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सुधा टीका स्था०४ ४०३० ३० कन्थकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम्
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चत्तारि कंथगा ' इत्यादि - चत्वारः कन्यकाः प्रज्ञताः, तद्यथा - रूपसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः १, जयसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः २, एको रूपसेपन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि३, एको नो रूपसम्पन्नो नो जयसम्पन्नः ४ । ' एवामेव चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि - एवमेव कन्यकवदेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञतानि, तथा - रूपसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः १, जयसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः २, एको रूपसम्पन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि ३, एको नो रूपसम्पन्नो नो जयसम्पन्नः ४ । (१२)
अथ प्रव्रजितमुद्दिश्य चतुर्भङ्गीमाह - " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादिपुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एकः पुरुषः सिंहतया = सिंहसदृशतया - होता है और न जय सम्पन्न होता है ४ इस तरहसे कन्थकों के चतुभगों की तरह पुरुष जान भी चार भङ्गोंवाले होते हैं (११)
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१२ वें सूत्र में जो कन्थक रूप सम्पन्न नो जय सम्पन्न " आदि रूपसे चतुभगी कही गई है वह इस प्रकार से है-जैसे कोई एक कन्थक ऐसा होता है जो रूप संपन्न तो होता है पर जय संपन्न नहीं होता है १ कोई एक कन्धक ऐसा होता है जो जय सम्पन्न होता है पर रूप सम्पन्न नहीं होता है २ कोई एक क्रन्थक ऐसा होता है जो रूप सम्पन्न भी होता है और जय सम्पन्न भी होता है३ तथा कोई एक कन्धक ऐसा भी होता है जो न रूप संपन्न होता है और न जय संपन्न ही होता है ४ इसी प्रकार के चार भङ्ग पुरुषोंकी चतुर्विधता होने में भी बना लेना चाहिये (१२)
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to सूत्रकारने प्रजित को लक्ष्यकर इस १३ वें सूत्रमें जो चतुभैगी बनाई है वह इस प्रकार से है जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है, ખલસ પન્ન પણ હોય છે અને જયસપન્ન પણ હેાય છે. (૪) કેઇ ખલસ'પુન પણ નથી હાતા અને જયંસ‘પન્ન પણ નથી હોતા.
હવે ખારમાં સૂત્રમાં રૂપસ પન્ન ના જયસંપન્ન ” આદિ જે ચાર કન્યક પ્રકાશ કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે—(૧) કાઇ એક અન્ય રૂપસપન્ન હોય છે પણ જયસ પન્ન હેાતેા નથી. (૨) કોઇ એક અશ્વ જયસ'પન્ન હેાય છે પણુ રૂપસપન્ન હતેા નથી. (૩) કોઇ એક અશ્વ રૂપ સપન્ન પણ હાય છે અને જયસ'પન્ન પણુ હાય છે. (૪) કાઈ એક અશ્વ રૂપસપન્ન પણ હાતા નથી અને જયસ`પન્ન પણ નથી હાતા.
આ કન્થકવિષયક ચાર લાંગા જેવા જ પુરુષવિષયક ચાર ભાંગા પણુ જાતે જ સમજી લેવા,