासनभूत) और त्राण है, ऐसे व्यक्ति को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २१. जो व्यक्ति प्रव्रज्या के लिए उपस्थित है अथवा जो प्रतिविरत (प्रव्रजित) होकर संयत और सुतपस्वी हो गया, उन्हें बरगला कर, फुसला कर या बलात् धर्म से भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
२१. उवट्टियं पडिविरयं,
___ संजयं सुतवस्सियं। वोकम्म धम्माओ भंसे,
महामोहं पकुव्वइ ॥
उपस्थितं प्रतिविरत,
संयतं सुतपस्विनम् । व्यपक्रम्य धर्माद ध्रसयति,
महामोहं प्रकरोति ॥
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