Book Title: Sthanang Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ όφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφέ Bohdhodhdshondichhohosphashshobha जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज. विरचितया सुधाख्यया व्याख्यया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्॥ श्री-स्थानाङ्गसूत्रम् ॥ STHANANE SŪTRAM (तृतीयो भागः) नियोजक संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशकः मद्रासनिवासी-श्रीमान् सेठ श्री-खीवराजजी सा. चोरडिया तत्प्रदत्त · द्रव्यसाहाय्येन अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्वारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्ति वीर-संपत् विक्रम संवत् ईसवीसन् htodehJAAYS A1 24.1 XXIXkficiaxinchbachhinchochhohdhonghdhes प्रति १२०० २४९१ २०२१ १९६५ मूल्यम्-रू. २५-०-० ο οφφφφφφφφφφφφφφφφφφέ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानु आशु : श्री म. सा. જૈન . स्थानवासी समिति, શાસ્ત્રોદ્ધાર ४. गरेडियावा रोड, रामट, (सौराष्ट्र ) Published by : Shri Akhil Bharat S. s. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India 品 ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञ, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ પ્રથમ આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ઃ ૨૪૯૧ વિક્રમ સંવત્ ૨૦૨૨ ઇસવીસન ૧૯૬૫ 品 हरिगीतच्छन्दः फ्र करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में भूयः ३. २५=00 यह लायगा ॥ १ ॥ : शुद्र : મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ ग्रेस, घीअंटा रोड, अभहावाह Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } आयमुरब्बीश्री श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ श्री खीमराजजी सा. चोरडियाका संक्षिप्त जीवन चरित्र संसारके विशाल प्रांगनमें कार्यरूपी क्रीडा करते हुए विश्लेही पुरुष असीम सफलताके भागी बनते हैं। दानवीर महोदय श्रीमान खीमराजजी साइच, चोरडिया उन उन्नायकों में से है, जिन्होंने अपनी सुकार्यदक्षता एवं सुव्यवस्थासे, । अच्छी उन्नति की. आपका जन्म सं. १९७१ मिति आसोज सुदि ९ को हुआ । आपका निवास नागोरके समीप चन्दावतोंका नोखा है । इस नोखा- गावके नवनिर्माणमें , चोरडिया परिवारका.महत्वपूर्ण योग रहा है। आपके पिता स्त्र० श्रीमान् सीरेमलजी साहब चोरडियाका आप पर धार्मिकताका अच्छा असर पड़ा । बचपनसे ही आप प्रतिभाशाली छात्रोमसे थे । अतः स्वल्प समयमेही शिक्षा समाप्त करः व्यापारक्षेत्रमें उतर पडे जिसमें से आपने अच्छी सफलता प्राप्त की। पिताके स्वर्गवास के पश्चात् आप मद्रास चले गये । आपकी वैज्ञानिक बुद्धि के कारण थोडेही दिनोंमें इस कार्यमें कुशलता प्राप्त कि " खिमराज मोटर्स-जिसमें वेद. फोर्ड टूक, एम्बेसडरकार टेम्पो, ओटोरिक्शा और वेल्पा स्कुटरकी एजे. न्सियां हैं । आपने अपने जीवन में व्यवसायिक कार्या अतिशय उन्नति की। आप मद्रास के एक प्रभुत्व श्रीमन्त व्यवसायी हैं। आप स्थानकवासी जैन धर्मानुयायी एवं उदार धर्मप्रेमी सज्जन हैं। सार्वजनिक जनहित के कार्यो में पूरी दिलचस्पी रखते हैं। उदारचेता है. साहित्यरसिक होनेके साथ साथ धार्मिक नित्यनियम व व्रत, उपवास आदि तपवर्या में भी अच्छी रुचि रखते है। जैन हाइस्कूल में २१००)की लागतका एक हॉल बनवाकर अपने अपनी शिक्षाप्रेमका अच्छा परिचय दिया । आपकी ओरसे मद्रासमें ‘खीवराज डी. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सरी चलती है। नोखा में दूसरे सज्जनों की मदद के साथ 'सिरेमल जोरावर - मल '' हेल्थ सेन्टर' चल रहा है । दानकी ओर आपका झुकाव इतना अधिक है कि कोई भी व्यक्ति किसी प्रकारकी सहायता के लिये आपके पास पहुंचता है तो वह निराश नहीं लौटता है। आप जहां वहीं भी जाते हैं वहांकी संस्थाओंकों कुछ न कुछ सहायता जरूर करते हैं । विद्यादान में आपकी ओर से हजारों रुपये लगते हैं । कइ छात्रालयों को आपकी ओर आर्थिक सहायता मिलती है । जैन साहित्य प्रकाशन कार्यमें आपकी बडी दिलचस्पी है। कई ग्रन्थोंके मकाशनमें आपका आर्थिक सहयोग रहा है। आगम प्रकाशनकी जब आपसे चर्चा की गई तो आपने स्वयमेव पांच हजार रुपयेकी महान सहायता प्रदान करनेकी उदारता प्रगट की । आप स्वयं धर्म प्रवृत्त हैं और धार्मिक कार्यमें तन मन व धन से सदा आगेवान रहते हैं । यही कारण है कि स्थानकवासी समाज में और ओसवाल समाज में आपका नाम सर्वोपरि आगेवान पुरुषोंमें बडे सन्मान के साथ आता है । समाजसुधार तथा जन जागृति के कामोंमें आपकी अच्छी रुचि है । 1 आपने अ० भा० वे० स्था० शास्त्रोंद्धार समितिको आगम प्रकाशन के हेतु ५०००) रुपया प्रदान कर स्थाई सदस्यता स्वीकार की है, अतः समिति आपका हार्दिक आभार मानती है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધમુરબ્બીશ્રીઓ =4 5 was + + + + & 1, • 1 } : શેઠશ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ (સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વિરાણ–રાજકોટ ૧ ૬ * * * શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી-રાજકેટ, (સ્વ) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ ભાણવહ, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (સ્વ) રોશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ માસી. કોઠારી હરગાવિંદ જેચ'દ્રભાઇ રાજકોટ. (સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ. અમદાવાદ. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ - * કે . ' જ '. ' E '? (સ્વ) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ અમદાવાદ અમદાવાદ - , એ ' ? * કેક , - - - શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ, સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા. બાલિયા પાલી મારવાડ, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ * ** ૧ વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઇ શ્રીમાનું મૂલચંદજી જવાહરલાલજી બરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિથીલાલજી બરડિયા, ૩ ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા ! ! ! : ? - : શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીએ શ્રી વિનેાદકુમાર વીરાણી - શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ ાજકોટ. Buthwes ww સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનાપદ શાહે વચ્ચે બેઠેલા ખંભાત. લાલાજી કિશનચંદ્ભજી સાજૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતામચન્દ્રજી સા. જૈન નાના – અનિલકુમાર જૈન (ાયત્તા ) ( Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा मद्रास. 상 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ran' sur) श्री स्थानाङ्गमूत्र भा. तीसरे की .. विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाङ्क विषय स्था. ४ तीसरा उद्देशा उदकदृष्टान्तसे चार प्रकारके भावोंका निरूपण १-५ पक्षी के दृष्टान्तसे चार प्रकार के पुरुषजातका निरूपण ५-१४ दृष्टान्त सहित पुरुषजातका निरूपण १४-१६ दृष्टान्त सहित श्रमणोपासकके आश्वास-विश्राम का निरूपण १७-२५ फिरभी पुरुष विशेषका निरूपण २५-३२ भावसे जीवोका निरूपण ३२-३४ छेश्या का निरूपण २५-३६ यानादिके दृष्टान्तसे पुरुषजातका निरूपण ३६-४३ युग्य-पभादि के दृष्टान्तसे दार्दान्तिक पुरुपजात का निरूपण ४४-४६ सारथी के दृष्टान्तसे पुरुषजातका निरूपण ४७-५१ गजके दृष्टान्तसे पुरुषजातका निरूषण ५२-५६ पुष्पके दृष्टान्तसे पुरुपजातका निरूपण ५६-५७ जातिसम्पन्नादि पुरुषजावका निरूपण ५८-६६ चार प्रकारके फलके स्वरूपका निरूपण ६६-६८ चार प्रकारके पुरुषजातका निरूपण ६८-७९ चार प्रकारके आचार्य के स्वरूपका निरूपण ७९-८३ निर्ग्रन्थ के स्वरूपका निरूपण ८३-८८ श्रमणोपासकके स्वरूपका निरूपण ८८-९२ महावीरस्वामीके श्रमणोपासकों के सौधर्म कल्पस्थित अरुणाभ विमानकी स्थितिका निरूपण मनुष्यलोकमें देवों के आगमन-आना और अनाग मन्-नहीं आनेके कारणोंका निरूपण ९४-१०८ लोकान्धकार-एवं लोकोद्घोत के कारणोंका निरूपण १०८-११३ ११ २० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दुःस्थित साधुको दुःखशय्या और सुस्थित साधुकी सुखशययाका निरूपण ११४-१३१ २३ चार प्रकारके पुरुपजात विषयक चौदह चतुर्भगीका निरूपण १३२-१५७ कन्थकके दृष्टान्त से पुरुरजातका निरूपण १५८-१७६ २५ . अप्रतिष्ठान आदि नरकोका आयाम और विष्कमसे साम्य का निरूपण १७६-१७९ २६ . उर्च-अधस्तीर्यग्लोकके द्विशरीरि जीवों का निरूपण १७९-१८३ हीसत्व-आदि चार प्रकारके पुरुषजातका निरूपण १८३-१८५ २८ चार प्रकार के अभिग्रहका निरूपण १८५-१८९ चार प्रकार के शरीरका निरूपण १८९-१९३ चार प्रकार के अस्तिकायसे उत्पद्यमान बादरकायसे ___ लोकस्पृष्टत्वका निरूपण १९३-१९७ ३१, चतुर्विध अस्तिकायादिकोका प्रदेशाग्रतुल्यत्व आदिका ___ निरूपण १९८-१९९ पृथिवीकाय आदि चारोंका सूक्ष्मशरीरके अदृश्यत्व का निरूपण १९९-२०३ जीव और पुद्गल के गतिधर्मका निरूपण २०३-२०५ ३४.. दृष्टान्त के भेदों का कथन २०६-२५८ ३५, अधोलोक-उप्रलोकमें रहे हुवे अन्धकार और उद् योत के कारणोंका निरूपण २५९-२६१ चौथे स्थानका चौथा उद्देशाःप्रसर्पकोका निरूपण २६२-२६५ ३७. नारकोंके आहारका निरूपण '२६५-२६६ तिर्यक्-मनुष्य-और देवोके आहारका निरूपण २६६-२६९ आशीविष-सों के स्वरूप का निरूपण २६९-२७२ व्याधिके भेदों का निरूपण २७३-२७७ ४१ चिकित्सकके स्वरूपका निरूपण २७७-२८८ , ४२. . . व्रण आदि दृष्टान्त से पुरुषजातका निरूपण २८९-२९९ __ ४३ क्रियावादी वगैरह तीथिकों के स्वरूपका निरूपण ३००-३०३ '४४ . मेघ के-दृष्टान्त द्वारा पुरुषजातका निरूपण ३०३-३१८ ३८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ फरण्डकके दृष्टान्तसे आचार्यादिकोंका निरूपण ३१८-३२० वृक्षके दृष्टान्तसे आचार्य के स्वरूपका निरूपण ३२२-३२५ ४७ ; मत्स्यादिके दृष्टान्त से पुरुषजातका निरूपण ३२६-३२७ ४८ क्षुद्रमाणियोका निरूपण ३३७-३४० .४९ . पक्षीके दृष्टान्त से भिक्षुकका निरूपण ३४०-३४१ .५० । पुरुपजातका निरूपण ३४१-३४८ ५१ चार प्रकारके दिव्यादि संवासका निरूपण ३४८-३५२ ५२ अमुरादि चार प्रकारके अपध्वंसका निरूपण ३५३-३६३ । ५३ प्रवज्याके स्वरूपका निरूपण , ३६३-३७५ ५४' ) सज्ञाके स्वरूपका निरूपण ३७५-३७८ ६५ ... कामके स्वरूपका निरूपण ३७९-३८० ५६ उदकके दृष्टान्तसे पुरुपनातका निरूपण ३८१-३९२ ५७ . , कुम्भके दृष्टान्तसे पुरुषजातका निरूपण ३९२-४०५ ५८. . उपसर्गके स्वरूपका निरूपण .. ४०६-४१३ ५९ कर्म विशेषका निरूपण ४१३-४१८ ६०. . चार प्रकार के संघके.स्वरूपका निरूपण ४१८-४२१ 'चार प्रकारकी बुद्धिके स्वरूपका निरूपण ४२१-४३२ ६२ 'जीवके स्वरूपका निरूपण ४३२-४३५ जीवके अन्तर्गत पुरुषविशेपका निरूपण ४३६-४४१ ६४ द्वीन्द्रिय जीवोंको असमारममाण और समारममाण के संयमासंयमका निरूपण ४४२-४४४ ६५ . नैरयिक जीवोंकी क्रियाका निरूपण ४४५-४४६ ६६ क्रियावान जीवका विद्यमान गुणोंका नाश और अवि द्यमान गुणोंका प्रकट होनेका कथन ४४६-४५२ ६७. धर्मद्वारका निरूपण ४५२-४५३ ६८ - नारकत्वादिके साधनभूत कर्म द्वारका निरूपण .. ४५४-४५८ .६९ . वाद्यादिके भेदोंका निरूपण ४५९-४६७ ७० सनत्कुमारादिकोंके विमानों के स्वरूपका निरूपण ४६८-४७१ ७१ जलगर्भका निरूपण ४७२-४७४ ७२ मानुषीके गर्भका निरूपण ४७५-४७८ ७३ चार प्रकार के काव्योंके स्वरूपका निरूपण ४७९-४८० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ لاف ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ८० ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९ ९० ९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ १०० समुद्घातके स्वरूपका निरूपण for rayer निरूपण भगवान् महावीरके पूर्वका निरूपण कल्पोंके स्वरूपका निरूपण समुद्ररूप क्षेत्रका निरूपण कपायों के स्वरूपका निरूपण कर्मपुद्गलों के चयनादि निमित्तका निरूपण पांचवें स्थानका पहला उद्देशा पांच प्रकारके मात्रका निरूपण वर्णादिका निरूपण संपके विषयभूत एकेन्द्रिय जीवोंग निरूपण अवधिदर्शन के क्षोभके कारणों का निरूपण केवलज्ञान दर्शनमें क्षीभ न होनेका निरूपण नैरयिक आदिकों के शरीरका निरूपण शरोरगतधर्मविशेषका निरूपण प्रतिघातका निरूपण उत्तरगुगों के भेदोंका निरूपण परीपद सहनेका निरूपण 868 ४८२ देतु और अहेतुके स्वरूपका निरूपण तीर्थंकरों के चवनादिका निरूपण ॥ समाप्त ॥ ४८३ ४८४ ४८५-४८६ ४८६-४९० ४९१-४९४ ५२२-५३० ५३० - ५५२ निर्ग्रन्थोंको महानिर्जरादिकी प्राप्ति के कारणका निरूपण ५५२-५५५ ५५६-५६१ आज्ञा अवराधन के कारणका निरूपण पांच प्रकार के विग्रहस्थानका निरूपण विपयादि स्थानोंका निरूपण ५६२-५६८ ५६९-५७१ देवोंके पांच प्रकारका निरूपण ५७१-५७२ देवों के परिचारणाका निरूपण ५७३-५७५ देवों के अग्रमहिपियों का निरूपण ५७५ चमरेन्द्रादिकों के अनीक और अनीकाधिपतियोंका ४९५-५०३ ५०४-५११ ५११-५१४ ५१४-५२१ ५२१-५२२ निरूपण ५७६-५८४ ५८५-५८८ ५८८-५८९ ५९०-६०२ ६०२-६१० ६१०- ६१८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्र मज्ञ पाठकगण सविनय निवेदन है कि शास्त्रों में मुफ और मिटिंग सम्बन्धी कई गलती होना संभवित हैं, जो मुझ वोचकन्द नीरक्षीर न्याय से समझ कर पढले गे, पर जो शास्त्रीय गलती रह गई है जो देखने में अगर सुज्ञ वाचकजन द्वारा दृष्टिगोचर हुई हैं, इनका शुद्धिपत्र देनेमें आता है। सूत्रका नाम . पृ. पति अशुद्ध शुद्ध समवाय मूत्र १६४ ५ राखलु बलदेवो रामः खलु बलदेवो द्वादश वर्षे ) द्वादश वर्षशतानि सहस्राणि सर्वायुषं सर्वायुषं ) १६ बारह हजार वर्ष-बारहसौ वर्ष । ૨૮ બાર હજાર વર્ષ— બારસો વર્ષ झातधर्मकथा सूत्र २६१ । १ पहली पंक्ति त्रैमासिकी पद छट भां. २ पूरी होने पर गया है सो त्रैमा. सिकी यह पद वढाकेपढ़ें शातधर्मकथाङ्ग सूत्र २६१ ११ आठवीं भिक्षुपतिमाके अनन्तर प्रथम सातदिकरात प्रमाणवाली नववीं 'भिक्षुप्रतिमा यह पाठ छूटा है सो 'नववीं भिक्षु पडिमा' वहां इतना झोड के पढ़ें सातधर्म कयानसूत्र भा. ३ ३९७ १७ प्रवचनसिद्ध प्रवचनविरुद्ध » ૨૧ પ્રવચનસિદ્ધ પ્રવચનવિરુદ્ધ " Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शातधमकथागसूत्र भा. २ १४७ १७ मद्यपानमें आतक्त-निद्राजनक द्रव्यमें आसक्त ૧૪૭ ૨૯ મદ્યપાનમાં – નિદ્રાજનક દ્રવ્ય આસક્ત માં આસક્ત ज्ञातधर्मकथासूत्र भा. ३ ३३४ ३ भगवताऽऽवश्यके-भगवताऽनुयोगद्वारे ज्ञातधर्मकथाङ्ग भा. ३ ३३४ १७ आवश्यकसूत्रमें अनुयोगद्वारसूत्र में ( ૧૯ આવશ્યકસૂત્રમાં અનુગદ્વાર સૂત્રમાં अन्तकृदशाङ्गमूत्र २९५ १० दसदस दसट्ट अन्तकृदशांगमन सत्तामाग्गे तेरस २९५ ११ . उसगा, इतना ' ' , पाठ छूट गपाहे . सो. वहां समन आचारांगपूत्र भा. २ १२२ ८ नेत्त परिणाणा नेत्तपरिणाणा अपरिहीणा फरस- अपरिहीणा जीद परिणाणा अपरि परिणाणा अपहीणा रिहीणा फरिस परिणाणा अपरिहीणा आचारांग सूत्र भा. २ २८१ १४ निगनवे ; अद्वानये , २६ ० અણું दशाश्रुतस्कंध ४३० २० कालकरके कालकरके ग्रैवेयक आदि । देवलोकमें से . दशाश्रुतस्कंध . ४३० २८ ४३६ शन श न રૈવેયકઆદિ દેવલોકમાંના ' ज्ञातधर्मकथासूत्र भा. २ ७३०-२१ शुशिल सत्य YgLAas येत्य (जेन शस२) - ઉદ્યાન બગીચો Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालेबतिविरचितया सुधाख्यया व्याख्यया समलङ्कतम् श्री-स्थानाङ्गसूत्रम् . (तृतीयो भागः) गतो द्वितीयोदेशः, तत्र जीवक्षेत्रप या उक्ताः, प्रारभ्यमाणे तृतीयोद्देश के तु जीवयर्याया उच्यन्ते, इत्येवं सम्बन्धेनायातस्यास्येदमाचं सूत्रम् मूलम्-चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा-कद्दमोदए १, खंजणोदए २, वालुओदए ३, सेलोदए । एवामेव चउबिहे भावे पण्णत्ते, तं जहा-कदमोदगसमाणे १, खंजणोदगसमाणे २, वालुओदगतमाणे ३, सेलोदगसमाणे ४, कदमोदगसमाणं भावमणुप्पविहे जीवे कालं करेइ गैरएसु उववज्जइ, एवं जाव सेलोदगसमाणं भावमणुप्पविटे जीवे कालं करेइ देवेसु उबवज्जइ । सू० १ ॥ चौथे स्थानके तीसरा उद्देशा प्रारम्भ__ " दूसरा उद्देशा समाप्त हो चुका इस में जीव-और क्षेत्र की पर्याय कही गई है, अय-प्रारभ्यमाण तृतीय उद्देशे में केवल जीव की ही पर्याय कही जायेंगी. इसी सम्बन्ध को लेकर आगत इस उद्देशे का आद्य सूत्र है-" चत्तारि उदगा पण्णत्ता"-इत्यादि-१ ચોથા સ્થાનના ત્રીજા ઉદેશાને પ્રારંભ બીજે ઉદ્દેશક પૂરો થયે તેમાં જીવ અને ક્ષેત્રની પર્યાય કહેવામાં આવી. હવે શરૂ થતા આ ત્રીજા ઉદ્દેશામાં માત્ર જીવની પર્યાયનું જ કથન કરવામાં આવશે. આગલા ઉદ્દેશા સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા આ देशानुं प्रथम सूत्र मा प्रमाणे छे-" चत्तारि उद्गा पण्णत्ता " त्याह Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे ___ छाया-चत्वारि उदकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कईमोदकं १, खञ्जनोदकं २, वालकोदकं ३, शैलोदकम् ४. एवमेव चतुर्विधो भावः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-काईमोदकसमानः १, खञ्जनोदकसमानः २, वालुकोदकसमानः ३, शैलोदकसमानः ४। कई मोदकममान भावमनुपविष्टो जीवः कालं करोति नैरयिकेपूपपद्यते, एवं यावन शैलोदकसमानं भावमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति देवेधूपपद्यते ।मु०१॥ टीका-" चत्तारि उदगा" इत्यादि अत्रैतस्मादुदकमूत्रात् पूर्व यदेकं राजिसूत्र तद्वितीयोद्देशे गतम् उदकानि - जलानि, चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-कदमोदकं १, खञ्जनोदकं २, वालुकोदकं ३, शैलोदकं ४ चेति । तत्र कर्दमोदर-कदमप्रधानमुदकं, यत्र प्रविष्टं पादाद्यङ्गं कर्दमवाहुल्येन सहसाऽऽक्रष्टुं न शस्यते, तत् १। तथा-खजनोदक-खजनं-दीपादीनां कज्जलं. तच्च पादादिलेपकारक मई मविशेषरूपमेव, तत्प्रधानमुदकं खजनोदकम् , तच्च लग्नं सत् चर सूत्रार्थ-जल चार प्रकार के कहे गये हैं, कर्दमोदक-१ खञ्जनोदक-२ वालुकोदक-३ शैलोदक-४ । भाव चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-कर्दमोदक समान-१ खननोदक समान-२ बालकोदक समान-३ और शैलोदक समान-४ । कर्दमोदक समान भाव में अनुप्रविष्ट हुवा जीव यदि कालवश होता है, तो वह नरक में उत्पन्न होता है, इस तरह से यावत्-शैलोदक समान भाव में अनुप्रविष्ट हुवा जीव यदि काल वश होता है तो वह देवों में उत्पन्न होता है। टोकार्थ – कर्दम प्रधान जो उदक होता है वह-कर्दमोदक है. ऐसे कर्दमोदक में फसा हुवा पैर आदि शारीरिक अङ्ग सहसा उस से खींचा नहीं जा सकता है । दीपादिकों के कज्जल-स्याही का नाम खञ्जन है, यह-पादादि कों में लिप्त करने पर सूत्राथ-6 (1) या२ प्र२तुं ४थुछे-(१) ४६ भ६४, (२) मना६४, (૩) વાલકેદક અને (૪) શૈલેદક, જળની જેમ ભાવ પણ ચાર પ્રકારના કહ્યા छे-४६°म समान, (२) मा समान, (3) वायु समान मन શૈલેદક સમાન કદ માદક સમાન ભાવમાં પ્રવેશેલે જીવ જે મરણ પામે છે, તે નારકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ શૈલેદક સમાન ભાવમાં પ્રવેશેલો જીવ જે મરણ પામે છે, તે દેશમાં ઉત્પન્ન થાય છે ટીકાઈ–કઈમયુક્ત પાણીને કમાદક કહે છે. એવાં કઈ માદકમાં (કાદવમાં) જે પગ આદિ કોઈ અગ ફસાયું હોય તે તેને સરળતાથી ખેંચી લઈ શકાતું નથી તેમાં ફસાયેલ પ્રાણું બહાર નીકળવાનો પ્રયત્ન જેમ વધુ કરે તેમ તેમાં વધારે ને વધારે પૂ પતું જાય છે. દિપાદિ કેના કાજળને ખંજન કહે છે. આ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ.३ सू०१ उदकदृष्टान्तेन चतुर्विध भावनिरूपणम् णादिकं मलिनीकरोति पुनर्जलादिना विशोध्यते २ तथा वालुकोदकं - वालुकाप्रसिद्धा, तत्मानमुदकं वालुकोदकम्, तच पादायने लग्नं शुष्कं च ततोऽङ्गसचालनमात्रेण बालका दूरीभवति । तथा-शैलोदकं - शिलाः- पापाणाः, तासां विकाराः शैलाः-शर्कराः 'कंकर' इति भाषामसिद्धाः, तत्मधानमुदकं शैलोदकं, शैलास्तु चिकणाः, ते पादादि स्पृष्टाः किञ्चिद्दुःखं कुर्वन्तोऽपि कर्दमादिवन्न लें कुर्वन्ति ४ । इत्युदकदृष्टान्तसूत्रम् । મ - अथ दाष्टन्तिकमासूत्रमाह - " एवामेवेत्यादि - एवमेव कर्दमाद्युदकचदेव, भावः - जीवस्य रागादि परिणामः स चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा कर्दमोदककर्दम विशेष का जैसा होता है अर्थात् - कज्जल को मथकर इस से पैर आदिकों में यदि लेप किया जाता है, तो वह भी कदम जैसा ही चिपक जाता है और उस स्थान को काला कर देता है इसकी प्रधानता वाला जो उदक है वह - खअनोदक है । यह खञ्जनोदक भी यदि कहीं पर लग जाता है, तो वह भी उस स्थान को मलिन कर देता है, फिर पानी से उसे साफ करने पर शुद्ध हो जाता है । वालुकाप्रधान जो उदक है वह वाकोदक है, पह-वालुकोदक भी यदि कहीं अङ्ग में लग जाय और शुष्क हो जाय, तो वह वालुका अङ्ग सञ्चालनमात्र से ही दूर हो जाती है । तथा-जिस जल में शैल-पत्थर के कंकड प्रधान होते हैं वे-शैलोदक हैं. कडुड चिकने होते हैं वे चरण- पग आदि से स्पृष्ट होने पर कुछ दुःख तो देते हैं तो भी कर्दम आदि के जैसे चिपकते नहीं हैं । કાજળને પાણીની સાથે છુટીને જે લેપ તૈયાર થાય તેને હાથ, પગ આદિ પર લગાવવાથી કાદવની જેમ જ તે અંગેાને કાળા કરી નાખે છે આ પ્રકારના મંજનની પ્રધાનતાવાળા પાણીને ખજનેાદક કહે છે આ ખજનાદકને જે જગ્યાએ સ્પશ થાય છે તે જગ્યા પશુ મલિન થઈ જાય છે, પરન્તુ તે ડાઘને પાણીની મદદથી સાફ કરી શકાય છે વાલુકાપ્રધાન જે પાણી છે તેને વાયુકાઢક કહે છે. આ પ્રકારનું રતિમિશ્રિત પાણી શરીરના કેઇ પણ ભાગને કે કેઈ પણ વસ્તુને લાગવાથી શરીરના તે ભાગ અથવા તે વસ્તુ સાથે રેતી ચાંટી જાય છે, પરન્તુ જેવું પાણી સૂકાઈ જાય છે કે તુરતજ શરીરના સચા લન માત્રથી જ અને વસ્તુને ખંખેરવાથી જ તે રેતી ખરી જાય છે જે પાણીમાં કાંકરા હોય છે તે પાણીને રીલેાદક કહે છે. તે કાંકરા પર પગ પડ વાથી સહેજ પીડા તા થાય છે, પણ તે કાંકરા કાઢવ આદિની જેમ શરીરે ચાટી જતાં નથી. " एवमेव "प्रेम पालना र अरछे, तेम Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे समानः १, खञ्जनोदकसमानः २, वालुकोदकसमानः ३, शैलोदकसमान ४ श्चेति । भावे कदमोदकादि समानत्व च लेपवत्त्वेन, तत्र कर्दमोदकसमानो भावःयथा कर्दमोऽङ्गे लग्नो महता प्रयासेन विमोच्यते तथा भावोऽपि १, तथाखानसमानो भाव.-यथा खञ्जनं ( कज्जलं ) लग्नं-लिप्तं कर्दमापेक्षया किञ्चिदायासेनापनीयते तथा भावोऽपि तथा-वालुकोदकसमानो भात्र:-यथा वालुकाऽङ्गे लग्नाऽल्पेन प्रयासेनापनीयते, तथा भावोऽपि ३, तथा-शैलोद कसमानोभावः__" एवामेव"-इत्यादि, जल की चतुर्विधता जैसे जीव के राग परिणाम भी चार प्रकार के होते हैं। जैसे--कोई एक रागादि परिणाम कर्दमोदक समान है, कोई एक खजनोदक समान, तो कोई एक रागादि परिणाम वालुकोदक समान, और-कोई एक रागादि परिणाम शैलोदक के समान होता है। भाव में यह कदमोदक आदि से समानता प्रकट की गई है, वहलेपकारक होने के कारण चिकनाहट-चिकनापन से प्रगट की गई है। इन में कर्दमोदक समान जो भाव होता है, वह-कर्दम जैसे अङ्ग में लग जाता हैं और-अति प्रथाम से छुडाया जाता है, उसी तरह दूर किया जाता है। जो-खञ्जनोदक समान भाव होता है, वह-जैसे खञ्चन लग जाने पर किश्चित् प्रयास से ही कर्दम को अपेक्षा दूर कर दिया जाता है, उसी तरह दूर किया जाता है । तथा-वालु कोदक समान जो भाव होता है वह जैसे बालुका अङ्ग में लग जाने पर अल्प ही प्रयास રાગપરિણામને પણ ચાર પ્રકાર છે. કોઈ એક રાગાદિ પરિણામ કર્દમોદક સમાન હોય છે, કેઈ એક ખજદક સમાન, તે કઈ એક વાલદક સમાન તે કઈ એક રાગાદિ પરિણામ શૈલેદક સમાન હોય છે. ભાવમાં કર્દમેદક આદિની સાથે જે સમાનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે તેનું કારણ એ છે કે કર્દમ આદિની જેમ તેમાં ચિકાશ હેવાને કારણે તેને કારણે આત્મા કર્મોને બન્ધ કરે છે જેમ શરીર પર લાગેલા કાદવને અતિ પ્રયાસથી દૂર કરી શકાય છે, તેમ કર્દમેદક સમાન ભાવને પણ અતિ પ્રયાસથી દૂર કરી શકાય છે જેમ કાદવ કરતાં ખંજન (કાજળ) ના ડાઘને વધારે સહેલાઈથી દૂર કરી શકાય છે, તેમ ખંજનદક સમાન ભાવને પણ કર્દમોદક સમાન ભાવ કરતાં વધારે સરળતાથી દૂર કરી શકાય છે. જેમ શરીરે ચટેલી રેતી અ૯૫ પ્રયાસથી જ દૂર કરી શકાય છે, તેમ વાલકેદક સમાન ભાવને થોડા પ્રયાસથી જ દૂર કરી છે. જેમ પથ્થર, કાંકરા આદિને પાદા Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२ पत्रिदृष्टान्तेन चतुविधपुरुपजातनिरूपणम् ५ यथा शैला: पाषाणशर्कराः पादादौ स्पृष्टाः किश्चिदुःखं जनयन्ति न तु लिप्यन्ते, तथा भावोऽपि । एतद्भावचतुष्टयानुप्रविष्टजीवस्य फलमाह-" कद्दमोदगममाणं" - इत्यादि, क्रमेण चतुर्णा फलं-नैरयिक-तिर्यङ्-मनुष्य-देवगतिप्राप्तरूपं बोध्यम् । सू०१ । अनन्तरं भाव उक्तः, साम्त भाववत्पुरुपजातं दृष्टान्तप्रदर्शनपुरस्सर निरूपयति मूलम्-चत्तारि पक्खी पण्णत्ता, तं जहा-रूयसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने १, रूवसंपन्ने गाममेगे णो रूयसंपन्ने २, एगे रूवसंपन्नोऽवि रूयसंपन्नेऽवि ३, एगे नो रूयसंपन्ने नो रूवससंपन्ने ४ । एवालेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-रूयसंपन्ने णाममेगे णो रूबलंपन्ने १-४, ।१। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-पत्तिय करेगीतेगे पत्तियं करेइ १, पत्तियं करेमीतेगे अपत्तियं करेइ २, अप्पत्तियं से दूर कर दी जाती है, उसी तरह दूर कर दिया जाता है, और-जो भाव शैलोदक समान होता है वह जैसे-पाषाण शर्करा पादादिकों में स्पृष्ट होने पर कुछ दुःख देती है किन्तु-चिपकती नहीं है, उसी तरह चिपकता नहीं है । इन चार प्रकार के भावों में प्रविष्ट जीव क्रम गतिसे नैरयिक-तिर्थश्च मनुष्य और देवों में जाता है। अर्थात् कर्दमोदक जैसे मलीन भाववाला नरकमें, और खानोदक समान भाववाला तियेचमें और घालुकासमान भाववाला मनुष्य में एवं शैलोदक समान भाववाला देवताओं में जाता है। स्मृ०१॥ દિકેને સ્પર્શ થતાં સહેજ પીડા થાય છે પણ તે કાંકરા આદિ પગની સાથે એંટી જતાં નથી, એ જ પ્રમાણે શૈલેદક સમાન ભાવ આત્મામાં ચોંટી જતા. નથી–સ્થિર થતાં નથી. આ ચાર પ્રકારના ભામાં પ્રવિષ્ટ જીવ ફમશઃ નરયિક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવામાં ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત્ કર્દમોદક જેવા મલીન ભાવવાળે નરકમાં, તેમ જ કાજળ જેવા ભાવવાળે તિર્યંચમાં અને વાલુકા રેતી સમાન ભાવવાળે મનુષ્યમાં અને શેલદક સમાન ભાવવાળે દેવામાં ઉત્પન્ન થાય છે. એ સૂ. ૧ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशासूचे कंगमोनेगे पत्तियं करेइ ३, अपत्तियं करेमीतेगे अपत्तियं कोड 2 ।२। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-अप्पणो णाममेगे पत्तियं करइ णो परस्त १, परस्स णाममेगे पत्तियं करेइ णो अप्पणा० १, ।। चनारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-पत्तियं पवेतामीतेगे पत्तियं पवेसेइ १, पत्तियं पवेसामीतेगे अपत्तियं पवेसेइ० ४, चत्तारि पुरिस जाया पण्णत्ता, तं जहा-अप्पणो णाममेगे पत्तियं पसंइ णो परस्स, १, परस्स णाममेगे पत्तियं पवेसेइ णो अपणो २-४ ॥ सू०२ ॥ छाया-नवारः पक्षिगः प्राप्ताः, नद्यया-रुतसम्पन्नो नामैको नो रूपस. पत्रः १, स्पसम्पनो नाम को नो रुतसम्पन्नः २, एको रूपसम्पन्नोऽपि रुतस अब मृत्रकार दान्तिक भावसे पुरुषजात का निरूपण करते हैं चनारि परग्वी पगत्ता-इत्यादि-२ सवार्य-रनी चार प्रकार के कहे गयेहैं, जैसे कोई एक पक्षी ऐसा होता है, जिम का गब्द नो आनन्द दायक होता है पर-वह स्वयं सुन्दर आकार वाला नहीं होता है -१ । कोई एक पक्षी ऐसा होता है जो रूप में ना सुन्दर है :पर-उममा शब्द आनन्द दायक नहीं होता है-२। पो एक पली पेमा होता है जो रूप में भी सुन्दर होता है औरહવે માત્ર ખાન અને દાર્શનિક મૃત્ર દ્વારા પુરુષોના પ્રકારો . " पारि पानी पगचा " त्या:__ -21 न प्रसाद या मारा -(1) 5 ५सी मेj ' - दाय , सुह२ लातु नया. (1) કે કે ૧૫મી એ હાથ છે કે જે સુંદર હોય છે પણ તેનો અવાજ ५९९५: it. (3) मे ५ युदाय छ २ देणापमा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ ०२ पक्षिष्टान्तेन चतुर्विधपुरुषजातनिरूपणम् ७ पन्नोऽपि ३, एको नो रुतसम्पन्नो नो रूपसम्पन्न. ४ । एवमेव चत्वारि पुरुष जातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - रुतसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः ४ | १ || चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- प्रीतिकं करोमीत्येकः प्रीतिकं करोति १, प्रीतिकं करोमीत्येकोऽमीतिकं करोति २, अमीतिकं करोमीत्येकः प्रीतिकं करोति ३, अमीतिकं करोमीत्येकोऽमीतिकं करोति ४ | |२| चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- आत्मनो नामैकोऽमीतिकं करोति नो परस्य १, परस्य नामैकः प्रीतिकं करोति नो आत्मनः ४, | ३ | शब्द भी उसका आनन्द दायक होता है -३ और कोई एक पक्षी ऐसा होता है. जो-तो बोलने में और न देखने में सुन्दर होता है - ४ इसी प्रकार पुरुष जात चार हैं कोई एक ऐसा होता है जिसका शब्द आनन्द दायक होता है किन्तु आकार सुन्दर नहीं होता है - १ कोई पुरुष ऐसा होता है जो रूप में तो सुन्दर, पर- बोलने में नहीं - २ कोई एक ऐसा होता है जो बोलने में भी और आकार में भी सुन्दर होता है - ३ कोई एक न तो बोलने में-न देखने में सुन्दर होता है -४ फिर भी - चार प्रकार के पुरुष होता हैं, जैसे कोई एक ऐसा होता है जो - " मैं प्रोति करूं " - ऐसा निश्चय करके प्रीति करता है - १ कोई एक मैं प्रीति करूं ऐसा निश्चय करके भी प्रीति नहीं करता है - २ कोई एक पुरुष ""मैं अनीति करूं " ऐसा निश्रय करके भी अप्रीति नहीं करता है - ३ પણ સુંદર હોય છે અને તેના અવાજ પણ આનદદાયક હોય છે. (૪) કેાઈ એક પક્ષી એવું હાય છે કે જેના અવાજ પણ મધુર હેતેા નથી અને દેખાવ પણ સુંદર હાતા નથી. એ જ પ્રમાણે પુરુષ પણ ચાર પ્રકારના હોય છે. (૧) કાઇ એક પુરુ ષની વાણી આનંદદાયક હાય છે, પણ દેખાવ સુંદર હાતા નથી . (૨) કાઇના દેખાવ સુંદર હાંય છે પણ વાણી મધુર હાતી નથી. (૩) કેાઇની વાણી પણ મધુર હોય છે અને દેખાવ પણ સુદર હોય છે. (૪) કેાઈની વાણી પણ મીઠી હાતી નથી અને દેખાવ પણ સુદર હતેા નથી પુરુષના આ પ્રમાણે પણ ચાર પ્રકાર પડે છે—–(૧) કાઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે પ્રીતિ કરવાને નિશ્ચય કરીને પ્રીતિ કરી શકે છે. (૨) કાઈ પ્રીતિ કરવા છતાં પ્રીતિ કરતા નથી. (૪) કોઈ પુરુષ અપ્રીતિ કરીને અપ્રીતિ જ કરે છે. કરવાના નિશ્ચય કરવાના નિશ્ચય Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गो चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रीतिकं प्रवेशयामीत्येकः पोतिक मवेशयांते प्रीतिकं प्रवेशयामीत्येकोऽप्रीतिकं प्रवेशयति० ४। ___ चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-आत्मनो नामैकः प्रीतिकं प्रवेशयति नो परस्य १, परस्य नामकः प्रीतिकं प्रवेशयति नो स्वस्य २-४ ॥ मू० २ ॥ कोई एक मैं अप्रीति करूं ऐसा निश्चय कर के अप्रीति ही करता है-४ फिरभी- पुरुष जात चार हैं, जैसे-कोई एक ऐसा होता है जोअपने प्रति प्रीति करता है, परके प्रति नहीं-१ कोई एक परके प्रति पीति करता है, अपने प्रति नहीं-२ कोई एक अपने, और-परके प्रति भी प्रीति करता है-३ एक कोई नतो अपने प्रति न परके प्रति ही प्रीति करता है-४-३ । फिर भो-पुरुप चार हैं, कोई एक अपने स्नेह को परचित्तमें प्रविष्ट कराऊ ऐसा निश्चय करके परचित्तमें अपने स्नेहको स्थापित करता है-१ कोई एक अपने स्नेहको परचित्त में प्रविष्ट करा निश्चय करके भी परचित में अपनी प्रीति प्रविष्ट नहीं करता है-२ एक ऐसा होता है जो परचित्त में अप्रोति प्रविष्ट कराऊं निश्चय करके भी प्रीति को प्रविष्ट करता है-३ कोई एक परचित्त में अप्रीति प्रविष्ट कराऊं निश्चय न करके उसके चित्त में अपनी अप्रीति ही प्रविष्ट करता है-४-४ પુરુષના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે–(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હિય છે કે જે પિતાના પ્રત્યે પ્રીતિ રાખે છે, અન્ય તરફ પ્રીતિ રાખતો નથી. (૨) કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પરપ્રત્યે પ્રીતિ રાખે છે પણ પિતાના પ્રત્યે રાખતું નથી (૩) કેઈ સ્વ અને પર બનને પ્રત્યે પ્રીતિ રાખે છે. (૪) કેઈ સ્વ કે પર કઈ પ્રત્યે પ્રીતિ રાખતો નથી. પુરુષના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે-(૧) કેઈ પિતાના નેહને પરચિત્તમાં પ્રવિષ્ટ કરાવવાનો નિશ્ચય કરીને પરચિત્તમાં પિતાના પ્રત્યે નેહ ઉત્પન્ન કરાવી શકે છે (૨) કેઈ પિતાને માટે પરયિત્તમાં પ્રીતિ ઉત્પન્ન કરાવવાનો નિશ્ચય કરવા છતાં પરચિત્તમાં પિતાના પ્રત્યે પ્રીતિ ઉત્પન્ન કરાવી શકતો નથી (૩) કેઈ પુરુષ પરચિત્તમાં અપ્રીતિ ઉત્પન્ન કરાવવાનો નિશ્ચય કરવા છતા પણ પિતાના પ્રત્યે પ્રીતિ જ ઉત્પન્ન કરાવે છે. (૪) કેઈ એક પુરુષ પરચિત્તમાં અપ્રીતિ ઉત્પન્ન કરાવવાનો નિશ્ચય કરીને અપ્રીતિ જ 6पन्न ४२ छ. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ހ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२ पक्षिष्टान्तेन चतुर्विधपुरुषजात निरूपणम् ९ टीका - " चत्तारि पक्खी " - त्यादि - स्पष्टम्, नवरं - रुतं - शब्दः, रूपं च सर्वेषां पक्षिणां भवत्येव, अत एतद्द्वयं विशिष्टमेत्र गृह्यते, एवं च रुतं श्रवणाऽऽह्ला दको मनोज्ञशब्दस्तेन सम्पन्नो युक्तः एकः पक्षी भवति, परन्तु नो रूपसम्पन्नः - सुन्दराssकारो न भवति, कोकिलवत्, इति प्रथमो भङ्गः १ | - तथा - पुरुषजात चार हैं, कोई एक तो ऐसा होता है जो, अपने चित्त में प्रीति को प्रविष्ट करता है, पर-परके चित्त में प्रीति को प्रविष्ट नहीं करता है - १ कोई एक ऐसा होता है जो परचित्त में प्रीति को स्थापित करता है, अपने चित्त में नहीं -२ कोई एक ऐसा होता है जो अपने चित्त में प्रीति को स्थापित करता है, और परचित्त में भी-३ और कोई एक अपने चित्त में भी और परचित्त में भी स्थापित नहीं करता है - ४-४ टीकार्थ - इस सूत्र में पक्षी का दृष्टान्त देकर पुरुष चार प्रकार प्रकट किये गये हैं. उस सम्बन्ध में ऐसा कथन जानना चाहिये किरुन, शब्द, आवाज, बोली पक्षियों का होता है, और रूप भी पक्षियों का होता है, परन्तु यहां जो ये दो बातें प्रगट की गई हैं, इस से ये दोनों विशिष्ट रूप से गृहीत हुवे हैं । तथा च- जो मनुष्यों के श्रोत्रे - न्द्रियो का आनन्ददायक होता है ऐसा मनोज्ञ शब्द और जो रूप रुचिरसुन्दर आकार वाला होता है उसे ऐसा मनोज रत और रूप से समझना चाहिये । इस प्रकार समझ कर फिर इस दृष्टान्त सूत्र का इस પુરુષના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે-(૧) કાઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે પેાતાના ચિત્તમાં તે પ્રીતિ ઉત્પન્ન કરી શકે છે પણ પરના ચિત્તમાં પ્રીતિ ઉત્પન્ન કરાવી શકતેા નથી (૨) કેાઈ પુરુષ ૫૨માં પ્રીતિ ઉત્પન્ન કરાવી શકે છે પણ પેાતાના ચિત્તમા પ્રીતિને સ્થાપિત કરી શકતા નથી. (૩) કાઇ એક પુરુષ પેાતાના અને પરના, બન્નેના ચિત્તમાં પ્રીતિ સ્થાપિત કરી શકે છે (૪) કાઈ પુરુષ પાતાના ચિત્તમાં પણ પ્રીતિને સ્થાપિત કરી શકતા નથી અને પરના ચિત્તમાં પણ પ્રીતિને સ્થાપિત કરી શકતે નથી. ટીકા—પહેલા સૂત્રમાં પક્ષીનુ દૃષ્ટાન્ત આપીને ચાર પ્રકારના પુરુષા પ્રકટ કર વામાં આવ્યા છે. પક્ષીઓમાં અવાજ ( ખેલી, શબ્દ ) અને રૂપ બન્નેના સદ્દભાવ હાય છે. પરન્તુ અહીં તે બન્ને ખાતાને વિશિષ્ટ રૂપે ગ્રહેણુ કર વામા આવેલ છે. અહીં ‘રૂપ ’ પદથી એવુ સમજવું જોઇએ કે મનુષ્યેાની દૃષ્ટિને ગમે તેવુ મનેાન ( રુચિર ) રૂપ અને શખ્સ ' પદથી મનુષ્યાની કણેન્દ્રિયને મનેાન લાગે એવા મધુર અવાજ ગ્રહણ થવા જોઇએ. ८ स- २ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO स्थाना ____ एका-कश्चित् पक्षी रूपसम्पन्न:--मुन्दराऽऽकारो भवति, किन्तु नो मनसम्पन्नः साधारणशुकवत् , इति द्वितीयो भगः २। एको मन रूपोभयसम्पन्नो भवति मयूरवत् ; इति तृतीयो भङ्गः ३। एको नो रुनसम्पनो नो स्पसम्पन्नश्च भवति फाकवत् , इति चतुर्थो भङ्गः । ___" एवामेव " इत्यादि-एवमेव-पक्षिवदेव पुरुपजातानि चत्वारि प्रजातानि, तद्यथा-रुतसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्न इत्यादि । अत्रेदं वोयम्-पुरुपो हि लौकिकलोकोत्तरभेदेन द्विधा । तत्र लौकिकपुरुषपक्षे चन्यागे भगा एवं बोध्याः, तथाहि-एकः पुरुषः प्रियवादित्वेन रुतसम्पन्न:-मनोजगदयको भवति, किन्तु प्रकार से अर्थ करना चाहिये । कोई एक पक्षी ऐमा है कि-उमकी आवाज सुरीली मीटी, आकर्षक, आनन्ददायक, कर्णप्रिय होती है परन्तु वह रूप सम्पन्न नहीं होता, जैसे-कोकिल-कोयल १ कोई एक देखने में इतना सुन्दर कि दर्शकों का मन ग्वींचले, किन्तु-उसका कद आकारका अनुरूप नहीं, जैसे साधारण शुक, (तोता) २ कोई एक उभय था, (दोनों तरहसे ) सुन्दर होता, जिसका शब्द भी कर्ण सुखावह और-मचिररूप भी, जैसे-मोर-३ कोई एक दोनों प्रकारसे टीक नहीं होताहै शब्दसे भी - रूप से भी, जैसे-कौवा-४ इस दृष्टान्त का समन्वय पुरुषों के साथ करते हुवे सूत्रकारने पुरुपमें चार प्रकारका भेद कहा है। पुरुप लौकिकअलौकिक भी होते हैं, सो इन लौकिक पुरुपोंमें पक्षी सम्बन्धी चार भङ्ग होंगे। जैसे-कोई एक प्रिय स्त (शब्द) सम्पन्न होता है जिन्तु-रूप से सम्पन्न नहीं-१ कोई एक सुन्दर रूप वाला है. तो-सुन्दर बोलचाल આ દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે પક્ષીઓને નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પડે છે–(૧) કેઈ પક્ષીને અવાજ મધુર, કર્ણપ્રિય હોય છે, પણ તે દેખાવમાં સુદર હેતું નથી. દા. ત. કેયેલ. (૨) કોઈ એક પક્ષીને દેખાવ મનોહર હોય છે પણ તેને અવાજ મીઠે હેતે નથી દા. ત. સામાન્ય પિપટ. (૩) કેઈ એક પક્ષીને અવાજ પણ કર્ણપ્રિય હોય છે અને દેખાવ પણ મનોહર હોય છે. દા. ત. મેર. (૪) કેઈ એક પક્ષીને અવાજ પણ કર્કશ હોય છે અને દેખાવ પણ ખરાબ હોય છે. દા. ત. કાગડો. - પક્ષીની જેમ પુરુષના પણ ચાર પ્રકારો પડે છે–પુરુષ લૌકિક પણ હોય છે અને અલૌકિક પણ હોય છે. લૌકિક પુરુષના પણ પક્ષી જેવા ચાર પ્રકાર સમજવા–(૧) કેઈ એક પુરુષને અવાજ કર્ણપ્રિય હોય છે પણ તે સુંદર હોતો નથી (૨) કેઈ એક પુરુષ રૂપની અપેક્ષાએ સુંદર હોય છે પણ તેની Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२ पक्षिदृष्टान्तेन चतुर्विधपुरुषजातनिरूपणम् ११ यथोक्तरूप रहितत्वेन नो रूपसम्पन्नः - सुन्दराऽऽकारवान् न भवति, इति प्रथमो भङ्गः | १| तथा-एकः पुरुषो रूपसम्पन्नो भवति न तु रुतसम्पन्न, इति द्वितीयः २ एको रुतसम्पन्नोऽपि रूपसम्पन्नोऽपि भवति । इति तृतीयः ३। एको न रुतसम्पन्नो नापि रूपसम्पन्न इति चतुर्थ: ४ । लोकोत्तरपुरुषपक्षेत्वेवं, तथाहि - एकः साधुपुरुषो रुवसम्पन्नः - रुतेन - जिनप्ररूपितशुद्धधर्म देशनादिप्रबन्धरूपशब्देन सम्पन्न - युक्तो भवति, किन्तु रूपसम्पन्नः - रूपेण - लोचाल्पकेशशिररकत्व - तपः कृशीकृतशरीरत्व-मलमलिनका ययाऽल्पोपकरणत्वप्रभृतिसाधुचितरूपेण सम्पन्नो न भवति, इति प्रथमो भङ्गः । एवमेवावशिष्टं भङ्गत्रयमपि यथायोग्यं बोध्यम् | १ | " चचारि पुरिसजाया " इत्यादि - स्पष्टम्, नवरं प्रीतिकं प्रीतिरेव प्रीतिकंप्रेम करोमीति निश्रित्य एकः प्रीतिकं करोति १, एकः - अन्यस्तु प्रीतिकं करोवाला नहीं - २ कोई एक देखने में भी सुहावना और बोल से भी - ३ कोई एक गधा - गदहा, और रूट जैसा न तो शब्द से न तो रूप से सुन्दर होता है - ४ । अब लोकोत्तर में घटाना हैं- कोई एक साधु (शब्द) से ( जिनप्रणीत धर्मदेशना से ) सम्पन्न होता है, किन्तु - रूप से-लोच करना, अल्प केशोंसे युक्त शिरवाला होना, तप से कृश शरीर वाला होना, शरीर संस्कार वर्जिन होना, अल्पोपकरण रखना, आदि साधूचित सम्पन्न नहीं होता है -१ इसी प्रकार शेष भङ्ग य को यथायोग्य समझना चाहिये ४ | " चत्तारि पुरिसजाया " - इत्यादि सूत्र स्पष्ट है । यहां प्रीतिक शब्द का अर्थ प्रेम है. प्रीति शब्द से स्वार्थ में ही कन् વાણી આનદદાયક હાતી નથી. (૩) કેાઈ એક પુરુષ દેખાવમાં પશુ સુંદર હાય છે અને તેની વાણી પણ મીઠી હોય છે . (૪) કાઈ એક પુરુષની વાણી પણ મધુર હાતી નથી અને દેખાવ પણ સુંદર હાતા નથી. હવે લેાકેાત્તર પુરુષાના ચાર પ્રકાર પ્રકટ કરવામા આવે છે—(૧) કાઇ એક સાધુ રુતથી (જિન પ્રણીત ધમ દેશનાથી) સ‘પન્ન હાય છે, પરન્તુ રૂપ સ ́પન્ન હેાતા નથી એટલે કે લેાચ કરવા, અલ્પ કેંશાથી યુક્ત શિરવાળા હાવું, તપથી કૃશ શરીર વાળા હાવું, શરીર સસ્કારવિહીન હાવુ, અશ્પાપકરણ રાખવા, આદિ સાધ્ ચિત રૂપથી સ`પન્ન હાતા નથી. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ પ્રકારો પણ સમજી લેવા. " चत्तारि पुरिमजाया" इत्यादि सूत्रनो अर्थ स्पष्ट छे, गड्डी प्रतिष्ठ शज्ड प्रेमना अर्थभां परायो छे. 'प्रीति' पहने स्वार्थ 'उन्' प्रत्यय सभा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानात मीति निश्चित्यापि अमीतिकं करोति २, एकः पुरुषः अप्रीतिकं करोमीति निश्चित्य प्रीतिकं करोति येन केनापि कारणेन पूर्वभावपरिवर्तनात् २, एकः पुरुषः अप्रीतिकं करोमिति निश्चित्य अप्रीतिकं करोति । " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि स्पष्टम्, नवरम् - एकः पुरुषः आत्मन:स्वस्य प्रीतिकम् - आनन्दं भोजन न खादिभिः करोति - सम्पादयत स्वार्थपरायणत्वात्, किन्तु परस्य - अन्यस्य प्रीतिकं भोजनवस्त्रादिमिर्गे करोति, इति प्रथमो भङ्गः १। एकः पुरुष परस्य प्रीतिकं भोजननखादिभिः करोति परमार्थपरायण त्वात् मोहववाद्वा. किन्तु आत्मनः - स्वस्य नो करोति, इति द्वितीयः । एकः प्रत्यय होने से बना है, "मैं प्रेन करूं " सन में निश्चय करके कोई एक पुरुष प्रीति करता है - १ कोई पुरुष तो प्रीति करूं ऐसा निश्चय करके भी अप्रीति करता है - २ अमीति करूं ऐसा निश्चय करके भी कोई एक मीति करता है, क्योंकि उसमें किसी कारण से तब तक परिवर्तन होता है-३ कोई एक अप्रीति करूं निश्चय करके अप्रीति करता है - ४ । " चत्तारि पुरिसजाया " - इत्यादि स्पष्ट है, इस में ऐसा प्रगट किया गया है कि कोई एक पुरुष स्वार्थ परायणता से अपने आपको ही भोजन-वस्त्र आदि से सुसज्जित करने में आनन्द मानता है, औरों को भी तथा सुसज्जित करने में नहीं - १ कोई एक पर को ही भोजन वस्त्रादिकों से परपरायणता के कारण आनन्दित होता है, क्योंकि हो सकता है - उसके प्रति वह मोहवाला हो, परन्तु अपने प्रति इस प्रकार के ख्याल से रहित होता है-२ उवाथी 'प्रीति' शब्द जन्यो छे, “ હું પ્રેમ કરુ ” આવે। નિશ્ચય કરીને अर्ध व्यक्ति प्रीति रे छे (२) " હું પ્રેમ કરુ આ પ્રકારના નિશ્ચય કરીને यशु अर्ध पुरुष अप्रीति रे छे (5) " समीति ३ આ પ્રકારના નિશ્ચય કરીને કૈાઈ પુરુષ પ્રીતિ કરે છે કારણ કે કેાઈ કારણથી તેનામાં પરિવર્તન થઈ જાય છે (૪) ૮ અપ્રીતિ કરૂ” આ પ્રકારના નિશ્ચય કરીને કોઇ પુરુષ અપ્રીતિ કરે છે. "" " चत्तारि पुरिसजाया " त्याहि मा सूत्रमां नीचे प्रभाये यार अ રના પુરુષા કહ્યા છે—(૧) કેાઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે સ્વાથી સ્વભાવને કારણે પાતે જ સુંદર સુંદર ભોજનેા વડે પેાતાને જ તૃપ્ત કરતા હાય છે અને સુદર વઆદિથી પેાતાના શરીરને વિભૂષિત કરતે હાય છે અને તેમાં જ આનંદ માનતા હેય છે, પણ પરને તે વસ્તુએ આપીને આનંદ માનતેા નથી. (૨) કેઇ એક પુરુષ પરને વસ્ત્રાદિ આપીને આાનંદ પામતા હાય છે. માહાદિકને કારણે એવું સ’ભવી શકે છે. પણ પેાતાને માટે એવા ખ્યાલથી રહિત હોય છે. (૩) કાઈ એક પુરુષ સ્વાર્થ અને પરમાર્થ પરાય Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था.४ उ ३ सू २, पक्षिदृष्टान्तेन चतुर्विधपुरुषजातनिरूपणमे १३ पुरुप' आत्मनः परस्य च प्रीतिक भोजनाऽऽच्छादनादिभिः करोति स्वार्थपरमाथंपरायणत्वात् , इति तृतीयः ३। तथा-एकः पुरुषो न स्वस्य प्रीतिक करोति न च परस्य, स्वार्थपरमार्थरहितत्वादिति चतुर्थः ४। " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-एकः पुरुषः प्री तकस्वसम्बन्धि प्रेम परकीयचित्ते प्रवेशयामीत्येवं निश्चित्य घीतिक परचित्ते पवेशयतिस्थापयति १, एकः पुरुषः मीतिकं प्रवेशयामीत्येव निश्चित्यापि केनापि कारणेन पूर्वभावपरिवर्तनादप्रीतिक परचित्ते प्रवेशयति १, एकः पुरुपोऽप्रीतिक परचित्ते प्रवेशयामीत्येवं निश्चित्यापि प्रीतिकं प्रवेशयति ३। एकः पुरुषस्तु अप्रीतिकं परचित्ते प्रवेशयामीत्येवमपीतिकं परचित्ते प्रवेशयति उपयतीतिभावः ४॥ कोई एक उभय था. स्वार्थ-और परमार्थ परायणतासे अपने और पर दोनों को भोजन वस्त्रादि से आनन्द सम्पन्न बनाये रखता है-३ कोई एक स्वार्थ और-परमार्थ वञ्चित होने के कारण भोजन वस्त्रादि द्वारा अपने आपको-और-औरों को भी आनन्द युक्त करने कराने से वञ्चिन रखता है-४" चत्तारि पुरि सजाया"-इत्यादि एष्ट है, इस में-यह समझाया गया है कि-कोई एक स्वसम्बन्धित स्नेह को परकीयचित्त में प्रवेश कराऊं" निश्चित करके परचित्त में स्थापित करता है-१ कोई एक पुरुष अपना स्नेह " परचित्त में स्थापित करूं " निश्चय करके भी किसी कारण से पूर्व भाव परिवर्तन हो जाने पर परचित्तमें अग्रीति को ही स्थापित करता है-२ कोई एक " अप्रीति को ही स्थापित करूं" निश्चय करके फिर भी वह प्रीति को ही परचित्त में स्थापित करता है-३ ગુતાને કારણે તે પણ સુંદર ભોજન, વસ્ત્રાદિથી આનંદ માને છે અને બીજાને પણ ભેજન, વસ્ત્રાદિ આપીને આનંદ કરાવે છે. (૪) કેઈ એક પુરુષ સ્વાર્થ અને પરમાર્થથી રહિત હોવાને કારણે પિતાને પણ ભેજન વસ્ત્રાદિ દ્વારા આનંદ કરાવતું નથી અને અન્યને પણ એ રીતે આનંદિત કરતે નથી ___ " चत्तारि पुरिसजाया" त्याहि सा सूत्रमा यार ४२ना पुरुष द्या છે. (૧) કોઈ એક પુરુષ “ અન્યના ચિત્તમાં મારા પ્રત્યે સનેહ સ્થાપિત કરાવું” આ પ્રકારને નિશ્ચય કરીને અન્યના ચિત્તમાં પિતાના પ્રત્યે નેહ સ્થાપિત કરી દે છે. (૨) કોઈ એક પુરુષ પરચિત્તમાં પિતાના પ્રત્યે સ્નેહ સ્થાપિત કરવાનો નિશ્ચય કરવા છતાં પણ કોઈ કારણે પૂર્વ ભાવમાં પરિવર્તન થઈ જવાથી પરિચિત્તમાં અપ્રીતિ જ સ્થાપિત કરે છે. (૩) કોઈ એક પુરુષ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो "चत्तासि पुरिमजाया" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-एकः पुरुषः आत्मनःस्वस्य चित्ते प्रीतिकं प्रवेशयति, किन्तु परस्य चित्ते प्रीतिकं नो प्रवेशयति, इति प्रथमो भङ्गः १। शेपभनत्रयं पूर्वबोध्यम् । मू० २ । पुनः सदृष्टान्तं पुरुषजातं निरूपयति मूलम्-चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा--पत्तोवए १, पुष्फोवए २, फलोवए ३, छायोवए ४ । एवामेव चत्तारि परिसजाया पण्णता, तं जहा -पत्तोवगरुक्खसमाणे १, पुप्पोबमरुत्वसमाणे २,फलोवगरुक्खसमाणे ३, छायोवगलक्खसमाणे हासू०३। छाया-चत्वारो रक्षाः प्रज्ञप्ताः, तयथा-पत्रोपगः १, पुप्पोपगः २, फलोपगः ३, छायोपगः ४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पत्रोपगकोई एक परचित्त में अमीति स्थापित करू निश्चय करके पूर्व विचार के अनुसार अप्रीति को ही परकीय चित्त में स्थापित करता है-४ "चत्तारि पुरिसजाया"-इत्यादि स्पष्ट है, इस में कहा गया है कि-कोई एक अपने ही चित्त को प्रसन्न रखता है परचित्त को नहीं-१ शेष भङ्ग त्रय पूर्व की तरह जानना चाहिये-॥ १.० २ ॥ "पुनः सूत्रकार सदृष्टान्त पुरुपजातकी प्ररूपणा करते हैं " चत्तारि रुक्खा पगत्ता"-३ मुत्रार्य-चार प्रकारके वृक्ष कहे गये हैं, जैसे कोई एक वृक्ष पत्रोपग होता है, १ कोई एक पुष्पोपग होता है, २ कोई एक फलोग होता है, ३ પરચિત્તમાં અપ્રીતિ રથાપિત કરવાનો નિશ્ચય કરવા છતાં પણ પ્રીતિ જ સ્થાપિત કરે છે (૪) કોઈ એક પુરુષ પરિચિત્તમાં અપ્રીતિ સ્થાપિત કરવાને વિચાર કરીને પૂર્વ ભાવ અનુસાર અપ્રીતિ જ સ્થાપિત કરે છે. ___" चत्तारि पुरिसजाया" त्याहि. २प्रारे ५४ पुरुषाना यार ४१२ કહ્યા છે. (૧) કોઈ એક પુરુષ પિતાના ચિત્તને જ પ્રસન્ન રાખે છે. અન્યના ચિત્તને પ્રસન્ન રાખતું નથી બાકીના ત્રણ પ્રકારો આગલા સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવા | સૂ ૨ વૃક્ષના દષ્ટાન્ત દ્વારા સૂત્રકાર પુરુષના પ્રકારની પ્રરૂપણ કરે છે– "चत्तारि रुखा पण्णत्ता" त्याहि-(सू. 3) સૂત્રાર્થ–વૃક્ષના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે(૧) કોઈ વૃક્ષ પત્રે પગ (પત્રયુક્ત) હેય छे, (२) । वृक्ष पुण्या५५ हाय छे. (३) अ वृक्ष ला५ डाय छ, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३ सू० ३ सदृष्टान्तं पुरुषजातनिरूपणभू वृक्षसमानः १, पुप्पोपगक्षसमानः २, फलोपगवृक्षसमानः ३, छायोपगवृक्षसमानः ४।।०३। ___टीका-" चत्तारि रुखा" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरं-पत्रोपगः-पत्राण्युपगच्छति-प्राप्नोतीति पत्रोपगः-पत्रयुक्तः, एवं पुष्पोपगादयस्त्रयः ४। " एवामेव" इत्यादि-एवमेव-पत्रोपगादि वृक्षवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथापम्रोपगवृक्षसमानः १, पुप्पोपगवृक्षसमानः २, फलोपगवृक्षसमानः ३, छायोपगड क्षसमानः ४। पत्रोपगादिवृक्षसमानत्वं लौकिकानां लोकोत्तराणां च पुरुषाणां संभवति । तत्र लौकिकपक्षे-यथा पत्रोपगक्षः पत्रमात्रेण जनमुपकरोति तथैव तत्स. मानः पुरुषो वचनमात्रेण जनमुपकरोतीति प्रथमः १। पुष्पोपगवृक्षो यथा पुष्पेण और-कोई एक छायोपग होता है, ४ । इसी प्रकार से पुरुषजात चार कहे गये हैं, जैसे-कोई एक पुरुष पत्रोपग वृक्ष समान होता है, १ कोई एक पुष्पोपग वृक्ष समान होना है, २ कोई एक फलोपग वृक्ष समान होता है, ३ और कोई एक पुरुष छायोपग वृक्ष समान होता है, ४ । इस सूत्रका तात्पर्य ऐसा है कि कोई एक वृक्ष ऐमा है जो पत्रोपग पत्रों से युक्त होता है, १ कोई एक वृक्ष पुष्पोपग-पुष्पोंसे संयुक्त होता है, २ कोई एक वृक्ष ऐसा होता है जो फलोपग, फलों से युक्त होता है, ३ और-कोई एक वृक्ष ऐसा होता है जो छायोपग-छाया से युक्त होताहै, ४ इनके समान चार पुरुष होते हैं इसका तात्पर्य है कि-कोई एक लौकिक पुरुष ऐसा होता है जो, पत्रोपग वृक्ष समान होना है, अर्थात्जैसे पत्रोपा वृक्ष केवल अपने पत्रों से ही जन-उपकार करता है उसी प्रकार पुरुष भी केवल वचन से ही जनों का उपकार करता है, १ पुष्पोंઅને (૪) કોઈ વૃક્ષ છાપગ હોય છે એ જ પ્રમાણે પુરુષ પણ ચાર પ્રકારના હોય છે. (૧) કોઈ પુરુષ પપગ વૃક્ષ સમાન હોય છે, (૨) કોઈ પુપોપગ વૃક્ષ સમાન હોય છે, (૩) કોઈ ફલેપગ વૃક્ષ સમાન હોય છે અને (૪) કોઈ છાપગ વૃક્ષ સમાન હોય છે. : -। सूत्रना भावार्थ नीय प्रमाणे छे. (१) ओ मे वृक्ष पानथा યુક્ત હોય છે. (૨) કોઈ વૃક્ષ પુષ્પોથી યુક્ત હોય છે, (૩) કોઈ વૃક્ષ ફલેથી યુક્ત હોય છે અને (૪) કોઈ વૃક્ષ છાયાથી યુક્ત હોય છે. વૃક્ષની જેમ પુરુષે પણ ચાર પ્રકારના હોય છે. (૧) પપગ વૃક્ષ સમાન પુરુષ–જેમ પત્રો પગ વૃક્ષ પિતાના પાન વડે જ લેક પર ઉપકાર કરે છે, એ જ પ્રમાણે કે એક લૌકિક પુરૂષ પોતાની વાણું દ્વારા જ લોકેનું ભલું કરે છે. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ स्थानक सूत्रे जनमुपकरोति तथैव तत्समानः पुरुष. कष्टनिवारणोपायमदानेनोपकारी भवति, इति द्वितीयः २ फलोपगक्षः फलमदानेन यथा विशिष्टोपकारको भवति, तथैव तत्समानः पुरुष आपगतान् जनानर्थादि मदानेनोपकरोतीति तृतीयः ३ तथाछायोपगवृक्षो यथा छायया जनानां सन्तापं हरति तथैव तत्समानः पुरुष आथमदानादिनाऽऽपवान् जनानुपकरोति, इति चतुर्थः ४ | लोकोत्तर क्षेतु यः सूत्रदानेन जनमुपकरोति स पत्रोपगक्षसमानः | १| यः पुनरर्थप्रदानेनोपकरोति स पुष्पोपगवृक्षममानः ॥ २॥ यस्तु सूत्रार्थोभयप्रदानेनोपकरोति स फलोपगटक्षममानः | ३ | यः पुनर्जन्मजरामरणारूपाऽपायाद् रक्षति स छायोपगवृक्षसमान इति । ० ३ ॥ पग पुरुष कष्ट निवारण उपाय प्रदान करता है जैसे- पुष्पशेपग वृक्ष अपने पुष्पों से जनका उपकार करता है, २ तथा फलोपग वृक्ष समान वह पुरुष है जो आपनों को अर्थादि प्रदान से उसका उपकारक होता है जैसे-फलोपग वृक्ष अपने फलों से चलते जनों का उपकार करता है, ३ छायोपग वृक्ष का जैसा वह पुरुष होता है जो आश्रय प्रदान द्वारा उपकार करता है, जैसे- छायोपग वृक्ष छायासे जनों का सन्ताप करता है, ४ लोकोत्तर पुरुष इन वृक्षों के समान होते हैं जो लोकोत्तर पुरुष सूत्र दान से जन उपकारक होता है वह पत्रोपग वृक्ष समान है, १ जो अर्थ प्रदान से उपकारक होता है वह पुष्पोपग वृक्ष समान है, २ जो मुत्र - (૨) પુષ્પાપગ વૃક્ષ સમાન પુરુષ—જેમ પુષ્પ પત્ર વૃક્ષ પે તાના પુષ્પાથી જ લેાકેા પર ઉપકાર કરે છે, તેમ કોઈ પુરુષ કષ્ટ નિવારણના ઉપાય બતાવીને લેાકેાનુ' ભલુ કરે છે. (૩) લેપગ વૃક્ષ સમાન પુરુષ-જેવી રીતે લે પગ વૃક્ષ પેાતાના લે! માપીને જતાં આવતાં લેકેાના ઉપકાર કરે છે, તેમ કઈ પુરૂષ અર્થાદિનું પ્રશ્નાન કરીને લેાકેાને ઉપકાર કરે છે, (૩) છાયે।પગ વૃક્ષ સમાન પુરુષ—જેમ કેાઇ વૃક્ષ પેતાના છાયડામાં લેાકેાને આશ્રય આપે છે તેમ કાઈ પુરુષ આશ્રય પ્રદાન કરીને પણ લેાકાને ઉપકાર કરે છે. અથવા સંતાપ દૂર કરે છે લેાકેાત્તર પુરૂષને વૃક્ષાની સાથે આ પ્રમાણે સરખાવી શકાય— (૧) જે લેાકેાત્તર પુરુષ સૂત્રદાન દ્વારા જન ઉપકારક હાય છે, તેને પત્રાપણ વૃક્ષ સમાન કહી શકાય (૨) જે અર્થપ્રદાન દ્વારા ઉપકારક થાય છે, તેને પુષ્પાપગ વૃક્ષ સમાન કહી શકાય (૩) સૂત્ર અને અર્થ અને દ્વારા ઉપકાર કરનાર લેાકત્તર પુરુષને ક્લેપગ વૃક્ષ સમાન કહી શકાય (૪) જે Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४७०३ सू०४ सदृष्टान्तं श्रमणोपासकस्याश्वासनिरूपणम् १७ अथ श्रमणोपासकस्याऽऽश्वास सदृष्टान्तमाद मूलम्-भारं णं वहमाणस्स चत्तारि आसासा पणत्ता, तं जहा-जत्थ णं अंसाओ अंसं साहरइ तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते १, जत्थवि य णं उच्चारं वा पासवणं वा परिट्रावेइ तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थवि य णं णागकुमारावासंलि वा सुवण्णकुमारावासंसि वा वासं उवेइ तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते ३, जत्थवि य णं आवकहाए चिट्ठइ तत्थवि य से एगे आमासे पण्णत्ते । एवामेव समणोवासगस्त चत्तारि आसासा पण्णत्ता, तं जहा-जत्थ णं सीलवयगुणवयवेरमणएच्चक्खाणपोसहोववालाइं पडिवज्जेइ तत्थवि अ से एगे आप्तासे पण्णते १, जत्थवि य णं मामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपालेइ तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थवि य णं चाउद्दसटमुद्दिटुपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते ३, जत्थवि य णं अपच्छिममारणंतिअसंलेहणाजोसणाजूलिए भत्तपाणपडियाइखिए पाओवगए कालमणवकंखमाणे विहरइ तत्थवि य से एगे आसाले पण्णत्ते ४ ॥ सू० ४ ॥ अर्थ दोनों से जन कल्याण करता है वह फलोपग वृक्ष समान है, ३ और जो जन्म जरा मरण रूप अपापों से बचाता है, संरक्षण करता है वह लोकोत्तर पुरुष छायोपग समान है, ४ ॥ सू० ३॥ જન્મ, જરા અને મરણ રૂપ અપાયેથી બચાવે છે, તે લકત્તર પુરુષને છાપગ વૃક્ષ સમાન કહી શકાય છે. એ સૂ૦ ૩ | Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे छाया-भारं खलु वहमानस्य चत्वार आश्वासाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--यत्र खलु अंसादंसं संहरति तत्रापि च तस्य एक आश्वासः प्रज्ञप्तः १, यत्रापि च खल्लु उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति तत्रापि च तस्य एक आश्वासः प्रजातः २. यत्रापि च खलु नागकुमारावासे वा सुपर्णकुमारापासे वा बासमुपैति तत्रापि च तस्य एस. आश्वासः प्रजप्तः ३, यत्रापि च खलु - यावत्कथया-तिष्ठति तत्रापि च तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्तः ४। एवमेव श्रमणोपासकस्य चत्वार आश्वासाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-यत्र खलु शीलवतगुणव्रत - विरमणप्रत्याख्यानपापधोपवासान् प्रतिपद्यते तत्रापि च तस्यैक आश्वासः प्रज्ञमः १, यत्रापि च खलु सामायिक ___ " अब सूत्रकार सदृष्टान्त श्रमणोपाप्तकको अश्वासन देते हैं मुत्रार्थ-"भारंणं वहमाणस्त चत्तारि आनासा पण्णत्ता"-इत्यादि-४ एक स्थान से दूसरे स्थान तक भार पहुंचाने वाले पुरुषो के लिये चार विश्राम कहे गये हैं जैसे-वह अपने मार को जहां पर एक कन्धे से दूसरे कन्धे पर रखता है, एक विश्राम, १ वह जहां-टट्टी, या, पेशाब की राधा दूर करता है, दसरा विश्राम, २ तीसरा विमान यहां कहा गया है, जहां कि नागकुमाराऽऽचास में, या-मुवर्णकुमारावासमें वह ठहर जाता है, ३ चौथा विश्राम वहां कहा गया है जहां उसे भार पहुं. चाने के लिये कहा गया है पहुंच कर भारको उतारेगा, ४ । इसी तरह ले चार (आवास.) विश्राम श्रमणोपासक के भी है-एक आवास वह जयकि-शीलत्रत, गुणत्रत, विरमण, अनदण्डविरमण, प्रत्यारयान, और-पोपयोपवास को स्वीकार करता है, १ दुसरा विश्राम वह कहा હવે સૂત્રકાર દષ્ટાન્ત દારા શ્રમણે પાકને આશ્વાસન દે છે – " भार णं वहमाणम्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता" त्या:સૂવા-એક સ્થાનેથી બીજે સ્થાને ભાર વહન કરીને લઈ જનાર પુરુષ માટે ચાર વિશ્રામસ્થાન કહ્યા છે. પહેલે વિશ્રામ તે છે કે જ્યાં તે પિતાના ભાર (બીજા) ને એક ખભા પરથી બીજા ખભા પર મૂકે છે બીજો વિશ્રામ તે છે કે જ્યાં તે ઝાડા, પેશાબ રૂપ કુદરતી હાજત દૂર કરી શકે છે. ત્રીજો વિશ્રામ એ છે કે જ્યાં નાગકુમારાવાસ અથવા સુપર્ણકુમારાવાસ રૂપ કઈ સ્થાનમાં તે શેડો સમય થોભી જાય છે. એ વિસામે એ છે કે જ્યાં તે બેજે પહોચાડવાનો હોય ત્યાં પહોંચીને બેજાને કાયમને માટે ખભા પરથી उतारी ना छे, એ જ પ્રમાણે શ્રમણોપાસકેને માટે પણ ચાર વિશ્રામસ્થાન (આવાસ) ४ा छ-(१) शीलवत, गुणवत, मान विरभ, प्रत्याज्यान मन पाषाપવાસ ગ્રહણ કરવા રૂપ પહેલું વિશ્રામસ્થાન સમજવું. (૨) સામાયિક, દેશ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३ ०४ सदृष्टान्तं श्रमणोपासकस्याश्वासनिरूपणम् १९ देशावकाशिकं सम्यगनुपालयति तत्रापि च तस्यैक आवासः प्रज्ञप्तः २, यत्रापि च खलु चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्ट पौर्णमासीषु प्रतिपूर्ण पोषधं सम्यगनुपालयति तत्रापि च तस्यैक आश्वामः प्रज्ञप्तः ३, यत्रापि च खलु अपश्चिममरणान्तिकसलेखनाजोपणाजुष्टो भक्तपानमत्याख्यातः पादपोपगतः कालमनवकाङ्क्षन् विहरति तत्रापि च तस्यैक आश्वासः प्रज्ञतः । सू० ४ । टीका - " भारं णं " इत्यादि - भारं धान्यादीनां वहमानस्य - एकरमात् रथानादपरस्थानं पापयतः पुरुषस्य आवासा - विश्रामाः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तत्तथा-यत्र - यस्मिन्नवसरे, 'खलु : ' वाक्यालङ्कारे सर्वत्र अंसात् - अंसे एकस्मात् स्कन्धात् अपरं स्कन्धं संहरति- भार मापयति, तत्रापिच- स्कन्धात्, स्कन्धान्तरे भारस्य नयनावसरेऽपि च तस्य - भारवाहकस्य एक:- प्रथमः, आश्वासः प्रज्ञप्तः गया है जबकि सामायिक देशावकाशिक का सम्पक रीति से वह - पालन करने लगता है, २ तीसरा विश्रान उसका वह कहा गया है जब वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, और पूर्णिमा तिथियों में पौषध का पूर्ण | रूप से पालन करता है, ३ तथा चौथा आवास वह कहा वह मरणकाल सम्बन्धिनी अपश्चिम संलेखना को धारण भक्तपान का प्रत्याख्यान कर देता है. और अपने काल की रहित हुवा पादपोपगमन " संधारा " - वाला होता है, ४ टीकार्य - दृष्टान्तमें आये भारशहरुके विश्राम जैसाश्रमणोपासक के चार आवासका तात्पर्य है कि जो व्यक्ति साधुजनों की सुश्रूषा करता है वह सेवक श्रमणोपासक कहलाता है, जिस प्रकार भारवाहक भारसे अकान्त रहता है उसी प्रकार श्रमणोपासक भी सावद्यव्यापार रूप से आक्रान्त होता है । भारवाहक भार को निश्चित स्थानपर पहुंचाने गया है जब कर लेता है आकाङ्क्षा વકાશિકનું સમ્યક્ રીતે પાલન કરવું તે ખીજો વિશ્રામ છે (૩) આઠમ, ચૌદશ, પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યાની તિથિઓમાં પૌષધવ્રતનું સારી રીતે પાલન કરવું' તે ત્રીજો વિશ્રામ છે. (૪) મરણકાળ નજીક આવતા અપશ્ચિમ સલેખના ધારણ કરવી, આહાર પાણીના પ્રત્યાખ્યાન કરવા, અને મૃત્યુની આકાંક્ષા રાખ્યા વિના પાદપાપગમન સ થારા કરવા રૂપ ચે થે વિશ્રામ સમજવા ટીકા-દેષ્ટાન્ત સૂત્રમા દર્શાવવામાં આવેલા ભારવાહકના ચાર વિસામા જેવા શ્રમણેાપાસકના પશુ ચાર વિસામા કહ્યાં છે. જે વ્યક્તિ શ્રમણેાની સુશ્રુષા કરે છે તેને શ્રમણેાપાસક કહે છે. જેમ ભારવાહક ભારથી અકાંત રહે છે એ જ પ્રમાણે શ્રમણેાપાસક પણ સાવધ વ્યાપાર રૂપ ભારથી આકાંત હાય છે, જેમ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ५४ } | १ | यत्रापि च उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति-निवारयति, तत्रापि च तस्य एक:-अपरो द्वितीय इत्यर्थः आश्वासः प्रज्ञप्तः २ । यत्रापि य 'नागकुमारावासे वा सुपर्णकुमाराऽऽवासे वा' अत्र नागकुमाराऽऽवास - सुपर्ण कुगाराऽऽवासयोरुपलक्षणतयाऽन्येऽपि देवावासा गृह्यन्ते तेन नागसुकुमारादिदेव विशेपस्य आवास-स्थाने इत्यर्थः, वासम् उपैति = प्राप्नोति तत्रापि च तस्यैक:- अन्यस्वतीय इत्यर्थः, आश्वासः प्रज्ञप्तः ३, यत्रापि च स्थाने खलु आपकथया - आपनम् आपः प्रापणं तस्य कथा, तथा मारस्वामिना भारमापणविषये यस्य स्थानस्य निर्देशः कृतस्तदनुसारेण भारवाहको भारमवतार्य तिष्ठति - स्थितोभवति तत्रापि च तस्य एकः - अपरथतुर्थ इत्यर्थः आवासः प्रज्ञप्तः । यद्वा-' यावत्कथया' इति च्छाया, यात्रतः - यत्परिमाणस्य स्थानस्य कथा कुता - कथनं कृतं भारस्वामिना, तदनुसारेण च यत्र भारं स्थापयतीत्यादि पूर्ववद्बोध्यम् ४ । इति । इति दृष्टान्तमुत्रम् | अथ दाष्टन्तिकसूत्रम् -- " एवामेवे "त्यादि - एवमेव भारवाह कस्याऽऽश्वासवदेव, श्रमणोपास कस्य श्रमणानां - साधूनाम् उपासकः सेवकः श्रमणोपासक थाकः, तस्य साव व्यापारमाराऽऽक्रान्तस्य आश्वासाः तद्विमोचनेन विश्रामा:- चित्तसमाधिरूपाः चत्वारः प्रज्ञप्ताः । अयं भावः - श्रमगोपासको जिनाऽऽगमसम्बन्धविमलीकृतबुद्धि तथा ' नरकनिगोदादि विविधदुःखपरम्पराजन कावारम्भपरिग्रहों यात्रिति तक के सिलसिले में बीच बीच में विश्रान्ति लेना चलता है, उसी प्रकार श्रमणोपासक भी सावद्य व्यापार को छोडने के लिये उसका परित्याग करने के लिये अपने त्याग को उत्तरोत्तर बढाता है बस यही इसका विश्राम है। विश्राम चित्त समाधि रूप होता है, यद्यपि श्रमणोपासक जिनागम के सम्बन्ध से, गुर्वादिकों के सदुपदेशों से निर्मल बुद्धि होकर आरम्भ' - और परिग्रह नरक निगोद आदि विविध दुःख परम्परा का जनक है, देख भी रहा हूं- आरम्भ, परिग्रहों से अभी तक अकल्याण ભારવાહક ભારને નિશ્ચિત સ્થાને પહોંચાડતા સુધીમાં વચ્ચે વચ્ચે વિસામા લેતેા રહે છે, એ જ પ્રમાણે શ્રમણેાપાસક પણ સાવદ્યવ્યાપારેને છેડવાને માટે તેમના પરિત્યાગ કરવાને માટે ધીરે ધીરે ત્યાગની માત્રા વધારતા જાય છે. ખસ, એજ તેના વિશ્રામ છે. વિશ્રામ ચિત્તસમાધિ રૂપ હોય છે. જો કે શ્રમણેાપાસક જિનાગમના સબંધથી, શુરૂ આદિના સદુપદેશાથી એટલુ' તે સમજી શકે છે કે “ આરભ અને પરિગ્રહ નરક નિગેાદ આદિ વિવિધ દુ ખ પર'પરાના જનક છે, આર'ભ પરિગ્રહ આદિને કારણે હજી સુધી મારૂ અક Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०४ उ०३ सू०४ सदृष्टान्तं श्रमणोपासंकस्याश्वासनिरूपणम् ३१ जानन्नपि दुर्दमेन्द्रिय भटपटलाशीभूतस्तत्र प्रवर्तमानः सभय सन्तापकलापमुपैति, भावयति चैवम् " हियए जिणाणं आणा, चरियं मह एरिसं अपुन्नस्स । एयं आलप्पाल, अन्चो ? दूरं विरांच्यइ । १। हयमम्हाणं नाणं, हयमाहाणं मणुस्समाहप्पं । जे किल लद्धविवेया, विचेट्ठिमो बालबालच । २ । ही होता चला आ रहाहै, कल्याणामिलापो मेरे लिये अवश्य हेय त्याज्य है, ऐसा जान लेना है। तथापि-दुर्दस इन्द्रिय समूह रूप नटो से वशी भूत होकर प्रवृत्त तो होता है फिर भी आसक्ति से नहीं, किन्तु-गरम लोहेका तवाको पकड़ने के लिये जैसे डरता डरता अपनी प्रवृत्ति करता है। उस प्रवृत्ति में मोद युक्त नहीं होता है । किन्तु-पश्चात्ताप ही करता है क्योंकि-उसकी विचारधारा उस समय ऐसी हो जाती है "हियए जिणाणं आणा"-इत्यादि. अरे ? मैं कितना नासमझ हूँ जो मेरे हृदय से जिनेन्द्रदेव की आज्ञा विराजित होने पर ली मेरा चरित्र-रहन सहन ऐसा बन रहा है. मेरा यह ज्ञान किस कामका जब कि ज्ञानके रहने पर भी मेरा मनुष्यभव मेरे हाथों नष्ट किया जा रहा है, मैं तो-सर्वथा अज्ञानी जैसा ही अपनी प्रवृत्ति करने में अभी तक लगा हुवा हूं, इस प्रकार લ્યાણ જ થતું રહ્યું છે કલ્યાણની અભિલાષા રાખતા એવા મારે માટે તે તે અવશ્ય હેય (ત્યાજ્ય) છે ” છતાં પણ દુર્દમ ઈન્દ્રિય સમૂહ રૂપ ભટથી પરાસ્ત થઈને તેમાં પ્રવૃત્ત તે થાય છે. પરંતુ તેમાં આસક્ત થઈને પ્રવૃત્તિ કરતો નથી પણ ગરમ લેઢાના તવાને પકડવાની જેમ ડરતા ડરતા પિતાની પ્રવૃત્તિ કરે છે. તે પ્રવૃત્તિથી આનંદ પામતો નથી, પણ તેના હૃદયમાં પશ્ચાતાપ જ કર્યા કરે છે, કારણ કે તે સમયે તેની વિચારધારા આ પ્રકારની હોય છે “हियए जिणाणं आणो" त्याह અરે ! હું કે અણસમજુ છું કે મારા હૃદય માં જિનેન્દ્ર દેવની આજ્ઞા વિરાજિત હોવા છતાં પણ મારું ચારિત્ર અને રહેણીકરણ આ પ્રકારના બની ગયાં છે. મારું આ જ્ઞાન શા કામનું છે ? કાર્યું કે આ જ્ઞાન હોવા છતાં પણ હું મારે મનુષ્ય ભવ મારે હાથે જ ફેગટ ગુમાવી રહ્યો છું? હું તે બિલકલ અજ્ઞાની હાઉં એવી રીતે મારી પ્રવૃત્તિમાં હજી સુધી લીન રહ્યા જ કરૂં છું.” આ પ્રકારની ભાવનાથી ઓતપ્રેત થયેલા તે શ્રમ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागपत्र छाया-" हृदये जिनान'माज्ञा चरित्रं ममेदृशमपुण्यस्य । एतदालप्यालम् अव्यो ( अहो-आश्चर्य ) दूरं विसंवदति । १। हतमस्माकं ज्ञानं हत्तमस्माकं मनुष्यमाहात्म्यम् । यत् किल लब्धविवेका विचेप्टामहे वालवाला इच।२।" इति, इत्थं भावयतस्तस्य चत्वार आश्वासा भवन्तीति । तद्यथा -यत्रापि खलुयस्मिन्नवसरे शीलवत गुणत्र न-विरमण-प्रत्याख्यान-पोपयोपामार-तत्र शीलंचिनसमाधिरूप, व्रतानि-स्थूलपणातिपात-विरमगादीनि पञ्च गुणवने-दिग्वनोपभोगपरिभोगत्रतरूपे, विरमणम्-अनर्थदण्डविरमण रागादिविरमणं वा, प्रत्याख्यानानि-नमस्कारसहितादीनि, पोषधोपवामः-अष्टम्यादिपर्वदिवसेवाहारादित्यागः, एपामितरेतरयोगद्वन्दः, तान् प्रतिपद्यते-स्वीकरोति, तत्रापिच-शीलव्रतादि स्वीकारेऽसि । तस्य-श्रावकस्य एक आश्वालः प्रज्ञप्तः । ___यत्रापि च खलु सामायिक-समा-समत्तं रागद्वेपरहितत्वेन सर्वेपु जीवेषु रबसमानत्वं, समशब्दस्यात्र मावधाननिर्दिष्टत्वात् , तस्याऽऽय:-प्राप्तिः समाय:की भावना से ओतप्रोत बने हुवे इस अमणोपासक के चार आवास होते हैं । इनमें इसका सर्व प्रथम आवाल उस समय होता है. जब यह चित्त समाधि रूप शीलको, स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि पांच व्रतों को, दिग्बत उपभोग परिभोग रूप गुणव्रतों को, और-अनर्थदण्ड विरमण रूप विरमग को, अथवा-रागादि विरमण को तथा-नमस्कार सहित पोपयोपवास को-अष्टमी आदि पर्व दिनों में आहारादि त्याग को स्वीकार करता है-१ द्वितीय विश्राम तय होता है, जब-यह सामायिक को, तथा-देशा. वकाशिक को धारण कर लेता है, रागद्वेष रहित होकर सय जीवो में પાસકને નીચે પ્રમાણે ચાર આવાસ (વિશ્રામ) હોય છે-શ્રમણોપાસકનો સાવધ વ્યાપારના ત્યાગ રૂપ પહેલા વિશ્રામ આ પ્રકારને હોય છે-ત્યારે તે ચિત્તસમાધિ રૂપ શીલને, સ્થૂલ મૃણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ વને, દિગવ્રત ઉપભોગ પરિભેગ રૂપ ગુણત્રોને, અને અનર્થદડ વિરમણરૂપ વિરમણને, અથવા રાગાદિ વિરમણને તથા નમસ્કાર સહિત પિષપવાસને-આઠમ આદિ પર્વ દિનમાં આહારાદિ ત્યાગને સ્વીકાર કરે છે. બીજે વિશ્રામ આ પ્રકાર હોય છે-જ્યારે તે સામાયિક તથા દેશાવકાશિકને ધારણ કરે છે, ત્યારે સાવદ્ય વ્યાપારના ત્યાગ રૂપ બીજે વિશ્રામ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ ४०३१०४ सदृष्टान्तं श्रमणोपासकस्याश्वासनिरूपणम् २३ प्रवर्धमानशारदचन्द्रकलावत् प्रतिक्षणविलक्षणज्ञानादिलाभः, यद्वा - सम-साम्यं समभावजनितः प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभूत आन्मपरिणामः, तस्य आयोलाभः समाऽऽयः, स प्रयोजनमस्येति सामायिक व्रतम् , यद्वा-समस्याऽऽयो यस्मात् तत् समाय तदेव सामायिकम् , तत् यत्र स्थितः श्रावकः श्रमणभूतो भवति, तत् सावधयोगपरिवर्वजननिरवद्ययोगप्रतिसेवनलक्षणं सामायिकमुच्यते । उक्तंच " सामायिकं गुणानामाधारः खमित्र सर्वभावानाम् । न हि सामायिकहीनाश्चरणादिगुणान्विना येन । १ । तस्माज्जगाद भगवान् सामायिकमेव निरुपमोपायम । शरीरमानसानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य । २।" इति, सामायिकविवरणं विस्तरत उपासकदशा मूत्रस्यास्मत्कृतागार-धर्मसंजीवनी टीकातोऽवसेयम् । अपनी समानना की भावना का नाम सम है, सम शब्द भावप्रधान है, सम प्राप्ति समाय है। यह-समाय प्रवधेमान शरचन्द्र चान्दनी जैसा प्रतिक्षण विलक्षण ज्ञोनादि का लाभ रूप होता है। अथवा-समनोम, साम्य का है, यह-साम्य समभाव जनितआत्मपरिणाम है, और यह प्रतिपल अनिर्वचनीय कर्मनिर्जराका हेतु होता है, इस समका जो आय-लाभ है वह समाय है यह ममाय जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । अथवा-समका लाभ जिससे होता है वह-समाय है, यह-समाय ही सामायिक है। इस सामायिक में स्थित आवक श्रमण समान होता है, क्योंकि-सामाधिक व्रत सावध योगका परिवर्जन-और निरपद्य योगका प्रति सेवन रूप होता है। कहा भी है- 'सामायिकं गुणानामाधार"-इत्यादि, इस सामायिक का પ્રાપ્ત થાય છે. રાગદ્વેષથી રહિત થઈને સમસ્ત જીવો પ્રત્યે સમાનતાની ભાવના રાખવી તેનું નામ “સમ” છે “સમ શબ્દ ભાવપ્રધાન છે સમ પ્રાપ્તિન નામ “સમાય છે તે સમાય પ્રવર્ધમાન શર૬ ચન્દ્રની ચાન્દની સમાન પ્રતિક્ષણ વિલક્ષણ જ્ઞાનાદિના લાલરૂપ હોય છે અથવા “સમ” એટલે “સામ્ય” તે સામ્ય સમભાવ જનિત આત્મપરિણામ છે, અને તે પ્રતિપળ અનિર્વચનીય કર્મનિર્જરાના કારણ રૂપ બને છે. આ સમને જે આય (લાભ) છે તેનું નામ સમય છે આ સમાય જેનું પ્રયોજન છે, તે સામાયિક છે અથવા સમનો લાભ જેનાથી થાય છે તે સમાય છે, અને તે સમાય જ સામાયિક છે આ સામાયિકની આરાધના કરતે શ્રાવક શ્રમણ સમાન હોય છે, કારણ કે સામાયિક વ્રત સાવદ્યોગના પરિવજન રૂપ અને નિરવ તિસેવન રૂપ હોય છે. કહ્યું પણ છે 3-"सामायिक । म सामायितुं विशेष विषय Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानपत्रे तथा देशात्रका शिकं देशे दितगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य विभाग अवकाशोsaस्थानं त्रियो यस्य तद्देशावकाशं तदेव देशाव काशि तत् दितगृही नरय दिवररिमाणस्य प्रतिदिनं संक्षेपकरणलक्षण सर्वत-संक्षेप करणलक्षणं या सम्य सावधानतया अनुपालयति, तत्रापि च = सामायिकदेशात्र काशिकानुपालनेऽपि च वस्य एक आश्वासः प्रज्ञप्तः २ यत्रापि च चतुर्दश्यष्टद्दिष्टपौर्णमासीषु चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्टा श्रमावास्या, पौर्णमासी- पूर्णिमा, एतासु तिथिषु प्रतिपूर्ण सम्पूर्णमहोरात्रं पोपथ सम्यगजुग लपति, तत्रापि - चतुर्दश्यादितिथिषु प्रतिपूर्ण पोपधानुपालनेऽपि च तस्यैक आश्वासः ૧૪ - प्रज्ञप्त ३ । यत्रापि च खलु श्रमणोपासकः अपश्चिममरणान्तिकसलेखना- जोपणाजु:पश्चाद्-अन्ते भवा पश्चिमा न विद्यते पथिमा अन्तिमा यस्या सा अपविमा= सा चामौ मरणान्तिकर्मलेखना - मरगममीपवर्तितपोनिशेषः, तस्या जोषणा सेवनं तया जुg - सेवितः - युक्तो वा, जुष्टा अविनमरणान्तिकसंलेखनाजोपणा येन स तथा, क्तान्तस्यात्र परनिपातः । तथा मक्तपानमत्याख्यातः - प्रत्याख्यातेविशेष विवरण मैंने उपासक दशाङ्ग सूत्र की अगार संजीवनी टीका में लिखा है वहां देख | दिखत में की गई दिशाओं में आने जाने की मर्यादा को प्रतिदिन संक्षिप्त करना, अथवा सर्व व्रनोंको संक्षिप्त करना इसका नाम - देशावकाशिक व्रत है। इस सामायिक एवं देशावकाशिक व्रत को सम्पक रूप से पालना द्वितीय आवास विश्राम स्थान कहा गया है, २। जहां चतुर्दशी, अष्टमी, आदि पर्वतिथियों में सम्पूर्ण अहोरात्र का जो पोष व्रत पालन किया जाता है वह उपासक का तीसरा आयाम - विश्रामस्थान है, ३ जहां श्रमणोपासक अपश्चिम-सर्वान्तिममारणान्तिक संलेखना रूप तप विशेष का प्रीतिपूर्वक सेवन करता है, - ઉપાસકદશાંગ સૂત્રની અગારસ જીવની ટીકામાં મેં લખેલું છે, તે! ત્યાંથી વાંચી લેવું, અમુક નિયત દિશામાં અવર જવરની મર્યાદાને પ્રતિદિન સ`ક્ષિમ કરવી અથવા સ તેને સક્ષિપ્ત કરવા તેનું નામ દેશાવકાશિક 1 છે આ સામાયિક અને દેશાવકાશિક વ્રતનું સમ્યક્ રીતે પાલન કરવું, એને જ ખીજુ વિશ્રામસ્થાન કહ્યુ છે. શ્રમણેાપાસકનુ વિશ્રામસ્થ ન-અ ામ, ચૌદશ આદિ પવ તિથિઓમાં સપૂર્ણ અહેારાત્ર (દિનરાત) નું જે પાષધત્રત કરવામાં આવે છે, ते तेनुं त्रीभुं विश्रामस्थान छे (४) अपश्चिम ( अन्तिम ) - भारयान्तिः सखेબના રૂપ તપવિશેષનું પ્રીતિપૂર્વક સેવન કરવુ, ચારે પ્રકારના આહારના પર Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू० ५ पुनरपि पुरुषविशेषनिरूपणम् २५ त्यक्ते भक्तपाने येन स तथा त्यक्त भक्तपान इत्यर्थः, अत्रापि क्तान्तस्य परमयोगः | तथा - पादपोपगतः - पादपो - वृक्षः स इव निर्व्यापारतया उपगतः - पादपोपगमननामकानशन विशेषं प्रतिपन्नः, तथा कालं - मरणकालम् - अनवकाङ्क्षन् - अनभिलपन्, विहरति - सर्वतो निवृत्तस्तिष्ठतीति भावः तत्रापि च तस्य एक आश्वासः प्रज्ञप्तः ४ । ( ० ४ ) । " पुनः पुरुषविशेष निरूपयितुमाह मूलम् - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- उदिओदिए णाममेगे १, उदित्थमिए णाममेगे २, अत्थमिओदिए णाम. मेगे ३, अत्थमित्थमिए णाममेगे ४ । भरहे राया चाउरंतचक्कट्टी of उदिओदिए १, बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कत्रही उदित्थमिए २ हरिएसवले णाममणगारेणं अत्थमिओदिए काले णं सोयरिये अत्थमिअत्थभिए । । सू० ५ । " ३, छाया - चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - उदितोदितो नामेकः १, उदितास्तमितो नामैकः २, अस्तमितोदितो नामैकः ३, अस्तमितास्तमितो नामैक: ४ : भरतो राजा चातुरन्तचक्रवर्ती खलु उदितोदितः १ ब्रह्मदत्तः खलु तथा - भक्त पानका प्रत्याख्यान करता है, एवं मरणाशंसा रहित हो कर पादपोपगमन नामक अनशन विशेष को सर्वतोभाव से धारता है वह श्रमणोपासकका चौथा आवास विश्राम स्थान है || सू०४ ॥ (6 पुनः पुरुष विशेषका निरूपण " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि - ५ सूत्रार्थ - चार पुरुषजात कहे गये हैं, जैसे- प्रथम उदितोदित १ उदितास्तमित-- २ अनमिनोदिन - ३ और अस्तमितास्तमित-- ४ । ત્યાગ પૂર્વક મરણની આકાંક્ષાથી રહિત બનીને પાઇપેાપગમન નામના સંચારાનું સર્વાંતા ભાવ પૂર્વક આરાધન કરવું, તે શ્રમણેાપાસકનું ચેાથુ વિશ્રામસ્થાન છે સૂ કા પુરુષ વિશેષનું સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે— ' चत्तारि पुरिसजाया " हत्याहि - ( सू. 4 ) 'सूत्रार्थ-यार प्रारना पुरुष ह्या छे - (१) અસ્તુમિતાદિત અને (૪) અસ્તમિતાસ્તમિત ३०-४ हिताहित, (२) हितास्तभित, (3) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे २६ राजा चातुरन्तचक्रवत उदितास्तमितः २, हरिकेशवलो नामानगारः खलु अस्तमितोदितः ३, कालः ख सौकरिकः अस्तमितास्तमितः। (मू० ५) । टीका-" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-स्पष्टम्-नवरम्-एकः पुरुषः उदितोदितः-पूर्वमुदितः - उत्तमकुलबल समृद्धिपुण्यकर्मादिभिरभ्युदयं प्राप्तः पश्चादपि उदितः-अमन्दानन्द सन्दोहरूपमोक्षोदयं प्राप्त उदिनोदितः, एतादृश पुरुपमुदाहरनि-' भरहे राये "-त्यादि-यथा-चातुरन्त-चक्रवर्ती-चत्वारः-दित्रये समुद्राः एकस्यां हिमत्रांश्च अन्ताः-अवधयो यस्याः सा चातुरन्ता पृथिवी, चातुरन्त चक्रवर्ती भरत नरेश उदितोदित थे, १ चातुरन्त चक्रवती ब्रह्मदत्त उदितास्तमित थे, २ हरिकेश नामके अनगार अस्तमितो दित थे, ३ एवं -सूकरका शिकार करनेवाला कालसौकरिक अस्तमिता. स्तमित था, ४। टीकार्य-इस सत्रद्वारा जो चार प्रकारके पुरुष कहे गये हैं, उनके सम्बन्ध में स्पष्टीकरणयों है कोई एक पुरुष ऐला होता है जोउत्तम कुल में जन्म लेना, घल समृद्धि से सम्पन्न होना, तथा -पुण्यक आदिका अनुभव करना आदि अभ्युद्य को पहले से जन्म से ही प्राप्त करता है, और बाद में भी वह अत्यन्त आनन्द समूह -अव्यावाध - मोक्षोदय को प्राप्त कर लेताहै, इस प्रथम भङ्गमें चातुरन्त चक्रवर्ती ऋष. भनन्दन भरतराजा हुवे हैं। तीन दिशाओं में समुद्र और एक दिशामें हिमवान् ये चार जिसके अन्त है अवधियाँ हैं, ऐसी चतुरन्ता पृथिवी का जो स्वामी हों वे चातुरन्न हैं, तथा-चक्रसे छग्वड में वर्तन करना (राजकरना) ચાતુરત ચક્રવતી ભરતરાજા ઉદિતદિત હતા ચાતુરન્ત ચક્રવતી બ્રહ્મદર ઉદિતાસ્તમિત હતા હરિકેશ નામના અણુગાર અસ્તમિતેદિત હતા, અને મૂવરને શિકાર કરનાર કાલસૌકરિક અસ્તમિતાસ્તમિત હતા, આ ચાર પ્રકારના પુરુષનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે સમજવું – (૧) ઉદિનેદિત—ઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ઉત્તમ કુળમાં જન્મ લે છે, બળ સમૃદ્ધિ આદિથી સંપન્નતા, પુણ્યકર્મને અનુભવ આદિ અભ્યદય જન્મથી જ પ્રાપ્ત કરે છે, અને આ મનુષ્યભવનું આયુષ્ય પૂરું કરીને અત્યન્ત આનંદદાયક, અવ્યાબાધ મેદયને પણ પ્રાપ્ત કરે છે. ચાતુરન્ત ચક્રવતી ભનન્દન ભરત રાજાને આ પ્રકારના પુરુષ કહી શકાય ત્રણ દિશાએમાં સમુદ્ર અને એક દિશામાં હિમવાનું પર્વત, આ ચાર જેનાં અન્ત (અવધિ-દ) હેાય છે એવી ચાતુરન્તા પૃથ્વીને જે સ્વામી હોય તેને Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४ उ० ३ ० ५ पुनरपि पुरुषविशेषनिरूपणम् अयं (स्वामी) चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती - चक्रेण सह वर्तत इत्येवंशिलश्चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्तीभरतः - ऋभनन्दनःप्रसिद्धो राजा खल्ल उदितोदितोबोध्यः १ | तथा - एकः पुरुषः उदितास्तमितः- उदितश्वासावस्तमितश्च तथा=पूर्व सूर्य इवोदितः पश्चात् सकलसमृद्धिभ्रत्वाद दुर्गतिप्राप्तत्वाच अस्तमितो भवति । यथा-ब्रह्मदत्तश्रातुरन्त द्वादश चक्रवर्ती राजा, स हि पूर्व सुकुलोत्पन्नत्वादिना निजबाहुवलोपार्जितमहासाम्राज्यत्वेन चाभ्युदितः पश्चाच्चानुचितकारणज्जातको प ब्राह्मणमयुक्त पशुपाल प्रक्षिप्तधनुर्गोलिकाघातभग्ननेत्रगोरुकत्वेन कालधर्मप्राप्त्यनन्तरं सप्तमनर के प्रतिष्ठानाख्यनरकात्रासस्य महातीव्र वेदनानुमवेन चास्तमित इति २ | ૨૭ जिसका स्वभाव हों वे चक्रवर्ती, ऐसे चातुरन्त चक्रवर्ती ऋषभदेव तीर्थ करके पुत्र राजा भरत उदितोदित कहे गये हैं । तथा - कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो उदितास्तमित होता है पहले वह सूर्य जैसा उदित होता है- पश्चात् सकल समृद्धि से भ्रष्ट होजाने से और दुर्गति में पति होने से अस्तमित हो जाता है -२ ऐसा चातुरन्त चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुवा है, यह पहले अच्छे कुलमें उत्पन्न हुवा, वहांपर उसने अपने बाहुबल प्रतापसे पट्ट खण्डका महान् साम्राज्य स्थापित कर लिया, चक्रवर्ती बन गया, पश्चात् किसी अनुचित निमित्तवश उत्पन्न कोपसे युक्त हो गया, इत्यादि और सब कथन इसकी कथामें निषद्ध हैं । बाद में यह मर कर सप्तम नरकमें अप्रतिष्ठान नामक नरकावासकी महा तीव्र वेदनाको अनुभव करता करता अस्तमित हो गया। इस ચાતુરન્ત કહે છે. ચક્રથી વતન કરવાના જેના સ્વભાવ હોય તેને ચક્રવતી કહે છે. એવા ચાતુરન્ત ચક્રવતી ઋષભદેવ તીર્થંકરના પુત્ર રાજા ભરતને ઉત્તિતૈતિ કહેવામાં આવેલ છે (૨) ઉદિતાસ્તમિત પુરુષ-કાઈ પુરુષ પહેલાં સૂર્ય જેવા ઉદિત અથવા અભ્યુદય સંપન્ન હોય છે, પણ પાછળથી સકળ સમૃદ્ધિ ગુમાવી બેસવાથી અને દુર્ગતિમાં જવાથી અસ્તમિત ( અભ્યુદયવિહીન) થઇ જાય છે. ચાતુરન્ત ચક્રવતી બ્રહ્માત્ત રાજાને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય. પહેલાં તે તે સારા કુળમાં ઉત્પન્ન થયા હતા. તેણે પેાતાના ખાહુબળના પ્રતાપથી છ ખાંડનુ મહાન સામ્રાજ્ય સ્થાપ્યું-ચક્રવતી થઈ ગયા. ત્યાર ખાદ કાઇ અનુચિત્ત નિમિત્તથી ઉત્પન્ન થયેલા ક્રોધને અધીન થયેા, ઇત્યાદિ કથન તેની કથામાંથી જાણી લેવુ. ત્યાર બાદ તે મરીને સાતમી નરકના અપ્રતિષ્ઠાન નામના નરકવાસમાં ઉત્પન્ન થઇને મહા તીવ્ર વેદનાનેા અનુભવ કરવા લાગ્યા આ રીતે તે અસ્તુમિત થઈ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशास्त्र तथा-एकः पुरुषः अस्तमितोदितः-अस्तिमितश्चासावुदितश्च तथा पूर्व हीनकुलोत्पन्नत्व - दुर्भगत्यादिनाऽस्तमितः-अवनतः, पश्चात् समृद्धिसुकीर्तिमुगतिलाभादिनोदितो भवति, यथा-हरिकेशवल:-तदाख्यः अनगार:-साधुरभूत, स हि जन्मान्तरोपार्जितनीचगोत्रकर्मप्राप्तचाण्डालकुलत्वेन दोर्नोग्यदारिद्रयाकुलत्वेन चास्तमितोऽपि पश्चात् प्रव्रजितो निश्चलचरणगुणवशीकृतदेवत्वेन प्रसिद्धि सुगतिलाभेन नोदितोऽभूत् ।३।। तरह उदित होकर अस्तमित होनेवाला प्राणी इस द्वितीय भङ्गमें परिगणित होता है । इस कथाको विस्तृत रूपमें मैंने उत्तराध्ययनकी प्रियदर्शिनी टीकाके १३वें अध्यन ७२५ पृष्ठमें लिखाहै वहां देखलें । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहले हीन कुलमें उत्पन्न हुवा दुर्भगत्व-दुर्गत्यादिमें अस्तमित रहा बाद में समृद्धि-सुगति-सुकीर्ति लोभसे उदित हो जाता है, जैसे-हरिकेशनल अनगार । इसने जन्मान्तरमें उपा. जित कौंदयसे चाण्डाल कुल में जन्म लिया और दौर्भाग्य दारिद्र्यादिसे आकुल रहा वादमें प्रत्रजित होकर चारित्र आराधनाकी जिससे मरणका. लमें कालकर देवपर्याय से उत्पन्न हुवा। यह चारित्र उ. के पारहवे अध्ययन में कथित हैं ऐसा व्यक्ति अस्तमितोदिन कहा गया है । ગયે. આ રીતે ઉદિત થઈને અતમિત થતા જીવનું આ બીજા ભાગમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છેપહેલાં અભ્યદય અને પછી પતન પામતાં પુરુષના આ ભાંગામાં સમાવેશ થાય છે. બ્રહાદત્તની કથા ઉત્તરાધ્યયનની પ્રિયદર્શિની ટીકાના ૧૩ માં અધ્યયનના ૭૨૫ માં પાના પર આપી છે, તે ત્યાંથી તે વાંચી લેવી. (૩) અસ્તમિતાદિત પુરુષ–કઈ એક પુરુષ પહેલાં દુર્ગતિમાં હોય અને ત્યાંથી હીનકુલમાં ઉત્પન્ન થાય, અને ત્યારબાદ સમૃદ્ધિ, સુકીર્તિ, અને સુગતિ પામે તે એવા પુરુષને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે એ પુરુષ પતનના પંથ તરફથી ઉત્થાનને પથે વળે છે હરિકેશબલ અણગાર આ પ્રકા૨ના પુરુષ થઈ ગયા. તેમણે જન્માન્તરમાં ઉપાર્જિત પાપકર્મોના ઉદયથી ચાંડાલ કુળમાં જન્મ લીધું હતું, તેઓ અતિશય દારિદ્રયથી પીડાતા હતા, પણ ત્યારબાદ પ્રવ્રજ્યા અંગીકાર કરીને ચારિત્રારાધના કરીને મનુષ્યભવનું આયુ પૂરૂ કરીને દેવની પર્યાયે ઉત્પન્ન થઈ ગયા તેમની કથા પણ અન્ય માંથી વાંચી લેવી એવા પુરુષને “અસ્તમિતેદિત કહે છે. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था०४उ० ३ सू० ५ पुनरपि पुरुषविशेषनिरूपणम् तथा - एकः पुरुषः अस्तमितास्तमितः - अस्तमितश्चासावस्तमितस्तथा= पूर्वमधार्मिका धर्मानुरागाधर्म से व्यधर्मिष्ठा धर्माख्याय्यधर्मराग्यधर्मप्रलोकयधर्मजौवि दुष्कुलोत्पम्नत्व सावध व्यापारत्वादिना कीर्तिसमृद्धिरूपते जो रहितत्वात् सायंकाल सूर्यइवास्तमितः पश्चादपि दुर्गतिगमनादस्तमितो भवति, यथानिश्शीलो निर्मर्यादो निष्ठुरो निष्करुण कालः - तदाख्या सौकरिकोऽस्तमितास्तमितोऽभूत्, सहि सूकरैश्चरतीति सौकरिकः - सूकरमृगयाकारीति यथार्थो प्रति दिने पञ्चशतमहिषघातको दुष्कुलोत्पन्नत्वात् सकललोकनिन्दितत्वात् अकृत्यकारित्वाच्च पूर्वमस्तमितः पश्चादपि मृत्वा सप्तमपृथिवी गत इति अस्तमित इति । ४ । ( ० ५ ) । ३९ रुप तथा कोई एक पुरुष अस्तमित होकर अस्तमितही बना रहता है, ऐसा पुरुष अधार्मिक अधर्मरागी - अर्माख्यायी-अधर्मानुष्ठाताअधर्म जीवी होता है और सर्वदा सावयव्यापार से कीर्ति-समृद्धि - - तेजोरहित बनकर सायं सूर्य के समान अस्तमित बन जाता है । और फिर बाद में भी दुर्गति गमन से अस्तमित बन जाता है। इसमें दृष्टान्तभूत कालसौरिक है, यह निश्शील - मर्यादारहीत था दयाहीन था सूकरकी शिकारका प्रेमी था, जोकि - प्रतिदिन पांचसौ भैसा का घात करता था, दुष्कुलोत्पन्न होनेके नति सकलजनों द्वारा निन्दित था, और अकृत्यकारी था इस कारण यह पहलेही से अस्तमित वा और बाद में भी मरकर सप्तम पृथिवी में गया- अस्तमित बना रहा ||सु. ५ (૪) અસ્તમિતાસ્તમિત પુરુષ—કાઇ એક પુરુષ પહેલાં પણ અતમિત ( અભ્યુદયવિહીન ) હાય છે અને પછી પશુ અસ્તમિત જ રહે છે. એવા પુરુષ અધાર્મિક, અધમ રાગી, અધર્માંખ્યાયી, ધર્માનુષ્ઠાતા અને અધજીવી હાય છે; અને સદા સાવધ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત રહેવાને કારણે કીતિ, સમૃદ્ધિ, રૂપ અને તેજ રહિત જ રહેવાને કારણે સાયકાલિન સૂર્યસમાન અસ્તુમિત જ બની જાય છે. વળી મરીને દ્રુતિમાં જવાને લીધે અસ્તમિત જ ચાલુ રહે छे. उाससौरिउने या प्रारभा गावी शाय. ते नि.शीस-भर्यादाविहीन हती. યાહીન હતા, સૂવરના શિકારના શેાખીન હતેા, તે દરરાજ ૫૦૦ પાડાને ઘાત કરતા હતેા, હીન કુળમાં જન્મેલે હાવાથી સકળ જના તેની નિંદા કરતા હતા અને અનૃત્યકારી હતા. આ રીતે પહેલાં પણ તે અસ્તમિત હતા અને આખી જિંદગી પણ અવેા જ રહ્યો. તે મરીને સાતમી નરકમાં ઉત્પન્ન થયા, આ રીતે તેણે ક્રુતિ રૂપ અસ્તમિતા પ્રાપ્ત કરી, । સૂ, પ। 1 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास , ये एवं विचित्रभावचिन्त्यन्ते ते सर्व पय जीवाचतुर्प राशिष्यवतरन्तीति त प्रदर्शयितुगाह मूलम्-चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता तं जहा-कडजुम्मे १ तेओए २, दावरजुम्मे ३, कलिओए । सू०६।। छाया-चत्वारो युग्माः प्रज्ञाताः, तद्यया-कृतयुग्मः १, व्योजः ३, द्वापर युग्मः २, काल्योनः ४ । (०६)। टीका-"चत्तारि जुम्मा” इत्यादि-युग्मा:-राशिविशेपाः चत्वारः प्राप्ताः तद्यथा-कृतयुग्म:-चतुष्कापहारेण अपहियमाणश्चतःपर्यवसितो रागिः १ । तथायोज:-त्रिपर्यवसितो राशिः २, द्वापरयुग्म:-द्वि पर्यवासितो राशिः ३, कल्योन: इस प्रकारके विचित्र भावोंसे जीव विचारे जाते हैं, वे ही मय जीव चार राशियों में अवतरित होते हैं, यही बात अब सूत्रकार प्रदशिन करते हैं-" चत्तारि जुम्मा पणत्ता-" इत्यादि- - सूत्रार्थ-युग्म चार कहे गये हैं, एक-छन युग्म १३.मरा-ओज-२ तीसरा द्वापर युग्म-३ और चौथा-फल्योज टीकार्थ-युग्म शब्दसे यहाँ राशि विठोप गृहीत है, ये युग्म चार प्रकारके जो कहे गये हैं उसका तात्पर्य ऐसा है-जिस राशिमैं चारको घटाने पर अन्तमें चार हो वचते हों वह कृतयुग्म रूप राशि है, जिस राशिमें तीनको घटाने पर तीनही वचते हों वह गशि व्योज है, जिस राशिम से दो को घटाने पर दोही बचें यह राशि द्वापर युग्म है, और जिस राशिमें से एकको घटाने पर अन्तमें एक ही बचता है वह-गशि कल्पोज है । यहाँ गणितकी परिभापामें युग्म शब्द से सम राशि और-ओज વિવિધ ભાવોની અપેક્ષાએ જીની પ્રરૂપણું કરીને હવે સૂત્રકાર સઘળા वान या२ २शियामा विसतरी नाणे-" चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता" त्यालि सूत्रार्थ -युभ यार ४ा छ-(१) पृत युभ, (२) व्यास, (3) दा५२ युभ, मन (४) ४८यो। “યુગ્મ પદ અહીં રાશિવિશેષનું વાચક છે તેના ચાર પ્રકારનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-જે રાશિમાં ચારને ઘટાવવાથી અને ચાર જ વધે છે તેને કૃતયુગ્મ રૂપ રાશિ કહે છે. જે રાશિમાં ત્રણને ઘટાવવાથી અને ત્રણ જ વધે છે તે રાશિને જ કહે છે જે રાશિમાં બેને ઘટાવવાથી બે જ વધે છે તે રાશિને દ્વાપર યુમ કહે છે જે રાશિમાં એકને ઘટાવવાથી અને એક જ બચે છે તે રાશિને કલ્ય જ કહે છેઅહીં ગણિતની પરિભાષામાં સુગમ શબ્દથી સમરાશિ અને ઓજ શબ્દથી વિષમરાશિ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ४ उ०३ सू० ७ पुनरपि पुरुषविशेषनिरूपणम् ३॥ एकपर्यवसिती राशिः। ४ । इह गणितपरिभाषायां युग्मशब्देन समराशिरुच्यते, ओजशब्देन-तु विषमराशिः । इति सिद्धान्तः । सू० ६॥ उक्तराशीन् नारकादिषु निरूपयितुमाह मूलम्-नेरइयाणं चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा- कडजुम्मे १, तेओए २, दावरजुम्मे ३, कलिओए ४, एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं सवसि जहा णेग्झ्याणं । सू०७। __ छाया-नैरयिकाणां चत्वारो युग्माः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कृतयुग्मः १, ज्योज २, द्वापरयुग्मः ३, कल्योजः ४ । एवमसुरकुमाराणां यावत् स्तनितकुमाराणाम्, एवं पृथिवी कायिकानामप्कायिकाना तेजस्कायिकानां वायुकाचिकानां सर्वेषां यथा नैरयिकाणाम् । (मू० ७) ___टीका-" नेरइयाणं चत्तारि" इत्यादि-स्पष्टम् । नवरं-नैरयिकादारभ्य वैमानिक पर्यन्ताश्चतुर्विंशति दण्डकस्थाः सर्वेऽपि जीवाः कृतयुग्मादि श्चतुर्विधा एव भवन्ति जन्म-मरणाभ्यां न्यूनाधिकत्वसम्भवात् । (सू० ७) शब्दसे विषम राशि कही जाती है, तथा-लोकमें कृतयुग्मादि शब्दसे. तो सत्ययुग आदि युग चतुष्टय कहा जाता है। सू०६॥ अब सूत्रकार उक्त राशियोंका निरूपण नरकादिकोमें करते हैं" नेरयाणं चत्तारि जुम्मा पपणत्ता" इत्यादि ७ ॥ नैरधिकों के चार युग्म होते है, कृतयुग्म-१ व्योज-२ द्वापर युग्म ३ और कल्योज-४ इसी तरह-असुर कुमारोंसे लेकर यावत् स्तनित. कुमार तक पृथिवीकायिक-अप्कायिक-तेजस्कायिक-वायुकायिकों में કહેવામાં આવે છે તથા લેકમાં કૃતયુગમ આદિ શબ્દ દ્વારા સત્યુગ આદિ ચાર યુગ જ ગ્રહણ થાય છે કે સૂ. ૬ હવે સૂત્રકાર ઉપર્યુક્ત રાશિઓનું નારકાદિકમાં નિરૂપણ કરે છે– " नेरइयाणं चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता" त्या: नाना यार युभ डाय छ-(१) कृतयुग्म, (२) व्या४, (3) ५२ યુગ્મ અને (૪) કાજ. એ જ પ્રમાણે અસુરકુમારથી લઈને સ્વનિતકુમારો સુધીના, પૃથ્વીકાયિક, અપ્રકાયિક, તૈજસ્કાયિક અને વાયુકાયિકમાં પણ ચાર યુમ કહ્યા છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નારક આદિ ચાર પ્રકારના Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामसूत्रे पुनर्जीवानेव भावनिरूपयति मूलम्- चत्तारि सूरा पण्णत्ता, तं जहा-खंतिसूरे १, तवसूरे २, दाणसूरे ३, जुद्धसूरे ४। खंतिसूरा--अरहंता १, तवसूरा-- अणगारा २, दाणसूरे--वेलमणे ३, जुद्धसूरा-वासुदेवा ।। सू०८॥ जाया-चत्वारः शूराः प्रजप्ताः, तद्यथा-क्षन्तिशूरः १, तपःशूरः २, दानशूरः ३, युद्धशूरः ४ । क्षन्तिशूराः-अन्तः १, तपःशूराः-अनगाराः २, दान शूरः-वैश्रवणः ३ । युद्धशूराः-वासुदेवाः ४ । (सू. ८)। ___टीका-" चत्तारि सूरा" इत्यादि-स्पष्टम्, नवरं-शूराः-वीराः, क्षान्तिःक्षमा-तत्र शूरः, एवं तपः शूरादयो बोध्याः १ क्रमेण तानुदाहरति-खंतिमूरा' इत्यादि-शान्तिशूराः-अर्हन्तः श्रीमहावीरस्वामिवत् १, तपःशूराः-अनगारा:चार युग्म कहे गये हैं । तात्पर्य ऐसा है कि-नैरयिक आदि चार प्रकारके युम वाले हो करभी जन्म-मरग लेकर न्यूनाधिक होते रहते हैं। सू.७॥ अथ सूत्रकार भावों को लेकर जीवोकी प्ररूपणा करते हैं "चत्तारि सूरा पण्णत्तो" इत्यादि ८ सूत्रार्थ-शर चार प्रकार के होते हैं, शान्तिशुर-१ तपाशुर-२ दानशुर -३ और युद्धशूर-४ इनमें-क्षान्तिशूर अहन्त हैं-१ तपाशूर-अनगार हैं-२ दानशूर-वैश्रवश हैं-३ युद्धशूर-वासुदेव हैं ४ टीकार्थ-शान्तिमें अग्रेमरको क्षान्तिशुर, तपस्या में प्रधानको तपाशूर,दान देने में जो हिचकिचाहट नहीं करे वे दानशूर, युद्ध में नाम कमानेवाले को युद्धशूर कहते हैं। इसी बानको सूत्रकारने दृष्टान्त देकर समझाया हैं, યુમ (રાશિ) વાળા હોવા છતાં પણ જન્મ-મરણની અપેક્ષાએ ન્યુનાધિક थता २९ छे. । सू. ७ - હવે સૂત્રકાર ભાવની અપેક્ષાએ જીની પ્રરૂપણ કરે છે– " चत्तारि सूरा पण्णत्ता" त्याहिसूत्रार्थ-१२ यार प्रा२ना ह्या छ-(१) क्षति२, (२) तप:शू२, (3 हानશૂર અને (૪) યુદ્ધશર ક્ષાતિશૂર અહંત હાથ છે, તપ શૂર અણુગાર હે ય છે, દાનશૂર વૈશ્રવણ છે અને યુદ્ધશૂર વાસુદેવ છે ટીકાર્ય–ક્ષાન્તિ પ્રધાન પુરુષને ક્ષાન્તિશૂર, ઉગ્ર તપસ્યા કરનારને તપાશુર, દાન આપવામાં જે પાછો પડતું નથી તે દાનશૂર અને યુદ્ધમાં વીરતા બતાવનારને યુદ્ધજૂર કહે છે. અહંત મહાવીર પ્રભુ ક્ષાન્તિ (ક્ષમા) માં શૂર ગણાયા, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३सू० ८-९ भावैर्जीवनिरूपणम् साधवः धन्यनामानगारवत् २, दानशूरः-वैश्रवणः-कुवेराख्य उत्तरदिग्लोकपालः, तस्य तीर्थङ्कगदिजन्मपारणक-प्रभृतिकल्याणकेषु रत्नदृष्टिकारित्वात, प्रभुसेवकदैन्यदरीकरत्वाच्च । उक्तं च-" वेसमणवयणसंपेरिया उ ते तिरियजंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरण्णा, रयणाणि य तत्व उवणेति ।१।” छाय --"वैश्रवणवचनसंप्रेरितास्तुते तिर्यग्जरभका देवाः। कोटयागो हिरण्यानि रत्नानि च तत्रोपनयन्ति । १ । ” इति, युद्धशूग वासुदेवाः श्रीकृष्णावत्, तस्य पष्टयधिकशतत्रयसंख्य-युद्धेषु विजयित्वात् । (१०८)। पुनर्जीवानेव भावै निरूपयति मूलम्--चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- उच्चे णाममंगे उच्चच्छंदे १, उच्चे णाममेगे णीअच्छंदे २, णोए णाममेगे उच्चछंदे ३, जीए णाममेगे णीयच्छंदे ४। ॥ सू० ९ ॥ ____ छाया-चत्वारि पुरुष नातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-उच्चो नामैक उच्चच्छन्दः अर्हन्त महावीर स्वामो क्षान्ति क्षमा शुर कहे गये हैं १ धन्य नामक अनगारकी तरह साधुजन तपाशर होते हैं-२ उत्तरदिपाल कुवेर दानशूर हैं-३ यह कुवेर आदिके जन्म कल्याणके अवसर पर और पोरण आदि समयमें रत्नों की वर्षा करता है, इसलिये-इसे दानशर कहा गया है उस समय यह प्रभु सेवकके भेदभावको दर कर देता है। कहाभी हैं-वेसमाणवयणसपेरिया-इत्यादि कष्णकी तरह वासुदेव युद्वार होते है श्री कृष्ण तीनसौ साठ युद्ध में विजयी हुवे हैं । सू० ८॥ पुनः भावोंको लेकर मुत्रकार जीवोंको ही निरूपण करते हैं"चत्तारि पुरिमजाया पण्णता"-इत्यादि ९ पुरुष जात चार कहे गये हैं, उच्च उच्चच्छन्दवाला-१ उच्च नीच ધન્ય નામના અણગાર જેવા સાધુ તપાશુર ગણાય છે. ઉત્તર દિશાને દિકપાલ દાનશૂર ગણાય છે આ કુબેર તીર્થ કરના જન્મ કલ્યાણક, પારણુ આદિ અવસરે રત્નોની વૃદ્ધિ કરે છે તેથી તેને દાનશૂર કહ્યો છે તે સમયે તે સ્વામી गने सेना समापन ह२ री ना छे, पय छ -“वेसमण वयण संपरिया" त्याहि नी भ पासुहेव युद्धशूर डाय छे श्री ये 360 યુદ્ધમાં વિજય પ્રાપ્ત કર્યો હતો. એ સૂ ૮ ભાવની અપેક્ષાએ સૂત્રકાર જીનુ વિશેષ નિરૂપણ કરે છે– " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" त्याहચાર પ્રકારને પુરુષ કહ્યા છે—(૧) ઉચ્ચ ઉચ્ચ છન્દવાળે, (૨) ઉચ્ચ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ स्थानासूत्रे १, उच्चो नामैको नीचच्छन्दः २, नीचो नामैक उच्चच्छन्दः ३, नीचो नामैको नीचच्छन्दः ४ । ( सु० ९ ) । टीका - " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि स्पष्टम् । नवरम् - एकः कचित् पुरुषः उच्चः - शरीरकुलसमृद्यादिभिर्महान्, उच्चच्छेदः - उच्च च्छन्दोऽभिप्रायो यस्य स तथा=उत्कृष्टाभिप्रायवान् भवति, औदार्यादिसम्पन्नत्वात् १, तथा - एक:अन्यः पुरुषः उच्चोsपिसन् नीचच्छन्दः - अपकृष्टाभिप्रायवान् भवति मलिनविचारत्वात् २, तथा - एकः - अपरः पुरुषः नीचः - शरीरकुलविभवादिभिर्डीनोऽपि उबच्छन्दो भवति ३, तथा - एकः - इतरः पुरुषस्तु नीचो नीचच्छन्दो भवति ४। सु. ९ । अनन्तरं नीचाभिप्राय उक्तः स च लेश्याविशेषाद्भवतीति लेश्यां निरूपयतिमूलम् - असुरकुमाराणां चत्तारि लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - कण्हलेसा १, नीललेला २, काउलेसा ३, तेउलेसा || च्छन्दवाला - २ नीच उच्च च्छन्दवाला - ३ एवं नीच नीचच्छन्दवाला - ४ तात्पर्य यह है कि जो पुरुष शरीर-कुल-समृद्धि आदि से महान् महान् होता हुवा भी उदारता आदि गुणों से युक्त होने के कारण अभिप्राय से महान होता है वह - प्रथम भङ्गमें परिणत हुवा है ।, तथा-जो शरीरकुलादिसे महान होता हुवा भी मलिन विचार वाला होने के कारण अवकृष्ट अभिप्रायवाला होता है, वह द्वितीय अङ्ग में गिना गया है। तथा - जो शरीर-कुल- विभव आदि से हीन होता हुवा भी उन्नत विचार वाला होता है वह तृतीय भङ्ग में गिना गया है । और जो शरीरकुल - आदि से हीन होता है और अभिप्राय से भी हीन होता है वह चतुर्थभङ्ग में लिया गया है | सू०९ ॥ नीरा-छंवाणी, (3) नीय सभ्य छन्दवाणो भने (४) नीथ नीय छन्हाणी. હવે આ ચારે પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે (1) કૈાઇ પુરુષ એવા હાય છે કે જે શરીર, કુલ અને સમૃદ્ધિની અપેક્ષાએ પશુ મહાન હાય છે અને ઉદારતા આદિ ગુણેથી યુક્ત હાવાને કારણે વિચારાની અપેક્ષાએ પણ મહાન હાય છે (ર) કૈાઇ પુરુષ શરીર, કુલ આદિની અપેક્ષાએ મહાન હાવા છતાં મલિન વિચાર, લાલ આદિને કારણે અધમ હાય છે. (૩) કાઈ રૂષ એવા હાય છે કે જે શરીર, કુલ, સમૃદ્ધિ અદિની અપેક્ષાએ હીન હોવા છતાં પણ ઉન્નત વિચારવાળા હોય છે. (૪) કેાઈ પુરુષ શરીર, કુલ, વૈભવ આદિની અપેક્ષાએ પણ હીન હાય છે અને ઔદાય આદિ ગુણ્ણા અને વિચારેની અપેક્ષાએ પણ હીન જ હાય છે. ! સૂ. ૯ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टीका स्था०४ उ०३ सू० १० लेश्यानिरूपणम् एवं जाव थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आउवणस्सइका. इयाणं वाणमन्तराणं सव्वेर्सि जहा असुरकुमाराणं ॥सू०१०॥ छाया-असुरकुमाराणां चतस्रो लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कृष्णलेश्या १, नीललेश्या २, कापोतलेश्या ३, तेजोलेश्या ४। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् ।' एवं पृथिवीकायिकानामन्यनस्पतिकायिकानां व्यन्तराणां यथा असुरकुमाराणाम् । ॥ सू० १०॥ टीका-" अमुरकुमाराणं " इत्यादि-असुरकुमाराणां लेश्याः-लिश्यतेश्लिष्यते कर्मणा संबध्यते जीवो याभिस्ता लेश्या:-कर्मणा सह सम्बन्धे हेतुभूता आत्मपरिणामविशेषाः, चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कृष्णलेश्या-कृष्णाचासौ लेश्या कृष्णलेश्या १, एव नीललेश्या २, कापोतलेश्या ३, तेजोलेश्या ४। एवम्-अनेन प्रकारेण स्तनितकुमारान्तानां देवानां चतस्रो लेश्या बोध्याः । एताश्चतस्रो लेश्या असुरकुमारादिस्तनितकुमारान्तानां द्रव्यतो भवन्ति । भावतस्तु सर्वेषां देवानां पद्म नीच अभिप्रायवाला होना-यह लेश्या विशेष से होता है, अत:अब सूत्रकार लेश्या की प्ररूपणा करते हैं___ "असुरकुमाराणं चत्तारि लेसाओ"-इत्यादि-१० टीकार्थ-असुरकुमारों को चार लेश्याएं कही गई हैं। जिसके द्वारा जीव कर्मों से बद्ध होता है वह लेश्या है. यह लेश्या कर्म के साथ सम्बन्ध होने में हेतु है-आत्मा का परिणाम विशेष है । कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, ये लेश्याएं असुरकुमारों को जैसे होती हैं. वैसे-स्तनितकुमार तक के देवों को भी होती हैं। इन में ये लेश्याएं द्रव्य की अपेक्षा से कही गई हैं, क्योंकि-भाव की अपेक्षा तो छ के વિચારે અથવા ભામાં નીચતા લેહ્યાવિશેને કારણે ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી સૂત્રકાર વેશ્યાઓની પ્રરૂપણ કરે છે. " असुरकुमाराणं चत्तारि लेस्साओ" छत्याहટીકાર્થ—અસુરકુમારોમાં ચાર વેશ્યાઓને સદ્ભાવ હોય છે. જેના દ્વારા આત્મા કર્મો વડે બદ્ધ થાય છે, તેનું નામ લેહ્યા છે કર્મની સાથે આત્માને સંબંધ કરવામાં આ લેહ્યા કારણભૂત બને છે. એટલે કે તે આત્માના પરિણામ વિશેષ રૂપ હોય છે. અસુરકુમારોમાં કૃષ્ણ, નીલ, કાપત અને તેજેશ્યાનો સદુભાવ હોય છે સ્વનિતકુમાર પર્યતન ભવનપતિઓમાં પણ આ ચાર લેશ્યાઓને સદૂભાવ હોય છે તેમનામાં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આ ચાર વેશ્યાઓને સદભાવ સમજ. ભાવની અપેક્ષાએ તે છએ છ લેશ્યાઓને-કૃષ્ણ, નીલ, કાપત, Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग लेश्या शुक्ललेश्या सहिताः पूर्वोक्ताश्चतस्र इति पड़ लेश्या भवन्ति । तथा असुरकुमाराणाम्-एवमेव पृथिवीकायिकानाम् अकायिकानां वनस्पतिकायिकानां सर्वेषां व्यन्तराणां च चतस्त्रश्चतस्रो लेश्या वोध्याः । पृथिव्यवनस्पतिषु देवानामुत्पत्तिसंभवात्तेपा तेजोलेश्याऽपि भवतीति चतस्रो लेश्याः प्रोक्ता इतिः।मु०१०। अनन्तरोक्तलेश्या विशेषेण मनुष्या विचित्रपरिणामा भवन्तीति यानादिष्टान्तचतुर्भङ्गिकाभिः पुरुषान् दर्शयितुमाह मूलम्-चत्तारि जाणा पण्णत्ता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते १, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते २, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते ३, अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ! जुत्ते णाममेगे अजुत्ते ४ । १। चत्तारि जाणा पण्णता, तं जहा जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणए, जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणए० ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणए० ४।२। चत्तारि जाणा पण्णत्ता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे १, जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे २, अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे ३,अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे० ४।३। छचों कृष्ण, नील, कापोत, पीत, तेज, पद्म, शुक्ल लेश्याएं लेश्याएं होती हैं। असुरकुमारों के जैसे ही पृथिवीकायिक-अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, और-व्यन्तरों को भी चार लेश्याएं होती हैं। पृथिवी-अपू, तेजस्कायिकोंमें देवोंकी उत्पत्ति सम्भावनासे तेजोलेश्या होती हैं।।सू.१०॥ તેજે, પદ્ધ અને શુક્લ લેસ્યાઓને સદૂભાવ હોય છે પૃથ્વીકાયિક, અપૂકાચિકે, વનસ્પતિકાયિકે અને વાતવ્યન્તરોમાં પણ અસુરકુમારો જેવી ચાર લેશ્યાઓને જ સદ્દભાવ હોય છે પૃથ્વીકાયિક, અષ્કાયિકે અને તેજસ્કાયિ. કે માં ની ઉત્પત્તિની સભાવનાની અપેક્ષાએ તે જેલેસ્થાને સદ્ભાવ ક छ. । सू. 101 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३ सु०११ यानादिदृष्टान्तेन पुरुपनिरूपणम् ३७ चत्तारि जाणा पण्णत्ता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तसोहे. ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तसोहे० ४॥ सू० ११ ॥ __ छाया-चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तं नामैकं युक्तं १, युक्तं नामैकमयुक्तम् २, अयुक्तं नामैकं युक्तम् ३, अयुक्तं नामकमयुक्तम् ४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तो नामैको युक्त', युक्तो नामैकोऽयुक्तः४। चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तं नामैकं युक्तपरिणतं, युक्तं नामैकमयुक्तपरिणतम् । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तो नामैको युक्तपरिणतः ४, चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्त नामैकं युक्तरूपं १, युक्त नामैक__ अनन्तरोक्त लेश्या विशेष से मनुष्य विचित्र परिणामवाले होते हैं, अत:-अब सूत्रकार यानादि दृष्टान्त की चतुर्भङ्गी द्वारा पुरुषों की प्ररूपणा करते हैं-" चत्तारि जाणा पण्णत्ता"-इत्यादि-११ इस सूत्र के अन्तर्गत चार सूत्र हैं । यान चार कहे गये हैं-युक्त युक्त-१ युक्ताऽयुक्त-२ अयुक्तयुक्त-३ अयुक्ताऽयुक्त-४, ऐसे ही युक्तयुक्त आदि के भेद से पुरुष भी चार प्रकार के हैं। फिरभी-यान चार प्रकारके हैं-युक्तयुक्त-परिणत-१ युक्ताऽयुक्तपरिणत-२ अयुक्तयुक्त-परिणत-३ और - अयुक्ताऽयुक्त -परिणत-४ इसी प्रकारसे युक्तयुक्त परिणत आदि भेद्वाले पुरुष भी चार होतेहैं ४, (२) फिरभी-यान चार हैं, युक्त युक्त-रूप, १ युक्तायुक्त-रूप, २ લેહ્યાવિશેષના સભાવે કરીને મનુષ્ય વિચિત્ર પરિણામવાળો થાય છે તેથી હવે સૂત્રકાર યાત્રાદિના દષ્ટાન્ત દ્વારા ચાર પ્રકારના પુરુષની પ્રરૂપણ કરે छे-" चत्तारि जाणा पण्णचा" त्याl: આ સૂત્રમાં ચાર સૂત્રોને સમાવી લીધા છે. યાનના ચાર પ્રકાર કહ્યા छे-(१) युक्तयुक्त, (२) युक्ताऽयुक्त, (७) अयक्तयुक्त, (४) अयुक्ताऽयुक्त थे । પ્રમાણે યુક્તયુક્ત આદિના ભેદથી ચાર પ્રકારના પુરુષે પણ હોય છે. (૧) यानना नाय प्रमाणे या२ ५२ ५५ ह्या छे. (१) युन्त युद्धतपरिश्त, (२) યુક્તાયુક્ત પરિણત, (૩) અયુક્તયુક્ત પરિણત અને (૪) અયુક્તાયુક્ત પરિણત એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ યુક્તયુક્ત પરિણત આદિ ચાર ભેદ છે ારા યાનના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે-(૧) યુક્તયુક્ત રૂપ, (૨) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्र मयुक्तरूपम् २, अयुक्तं नामैकं युक्तरूपम् ३, अयुक्तं नामैकमयुक्तरूपम् । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तो नामैको.युक्तरूपः० ४, ___ चत्वारि यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युकां नामैक युक्तशोभम्० ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तो नामैको युक्तशोभः ४। मू० ११ ॥ टीका-" चत्तारि जाणा" इत्यादि-यानानि-शकटादीनि, चत्वारि प्रज्ञतानि, तद्यथा-एकं यानं युक्त-वलीवादिभिः सयुक्त तत् पुनर्युक्तं-सकलसामग्रीसहितं, यद्वा-पूर्वकालेऽपरकाले च वलीवादिभिर्युक्तं भवति, इति प्रथमो भङ्गः १। एकं वलीवादिभिर्युक्तं सदपि अयुक्तं सामग्रीरहितम् अपरकाले वली वर्दादियोगरहितं वा भवति । इति द्वितीयो मङ्गः । २ । तथा-एक वर्तमानकाले अयुक्तयुक्त-रूप, ३ अयुक्ताऽयुक्त-रूप, ४, इसी प्रकार से पुरुष भी युक्तयुक्त-रूप आदि चार प्रकार के होते हैं-४, । ३ । फिरभी-यान चार प्रकारके हैं, युक्त युक्त-शोभावाले-१ युक्ताऽयुक्त-शोभावाले-२ अयुक्तयुक्त-शोभावाले-३ अयुक्तायुक्त शोभावाले ४, इसी प्रकार से पुरुष भी चार प्रकार के हैं, जैसे-युक्तयुक्त शोभा. वाला-१ आदि-(४) ___टोकार्थ-कोई एक यान (प्रवहण ) ऐसा होता है जो-बली वर्द आदि से भी युक्त होता है और-सकल सामग्री से भी युक्त होता है। अथवा--पूर्वकाल में भी, और-अपरकाल में भी पलीवर्दादिकों से युक्त होता है, या-किया जाता है-१ कोई एक यान चलीवादिकों से युक्त होता तो है. पर-यान सामग्री से रहित होना है-२ अथवा-पूर्व યુક્ત અયુક્ત રૂપ, (૩) અયુક્ત યુક્ત રૂપ અને (૩) અયુક્ત અયુક્ત રૂપ એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ યુક્ત યુક્ત રૂપ આદિ ચાર પ્રકાર સમજવા 13 યાનના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે-(૧) યુક્તયુક્ત શોભાવાળું, (२) युद्धत अयुत लावाणु (3) मयुद्धत युत शालापाणु मन (४) अयुत અયુક્ત શોભાવ છું એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ “યુક્ત યુક્ત ભાવાળો” આદિ ચાર પ્રકાર સમજવા. ૧૪ હવે પહેલા સૂત્રના ચાર ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે (૧) કોઈ એક યાન ( રથ, ગાડું આદિ વાહન ) બળદ આદિથી પણ યુક્ત હોય છે અને સકળ સામગ્રીથી પણ યુક્ત હોય છે અથવા પહેલાં બળદાદિથી યુક્ત રહે છે અને પછી પણ યુક્ત જ રહે છે. (૨) કેઈ એક યાન બળદોથી યુક્ત હોય છે પણ અન્ય સામગ્રીથી રહિત હોય છે અથવા પહેલાં બળદ આદિથી યુક્ત હોય છે પણ પછી તેમનાથી રહિત બની જાય છે (૩) કેઈ એક યાન વર્તમાન કાળે તે બળદ આદિથી Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ सुधा टीका स्था० ४०३ सू० ११ यानादि दृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् अयुक्तं - सामग्रीरहितं बलीवर्दादियोगरहितं वा सदपि अपरकाले युक्तं भवतीति तृतीय भङ्गः । ३ । तथा - एकं वर्तमानकाले अयुक्तं भविष्यत्कालेऽप्ययुक्तं भवतीति चतुर्थी भङ्गः । ४ । " एवामेवे " - त्यादि - एवमेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञतानि तद्यथा - एकः पुरुषः युक्तः - समृद्ध्यादिभिः सम्पन्नः पुनरपि युक्तः - सदाचारादिभिः सम्पन्नो भवति, यद्वा- पूर्व युक्तः- धनादिभिः सम्पन्नः, स एव पश्चादपि युक्तः - धनादिभिः सम्पन्न भवति, इति साधारणपुरुषमाश्रित्य प्रथमभङ्ग व्याख्या १, एवं शेषास्त्रयोsपि भङ्गा बोध्याः ४ | साधुपुरुपमाश्रित्य तु पूर्वं युक्तः - द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन च सहितः स एव पश्चादपि युक्तः - तथाभूतः इति प्रथमो भङ्गः १। तथा - एको ' " काल में बलीवर्दादि से युक्त होता है और अपरकाल में नहीं - २ तथाकोई एक यान वर्तमान काल में तो सामग्री से अथवा चलीवर्दादिकों के योगसे रहित होता है, बाद में युक्त हो जाता है - ३, कोई एक रथादियान वर्तमान और भविष्यत् काल में भी बलीवर्दादिकों के, यासामग्रियों के योग से रहित ही बना रहता है -४, इसी प्रकार से पुरुष जात भी चार होते हैं, जैसे- कोई एक जन्मकाल से ही समृद्धि सम्पन्न होता है. और सदाचार आदि से भी - १ अथवा - जो पहले से भी सम्पन्न होता है. और बाद में भी अपने अन्तिम काल तक भी धनादि सम्पन्न बना रहता है, यह प्रथम भङ्ग साधारण पुरुष को लेकर बनाया गया है । इसी प्रकार शेष भङ्ग त्रय भी साधारण पुरुष को लेकर कथित कर लेना चाहिये। साधु पुरुषों को आश्रित करके इन भङ्गों का व्याख्यान इस प्रकार है - कोई एक पुरुष साधु बनते समय में द्रव्यलिङ्ग, રહિત હાય પણ ભવિષ્યમાં તેમનાથી યુક્ત ખની જાય છે. (૪) કાઈ એક રથાદિ યાન વર્તમાન કાળે પણ બળદ આદિથી રહિત હાય છે અને ભવિષ્યમાં પણ ખળદાદિથી રહિત જ રહે છે. એજ પ્રમાણે પુરુષા પણુ ચાર પ્રકારના હોય છે-(૧) કાઇ પુરુષ જન્મકાળથી જ સમૃદ્ધિ સ`પન્ન પણ હાય છે અને સદાચાર સપુખ્ત પશુ હાય છે અથવા જે પહેલા પણ સમૃદ્ધિ, સદાચાર આદિથી યુક્ત હોય છે અને પેાતાના મરણકાળ પર્યન્ત પણ તેનાથી યુક્ત જ રહે છે. આ પહેલા ભાગે સામાન્ય પુરુષની અપેક્ષાએ સમજવે, એજ પ્રમાણે ખાકીના ત્રણ ભાંગા પશુ સમજી શકાય એવાં છે સાધુ પુરુષાને આ ચાર ભાગા આ પ્રમાણે Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे युक्तः-पूर्व द्रव्य लिङ्गेन भावलिङ्गेन च सम्पन्नो भवति, स पवाद. अयुक्तः-भाव लिङ्गेन रहितो भवति, यथा जमाल्यादिनिहवः, उभाभ्यां वा रहिनो भवति, यथा संयमपतितः कण्डरीकादिः । इति द्वितीयो भगः २। तथा-एकः पुरुषः अयुक्तःद्रव्यलिङ्गेन रहितोऽपि युक्तो-भावलिङ्गेन युक्तो भवति, यथा प्रत्येकबुद्धादिः । इति तृतीयो भङ्गः ३। तथा-एकः पुरुषः पूर्वमयुक्तः-व्यभावलिगरहितः, पश्चादपि अयुक्तस्तथैव भवति, यथा गृहस्थादिः । इति चतुर्यो भगः ।। " चत्तारि जाणा" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरं-युक्तं वलोवादिभिः, युक्तपरिणतम्-सत्सामग्र्या युक्तभावप्राप्तम् इति प्रथमो भगः १। तथा युक्तं बलीवाया-भावलिङ्ग से युक्त होता है, वही यदि उसी लिग से अपने जीवनकाल तक भी युक्त बना रहता है तो-ऐसा वह प्रथम भगवाला है-१ तथा-कोई एक साधु पुरुप प्रवज्या लेते समय तो द्रव्यलिङ्ग से याभावलिङ्ग से युक्त हो जाता है, पर-आगे चलकर यदि वह उस लिङ्ग से-माव लिङ्ग से-रहित हो जाता है जमालिनिह्नव की तरह अथवाकण्डरीक की तरह दोनों लिङ्गों से रहित हो जाता है, तो ऐसा वह साधु पुरुष द्धितीय भङ्ग में गिना गया है-२ तथा-जो प्रत्येक वुद्ध आदि की तरह द्रव्यलिङ्ग से रहित हुवा भी भावलिङ्ग से महित होता है उसकी अपेक्षा तृतीय भङ्ग है-३ तथा-गृहस्थादि की तरह जो पहले भी द्रव्यलिङ्ग, या-भावलिङ्ग से रहित हो, और बाद में भी वह वैसा ही बना रहे तो-इसकी अपेक्षा चतुर्थ भङ्ग है. ४। द्वितीय मूत्रगत चार भङ्ग इस प्रकार से व्याख्यान करना चाहिये-जैसे-कोई एक रधादियान લાગુ પડે છે (1) કેઈ એક પુરુષ સાધુ બનતી વખતે વ્યલિ કે ભાવ લિંગથી યુક્ત હોય છે અને પિતાના જીવન કાળ પર્યન્ત એ જ લિંગથી યુક્ત રહે છે (૨) કેઈ એક પુરુષ દીક્ષા અંગીકાર કરતી વખતે દ્રવ્યલિંગથી કે ભાવલિંગથી યુક્ત હોય છે, પરંતુ આગળ જ છે તે લિંગથી ભાવલિંગથી રહિત થઈ જાય છે તેવા પુરુષને બીજા ભાંગામાં ગણાવી શકાય છે જેમકેજમાલિ નિદ્ધવ અથવા કડરિકની જેમ બને લિંગથી રહિત થઈ જનારને પણ બીજા ભાગમાં ગણાવી શકાય છે. પ્રત્યેક બુદ્ધ આદિની જેમ દ્રવ્યલિંગથી રહિત હોવા છતાં ભાવલિંગથી યુક્ત હોય એવા સાધુને ત્રીજા ભાગમાં ગણાવી શકાય છે. (૪) તથા ગૃહસ્થાદિની જેમ જે પહેલા પણ દ્રવ્યાલિંગ અથવા ભાવલિંગથી રહિત હોય છે પછી પણ એ જ ચાલુ રહે છે તેને ચેથા ભાંગામાં ગણાવી શકાય છે. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू० १९ यानादिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् { दिभिः, अयुक्तपरिणतं - सत्सामग्रीवर्जितम् २, इति द्वितीयो भङ्गः २ । एवं शेषमङ्ग द्वयमपि बोध्यम् ४। " " एवामेव " इत्यादि - एवमेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञतानि तद्यथां - एकः पुरुषः युक्तो द्रव्यभावलिङ्ग सम्पन्नः पश्चादपि युक्तपरिणतः - युक्तभावापन्नो भवति, इति प्रथमो भङ्गः | १ | एकः पुरुषः पूर्व युक्तः पचाद् अयुक्तपरिणतः = भावलिङ्गरहितो भवति, यथा जमाल्यादि निह्नवः । उभाभ्यां वा रहितो भवति यथा कण्डकः । इति द्वितीयो भङ्गः । २ । तथा - एकः पुरुषः अयुक्तः - पूर्व द्रव्यलिङ्गरहितः ऐसा होता है जो बलीवर्द आदिकों से युक्त होना है. और प्रशस्तअच्छी सामग्री से भी युक्त रहता है, तथा कोई एक रथादियान बलीवर्दादिकों से युक्त होता हुवा भी सत्सामग्री से रहित होता है, २ इसी तरह से शेष दो भङ्गों को भी समझ लेना चाहिये | इसी तरह चार पुरुष जात कहे गये हैं- कोइ एक पुरुष ऐसा होता है जो द्रव्यभाव लिङ्ग से सम्पन्न होने से युक्त होता है, और पश्चात् भी वह युक्त भाव से युक्त होता है, ऐसा यह प्रथम भङ्ग है, १ द्वितीय भङ्ग इस प्रकार से है, जैसे कोई एक पुरुष पहले युक्त होता है, द्रव्य भाव लिङ्ग से सहित होता है, पश्चात् वह अयुक्त परिणत हो जाता है, भावलिङ्ग से रहित हो जाता है, यथा - जमालि आदि निह्नत्र, या- दोनों लिङ्गों से रहित हो जाता है जैसे - कण्डरीक ऐसा वह द्वितीय भङ्ग है, २ तृतीय भङ्ग इस प्रकार है, जैसे कोई एक पुरुष अयुक्त-पहले लिङ्ग से रहित બીજા સૂત્રના ચાર ભાંગાનુ સ્પષ્ટીકરણ–(૧) કાઇ એક રથાદિ યાન એવુ હાય છે કે જે બળદ આદિથી પણ યુક્ત હોય છે અને પ્રશસ્ત સામગ્રીથી પણ યુક્ત રહે છે (ર) કોઈ એક રથાદિયાન બળદાદિથી યુક્ત હોવા છતાં પણ પ્રશસ્ત સામગ્રીથી રહિત હોય છે ત્રીજા અને ચેાથા નંબરના ભાગા પણ એજ પ્રમાણે સમજી લેવા, એજ પ્રમાણે પુરુષાના ચાર પ્રકાર પડે છે-(૧) કૈાઇ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે દ્રવ્ય-ભાવ લિંગથી સંપન્ન હોવાને કારણે યુક્ત હોય છે અને પછી પશુ તે પુરુષ તે ભાવથી સપન્ન જ રહે છે (૨) કાઈ એક પુરુષ પહેલા યુક્ત હોય છે—દ્રવ્યભાવ લિંગથી સપન્ન હોય છે પણું પાછળથી તે અયુક્ત પરિણત થઈ જાય છે-એટલે ભાવલિંગથી રહિત થઈ જાય છે જેમ કે જમાલિ આદિ નિદ્ભવ. અથવા ખન્ને લિંગથી પણુ રહિત થઈ જાય છે. જેમ કે કંડરીક આ પ્રકારના ખીજો ભાગૈા સમજવે, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ स्थानाङ्गसूत्रे पचादयुक्त परिणतो- द्रव्यमावलिङ्ग सम्पन्नो मरति, यथा-मत्ये युद्धादिः । इति तृतीयो भङ्गः । ३ । तथा - एकः पूर्वमयुक्तः सन् पश्चादप्ययुक्त परिणतो भवति, यथा - गृहस्थः, इति चतुर्थो भङ्ग ४ | एपा चतुर्भङ्गी वित्रिष्टपुरुषमाश्रित्य । सामान्य पुरुषमाश्रित्य तु एकः पुरुषः पूर्व युक्त धनधान्यादि सम्पन्नः पश्चादपि युक्तप रिणतो भवतीति प्रथमो भङ्गः । १ । एकः पुरुषः पूर्व युक्तः पश्चाद् अयुक्तपरिणतो - धनधान्यादिरहितो भवतीति द्वितीयो भङ्गः । २। एवं शेष भागद्वयमपि बोध्यम्४॥ होता है पश्चात् वह युक्त परिणत-द्रव्यलिङ्ग से सम्पन्न हो जाता है जैसे - प्रत्येक बुद्ध आदि ऐसा यह तृतीय भङ्ग है, ३। चतुर्थभङ्ग इस प्रकार है, जैसे- कोई एक पहले से भी अयुक्त होता है और पश्चात् भी अयुक्तपरिणत बना रहता है जैसे गृहस्थ ऐसा यह चतुर्थ भङ्ग है, ४| यह इस प्रकारकी चतुर्भङ्गो, विशिष्ट पुरुषको आश्रित करके कही गई है। अब सामान्य पुरुष को आश्रित करके यही चतुर्भङ्गी इस प्रकार से है - जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहले भी धनधान्यादि से सम्पन्न होता है, और बाद में भी वसा ही सम्पन्न बना रह जाता है, यह प्रथम भङ्ग है, १ द्वितीय भङ्ग इस प्रकार है - कोई एक पुरुष पहले तो धनधान्यादि सम्पन्न होता है बाद में उससे रहित हो जाता है, २ तृतीय भङ्ग इस प्रकार है - जैसे- कोई एक पुरुष पहले तो धनधान्यादि रहित होता है और याद में सम्पन्न हो जाता है, ३ तथा चतुर्थ भङ्ग ત્રીએ ભાંગા-કોઈ એક પુરુષ પહેલાં અયુક્ત (દ્રવ્યલિંગથી રહિત) હોય છે, પરન્તુ પાછળથી યુક્ત પરિણત-દ્રવ્યલિંગથી સ ́પન્ન થઇ જેમ કે પ્રત્યેક યુદ્ધ વગેરે. જાય છે ચેાથેા ભાંગા—કાઇ એક પુરુષ પહેલા પણ્ અયુક્ત ( દ્રવ્યક્લિંગથી રહિત) હોય છે અને પાછળથી પશુ અયુક્ત પરિદ્યુત જ ચાલુ રહે છે. જેમ કે ગૃહુસ્થ આ પ્રકારની ચતુભ ગી વિશિષ્ટ પુરુષને આધારે કહેવામાં આવી છે. સામાન્ય પુરુષાની અપેક્ષાએ એજ થતુંગીને આ પ્રમાણે ઘટાવી શકાય (૧) કાઇ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે પહેલાં પશુ ધનધાન્ય આદિથી સપન્ન હોય છે અને ત્યારમાદ પણ જીવનપર્યન્ત તેનાથી યુક્ત જ ચાલુ રહે છે. (ર) કાઈ પુરુષ પહેલાં ધનધાન્યાદિથી યુક્ત હોય છે પશુ પાછળથી તેનાથી રહિત ખની જાય છે. (૩) કાઇ એક પુરુષ પહેલાં ધનધાન્યાદિથી રહિત હોય છે પણ પાછળથી ધનધાન્યથી સપન્ન બની જાય છે Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा गैका स्था० ४ उ०३ सू० ११ यानादिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् ४३ __" चत्तारि जाणा" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरं-युक्तं बलीवादिभिः युक्तरूपंसुरचिताऽऽकारं भवति १, युक्तं सदपि अयुक्तरूप सुन्दरसंस्थानवर्जितम्, एवं शेषभगद्रयं बोध्यम् ४। एवमेव पुरुषो युक्तो-धनादिभिः ज्ञानादिगुणैर्वा सम्पन्नः सन् युक्तरूप:-उचितवेषः, यद्वा-सुरचितवेपो भवति । इति प्रथमो भङ्गः । १ । शेपभनत्रयमेवमेव बोध्यम् ४। एवमेव पुरुषो युक्तः-गुणैर्युक्तः युक्तशोभा--युक्ता-उचिता शोभा यस्य स तथा भवति १। एवं शेपभनत्रयमपि ४ ।। मृ० ११॥ . , इस प्रकार है-कोइ एक पुरुष ऐसा होता है जो-पहले भी धनधान्य रहित-होता है, और बाद में भी धनधान्य रहित बना रहता है-४।। ____ “चत्तारि जाणा"-इत्यादि, सूत्रार्थ स्पष्ट है, तात्पर्य इसका यह है कि कोई एक रथादियान ऐसा होता है जो बलीवर्द आदि से युक्त होता है, और-युक्त रूपवाला सुरचित रुचिर आकारवाला भी होता है ? द्वितीय भङ्ग में-जैसे कोई एक रथ ऐसा है जो, चलीवर्द आदि, वाहन से युक्त होता हुवा भी अयुक्त रूपवाला (सुन्दर -सुरुचिर आकारवाला नहीं ) होता है, २ इसी तरह शेष ३-- ४ -भङ्गों को भी समझना । इसी प्रकार पुरुष भी चार होते हैं, जैसे--कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो धनादि युक्त हुवा भी ज्ञानादि गुणवाला होता है, औरउचित वेषवाला होता है, अथवा-सुरचित वेषवाला होता है। द्वितीय भङ्ग में-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो धनादि सम्पन्न तो होता है (૪) કોઈ એક પુરુષ પહેલા પણ ધનધાન્યાદિથી રહિત હોય છે અને પાછળથી. 'पण तनाथी २हित १ २९ छे. “ चत्वारि जाणा" त्यादि सूत्राथ: २५ छ દૃષ્ટાન્ત સૂત્રનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-(૧) કોઈ એક રથાદિ યાન બળદ આદિથી પણ યુક્ત હોય છે અને યુકતરૂપ સપન-સુરચિત રુચિર આકાર વાળું પણ હોય છે. (૨) કોઈ એક રથાદિ યાન બળદ આદિથી યુક્ત હોવા છતાં અયુક્તરૂપવાળું હોય છે એટલે કે સુંદર અને સરુચિકર આકારવાળું હોતું નથી એજ પ્રમાણે બાકીના બે ભાંગાને ભાવાર્થ પણ સમજી શકાય એવો છે એજ પ્રમાણે પુરુષે પણ ચાર પ્રકારના હોય છે— (૧) કેઈ એક પુરુષ ધનાદિથી પણ યુક્ત હોય છે, જ્ઞાનાદિથી પણ સંપન્ન હોય છે અને ઉચિત વેષવાળ-સુરચિત વેષવાળો પણ હોય છે. (૨) કેઈ એક પુરુષ ધનાદિથી સંપન્ન હોવા છતાં અયુક્ત રૂપવાળે હોય છે એટલે કે જ્ઞાનાદિ ગુણોથી રહિત, ઉચિત વેષથી રહિત અથવા Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थांनाङ्गो इति यानदृष्टान्त पुरुषदान्तिकमूत्राणि ॥ मूलम्-चत्तारि जुग्गा पण्णत्ता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जुत्तेणाममेगे जुत्ते ४, । ५। एवं जहा जाणेण चत्तारि आलावगा तहा जुम्गोणवि, पडिवक्खो तहेव पुरिसजाया जाव सोहेत्ति ॥सू०१२॥ . छाया-चत्वारो युग्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा युक्तं नामकं युक्तम् ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि पज्ञातानि, तद्यथा--युक्तो नामैको युक्तः ४, एवं यथा यानेन पर-अयुक्तरूपवाला होना है-ज्ञानादि गुणवाला, या उचित वेषवाला, था-सुरचित वेषवाला नहीं होता है । अवशिष्ट दो भंग भी इसी तरह से समझ लेना चाहिये। इसी प्रकार से कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो ज्ञानादि गुणों से युक्त होता है और उचित शोभावाला भी होता हे यह प्रथम भङ्ग है, १ अवशिष्ट तीन भङ्ग भी इसी प्रकार से जान लेना चाहिये ।। सू.११ ॥ अप पुनः सूत्रकार दृष्टान्त और--पुरुषदान्तिक सूत्रों को कहते हैं" चत्तारि जुग्गा -पण्णत्ता"-इत्यादि-१२ सूत्रार्थ-युग्य चार कहे गये हैं, युक्तयुक्त, १ युक्ताऽयुक्त, २ अयुक्तयुक्त, ३ और .. अयुक्ताऽयुक्त, ४। ऐसे पुरुष भी चार कहे गये हैं - जैसे - युक्तयुक्त, १ इत्यादि । यान के जैसे युग्य के साथ भी युक्तयुक्त परिणत, युक्तरूप, युक्तशोभा. आदि पदों को जोडकर चार आलापक बन जाते हैं ऐसा समझ लेना चाहिये। સુરચિત વેષથી રહિત હોય છેબાકીના બે ભાગ પણ એજ પ્રમાણે સમજી શકાય એવાં છે યાનના “યુક્તયુક્ત ભાવાળું ” આદિ ચાર ભાંગ સરળ છે પુરુષના પણ એવાં જ ચાર ભાંગા સમજવા જેમ કે (૧) કેઈ એક પુરુષ જ્ઞાનાદિ ગુણોથી યુક્ત હોય છે અને ઉચિત શોભાવાળે પણ હોય છે. બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ આ પહેલા ભાગાને આધારે સમજી લેવા. સૂ ૧૧ હવે સૂત્રકાર દષ્ટાન્ન અને દાર્જીનિક પુરુષના સૂત્રોનું નિરૂપણ કરે हेरे छ- “ चत्तारि जुग्गा पण्णता " त्याह યુગ્ય (વાહનને ખેંચનાર કે ઉપાડનાર બળદ અથવા પુરુષ) ચાર २ना डोय छ-(१) युतयुक्त, (२) युतायुत, (3) आयुश्तयुत भने (૪) અયુક્તાયુક્ત એજ પ્રમાણે પુરુષે પણ ચાર પ્રકારના હોય છે. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था० ४ उ०३ सू०१२ युग्यदृष्टान्तेन पुरुषदान्तिकनिरूपणम् ४६ चत्वार आलापकास्तथा युग्येनापि । प्रतिपक्षस्तथैव पुरुपजानानि यावत् शोभेति । ।मु०१२॥ ___टीका-" चत्तारि जुग्गा" इत्यादि-युग्या--युग--रथं वहन्तीति युग्यावृषभाश्वादयः, यद्वा-युग्मानि--द्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्राणि सवेदिकानि सालङ्काराणि गोल्लदेप्रसिद्धानि जम्पानानि तानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- एकं युक्त-- इसी तरह से पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं ऐला प्रारम्भ करके युक्तः शोभा तकके समस्त भङ्गों को पुरुष सम्बन्धी चतुर्भङ्गी में कह देना चाहिये.। युक्तयुक्त, १ युक्ताऽयुक्त, २ अयुक्तयुक्त, ३ अयुक्तायुक्त, ४ युक्तयुक्त- परिणत, १ युक्तायुक्त -परिणत, २ अयुक्तयुक्त परिणत, ३ अयुक्ताऽयुक्त-परिणत, ४ युक्तयुक्त-रूप, १ युक्तायुक्त-रूप-२ अयुक्त युक्त-रूप, ३ अयुक्ताऽयुक्त-रूप, ४ युक्तयुक्त-शोभासम्पन्न, १ युक्ताऽयुक्त शोभासम्पन्न, २ अयुक्तयुक्त शोभासम्पन्न, ३ और अयुक्ताऽ. युक्त शोभासम्पन्न, ४, इस प्रकार से सब १६ भङ्गों को युग्य दृष्टान्त में और--पुरुष दान्तिक में प्रतिपादक ये सूत्र हैं। इस सूत्र में .. " युगं- रथाङ्ग ( प्रवहणाझं ) शिविकाङ्गं वा वहन्ति इति युग्या, ४ इस व्युत्पत्ति के अनुसार यग्य शब्द से वृषभादि, या .. मनुष्य गृहीत होते हैं। क्योंकि. (૧) યુક્તયુક્ત બાકીના ત્રણ પ્રકાર ઉપર મુજબ સમજવા. યાનની જેમ સ્ગ્યની સાથે પણ યુક્ત, યુક્ત પરિણત, યુક્તરૂપ અને યુક્તશોભા આદિ પદેને જોડીને ચાર આલાપક બની જાય છે એ જ પ્રમાણે પુરુષ વિષયક પણ ચાર આલાપક બને છે એમ સમજવું. આરીતે પુરુષ વિષયક ચાર ચતુર્ભગી બને છે યુગ્ય વિષયક પહેલી ચતુ ગી તે ઉપર આપવામાં આવી છે. હવે બીજી ચતુર્ભગી પ્રકટ કરવામાં આવે છે-(૧) યુક્તયુક્ત પરિણત, (૨) युतायुत परिणत, (3) आयुश्तयुत परिणत म. (४) अयुतायुत परियत. त्री यतुम on-(१) युतयुत ३५, (२) युतायुत ३५, (3) अयुत. युत ३५ भने (४) मयुतायुस्त ३५. यायी यतुम गी--(१) युश्तयुस्त ,मास पन्न, (२) युतायुस्त शाला: सपन्न (3) मयुक्तयुत लास पन्न, यने (४) अयुतायुत शालास पान. આ પ્રકારની ચાર ચતુભળીએ પુરુષના વિષયમાં પણ સમજવી. આ सूत्रमा “युग रथाङ्गः (प्रवहणाझं) शिविकाई वा वहन्ति इति युग्या." मा વ્યુત્પત્તિ અનુસાર યુગ્ય શબ્દથી બળદ આદિ પ્રાણુ અથવા પાલખી આદિ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना वाहनाऽऽरोहणसामग्र्या सहितं सत् पुनर्युक्तं वेगादिसम्पन्नमिति प्रथमो भगः । १। शेषमङ्गत्रयं स्वयमह्यम् ४। एवमेव लौकिके लोकोत्तरे च पुरुषे चत्वारो भगा वोध्याः ४ एवम् अमुना प्रकारेण यानेन यधा-यानबद् युग्येनाऽपि युक्त-युक्तपरिणत-युक्तरूप-युक्तशोभादिघटिताश्चत्वार आलापका बोध्याः । प्रतिपक्षःदार्शन्तिकस्तथैव-पूर्ववदेव, तत्र 'पुरुषजातानि चत्वारि ' इत्युपक्रम्य 'युक्तशोभ'-पर्यन्ताः सर्वेऽपि भङ्गा वक्तव्या इति । तथाहि-युक्तं युक्तं १ युक्तमयुक्तम् २ अयुक्तं युक्तम् ३ अयुक्तमयुक्तम् ४। युक्तं युक्तपरिणतं १, युक्तमयुक्तपरिणतम् २, अयुक्तं युक्तपरिणतम् ३, अयुक्तमयुक्तपरिणतम् ४। युक्तं युक्त. रूपं, १ युक्तमयुक्तरूपम् २, अयुक्त युक्तरूपम् ३, अयुक्तमयुक्तरूपम् ४। युक्तं युक्तशोभं १, युक्तमयुक्तशोभम् २, अयुक्तं युक्तशोभम् ३, अयुक्तमयुक्तशोभम् ४। इति युग्यदृष्टान्ते पुरुपदार्टीन्ति केऽपि च मूत्रणीयमिति पर्यवसितम् ।सू०१२। मूलम्-चत्तारि सारही पण्णत्ता, तंजहा--जोयावइत्ता णाममेगे णो विजोयावइत्ता १, विजोयावइत्ता णाम मेगे णो जोया-- द्विहस्तप्रमाणोपेत चौकोर वेदिका सहित अलङ्कारयुक्त “जम्पान" "पालखी' विशेष, जोकि गोल्ल देशमें प्रसिद्ध है वे भी “ युग्य" हैं। इसमें प्रथम भग इस प्रकार धटित करना चाहिये जैसे कोई एक युग्य ऐसा होता हैं, जो युक्त वाहन पर आरोहण करनेकी साधनसामग्री सहित होता है. और वेग आदि से भी सम्पन्न होता है यह युक्त युक्त इस प्रथम भङ्गवाला युग्य है-१ अवशिष्ट भङ्गोंकी घटना स्वयं कर लेना चाहिये-४ इसी तरह लौकिक एक [अलौकिक] लोकोत्तर पुरूपों मे चार भङ्ग जानना चाहिये ।।मू-१२॥ ઉપાડનાર મનુષ્ય ગૃહીત થાય છે જે કે બે હાથના પ્રમાણવાળી ગોલ દેશમાં ચેખૂણ વેદિકા સહિતની અલંકારયુક્ત “જમ્પાન” (પાલખી વિશેષ)ને પણ યુગ્ય કહે છે. પણ અહીં તે ગ્રહણ કરવાની નથી. યુગ્યના પહેલા ભાંગાને ભાવાર્થ...કોઈ એક યુગ્ય (બળદ આદિ) હોય છે કે જે યુક્ત–વાહન પર આરોહણ કરવાની સાધન સામગ્રીથી યુક્ત હોય છે અને વેગ આદિથી પણ યુક્ત હોય છે આ “ યુક્તયુક્ત” નામને પહેલે ભાંગે છે. બાકીને ભાંગાઓને ભાવાર્થ પણ જાતે જ સમજી લેવા એજ પ્રમાણે લૌકિક પુરુષ અને કેત્તર પુરુષને અનુલક્ષીને પણ ચાર ચતુર્ભગી સમજી લેવી. સૂ ૧૨ છે Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था०४३०३सू०१३ सारथिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् - ४७ वइत्ता २, एगे जोयावइत्तावि विजोयावइत्तावि ३, एगे जोयावइत्ता णो विजोयावइत्ता । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जोयावइत्ता णाममेगे णो विजोयावइत्ता० ४। एवामेव चत्तारि हया पण्णत्ता, तं जहा:-जुत्ते, णाममेगे जुत्ते, जुत्ते, णाममेगे अजुत्ते० ४) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया -पण्णत्ता, तं जहा--जुत्ते णाममेगे जुत्ते १, एवं जुत्तपरिणए, जुत्तरूवे, जुत्तसोहे, सव्वेसिं पडिवक्खो पुरिसजाया । सू० १३ । । - छाया-चत्वारः सारथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-योजयिता नामैको नो वियो जयिता १, वियोजयिना नामैको नो योजयिता २, एको योजयिताऽपि वियोजयिताऽपि ३, एको नो योजयिता नो वियोजयिता ४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-योजयिता नामैको नो वियोजयिता० ४, एवमेव " चत्तारि सारही पण्णता" इत्यादि-१३ । सारथी चार प्रकारके होते हैं, जैसे कोई एक सारथि योजयिता होता है वियोजयिता नहीं होना है-१ कोई एक वियोजयिता होता है योजयिता नहीं-२ कोई एक योजयिता-वियोजयिता भी-३ और कोई एक न तो योजयिता, न वियोजयिता होता है-४ ऐसे ही पुरुष भो चार कहे गये हैं जैसे कोई एक पुरुष योजयिता होता हैं. वियोजयिता नहीं-१ इत्यादि-४ । " चत्तारिसारही पण्णत्ता" त्या- सू. १३॥ સારથિના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર છે–(૧) કેઈ એક સારથિ ચેકયિતા હોય છે, વિચયિતા હોતા નથી. (૨) કેઈ એક સારથિ વિજયિતા હોય છે પણ જયિતા હોતા નથી, (૩) કોઈ એક સારથિ જયિતા પણ હોય છે અને વિયેજયિતા પણ હોય છે. કેઈ એક સારથિ જયિતા પણ હોય છે, અને વિજયિતા પણ હોય છે. (૪) કેઈ એક સારથિ યોજયિત પણ હેતો નથી અને વિજયિતા પણ હોતો નથી. એ જ પ્રમાણે પુરુષે પણ ચ ૨ પ્રકારના હોય છે-(૧) કે એક પુરુષ જયિતા હોય છે, પણ વિશેજયિતા હેતે નથી, ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર સમજવા Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे (82 सारथयः - रथवाहकाश्चत्वारः चत्वारो हयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - युक्तो नामैको युक्तः, युक्तो नामैकोऽयुक्तः ४, एवमेव चचारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-युक्तो नामैको युक्तः, एवं युक्तपरिणतः, युक्तरूपः, युक्तशोमः सर्वेषां प्रतिपक्षः पुरुषजातानि । मू० १३ । टीका - " चनारि सारही " इत्यादि प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एको योजयिता- रथोऽश्वादीनां संलग्नीकर्ता भवति किन्तु नो वियोजयिता- रथाश्वादीनां पृयकर्ता न भवति इति प्रथमो भङ्गः | १ | तथाएको वियोजयिता भवति नो योजयिता, इति द्वितीयः | २| एको योजयिता भवति विजयिताऽपि इति तृतीयो भङ्गः | ३| एको नो योजयिता भवति नो त्रियोज इसी प्रकार से चार प्रकार के 'हय' कहे गये हैं, जैसे कोई एक हप (घोडा) युक्त युक्त होता है - १ इत्यादि ४ । इसी प्रकार ४ चार पुरुष जात कहे गये हैं, जैसे युक्त युक्त इत्यादि - ४ | इसी प्रकार युक्त परिणत - युक्तरूप और युक्त शोभा सम्पन्न ये सप पद् जोड़कर यहां भङ्ग रचना कर लेनी चाहिये तात्पर्य इस सूत्र का ऐसा है - रथवाहक नाम सारथिका है ये चार प्रकार के कहे गये हैं सो उनमें कोई एक सारथि ऐसा होता है जो रथ में अश्व आदिकों को संलग्न ही करता है किन्तु - रथले उन अश्वादिकों को अलग नहीं करता है इस प्रकार का यह प्रथम भङ्ग है । तथा - कोई एक सारथिं ऐसा होता है जो केवल रथादिकों से अश्वादिकों को अलग ही करता है उन्हें उसमें संलग्नजोडना नहीं करता है ऐसा यह द्वितीय भङ्ग है - २ तथा कोई एक सोरवि ऐसा होता है जो रथादिमें अश्वादिकों को योजित और वियोजिन भी करता है ऐसा यह तृतीय भङ्ग है - ३ तथा - कोई ऐक सारथि એજ પ્રમાણે ઘેાડાના પશુ ચાર પ્રકાર કચ છે—(૧) કેઈ એક ઘેાડા યુયુક્ત હાય છે, ઇત્યાદિ ચાર પ્રકાર સમજવા પુરુષના પણ્ યુયુક્ત આદિ ચાર પ્રકાર સખજવા એજ પ્રમાણે યુક્તપરિણત, યુક્તરૂપ અને યુકનશાભા સપન્ન, આ પદેને જોડીને પશુ બીજી વધુ ચતુમ'ગી દૃષ્ટાન્તસૂત્ર અને દાન્તિક પુરુષસૂત્ર વિષે સમજી લેવી. આ સૂત્રને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે —રથ ચલાવનારને સાત કહે છે. તેના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) કેઈ એક સારથિ એવા હૈય છે કે જે રથ સાથે અશ્વ દિને જોડે છે ખરો પણ તેમને રથથી છૂટા કરતા નથી (૨) કોઈ એક સારથિ અશ્વાદિકોને સ્થથી અલગ કરે છે પણ તેમને રથ સાથે જોડતેા નથી. (૩) કોઇ એક સારથિ અશ્વાદિકોને રથ સાથે જોડે છે પણ ખરી અને તેમને વિયેાજિત (અલગ) પણ કરે છે (૪) કોઈ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४७३ सू०१३ सारथिदृष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् यिता, इति चतुर्थोभङ्गः४॥ चतुर्थभङ्गनिर्दिष्टः सारथिस्तु अश्वादोन् चालयत्येवेति । ___" एवमेवे "-खादि-एवमेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाएको योजयिता-संयमयोगेषु साधूनां प्रवर्तयिता भवति किन्तु नो वियोजयिताअनुचितकार्यप्रवृत्तानां निवर्तयिता न भवति, इति प्रथमः १। तथा-एको वियो. जयिता-अनुचितकार्यप्रत्तानां निवर्तयिता भवति किन्तु नो योमयिता-संयमयो. गेषु प्रवर्तयिता न भवतीति द्वितीयः । २ । तथा-एको योजयिताऽपि-संयमयोगेषु प्रातयिताऽपि पियोजयिताऽपि-अनुचितकार्यमवृत्तानां निवर्तयिताऽपि भवति, ऐसा होता है जो-अश्वादिकों को रथमें न तो संलग्न करता है और न उससे उन्हें दूर-पृथक् ही करता है यह चतुर्थ भङ्ग है-४ यह चतुर्थ भगवाला साथि केवल अश्यादिकों को चलाता है। इसी तरहसे पुरुषजात जो चार कहे गये हैं उनका तात्पर्य ऐसा है-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो संयमयोगोंमें साधुजनोंको प्रवृत्त ही करता है किन्तु-अनुचित कार्यमे प्रवृत्त को वहांसे हटानेवाला नहीं होताहै, ऐसा यह प्रथम भग है-१ तथा कोई एक साधु पुरुष ऐसा ही होताहै जो-अनुचित कार्य में प्रवृत्त हुवे जनों को वहाँसे हटानेवाला ही होता है किन्तु-संयमयोगोंमें प्रवृत्ति करानेवाला नहीं होता होता है ऐसा यह द्वितीय भङ्ग है-२ तथा-कोई एक साधुपुरुष ऐसा है जो संयमयोगों में प्रवृत्ति भी कराता है और अनुचित कार्योंमें प्रवृत्तों को वहांसे हटाता भी है यह-ऐसा तृतीय भङ्ग है-३ એક સારથી અશ્વાદિકોને રથ સાથે ચેજિત પણ કરતા નથી અને તેમને રથથી વિજિત (અલગ) પણ કરતો નથી. આ ચેથા પ્રકારને સારથિ માત્ર અશ્વાદિકોને અથવા રથને ચલાવવાનું કામ જ કરે છે. એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, તેમનું હવે સ્પણી કરણ કરવામાં આવે છે–(૧) કોઈ એક સાધુપુરુષ એ હોય છે કે જે સાધુઓને સંયમયેગોમાં પ્રવૃત્ત જ કરાવે છે, પણ અનુચિત્ત કાર્યમાં પ્રવૃત્ત થયેલા સાધુને તેમ કરતા અટકાવતું નથી. (૨) કોઈ એક સાધુપુરુષ એવો હોય છે કે જે અનુચિત કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત થયેલા માણસને તે પ્રકારની પ્રવૃત્તિ કરતા અટકાવે છે, પણ તેમને સંયમોમાં પ્રવૃત્ત કરનારે છે તે નથી. (૩) કોઈ એક સાધુપુરુષ એ હોય છે કે જે માણસને સંયમોમાં પ્રવૃત્ત પણ કરે છે અને અનુચિત કાર્યમાં પ્રવૃત્ત થનારને તે કાર્ય કરતાં અટકાવે છે પણ ખરો. (૪) કોઈ એક સાધુ પુરુષ એ હેય છે કે જે स-७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे इति तृतीयः । ३ । तथा-एको नो यो नयिता नो वियोजयिता भवति, स च साधारणशक्तिसम्पन्नो मुनिः ४। इति चतुर्थः ४। इति लोकोत्तरपुरुषमपेक्ष्य व्या. ख्यानम् । साधारणपुरुषविवक्षा तु-एको योजयिता-काचिन् कार्ये प्रवर्तयिता भवति, किन्तु नो विपोजयिता-ततो निवर्तयिता न भवतीति प्रथमः ।१। एवं शेपभङ्गत्रयमपि बोध्यम् ।। " एवमेव हया" इत्यादि-एवमेवयानत्रदेव हयाः - अश्वाः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-"युक्तो नामैक ' इत्यादि । एतत्मत्रं यानमूत्रबद् व्याख्येयम् । तथा-कोई एक साधु पुरुष ऐसा भी होता है जो न संयमयोगोंमें प्रवृत्ति कराता है और न अनुचित कार्यों में फसेको वहांसे हटाता ही है ऐसा चतुर्थ भगवाला कोई एक साधारण शक्तिशाली मुनिजन होता है-४ इस प्रकारका यह व्याख्यान इन चार भङ्गोका लोकोत्तर पुरुष की अपेक्षा लेकर किया गया है। साधारण पुरुषकी अपेक्षासे इनका व्याख्यान ऐशा है-जैसे कोई एक पुरुष ऐसो होता है जो किसी कार्य में किसीको प्रवृत्त करानेवाला ही होता है उससे उसे निवृत्त कराने वाला नहीं-१ अवशिष्ट तीन भंग इमी तरहसे समझ लेना चाहिये-४ एवामेव-इत्यादि थानके समान हय अश्वके भी चार प्रकार होते हैं जैसे कोई एक तो ऐसा अश्व होता है जो पहले भी रथादिमें जोता जाता है और बादमे भी-१ कोई एक पहलेही जोता લેકોને સ યમાગોમાં પ્રવૃત્ત પણ કરતું નથી અને અનુચિત કાર્ય કરનારને તેમ કરતા અટકાવતો પણ નથી કોઈ સાધારણ શકિતશાળી મુનિને આ ચોથા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. આ ચાર ભાંગાનું કથન લોકોત્તર પુરુષની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે. હવે સામાન્ય પુરુષની અપેક્ષાએ ચારે ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે. (૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે કોઈ કાર્યમાં કોઈ વ્યક્તિને પ્રવૃત્ત કરાવનાર જ હોય છે, પણ તેમાંથી તેને નિવૃત્ત કરાવનાર હેત નથી, બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ એજ પ્રમાણે સમજી લેવા. " एवामेव" त्याहि-याननी म मश्वना ५५ यार ४१२ डाय છે—(૧) કોઈ એક અશ્વ એ હેય છે કે જે પહેલાં પણ રથાદિની સાથે જેડી શકાય છે અને પછી પણ જોડી શકાય છે. (૨) કોઈ એક અશ્વ પહેલાં જોડી શકાય છે પણ પછી જેડી શકાતો નથી. (૩) કોઇ એક અશ્વ એ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४३०३ सू० १३ सारथिदृष्टान्तेन पुरुपनिरूपणम् " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-एवमेव-हयवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तो नामैक इत्यादि लौकिकलोकोत्तरपेक्षमनुसृत्य व्याख्येयम् । "एवं जुत्तपरिणए " इत्यादि । एवं यानवद् "युक्तपरिणतो युक्तरूपो युक्तशोभः" इत्येतैः पदैः साकं हयमूत्रचतुर्भङ्गो बोध्या ४। " सव्वेसि " सर्वेषां प्रत्येकं भङ्गांश्चतुरश्चतुरः कृत्वाः एकैकमनचतुष्टयस्थ 'पडियक्वो' प्रतिपक्षोदार्टान्तिको भणनीयः । तत्र को दान्तिकः ? इत्यपेक्षायामाह-'पुरिसनाया! इति । पुरुषजातानि-पुरुषजातरूपो दार्टान्तिकः सर्वेषां भणनीय इति । सू० १३ । मूलम्---चत्तारि गया पण्णता, तं जहा-जुत्ते णाममंगे जुत्ते ___४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४, एवंजहा हयाणं तहा गयाणं भाणियवं, पडिवक्खों तहेव पुरिसजाया । सू० १४ ।। जाता पादमें नहीं-२ कोई एक पहले भी, बादमे भी, और भी समयमें जोता जाता है-३ तथा-कोई एक ऐसा होता है जो नतो पहले, न पादमें ही जोता जाता है-४ । अयवा-इन युक्तयुक्त आदि मनोकी व्याख्या यान जैसी जाननी चाहिये और-यानके समान ही 'युक्त परिणत' 'युक्तरूप' और 'युक्त शोमा सम्पन्न' इन पदोंको घटित करके हय चतुर्भङ्गा जाननी चाहिये । और प्रत्येक चतुर्भङ्गी के समान प्रतिपक्ष दान्तिक जो पुरुषजात हैं वे भी चार प्रकारके हैं ऐमा जानना चहिये ॥ स्तू०१३ ॥ હોય છે કે જે પહેલાં જેડી શકાતું નથી પણ પછી જેડી શકાય છે. (૪) કોઈ એક અશ્વ એ હોય છે કે જેને પહેલાં પણ જોડી શકાતું નથી અને પછી પણ જોડી શકાતું નથી. અથવા આ યુક્તાયુક્ત આદિ ભાંગાઓની વ્યાખ્યા યાનના સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવી. અને યાનની જેમ જ યુક્ત પરિણત, ચુતરૂપ અને યુક્તભા સંપન આ પદેને જવાથી અશ્વ વિષયક બીજી ત્રણ ચતુગી. પણ બનાવી શકાય છે, અશ્વવિષયક જેવી ચાર ચતુર્ભગી કહી છે એવી જ ચાર ચતુર્ભાગી દાર્જીન્તિક પુરુષ વિષે પણ સમજી લેવી જોઈએ. એ સૂ ૧૩ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्र छाया-चत्वारो गनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-युक्तो नामको युक्तः ४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-युक्तो नामको युक्तः ४ एवं यथा इयानां तथा गजानामपि भणितव्यं, प्रतिपक्षस्तथैव पुरुषजातानि । स० १४ । टीका-" चत्तारि गया" इत्यादि-मृगमम् । " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्याधपि स्पष्टमेव । "एवं जहा-हयाणं " इत्यादि-एवम् इत्थं-प्रदर्शितक्रमेणेत्यर्थः, यथा हयानां युक्तादिपदयोजनया प्रत्येकं चत्वारश्चत्यारो भगा भणिताः, तथा तेन क्रमेण गजानामपि युक्तादि शोभान्तपदचतुष्टययोजनापुरस्सरं प्रत्येकं भङ्गचतु. प्टयं भणितव्यम् । ___"पडिवक्खो तहेव पुरिसजाया " पुरुष नातरूपदार्टान्तिकोऽपि तथैव भणितव्यः । सू० १४ । मूलम्-चत्तारि जुग्गायरिया पण्णत्ता, तं जहा-पंथजाइ णाममेगे णो उप्पहजाई १, उप्पहजाई णाममेगे णो पंथजाई २, एगे पंथजाई वि उप्पहजाईवि ३, एगे णो पंथजाई णो उप्पहजाई ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया । सू० १५ । " चत्तारि गया पण्णत्ता"-इत्यादि १४ सूत्रार्थ-गज-हाथी चार प्रकार के हैं, युक्तयुक्त-१ युक्ताऽयुक्त-२ अयुक्त. युक्त-३ और अयुक्तायुक्त-४ । ऐसे ही पुरुप जात भी युक्तयुक्त आदिके भेदसे चार कहे गये हैं । टीकार्थ - हयोंकी युक्तादि पद योजनासे बनाई गई चतुर्भङ्गी के जैसे युक्तादिी पदसे लेकर युक्त शोभासम्पन्न तक के पदोंकी योजना से बाजोंकी चतुर्भङ्गी बना लेनी चाहिये । और साथ साथ पुरुष जात भी चार हैं इन सब मूत्रोंका व्याख्यान हयसूत्र जैसा कर लेना चाहिये ।।सू०१४॥ सूत्रार्थ-" चत्तारि गयो पण्णत्ता" त्याह lar (stथी) या२ प्र४२ना ४ छ-(१) युतयुस्त, (२) युतायुक्त, (૩) અયુકતયુક્ત અને (૪) અયુતાયુક્ત એ જ પ્રમાણે પુરુષના પણ યુક્તયુક્ત આદિ ચાર પ્રકાર સમજવા. ટીકાર્થ – અશ્વિની જેમ જ યુકત પરિણત, યુક્તરૂપ અને ચુક્ત શભાસંપન્ન, આ પદેને જવાથી ગજ વિષયક બીજી ત્રણ ચતુર્ભાગી પણ બને છે એજ પ્રકારની બીજી ત્રણ ચતુભગ દાણંન્તિક પુરુષ વિષે પણ સમજવી. હયસૂત્ર (સૂ ૧૩)ને જે જ આ સૂત્રને ભાવાર્થ સમજ. સૂ. ૧૪ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३सू०१५ मजदृष्टान्तेन पुरुष निरूपणम् छाया-चतस्रो युग्याऽऽचर्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पथियायि नामैकं नो उत्पथयायि १, उत्पथयायि नामैकं नो पथियायि २, एकं, पथियाय्यपि उत्पथयाय्यपि ३, एकं नो पथियायि नो उत्पथयायि ४, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि ।सु० १५॥ टीका-" चत्तारि जुग्गायरिया" इत्यादि -युग्याऽऽचर्याः- युगं-रथं वहतीति युग्यमश्वादि वाहन तस्याऽऽचरणान्याचर्याः-बहनक्रियाः गमनक्रिया वा चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-"पंथजाई' इत्यादि-एक युग्यम्-अश्वादिवाहन पथियायि-पन्थान-मार्गयति-गच्छतीत्येवं शीलं तथा भवति, किन्तु नो उत्पथयायि-उत्सृष्टः-त्यक्तः पन्थाः उत्पथ -कुमार्गः, तं गच्छतीत्येवंशील मुत्पथयायि न भवति, इति प्रथमो भङ्गः । १। ___तथा-एकम् उत्पथयायि भवति, किन्तु नो पथियायि, इति द्वितीयः.२। ____ "चत्तारि जुग्गायरिया पण्णत्ता"-इत्यादि १५ सूत्रार्थ-युग्याचर्या चार कही गई हैं, पथियायी नो उत्पथयायी-१ उत्पथयायी नो पथियाधी-२ पथियायी भी-उत्पथयायीभी-३ और नो पथियायी नो उत्पथयायी-४ । इसी प्रकारसे पुरुप जात भी चार कहे गयेहैं भावार्थ-युग्यपदसे रथ वहन करनेवाले अश्वादि वाहन यहां गृहीत हुचे हैं, इनकी जो वहन क्रिया या गमनक्रिया है वह आचर्या पदसे गृहीत है । इसे चार प्रकार होनेका तात्पर्य ऐसा है-कोई अश्वादि वाहन ऐसा होता है जिसका स्वभाव मार्गसे चलनेका कुमार्गले नहीं होता है - १ यह पधियायी मार्ग में चलनेवाला का प्रथम भङ्ग है कोई एक ऐसा होता है जो कुमार्ग से चलने का स्वभाववाला होता है मार्ग से नहीं, २ यह द्वितीय भङ्ग है। " चत्तारि जुग्गायरिया पण्णत्ता" त्याह युग्यायर्या (मवाहिनी आमन हिया) या प्रारनी ही छे-(१) पथियायी ना ५ययायी, (२) Guथयायी ना ५थियायी, (3) पथियायी मने ઉત્પથયાયી (૪) ને પથિયાયી ને ઉત્પથયાથી એજ પ્રમાણે પુરુષોના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. ભાવાર્થ-યુગ્ય એટલે રથાદિને બે ચનાર અશ્વાદિ તે અશ્વાદિની જે વહન ક્રિયા અથવા ગમનકિયાને “આચર્યા કહે છે તેના ચાર પ્રકાર હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–(૧) કે અધાદિ યુગ્ય હોય છે જે માર્ગે ચાલવાના વિભાવવાળું હોય છે-કુમાર્ગે ચાલતું નથી. (૨) કોઈ એક અધાદિ વાહન કુમાગે જ ચાલવાના સ્વભાવવાળું હોય છે. માગે તે ચાલતું જ નથી(૩) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास तथा-एक पथियाय्यपि भवति, उत्पथयाय्यपि, इति तृतीयः ।। तथा-एकं नो पथियाथि भवनि नो उत्पथयायि, इति चतुर्थः । ४ । यद्यपि सामान्यमूत्रे युग्यस्याचर्याश्चतुर्विभजनीयत्वेनोक्तास्तथापि आश्रयाऽऽश्रेययोरभेदविवक्षया चर्याऽऽश्रयो युग्यमेव चतुर्विधत्वेनोक्तमिति । इति द्रव्ययुग्यपक्षे । भावयुग्यपक्षेतु-युग्यशब्दस्योपचारिकत्वेन युग्यसदृशा इत्यर्थः, तत्सादृश्यं च संयमयोगमारबोढूतया साधुपु ग्राह्यं, नेपामाचर्या युग्याचर्याश्च. तलः प्रज्ञप्ता इत्यर्थों बोध्यः, अत्रापि युग्यपदलक्षितस्य साधोराचर्याद्वारेण चातुविध्य, तत्र प्रथमः पथियायी अप्रमत्तः, सदनुष्ठायित्वात् १, उत्पथयायी लिझी तथा-कोई अश्वादि वाहन ऐसा होता है जो मार्गसे जानेका स्वभाव. वाला होता है और कुमार्गसे भी-३ ऐसा यह तृतीय भङ्ग है । कोई एक अश्चादि न मार्गसे-न कुमार्गले जानेका स्वभाववाला होता है-४ यद्यपि इस सामान्य सूत्र में युग्यकी आचर्या चार प्रकार से कही गई है फिर भी आश्रय और आय में अभेद विषक्षासे आचर्या के आभयभूत युग्यही चार प्रकारके कहे गये हैं ऐसा समझना चाहिये । यह कथन द्रव्य युग्यके पक्ष में किया है, भावयुग्यके पक्षमें इन भङ्गोका यों कथन करना चाहिये। युग्य शब्दको औपचारिक मान के युग्य जैसा जो हों वे युग्य हैं, ऐसे युग्य साधु होते हैं, क्योंकि-ये संयम भारको वहन करते हैं अतः इनमें-युग्य सादृश्य है इनकी चर्या युग्याचर्या है । यहां चर्या द्वारा युग्य पदोपलक्षित साधुमें चतुर्विधता इस કઈ અથાદિ વાહન માર્ગ પર થઈને ચાલવાને સ્વભાવવાળું પણ હોય છે અને કુમાર્ગે ચાલવાના સ્વભાવવાળું પણ હોય છે (૪) કેઈ એક અશ્વાદિ (યુગ્ય) માર્ગે થઈને જવાના સ્વભાવવાળું પણું હોતું નથી અને કુમાર્ગે ચાલવાના સ્વભાવવાળું પણ હોતું નથી, જે કે આ સામાન્ય સૂત્રમાં યુગ્યની આચર્યા (અશ્વાદિની ગમનકિયા) ચાર પ્રકારની કહી છે, છતાં પણ આશ્રય અને આઠેયમાં અભેદોપચારની અપેક્ષાએ આચર્યાને આશ્રયભૂત યુગ્ય ( અલ્પા દિનાં ) જ અહીં ચાર પ્રકાર સમજવા જોઈએ. આ કથન દ્રવ્યયુગ્યને અનુલક્ષીને કરવામાં આવ્યું છે, ભ વયુગ્યની અપેક્ષાએ આ ભાંગાઓનું કથન આ પ્રમાણે થવું જોઈએ યુગ્ય શબ્દને ઔપચારિક ગણીને યુગ્ય જેવા જે હોય તેને પણ યુગ્ય કહી શકાય. સંયમભારતું વહન કરનાર સાધુને જ એવાં યુગ્યસમાન ગણી શકાય. એવાં સાધુની આચર્યાને યુગ્યાચર્યા કહી શકાય અહીં આચ દ્વારા યુગ્ય પદે પલક્ષિત સાધુમાં ચતુર્વિધતાનું આ પ્રમાણે Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ ३ ३ सू १५ गज दृष्टान्तेन पुरुपनिरुपण असदनुष्ठायित्वात् २, उभययायी प्रमत्तः, उभयानुष्ठायित्वात् ३, अनुभययायी सिद्धः, अनुभयानुष्ठायित्वादिति ४। " एवामेवे "त्यादि-एवमेव-युग्यवदेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक:-कश्चित् पुरुषः पथियायी-सुशास्त्रज्ञानसम्पन्न-सुगुरूपदिष्टसुदेवाऽऽराधनादिमागंगामी भवति, किन्तु नो उत्पथयायी-कुशास्त्रज्ञानोपहतकुगुरूपदिष्ट कुदेवाऽऽराधनादिकुपथगामी नो भवति ? एवं शेषमङ्गत्रयं बोध्यम् । ४। प्रकार है-कोई एक साधु ऐसा होता है जो पथियायी सदनुष्ठान करने वाला अप्रमत्त होता है-१ कोई एक अपदनुष्ठान करनेवाला उत्प. थयायी प्रमत्त होता है-१ केवल साधुलिङ्गधारी होता है-२ कोई एक सद्-असद् अनुष्ठान करनेवाला उभययायी प्रमत्त और अप्रमत्त भी होता है-३ कोई एक अनुभययायी होता है क्योंकि वह उभय प्रकारके अनुष्ठानमें एक काभी अनुष्ठान करनेवाला नहीं होता है ऐसा वह सिद्ध होता है-४ । युग्य के सम्बन्ध से सम्बद्ध पुरुष जातभी चार होते हैं, जैसे कोई एक पुरुष पथियायी होता है सुशास्त्र ज्ञान सम्पन्न गुर्वादि उपदेशसे सुदेवकी आराधना आदिके मार्गमें गमन स्वभाववाला होता है, परन्तु उत्पथयायी नहीं होता है कुशास्त्रज्ञानसे उपहत कुगुरु द्वारा प्रतिपादित कृदेवोराधन आदि कुमार्गमें जानेवाला नहीं होता है-१ इसी प्रकारसे शेष तीन भङ्ग भी समझना चाहिये । यहा પ્રતિપાદન કરી શકાય—(૧) કેઈ એક સાધુ એ હોય છે કે જે પથિય થી હોય છે એટલે કે સદનુષ્ઠાન કરનારો અપ્રમત્ત સંયત હેાય છે (૨) કેઈ એક સાધુ એ હોય છે કે જે અસદનુષ્ઠાન કરનાર ઉત્પથયાયી પ્રમત્ત હોય છે એટલે કે કેવળ વેષધારી સાધુ જ હોય છે. (૩) કેઈ એક સાધુ સદનુષ્ઠાન અને અસદનુકામ કરનાર ઉભયયાયી પ્રમત્ત અને અપ્રમત્ત હોય છે (૪) કઈ એક સાધુ અનુભયયાયી હોય છે, કારણ કે તે સદઅનુષ્ઠાન પણ કરતે નથી અને અસદનુષ્ઠાન પણ કરતા નથી. એ તે સિદ્ધ હોય છે યુગ્યના છાતને અનુરૂપ ચાર પ્રકારના પુરુષ હોય છે– (૧) કેઈ એક પુરુષ પથિયાયી હોય છે એટલે કે સુશાસ્ત્રજ્ઞાનસંપન્ન, ગુરુ આદિના ઉપદેશ રૂપ માગે અને સુદેવની આરાધનાને માર્ગે ગમન કરવાના સ્વભાવવાળ હોય છે, પરંતુ ઉત્પથયાથી હોતો નથી, એટલે કે કુશાસ્ત્રજ્ઞાનને કુમાર્ગ, કુગુરુ પ્રતિપાદિત કુદેવારાધના આદિ કુમાગે ગમન કરનાર હોતે નથી. એજ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાગ પણ સમજી લેવા. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामाजसो ___ यद्वा-पथ्युत्पथशब्दौ स्वसिद्धान्त-परसिद्वान्तपरौ, गत्यर्थस्य 'या' धातोः 'ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः' इति बोधार्थकत्वमपि, ततश्चायमर्थः-पथियायी-स्वसि. द्धान्तबायी, उत्पथयायी-परसिद्धान्तज्ञायीति, शेपं प्राग्वदूहनीयम् । मू० १५॥ मूलम्-चत्तारि पुप्फा पण्णत्ता,तं जहा-रूवसंपन्ने णाममेगे णो गंधसंपन्ने १, गंधसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने २, एगे रूवसंपन्नेवि गंधसंपन्नेवि ३, एगे णो रूत्रसंपन्ने णो गंधसं. पल्ने ४। एवामेव चत्तारि पुरिस जाया पण्णत्ता तं जहा-रूवसंपन्ने णाममेगे णो सीलसंपन्ने । सू० १६ ।। छाया-चत्वारि पुष्पाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा रूपसम्पन्न नामैकं नो गन्धसम्पन्नं १, गन्धप्सम्पन्न नामैक नो रूपसम्पन्नम् २, एकं रूपसम्पन्नमपि गन्धमपथी और उत्पथ ये दो शब्द स्वसिद्धान्त परमिद्धान्त परक हैं, क्योंकि गत्यर्थक धातु ज्ञानार्थक भी होता है, यहां-" या " धातु गत्यर्थक है अत:-यह बोधार्थक भी हो सकता है, इसलिये-" पथियायी" इस भङ्गका अर्थ स्वसिद्धान्ताऽनुपायी, तथा-" उत्पथयायी" इसका पर सिद्धान्तपायी ऐसा भी अर्थ होता है । इस प्रकारका अर्थ करके शेष भङ्ग भी समझ लेना चाहिये ॥१०१५।। ____ "चत्तारि पुरफा पत्ता इत्यादि"-१६ ___ सूत्राथ-चार प्रकारके पुष्प कहे गयेहैं, जैसे कोई एक पुष्प ऐसा होता है जो केवल रूप सम्पन्न ही होता है-गन्ध सम्पन्न नहीं-१ कोई एक पुष्प केवल गन्धसम्पन्नही होता है रूप सम्पन्न नहीं-२ तथा-कोई अथवा--'५थी ' ५४ स्वसिद्धान्तपाय: मने — 6-4थ' ५४ ५२सिद्धांतવાચક છે, કારણ કે ગત્યર્થક ધાતુ જ્ઞાનાર્થક પણ હોય છે અહીં “ચા” ધાતુ ગત્યર્થક હોવાથી બધાઈક પણ સંભવી શકે છે. તેથી પથિયાયી” એટલે સ્વસિદ્ધાન્તને અનુયાયી અને “ઉત્પયિાયી એટલે પરસિદ્ધાન્તને અનુયાયી, આ પ્રકારને અર્થ પણ થાય છે આ પ્રકારના અર્થને અનુલક્ષીને બાકીના ભાગ સમજી લેવા જોઈએ. | સૂ ૧૫ " चत्तारि पुप्फा पण्णत्ता" त्याह ચાર પ્રકારના કુલે કહ્યાં છે–(1) કોઈ એક ફૂલ રૂપ સંપન્ન હોય છે, પણ ગધસંપન્ન હેતું નથી. (૨) કેઈ ફૂલ માત્ર ગંધસંપન્ન જ હોય છે, પણ રૂપસંપન્ન હેતું નથી. (૩) કે ઈ એક ફૂલ રૂપસંપન્ન પણ હોય Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ ७०३ सू०१६ पुष्पहष्टान्तेन पुरुषनिरूपणम् सम्पन्नमपि ३, एकं नो रूपमम्पन्नं नो गन्धसम्पन्नम् ४। एवमेव चत्वारि पुरुष. जातानि-पतप्तानि. नद्यथा-रूपसम्पन्नो नामैको नो शीलसम्पन्नः ४, | सू०१६। ____टीका-" चत्तारि पुष्का" इत्यादि-पुष्पाणिं चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाएकं पुष्पं रूपसम्पन्न-दर्शने सुन्दरं भवति, किन्तु नो गन्धसम्पन्न-सुगन्धि न भवति १, एवं शेषभङ्गत्रयं स्वयं विवरणीयम् । ४ । क्रमेण पलाश-पकुल-जातीबदरीपुष्पाणि तदुदाहरणानि । " एवामेव चतारि पुरिसजाया " इत्यादि-एवमेव-पुष्पवदेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषो रूपसम्पन्नः सुन्दरसंस्थानवान् भवति, किन्तु नो शीलपम्पन्न:-सद्वृत्तवान् न भवति १, एवं शेषभङ्गत्रिकं स्वयमूहनीयम् ४। । मु० १६।। एक पुरुष रूपसम्पन्न भी और गन्ध सम्पन्न भी होता है-३ और कोई एक नतो रूपसम्पन्न न गन्ध सम्पन्न ही होताहै-४ इली प्रकार से पुरुष जात भी चार कहे गये हैं, जैसे कोई एक पुरुष रूपसम्पन्न होता है पर-शील सम्पन्न नहीं-१ इत्यादि-४ सूत्र में पुष्प सम्बन्धी चतुर्भङ्गीका तात्पर्थ है कि कोई एक पुष्प रूप सम्पन्न तो होता है अर्थात्-देखने में सुहावना होता है किन्तुसुगन्धवाला नहीं, जैसे पलाश पुरुप १ इसी प्रकारसे शेष भङ्गात्रय बनाते समय दृष्टान्त के स्थान पर बकुल जाती-बदरिका पुष्पोंको रख लेना चाहिये-४ इसी तरहसे पुरूषजातमें कोई एक पुरुष देखने में अति છે અને ગંધસંપન્ન પણ હોય છે. (૪) કેઈ એક ફૂલ રૂપસંપન્ન પણ હતું નથી અને ગધસી પન્ન પણ હોતું નથી. એજ પ્રમાણે પુરુષ પણ ચાર પ્રકારના હોય છે–(૧) કોઈ એક પુરુષ રૂપસંપન્ન હોય છે પણ શીલસંપન્ન હેત નથી એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાગ પણ સમજી લેવા. પુષ્પ વિષયક ચતુર્ભગીનું સ્પષ્ટીકરણ–(૧) કેઈ એક પુષ્પ દેખાવમાં સુદર હોય છે. પણ સુગંધવાળું હોતું નથી. જેમકે પલાશ ૫૫. એજ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ સમજી લેવા. ગંધસંપન્ન ન રૂપસંપન પુષ્પ તરીકે બકુલ પુષ્પ ગણાવી શકાય. ગંધ અને રૂપસં૫ન પુષ્પમાં ગુલાબ પુષ્પ ગણાવી શકાય. ન ગંધ સંપન્ન અને ન રૂપસંપન્ન ફૂલમાં બદરિકા પુષ્પ ગણાવી શકાય. એ જ પ્રમાણે પુરુષના ચાર પ્રકાર નીચે प्रभारी समन्व Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागम मूलम् --चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो कुलसम्पन्ने० ४। ॥१॥ चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, जाइसंपण्णे गाममेगे णो वलसंपन्ने, बलसंपन्ने णाममेगे णो जाइसंपन्ने० ४, (२)। एवं जाईए स्वेण ४ चत्तारि, आलागा (३), एवं जाईए सुएण ४ (४), एवं जाईए सीलेण ४ (५), एवं जाईए चरित्तेण ४ (६), एवं कुलेण बलेण ४ (७), एवं कुलेण रूवेण ४ (८), एवं कुलेण सुएण ४ (९), कुलेणसीलण ४ (१०), कुलेण चरित्तेण ४ (११)॥ चन्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-बलसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे ४ (१२) एवं बलेण सुपण ४ (१३) एवं बलेण सीलेण (१४) एवं बलेण चरित्तेण ४ (१५) चत्तानि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-रूबसंपन्ने णामभेगे णो सुयसंपणे ४ (१६) एवं रूवेण हरीलेण ४ (१७) रूवेण चरित्तेण ४ (१८) __चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सुयसंपन्ने णाममेगे णो सीलसंपण्णे ४ (१९) एवं सुण्ण चरित्तेण य ४ (२०) चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, नं जहा-तोलसंपन्ने णाममेगे जो चरित्तसंपन्ने ४ (२१) एया एकवीसं चउभंगीओ भाणियचा ॥ सू० १७॥ सुन्दर परन्तु सवृत्तवाला नहीं होता है १ वाकीके तीन भड्न स्वयं समझना चाहिये ॥१६॥ (૧) કેઈ એક પુરુષ દેખાવમાં અતિ સુંદર હોય છે, પણ સદુવૃત્તિવાળા હેતો નથી, એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ પ્રકારે પણ સમજી લેવા. સૂ. ૧દા Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ ३ सू १७ जातिसम्पन्नादि पुरुषनिरूपणम् ६९ छाया - चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - जातिसम्पत्रो नामैको नो कुलसम्पन्नः ४ (१) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि दद्यथा-जातिसम्पन्नो नामको नो वलस म्पन्न, वoसम्पन्न नामैको नो जातिसम्पन्नः ४ (२) एवं जात्या रूपेण चत्वार आलापकाः (३) एवं जात्या श्रुतेन ४ (४) एवं जात्या शीलेन ४ ( ५ ) एवं जात्या चारित्रेण ४ (६) एवं कुलेन वलेन ४ (७) एवं कुलेन रूपेण ४ (८) एवं कुलेन श्रुतेन ४ (९) कुलेन शीलेन ४ (१०) कुलेन चारित्रेण ४ (११) चलारि पुरुष नातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-वलसम्पन्नो नामै हो नो रूपसम्पन्नः ४ (१२) एवं क्लेक श्रुतेन ४ (१३) एवं बलेन शीलेन ४ (१४) एवं बलेन चारित्रेण ४ (१५) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- रूपसम्पन्नो नामैको नो श्रुतसम्पन्नः ४ (१६) एवं रूपेण शीलेन ४ (१७) रूपेण चारित्रेग ४ (१८) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा श्रुतसम्पन्नो नामैको नो शीलसम्पन्नः ४ (१९) एवं श्रुतेन चारित्रेण च ४ (२०) चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि तद्यथा - शीलसम्पन्नो नामैको नो चारित्रसम्पन्नः ४ (२१) एत एकविंशतिश्चतुर्भङ्गा भणितव्याः । मु० १७ ॥ टीका - अथ पुप्पस्यैव दार्शन्तिकरूपाणि पुरुषमुत्राणि प्राह " चत्तारि पुरिसनाया " इत्यादि - स्पष्टम् । एकः पुरुषो जातिसम्पन्नः - उत्तमजाविको भवति, परन्तु नो कुलसम्पन्नः - उत्तमकुलसम्पन्नो न भवति १, एक: कुलसम्पन्नो भवति न जातिसम्पन्नः २, एक उभयसम्पन्नः ३, एक उभवर्जितो भवति । इति प्रथमा चतुर्भङ्गी ॥१॥ " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता " इत्यादि - १७ पुरुष जात चार है जातिसम्पन्न नो कुल सम्पन्न - १ एक उत्तम जातिवाला होता है पर उत्तम कुलका नहीं - १ एक उत्तम कुलका होता है पर उत्तम जानिका नहीं - २ कोई एक पुरुष उत्तम कुलका भी और उत्तम जातिका भी होना है - ३ तथाकोई एक पुरुष उभय वर्जित होना है न उत्तम कुलका ने उत्तम जातिका ४ अर्थात् कोई दूसरा कोई " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता '" Selle- ચાર પ્રકારના પુરુષ કહ્યા છે-(૧) કાઇ પુરુષ ઉત્તમ જાતિવાળા હાય છે, પણ ઉત્તમ કુળવાળા હૈાતે નથી. (૨) કેઇ ઉત્તમ કુળવાળા હાય છે પણ ઉત્તમ જાતિવાળા હાતા નથી (ક) કાઈ એક પુરુષ ઉત્તમ કુળવાળે પણ હાય છે અને ઉત્તમ જાતિવાળા પણુ હાય છે. (૪) કોઈ એક પુરુષ ઉત્તમકુળ રહિત અને ઉત્તમ જાત રહિત હાય છે. । ૧ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० स्थानासूत्रे पुनः " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि स्पष्टम् एकः पुरुषो जाविसम्पन्न भवति किन्तु नो वलसम्पन्नः - वीर्यसम्पन्नो न भवति १, एको बल सम्पन्नो भवति नो जातिसम्पन्नः २, एक उभयसम्पन्नः ३, एक उभयवर्जितो भवति, इति द्वितीया चतुर्भङ्गी । २ । 44 एवं जाईए रूपेण " इति - एवम् = अमुना प्रकारेण जात्या सह रूपेण युक्ताश्चत्वार आलापका वोध्या: ? तथाहि - जातिसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः १, रूपसम्पन्नो नामैको नो जाति सम्पन्नः २, एको जातिसम्पन्नोऽपि रूपलम्प Frist ३, एकोनो जातिसम्पन्नो नो रूपसम्पन्नः । इति तृतीया चतुर्भङ्गो ३ " एवं जाईए सुरण ' इति — एवम् = अनन्तरोक्तप्रकारेण जात्या सह श्रुतेन युक्ताश्चत्वार आलापकाः, तथाहि - जातिसम्पन्नो नामैको नो श्रुतमम्पन्नः १, फिरभी - पुरुषजाति चार कहे गये हैं जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो जाति सम्पन्न होता है, पर बल सम्पन्न नहीं - १ अर्थात् वीर्य सम्पन्न नहीं होता है । कोई सम्पन्न है पर - जाति सम्पन्न नहीं - २ कोई एक उभय सम्पन्न होता है - ३ और कोई एक उभयवर्जित होता है-४ एवं जाईए रूवेण इत्यादि इसी प्रकार तरह से जातिके माथ रूपने युक्त चार आलापक जानना चाहिये, जैसे कोई एक पुरुष जाति से सम्पन्न होता है पर रूपले सम्पन्न नहीं - १ कोई एक रूपसे सम्पन्न होता है पर जाति सम्पन्न नहीं - २ कोई एक जाति और रूपसे भी सम्पन्न होता है-३ कोई एक न तो जाति सम्पन्न ही न रूप सम्पन्न होहोता है- ४ “ एवं जाईए सुपण " इसी तरहसे जातिसे तसे युक्त चार आलापक होते हैं, जैसे कोई एक पुरुष નીચે પ્રમાણે પણ ચાર પ્રકારના પુરુષા કહ્યા છે—(૧) કાઈ એક પુરુષ उत्तम न्नतिसौंपन्न होय हे पशु जसौंपन्न (वीर्यसंपन्न) होतो नथी. (२) કાઇ ખળસ પન્ન હોય છે પણ જાતિસ’પન્ન હાતા નથી. (૩) કાઈ ખળસ પન્ન અને જાતિસ પન્ન હોય છે. (૪) કાઈ ખળસંપન્ન પશુ હાતા નથી અને જાતિસ'પન્ન પણ હાતા નથી. । ૨ । 66 एव जाईए रूवेण " मे प्रभा लतिनी साथै ३पना योगथी यार વિકા અને છે, જેમકે (૧) કોઇ એક પુરુષ જાતિસ'પન્ન હોય છે, પણુ રૂપસ'પન્ન હોતા નથી (ર) કાઈ રૂપસંપન્ન હોય છે પણ જાતિસ’પન્ન હોતા નવી (૩) કેાઇ જાતિસંપન્ન પણ હોય છે અને રૂપસ`પન્ન પણ હોય છે. (૪) કૈાઇ જાતિસ’પન્ન પણ હાતા નથી અને રૂપસ'પન્ન પણ હાતા નથી. ।। " एवं जाईए सुपण " योग अभा लति भने श्रुतना योगथी नीचे પ્રમાણે ચાર ભાંગા અને છે—(૧) કાઈ એક પુરુષ જાતિ પુન ડાય છે, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३ ० १७ जातिसम्पन्नावि पुरुषजातनिरूपणम् ६१ श्रुतसम्मन्नो नामैको नो जातिसम्पन्नः २, एको जातिसम्पन्नोऽपि श्रुससम्पन्नोऽपि ३, एको नो जातिसम्पन्नो नो श्रुतसम्पन्नः ४। इति चतुर्थीचतुर्भङ्गी ।४। " एवं जाईए सीलेण" इति-एवं-पूर्वोक्तरीत्या जात्या सह शीलेन युक्ताश्चत्वार आलापका वोध्याः, तथाहि-जातिसम्पनो नामैको नो शीलसम्पन्नः १, शीलसम्मन्नो नामैको नो जातिसम्पन्नः २, एको जातिसम्पन्नोऽपि शीलसम्पन्नो. ऽपि ३, एको नो जातिसम्पन्नो नो शीलसम्पन्नः । इति पञ्चमी चतुर्भशी ५। ___"एवं जाईए चरित्तेग ” इति एवं पूर्वोक्तपकारेण जात्या सह चारित्रेण युक्ताश्चत्वार आलापका वोध्या', तथाहि-जातिसम्पन्नो नामैको नो चारित्रससम्पन्नः १, चारित्रसम्पन्नो नामैको नो जातिसम्पन्नः २, एकोजातिसम्पन्नोऽपि चारित्रसम्पन्नोऽपि३, एको नो जातिसम्पन्नो नो चारित्रप्सम्पन्नः । इति पष्ठो चतुर्भङ्गी६। जातियुक्त होता है पर श्रुतसे सम्पन्न नहीं-१ कोई एक श्रुतसम्पन्न होता है तो जातिसम्पन्न नहीं -२ कोई एक जातिसे भी और श्रुतसे भी सम्पन्न होता है-३ और कोई एक न तो जातिसम्पन्न न श्रुतसम्पन्न होता है-४। " एवं जाईए सीलेण" इत्यादि इसी प्रकार शीलयुक्त जातिक चार आलापक होते हैं, कोई एक पुरुष जाति सम्पन्न होता है परशील सम्पन्न नहीं-१ कोई एक पुरुष शील सम्पन्न होना है तो जाति सम्पन्न नहीं-२ कोई एक जाति और शील सम्पन्न ली होता है-३ कोई एक नतो जाति सम्पन्न ही होता है न शील सम्पन्न ही-४ । " एवं जाइए चरित्तणं " इसी प्रकार जातिके साथ चरित्रसे युक्त चार भङ्ग होते हैं, जैसे कोई एक पुरुष जाति सम्पन्न होता है तो चारित्र પણ શ્રુતસંપન હેત નથી (૨) કઈ કૃતસપન હોય છે, પણ જાતિસંપન્ન હિતે નથી (૩) કે જાતિસંપન્ન પણ હોય છે અને શ્રુતસંપન્ન પણ હોય છે (૪) કોઈ જાતિસંપન્ન પણ નથી હોત, અને મૃતસંપન પણ હેતે નથી જા “ एव जाइए सीलेण" मे प्रमाणे ति मने शासन। योगथी नाये પ્રમાણે ચાર ભાગ બને છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ જાતિસંપન્ન હોય છે, પણ શીલસંપન હોતો નથી. (૨) કઈ શીલસંપન હોય છે, પણ જાતિસંપન્ન હેતું નથી. (૩) કઈ જાતિસંપન્ન પણ હોય છે અને શીલસંપન્ન પણ હોય છે. (૪) કઈ જાતિસંપન પણ હતું નથી અને શીલસ પન પણ હોતે નથી. ૫ "एवं जाईए चरित्तेणं" मेरा प्रमाणे ति भने सारित्रना योगयी નીચે પ્રમાણે ચાર ભાંગા બને છે–(૧) કે પુરુષ જાતિસંપન્ન હોય છે પણ ચારિત્રસંપન્ન હોતું નથી. (૨) કેઈ ચારિત્રસંપન હોય છે પણ જતિ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानां (f एवं कुलेण वलेण " इति - एवं कुलेन सह वळेन युक्ताअपि चत्वारो भङ्गा वोध्याः, तथाहि - कुलसम्पन्नो नासैको नो वलसम्पन्न १, वलसम्पन्नो नामैको नो कुलसम्पन्नः २, एकः कुलसम्पन्नोऽपि बलसम्पन्नोऽपि ३, एको नो कुलमम्पन्नो नो वलसम्पन्नः ४ इति सप्तमी चतुर्भङ्गी । ७ । " एवं कुलेग रूवेण " इति - एवं कुलेन सह रूपेण युक्ताश्चत्वारो भङ्गा बोध्याः, इत्यष्टमी चतुर्भङ्गी | ८ | एवं कुलेन सह श्रुतेन युक्तास्वारो भङ्गा । इति नवमी । ९ । ६२ सम्पन्न नही - ३ कोई एक चारित्र सम्पन्न होता है तो जाति सम्पन्न नहीं - २ कोई एक जाति सम्पन्न होता है और चारित्र से भी-३ कोई एक जाति चारित्र उभयसे विकल होता है -४ | " एवं कुलेग बलेण " - इसी प्रकार कुल और बलके योगसे चार भङ्ग होते हैं, कोई एक पुरुष कुल सम्पन्न होता है तो बल सम्पन्न नहीं - १ कोई एक बल सम्पन्न होना है तो कुल सम्पन्न नहीं - २ कोई एक कुल सम्पन्न होता है और बल सम्पन्न भी-३ कोई एक न तो बल सम्पन्न न कुल सम्पन्न ही होता है -४ “ एवं कुलेण रुवेण " - इसी प्रकार कुल और रूपसे चोर भङ्ग होते हैं । कोई एक पुरुष कुल सम्पन्न होता तो रूपसम्पन्न नही - १ कोई एक रूप सम्पन्न होता है तो कुलसम्पन्न नहीं -२ कोई एक उभय सम्पन्न होता है - ३ कोई एक उभय विहीन होना है - ४ । સપન્ન હાતા નથી. (૩) કઈ જાતિ અને ચારિત્ર બન્નેથી સ`પન્ન હાય છે (४) ।ई लति भने शास्त्रि भन्नेथी विहीन होय छे. हा 1 (" एव कुलेण वलेण " न प्रमाण भने भजना योगथी यार ભાંગા અને છે—(૧) કેાઇ પુરુષ કુળસ`પન્ન હેાય છે, પણુ મળસ‘પન્ન હાતા નથી, (૨) કેાઇ ખળસન્ન હાય છે પણ કુળસ'પન્ન હોતેા નથી (૩) કાઈ ખળ અને કુળ બન્નેથી સપન્ન હોય છે. (૪) કેાઈ ખળસ'પન્ન પણ હાતા નથી અને કુળસ’પન્ન પણ હાતા નથી. રા " एवं कुलेण रुवेण " ४ प्रभाग भने ३पना योगथी नीथे પ્રમાણે ચાર ભાંગા બને છે—(૧) કાઇ કુળસ'પન્ન તા હાય છે પણુ રૂપસ'પત હાતા નથી. (૨) કૈાઇ રૂપસ'પન્ન હોય છે પણ કુળસ’પન્ન હૈ।તા નથી. (૩) કોઇ કુળસ પન્ન પણુ હાય છે અને રૂપસ ́પન્ન પણુ હાય છે (૪) કાઈ કુળસ પન્ન પણ હાતા નથી અને રૂપસ'પન્ન પણ હાતા નથી. ૧૮ા એજ મમાણે કુળ અને શ્રુતના ચૈાગથી પણ ચાર ભાંગા બને છે. ફા Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था० ४ उ०३ सू०१७ जातिसम्पन्नादि पुरुषजातनिरूपणम् ६३ कुलेन सह शीलेन युक्ताश्चत्दारो भङ्गा इति दशमी । १० । कुलेन सह चारित्रेण युक्तचत्वारो भगा इन्येकादशी। ११ । " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुन: पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बलसम्पन्नो नामको नो रूपसम्पन्नः १. रूपसम्पन्नो नामैको नो वलसम्पन्नः २, एको वलसम्पन्नोऽपि रूपसरूपन्नोऽपि ३, एको नो बलसम्पन्नो नो रूपसम्पन्नः ४। इति द्वादशी । १२। " एव वलेण मुएण" इति-एव बलेन सह श्रुतेन युक्ता अपि चत्वारो भगा वोध्याः इति त्रयोदशी । १३।। ___ " एवं वलेण सीलेण" इति-एवं वलेन सह शीलेन युक्ताश्चत्वारो भङ्गा बोध्याः । इति चतुर्दशी । १४ ।। इसी प्रकार कुल और श्रुतके योगमें चार भङ्ग होते है-४ इसी प्रकार कुल शील से भी चार भंग होते हैं-४ इसी प्रकार कुल चारित्र युक्त चार भङ्ग होते हैं-४ इस प्रकारले यहाँ तक ग्यारह चतुभेगी है। ११ पुनश्च-" चत्तारि पुरिसजाया"-पुरुष जात चार हैं, जैसे कोई एक पुरुष वल सम्पन्न है तो रूप सम्पन्न नहीं-१ कोई एक रूप सम्पन्न होता है तो चल सम्पन्न नहीं-२ कोई एक बल सम्पन्न और रूप सम्पन्न भी होताहै-३ कोई एक न तो बल सम्पन्न न रूप सम्पन्न होता है-४, १२ "एवं बलेण सुएण"-इसी प्रकार बल श्रुतके योगमें चार भङ्ग होते हैं-४, १३ ___"एवं बलेण सीलेण"-ऐसे बल और शील संयोगसे चार भङ्ग होते हैं-४, १४ એજ પ્રમાણે કુળ અને શીલના ચેગથી પણ ચાર ભાગા બને છે. ૧૦ એજ પ્રમાણે કુળ અને ચારિત્રના વેગથી પણ ચાર ભાંગા બને છે ૧૧ આ રીતે અહીં સુધીમાં ૧૧ ચતુર્ભાગી પ્રકટ કરવામાં આવી છે. " चत्तारि पुरिसजाया " या२ ४२ पुरुष हाय छ- १) 0 પુરુષ બળસંપન્ન હોય છે પણ રૂપસંપન્ન હોતું નથી (૨) કોઈ રૂપસંપન્ન હોય છે પણ બળસંપન્ન હેતે નથી. (૩) કેઈ બળ અને રૂપ બનેથી સંપન્ન હોય છે. (૪) કેઈ બળસ ન પણ હતું નથી અને રૂપસંપન્ન પણ હતે નથી ૧૨ ___“ एवं बलेण सुएण" मे प्रमाणे मा भने श्रुतना योगथी यार ભાંગા બને છે. ૧૩ ., एव बलेण सीलेण " ४ प्रभाय म अने शासना योगथी यार ભાંગા બને છે. ૧૪ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ स्थानालमत्र ___"एनं बलेण चरित्तेण ” इनि-एवं बलेन सह चारित्रेण युक्ताश्चत्वारो भङ्गा वोध्याः । इति पञ्चदशी । १५ । "चत्तारि पुरिमजाया" इत्यादि-पुनः पुरुष नानानि चत्वारि मनप्तानि तद्यथा-रूपसम्पन्नो नामै को नो श्रुनसम्पन्नः १, अनयम्पन्नो नामको नो रूपसम्पन्नः २, एको रूपसरपन्नोऽपि, श्रुतसम्पन्नोऽपि ३, एको नो रूपमम्पन्नो नो श्रुतसम्पन्नः ४] इति पोडगी । १६ । " एवं स्वेण सीलेण” इति-एवं रूपेण सह शीलेन युक्ताश्रन्यारो भगा बोध्याः । इति सप्तदशी । १७ । " स्वेण चरितेग" इति-रूपेण सह चारित्रेग युक्ताश्रवारो भगा वोध्या। इत्यष्टादशी। १८ । " चनारि पुरिमजाया" इत्यादि-पुनः पुरुष नानानि चत्वारि जप्नानि, तद्यथा-श्रुतसम्पन्नो नामैको नो शीलपम्पन्नः १, गोलपम्गन्नो नामको नो श्रुन " एवं बलेण चरित्तेण"-इसी प्रकार बल चारित्रसे चार भाग होते हैं-४, १५ 'चत्तारि पुरिप जाया'-पुरुप जान चार कहे गयेहैं, जैसे कोई एक पुरुष रूप सम्पन्न होता है श्रुत सम्पन्न नहीं-१ कोई एक श्रुत सम्पन्न होता है रूप सम्पन्न नहीं-२ कोई एक रूप और श्रुत लम्पन्न भी-३ और कोई एक दोनोंसे रहित होता है-४, १६ “ एवं ख्वेण सीलेण" इसी प्रकार रूप शील से युक्त ४ मा होते हैं, १७ "स्वेण चरित्तेण" इमी तरह रूप चारित्र युक्त ४ भङ्ग होते हैं-१८ । " एवं बलेण चरित्तेण" मेरा प्रभारी मा भने यात्रिना याथी ચાર ભાંગા બને છે. ૧૫ “चत्तारि पुरिस जाया" पुरु५ना नीये प्रभो यार ५४५२ ५ पडे છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ રૂપસંપન્ન હોય છે, પણ તસંપન હેત નથી. (૨) કેઈ ઋતસંપન્ન પણ હોય છે પરુ રૂપ સંપન હેતે નથી. (૩) કોઈ થતસંપન પણ હોય છે અને રૂપસંપન્ન પણ હોય છે, (૪) કેઈ રૂપસંપન્ન પણ હોતું નથી અને શ્રતસંપન્ન પણ હોતું નથી ૧૬ "एवं वेण सीलेण " मेरी प्रमाणे ३५ गाने शासना योगवाणा यार Niu मने छे. ११७५ एवं रूवेण चरित्तेण" मेरी प्रभाये ३५ मने शारि. ત્રના રોગથી પણ ચાર ભાગ બને છે. તે ૧૮ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठगेका स्था०४ ७०३ सू०१७ जातिसम्पन्नादि पुरुषजातनिरूपणम् ६५ सम्पन्नः २, एकः श्रुतसम्मनोऽपि शीलसम्पन्नोऽपि ३, एको नो श्रुतसम्पन्नो नो शीलसम्पनः ४। इत्येकोनविंशा चतुर्भङ्गी । १९। " एवं सुणए चरित्तेण य" इति-एवं श्रुतेन सह चारित्रेण युक्ताश्चत्वारो भङ्गा वोध्याः । इति विंशतितमा चतुर्भङ्गी । २० । "चत्तारि पुरिसनाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यया-शीलसम्पन्नो नामैको नो चारित्रसम्पन्नः १, चारित्रसम्पन्नो नासैको नो शीलसम्पन्न २, एक शीलपम्पन्नोऽपि चारित्रसम्पन्नोऽपि ३, एको नो शीलसम्पन्नो नो चारित्रसम्पन्नः । इत्येकविंशतितमा चतुर्भगी। २१ । इत्थं जाति १ . पुनश्च-" चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे कोई एक पुरुष श्रुत सम्पन्न होता है शील सम्पन्न नहीं-१ कोई एक शील सम्पन्न होता है तो अतसम्पन्न नहीं-२ कोई एक श्रुत सम्पन्न भी शील सम्पन्न भी होता है-३ कोई एक न तो श्रत सम्पन्न न शील सम्पन्न होता है-४ १९ ..." एवं सुएण चरित्तणय"-इसी प्रकार श्रुत चारित्र युक्त ४ भङ्ग होते हैं -२० पुनश्च-" चत्तारि पुरिसजाया"-इत्यादि पुरुष जान चार हैं, जैसे कोई एक मनुष्य शील सम्पन्न होता है चारिन्न सम्पन्न नहीं-१ कोई एक चारित्र सम्पन्न होता है शील सम्पन्न नहीं-२ कोई एक शील से चारित्र से भी सम्पन्न होता है-३ कोई एक न तो शीलसे न चारित्रसे ही सम्पन्न होता है-४ यह एक्कीसवीं चतुर्भगी है । इस प्रकार "चत्तारि पुरिसजाया पण्णसा" पुरुषाना नीचे प्रमाणे या२ २ પણ પડે છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ શ્રુતસંપન્ન હોય છે પણ શીલસ પન્ન હેતે નથી. (૨) કેઈ શીલસંપન્ન હોય છે પણ શ્રતસંપન હેતે નથી (૩) કેઈ શ્રત અને શીલ બનેથી સંપન હાથ છે (૪) કોઈ શ્રત અને શીલ બનેથી વિહીન હોય છે. ૧૯ “एवं सुरण चरित्तेणय " मे प्रमाणे श्रुत भने यास्त्रिना योगथी ચાર ભાંગા બને છે. ૨૦ “चत्तारि पुरिसजायो " पुरुषाना नीय प्रमाणे या२ ४२ ४ा है(१) पुरुष शीतसपन्न डाय ५५] यात्रिसपन्न जातो नथी. (२) કેઈ ચાન્નિસંપન્ન હોય છે, પણ શીલસંપન્ન હોતું નથી. (૩) કઈ શીલ અને ચારિત્ર બનનેથી સંપન્ન હોય છે. (૪) કઈ શીલ અને ચારિત્ર બનેથી વિહીન હોય છે. આ ૨૧ મી ચતુર્ભગી છે. ૨૧ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे कुल २ वल ३ रूर ४ शुन ५ शील ६ चारित्रे ७ तिपदसत के परम्परं द्विकसंयोगेनैक विंशतिश्चतुर्भङ्गिकाः २१ भगिनव्याः । एषां व्याख्या सुगमा । सू० १७ । मूलम्-अत्तारि फला पण्णता, तं जहा-आमलगमहरे १, सुदिनामहरे २, खीरमहुरे ३, खंडमहरे ४। एकामेव चत्तारि आय. रिया पण्णता, तं जहा-आमलगमहुर फलसमाणे जाव खंडमहुरफलसमाणे ॥ सू० १८ ॥ छाया--चत्वारि फलानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आमलकमधुरं १, मृद्धीकामधुरं २, क्षीरमधुरं ३, खण्डमधुरम् ४। एवं चत्वार आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आमलकमधुरफलसमानः यावत् खण्डमधुरफलसमानः । मू० १८ ॥ टीका--" चत्तारि फला" इत्यादि-फलानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाआमलकमधुरम्-आमलकी-धात्रीतरुविशेषः, तस्या इदम् ( फल ) आमलकं, तदिव जाति-१ कुल-२ बल-३ रूप-४ श्रुत-५ शील-६ और चारित्र इन सात पदोंमें परस्पर द्विक संयोगसे ये २१ चतुर्भङ्गी होती हैं सुगम हैं । १७ " चत्तारि फला पण्णत्ता"-इत्यादि फल चार प्रकारके हैं-आमलक मधुर-१ मृद्रीक मधुर-२ क्षीर मधुर-३ खण्ड मधुर-४ इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के हैं, आमलक मधुर फल समान-१ यावत् कोई एक खण्ड मधुर फल समान-४ । इस सूत्र द्वारा प्रतिपादित आमलक मधुरका तात्पर्य ऐसा है-आमलकी नामका एक वृक्ष विशेप होता है, इसका दूसरा नाम धात्रीतरु है इस का जो फल है वह आमलक है । जो फल इसका जैसा मधुर मा शत (१) पति, (२) , (७) म(४) ३५, (५) श्रुत, (६) શીલ અને (૭) ચારિત્ર આ સાત પદેને અનુક્રમે પછીના પદો સાથે દ્વિક સંગ કરવાથી કુલ ૨૧ ચતુર્ભાગી બને છે. ભાવાર્થ સુગમ છે પર્ ૧૭ના " चत्तारि फला पण्णत्ता" त्याहि ( सू. १८) सना नीचे प्रमाण या२ २ ४ा छ-(१) सामसर मधुर, (२) મૃદ્ધીક મધુર (૩) ક્ષીરમધુર અને (૪) ખંડમધુર એજ પ્રમાણે આચાર્યના ५५ " मास मधु२ ५८ समान थी asa 'मधु२३ससमान' પર્વતના ચાર પ્રકાર સમજવા. આમલક મધુરને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે--આમલકી (આંબળાનું ઝાડ) નામનું એક વૃક્ષ થાય છે. તેનું બીજું નામ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघोडीका स्था०४ उ०३ सू०१८ चतुष्प्रकारकफलजातस्वरूपनिरूपणम् तदेव, वा, मधुरमामलकमधुरम् १, तथा - मृद्वीकामधुरं - मृद्वीका = द्राक्षा सेव सैव वा मधुरं तथा २, तथा क्षीरमधुरं क्षीरं- दुग्धं तदिव मधुरं क्षीरमधुरम् ३, तथाखण्डमधुरं - खण्डं = शर्करा तदित्र मधुरं खण्डमधुरम् ४, क्रमेणेमानि चत्वारि अल्पबहु - बहुतर - बहुतममधुराणि भवन्ति । " " एवामेव चत्तारि आयरिया " इत्यादि - एवमेव - उक्तफलवदेव आचार्या - चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आमलकमधुर फलसमानः, यावत्पदेन ' स्वीकारा धुरफ लसमाना, क्षीरमधुरफलसमानः ' इति पदद्वयग्रहणम्, तथा - खण्डमधुरफलसमान इति । तत्राऽऽमलकमधुरफलसमानः- आमलकवन्मधुर यत्फलं तत्तुल्यः यथाऽऽमहै वह आमलक मधुर है या स्वयं वही एक फल मधुर है - १ इस लिये वह आमलक मधुर (फल) है । कोई एक फल मृद्वीका मधुर होता है, मृडीका दाखका नाम है, द्राक्ष जैसा जो मधुर हो वह मधुर है - २ या यों कहिये कि मुद्रीका स्वयं ही एक मधुर फल है | कोई एक क्षीर मधुर होता है, क्षीर - दूधका नाम है दूत्र जसा मीठा जो हो वह क्षीर मधुर फल है - ३ कोई एक खण्ड मधुर होता है, शक्कर जैसा मधुर होने से खण्ड मधुर फल होता है - ४ ये सब क्रमशः अल्प बहु बहुतर, और बहुत मधुरवाले होते हैं । इसी प्रकारसे आचार्य भी चार प्रकार के होते हैं, इनमें कोई एक आचार्य आमलक मधुर फल समान होता है, आमलक के जैसे मधुर फल समान होता है, जैसे आमलक तुल्य मधुर फलमें अल्प माधुर्य होता है वैसे ही उसमें भी उपशमादि गुण अल्प मात्रामें होता है अतः ऐसे आचार्यको आमलक मधुर ' धात्रीतरु" छे, तेना ने आम ( ) उडे छे, तेना नेवां मधुर સ્વાદને આમલક મધુર કહે છે તે પાતે જ એક મધુર ફળ છે મૃદ્દીકામધુરના ભાવાર્થ-મૃદ્રીકા એટલે દ્રાક્ષ દ્રાક્ષ જેવાં મધુર રસને સૃઢીકા કહે છે અથવા એમ કહી શકાય કે દ્રાક્ષ પેાતે જ એક મધુર ફળ છે. દૂધ જેવાં મીઠા ફળને ક્ષીર મધુર લ કહે છે. સાકર જેવાં મધુર ફળને ખંડમર ફળ કહે છે આ ચારે અનુક્રમે અલ્પ, મહુ, બહુતર અને બહુતમ મધુરતાવાળા હાય છે. એજ પ્રમાણે આચાય પણ ચાર પ્રકારના હાય છે—(૧) ટાઈ એક આચાર્ય આમલક મધુર ફૂલ સમાન હોય છે જેમ આમલક સમાન ફળમાં અલ્પ માય હાય છે, એજ પ્રમાણે કાઇ આચાય'માં ઉપશમ આદિ ગુણે અલ્પ માત્રામાં હોય છે તે કારણે એવા આચાય ને આમલક મધુર ફળસમાન કહ્યા છે. એજ પ્રમાણે જે આચાર્યંજન બહુ માત્રામાં, મહેતર માત્રામાં અને Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांगसूत्रे लकमधुरफलेऽल्यं माधुर्य तथाऽऽचार्येऽपि अल्प एवोपशमादिगुग इति तत्समान आचार्यों व्यवहोयते, एवं बहुवहुतर बहुतमोपशमादिगुणसम्पन्नेवाचार्ययुद्वी कामधुरफलादि समानत्वं बोध्यम् ।। ।। मृ० १८ ।। मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-करेइ णाममंगे वेयावच्चं णो पडिच्छइ १, पडिच्छइ णामभेगे वेयावच्चं णो करेइ २, एगे पडिच्छइवि करेइवि ३, एगे नो पडिच्छइ नो करेइ ।। चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-अहकरे णाममंगे जो माणकरे १, माणकरे, णाममेगे णो अटकरे २, अट्टकरऽवि माणकरेऽवि ३, एगे णो अट्ठकरे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--गणट्ठकरे णासमेगे जो माणकरे० ४, चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- गणसंगहकरे णाममेगे जो माणकरे० ४, चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--गणसोहाकरे णाममेगे जो माणकरे० ४, चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--गणसोहिकरे णामोंगे णो माणकरे० ४॥ चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--रूवं णाममेगे जहइ फलसे उपमित किया गया है। इसी प्रकारसे जो आचार्यजन बहुमात्रा में, बहुर मात्रा, बहुतम मात्रामें उपशमादि गुणोंसे युक्त होते हैं उनमें क्रमश मृद्रीका मधुर फलादि समानता जाननी चाहिये ।।स्नु०१८॥ બહુતમ માત્રામાં ઉપશમાદિ ગુણેથી સંપન્ન હોય છે, તેમને અનુક્રમે મૃદ્ધીકા (द्राक्ष) मधु२, क्षीरमधुर भने म' (AU३२) मधुर ३१ समान समा . सू. १८४ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुंघा टोका स्था०४ उ०३ सू० १९ चतुष्प्रकारकपुरुषजात निरूपणम् णो धम्मं १, धम्मं णाममेगे जहइ णो रूवं २, एगे रूवंपि जहइ धम्मंपि जहइ ३, एगे जो रूवं जहइ णो धम्मं ४ | चचारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -धम्मं णाममेगे जहइ णो गणसंठिइं० ४, चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -पियधम्मे णाममेगे णो मे १, दढम्मे णास मेगे जो पियधम् २, एगे पियधमेव धम्मेचि ३, एगे णोपियधम्मे णो दृढधम्मे ४ सू०१९ ॥ छाया -- चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञतानि तद्यथा- आत्मवैयावृत्त्यकरो नामैको नो रवैयात्यकरः ४ | चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - अर्थकरो नामैको नो मानकरः १, मानकरो नामैको नो अर्थकरः २, एकोऽर्थकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो अर्थकरो नो मानकरः ४| " बलारि पुरुष नावानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-गणार्थ करो नामैको नो मानकरः ० ४ ॥ चत्वारि पुरुषजातानि ज्ञतानि तद्यथा गणसङ्ग्रहकरो नामैको नो मानकरः ४ । चारि पुरुषावानि मज्ञतानि, तद्यथा गणशोभा करो नामैको नो मानकरः ४ | चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा गगशोधिकरो नामैको नो मानकरः ४ । चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा रूपं नामैको जहाति नो धर्मं १, धर्मं नामैको जहाति नो रूपम् २, एको रूपमपि जहाति धर्ममपि जहाति ३, एको नो रूपं जहाति नो धर्मम् ४ | १, 9 चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तथा प्रियवर्मा नामैको नो धर्मा नामैकोनो धर्मा २, एकः पियधर्माऽपि धर्मापि ३, एको नो मिर्मा नो दृढधर्मा ४ | ० १९ ॥ टीका - - " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि - पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एकः - कश्चित् पुरुषः आत्मवैयावृत्यकरः - आत्मनः - स्वस्य वैयावृत्य - भक्त पुनश्च - " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता १९ टीकार्थ- पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आम वैयावृत्यकर होता है, भक्तपानसे स्वयं कीही सहायता " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता " त्याहि- ટીકા-પુરુષના નાચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે-(૧) કાઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે આત્મવૈયાવૃત્યકર હાય છે. એટલે કે ભક્તપાન આદિ - " Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. __ स्थानाङ्गसूत्रे पानादिभिः साहाय्यं करोतीत्येवंशील आत्मवैयारत्यकरो भवति किन्तु नो परवैयावृत्यरो भपति, स चाऽमो विसम्भोगि हो वा १, इति प्रथमो भग १, तथा-परवैयावत्यकरो नामैको नो आत्मवैयारत्यकरः, स च स्वार्थ निरपेक्षः २, तथा-एक आत्मवैयाप्रत्यारोऽपि पर यावत्यकरोऽपि, स च स्थविरकल्पिकः ३, तथा--एको नो आत्मवैयारत्यकरो नो परवैयात्त्यकरः, स चानशनविशेषप्रतिप. नादिः ४। भक्त पानादि वर्मकः इति ।। ___“चत्तारि पुरिस माया" इत्यादि- पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रशतानि, तद्यथा -एकः पुरुषो वयात्त्य परस्य करोत्येव, किन्तु नो प्रतीच्छति--स्वस्य चैया वृत्त्यं परतो न वाञ्छवि निःस्पृहत्वात् १, तथा--प्रतीच्छति नामैको चेयात्त्य नो करनेका स्वभाववाला है, परकी सहायता करनेका स्वभाववाला नहीं होता है-१ ऐसा जन यातो आलसी, या विसं भोगिक होता है-१ तथा-कोई एक भोजन पान आदिसे परकी सहायता करनेवाला होता है अपनी सहायता करनेवाला नहीं होता है, ऐसा व्यक्ति स्वार्थ निरपेक्ष होता है-२ तथा-कोई एक भोजन पान आदिसे अपनी और परकी सहायता करने का स्त्र नाववाला होता है, ऐसा व्यक्ति स्थविर कल्पित होता है-३ और कोई एक पुरुष न आत्लवैयावृत्त्यकर होना है न पर वैयावृत्त्यकर ही ऐसा वह अनशन विशेष को धारण किये हुवे व्यक्ति विशेष होता है-४ | ___ "चत्तारिपुरिस जाया" पुनश्च-पुरुप चार प्रकारके है, जैसे कोई एक पुरुष परका वैधावृत्त्य करता है किन्तु अपना बयावृत्त्य दूसरोंसे દ્વારા પિતાની જ સેવા કરનારે હોય છે, અન્યને તે બાબતમાં સહાયતા કરવાના સ્વભાવવાળે હેતે નથી એ પુરુષ કા તેઃ આળસુ અથવા તે વિસંગિક હોય છે. (૨) કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ભેજનાદિ દ્વારા અન્યની સહાયતા કરનારે હોય છે. પોતાની જાતની જ સેવા કરનારો હોતો નથી એવી વ્યક્તિ નિસ્વાર્થ હોય છે (૩) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ભેજનાદિથી પિતાની અને પરની સહાયતા કરનારો હોય છે એવી વ્યક્તિ સ્થવિર કવિપક હોય છે (૪) કોઈ વ્યકિત એવી હોય છે કે જે આત્મવૈયાવૃત્યકર પણ હોતી નથી અને પરિવૈયાવૃત્યકર પણ હોતી નથી. અનશન વિશેષને ધારણ કરનાર કે વિશિષ્ટ સાધુને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય. ___" चत्तारि पुरिसजाया " यार प्रा२ना पुरुषो या छ-(१) એક પુરુષ એ હેય છે કે જે પરનું વૈયાવૃત્ય કરે છે, પણ અન્યની પાસે Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५३०३ सू०१९ चतुष्प्रकारकपुरुषजातनिरूपण ७१ करोति, आचार्योग्लानो वा २। तथा-एको वैयावृत्त्यं करोत्यपि प्रतीच्छत्यपि, स च स्थविरविशेषः ३, तथा-एको वैयावृत्त्यं नो करोति नो प्रतीच्छति, स च जिनकल्पिकादिः ४, इति । "चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुनः पुरुपजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषोऽर्थकरः-अर्थान् करोतीत्येवंशीलस्तथा राजादीनां दिग्यात्रादौ तथोपदेशतो हितप्राप्त्यहितपरिहारादिकारी भवति, किन्तु नो मानकर:-मानगर्व करोतीत्येवंशीलस्तथा' कथमहमनभ्यर्थितो रानादीनेवं कथयिष्यामीत्यभिमानी न भवति. अपितु तदहितो भवति, स च सन्मन्त्री नैमित्तिको वा १, नहीं करवाता है, क्योंकि-वह व्यक्ति नि:स्पृह होतो है-१ कोई एक अपना वैयावृत्य करवातो है पर औरोंका वैयावृत्त्य स्वयं नहीं करता है ऐसा वह यातो आचार्य, या ग्लान होता है-२ कोई एक वैयावृत्त्य करता भी है और अपना भी वैयावृत्य परोसे करवाता है, ऐसा स्वविर विशेष होता है-३ कोई एक न तो वैयावृत्य करता है न अपना वैयावृत्त्य करानाही चाहता है ऐसा जिनकल्पिक आदि होता है ।-४ ___" चत्तारि पुरिसजाया"-इत्यादि 'पुनश्च-पुरुष चार कहे गये हैं, जैसे कोई एक पुरुष अर्थकर होता है मानकर नहीं, अर्थात् राजा आदिकों के साथ दिग्यात्रा आदिके समयमें उस प्रकारके उपदेश से उनका हित प्राप्तिकारी और अहित परिहारकारी होता है पर अहङ्कारका करनेवाला नहीं होता है, अर्थात् वह ऐसा अहङ्कार नहीं करता है कि પિતાનું વૈયાવૃત્ય કરાવતું નથી, કારણ કે તે પુરુષ નિહ હોય છે. (૨) કોઈ વ્યકિત એવી હોય છે કે જે અન્યની પાસે પિતાનુ વૈયાવૃત્ય કરાવે છે, પણ પિતે અન્યનું વૈયાવૃત્ય કરતી નથી આચાર્ય અથવા પ્લાન (માંદા સાધુને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય. (૩) કોઈ પુરુષ પરનું વૈયાવૃત્ય પણ કરે છે અને અન્ય દ્વારા પિતાનું વૈયાવૃત્ય પણ કરાવે છે. સ્થવિર વિશેષનો આ ભાંગામાં સમાવેશ કરી શકાય છે. (૪) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પરનું વૈયાવૃત્ય પણ કરતા નથી અને પિતાનું અવયાવૃત્ય કરાવતે પણ નથી, જિન કલ્પિત આદિને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે " चत्तारि पुरिसजाया" पुरुषमा नीय प्रमाणे ५ यार ४१२ ५४ हैકોઈ એક પુરુષ અર્થકર હોય છે પણ માનકર હોતું નથી. એટલે કે દિગ્વિજય આદિ સમયે રાજા આદિને ચગ્ય સલાહ આપીને તેમનું હિત કરનાર અને અહિત પરિહારી હોય છે, પણ અહંકાર કરનાર તે નથી આ કથનને Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ स्थानाङ्गयो तथा-मानकरो नामैको नो अर्थ करः अभिमानकरो भवति किन्तु नो अर्थकर:परहितादिरूपमर्थ न करोति, स च विद्यादिगुणाभिमानी २, तथा-एकः अर्थकरोऽपि, मानकरोऽपि, स चाभिमानी मन्त्री, अभिमानि मित्रं वा ३, तथा-एको नो अर्थकरो नो मानकरः, स च गुणवर्जितो जनः ।। "चत्तारि पुरिसनाया " इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञानानि, तद्यया-एकः पुरुषो गणार्थकरः-गणस्य-साधुममुदायस्यार्थ -भक्तपानादि प्रयो. जनं करोतीत्येवंशीलस्तथा भवति, किन्तु नो मानकरः-'कथमदममाथितो गणस्याथै करिष्यामी'त्येवमभिमानकारी न भवति प्रार्थनामन्तरेणैव तस्य गगोपका" मैं विना पूछे राजादिकों से ऐसा कैले करूं" पेला अभिमानी नहीं होता है किन्तु अभिमान रहित होताहै. ए.मा बह पुरुष या तो सन्मन्त्री या नैमित्तिक (ज्योतिषी) होता है-१ कोई एक मानका होता है अर्थकर नहीं-२ ऐसा व्यक्ति विद्यादिगुणाऽभिमानी होता है, क्योंकिवह परहितादि रूप अर्थ को नहीं करता है। कोई एक अर्थकर और माणकरभी होता है. ऐसा अभिमानी वह मन्त्री, या मित्र होता है-३ कोई एक अर्थकर भी नहीं मानकरी नहीं, ऐसा वह गुणवर्जित जन होता है-४ " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि पुनश्च-पुरुष चार है, जैसे कोई एक पुरुष गणार्थकर होता है मानकर नहीं, साधु समुदायका नाम गग है इल मणके भक्तपान आदि प्रयोजनो साधने का स्वभावભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે–તે એ અહકાર કરતા નથી કે “ વિના પ્રત્યે મારે રાજાદિકને શા માટે સલાહ આપવી જોઈએ” તે એ નિરાભિમાની હોય છે કે રાજા ન પૂછે તો પણ તેનું હિત થાય એવી સલાહ આપતો જ રહે છે. કેઈ સન્મત્રી અથવા નિમિત્તિકને (તિષી) આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય. (૨) કોઈ પુરુષ માનકર હોય છે પણ અર્થકર હોતે નથી વિદ્ય દિન ગુણનું અભિમાન કરનાર પુરુષ આ પ્રકારના હોય છે, કારણ કે તે પરહિતાદિ ૩૫ અર્થ (કાર્ય કરતા નથી પણ અહંકાર જ કરતો હોય છે. (૩) કોઈ અર્થકર પણ હોય છે અને માનકર પણ હોય છે. અભિમાની મંત્રી અથવા અભિમાની મિત્રને આ ભાંગામાં મૂકી શકાય (૪) કોઈ અર્થકર પણ હેતે નથી અને માનકર પણ હોતું નથી ગુણહીન જનને આ પ્રકારમાં મૂકી શકાય. "चत्तारि पुरिसजाथा" त्यादि पुरुषना मा प्रभारे यार प्र.२ ५५ પડે છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ ગણાર્થકર હોય છે પણ માનકર હેત નથી. સાધુ સમુદાયને ગણ કહે છે તે ગણના આહાર પાણી આદિ પ્રજનેને Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३ सू०१९ चतुष्प्रकारकपुरुषजातनिरूपणम् रित्वात् १, तथा - नानकरो नामैको नो गगार्थकरः २ तथा - एको गणार्थंकरोऽपि मानकरोऽपि ३, तथा - एको नो गणार्थकरो नो मानकरः ४ एते सुगमाः । उक्तंच अनन्तरं गणस्यार्थ उक्तः, स च सङ्ग्रहरूप इति गणसङ्ग्रहकरमूत्रमाह" चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि - पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथाएको गणसङग्रहकर - गणस्य - गच्छस्य द्रव्यत आहारादिना भावतो ज्ञानादिना सङ्ग्रहं करोतीत्येवशीलस्तथा भवति, किन्तु नो मानकरी भवति १, तथा - मानकरो नामैको नो गमकरः २, तथा - एका गणसङ्ग्रहकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणसङ्ग्रहकरो नो मानकरः ४ | " ऐसा वाला होता है " बिना कहे सुने गणका प्रयोजन कैसे साधू अभिमनकारी नहीं क्योंकि वह तो प्रार्थना के बिना ही गणहित साधन का स्वभाववाला हैं १ कोई एक मानकर होता है पर-गणार्थ कर नहीं, २ कोई एक गणार्थकर भी मानकर भी होता है, ३ तथाकोई एक नतोगणार्थकर न मानकर ही होता है, ४ ए सब सुगम हैं । गण संग्रह रूप होता है अब सूत्रकार गण संग्रह सूत्रका कथन करते हैं- "चत्तारि पुरिसजाया " - पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे- कोई एक पुरुष गणगच्छ का संग्रह कर होता है, द्रव्य की अपेक्षा आहारादि द्वारा और, भाव की अपेक्षा ज्ञानादि द्वारा संग्रह करने का स्वभाव वाला होता है, किन्तु, मानकर नहीं होता है, १ कोई एक मानकर होता है गणसंग्रहकर नहीं, २ कोई एक गणसंग्रह कर भी मानकर भी होता है, ३ कोई एक नतो- गणसंग्रहकर न मानकर ही होता है, ४। સાધવાના વભાવવાળા હોય છે. કોઈ કહે તે જ ગણુહિત સાધવાને બદલે કોઈના કહેવાની અપેક્ષા રાખ્યા વિના તે ગણુદ્ધિત ધવાને તત્પર રહે છે. (૨) કોઈ એક સાધુ માનકર હાય છે પણુ ગણુાકર હાતા નથી (૩) કોઈ એક સાધુ ગણાકર પણ હોય છે અને માનકર પશુ હેાય છે. (૪) કેાઈ સાધુ ગણુ કર પશુ હાતા નથી અને માનકર પણ હોતા નથી અર્થ સુગમ છે. ગળા સગ્રહરૂપ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર ગણુસ'ગ્રહ સૂત્રનું કથન ४रे छे–“ चत्तारि पुरिसजाया " हत्याहि - पुरुषाना नीचे प्रमाणे यार प्रहार पड़े छे--(१) अ पुरुष गासडर ( गग्छ संग्रह ५२) होय छे ७३ એટલે હું દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આહારદિ દ્વારા અને ભાવની અપેક્ષાએ જ્ઞાનાદિ દ્વારા સંગ્રહ કરવાના સ્વભાવવાળા હાય છે, પણુ માનકર હતેા નથી. (૨) કોઈ એકે પુરુષ માનકર હાય છે પણ ગણુસ ગ્રહકર હાતેા થી. (૩) કોઇ ગણુસંગ્રહકર પણ હાય છે અને માનકર પણુ હાય છે. (૪) કોઇ ગણુસ ગ્રહકર પણ હાતા નથી અને માનકર પણ હાતા નથી. स- ४० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ स्थानासमो "चत्तारि पुरिसनाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एको गणशोमाकरः-गणस्य साधुममुदायस्य-अनवद्यसाधुसामाचारीप्रवर्तन या वादित्व-धोपदेशित्व-नैमित्तिकव-विवामिद्वत्वादिना वा शोभा फरो. तीत्येवंशीलतया भवति, किन्नु नो मानक -तदभिमान कारी न भवति विनवाभ्यर्थन या गणशोमाकरणपराय गत्वाद् निरहङ्कारत्वाद्वा १, तथा-मानकरो नामैको नो गगशोभाकरः २, एको गगशोभाकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणशोभाकरो नो मानकरः ४। इति । ___“ चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुष नातानि चत्वारि प्राप्तानि, तघया-एको गगशोधिकरः-गणस्य शोधि-समुचितमायश्चित्तदानादिना शोधनं पुनश्च - " चत्तारि पुरिसजाया " - इत्यादि, पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे - कोई एक पुरुष गण माधुसमुदाय की अनवद्य - निर्दोष साधु समाचारी की प्रवर्तना से, धादित्व शुग से, धोपदेश करने से, नैमित्तिकस्य से, या-विद्यासिद्धित्व आदि ले शोभा करने का स्वभाव वाला होता है, फिन्तु-"नो मानकर" मानकर नहीं होता है इस बात का अभिमान करने का स्वभाव वाला नहीं होता है, क्योंकि वह बिना कहे सुने ही गण की शोभा करने में तल्लीन रहता है, अथवा अहङ्कार विना का होता है ऐसा यह प्रथम भंग है, १ कोई पुरुष मानकर होता है गण शोभाकर नहीं, २ कोई एक गण की शोभाकर भी होता है और-मानकर भी, ३ कोई एक नगणकी शोभाकर होता है और न मान कर ही होता है, "चत्तारि पुरिसजाया"-पुनश्च-पुरुष जान चार कहे गये हैं, जैसे-कोई एक गण " चत्तारि पुरिसजाया” मा प्रकारे पुरुषान। या२ २ ३ छ(૧) કોઈ એક પુરુષ અનવદ્ય (નિર્દોપ) સાધુ સમાચારીની પ્રવર્તન દ્વારા, વાદિત્વ ગુણ દ્વારા, ધર્મોપદેશ દ્વારા, નિમિકત્વ વડે, અથવા વિદ્યાસિદ્ધિવ આદિ ५४ सनी (साधुसमुदायनी) मा वधारनार हाय छ ५२-1 " नो मानकरः" (એ વાતનું અભિમાન કરનાર) હોતે નથી કારણ કે તે કોઈની વિનંતિની અપેક્ષા રાખ્યા વિના ગણની શોભા વધારવાને તત્પર રહે છે અને તેનામાં અહંકાર હોતે નથી. (૨) કેઈ પુરુષ માનકર હોય છે. પણ ગણેશભાકર હિતે નથી. (૩) કે પુરુષ ગણશોભાકર પણ હોય છે અને માનકર પણ હોય છે. (૪) કોઈ પુરુષ ગણાભાકર પણ હોતો નથી અને માનકર પણ છે તે નથી. "चत्तारि पुरिसजाया " पुरुषना नीचे प्रमाणे या२ २ र ५ છે—કેઈ એક પુરુષ ગણશેધિકાર હોય છે એટલે કે સમુચિત ગાયશ્ચિત્ત Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठोका स्था० उ०३०१९ चतुष्प्रकारकपुरुषजातनिरूपणम् करोतीत्येवंशीलस्तथा भवति यद्वा-- अकल्पनीयत्वसंशयाधिष्ठिते भक्तपानादौ अनपर्थित एव गृहस्थगृह गत्वा पृच्छादिना गगस्य भक्तादिपदार्थस्य शुद्धिं करोतीत्येवंशीलस्तथा भवति, किन्तु नो मानकरी भवति १, तथा - मानकरो नामैको नो गणशोधिकरः २, तथा-एको गणशोविकरोऽपि मानकरोऽपि ३, तथा-एको नो गणशोधिकरो नो मानकरः ४ | " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि - पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञतानि, तथा - एक रूप-माधूनां वेपं जहाति -राजादिकारणेन त्यजति, किन्तु नो धर्म शोध कर होता है, समुचित प्रायश्चित्त दान आदि द्वारा गण की शुद्धि करने का स्वभाव वाला होता है, यहा आहारादि में, अकल्पनीयता की संशीति (संदेह) हो जाने पर बिना कहे सुने ही जो गृहस्थ के घर पर जा कर उसका निर्णय कर के उस गण सम्बन्धी आनीत भक्तादि पदार्थ की शुद्धि करने का स्वभाव वाला होता है, किन्तु - " नो मानकरः मानकर नहीं होता है, मान करने का स्वभाव वाला नहीं होता है, १ कोई एक पुरुष मानकर होता है पर - गण शोध कर नहीं होता है, कोई एक ऐसा होता है जो गण शोधिकर भी होता है और मानकर भी होता है, ३ और कोई एक न तो गणशोधिकर होता है, न मानकर ही होता है, ४ । पुनश्च " सारि पुरिमाया " - इत्यादि पुरुष जान चार कहे गये हैं, जैसे- कोई एक पुरुष राजादि विशेष कारण "} " આદિ દ્વારા ગણુની શુદ્ધિ કરવાના સ્વભાવવાળા હાય છે, અથવા આહારાદિમાં અકલ્પનીયતાના સદેહ ઉત્પન્ન થતાં જ કાઇના કહેવાની રાહ જોયા વિના, ગૃહસ્થને ઘેર જઈને તેના નિર્ણય કરીને, તે ગણુને માટે વહેારી લાવવામાં मावेस भाडारपालीनी शुद्धि उरवाना स्वभाववाणी होय छे, पशु "नो मानकरः ' પણ માનકર હતેા નથી–અહંકાર કરવાના રવભાવવાળા હાતા નથી. (૨) કોઈ પુરુષ માનકર હોય છે પણુ ગણશેાધિકર હાતા નથી, (૩) કેાઈ ગણુશેાધિકર પણ હાય છે અને માનકર પણ હાય 'છે (૪) કેાઈ ગણુશેાધિકર પણ હોતા નથી અને માનકર પણ હાતે! નથી. " चत्तारि पुरिसजाया " पुरुषता नीचे प्रमाणे या प्रकार पडे छे(૧) કાઇ એક સાધુ એવે હાય છે કે જે રાદિના ભયના કારણે વેષને ત્યાગ કરે છે, પણ ચારિત્ર ધર્માંના ત્યાગ કરતા નથી. (૨) કાઈ એક સાધુ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानातसूर्य चारित्रलक्षणं त्यजति वोटिकमध्यस्थित बोटिकवे पधारि (बौद्ध साधु युनिवत् १, एको धर्म त्यति नो रूपं, निह्नववत् २, एको रूपधर्मो मयं त्यजति उत्प्रजितवत्-मृत. पूर्व गृहीतस यमगृहस्थवत् ३, एको नो रूपं जहाति नो धर्म जहाति मुसाधुवत् ।। से बेप को छोडता है चरित्र धर्म नहीं, १ बोटिक (बौद्ध) वेषधारी योटिक मध्य में स्थित मुनि जैसे । कोई एक धर्म छोडना है वेप नहीं, २ निव जैसे । कोई एक दोनों को छोड़ देता है, ३ गृहस्थ के जैसे । कोई एक धर्म, और वेप में एक को भी नहीं छोडता है, ४ खन्चे साधु जैसे | पुनश्च-" चत्तारि पुरिसजाया"-पुम्पजात चार होते हैं, जैसे-"जिनाज्ञा धर्म का परित्याग कर देता है पर-गच्छ मर्यादा नहीं " तात्पर्य है कि-- " योग्य साधु समुदाय को श्रुत देना चाहिये " तीर्थकर की आज्ञा है। इस आज्ञा की उपेक्षा कर के वृहत्कलादि विशिष्ट श्रुत अन्य गच्छ वाले साबु को नहीं देना है. प्रवर्तक द्वारा प्रवर्तिन अपनी ऐसी गच्छ मर्यादा का अनुसरण करता है वह जिनाज्ञा विराध होकर धर्मका परित्याग करता है पर- गणस्थिति का परित्याग नहीं करता है ऐसा वह प्रथम अङ्ग है, १। कोई एक गण स्थिति का परित्याग करता है, धर्म का नहीं, २ वह योग्य साधुओं को श्रुत देनेवाला होता है । कोई एक धर्म और એ હોય છે કે જે ધર્મ છેડે છે, પણ વેષ છોડતું નથી, જેમકે નિgવ (૩) કેઈ એક સાધુ વેવ પણ છેડે છે અને ધર્મ પણ છોડે છે (૪) કેઈ એક સાધુ વેષ પણ છેડને નથી અને ધર્મ પણ છોડતો નથી જેમકે સત્ય સાધુ “चत्तारि पुरिसजाया " पुरुषना नीये प्रमाणे या२ २ ५५ ५३ છે–(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ધર્મને પરિત્યાગ કરે છે પણ ગણુસ્થિતિને પરિત્યાગ કરતું નથી –“જિનાજ્ઞા ધર્મને પરિત્યાગ કરી નાખે છે પણ ગરછમર્યાદાને પરિત્યાગ કરતો નથી. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-તીર્થકરની એવી આજ્ઞા છે કે યોગ્ય સાધુ સમુદાયને થતદાન દેવું જોઈએ. આ આજ્ઞાની ઉપેક્ષા કરીને બૂડત્યાદિ વિશિષ્ટ કૃતનું અન્ય ગચ્છવાળા સાધુને તે દાન દેતા નથી, પણ પ્રવર્તક દ્વારા પ્રવર્તિત એવી પોતાની ગછમર્યાદાનું અનુસરણ કરે છે આ પ્રકારને સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક હોવાને કારણે ધર્મને પરિત્યાગ કરનારે ગણાય છે પણ ગણની મર્યાદાનું પાલન કરનાર હોવાને કારણે ગણસ્થિતિને પરિત્યાગકર્તા ગણાતો નથી. (૨) કેઈ એક સાધુ ગસ્થિતિને પરિત્યાગ કરે છે પણ ધર્મને પરિત્યાગ કરતો નથી તે યોગ્ય સાધુઓને શ્રુતદાન દેતે હોય છે. (૩) કેઈ ધર્મ અને ગણ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधां टोका स्था०४३०३ ०११ चतुष्प्रकारकपुरुवजातनिरूपणम् " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - एको धर्म - जिनाज्ञारूपं जहाति -त्यजति किन्तु नो गणसंस्थितिं गणस्यस्वगच्छस्य संस्थितिं = स्वगच्छप्रवर्तकमवर्तितमर्यादां न जहाति । इहायं विवेक:तीर्थङ्करा एवमुपदिशन्ति-" सर्वेभ्यो योग्यसाधुभ्यः श्रुतं दातव्यमिति तदाज्ञामु पेक्ष्य बृहत्कल्पादि विशिष्टश्रुतमन्यगच्छीयाय न देयमिति स्वगच्छप्रवर्तकप्रवर्तितमर्यादामनुसरन्योऽन्यगच्छीयाय श्रुत न ददाति स धर्मं त्यजति, जिनाऽऽज्ञाविराधकत्वात्, नो गणसस्थितिम् इति प्रथमो भङ्ग । १ । एकः पुरुषो गणसं - स्थिति जहाति नो धर्म, स च योग्येभ्यः श्रुतदायकः, इति द्वितीयः २ | एकी धर्मसंस्थित्युभयं जहाति स चायोग्येभ्यः श्रुतदायकः इति तृतीयः । ३ । एको नो धर्मं जहाति नो गण संस्थिति, स च श्रुतान्यवच्छेदार्थ परगच्छस्थं साधुं स्वग मर्यादायां संस्थाप्य श्रुतदायी । इति चतुर्थः । ४ । وق --- " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि -- पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - एकः प्रियधर्मा -प्रियो धर्मों यस्य स तथा = प्रीतिभावेन सुखेन च धर्मस्वीकारको भवति, किन्तु नो दृढधर्मा-दृढलाभावाद् विपदि धर्मात् प्रचलितो भवति, - गण स्थिति दोनों का परित्याग करता है, ३ ऐसा वह अयोग्यों को श्रुत देने वाला होता है, ३। कोई एक पुरुष न तो धर्म का, न गण स्थिति का परित्याग करता है, ४। पुनञ्च - " चत्तारि पुरिसजाया ".. इत्यादि, पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे- कोई एक पुरुष धर्मप्रिय होता हैप्रीति भावसे सानन्द धर्मको स्वीकार कर लेता है, किन्तु 'नो दृढ धर्मा, विपत्ति में धर्म से विचलित हो जाता है, अतः दृढ धर्मा नहीं होता है, १ । कोई एक पुरुष आपत् काल में भी अङ्गीकृत धर्म का परित्याग नहीं સ્થિતિ ખન્નેના પરિત્યાગ કરે છે અયગ્ય વ્યક્તિઓને શ્રુતદાન દેનારને આ પ્રકારમા મૂકી શકાય. (૪) કેઇ એક સાધુ ધર્મના પણ પરિત્યાગ કરતે નથી અને ગણુસ્થિતિના પણ પરિત્યાગ કરતા નથી " च्चत्तारि पुरिसजाया ' पुरुषना नीचे प्रभा यार अमर पशु उद्या છે—(૧) કાઈ એક પુરુષ ધપ્રિય હાય છે-પ્રીતિભાવથી આનંદપૂર્ણાંક ધર્મને स्वीजरी से छे, परन्तु " नो दृढधर्माः " दृढधर्मात नथी-भेटी है वियत्तिमां ધમથી વિચલિત થઇ જનારી હોય છે. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ اف #খানা ____तथा-एको दृढधर्मा-आपद्यपि स्वीकृतधर्मा परित्यागेन स्थिरथर्मा भवनि, किन्तु नो प्रियधर्मा-सुखेन धर्म स्वीकारी न भवनि, यतः स कण्टेन धमं गृह्णानि, २। एकः प्रियधर्माऽपि दृढधर्मास्ऽपि ३, एको नो प्रिगधर्मा नो दृहधर्मा ४१ ___ अस्यायमर्थः-द्वितीयो दुःखेन धर्ममुद्ग्राह्यते धर्मग्रहणं कार्यते, तु-पुनरसौ गृहीत धर्म तीरं पारं नयति यावज्जीवनं सविधि तमनुतिप्ठतीतितृतीयः उभयान्तः प्रियधर्मत्व-दृढधर्मत्योभयस्वभावः कल्याणः शोभनो भवति ३। चरमः अन्तिमश्चतुर्थस् । प्रतिनिपिट्ठो निवारित इत्यर्थः । मू. १९ ।। ___ मूल-चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा--परायणाचरिए णाममेगे णो उबट्टावणायरिए १, उबट्रावणायरिए णाममेगे जो करता है (स्थिर धर्मधारी होता है,) पर--सहसा सुख से धर्म का स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति बहुत कुछ शोच समन कर धर्म ग्रहण करता है, २ कोई एक प्रियधर्मा और धर्मा भी होता है, ३ कोई एक पुरुष न तो प्रियधर्मा ही न धर्मा ही होता है, ४ा इसका तात्पर्य है कि यहां जो द्वितीय पुरुष है वह सरलतासे धर्मको नहीं ग्रहण करता है, बहुत ही शोच समझ कर उसे स्वीकार करता है, और--जब स्वीकार कर लेता है तो फिर यावज्जीवन उसका वह सविधि पालन करता। अन्य पदों का भाव सुगम है, ॥ सू० १९ ॥ (૨) કેઇ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ગમે તેવી આફત આવે તે પણ ધર્મને પરિત્યાગ કરતો નથી (સ્થિર ધમધારી હેય છે), પણ પૂર્ણ વિચાર કર્યા વિના ધર્મ અંગીકાર કરતા નથી (૩) કોઈ પુરુષ પ્રિય ધર્મો પણ હોય છે અને દઢ ધર્મા પણ હોય છે. (૪) કઈ પુરુષ પ્રિય પણ હોતો નથી અને દઢધર્મા પણ તે નથી કહ્યું પણ છે કે– અહીં જે બીજા પ્રકારને પુરુષ કહ્યો છે તે સરળતાથી ધર્મને ગ્રહણ કરતે નથી–ઘણું જ વિચાર કરીને ધર્મને સ્વીકારે છે. આ રીતે ધર્મને સ્વીકાર્યા બાદ તે ગમે તેવી પરિસ્થિતિમાં પણ વિધિપૂર્વક, આજીવન તેનું પાલન કરે છે. બાકીના પદનો ભાવ સુગમ છે . સૂ ૧૯ છે Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२० चतुर्विधाचार्यस्वरूपनिरूपणम् ७२. पचायणायरिए २, एगे पचायणायरिएवि उवट्रावणायरिएवि ३, एगे णो परायणायरिए जो उवठ्ठावणायरिए धम्मायरिए ४॥ चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा--उदेसणायरिए णाममेगे णो वायणायरिए, धम्मायरिए० ४, चत्तारि अंतेवासो पण्णत्ता, तं जहा--पहायणंतेवासीणाममेगे णो उक्ट्रावणंतवासी १, धम्मंतेवासी ४, चत्तारि अंतेवाली पण्णता, तं जहा--उद्देसणंतेवासी णाममेगे णो वायणंतेवासी १, धम्संतेवासी० ४, । सू० २० ॥ छाया-पत्यार आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- प्रव्राजनाऽऽचार्यों नामैको नो उपस्था पनाऽऽचार्यः १, उपस्थापनाऽऽचार्यों नामैको नो प्रनाजनाऽऽचार्यः २, एकः पवाजनाऽऽचार्योऽपि उपस्थापनाऽऽचार्योऽपि ३, एको नो भवाननाऽऽचार्यो नो उपस्थापनाऽऽचार्यः धर्माऽऽचार्यः ।। चत्वार आचार्या. प्रज्ञप्ता , तद्यथा-उहेशनाऽऽचार्यों नामैको नो वाचनाऽऽ चार्यः धर्माऽऽचार्यः ४। चत्वारोऽन्तेवासिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रवाजनाऽन्तेवासी नामैको नो उपस्थापनाऽन्तेवासी १, धर्मान्तेवासी ४। चत्वारोऽन्नेवासिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उद्देशाऽन्तेवामी नामैको नो वाचना ऽन्तेवासी १, धर्मान्तेवासी ४।।मु० २०॥ टीका-" चत्तारि आयरिया” इत्यादि - आचार्याश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यया-एकः प्रजाजनाऽऽचार्य:-मबाजना-प्रव्रज्यादानं तया आचार्यों भवति, किन्नु नो उपस्थापनाऽऽचार्यः-उपस्थापना-शिष्ये महाव्रताऽऽरोपणं तथा आचार्य ___ "चत्तारि आयरिया पणत्ता "-इत्यादि, २० ॥ . आचार्य चार कहे गये हैं, जैसे - कोई एक आचार्य ऐसा होता है जो - प्रत्राजनाचार्य होता है - उपस्थापनाचार्य नहीं, १ दीक्षा देने द्वारा जो' आचार्य होता है बह - प्रजाजनाचार्य है, तथा-शिष्य में महावनोंका आरोपक जो हों वह-उपस्था " चत्तारि आयरिया पण्णत्ता" त्या (२०) આચાર્યના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) કઈ એક આચાર્ય એવાં હોય છે કે જે પ્રવ્રજનાચાર્ય હોય છે, પણ ઉપસ્થાપનાચાર્ય હતા Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाजपचे उपस्थापनाऽऽचार्यः शिष्ये महावताऽऽरोपको न भाति, इति प्रथमो भङ्गः । १ । एक उपस्थापनाऽऽचार्यों भवति न तु प्रत्राननाऽऽचार्यः । इति छिनीयः । २ । एक उभयाऽऽचार्यो भवति । इति तृतीयः । ३। एको नोभयाचार्यः, ग हि धर्माऽचार्यो भवति । इति चतुर्थः ।। " चत्तारि आयरिया" इत्यादि-पुनराचायश्चित्वारः प्रज्ञानाः, नयथा-- एक उद्देशनाऽऽचार्य:-उद्देशनम् -अनादिपटनाधिकारित्यकरणम् , तेन तत्र वाऽऽ. पनाचार्य है, अर्थात् छेदोपस्थापनीय चारित्र देने वाला उपस्थापनाचार्य है। कोई एक आचार्य शिष्य में महावतों का आरोपण करने से उप. स्थापनाचार्य होता है, प्रजाजनाचार्य नहीं, २ ऐमा छिनीय भर है। तथा-कोई एक प्रव्रजना से, और गिप्य में महावतों की आगेपणासे दोनों तरहोंसे आचार्य होना है, ३ ऐमा तृतीय भङ्ग है । तथा-कोई एक आचार्य न तो प्रत्राजना से, न उपस्थापनासे आचार्य होता है, ४ यत्त चतुर्थ भङ्ग है । कहा भी है." धम्मो जेणुबहट्टो." इत्यादि. पुनश्च"चत्तारि आयरिया, इत्यादि आचार्य चार प्रकार के होते हैं, जैसे-- कोई एक आचार्य, ऐसा होना है जो, उद्देशानाचार्य होता है, आचाराङ्गादि ग्यारह अगादिकों को पढ़ने का अधिकारी करना, इसका नाम उद्देशन है, इन उद्देशन से अथवा-इन उद्देशन में जो-आचार्य होता है वह-उद्देशनाचार्य है, किन्तु-वह वाचनाचार्य नहीं होताहै १ऐसा यह નથી દીક્ષા અંગીકાર કરાવવાને લીધે આચાર્ય થનારને પ્રવ્રજનાચાર્ય કહે છે, તથા શિમાં મહ વ્રતનું આરોહણ કરનારને ઉપસ્થાનાચાર્ય કહે છે. એટલે કે છે પસ્થાપનીય ચારિત્ર દેનારને ઉપસ્થાપનાચાર્ય કહે છે. (૨) કોઈ એક આચાર્ય શિખ્યામાં મહાવ્રતનું આરોપણ કરવાને કારણે ઉપસ્થાપનાચાર્ય હોય છે પણ પ્રવ્રજનાચાર્ય હોતા નથી. (૩) કોઈ એક શિબેને પ્રજિત કરવાને કારણે પ્રવ્રજના ર્ય પણ હોય છે અને મહાત્રનું આરોપણ કરવાને કારણે ઉપસ્થાપનાચાર્ય પણ હોય છે (૪) કોઈ એક આચાર્ય પ્રવ્રાજનાની અપેક્ષાએ પણ આચાર્ય હોતા નથી અને ઉપસ્થાપનાની અપેક્ષાએ પણ આચાર્ય હેતા નથી " चत्तारि आयरिया "त्याह-मायायना नाय प्रभारी ५ यार પ્રકાર પડે છે–(૧) કે.ઈ એક આચાર્ય એવાં હોય છે કે જે ઉદેશનાચ થે હોય છે, પણ વાચનાચાર્ય હોતા નથી. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–આચારાંગાદિ અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કરવાને અધિકારી કરે તેનું Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३ सू० २० चतुर्विधाचार्यस्वरूपनिरूपणम् चार्य उद्देशनाऽऽवार्यों भवति. किन्तु वाचनाऽऽचार्यों न भवति १, शेपास्त्रयो भङ्गाः सुगाः ४। तत्रोभयरहितो धर्माऽऽचार्यों ज्ञेय इति । "चत्तारि मंतेवासी" इत्यादि अन्तेवासिनः-अन्ते-गुरोः सन्निधौ (गुरोराज्ञायां) वसन्तीत्येवंशीला अन्ते वासिनः शिष्याः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकः प्रजाजनयादीक्षयाऽन्तेवासी तथा दीक्षितो भवति, किन्तु नो उपस्थापनाऽन्तेवासी-उपस्थापना-पञ्चमहाव्रतसपारोपणा तत्र तया वाऽन्तेवासी तथा महानताऽऽरोपणोशिष्यो न भवति १, एक उपस्थापनाऽन्तेवासी भवति परन्तु पवाजनाऽन्तेवासी न प्रथम भङ्ग है । इस सम्बन्ध के बाकी के तीन भङ्ग सुगम हैं । जैसेकोई एक आचार्य ऐसा होता है जो बाचनाचार्य होता है उद्देशनाचार्य नहीं, २ कोई एक उद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य भी होता है. ३ कोई एक न तो उद्देशनाचार्य न बाचनाचार्य ही होता है, ४ यह चतुर्थ भङ्ग है। " चत्तारि अंतेवासी "-अन्तेवासी चार होते हैं, गुरू की सेवा में रहने वाला शिष्य अन्तेवासी कहा जाताहै, कोई एक प्रचाजनान्तेवासी होताहै पर उपस्थापनान्ते वाली नहीं होताहै, जो दीक्षासे अन्तेवासी होता है वह प्रजाजनान्तेवासी कहा गया है, और जो पञ्चलहावतों की आरोपणा में, या-आरोपणा से अन्तेवासी होता है वह-उपस्थापना अन्ते वासी कहा गया है, इस प्रकार का यह प्रथम भङ्ग है, १ कोई एक નામ ઉદ્દેશન છે આ ઉદ્દેશનની અપેક્ષાએ અથવા આ ઉદ્દેશનમાં જે આચાર્ય હોય છે તેને ઉદ્દેશનાચાર્ય કહે છે અને સૂત્રાદિનું પઠન (અધ્યયન) કરાવનારને વાચનાચાર્ય કહે છે. કોઈ એક આચાર્ય એવાં હોય છે કે જે વાચનાચાર્ય હોય છે, પણ ઉદ્દેશનાચાર્ય હેતા નથી (૩) કેઈ એક આચાર્ય એવાં હોય છે કે જે ઉદ્દે શનાચાર્ય પણ હોય છે અને વાચનાચાર્ય પણ હોય છે. (૪) કેઈ એક ચાર્ય ઉદ્દેશાચાર્ય પણ હાતા નથી અને વાચનાચાર્ય પણ હોતા નથી. __" चत्तरि अंतेवासी " गुरुनी सभाये २२ना२ शिष्यने गन्तवासी 33 છે. તે અન્તવાસીના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. (૧) કેઈ એક પ્રવાજનાતેવાસી હોય છે પણ ઉપસ્થાપનાન્તવાસી હેતે નથી જે શિષ્ય દીક્ષાને કારણે અન્તવાસી ગણાય છે, તેને પ્રવ્રજનાન્તવાસી કહે છે. જે શિષ્ય પાંચ મહાવ્રતોની આરોપણાને કારણે અન્તવાસી ગણાય. છે તેને ઉપસ્થાપનાન્તવાસી કહે છે આ પહેલે ભાગ છે. स-११ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाचे भवति २, एकः प्रव्राजनान्तेवास्यपि उपस्थापनान्ते वास्यपि भवति ३, एको नो प्रव्राजनाऽन्तेवासी भवति नापि चोपस्थापनाऽन्तेवासी भवति, चतुर्थभद्गस्थः शिष्यो धर्मान्तेवासी धर्ममात्रस्वीकारे शिष्यो भवति, यहा धर्माभिलापितयोपागतश्चतुर्थों बोध्यः ४] इति ॥ "चत्तारि अंतेवासी" इत्यादि-पुनरन्तेवासिनश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएक उद्देशनान्तेवासी-उद्देशनेन अङ्गादिपठनाधिकारित्वकरणेन शिष्यो भवति, किन्तु नो वाचनाऽन्तेवासी-वाचना-गुरुभ्यः श्रवणमधिगमो वा, तया तत्र वाsन्तेवासी तथा न भवति १, एको वाचनाऽन्तेवासी भवति, नो उद्देशनाऽन्तेवासी अन्तेवासीहै जो कि-उपस्थापनासे अन्तेवासी होताहै, प्रव्राजनासे नहीं, यह द्वितीय भङ्गाहै, २ कोई एक अन्तेवासी ऐसा होताहै जो प्रव्राजनासे भी और-उपस्थापनासे भी, यह तृतीय भद है, ३ कोई एक प्रव्राजना से भी-उपस्थापना से भी उभय था अन्तेवासी नहीं होता है, ऐसा वह शिष्य धर्मान्तेवासी होता है धर्म मात्र के स्वीकार से शिष्य होता है, ऐसा यह चौथा भङ्ग है, ४ जो धर्माभिलापा से युक्त हो कर गुरु के पास में शिष्यत्व अङ्गीकार करता है, वह भी इस चतुर्थ भद्ग वाला होता है, । पुनश्च-" चत्तारि अंतेवासी-" अन्तेवासी चार कहे गये हैं, जैसे-कोई एक अन्तेवासी उद्देशनसे अगादि पढनाऽधिकारित्व करने से अन्तेवासी-शिष्य होता है, पर-वाचना से गुरु के पास श्रवण से या-अधिगमसे अन्तेवासी नहीं होताहै, ऐसा यह उद्देशनान्ते वासी नो वाचनान्ते वासी नामका प्रथम भड है, १ तथा-कोई एक अन्तेवासी (૨) કોઈ એક ઉપરથાપનાન્તવાસી હોય છે, પણ પ્રવ્રજનાન્તવાસી હિતો નથી. (૩) કેઈ એક પ્રવ્રજના તેવાસી પણ હોય છે અને ઉપસ્થાપનાન્તવાસી પણ હોય છે (૪) કેઈ એક પ્રવાજનાની અપેક્ષાએ પણ અન્તવાસી છેતો નથી અને ઉપસ્થાપનાની અપેક્ષાએ પણ અતેવાસી હોતે નથી એવા શિષ્યને ધર્માન્તવાસી કહે છે, કારણ કે માત્ર ધર્મના સ્વીકારની અપેક્ષાએ જ તે અન્તવાસી ગણાય છે. " चत्तारि अन्वेवासी " मन्तेवासीना नीचे प्रमाणे यार प्रा२ पy કદ્યા છે-(૧) કેઈ એક અનન્તવાસી ઉશનસ્તેવાસી હોય છે પણ વાચનાન્તવાસી હોતો નથી. એટલે કે અંગાદિનું પઠન કરવાને અધિકારી હોય છે, પરન્તુ વાચનાની અપેક્ષાઓ–ગુરુની સમીપે શ્રવણની અપેક્ષાએ અથવા અધિ मनी अपेक्षा अन्तवासी खाता नथी. सेवामा " उद्देशनान्तेवासी नो वचनान्वामी" मा पहेत माग छे. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२९ निर्ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् ८३ २, एक उद्देशनान्तेवास्यपि भवति वाचनाऽन्तेवास्यपि ३, एकोनो उद्देशनाऽन्तेवासी नापिच वाचनान्तेवासी भवति । तत्र चतुर्थभङ्गस्थोऽन्तेवासी को भवतीत्याह - " धम्मंतेवासी -ति, धर्मान्तेवासी - धर्मशिष्यः, धर्ममात्राभिलाषितयोपपन्नो वा । ४ । इति ॥ सू० २० ॥ मूलम् - चत्तारि णिग्गंथा पण्णत्ता, तं जहा - राइणिये समणे णिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिए धम्मस्स अणाराहए भवइ १, राइणिए समणे जिरगंथे अप्पकम् अप्पकिरिये आयावी समिए धम्मस्स आहए भवइ २, ओमराइ - पिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिए धम्मम्स अणाराहरू भवइ ३, ओमराइणिए समणे णिग्गंथे अपकम् अपकरिए आयावी समिए धम्मस्त आराहए भवइ४। चत्तारि णिग्गंथीओपण्णत्ताओ, तं जहा - राइणिया समणी णिग्गंथी एवं चेव ४, वाचनान्तेवासी होता है-उद्देशनान्तेवासी नहीं, ऐसा यह द्वितीय भङ्ग है, तथा - कोई एक अन्तेवासी उद्देशनसे भी - वाचनासे भी अन्तेवासी होता है, ३ यह तृतीय भङ्ग है । एवं कोई एक अन्तेवासी न तो उद्देशना से, और न वाचना से ही अन्तेवासी होता है, ऐसा अन्तेवासी धर्मशिष्य होता है, धर्ममात्र की अभिलाषा से युक्त हो कर वह शिष्य बनता है, ऐसा यह चतुर्थ भङ्ग है, ४ ॥ सृ०२० ॥ (૨) કોઈ એક અતેવાસી વચનાતેવાસી હોય છે, પણુ ઉદ્દેશનાત્ત્તવાસી હાતા નથી. (૩) કોઈ એક અન્તવાસી ઉદ્દેશનાન્તવાસી પણ હાય છે અને વાચનાતેવાસી પણ હોય છે. (૪) કોઈ એક શિષ્ય ઉદ્દેશનાન્તવાસી પણ હાતા નથી અને વાચનાતેત્રાસી પણ હાતે નથી. એવા અન્તવાસી ધ શિષ્ય ડાય છે. માત્ર ધર્મની અભિલાષાથી યુક્ત થવાને કારણે જ તે શિષ્ય मन्या होय छे. ॥ सू. २० ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामागचे चत्तारि लमणोवासगा पण्णता, तं जहा -राइणिए समणोवासए महाकम्मे तहेव ४, चत्तारि लमणोवासियाओ पगत्ताओ, तं जहा--राइणिया समणोवासिआ महाकम्मा तहेब चत्तारि गमा । सू० २१ ॥ छाया-चत्वारो निग्रन्थाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रात्निकः श्रमणो निग्रन्थो महाकर्मा महाक्रियः अनातापी अममितो धर्मस्थानाराधको भवति १, रात्निकः श्रमणो निर्ग्रन्थोऽल्पकर्माऽल्यक्रियः आतापी समितो धर्मस्याऽऽराधको भवति २, अवमरात्निकः श्रमणो निम्रन्थो महाकी महाक्रियोऽनातापी असमिनो धर्मस्याऽऽराधको भवति ३, अधमरात्निका श्रमणो निर्ग्रन्थोऽल्प कर्माऽल्यक्रिय आतापी समितो धर्मस्याऽऽराधको भवति । चतस्रो निग्रन्थ्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रानिकी श्रमगा निग्रन्धी एवमेव ४, चत्वारः श्रमणोपासकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रात्निकः श्रमणोपायको महाकर्मा । तथैव ४॥ चतस्रः श्रमणोपासिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रात्निकी श्रमणोपासिका महाकर्मा तथैव चत्वारो गमाः । मू० २१ ॥ टीका-" चत्तारि णिगंथा" इत्यादि-निग्रन्थाः-वाह्याभ्यन्तरग्रन्धरहिताः साधवश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रात्निकः-रत्नैः-भारतो ज्ञानादिलक्षणे व्यवहरतीति रास्निकः-ज्ञानादिरत्नव्यवहारसम्पन्नो बृहत्पर्यायः पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः, टीकार्थ-" चत्तारि णिग्गंथा पण्णत्ता"-इत्यादि--। २१ ॥ निर्गन्ध चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे - कोई एक निर्घन्ध श्रमणरात्निक पर्याय ज्येष्ठ होता है, दीक्षापर्याय की अपेक्षा ज्येष्ठ होता है, तपश्चरणशील होता है निर्ग्रन्थ. " चत्तारि णिग्गंथा पण्णता" त्याह-(२१) શ્રમણ નિગ્રંથના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે – [, (૧) કેઈ એક શ્રમણ નિગ્રંથ સાનિક હોય છે એટલે કે દીક્ષા પર્યાયની અપેક્ષાએ શ્રેષ્ઠ હોય છે, તપશ્ચરણશીલ હોય છે, બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત હોય છે, પરન્ત જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોની સ્થિતિની Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ लू० २१ निर्ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् श्रमणः-तपश्चरणगीला, निर्गन्धः, महाकर्मा-महान्ति-गुरूणि स्थित्यादिभिस्तादृशप्रमादलक्षितानि कर्माणि-ज्ञानाऽऽवरणीयादीनि यस्य स तथा, यहाक्रिया= महती-बृहती क्रिया- क्रवन्ध हेतु भूता कायिक्यादिका यस्य स तथा, अनातापीआसमन्तात् तापयति-शीतोष्णादिसहनलक्षणामातापनां करोतीत्येवंशील आतापी, न आतापोत्यनातापी-शीतोष्णादिपरीपहसहनकरणवर्जितः मन्दश्रद्धत्वात् , अत एव असमितः-समितिभिः ऐपिथिक्यादिमीरहितः साधुः धर्मस्य-दुर्गतिपतज्जन्तुसमुद्धरणपरायणस्य चारित्रलक्षणस्य अनाराधका-आराधयतीत्याराधक' स न भवतीति तथा भवति, इति प्रथमो निम्रन्थो ज्ञेयः । १। तथा-रानिमा-पर्यायज्येष्ठः श्रमणो निर्ग्रन्थोऽल्पकर्मा-लघुकर्मा, अल्पक्रियः-अल्पा क्रिया कायित्यादिका यस्य स तथा, आतापी-परीपहसहनधीरः, बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रहसे रहित होता है, परन्तु फिर भी वह ज्ञानापरणीयादि कोंकी स्थितिकी अपेक्षाले महाकर्मा होताहै कर्मवन्ध हेतुभूत प्राणातिपात आदि कायिकी क्रियाएँ जिसकी महती होती है. भन्द श्रद्धावाला होनेसे शीत उष्ण आदि परीषहोंको जीतनेसे रहित होता है असमित होता है-ईपिथिकी आदि समितियोंके पालनेसे विहीन होता है और इसीसे दुर्गति पडते हुबे जीवोंके उद्धरण करने में तत्पर ऐसे चारित्ररूप धर्मका वह आराधक नहीं होता है ऐसा वह प्रथम प्रकारका निर्ग्रन्थ है-१ कोई एक श्रमण निर्ग्रन्थ रानिक दीक्षापर्यायकी अपेक्षा ज्येष्ठ होताहै श्रमण तपश्चरणशील होताहै निर्ग्रन्थ बाह्य आभ्य. न्तर परिग्रहका त्यागी होता है, पर लघुकर्मा होता है, कायिकी आदि अल्प क्रियावाला होता है, आतापी होता है, परीषहाँको सहने में धीर અપેક્ષાએ તે મહાકર્મી હોય છે. તે કારણે કર્મબંધના કારણ રૂપ પ્રાણાતિપાત આદિ કાયિકી ક્રિયાઓથી અધિક પ્રમાણમાં તે યુકત હોય છે, મન્દ શ્રદ્ધા વાળે હોવાને કારણે શીત, ઉષ્ણ આદિ પરીષહાને જીતવાને અસમર્થ હોય છે, અસમિત હેય છે-ઈપથિકી આદિ સમિતિઓના પાલનથી વિહીન હોય છે અને તે કારણે દુર્ગતિમાં પડતા જીને ઉદ્ધાર કરવાને સમર્થ એવા ચારિત્રરૂપ ધમને તે આરાધક હેત નથી આ પહેલા પ્રકારને નિ થ સમજ. (૨) કેઈ એક શ્રમણ નિર્ણય રાત્વિક હેય છે-દીક્ષા પર્યાયની અપેક્ષાએ જ્યેષ્ઠ હોય છે, તપશ્ચરણ શીલ હોય છે અને બાહ્ય-આભ્યન્તર પરિગ્રહને ત્યાગી હોય છે, પરંતુ તે લઘુકર્મા હોય છે કાયિકી આદિ અલપ કિયાવાળા હોય છે, આતાપી હોય છે-પરીષહોને સહન કરવામાં ધીરવીર હોય છે, અને Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांगसूत्र अत एव समितः-समितिगुणसम्पन्नश्च भवत्यतो धर्मस्याऽऽराधको भवति २। इति द्वितीयो निर्ग्रन्थः २। तथा-अघमरात्निका-अवमो-लघुः पर्यायेण स चासो रात्निकोऽवमरात्निका-लघुपर्यायः, श्रमणो निग्रन्थो महाकर्मा महाक्रियोऽनातापी अत एवासमितो भवत्यत एव च धर्मस्याऽनाराधको भवति । इति तृतीयो निम्न्यः ३। तथा-अवमरात्निका लघुरात्निकः श्रमणो निन्थोऽल्पकर्माऽल्यक्रिय आतापी अत एव समितोऽत एष धर्मस्याऽऽराधको भवति । इति चतुर्थों निर्गन्धः । ४ । वीर होता है, समित होता है-समिति गुण सम्पन्न होता है अतः वह धर्माराधक होता है, यह द्वितीय प्रकारका श्रमणनिर्ग्रन्थ है-२ कोई एक श्रमण निर्ग्रन्थ दीक्षापर्यापकी अपेक्षा लघुपर्यायवाला होता है तपश्चरणशील होता है बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रहसे रहित होता है, फिरभी महाकर्या होता है, महा क्रियावाला होता है, अनातापी होता है, अतएव-असमित होता है और इसी कारण वह धर्मका आराधक नहीं होता है-ऐसा यह तृतीय प्रकारका श्रमण निर्ग्रन्थ है-३ कोई एक श्रमण निर्ग्रन्थ अवमरात्निक होता है-दीक्षापर्यायकी अपेक्षा लघु पर्यायवाला होता है तपश्चरणशील होता है बाह्याऽभ्यन्तर परिग्रहका त्यागी होता है, पर वह अल्प का होता है, अल्प क्रियावाला होता है आतापी होता है, समित होता है, इसलिये वह धर्मका आराधक होता है-४ । સમિત હોય છે-ઈર્યાપથિકી આદિ સમિતિઓનું પાલન કરનાર હોય છે, તે કારણે તે નિથિ ધર્મારાધક હોય છે બીજા પ્રકારના શ્રમણ નિગ્રંથોના આ લક્ષણે સમજવા. હવે ત્રીજા પ્રકારના શ્રમણ નિગ્રંથના લક્ષણો બતાવવામાં આવે છેકેઈ એક શ્રમણ નિગ્રંથ દીક્ષા પર્યાયની અપેક્ષાએ લઘુપર્યાયવાળો હોય છે, તપશ્ચરણશીલ હોય છે અને બાહ્ય-આભ્યન્તર પરિગ્રહોથી રહિત હોય છે, પરન્તુ તે મહાકર્મા હોય છે, મહાકિયાવાળે હેય છે, અનાતાપી હોય છે, પરીષહાને સહન કરવાને અસમર્થ હોય છે, તે કારણે તે અસમિત હોય છે અને એ જ કારણે તે ધર્મને આરાધક હેતે નથી. ચોથા પ્રકારના શ્રમણ નિગ્રંથના લક્ષણે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે–કેઈ એક શ્રમણ નિગ્રંથ “અવમારાત્નિક’ હોય છે. એટલે કે લઘુ દીક્ષાપર્યાયવાળા હોય છે, તપશ્ચરણશીલ હોય છે, અને બાહ્ય-આભ્યન્તર પરીગ્રહને ત્યાગી હોય છે, પરંતુ તે લઘુકમ હોય છે, અલ્પક્રિયાવાળા હોય છે, પરીષહેને સહન કરનારે હોય છે અને સમિત હોય છે તે કારણે તે ધર્મના આરાધક હોય છે. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३० २१ निर्ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् " चत्तारि णिग्गंथीओ" इत्यादि एतद्विवरणं निर्ग्रन्थसूत्रवद्बोध्यम्, इत्यत आह - " एवं चेत्र " - एवमेव-निर्ग्रन्यवदेव भङ्गचतुष्टयं भणनीयम् । ८७ " चत्तारि समणोवासगा" इत्यादि - एतदपि श्रमणोपासकसूत्रं निर्ग्रन्थसूत्रवद् बोध्यम्, इत्यत आह - " तदेवे " -ति- तथैव - यथा निर्ग्रन्था उक्तास्तथैव श्रमणोपासका अपि चतुर्भङ्गीयुक्ता वोध्या इति । संक्षेपसे श्रमण निर्ग्रन्थोंके चार भेद इस प्रकार से हैं— कोई एक श्रमण निर्ग्रन्थ दीक्षा पर्यायकी अपेक्षा ज्येष्ठ होता हुबाभी अनाराधक होता है - १ कोई एक श्रमण निर्ग्रन्थ दीक्षापर्यायकी अपेक्षा ज्येष्ठ हुवाभी आराधक होता है - २ । कोई एक श्रमण निर्ग्रन्थ दीक्षापर्यायकी अपेक्षा लघु हुवाभी अनाराधक होता है -३ और एक श्रमण निर्ग्रन्थ दीक्षापर्यायकी अपेक्षा लघु हुवाभी आराधक होता है-४ “ चत्तारि णिग्गंधीओ' इत्यादि. इस सूत्र का विवरण निर्ग्रन्ध सूत्र जैसा जानना चाहिये अतः पूर्वोक्त रूपसेही यहां भङ्ग चतुष्टय कर लेना चाहिये । " चत्तारि समगोवास " इत्यादि इस श्रमणोपासक सूत्रकी व्याख्या भी पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ सूत्रकी तरह करलेनी चाहिये इसीलिये तहेव ऐसा कहते हुवे सूत्रकार प्रकट करते हैं कि श्रमणोपासकभी निर्ग्रन्थोंके समानही चतु હવે શ્રમણ નિગ્ર થાના ચાર ભેદ સક્ષિપ્તમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે. (૧) દ્વીધ દીક્ષા પર્યાયવાળા પણુ અનારાધક હાય એવા શ્રમણ નિ" થ. (૨) દીવ દીક્ષાપર્યાયવાળા પણુ આરાધક હોય એવા શ્રમણ નિગ્ર થ. (૩) લઘુ દીક્ષાપર્યાયવાળા પણુ અનારાધક હાય એવા શ્રમણ નિગ્રંથ. (૪) લઘુ દીક્ષા પર્યાયવાળા પણુ આરાધક હૈાય એવા શ્રમણ નિગ્રંથ. " चत्तारि णिग्गंथीओ " इत्याहि ચાર પ્રકારની શ્રમણ નિગ્રથિણીએ ( સાધ્વીએ ) હોય છે. આ સૂત્રનુ’ વિવરણુ નિગ્રંથ સૂત્ર અનુસાર કરવુ' જોઈએ. એટલે કે આ સૂત્રમાં નિગ્રથના જે ચાર પ્રકારો કહ્યા છે, એવા જ પ્રકારા શ્રમણ નિગ્રંથિણીના પણ સમજી લેવા, " चत्तारि समणोपासगे " त्याहि શ્રમણાપાસકેાના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. શ્રમણ નિગ્રંથના જે પ્રકાર આગળ કહેવામાં આવ્યા છે, એવા જ ચાર પ્રકાર શ્રમણેાપાસકાના પણુ सभनवा. << तहेव " आप द्वारा से वात अउट वामां भावी छे ठे શ્રમણેાપાસકે પણ શ્રમણુનિત્ર થાની જેમ ચાર પ્રકારના હાય છે, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ स्थानानपत्रे " चत्तारि समणोवासिया " इत्यादि - एतदपि निन्द् बोध्यम्, अत आह- " तदेव चत्तारि गया " - तथैव - निन्यत्रे यथा चत्वारो गमाः= आलापका - भङ्गा उक्तास्तथा श्रमणोपासकासूत्रेऽपि चत्वार आलापका भणनीयाः । ॥ म्रु० २१ ॥ मूलम् — चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा अम्मापिउसमा १, भाईसमाणे २, मित्तसमाणे ३ सवतिमाणे ४, | १ | चारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा - अद्दागसमाणे १, पडागस माणे २, खाणुममाणे ३, खरकंटकसमाणे ४ । २ । ॥ सू० ० २२ ॥ छाया- - चत्वारः श्रमणोपासकः प्रज्ञताः तया - मातापितृममानः १ भ्रातृ समानः २, मित्रसमानः ३, सपत्नीसमानः ४ | भङ्गी युक्त होते है । " चत्तारि समणोवालिया " इत्यादि इस सूत्रका कथन भी निग्रेव सूत्र जैसा करलेना चाहिये निर्ग्रन्थ सूत्र से जिस प्रकार से चार आलापक कहे गये हैं उसी प्रकार से श्रमणोपासका वृत्रमें भी चार आलापक कहलेना चाहिये || मु०२ || " चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता " इत्यादि - २२ सूत्रार्थ श्रमणोपासक चार प्रकारके कहे गये हैं, जैसे कोई एक श्रमणो पासक माता-पिता के जैसा होता है -१ कोई एक श्रमणोपासक अपने भाई के समान होता है - २ कोई एक श्रमणोपासक मित्र के समान होता है -३ और कोई एक श्रमणोपासक सुपत्नी के समान होता " चत्तारि समणोवासिया " इत्याहि-श्रमपासिन (श्राविअ )ना पशु ચાર પ્રકાર કહ્યુ છે. શ્રમણુ નિગ્રંથના જેવા ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, એવા જ ચાર પ્રકાર શ્રમણેાપાન્ત્રિકાના પણુ સમજવા. નિફ્ સૂત્ર જેવું જ કથન શ્રમ@ાપાસિકા સૂત્રમાં પણ બ્રહ્મણ થવું જોઈએ, ૫ સ્ ૨૧ ૫ "चत्तारि समणोवासना पण्णत्ता " छत्याहि સૂત્રાર્થ –શ્રમણેાપાસકાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પડે છે-(૧) કાઇ શ્રમણેાપાસક માતાપિતા સમાન હોય છે. (૨) કેાઈ શ્રમણેાપાસક ભાઇ જેવા હાય છે (૩) કાઇ શ્રમણેાપાસક મિત્ર જેવા હોય છે (૪) કોઈ શ્રમણેાપાસક સપત્નીના જેવા હોય છે—એટલે કે શાકયસમાન હાય છે. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४३०३ सू० २२ श्रमणोपासकस्वरूपनिरूपणम् चत्वारः श्रमणोपासकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आदर्शसमानः १, पताकासमानः २, स्थाणुसमानः ३, खरकण्टकसमानः ।। टीका-" चत्तारि समणोवासगः" इत्यादि-श्रमणोपासकाः-श्रमणानुपासत इति श्रमणोपासकाः साधुसेवाकारकाः श्रावका इत्यर्थः, चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मातापितृसमानः-माता च पिता चेति मातापितरौ तयोस्ताभ्यां वा समान स्तथा मातापितरौ यथा स्वपुत्रे निहेतुकमत्यन्तं वात्सल्यं कुरुतस्तथा यः श्रावकः साधुपु कारणं विनैवैकान्तेन वात्सल्यं करोति स मातापितृतुल्यो भवति, अपूर्वधर्मानुरागरजितहृदयत्वात् १, तथा भ्रातृममानः भ्राता यथा प्रत्येकहै-४ पुनश्च-श्रमणोपासक चार कहे गये हैं, जैसे कोई एक श्रमणो. पासक आदशके समान होता है-१ कोई एक श्रमणोपालक पताका के समान होता है २, कोई एक श्रमणोपासक स्थाणु के समान होता है-३ कोई एक श्रमणोपासक खरकण्टकके समान होता है-४ । टीकार्थ-श्रमणोंकी जो उपासना करते हैं वे श्रमणोपासक हैं, अर्थात्साधुजनोंकी सेवा करनेवाला श्रावक श्रमणोपालक हैं। इनमें जो चतुर्विधता है उसका तात्पर्य है कि जैसे मातापिता अपने पुत्रों पर अत्यन्त वात्सल्य रखते हैं उसी प्रकार जो श्रावक साधुओं पर विना कारणही एकान्त रूपले वात्सल्य रखते हैं, वे श्रावक मातापिताके समान कहे गये हैं। क्योंकि इनका हृद्य अपूर्व धर्मानुरागसे रञ्जित શ્રમણોપાસકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે–(૧) કેઈ શ્રમણે પાસક આદર્શ (દર્પણ) સમાન હોય છે. (૨) કેઈ શ્રમણોપાસક પતાકા समान डाय छे. (3) मे श्रमपास स्थाणु (वृक्षतुं हुहु-थ ) સમાન હોય છે (૪) કોઈ એક શ્રમણોપાસક ખરકંટક (બાવળના કાંટા) સમાન હોય છે. ટીકાઈ-હવે આ સૂત્રને સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–શ્રમની ઉપાસના કરનારને શ્રમપાસક (શ્રાવક) કહે છે એટલે કે સાધુજનની સેવા કરનાર શ્રાવકને શ્રમણોપાસક કહે છે હવે તેના ચાર પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે જેમ માતાપિતા પિતાના સંતાનો પ્રત્યે અસીમ વાત્સલ્ય રાખે છે, એજ પ્રમાણે સાધુઓ પ્રત્યે કઈ પણ પ્રકારની સ્પૃહા વિના અપાર વાત્સલ્ય રાખનાર શ્રાવકને માતાપિતા સમાન કહ્યો છે, કારણ કે તેનું હૃદય અપૂર્વ ધર્માનુરાગથી રંજિત હોય છે. (૨) જેમ ભાઈ પ્રત્યેક કાર્યમાં સહાયક થાય स-१२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bo स्थानानसूत्रे कार्ये सहायको भवति तथा साधूनां प्रत्येक धर्मकार्ये यः श्रावकः सहायको भवति सभ्रातृसमानः- बन्धुसदृश इत्यर्थः भ्रातृभि धर्मकार्यविषये स्मरणादिकं कर्तव्यम् उक्तं च " भवगिमज्ज्ञम्मि पमायजलणजलिअम्मि | उद्धव जो अंत सो तस्स जणे परमबंधू ||१|| छाया - " भवगृहमध्ये प्रमादज्वलनज्वलिते । उत्थापयति यः स्वपन्तं स तस्य जनः परमबन्धुः |१| " इति |२| तथा - मित्रसमानः- मित्रतुल्यः- मित्र यथा - सदा हितचिन्तकं भवति तथा यः श्रावकः साधूनां सदा हितचिन्तको भवति स मित्रसमानः । उक्तञ्च - " केन रत्नमिदं सृष्टं मित्रमित्यक्षद्वयम् । आपदां च परित्राणं, संसारमलनाशनम् | १|| " इति । तथा - सपत्नीसमानः- सपत्नी - एकस्वामिका स्त्री तत्समानः सपत्नी यथा सपत्न्या दूषणं गवेपयति अपकरोति च तथा यः श्राकः साधुषु दोषमन्वेपयति अपकरोति च स सपत्नीसमानो भवति || || २ || होता है - १ तथा जिस प्रकार से भ्राता प्रत्येक कार्यमें सहायक होता है उसी प्रकार से जो साधुजनों के प्रत्येक धर्मकार्यमें सहायक होते हैं, वे च भ्राता के समान कहे गये हैं- २ परम बन्धुके विषयमें ऐसा कहा गया है " भवगिह मज्झमि " - इत्यादि तथा जिस प्रकार से हितचिन्तक मित्र होता है उसी प्रकारसे जो सदा साधुजनोंका हितचिन्तक होता है वे प्रावक मित्रके समान कहे गये हैं । कहा भी है- " केन रत्नमिदं सृष्टं " इत्यादि । तथा जिस प्रकार से सपत्नी (सोत) सपत्नीके दूपणों की ओर निगाह रखती है उनकी खोज में रहती है उसका अपकार करती है, उसी प्रकारसे जो श्रावक છે, એજ પ્રમાણે પ્રત્યેક ધમ કાર્ય માં સાધુજનાને સહાયભૂત થનાર શ્રાવકને ભ્રાતા સમાન કહ્યો છે. ઉત્તમ ભ્રાતા વિષે મા પ્રમાણે કહ્યું છે— " भवगिह मज्झमि " त्याहि જેમ મિત્ર પેાતાના મિત્રનેા હિતચિન્તક હાય છે, એજ પ્રમાણે જે શ્રાવક સાધુજનાના હિતચિન્તક હાય છે, તેને મિત્ર સમાન શ્રમણેાપાસક उद्योछेउछे - " केन रत्नमिदं सृष्टं " त्याहि. જેમ સપત્ની મીજી સપત્નીનાં (શાકચના) દૂષણા જ થયા કરે છે, અને તેના અપકાર જ કરે છે, એજ પ્રમાણે જે શ્રાવક સાધુજનાના દીધે જ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३ सु०२२ श्रमणोपासकस्वरूपनिरूपणम् ९६ ' पुनः " चत्तारि समणोवासगा " इत्यादि - चत्वारः श्रमणोपासकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - आदर्शसमानः- आदर्शों-दर्पण: तेन समानस्तथा = यथा-दर्पणः स्वसनिहितानर्थान् प्रतिविम्वितान् यथावत् प्रतिपद्यते, तथा यः श्रावकः साधुभिरुपदिश्यमानान् उत्सर्गापवादादीन् भावान् प्रतिपद्यते - स्वीकरोति स आदर्श समानः १ | तथा - पताकासमानः - पताका यथा विचित्रपवनेन सर्वतश्चात्यते तथा यस्य श्रावकस्यावस्थितबोध विचित्रदेशनया चाल्यते स पताकासमानः २। तथास्थाणुसमानः- तिष्ठतीति स्थाणुः - शङ्कुः, तत्समानः- स्थाणुर्यथा न नम्रीक्रियते नापि चाल्यते तथा यः श्रावकः सुगुरुदेशनया कुतश्चिदपि कदाग्रहान्न नम्री क्रियते साधुजनोंके दोषोंकाही अन्वेषण किया करते हैं उनकी बुराई या अपकार करते हैं वे श्रावक सपत्नी समान कहे गये हैं । पुनश्च - आदर्श नाम दर्पण (ऐनक) जैसे अपने समीपवर्ती पदार्थों के प्रतिferent धारण करता है उसी प्रकार साधुजन द्वारा उपदिष्ट या उपदिश्यमान उत्सर्ग और अपवादरूप भावोंको जो श्रावक यथावत् स्वीकार करता है वह आदर्शका समान कहा गया है - १ तथा पत्ताका जिस प्रकार विचित्र पवन द्वारा सब ओर से चञ्चल करदी जाती है वैसे जिन श्रावकका अनवस्थित बोध विलक्षण देशनासे नयमिश्रित कथन से चलायमान किया जा सके वह श्रावक पताका के समान कहा गया है - २ जैसे स्थाणु न कभी चलायमान किया जाता है और न कभी नमाया जा सकता है वैसे तो श्रावक सुगुरुकी देशनासे भी શેાધ્યા કરે છે, તેમનુ અહિત જ કરે છે અથવા તેમના ઉપકાર કરે છે, એવા શ્રાવકને સપત્ની સમાન કહ્યો છે. શ્રમણેાપાસકેાના આદશ સમાન આદિ ચાર પ્રકારાનું હવે સ્પષ્ટીકરણુ કરવામાં આવે છે—(૧) આદશ એટલે દશ જેમ દર્પણુ પેાતાની સામેની વસ્તુએના યથા પ્રતિબિંબને ધારણ કરે છે, એજ પ્રમાણે સાધુજના દ્વારા ઉપષ્ટિ અથવા ઉપદિશ્ય માન, ઉત્સર્ગ અને અપવાદ રૂપ ભાવના જે શ્રાવક યથા રૂપે સ્વીકાર કરે છે તે શ્રાવકને આદશ સમાન કહે છે. (૨) જેમ પતાકા પવન દ્વારા ચલાયમાન થાય છે—સ્થિરતા છેાડીને ચ'ચલતા સપન્ન અને છે, એજ પ્રમાણે જે શ્રાવકના અનવસ્થિત મેધને વિલક્ષણ દેશના દ્વારા નયમિશ્રિત કથન દ્વારા ચલાયમાન કરી શકાય છે તે શ્રાવકને પતાકા સમાન કહ્યો છે. (૩) જેમ સ્થાણુને (વૃક્ષના ઠૂંઠાને) કદી ચલાયમાન કરી શકાતું નથી કે નમાવી શકાતું નથી, એજ પ્રમાણે જે શ્રાવક સુગુરુની દેશના સાંભળવા Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे नापि च चाल्यते दुर्योधत्वात् स रथाणुसमानः ३ तथा-खरकण्टकसमानःखराः-तीक्ष्णाः कण्टका यम्मिन् तत् खरकण्टकं बवुरक्षशावादि तस्य क्वचिद वस्त्रे वा लग्नं सन्न केवलमहं वा पटं सहसा मुञ्चति, अपि तु तन्मोचकपुरुपादिकं करादिषु कण्टकैविध्यति, यद्वा खरकण्टयति-लेपवन्तं करोतीति खरकण्टं तदेव खरकण्टकम्-अशुच्यादिवस्तु. तेन समानः खरकण्टकसमानः, यथा खरकण्टकं संसगेमात्रादेवापनयनकारकं दोपयुक्तं करोति, तथा यः पावकः संसर्गमात्रात् साधु 'कुवोधकुशीलतादिजनकत्वेनोत्सूत्रप्ररूपकोऽय' मित्याद्यसदोपप्रकटनया दोपवन्तं करोति स खरकण्टकसमानः । ४ । सू० २२ । अपने कदाग्रह अनुचित हठसे पीछे नहीं हटता-टलता है नम्रीभूत नही होता है ऐसा बह दुर्वाध्य श्रावक स्थाणु-टूठा वृक्षके समान है-३ जैसे तीक्ष्ण काटोंसे भरपूर बबूल आदिका डाल यदि किसी __ अङ्गमें यो कपडोंमें उलझ जाय तो वह सहसा अलग नहीं होती किन्तु उसे छुडानी पडती है ऐसी स्थितिमें वह छुडानेवालोंके हाथको भी वेधती है ऐसे पदार्थों का नाम खरकण्टक है, जो श्राश्क इसके समानताको धारण करे वह स्वरकण्टक समान है, जैसे स्वरकण्टक वस्तु संसर्ग मात्र दोषयुक्त बना देती है वैसे जो श्रावक अपने संसर्ग मात्रालेही उस साधुके असदोषोंकी उद्भावना करता हुवा “ यह છતાં પણ પિતાને કદાગ્રહ છેડતે નથી–પિતાની અનુચિત વાતને જ પકડી રાખે છે–સહેજ પણ ડૂણે (નમીભૂત) થતો નથી એવા શ્રાવકને સ્થાણુ સમાન કહે છે. (૪) ખરકંટક સમાન શ્રમણોપાસકને ભાવાર્થ--તીહણ કાંટાઓથી ભરપૂર બાવળ આદિની ડાળી કઈ અંગમાં કે કપડામાં ભરાઈ જાય છે તે સરળતાથી અલગ થતી નથી, પણ પ્રયત્નપૂર્વક તેને અલગ કરવી પડે છે અને એ વખતે અલગ કરવાનો પ્રયત્ન કરનારના હાથમાં પણ તે તીક્ષણ કાંટા વાગી જાય છે, આ પ્રકારના પદાર્થોને ખરકંટક કહે છે જે શ્રાવકને સ્વભાવ આ ખરકંટકના જેવું હોય છે તેને ખર સમાન કહે છે જેમ ખરકંટકને સ્પર્શ માત્ર જ દેષયુક્ત અથવા વ્યથાજનક થઈ પડે છે એજ પ્રમાણે ખરગટક સમાન શ્રાવક પિતાના સંસર્ગ માત્રથી સાધુમાં અસદોષની (જે દેપનું અસ્તિત્વ જ ન હોય એવા દેની) ઉદ્દભાવના કરે છે. આ સાધુ કુબોધ, કુશીલતા આદિને જનક હોવાથી ઉસૂત્ર પ્રરૂપક છે” ઈત્યાદિ રૂપે સાધુમાં ખેટા દેનું આપણું કરનાર હોય છે અને કંટકની જેમ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४ उ०३ सू०२३ महावीरस्वामिश्रमणोपासकानां सौधर्मकल्प. ९३ श्रमणोपासकमसङ्गान्ड्रोमहावीरस्वामिनः श्रमणोपासकानामरुणाभविमान स्थिति निरूपयितुमाह मूलम् --तमणस्त णं भगवओ महावीरस्स समणोवालगाणं सोहम्मकप्पे अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णता ॥ सू० २३ ॥ छाया-श्रमणस्य खलु मगवतो महावीरस्य श्रमणोपासकानां सौधर्मकल्पे अरुणाभे विमाने चत्वारि पत्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । सु० २३ ॥ टीका-" समणस्स णं " इत्यादि-स्पष्टम् , नवरं-श्रमणोपासकानां दशानाम् आनन्द १ कामदेव २ गाथापतिचुलनीपित ३ सुरादेव ४ क्षुद्रशतक ५ गाथापति-कुण्डकौलिक ६ सद्दालपुत्र ७ महाशतक ८ नन्दिनीपितृ ९ शालेयिकापितृणा. १० मुपासकदशागोक्तानामिति ॥ सू० २३ ॥ कुरोध-कुशीलता आदिका जनकहोनेसे उत्सूत्र प्ररूपक है " इत्यादि रूपसे साधुको दोषवाला कर देता है वह खरकण्टक समानहै ॥सू०२२॥ अघ सूत्रकार श्रमणोपासकके प्रसङ्गसेही श्री महावीरस्वामीके श्रमणोपासकोंकी विमानमें वर्तमानस्थितिका कथन करते हैं " सम्मणस भगवओ" इत्यादि २३ श्रमण भगवान महावीरके श्रमणोपासकोंको सौधर्म कल्पमें अरुणाभ विमानमें चार पल्योपनकी स्थिति कही गई है। भगवान् महावीरके १० श्रमणोपासक थे. आनन्द-१ कामदेव-२ गाधापति चुलनो पिता-३ सुरादेव-४ क्षुद्रशतक-५ गाथापति कुण्डकोलिक-६ सद्दालपुत्र-७ महाशनक-८ नन्दिनी पिता-९ और शालेयिका पिता१० ये इनके नाम उपासकशाङ्गमें कहे गये है ।। सू०२३॥ તેમના હદયમાં વ્યથા ઉત્પન્ન કરનાર હોય છે તે કારણે એવા શ્રાવકને ખર કટક સમાન કહ્યો છે. સૂ. ૨૨ શ્રમણોપાસકોના કથનને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર વિમાનિક દેવપર્યાયને પામેલા મહાવીર પ્રભુના શ્રમણોપાસકેની ત્યાંની આયુસ્થિતિની પ્રરૂપણું કરે છે "समणास णं भगवओत्यादि सू. २३ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના જે શ્રમણે પાસકે સૌધર્મ કહપના અરુણાભ વિમાનમાં દેવપર્યાયે ઉત્પન્ન થયા છે તેમની ત્યાંની સ્થિતિ ચાર પાયમની કહી છે આ પ્રકારના મહાવીર પ્રભુના ૧૦ શ્રમણે પાસના નામ આ પ્રમાણે तi-(१) मानद, (२) भव (3) आापति युदनी 1ि , (४) सु२१. हेव, (५) क्षुद्रशत, (6) थापति जीशि, (७) सदर पुत्र, (८) महाશનક, (૯) નક્તિની પિતા (૧૦) શાલેયિકા પિતા, આ નામ ઉપાસક દશ ગમાં આપ્યા છે. સૂ ૨૩ | Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- :: गांव बन्ने देव देवलोपन होना नागी च णं संचापड हामाग. . : गोरखा देवे देवलोपन दिने काम गरि असावयाग ने मामा यो पमिणा जी अबंधन को णिया विका पगा. अतणाव देव देवलांग: किमि गटिए अम्लोव नसri को दिन एमे लंकने भवइ २५ पला दियमुकामभोगेसु मुनिता मान एवं भयर इनित ग गा, कागमःराउया मा गुमला कालपण i: :: : :. .: :::: ..:": पनि कामनामा मुभिद्रा नाम माणसा गंध , ए गं जाय नमा ME , घहि दाग नाम लोग माग. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ सुधाटीका स्था० ४ उ०३ सू० २४ मनुष्यलोके देवानामनागमनकारणम् जाव अणज्झोववन्ने तस्स णं एवं भवइ -- अस्थि खलु मम माणुear भवे आरिएइ वा उवज्झाएइ वा पवत्तीइ वा थेरेइ वा गणीइ वा गणधरेइ वा गणावच्छेएइ वा, जेसिं पभावेणं मए इमा यावा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुई लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, तं गच्छामि णं ते भगवते वदामि जाव पज्जुवासामि १ । अणोववणे देवे देवलोएसु जाव अणज्झोवत्रपणे, तस्स णमेवं भवइ - एस णं माणुस्सए भवे णाणीति वा तवस्तीति वा अइदुकर दुक्करकारए, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि जाव पज्जुवासासि २, अणोवणे देवे देवलोपसु जाव अणज्झोववण्णे, तस्स णमेव भवइ - अस्थि णं मम माणुस्सए भवे मायाइ वा जात्र सुहाइ वा तं गच्छामि णं तेसिमंतिअं पाउब्भवामि, पासंतु ता मे इममेयारूवं दिव्वं देविद्धिं दिव्वं देवजुइ लंड पत्त अभिसमन्नागयं ३, अणोववण्णे देवे देवलोएसु जाव अणज्झोववण्णे, तस्स णमेवं भवइ -- अस्थि णं मम माणुस्सए भवे मित्तेइ वा सहीइ वा सुहीइ वा सहाएइ वा संगइएइ वा, तेसिं चणं अम्हे अन्नमन्नस्स संगारे पडिए भवइ, जो मे पुठिंव चयइ से संबोहेयव्वे, इच्चेएहिं जाव संचाएइ हव्वमागच्छित्तए ४| || सू० २४ ॥ छाया - चतुर्भिः स्थानैः अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं हव्यमागन्तुं नो चैव खलु शक्नोति हव्यमागन्तुम्, तद्यथा - अधुनोपपन्नो देवो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ स्थानानसूत्रे देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूच्छितो गृद्धो ग्रथितोऽभ्युपपन्नः, स खलु मानुari कामभोगं नो आहियते नो परिजानाति नो अर्थ बध्नाति नो निदान प्रकरोति नो स्थितिप्रकल्प प्रकरोति १ अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूच्छितो गृद्धो ग्रथितोsयुपपन्नः, तस्य खलु मानुष्यकं प्रेप व्युच्छिन्नं दिव्य प्रेम संक्रान्तं भवति । २ । देवोंके अनागमनका कारण " चउहि ठाणेहिं अहूणोववन्ने देवे " इत्यादि २४ सूत्रार्थ - किसी एक देवलोक में उत्पन्न हुवा देव मनुष्यलोक में शीघ्र आने की इच्छा तो करता है पर इन चार कारणों से शीघ्र यहां आ नहीं सकता है । देवलोक में उत्पन्न होते ही वहांके कामभोगों में सृच्छित -गृहग्रथित - अध्युपपन्न हो जाता है, अतः - मनुष्य सम्बन्धी कामभोगोंको वह आदर दृष्टिसे नहीं देखता है, ये मेरे काम के हैं ऐता उन्हें नहीं मानता है इनसे मेरा प्रयोजन सिद्ध होगा ऐसी बुद्धि उन्मे नहीं करता है, ये पुनः मुझे मिलें ऐसी भावना नहीं करता है और उनसे स्थितिका चिकल्पही करता है । यह प्रथम कारण है- १ दूसरा कारण - देवलोक में उत्पन्न नया देव दिव्य कामभोगोमें मृच्छत-गृद्ध - अध्युपपन्न होकर ऐसा हो जाता है कि उसको भीत रसे मनुष्य सम्बन्धी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है और दिव्य प्रेम उसमें संक्रान्त हो जाता है -२ -देवाना नागभननां रथेोच ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे " त्याहि-- (सू. २४ ) સૂત્ર –કાઈ એક દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થયેલા દેવ તુરત જ મનુષ્યલેાકમાં આવવાની ઈચ્છા તા કરે છે, પશુ આ ચાર કારણેાને લીધે તુરત જ અહીં આવી શકતા નથી–(૧) દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થતાંની સાથે જ તે ત્યાંના કામભેાગામાં મૂર્ચ્છિત, ગૃદ્ધ, ગ્રથિત અને અધ્યુપપન્ન થઈ જાય છે તે કારણે મનુષ્યભવના કામભાગેાને તે આદરની દૃષ્ટિએ જોતા નથી, તે માટે કામના છે એવુ' માનતા નથી, તે કામભેગેા દ્વારા પેાતાનું પ્રયેાજન સિદ્ધ થશે એવું તે માનતે નથી, તે ફરી પેાતાને પ્રાપ્ત થાય એવી ભાવના સેવતેા નથી અને હું તે કામ ભાગેાના ઉપલેાક્તા જ બની રહું, એવા સ્થિતિ વિકલ્પ પણ તે ઇચ્છતા નથી. આ પહેલુ' કારણ છે બીજું કારણ—દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નવે દેવ દિવ્ય કામલેગામાં એવા તે મનુષ્યભવ પ્રત્યેના પ્રેમ ન્યુચ્છિન્ન (નષ્ટ) થઇ જાય છે, અને દેવ લાક પ્રત્યેના પ્રેમ સ'ક્રાન્ત થઇ જાય છે. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४७०३ सू०२४ मनुष्यलोके देवानामनागमनकारणम् ९७ अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूच्छितो गृद्धो ग्रथितोऽ. ध्युपपन्नः, तस्य ग्वलु एवं भाति-इदानी गमिष्यामि मुहूर्तेन गमिष्यामि, तेन कालेन अल्पायुषो मनुष्याः कालधर्मेण संयुक्ता भवन्ति ३, अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूच्छितो गृद्धो ग्रथितोऽध्युपपन्नः, तस्य खलु मानुष्यको गन्धः प्रतिकूल प्रतिलोमथापि भवति, अर्वमपि च खलु मानुष्यको गन्धो यावत् चत्वारि पञ्चयोजनशतानि हव्ययागच्छति । इत्येतेश्चतुर्मि स्थानः अधुनोपपन्नो देवी देवलोकेषु इच्छेद् मानुपं लोकं हव्यमागन्तुं नो चैत्र खलु शक्नोति हव्यमागन्तुम् । तृतीय कारण-ऐसा है कि देवलोको नया-१ उत्पन्नदेव कामभोगों में मूच्छित-गृह-प्रथित अध्युपपन्न " अब जातो हूं थोडी देर याद जाऊंगा' आदि विचारता जब तक आना चाहता है उसके अन्दर-२ यहां जो उनके माता-पिता आदि परिवार होते हैं वे तय तक कालधर्म संयुक्त हो जाते हैं अतः फिर वह नहीं आता है-३ ____ चौथा कारण-कि वह देवलोकमें अधुनोपपन्नदेव वहां के दिव्य काम भोगों में जब तल्लीन हो जाता है तब उसे मनुष्यगन्ध प्रतिकूल बिलकुल अमनोज्ञ जान पडती है वह गन्ध मनुष्य लोकसे ऊपर ४-५ सौ युगलियों को अपेक्षा ४०० चारनौ कर्मभूमि की अपेक्षा पांचसो योजन तक ऊंची पहुंचती है जो उन्हें रुचती नहीं इससे देव यहाँ आते नहीं-४ ત્રીજુ કારણ–દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયેલે ન દેવ કામગોમાં એ તે આસકત, વૃદ્ધ, ગ્રથિત અને અદ્ભુપપન થઈ જાય છે કે “હમણાં જ મનુષ્યલોકમાં જઉ છું–થે ડી વાર આ કામગ ભેગવીને મનુષ્યલોકમાં જઈશ” આ પ્રકારને વિચાર કરતાં કરતાં એટલે લાંબો સમય પસાર થઈ જાય છે કે ત્યાં સુધીમાં તેના માતા, પિતા આદિ સગાંસંબંધીઓ કાળધર્મ પામી જાય છે અને તેમને કાળધર્મ પામેલા જાણીને તે દેવ મનુષ્યલોકમાં આવવાને વિચાર જ માંડી વાળે છે ચોથ કારણ–દેવકમાં ઉત્પન્ન થયેલે ન દેવ જ્યારે ત્યાંના કામભોગમાં લીન થઈ જાય છે, ત્યારે તેને મનુષ્યગંધ પ્રતિકૂળ–અમનોજ્ઞ લાગે છે. તે ગંધ મનુષ્યલકની ઉપર ૪૦૦-૫૦૦ એજન સુધી ફેલાયેલી હોય છે તે ગંધ નહી ચવાને કારણે તે અહીં આવતા નથી. स०-१३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ___चतुर्भिः स्थानरधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु इच्छेन् मानुपं लोकं हव्यमागन्तुं शक्नोति हव्यमागन्तुम् , तद्यथा-अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेपु अमूच्छितो यावत् अनध्युपपन्नः, तस्य खलु एवं भवति-अस्ति खलु मम मानुष्य के भवे आचार्य इति वा उपाध्याय इति वा प्रवर्ती इति वा स्थविर इति वागणी इति वा गणधर इति वा गणावच्छेदक इति वा, येषां प्रभावेण मया इमा एतद्रपा दिव्या देवद्धिः दिव्या देवद्युतिः लब्धा प्राप्ता अभिप्समन्वागता, तत् गच्छामि खलु तान् भगवतः वन्दे यावत् पर्युपासे १। ___ अधुनोपपन्नो देवो देवो देवलोकेषु यावत् अध्युपपन्नः, तस्य खल्ल एवं भवतिएप खलु मानुष्यके भवे ज्ञानीति वा तपस्वीति वा अतिदुष्करदुष्करकारका तद्गच्छामि खलु तान् भगवतो वन्दे यावत् पर्युपासे २। ___अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु यावत् अनध्युपपन्नः, तस्य खल्वेवं भवतिअस्ति खलु मम मानुष्य के भवे मातेति वा यावत् स्नुषेति वा, तद्गच्छामि खलु पापन्तिकं प्रादुर्भवामि पश्यन्तु तावत् में इमामेतद्रूषां दिव्यां देवद्धि दिव्यां देवद्युति लब्धां प्राप्तामभिसमन्वागताम् ।३ ___अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु यावत् अनध्युपपन्नः तस्य खलु एवं भवति अस्ति खलु मम मानुष्यके भवे मित्रमिति वा सखेति वा सुहृदिति वा सहाय इति वा सागतिक इति वा, तेषां च ग्वलु अस्माभिः अन्योन्यं सङ्केतः प्रतिश्रुतो भवति-योऽस्माकं पूर्व च्याते स सम्बोधयितव्यः । इत्येतैः यावत् शक्नोति हव्य मागन्तुम् ।। ० २४ ॥ टीका-' चउहि ठाणेहि' इत्यादि चतुर्भिः वक्ष्यमाणैः स्थानः कारणैः अधुनोपपन्न:-अचिरोत्पन्नः-तत्कालोत्पन्न इत्यर्थः, देवो देवलोकेषु मानुपं मनुष्यसम्बन्धिनं लोक-मर्त्यलोक 'हव्य' मिति दैनिशब्दोऽयं शोधार्थकः, तेन शीघ्रमित्यर्थ, आगन्तुम् , इच्छेत् , नोनैव च-पुनः नैव स हव्यः-शीघ्रमागन्तुं शक्नोति, कुनो नाऽऽगन्तुं शक्नोतीत्याह" तद्यथा"-अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेपु दिव्येषु-मनोज्ञेषु कामभोगेषु-काम्यन्त इति कामाः-कमनीयास्ते च भोगाः-भुज्यन्ते-इन्द्रियैः सेव्यन्त इति भोगाः इस सूत्र में आये हुवे अधुनोपपन्नक आदि पदोंका स्पष्टीकरण तत्काल उत्पन्न को अधुनोपपन्न कहा गया है हव शब्द शीघ्रार्थक है चाइनाका विषयभूत जो हो वह काम है कामही भोग है। क्योंकि | ભાવાર્થ—તત્કાલ ઉત્પન્ન થયેલા દેવને અધુપપન્નક દેવ કહે છે. " हव्व" मा ५६ शोधार्थ छे. यानाने विषयभूत परतुने म. ४९ छे અને એ કામ જ ભેગરૂપ છે કારણ કે તેમને ઈન્દ્રિયો દ્વારા ગવાય છે Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२४ मनुष्यलोके देवानामनागमनकारणम ९९ शब्दादयश्चेति कामभोगाः, यद्वा-काम्येते इति कामौ शब्दरूपलक्षणौ च भोगा:गन्धरसस्पर्शाश्चेति कामभोगाः, यहा-कामानां-कमनीयानां शब्दादीनां भोगा! सेवनानि, तेषु सृच्छितः-कामभोगानां विनश्वरत्वादि ज्ञातुसशक्यतया मोहं गतः, गृद्धः कामभोगेच्छासमनितो घृतसिक्तवहिरिवाऽतृप्तः, ग्रथिता कायमोगानुरागरज्जुबद्धः, अव्युपपन्नः-अत्यन्तं विषयपरिभोगाधीनो भवति अत एव स-देवः खलु मानुष्यकान्-मनुष्यलोकभवान् कामभोगान् नो आद्रियते आदरं न करोति, यह इन्द्रियों द्वारा भोगा जाता है अथवा-जिनमें चाहना जाती है ऐसे शब्दरूप काम हैं तथा गन्ध रस और स्पर्श ये भोग है। अथवा कामका अर्थ कमनीय है, ऐसे कमनीय शब्दादिकोंका जो भोग है बह सेवन करना है वह कामभोग है । देव कामभोगोंकी बिनश्वरता जाननेमें असमर्थ होता है, अत:-वे उनका कामभोगोंमें सूच्छितमोहंगत हो जाते हैं। कामभोगकी इच्छाले समन्वित हुवा देव धृतसिक्त अग्नि जैसे गृद्ध-अतृप्त बन जाता है । ग्रथित कालभोगानुराग रूपी रसलीले यह जकड जाता है, और इस तरह वह अन्तमें अध्यु. पपन्नक अत्यन्त विषयभोगका सर्वथा अधीन बन जाता है । तात्पर्यकि देवलोकों से किसी एक देवलोकमें अधुनोपपन्नक देव वहां के कामभोगोंको इतना अधिक आनन्ददायक मानने लगता है जिससे फिर वह मनुष्यलोक सम्बन्धी कामलोगोंको बिलकुल असार मानने लगता है और इस तरहसे वह उनको आदर दृष्टिसे नहीं देखता है कारणकि અથવા જેની ચાહના થાય છે એવા શબ્દ રૂપ કામ હોય છે અને ગંધ, રસ અને સ્પર્શ, એ ભેગરૂપ છે અથવા કામને અર્થ કમનીય પણ થાય છે એવાં કમનીય શબ્દાદિકનો જે ભોગ છે તેને કામગ કહે છે દેવે કામગેની વિનશ્વરતા (અનિયતા) જાણવાને અસમર્થ હોય છે, તેથી તેઓ તે કામોમાં મૂર્ણિત (આસકત) થઈ જાય છે કામગની ઈરછાથી ચુકત થયેલે દેવ ઘતાસિકત અગ્નિ સમાન ગૃદ્ધ (અતૃપ્ત, લલુપ) બની જાય છે. કામગરૂપી દોરડા વડે જકડાવાને કારણે તે તેમાં ગ્રથિત થઈ જાય છે અને “અધ્યાપન્ન વિષય ભેગને સર્વથા ખાધીન બની જાય છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કોઈ એક દેવલોકમાં ઉત્પન થયેલ નવે દેવ (અધુનોપપત્રક દેવ) ત્યાંના કામોને એટલાં બધાં આનંદદાયક માનવા લાગે છે. કે મનુષ્યલેક સબંધી કામશે તે તેને બિલકૂલ અસાર લાગે છે, અને આ રીતે તે તેમને આદર દષ્ટિથી જોતું નથી કારણ કે તે એવું માનતો નથી Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० स्थानत्र नो परिजातानि-एते मनुष्यसम्बन्धि कामभोगा अपि मगोपभोग्यपदार्थाः सन्तीति न मन्यते, दिव्यकामभोगापेक्षया तेपां तुन्छत्वात् , तथा-मानुष्यककाममोगेषु नो अर्थ बध्नाति= अमीभिरेतत्प्रयोजन ' मित्याकारकनिश्चयं न करोति, तथातेपु नो निदानम्-' एते मे भवन्त्वि 'त्येवममिलापं नो प्रकरोति, तथा-नो स्थितिप्रकल्पम्-एपृपभोक्तृत्वेनाई-तिष्ठामि, यहा- ममैते तिष्ठन्त्वि' त्येवंरूपमवस्थानविकल्पं न प्रकरोति-न प्रारभते 'म' शब्दस्य प्रारम्भद्योतकत्वात् प्रारम्भ न करोतीत्यर्थः १। इति प्रथयकारणम् । १ ।। "अहुणोवबन्ने "-त्यादि-अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेपु मूच्छितो गृद्रो ग्रथितोऽध्युपपन्नो भवत्यत एव तस्य देवस्य हृदि खलु " ये मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भी उपभोग्य पदार्थ हैं" फिर ऐसा वह उन्हें नहीं समझता है। क्योंकि वह उन्हें दिव्यकामभोगोको अपेक्षा तुच्छ-असार मानने लगताहै " इन मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों से मेरा यह प्रयोजन सधेगा इस प्रकार का निश्चय विश्वास फिर वह उनमें नहीं बाधता है।, तथा--" मुझे ये पुनः प्राप्त हों" ऐसी उनमें अभिलापभी नहीं करता है “ मैं इसका उपभोक्ता बना रहूं" ऐसा वह स्थितिका विकल्प भी नहीं करता है। अथवा." ये मेरे पास घने रहें " ऐसा अवस्थान रहने का विकल्प तकभी उसे नहीं उठता है, यहाँ "प्र" शब्द आरम्भका द्योतक है । इस प्रकारका यह प्रथम कारण है मर्त्यलोकमें स्वर्गसे नहीं आनेका-१ द्वितीय कारणभी ऐसाही है परन्तु-वह देव जब पूर्वोक्त इन विशेषणोंवाला हो जाता है तब કે “મનુષ્ય સંબધી કામગે પણ ઉપગ્ય પદાર્થો છે, કારણ કે દિવ્ય કામગોની અપેક્ષાએ તે તે કામભેગો તેને બિલકુલ તુચ્છ-અસાર લાગે છે, વળી તેને એવું પણ લાગતું નથી કે “મનુષ્યભવ સબંધી કામગોથી भार प्रयास सिद्ध थरी" जी " मलागानी भने २१ प्राप्ति थाय", એવી અભિલાષા પણ તે રાખતું નથી. “હું તે કામગોનો ઉપભોકતા જ બની રહું” એ તે સ્થિતિને વિકલ્પ પણ કરતા નથી. અથવા “તે મારી પાસે જ કાયમ રહે” આ પ્રકારને અવસ્થાન (સ્થિતિ) રહેવાને વિકલ્પ પણ તેના મનમાં ઉદ્દભવતો નથી. અહી “,” શબ્દ આરંભને દ્યોતક છે. આ કારણે તે અધુને પપન્ન દેવ દેવલેકમાંથી મર્યલોકમાં આવતું નથી. અહીં પહેલા કારણ સ્પષ્ટીકરણ પુરૂં થાય છે. બીજા કરણનું સ્પષ્ટીકરણ–તે અધુને પપન દેવ જ્યારે મૂર્શિત આદિ પૂર્વોકત વિશે વણેથી યુક્ત બને છે, ત્યારે મનુષ્યભવ સંબંધી કામગ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघो टीको स्था०४ उ ३ २०२४ मनुष्यलोके देवानामनागमनकारणम् १०१ मानुष्यकं प्रेष-मनुष्यभवमम्बन्धिकामभोगानुरागः, व्युच्छिन्नं-विनष्ट, दिव्यंदेवलोकसम्बन्धि प्रेम संक्रान्त-प्रविष्टं भवति । इति द्वितीयम् । २ ॥ ___" अहुणोवदन्ने ” इत्यादि-प्राग्रत् नवरं-तस्यैवं भवति-' इहि ' इदानी गमिष्यामि-अधुना मर्त्यलोकं यास्यामि, क्रियता समयेनेत्याह-' मुहूर्तेन' गमिध्यामि, तेन-समयेन मनु'या अल्पायुषः सन्तः कालधर्मेण-मृत्युना संयुक्ताःसंयुताः मृता भवन्ति, अतो न मानुप्यलोकं समागच्छति । इति तृतीयस् ।३।। ___"अहुणोचवन्ने " इत्यादि-बाग्वत् , नवरं-मानुष्यका-मनुष्यसम्बन्धी गन्धःउनके हृदय में अनुष्यमय सम्बन्धी कामभोगानुराग नष्ट हो जाता है और देवलोक सम्बन्धी प्रेम प्रविष्ट हो जाता है । अता-वह चाहता चाहताभी नहीं आपाता है तृतीय कारण भी ऐलाही है परन्तु जब वह देव विशेषणसे युक्त हो जाता है तब वह शोचना है कि चलू जहां मेरे पूर्वभव सम्बन्धी माता-पिता आदि परिजन हैं उनसे मिल आऊं फिर शोचता है अभी चला जाऊंगा तथा ऐसी जल्दी कया पडीहै ऐसे सोचते-२ समय निकल जाता है और अन्त में यहाँ उनके पूर्व लव सम्बन्धी अल्पायुवाले परिचित मनुष्य मनुष्यलोकसे काल कर जाते हैं, अतः वह फिर मनुष्य लोकमें नहीं आता है-३ चतुर्थ कारण भी ऐलाही है परन्तु इममें पूर्वोक्त विशेषण विशिष्ट પ્રત્યેને તેને અનુરાગ ઉત્પન થઈ જાય છે તે કારણે તે મનુષ્યલોકમાં આવવાની ઈચ્છા થવા છતાં પણ આવી શકતો નથી. ત્રીજા કરણનું સ્પષ્ટીકરણ–દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નવા દેવના મનમાં એવી ઈચ્છા થાય છે કે “મરા પૂર્વભવના માતા, પિતા આદિને મળવા માટે જવું જોઈએ ? પરંતુ તેને એમ થાય છે કે થોડી જ વારમાં અહીંથી ત્યાં જવા ઉપડીશ, ડી વાર અહીંના કામોને ભોગવી લઉં, પછી મનુષ્યલેકમાં જવા માટે ઉપડીશ. ઉતાવળ કરવાની શી જરૂર છે ” આ પ્રમાણે વિચાર કરતાં કરતાં એટલે બધેકાળ વ્યતીત થઈ જાય છે કે મનુષ્યલકમાં રહેલા તેના પૂર્વભવના માતા, પિતા આદિ પરિચિત વ્યકિતઓ તે અલ્પાયુષી હોવાને કારણે મનુષ્યભવ સંબંધી આયુષ્ય પૂરું થઈ જવાથી કોઈ અન્ય ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયેલ હોય છે. આ વાત જાણીને તે મનુષ્યલોકમાં આવવાને વિચાર માંડી વાળે છે. ચોથા કારણનું સ્પષ્ટીકરણ–પૂર્વોક્ત મૂતિ આદિ વિશેષણવાળે તે Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ स्थानाङ्गसूत्रे प्रसिद्धः ' प्रतिकूल प्रतिलोमः । इत्युभी समानार्थी, तदर्थश्च-इन्द्रियमनसोरना. लादकत्वाद् दिव्यगन्धमपेक्ष्य विपरीतगृत्तिः, समानार्थयोयोरुपादानं मातुप्यक गन्धेऽतिशयितनिकृष्टता सूचनार्थम् , तेन मानण्यकगन्धो दिव्यगन्धापेक्षयाऽत्य. न्तायनोज्ञः, अत एत्र प्रतिकूलः 'च अपि ' इति समुच्चने, भवति, स च "उड पि य" इल्लादि-ऊर्ध्वमपि अदेशमवि मानुष्य को गन्धः चत्वारीति - कदाचिद् भरतादिष्वे कान्तमुपमादी चत्यारि योजनशतानि, पञ्चेति-कान्नसुषमातिरिक्त तु पञ्चयोजनशतानि यावत् - अभिव्याप्य हव्यमागछति-मनुष्यक्षेत्रमागन्तुमिच्छं देवं प्रति समुपैति, यतो मनुष्यपश्चन्द्रियतिरश्यां प्रचुरत्वेनौदारिकगरीराणां तक तन्मलानां च पुष्कलल्वेन दुर्गन्धोऽपि वर्भवतीनि चतुर्थकारणम् । ४ । ' ३च्चेएहि ' इत्यादि स्पष्टम्। वह देव मनुष्य सम्बन्धी गन्धको प्रतिकूल और प्रतिलोर सानने लगता है क्योंकि-दिव्य गन्धकी अपेक्षा मनुष्यगन्ध इन्द्रिय और मनकों आइलादकारक नहीं होती है, मनुष्यगन्ध दिव्य गन्धकी अपेक्षा अत्यन्त अमनोज्ञ होती है यही बात प्रगट करनेके लिये सूत्रकारने प्रतिकूलप्रतिलोम समानार्थक इन दोनों शब्दोका प्रयोग किया है । मनुष्य गन्ध ऊपर में भी कदाचित् चार-पांचसो योजन तक मनुष्यक्षेत्रमें आनेके लिये पर्युत्लुक देवोंकी ओर जाती है, भरतादि क्षेत्रों में जब एकान्त लुपम आदि काल होता है उसमें तो चारसी योजल तक और जब एकान्त सुषमासे अतिरिक्त काल होता है, उस समय पांचसो योजन तक यह गन्ध जाती है। क्योंकि मनुष्य क्षेत्रमें मतुप्प और पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चों की प्रचुरता होती है, अत:-उनके औदारिक शरीरोंकी और અધુને પપનક દેવ મનુષ્ય સંબંધી ગન્ધને પ્રતિકૂળ અને અમને માનવા લાગે છે, કારણ કે દિવ્યગ મનને આહ્લાદકારક લાગે છે, જ્યારે મનુષ્ય ગન્ય મનને અતિશય અમનેઝ લાગે છે એજ વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકારે પ્રતિકૂળ-પ્રતિલેમ, આ બે સમાનાર્થક શબ્દોને પ્રગટ કર્યો છે મનુષ્ય ગબ્ધ ઉપરની બાજુ ૪૦૦ થી ૫૦૮ જન સુધી જાય છેમનુષ્યલોકમાં આવવાને ઉત્સુક દેવને તે ગબ્ધ અમનેઝ લાગવાથી તે અહીં આવવાને વિચાર માંડી વાળે છે. ભરતાદિ ક્ષેત્રોમાં જયારે એકાન્ત સુષમ આદિ કાળ હોય છે ત્યારે તે ગબ્ધ ૪૦૦ જન ઊંચે જાય છે. પણ તે સિવાયના કાળમાં તે તે ગબ્ધ ૫૦૦ યે.જન ઊંચે જાય મનુષ્યક્ષેત્રમાં મનુષ્ય અને પદ્રિય જીવો ઘણાં હોય છે. તેમના ઔદારિક શરીરે અને તેમના મળની દુર્ગધ ઉપર Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२४ मनुष्यलोके देवानामागमनकारणम् १०३ अथाऽऽगमनकारणानि" चउहि " इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-' एवम् '-एतादृशं वक्ष्यमाण प्रकारक देवस्य मनो भवति, किं प्रकारकं तदाह-" अस्थिणं" इत्यादि-अस्तिविद्यते मम-मे मानुष्यके भवे आचार्यः-प्रतिवोधकमव्रज्यादायकोपस्थापकादिः उनके मलोंकी दुर्गन्धभी पुष्कल रूपसे बहुत होती है। इस प्रकारके ये चोर ऐसे कारण है जो देवोंको इस मनुष्य लोकमें आनेमें बाधक होते हैं। ____ अब सूत्रकार देवोंके आगमन का कारण कथन करते हैं-" चाहिं" इत्यादि इन कारणों में एक कारण ऐसा है कि देवलोक में अधुनोपपन्नदेव दिव्य कामलोगोंमें अमूञ्छित यावत् अनध्युपपन्न होता हुवा ऐसा विचार करता है मनुष्य भवमें जब मैं था तबके मेरे यहां आचार्य हैं उपाध्याय हैं प्रवर्ता हैं, स्थविर हैं-गणी हैं-गणधर हैं गणावच्छेदक हैं, मैंने जो ऐसी अनुपम देवद्धि देवाति लब्ध की है-प्राप्त की है अभिसमन्यागत ( उपभोग रूप (सर्वथा ) आधीन ) की हैं सो यह उन्हीं का सब प्रभाव है । अतः-उचित है कि मैं चलूं और उनको वन्दना करूं यावत् उनकी पर्युपासना करूं इस प्रकार के विचार से प्रेरित वह देव इस मनुष्य लोकमें शीघ्रही आ सकता है। इस सूत्र में कथित आचार्यादि पदोंका भाव ऐमा है जो प्रतिबोध देता है प्रव्रज्यादायक होता है उपस्थापक आदि होता है, पांच आचारोंका स्वयं पालन ૪૦૦-૫૦૦ જન સુધી ફેલાય છે. આ પ્રકારના ચાર કારણો અધુને પપન્ન દેવને મનુષ્યલોકમાં આવવામાં બાધક થઈ પડે છે. મનુષ્યલકમાં દેવોના આગમનનાં કારણેનું નિરૂપણ– " चउहि" त्याहि प २-वोसi Sपन्न थयेटी नवा દેવ દિવ્ય કામો પ્રત્યે અમૂચ્છ ભાવ આદિથી યુકત થઈને એવો વિચાર ४२ छे 3-" मनुष्यमा भा२। पूर्वमन (मनुष्य सवन) माया छ, ઉપાધ્યાય છે, પ્રવર્તી છે, સ્થવિર છે, ગણે છે, ગણધર છે, અને ગણાવછેઠક છે તેમના પ્રભાવથી જ મેં આ અનુપમ દેવદ્ધિ, દેવઘુતિ આદિ લબ્ધિ પ્રાપ્ત કરેલ છે અને અભિસમ વાગત (મારે આધીન) કરેલ છે તે એજ વાત ઉચિત ગણાય કે મારે અહીંથી મનુષ્યલોકમાં જઈને તેમને વંદણા નમસ્કાર કરવા જોઈએ અને તેમની પર્યું પાસના કરવી જોઈએ ” આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને તે દેવ તુરત જ આ મનુષ્યલોકમાં આવી શકે છે. આચાર્ય કોને કહેવાય? જેઓ પ્રતિબોધ દે છે, પ્રવ્રજ્યા અંગીકાર કરાવે છે, ઉપસ્થાપક આદિ હોય છે, જેઓ પોતે પાંચ આચારોનું પાલન Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ स्थानाङ्गसूत्रे उपाध्यायः-अध्यापका-सूत्रादिदाता, प्रवर्ती-प्रवर्तयति आचार्योपदिष्टेषु तपो वैयारत्त्यादिकार्येषु साधूनिति प्रवर्ती प्रवर्तकः । उक्तं च___" तवनियमविणयगुणनिहि पबत्तया नाणदसणचरित्ते । संगहुबग्गहकुसला पवत्ति एयारिसा हुंति ॥ १॥" छाया-'तपो नियमविनयगुणनिधयः प्रवर्तका ज्ञानदर्शनचारित्रेपु । सङ्ग्रहोपग्रहकुशलाः प्रातिन एतादृशा भवन्ति ।।१।। इति । ___स्थविरः-प्रवर्तिप्रवर्तितान संयमयोगेपु सीदतः साधून ज्ञानादिष्वैहिकाऽऽ मुमिकापायदर्शनतः स्थिरीकरोतीति तथा, गणी-गणः-कति पयसाधुसमुदायः सोऽस्त्यस्येति गणी, गणधरः-य आचार्यसदृशो गुर्वादेशात्साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति सः, तथा गणावच्छेदका गगस्य आच्छेदो विभागोऽशोऽस्यारतीति करता है और दूसरे साधुओसे इनका पालन कराता है वह-आचार्य है। शिष्यों को जो सूत्रादिका अध्ययन कराता है वह उपाध्याय है, तथा-जो आचार्योपदिष्ट तप-वैयावृत्त्य-आदि कार्योंमें साधुओंको प्रवृत्ति कराताहै वह प्रवर्ती-प्रवर्तकहै । कहाभीहै-" तच नियम विणय गुणनिहि" इत्यादि प्रवर्ती द्वारा प्रवर्तित हुबे साघु जलोंको जो कि संयम योगों में ज्ञानादिकोंमें शिथिल हो रहे हों उन्हें इहलोक-परलोकके अपा. योंका दिग्दशन कराकर स्थिर करताहै वह स्थविरहै। कितनेक साधु समुदायका नाम गण है, यह गण जिलको है वह गणी है, जो आचार्यका जैसा हो एवं शुरुके आदेश से साधुगणको लेकर पृथक् विहार करता है वह-गणधर है । जिसके गणका विभाग-अंश होता है वह गणाકરે છે અને બીજા સાધુઓ પાસે તેનું પાલન પણ કરાવે છે તેમને આચાર્ય કહે છે. શિષ્યોને સૂત્રાદિનું અધ્યયન કરાવનારને ઉપાધ્યાય કહે છે. આચાર્યોપદિષ્ટ તપ, વિયાવૃત્ય, આદિ કાર્યોમાં સાધુઓને પ્રવૃત્ત કરાવનારને प्रपती अथवा प्रत3 ४ छे ४थु ५९ छ ,-" तबनियमविणयगुणनिहि" ઈત્યાદિ. પ્રવર્તક દ્વારા તપ આદિમાં પ્રવર્તિત કરાયેલા જે સાધુ સંયમ ગોમાં અને જ્ઞાનાદિકમાં શિથિલ થઈ રહ્યા હોય તેમને આલોક-પરલોકના અપાયોનું દિગ્દર્શન કરાવીને તપાદિમાં સ્થિર કરનારને સ્થવિર કહે છે કેટલાક સાધુઓના સમુદાયનું નામ ગણુ છે તે ગણુને જે અધિપતિ હોય તેને ગણી કહે છે. જે આચાર્યના જેવો જ હોય અને ગુરુના આદેશથી સાધુ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुधा टीका स्था०४३०३सू०२४ मनुष्यलोके देवानामागमनकारणम् १०५ गणावच्छेदः, स एव गणावच्छेदकः-जिनशासनप्रभावने गणकार्यमाश्रित्योद्धावने क्वचिद्गमने क्षेत्रोपधिगवेषणामु चाविपादी सूत्रार्थज्ञायकश्च । उक्तं च " प्रभावनोद्धावनयोः क्षेत्रोपध्येषणासु च । ___ अविषादी गणावच्छेदकः मूत्रार्थविन्मतः ॥१॥" इति ॥ येषाम्-आचार्यादीनां प्रभावेण-अनुभावेन मया-देवेन इयं-साक्षादनुमूयमाना एतद्रूपा-एतद् रूपं यस्याः सा तथा एतादृशी दिव्या देवद्धिः विमानरत्नादिरूपा सुरसम्पत्तिः तथा-दिव्या देवद्युतिः-देवशरीरकान्तिः लब्धा-समुपाजिता, प्राप्ता-अधीना जाता, अभिसमन्वागता-भोग्यावस्थां प्राप्ताऽस्ति, तत्तस्मात् कारणाद् अहं गच्छामि, गत्वा च तान् भगवतो वन्दे-स्तौमि, 'यावत्'बच्छेदक है यह गणावच्छेदक जिनशासनकी प्रभावनामें गणकार्यको लेकर कहीं पर जाने में और क्षेत्र-उपधि इनकी गवेषणा करनेमे अविषादी-दुःख माननेवाला नहीं होता है, और सूत्रार्थवेत्ता होता है। कहाभी है-"प्रभावनोद्धारबनयोः" इत्यादि. विमानरत्न आदि रूप सुरसंपत्ति देवद्धि एवं देवशरीर सम्बन्धी कान्ति देवद्युति है इनका अच्छी तरहसे उपार्जन करना सो लब्ध है, उसे अपने आधीन करना सो प्राप्त है। तथा उसे अपने भोग्यमें लगाना इसका नाम-अभिसमन्वागत है, " वंदे यावत् पर्युपासे" में आगत यावत् शब्दसे नमस्यामि-सत्करोमि-सम्मानयामि-कल्याणं मङ्गलं-दैवतं-चैत्य, इन पदोंका ग्रहण हुवा है, स्तुति करना इसका ગણને સાથે લઈને વિહાર કરતે હેય તેને ગણધર કહે છે. ગણના વિભાગને ગણાયછેદક કહે છે. એવા ગણાવચ્છેદના અગ્રેસરને ગણાવછેદક કહે છે, તે ગણાવચછેદક જિનશાસનની પ્રભાવનામાં, ગણકાર્ય નિમિત્તે કોઈ પણ સ્થળે જવામાં, અને ક્ષેત્ર, ઉપધિ આદિની ગવેષણ કરવામાં અવિષાદી હોય છે–એટલે કે આ કાર્યો કરવામાં દુખ માનનાર હેતે નથી અને સૂત્રાર્થને જ્ઞાતા પણ હોય છે. કહ્યું ५५ छे -" प्रभावनोद्धावनयोः" त्यहि વિમાન, રતન આદિ રૂપ સુરસંપત્તિને દેવદ્ધિ કહે છે. દેવશરીર સંબંધી કાન્તિને દેવહુતિ કહે છે. તેને સારી રીતે ઉપાર્જિત કરવી તેનું નામ “લબ્ધ છે તેને પિતાને આધીન કરવી તેનું નામ પ્રાપ્ત છે, અને તેને પોતાના ભેગો. પગમાં લેવી તેનું નામ “અભિસમન્વાગત છે. " वंदे यावत् पर्युपाखे" मा सूत्रपामा १५शया ' यावत् । यथा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावच्छब्देन-जमस्यामि-पञ्चाानमनपूर्वक नमस्करी मि, सत्करोमि-आदरेण मम्मानयामि-अभ्युत्थानादिलक्षणया उचितपनिपन्या, कल्याणं--कल्याणस्वम्पान मारलं मङ्गलस्वरूपान्, देवनं धर्मदेवम्यरूपान, गं ज्ञानरबलपान पर्युपामे-सेवे इति प्रथममागमनकारणम् १। ____" अहणोचवण' इत्यादि-पूर्ववत् , नवम्- ध्यमाणः खलु मानुध्य के भवे, ज्ञानी-श्रुतज्ञानादिना सम्पन्नः, नपग्वी-तपश्चगामील', अतिदम्बर. दुप्रकारकः - कठिनातिकटिनमाणिग्रहतपश्चर्यादि कारसोऽस्ति, उदगन्छामि यावत् पर्युपासे । इनि द्वितीयमागमनकारणम् २० ___" अहणोचवण्णे" इत्यादि-भाग्यत् , नवरं-मम मानायके भये माता 'यावत् ' पदेन 'भायाह वा भज्जाहवा भरणीड या पगार वा धूयार वा' इति पदानि ग्रायाणि, तन्छाया-भ्रातेति वा भार्येति भगिनी नि वा पुत्र ति या दुहितेति बा, स्नुषा-पुत्रमार्या चाम्ति, तन्-तस्मान नेपां-मात्रादिपग्विागणाम् नाम वन्दना है, पञ्चाग नमनपूर्वक नमस्कार करना इसका नाम नमस्कार है । ओदर देना इसका नाम सत्कार है, अभ्युम्नादिप उचित प्रतिपत्ति(सेवा) करना इसका नाम मम्मान है, कल्याणस्वरूप होने से आचार्य आदिकोंको कल्याण, मजलस्वरूप होनेसे महल धर्मदेव स्वम्प होनेसे दैवत और ज्ञानस्वरूप होने से चैत्यस्प कहा गया है, सेवा करनेका नाम पर्युपासना है। ऐमा यह प्रथम कारण है-१ विनीयतारण भी ऐसाही है, पर इसमें ऐमा विचार करता है कि मनुष्यभवमें श्रुतज्ञानादिकसे सम्पन्न ज्ञानीजन हैं तपश्चरणजील तपस्वी जन हैं, और अति दुष्कर दुष्करकारक-कटिनातिकठिन साभिग्रह तपश्रर्यादिकारक साधुजन है, इसलिये चटं और यावत उनकी पर्युपामना करूं मा नायना सूत्रपा 2ीत थय। -" नमस्यामि, सत्करोमि, सम्मानयामि, कल्याणं, मंगलं, दैवत, चैत्यं " સ્તુતિ કરવી તેનું નામ વંદણા છે, પાંચ અંગોને નમાવીને નમવું તેનું નામ નમરકાર છે. આદર દેવે તેનું નામ સતકાર છે, અલ્પસ્થાન આદિ ઉચિત વિધિ કરવી તેનું નામ સમ્માન છે. આચાર્ય આદિ કરયાણ સવરૂપ હોવાથી, મંગળ સ્વરૂપ હોવાથી, ધર્મદેવ સ્વરૂપ હેવાથી અને જ્ઞાનસ્વરૂપ લેવાથી તેમને અનુક્રમે કલ્યાણરૂપ, મંગળરૂપ, દેવરૂપ અને ચિયરૂપ કહેવામાં આવેલ છે. સેવા કરવી તેનું નામ પJપાસના છે. આ રીતે પહેલા કારણુનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે સૂત્રકાર બીજા કારણને પ્રકટ કરે છે–દેવકમાં ઉત્પન્ન થયેલો તે નવો દેવ એવો વિચાર કરે છે કે મનુષ્યલેકમાં શ્રતજ્ઞાનાદિથી સંપન્ન જ્ઞાનીજને છે, તપશ્ચરણશીલ તપસ્વીઓ છે, દુષ્કરમાં દુષ્કર (કઠિનમાં કઠિન) અભિગ્રહ પૂર્વક તપશ્ચર્યાદિ કરનારા સાધુઓ છે તે મારે ત્યાં જઈને તેમને વરણુ, નમસ્કાર આદિ કરવા જોઈએ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ ०३ सू०२४ मनुष्यलोके देवानामागमनकारणम् १०७ • अन्तिकं समीपं गच्छामि, गत्वा च प्रादुर्भवामि प्रकटो भवामि ताः = मात्रादयो मे मम इमां - प्रत्यक्षामेतद्रूपाम् एताशीं दिव्यां देवद्धिं दिव्यां देवर्ति लब्धां मातामभिसमन्वागतां पश्यन्तु । इति तृतीयमागमनकारणम् |३| 41 " , अहुणोवणे " इत्यादि - प्राग्वत् नवरं-मभ मानुष्य के भवे मित्रं पश्चात्स्नेही, सखा - बालवयस्यः, सुहत् - हितैषी सज्जनः सहाय: - सह अयते इति सहायः - सहचरः एककार्यवृत्त साङ्गतिकः = सङ्गतिकः सङ्गतं परिच योऽस्त्यस्येति साङ्गतिकः - परिचितो वाऽस्ति तेषां मित्रादीनां च खलु अस्माभिः अन्योऽन्यं= परस्परं सङ्केतः प्रतिश्रुतः प्रतिज्ञान स्त्रीकृतो भवतिस्म = आसीत् कीदृगः सङ्केत ? इत्याह- " जो मे " इत्यादि - - यः - जनः मे - अस्माकं मध्ये पूर्व - प्राच्यवतेदेवलोकात् च्युतो भवेत् स जनः सम्बोधयितव्यः - प्रतिबोधनीय' इति तस्मादहं यह द्वितीय कारण है - २ तृतीय कारण भी ऐसाही है, पर इसमें वह ऐसा विचार करता है कि मेरे मनुष्यभव सम्बन्धी माता यावत् भ्राता-भगिनी -- - पुत्र-पुत्री- पुत्रवधू ये सब है, इसलिये मैं उनके, पास जाऊं, वे मेरी ऐसी इस प्रत्यक्षभूत दिव्य देवद्विको एवं दिव्य देवघुतिको कि जिसे मैंने लब्ध की है प्राप्तकी है अभिमन्वागत की है देखें, ऐसा यह तृतीय कारण है - ३ चतुर्थ कारण भी ऐसा ही हैं, पर इसमें वह ऐसा विचारता है कि मेरे मनुष्य भवके मित्र हैं, सुहृद्जन हैं, सहायक हैं, साङ्गतिक हैं, उन्होंने हमारे साथ ऐसा सङ्केत किया था ऐसी बात स्वीकार कीथी कि जो कोई भी हमलोगों के बीच से देवलोक से पहले चवे वह जन संबोधयितव्य हैઅહી... પર્યું`પાસના પન્તના ઉપયુક્ત પદો પણ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. આ કારણે ણુ તે અનેપપન્ન દેવ મનુષ્યલેાકમાં આવે છે. J ત્રીજું કારણુ પણ લગભગ એવું જ છે તેને એવા વિચાર આવે છે भारा पूर्वभवना (मनुष्य भवना) भाता, पिता, लाई, मेन, पुत्र, पुत्री, પત્ની વગેરેને મળવા માટે મારે મલેકમાં જવું જોઇએ તે મારી આ દિન્ય દેવદ્ધિ, દેવદ્યુતિ આદિના ભલે દર્શન કરે આ રીતે પેાતે લખ્યું, પ્રાપ્ત અને અભિસમન્વાગત કરેલી દેવદ્ધિ, દેવદ્યુતિ આદિ તેમને ખતાવવાના હેતુથી તે અનાપપન્ન દેવ આ મલાકમાં આવવાની ઈચ્છા કરે છે. ચેાથુ' કારણુ—તે અનેાપપન્ન દેવને એવે વિચાર થાય છે કે મનુષ્યલેાકમાં પૂર્વભવના મારા મિત્ર છે, સુજના છે, સહાયક છે અને સાંગતિક છે તેમણે અને મે' અરસ્પરસમાં એવે! સāત કર્યા હતા એવું વચન આપ્યુ હતુ` કે આપણામાંનું જે કાઈ ધ્રુવલેકમાંથી પહેલાં ચવે (ત્યાંનું Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ स्थानाङ्गसूत्रे पूर्वच्युतान् संवोधयितुं मनुष्यलोकं गच्छामि, सूत्रे 'मे' इत्यार्पत्यादेकवचनम् । इति चतुर्थमागमनकारणम् ।४। ।। सू० २४ ॥ ___ अनन्तरं देवाऽऽगमनमुक्त, तत्र तत्कृतोद्योतो भवतीति तद्विपरीतं लोकान्धकार प्राह मूलम्-चउहिं ठाणेहि लोगंधयारे लिया, तं जहा-अरहतेहिं वोच्छिन्नमाणेहिं १, अरहंतपन्नत्ते धम्ने वोच्छिज्जमाणे २, पुवगए वोच्छिज्जमाणे ३, जायतेए वोच्छिज्जमाणे ४॥ चउहि ठाणेहिं लोउज्जोए सिया, तं जहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं १, अरहतेहिं पवयमाणेहिं २, अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु ३, अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु ४॥ एवं देवंधगारे देवुज्जोए देवसंनिवाए दवुकलिया देवकहकहे । चउहि ठाणेहिं देविंदा माणुस्सं लोगं हवमागच्छंति, प्रतियोधनीय है, इसलिये मैं पूर्व चवे हुवोंको संबोधन करनेके लिये मनुण्य लोकमें जाऊं। ___ पश्चात्-स्नेहीका नाम मित्र है, बाल वयरयका नाम सखा है, हितैपी सज्जनका नाम सुहत् है एक किसी भी कार्य में साथ रहनेवाले का नाम सहचर है जिससे जान पहिचान हो उसका नाम सागतिक है, ऐसा यह चौथा कारण है ।। मू०२४॥ આયુષ્ય પૂરું કરીને ફરી મનુષ્યલકમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે માણસ સંબધયિતવ્ય-પ્રતિબંધનીય (ધ પ્રાપ્ત કરવાને પાત્ર) ગણુ જોઈએ. આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરિત થઈને પિતાના પહેલાં દેવકમાંથી જેઓ ચવેલા છે તેમને સંબોધન કરવાને માટે તે અધુનાપપનન દેવ આ મનુષ્યલેકમાં આવવા ચાહે છે. ઘણા લાંબા સમયથી જેની સાથે સનેહ હોય તેને મિત્ર કહે છે. બાલ્યકાળથી જેની સાથે મિત્રી હોય તેને સખા કહે છે. હિતિષી સજજનને સુહુદ્દા કહે છે. કેઈ એક કાર્યમાં સાથે રહેનારને સહચર કહે છે, જેની સાથે ઓળ' ખાણુ પીછાણું હોય તેને સાગતિક કહે છે. એ સૂ. ૨૪ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टीका स्था.४ उ ३ सू २५ लोकान्धकारलोकोद्योतकारणनिरूपणम् १०९ एवं जहा-तिहाणे जाव लोगंतिया देवा माणुस्सं लोगं हब्धमागच्छेज्जा, तं जहा-अरिहंतेहिं जायमाणहिं जाव अरिहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु ॥ सू० २५ ॥ ___ छाया-चतुर्मिः स्थानः लोकान्धकारः स्यात् , तद्यथा-अर्हत्सु व्यवच्छिद्य मानेषु १, अत्मज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने २, पूर्वगते व्यवच्छिद्यमाने ३, जाततेजसि व्यवच्छियमाने ४, ___ चतुर्भिः स्थानै लोकोद्योतः स्यात् , तद्यथा-अर्हत्सु जायमानेषु १, अर्हत्सु प्रवनत्सु २, अहंतां ज्ञानोसादमहिमसु ३, अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु ४, एवं देवान्धकारः, देवोद्योतः, देवसन्निपात. देवोत्कलिकाः, देवकलकलः । चतुर्भिः स्थानः देवेन्द्राः मानुष्यं लोकं हव्यमागच्छन्ति, एवं यथा त्रिस्थाने यावत् लोकान्तिका देवा मानुष्यं लोकं हव्यमागच्छन्ति, तप्रथा-अर्हत्सु जायमा नेषु यावत् अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु । सू० २५ ॥ टीका--" चउहि ठाणेहिं " इत्यादि-चतुर्भिः स्थानः लोकान्धकार:लोकेऽन्धकारः-द्रव्यतो भावतश्च स्यात्-भवेत्, कैश्चतुर्भिः स्थानैरित्याह- तं जहा" इत्यादि-तद्यथा-अर्हत्सु-जिनेवु व्यवच्छिद्यमानेषु-निर्वाणं गच्छत्सु द्रव्य. तोऽन्धकारः स्यात् , तस्योत्पातरूपत्वात् , छत्र भङ्गादौ रजउद्धतवत्, इति प्रथम लोकाऽन्धकारस्य कारणम् ॥१॥ ___ तथा-अर्हत्मज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने, इति द्वितीयम् ।२। देवकृत उद्योत के अभाव में लोक में किन-किन कारणोंसे अन्धकार हो जाता है अब सूत्रकार इस बातका कथन करते हैं " चाहिं ठाणेहि लोगंघयारे सिया" इत्यादि २४ टीकार्थ-इन चार कारणोके हो जाने पर लोकमें द्रव्यसे और भावले अन्धकार हो जाता हैं वे चार कारण ये हैं-एक कारण है जिनेन्द्र देवका निर्वाण प्राप्त कर लेना-१ द्वितीय कारण है-अर्हत प्रज्ञप्त धर्मका દેવકૃત ઉદ્યોતના અભાવે કયાં કયાં કારણેથી લેકમાં અધિકાર વ્યાપી જાય છે, તેનું હવે સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે– ___ " चउहि ठाणेहिं लोगंधयारे सिया" त्याह-(२५) ટકાથ-નીચેના ચાર કારણને લીધે લોકમાં દ્રવ્યાંધકાર અને ભાવાંધકાર વ્યાપી १४य छ-(१) लिनेन्द्र हेक्न निaly xणे, (२) ५ त प्रशस्त धर्म युछिन्न Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܳܨ स्थानानाने तथा-पूर्वगते-पूर्वाणि-दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि, तेषु गतं प्रविष्ट-तदभ्यन्सरीभूनं तत्स्वरूपं यच्छूतं तत्पूर्वगतं, तस्मिन् व्यवच्छियमाने सति लोकेऽन्धकारो द्रव्यतः स्यात् , तस्योत्पातरूपत्वात् , भावतोऽप्यन्धकारः स्यात् , एकान्तमुपमा दावागमादेरभावात् इति तृतीयम् ३। तथा-जाततेनसि वही दीपादौ वा व्यव च्छियमाने विध्यायति सति लोके द्रव्पत एवान्धकारः स्यात् । इति चतुर्थम् ।४॥ व्युच्छिन्न विच्छेद हो जाना-२ तोसरा कारणहै पूर्वगतज्ञानकाव्युच्छिन्न होना-३ और चौथा कारणहै-अग्निका बुझ जाना तात्पर्य इस कथनता ऐना है कि जब जिलेन्द्र देव निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं तय लोकमें द्रव्धकी अपेक्षासे अन्धकार हो जाता है । यह उत्पातरूप होता है जैसे छत्र भद्ग होजाने पर रजका (लि) उद्घात होता है, दृष्टिवादके अन माग भूत पूर्व हैं, इनमें प्रविष्ट जो श्रुत है वह पूर्वगत श्रुत है. इम पूर्वगतको व्यवच्छिद्यमान होने पर लोकमें अन्धकार व्यकी अपेक्षाले हो जाता है क्योंकि यह उत्पातरूप होता है, भावकी अपेक्षा भी अन्धकार हो जाता है क्योंकि-एकान्त सुपमादि कालमें आगनादिकका अभाव हो जाता है। तथा--जब वह्निका, या दीपादिकका विच्छेद हो जाता है, ये वुझ जाते हैं तब इनके वुझतेही लोकमें द्रव्यकी ही अपेक्षा अन्धकार हो जाता है । (निट) थ पाथी, (3) पूतना विछे थ४ पाथी (४) ममि मुआ જવાથી આ કથનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જ્યારે જિનેન્દ્ર દેવ નિર્વાણ પામે છે, ત્યારે લેકમાં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અંધકાર થઈ જાય છે તે ઉત્પાત રૂપ હોય છે જેમકે છત્રભ ગ થઈ જાય ત્યારે રજનો ઉઘાત થાય છે, એ જ પ્રમાણે છત્રસમાનજિનેન્દ્રદેવનું અવસાન થવાથી લોકોમાં અંધકાર વ્યાપી જાય છે. દષ્ટિવાદના અંગભાગભૂત પૂર્વ છે તે પૂર્વમાં પ્રવિણ જે શ્રત છે તેને પૂર્વગત શ્રત કહે છે. આ પૂર્વગત વિકેદ થવાથી લોકમાં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અંધકાર વ્યાપી જાય છે, કારણ કે તે ઉત્પાત રૂપ હોય છે. અને ભાવની અપેક્ષાએ પણ અંધકાર વ્યાપી જાય છે. કારણ કે એકાત-સુષમાદિ કાળમાં આગમાં દિકનો અભાવ હોય છે તથા જ્યારે અગ્નિને અથવા દીપાદિકેને વિચ્છેદ થઈ જાય છે, તેઓ બુઝાઈ જાય છે ત્યારે તેઓ બુઝાતાની સાથે જ લેકમાં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ જ અંધકાર વ્યાપી જાય છે. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३सू०२५ लोकान्धकारलोकोद्योतकारणनिरूपणम् १११ ____ अन्धकारमुक्त्वोद्योतमाह-" चउहिं ठाणेहिं लोउज्जोए" इत्यादि-चतुर्भिः स्थानः लोकोद्योतः-लोके उद्द्योत:-प्रकाशः स्यात् . तानि स्थानान्याह-"तद्यथे"त्यादि-अर्हत्सु-जिनेषु जायमानेषु-उत्पद्यमानेषु देवानामागमनात्स्वरूपेण च लोके प्रकाशो भवति, इति प्रथमं प्रकाशकारणम् १॥ ___ तथा-अर्हत्सु प्रव्रजन्सु-प्रव्रज्यां गृहत्सु वेति द्वितीयम् । २। तथा-अर्हता-तीर्थकराणां ज्ञानोत्पादमहिमस-ज्ञान-केवलज्ञानं तस्योत्पादःउत्पत्तिः, तस्य महिमानः-माहात्म्यानि तेषु, इति तृतीयम् ३। तथा-अर्हतां परिनिर्वाणमहिमसु देवाऽऽगमनादेव लोके प्रकाश: स्यात् । इति चतुथै कारणम् । ४। __ अन्धकारका कथन कर अब सूत्रकार उद्द्योतका कथन करते हैं " लोउज्जोए"-इत्यादि चार कारणों को लेकर लोकमें उद्योत-प्रकाश होता है, उनमें एक कारण है जिनेन्द्र देवका जन्म होना। दूसरा कारण है अहंत प्रभुका प्रव्रज्या ग्रहण करना। तीसरा कारण है तीर्थङ्करोंको केवलज्ञानका होना । और चौथा कारण है अर्हन्त प्रभुका निर्वाण प्राप्त करना । जिनेन्द्र देव जब उत्पन्न होते हैं तप देवलोकसे देवोंका आगमन होता है तब स्वरूपले ही लोक, आलोक-प्रकाश हो जाता है। इसी प्रकारले जब तीर्थङ्कर प्रभु दीक्षा ग्रहण करते हैं तव भी लोकमें प्रकाश होता है, क्योंकि उस समय भी देवोंका आगमन हुवा करता है । तीर्थङ्कर प्रभुको जघ केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब उस केवलज्ञानके उत्पत्ति महिमासे समाकृष्ट देवोंका आगमन हो जाता है तब भी लोकमें उद्योत होता है । इसी तरहसे जब अहन्त प्रभु અંધકારનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ઉદ્યોતનું કથન કરે છે– " लोउज्जोए" त्याह-नयना २ ॥२॥दी सभा द्योत (५४६२४) था छ-(१) मिनेन्द्र वन म समये, (२) मत प्रभु अनन्या ગ્રહણ કરે ત્યારે, (૩) તીર્થકરોને કેવળજ્ઞાન થાય ત્યારે, (૪) અહંત પ્રભુ નિર્વાણ પામે ત્યારે આ ચાર પ્રસંગે લોકમાં પ્રકાશ થાય છે જ્યારે જિનેન્દ્ર દેવને જન્મ થાય છે ત્યારે દેવલોકમાંથી દેનું આગમન થાય છે ત્યારે તેમની દેવઘુતિને કારણે જ લેકમાં ઉદ્યોત (પ્રકાશ) થાય છે એજ પ્રમાણે જ્યારે તીર્થંકર પ્રભુ દીક્ષા ગ્રહણ કરે છે, ત્યારે પણ લેકમાં પ્રકાશ થાય છે, કારણ કે તે પ્રસંગે પણ દેવેનુ આગમન થતું હોય છે. તીર્થકર પ્રભુને જ્યારે કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે પણ લેકમાં પ્રકાશ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ स्थानाङ्गसूत्रे ___"एवं देवंधगारे " इत्यादि-एवं लोकान्धकारवद् देवान्धकारोऽपि भवतिअहंदादिषु शुच्छिद्यमानेषु देवलोकेऽप्यन्तमुहर्तमन्ध कारस्य संमवादिति । तथाअर्थतां जन्मादिषु लोकोद्योतवद् देवोधोतोऽपि वोव्यः । एवमर्हज्जन्मादिपु-देवसन्निपातः-देवानां समूहरूपेण एकत्रीभवनम् । देवोत्कलिका = देवानामेकस्य पश्चाद् अपरस्य नैरन्तर्येणाऽऽगमनम् । देवकलकला=देवानां प्रमोदादिजनितः कलकल: कोलाहलथापि वोध्यः । "चउहि ठाणेहि देविदा" इत्यादि-देवेन्द्राः चतुर्भिः-अहज्जन्मादिभिः स्थान:-कारणैः मनुष्यलोकं हव्यमागच्छन्ति । एवम् अनेन प्रकारेण · यथा निर्वाणको प्राप्त करते हैं, तर भी निर्वाण महिमा प्रगट करने के लिये देवोंका आगमन होता है अतः लोकमें प्रसाठा हो जाता है। "एवं देवंधगारे" इत्यादि देवान्धकार भी लोकान्धकारकी तरह हुवा करता है अहंदादि जब व्युच्छिद्यमान हो जाते-निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं तब देवलोकमें भी एक अन्तर्मुहर्त तक अन्धकार छा जाता है तथा--अर्हन्तोंके जन्मादि होने पर लोकोद्योत जैसे देवोद्योत भी होताहै । देवसमूहका एकत्रित होना होताहै-देवोत्कलिका भी होतीहैइसी तरह से अहेन्त के जन्मादि होने के समय देव सन्निपात होता है देवोंका एकके बाद एकका आना निरन्तर होता है। इसी प्रकारसे देव कलकल भी होता है-देवोंको प्रमोदजनित कोलाहल भी होता है । " चउहिं ठाणेहिं देविदा" इत्यादि देव अहंज्जन्म आदि થાય છે, કારણ કે કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિના મહિમાથી સમાકૃષ્ટ દેવેનું ત્યાં આગમન થાય છે એ જ પ્રમાણે જ્યારે અહંત પ્રભુ નિર્વાણ પામે છે ત્યારે પણ નિર્વાણમહિમા પ્રકટ કરવાને લીધે દેવેનું આ લેકમાં આગમન થાય છે અને તે કારણે લોકમાં પ્રકાશ થ ય છે. "एवं देवंधगारे" त्या:--हेवा-धरना ४२ प att२ना કારણે જેવાં જ સમજવા. અર્વતાદિ જ્યારે નિર્વાણ પામે છે, ત્યારે દેવલોકમાં પણ એક અન્તર્મુહૂર્ત સુધી અંધકાર વ્યાપી જાય છે તથા અહતના જન્માદિ કાળે લેકેદ્યોતની જેમ દેવેદ્યોત પણ થાય છે એજ પ્રમાણે અહંતના જન્માદિ કાળે દેવસન્નિપાત (દેવેનું એક સ્થળે એકત્રિત થવાનું) અને એજ ચાર કારણેને લીધે દેકાલિકા પણ થાય છે (દેવેનું એક પછી એક એ પ્રકારે નિરન્તર આગમનને દેવેન્કલિકા કહે છે) એજ ચાર કારણને લીધે દેવને प्रमानित asel पY थाय छे. “ चउहि ठाणेहि देविदा ” त्याहि Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३ सू:२५ लोकान्धकारलोकोद्योतकारणनिरूपणम् ११३. त्रिस्थाने यावत् लोकान्तिका देवाः 'यथा-येन प्रकारेण त्रिस्थाने त्रिस्थानके अस्यैव स्थानाङ्गस्य तृतीयस्थाने प्रथमोद्देशके अहज्जन्मादिकारणत्रयेण देवेन्द्रादि लोकान्तिकपर्यन्तानां देवानां मनुष्यलोके शीघ्राऽऽगमनमुक्तं, तथाऽत्रापि देवेन्द्रा दिलोकान्तिकपर्यन्तानां देवानां तीर्थकरजन्मादिकारणचतुष्टयेन मनुष्यलोके शीघ्राऽऽगमनं वाच्यम् । तत्र त्रीणि कारणानि त्रिस्थानकानुरोधेनोक्तानि, इह चतुःस्थानकानुरोधेन परिनिर्वाणमहिमरूप चतुर्थ कारणमिति विशेषः ।४। इममेव विशेष दर्शयितुमाह-तं जहा-अरिहंतेहिं जायमाणेहिं " इत्यादि-सू०२५॥ अनन्तरमहंतां जन्मादिप्रसङ्गेन देवाऽऽगमनमुक्तं, सम्पति अहंतामेव प्रवचने दुःस्थितस्य साधोः दुःखशय्यां सुस्थितस्य मुखशय्यां च निरूपयितुं सूत्रद्वयमाह मूलम्-चत्तारि दुहसेजाओ पण्णत्ताओ, तत्थ खल्ल इमा पढमा दुहसेजा, तं जहा-से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अण. रूप चार कारणोंसे बहुतही शीघ्र मनुष्य लोकमें आते हैं। इस तरह जैसा पहले इस स्थानाङ्गके स्थानकके प्रथम उद्देशे में अहज्जन्मादि कारणप्रय लेकर देवेन्द्रादि लोकान्तिक तकके देवोंका मनुष्य लोकमें शीघागमन कहा गया है। उसी प्रकारसे यहां पर भी देवेन्द्र से लेकर लोकान्तिक तकके देवोंका तीर्थङ्करके जन्मादिरूप चोर कारणोंको लेकर मनुष्यलोकमें शीघ्रागमन कह लेना चाहिये । वहां तीन कारण त्रिस्थानकके अनुरोधसे कहे गये हैं, यहां चतुःस्थानकके अनुरोधसे उन तीन कारणोंके साथ चौथा कारण परिनिर्वाण महिमा रूप है। यही बात"तंजहा जायमाणेहिं " इत्यादि सूत्र द्वारा प्रगट की गई है । सू०२५॥ એજ ચાર કારણોને લીધે દેવેન્દ્રોનું મનુષ્યમાં ઘણું જ ત્વરાપૂર્વક આગમન થાય છે. આ સ્થાનાંગસૂત્રના ત્રિસ્થાનકના પહેલા ઉદ્દેશામાં અહંતજન્માદિ ત્રણ કારણોને લીધે દેવેન્દ્રાદિ કાન્તિક પર્યન્તના દેના મનુષ્યલેકમાં શીઘ આગમનનું જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે. એવું જ કથન અહીં પણ દેવેન્દ્રથી લઈને લોકાન્તિક પતને દેના તીર્થકર જન્માદિ રૂપ ચાર,કારોને લીધે મનુષ્યલોકમાં શીઘ આગમન વિષે પણ થવું જોઈએ. ત્યાં ત્રણ કારણો પ્રકટ કરવામાં આવ્યા હતા, કારણ કે ત્યાં ત્રિસ્થાનકની પ્રરૂપણા કરવાની હતી પરંતુ અહીં ચતુઃસ્થાનકને અધિકાર ચાલતું હોવાથી તે ત્રણ કારણેની સાથે નિર્વાણમહિમા રૂપ શું કારણ પણ અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે એજ पात " जहा जायमाणेहि" त्याठि सूत्र वा ४८ ४२वामा मावस छ. सू. २५ म-१७ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ स्थानासूत्र गारियं पवइए णिगंथे पावयणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेयसमावण्णे कलुसलमावण्णे णिग्गथं पावयणं णो सदहइ णो पत्तियइ णो रोएइ, णिग्गंथं पावयणं असदहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावयं णियच्छइ विणिघायमावज्जइ, पढमा दुहसेज्जा १॥ अहावरा दोच्चा दुहसेज्जा, तं जहा-ले णं मुंडे भवित्ता अगाराओ जाव पव्वइए सएणं लाभेणं णो तुस्सइ परस्स लाभमासाएइ पोहेइ पत्थेइ अभिलसइ, परस्स लाभमासाएमाणे जाव अभिलतमाणे मणं उच्चावयं णियच्छइ विणिघाय-. मावज्जइ, दोचा दुहसेज्जा २॥ अहावरा तच्चा दुहसेज्जा, तं जहा-से णं मुंडे भवित्ता जाव पवइए दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अभिलसइ दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएमाणे जाव अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छइ विणिघायमावज्जइ, तच्चा दुहसेज्जा ।। अहावरा चउत्था दुहसेज्जा, तं जहा-से मुंडे जाव पव्वइए तस्स णमेवं भवइ-जया णं अहमगारवासमावसामि तया णमहं संवाहणपरिमदणगात्तभंगगाउच्छोलणाई लभामि जप्पभिई च णं अहं मुंडे जाव पवइए तप्पभिई च णं अहं संवाहण जाव गाउच्छोलणाई णो लभामि, से णं संवाहण जाव गाउच्छोलणाइं आसाएइ जाव अभिलसइ, से णं संवा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुधा टीका स्था०४४ ३०२६-२७ साधोः दुःखाच्या सुखशय्यानिरूपणम् ११५ हण जाव गाउच्छोलणाई आलाएमाणे जाव मणं उच्चावयं णियच्छइ विणिघाय मावज्जइ, चउत्था दुहसेज्जा ॥ ४ ॥ सू०२६ ॥ चत्तारि सुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा, तं जहा - से णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्ase णिग्गंथे पावयणे णिस्लंकिए णिक्कखिए fufa - तिमिच्छिए णो भेयसभावण्णे णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं, सहइ पत्तियइ रोएइ णिग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्तियमाणे रोएमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छइ णो विणिघायमावज्जइ, पढमा सुहसेज्जा । १ ॥ अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा, तं जहा से णं मुंडे जाव पव्वइएसएणं लाभेणं तुस्सइ परस्स लाभं णो आसाएइ णो पीहेड़ णो पत्थे णो अभिलसइ परस्त लाभमणासाएमाणे जाव अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छइ णो विणिघायमावज्जइ, दोच्चा सुहसेज्जा | २ | अहावरा तच्चा सुहसेज्जा, तं जहा से णं मुंडे जाव पव्वइए दिव्वे माणुस कामभोगे णो आसाएइ जाव णो अभिलसह दिव्वे माणुस्सर कामभोगे अणासाएमाणे जाव अणभिलसमाणे णो मर्ण उच्चावयं नियच्छइ णो विणिघायमावज्जइ, तच्चा सुहसेज्जा | ३ | अहावरा चउत्था सुहसेज्जा, तं जहा से णं मुंडे जाव पव्वइए तस्स पां एवं भवइ-जइ ताव अरहंता भगवंतो हवा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ स्थानास्त्रे आरोग्गा बलिया कल्लसरीरा अन्नयराई ओरालाई कल्लाणाई विउलाइं पययाइं पग्गहियाइं महाणुभागाई कम्मक्खयकारणाई तवोकम्माइं पडिवज्जति, किमंग पुण अहं अब्भावगमियं ओवकमियं वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि तितिक्खामि अहियासामि ममं च णं अब्भोवगमियं ओवकमियं वेयणं सम्मंअसहमाणस्ल अक्खममाणस्ल अतितिक्खमाणस्स अहियासमाणस्त किं मन्ने कज्जइ १, एगंतमो मे पावे कम्मे कज्जइ, ममं च णं अब्भोवगमियं ओवकभियं वेयणं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासमाणस्त किं मन्ने कज्जइ ? एगंतसो मे णिज्जरा कन्जइ, चउत्था सुहसेज्जा ४ सू० २७ ॥ छाया-चतस्रो दुःखशय्याः प्रज्ञप्ताः, तत्र खलु इयं प्रथमा दुःख शय्या, तद्यथा-स खलु मुण्डो भूत्वा आगारादनगारितां प्रव्रजितो नैर्ग्रन्थी प्रवचने शङ्कितः कातितो विचिकित्सितो भेदसमापन्नः कलुपसमापन्नो नैग्रन्थं प्रव. ___ अर्हन्तोंके जन्मादि प्रसग को लेकर देवोंका आगमन कहा, अब सूत्रकार अहंतोंकेही प्रवचन में दुःस्थित साधुकी दुःखशय्याका और सुस्थित साधुकी सुखशय्याका निरूपण दो सूत्रोंसे करते हैं। सूत्रार्थ--" चत्तारि दुहसेज्जाओ पण्णत्ता" इत्यादि २६ चार दुःखशय्याएँ कही गई है, उनमें यह पहली दुःखशय्या है, जैसे कोई एक मनुष्य मुण्डित होकर अगारावस्थासे अनगारावस्थाको धारण कर लेना है, अब वह नैर्ग्रन्थप्रवचनमें शङ्कायुक्त होता है, विचि અહ તેના જન્માદિ પ્રસંગે દેવોના આગમનનું કથન કરવામાં આવ્યું. હવે એજ અહંતના પ્રવચનમાં દુસ્થિત સાધુની દુઃખશાનું અને સુસ્થિત સાધુની સુખશાનું સૂત્રકાર બે સૂત્ર દ્વારા નિરૂપણ કરે છે-- " चत्तारि दुइसेज्जाओ पण्णत्ताओ" त्यादि--(२६) સુત્રાર્થ–ચાર દાખશય્યાએ કહી છે. પહેલી દુઃખશધ્યાનું સ્વરૂપ કે એક મનુણ મુંડિત થઈને ગૃહસ્થાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણગારાવસ્થા અંગીકાર ' કરી લે છે ત્યાર બાદ તે નિથ પ્રવચન પ્રત્યે શંકા, વિચિકિત્સા, ભેદસમા Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा रीका स्था०४३०३ २०२६-२७ साधोः दुःखशय्यानिरूपणम् चनं नो श्रद्दधाति नो पत्येति नो रोचयति, नैग्रन्थं प्रवचनमश्रद्दधानोऽप्रतियन् अरोचयमानो मन उच्चावचं निर्गच्छति विनिघातमापद्यते, प्रथमा दुःखशय्या ।। _____ अथाऽपरा द्वितीया दुःखशय्या, तद्यथा-स खलु मुण्डोभूत्वा अगाराद् यावत् प्रव्रजितः स्वकेन लाभेन नो तुष्यति परस्य लाभमाशयति (आशां करोति) स्पृहयति प्रार्थयति अभिलपति परस्य लाभमाशयन् यावत् अभिलपन् मन उच्चा. वचं निगच्छति विनिघातमापद्यते, द्वितीया दुःखशय्या । २ ।। कित्सित होता है, भेद समापन्न होता है, कलुषसमापन्न होता है, नैर्ग्रन्थ प्रवचनको श्रद्धासे नहीं देखता है, उस पर प्रतीति नहीं करता है, उसे अपने रुचिका विषय नहीं बनाता है । इस तरह नैग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा नहीं रखता हुवा उसे प्रतीतिमें नहीं लेता हुवा, उस पर रुचि नहीं रखता हुवा वह अपने मनको विविध विषयों में ले जाता है, तो ऐसी स्थितिमें धर्मभ्रष्ट होकर वह संसारमेंही परिभ्रमण करने घाला होता है यह प्रथम दुःखशय्या है-१ द्वितीय दुःखशय्या इस प्रकार है, जैसे कोई एक मनुष्य मुण्डित होकर अगारावस्थासे अनगारावस्थाको धारण कर लेता है पर वह स्वकीय लाभले सन्तुष्ट नहीं होता परके लाभकी आशा करता है-उसकी स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा रखता है, इस तरह परके लाभकी अभिलाषावाला हुवा वह अपने मनको इधर-उधर अनेक विषयोंमें ले जाता है, तो ऐसी स्थितिमें धर्मभ्रष्ट वह संसारमेंही परिभ्रमण करनेवाला बनता પન્નતા અને કલુષભાવ સંપન્નતાથી યુક્ત થઈ જાય છે. તે કારણે તે નિથ પ્રવચન પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખતું નથી, તેને પોતાની પ્રતીતિ વિષય બનાવતે નથી, અને તેને પિતાની રુચિને વિષય પણ બનાવતા નથી આ રીતે નિર્ચ - પ્રવચન પર શ્રદ્ધા નહીં રાખતે એ, તેની પ્રતીતિ નહીં કરતા એ, અને તેના પ્રત્યે રુચિ નહીં રાખતે એવો તે શ્રમણ નિર્થથ પિતાના મનને વિવિધ વિષમાં પ્રવૃત્ત થવા દે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તે ધર્મભ્રષ્ટ થઈને સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કરનારે થાય છે. આ પહેલી દુઃખશધ્યા સમજવી. બીજી લખશયા આ પ્રકારની છે. કેઈ એક મનુષ્ય મુંડિત થઈને અગારાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણગારાવસ્થા ધારણ કરે છે, પરંતુ તે સ્વકીય લાભથી સંતુષ્ટ થતો નથી, પરકીય લાભની આશા કરે છે, તેને માટે સ્પૃહ કરે છે, પ્રાર્થના કરે છે અને અભિલાષા સેવે છે. આ પ્રમાણે પરના લાભની અભિલાષાથી યુક્ત થયેલ તે પિતાના મનને અહીં તહીં અનેક વિષયમાં Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे अथापरा तृतीया दुःखशय्या, तथथा-स खल मुण्डो भूत्वा यावत् प्रबजितो दिव्यान मानुष्यकान् कामभोगान् आशयति यावत् अभिलपति दिव्यान् मान. ध्यकान कामभोगान् आशयन याव अभिलपन् मन उच्चावचं निगच्छति विनिघातमापद्यते, तृतीया दुःखशय्या । ३। अधाऽपरा चतुर्थी दुःखशय्या, तद्यथा-स खलु मुण्डो यावत प्रवजितः तस्य खलु एवं भवति-यदा खल अहम् अगारवासम् आवसामि तदा खलु अहं संवा. हनपरिमर्दनगात्राम्यङ्गगात्रोत्क्षालनानि लभे यत्प्रभृति च अहं खलु मुण्डः यावत् है, यह द्वितीय दुःखशय्या है-२ तृतीय दुःखशय्या इस प्रकार है जैसे कोई एक पुरुष मुण्डित होकर अगारावस्थासे अनगारावस्था सम्पन्न हो जाता है अब यदि वह उस अवस्थामें भी दिव्य मनुष्य सम्बन्धी कामभोगोंकी आशा करताहै-यावत् अभिलाषा रखताहै तो इस तरहसे दिव्य मनुष्य सम्बन्धी कामभोगोंकी आशा करता हुवा यावत् उनकी अभिलाषा करता हुवा है वह मनको इधर उधरके अनेक विषयोंमें ले जाता है तो ऐसी दशामें धर्मभ्रष्ट होकर वह संसारमेही परिभ्रमण करनेवाला बनता है-३ चतुर्थ दुःखशय्या इस प्रकार है, जैसे कोई एक मनुष्य मुण्डित होकर अगारावस्थासे अनगाराऽवस्था सम्पन्न हो जाता है, अब यदि वह इस अवस्थामें भी ऐसा विचार करता है कि-जिस समय मैं गृहस्थावस्थामें था उस समय शरीरकों दववाता था, उसे मलवाता था उस पर तेल आदिकी मालिश करवाता ભમવા દે છે. તે એવી પરિસ્થિતિમાં ધર્મભ્રષ્ટ થયેલે તે નિગ્રંથ સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કરનારે થાય છે. ત્રીજી દુખશય્યા આ પ્રકારની જે--કઈ એક મનુષ્ય સુડિત થઈને અગારાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણગારાવસ્થા ધારણ કરે છે અણગારાવસ્થા ધારણ કરવા છતાં પણ જે તે મનુષ્ય સંબંધી કામગની આશા કરે છે, પૃહા કરે છે, પ્રાર્થના કરે છે અને અભિલાષા સેવે છે, તે એ પ્રકારે દિવ્ય મનુષ્ય સંબધી કામગોની આશા, પૃહા, પ્રાર્થના અને અભિલાષા કરતો. એ તે મનને આમ તેમ અનેક વિષયોમાં ભમવા દે છે. તે એવી પરિસ્થિતિમાં ધર્મભ્રષ્ટ થઈને તે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરનારો જ બને છે. ચેથી દુખશધ્યાનું સ્વરૂપ--કઈ એક મનુષ્ય મુંડિત થઈને ગૃહસ્થાવકથાને ત્યાગપૂર્વક અણગારાવસ્થા અંગીકાર કરે છે ત્યાર બાદ એવો વિચાર કરે છે કે જ્યારે હું ગૃહસ્થાવસ્થામાં હતું ત્યારે સેવકાદિ પાસે મારા શરીરને દબાવરાવતો હતો, ચોળાવતો હતો, તેના પર તેલ આદિનુ માલિશ કરાવતા Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ २०३० २६-२७ साधोः सुखशय्यानिरूपणम् ११९ प्रत्रजितः तत्प्रभृति च खलु अहं संवाहन यावत् गात्रोत्क्षालनानि नो लभे स खलु संवाहन यावत् गात्रोत्क्षालनानि आशयति यावत् अभिलपति स खलु संवाहन यावत् गात्रोत्क्षालनानि आशयन् यावत् मन उच्चावचं निर्गच्छति विनिधातमापद्यते, चतुर्थी दुःखशय्या ४|० २६ । २७ छाया - चतस्रः सुखशय्याः प्रज्ञप्ताः, तत्र खलु इयं प्रथमा सुखशय्या, तद्यथा - स खलु मुण्डो भूत्वा आगारादनगारितां प्रव्रजितो निर्ग्रन्थे प्रवचने निःशङ्कितः निष्काङ्क्षितः निर्विचिकित्सितः नो भेदसमापन्नो नो कलुषसमापन्नो था, पानी से उसे खूब अच्छी तरह नहलाता था - स्नान कराता था. अय मैं जब से मुण्डित यावत् प्रवजित हो गया हूं तबसे मुझे नतो उसे दबवानेका मोका मिलता है न यावत् उसे नहलानेका मोका मिलता है, इस तरह से संवाह आदि की वह आशा करता है तो ऐसी स्थिति में उसकी आशा करने आदिरूप भावोंवाला वह अपने मनको अनेक विषयों में ले जाता - अतः धर्मभ्रष्ट होकर संसारको ही बढाता है यह चौथी दुःखशय्या है - ४ | सुखशय्याएं भी चार कही गई हैं, उनमें यह प्रथम सुखशय्या है जैसे कोई पुरुष मुण्डित होकर अगारावस्थासे अनगारावस्थामें प्रव्रजित हो जाता है और वह नैर्ग्रन्थ प्रवनचमें शङ्कासे रहित निशङ्कित काङ्क्षासे रहित निष्काङ्क्षित विचिकित्सासे रहित निर्विचिकित्सित भेद समापन्न से रहित नो भेदसमापन्न, कलुषसमापन्नसे रहितહતા, અને પાણી આદિ વડે મારા શરીરે ખૂબ જ સારી રીતે સ્નાન કરાવતા હતા, પણ જ્યારથી હું પ્રત્રજિત થઇ ગયા છું ત્યારથી મને શરીર ખાવરાવવાના મેાકા પણ મળતા નથી, શરીરને ચેાળાવવાના, માલિશ કરાવવાના અને સ્નાન કરવાને પણ મેાકા મળતા નથી. આ રીતે સ*વાહન આક્રિની તે આશા કરે છે. તેા આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તે પેાતાના મનની સ્થિરતા ગુમાવી બેસે છે અને મનને અનેક વિષયામાં ભમવા દે છે તે એવા નિષ્રથ ધ ભ્રષ્ટ થઇને પેાતાના સસારને વધારે છે. આ ચેાથી દુઃખશય્યા સમજવી. સુખશય્યાએ પણ ચાર કહી છે પ્રથમ સુખશય્યાનુ આ પ્રકારનું સ્વરૂપ કહ્યું છે—કોઇ એક મનુષ્ય મુડિત થઈને અગારાવસ્થાના પરિત્યાગ પૂર્વક અણુગારાવસ્થાના સ્વીકાર કરે છે. તે નિથ પ્રવચન પ્રત્યે શકા રાખતા નથી, કાંક્ષા રાખતા નથી, વિચિકિત્સા રાખતેા નથી, કલુષ સમાપન્ન થતા નથી અને ભેદસમાપન પણ થતા નથી. આ રીતે તૈથ પ્રવચન પ્રત્યે નિઃ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० स्थानाशास्त्र नैन्थं प्रवचनं श्रदधाति प्रत्येति रोचयति नैग्रन्धं प्रवचनं श्रदधानः प्रतियन् रोच. यन् नो मन उच्चावचं निर्गच्छति नो विनिधातमापद्यते, प्रथमा मुखशय्या ।१। ___अथाऽपरा द्वितीया सुखशय्या, तद्यथा-स खलु मुण्डो यावत् प्रत्रजितः स्वकेन लाभेन तुष्यति परस्य लाभं नो आशयति नो स्पृहयति नो प्रार्थयति नो अभिलपति, परस्य लाभमनाशयन् यावद् अनभिलपन् नो मन उच्चावचं निर्गन्छति नो विनिघातमापद्यते, द्वितीया सुखशय्या । २। नो कलुपसमापन्न बना हुवा नैन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता है, उस पर प्रीति करता है, उसे अपने रुचिका विषय बनाता है, तो ऐसी स्थितिमें वह नैर्ग्रन्थ प्रवचनकी श्रद्धावाला बना हुवा उसकी प्रीतिवाला घना हुवा उसकी रुचिवाला बना हुवा, वह अपने मनको इधर-उधरके विषयों में नहीं ले जाता है, इसलिये वह श्रुनचारित्ररूप धर्मका आरा. धक बना हुवा संसारमें परिभ्रमण करनेवाला नहीं बनता है यह प्रथम सुखशय्या है-१ द्वितीय सुखशय्या इस प्रकारसे है जैसे कोई पुरुप मुण्डित होकर यावत् प्रवजित हो जाता है, और अपनेही लाभसे सन्तुष्ट रहता है, परके लाभकी आशा नहीं करता है, उसकी स्पृहावाञ्छा नहीं करता है, उसकी प्रार्थना नहीं करता है, उसकी अभिलाषा नहीं करना है इस तरह परके लाभकी आशासे रहित बना हुवा શક્તિ, નિકાંક્ષિત, નિર્વિચિકિસિત, મેદસમાપન્ન રહિત અને કલુષ સમાપનથી રહિત હોવાને કારણે તે નિથ પ્રવચન પર શ્રદ્ધા રાખે છે, તેની પ્રતીતિ કરે છે, તેના પ્રત્યે રુચિ રાખે છે. આ રીતે નિર્ગથ પ્રવચન પ્રત્યે જેને શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ છે, તેને પિતાની પ્રતીતિનો જેણે વિષય બનાવ્યું છે, અને તેને પિતાની રુચિનો વિષય જેણે બનાવ્યું છે, એ તે નિગ્રંથ પિતાના મનને સ્થિર રાખી શકે છે, તેને ગમે તે વિષયમાં ભમવા દેતા નથી. આ પ્રકારે શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધના કરનારે તે નિર્ગથ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરનારે એટલે કે પિતાને સંસાર વધારનાર હોતા નથી. બીજી સુખશાનું સ્વરૂપ–કેઈ એક પુરુષ મુ ડિત થઈને પ્રવ્રજ્યા અંગીકાર કરે છે. ત્યાર બાદ તે સ્વકીય લાભથી જ સંતુષ્ટ રહે છે–પરકીય લાભની આશા કરતો નથી, પૃહા (વાંછા, કામના) રાખતા નથી, તેને માટે પ્રાર્થના કરતું નથી અને તેની અભિલાષા પણ રાખતો નથી આ રીતે પરકીય લાભની આશા, સ્પૃહા આદિથી રહિત બનેલો એ તે નિગ્રંથ પિતાના Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३ सू०२६-२७ साधो सुखशय्या निरूपणम् १२१ अथाऽपरा तृतीया सुखशय्या, तद्यथा - स खलु मुण्डो यात्रत् प्रब्रजितो दिव्यान् मानुष्यकान् कामभोगान् नो आशयति यावत् नो अभिलपति दिव्यान् मानुष्यकान् कामभोगान् अनाशयन् यावद् अनमिलपन् नो मन उच्चावचं निर्गच्छति नो विनिघातमापद्यते, तृतीया सुखशय्या | ३ | अथाऽपरा चतुर्थी सुखशय्या, तद्यथा - स खलु सुण्डो यावत् मनजितः तस्य खल एवं भवति-यदि तावत् अन्नो भगवन्तो हृष्टा आरोग्यावलिकाः कल्यशयावत् उसकी अभिलाषासे रहित बना हुवा वह अपने मनको व्यर्थ इधर उधर विषयोंमें नहीं ले जाता है वह श्रुतचारित्ररूप धर्मका आराधक बना हुवा संसार में परिभ्रमण करनेवाला नहीं बनता है, यह द्वितीय सुखाया है -२ तृतीय सुखशय्या इसप्रकार है जैसे कोई पुरुष सुण्डिन होकर यावत् प्रब्रजित हो जाता है और वह दिव्य मनुष्य कामभोगों की आशा नहीं करता है यावत् उनकी अभिलाषा नहीं करता हुवा वह अपने मनको इधर उधरके व्यर्थ विषयोमें नहीं ले जाता है, इस तरह वह श्रुतचारित्ररूप धर्मका आराधक बना हुवा संसारपरिभ्रमण करनेवाला नही बनता है यह तृतीय सुखशय्या है - ३ चतुर्थ सुखशय्या इस प्रकार है - जैसे कोई पुरुष बुण्डित होकर यावत् प्रब्रजित हो जाना है, उसके मनमें ऐसा विचार आता है कि जब हृष्ट- आरोग्य-बलिक और कल्प शरीरवाले ऐसे अर्हत भगवन्त મનને નકામા અને અનુચિત વિષયમાં ભમવા દેતેા નથી, તે કારણે શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધનામાં લીન થયેલે તે નિથ સસારનું પરિભ્રમણ કરનાર થતા નથી પણુ અલ્પ સ‘સારવાળા બને છે ત્રીજી સુખશય્યા આ પ્રકારની કહી છે—કઇ એક પુરુષ સુડિત થઈને પ્રત્રયા અંગીકાર કરે છે. ત્યાર બાદ તે કદી પણ ક્રિ મનુષ્ય સબંધી કામèાની આશા,પૃહા, અભિલાષા આદિ કરતા નથી આ રીતે બ્ય કામલેગાની આશા ન કરનારે, સ્પૃહા ન કરનારા અને અભિલાષા ન કરનારા તે નિગ્રન્થ પેાતાના મનને નકામા વિષયમાં આમતેમ ભમવા દેતે નથી. આ પ્રકારે શ્રુતચારિત્રરૂપ ધનું આરાધન કરનાશ તે શ્રમણ વિથ પેાતાના સસારને વધારતા નથી. તેને દીર્ઘ અથવા અનતકાળ પન્ત આ સંસારનું પરિભ્રમણુ કરવું પડતુ નથી. ચેાથી સુખશય્યા આ પ્રકારની કહી છે—કાઇ એક પુરુષ મુ`ડિત થઈને પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરે છે તેના મનમાં એવા વિચાર આવે છે કે જો હુષ્ટનીરાગી, ખલિષ્ટ અને કલ્પ શરીરવાળા અંત ભગવાન અન્યતર, ઉદાર, स-१६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे रीरा अन्यतराणि उदाराणि कल्याणानि विपुलानि प्रयतानि प्रगृहीतानि महानुभागानि कर्मक्षयकारणानि तपः कर्माणि प्रतिपद्यन्ते किमग! पुनरहमभ्युपगमिकीमोपकनिकी वेदनां नो सम्यक् स हे क्षमे तितिक्षे अध्यासयामि, मम च खलु आभ्युपगमिकीसौपक्रमिकों वेदनां सम्यगसहमानस्य अक्षममाणस्य अतितिक्षणमाणस्यानध्यासयत. किं मन्ये क्रियते ? एकान्तशः ( एकान्तेन ) मया पाप कर्म कियते, मम च खलु आम्युपगमिकीमोपक्रमिकी यावत् सम्यक सहमानस्य यावत् अध्यासयतः किं मन्ये क्रियते !,एकान्तशः मया निर्जरा क्रियते, चतुर्थी सुखशय्या ।४। सु० २७ ॥ अन्यतर-उदार-कल्याणकारक-विपुल प्रयत प्रगृहीत महानुभाग और कर्मक्षयकर ऐले तोको तपते हैं तो क्या मैं शिरोलंचनादिजन्य आभ्युपगामिकी वेदनाको एवं औपक्रमिकी वेदनाको अच्छी तरहसे क्यों नहीं सहन करूं, और क्यों में इससे विचलिन परिणतिवाला बनूं । यदि मैं इस आ युदयिकी और औपक्रमिकी वेदनाको अच्छी तरह से सहन नहीं करूंगा, इस पर कुपित होऊंगा दीन भाववाला बन जाऊंगा, इसले विचलित परिणतिवाला हो जाऊंगा, तो फिर मैं क्या करूंगा, मैं तो एकान्ततः पापी हो जाऊंगा और जो उन वेदनाको अच्छी तरहसे सहन करलूंगा, कुपित न होऊगा दीन भाववाला नहीं बनूंगा एवं अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं होऊंगा तो एकान्त रूपसे मेरे કલ્યાણકારક, વિપુલ, પ્રયત, પ્રગૃહીત, મહાનુભાગ અને કર્મક્ષયકર એવી તપસ્યા કરે છે, તે મારાથી શિરેલુચનાદિ જન્ય આભ્યપગામિકી અને પક્રમિકી વેદનાનુ સારી રીતે વેદન શા માટે ન થઈ શકે ? તેના પ્રત્યે કુપિત થવાની શી જરૂર છે? અહીન ભાવયુક્ત થઈને શા માટે હું તેને સ્વીકારી ન લઉં? તેનાથી મારે શા માટે વિચલિત પરિણતિવાળા બનવું જોઈએ? જે હું આ આભુપગામિકી અને પકનિકી વેદનાને સારી રીતે સહન નહી કરૂં, તેના પ્રત્યે કુપિતભાવયુક્ત બનીશ, દીનભાવયુક્ત બનીશ, અને વિચલિત પરિણતિવાળે બનીશ, તો મારું શું થશે? આમ કરવાથી તે હું એકાન્તતા (સંપૂર્ણ રૂપે) પાપી બની જઈશ. પરંતુ જો હું તેના પ્રત્યે કુપિત નહી બનું, દીનભાવયુક્ત નહી બનું, અને મારા કર્તવ્ય માર્ગમાંથી વિચલિત થયા વિના તે વેદનાને સમતા ભાવપૂર્વક સહન કરી લઈશ તે એકાન્તરૂપે મારાં કર્મોની નિર્જરા થશે આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને આવ્યુદયિકી અને ઔપક્રમિકી વેદનાને સહન કરનાર નિગ્રંથ શ્રતચારિત્રરૂપ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०२६-२७ साधो दुःखशानिरूपणम् १२३ टीका-" चत्तारि दुहसेज्जाओ” इत्यादि-दुःखशय्याः-दुःखदाः शय्याः दुःखशय्याः, मध्यमपदलोपिसमासोऽत्रबोध्या, दुःखोत्पादिकाः शय्या इत्यर्थः, ताश्च द्रव्यतोऽसमीचीन खट्वादिलक्षगाः, भावतस्तु दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावाः-प्रवचनाऽश्रद्धा १ परलाभप्रार्थना २ कामाऽऽशंसना ३-संवाहनादि प्रार्थना ४ वत्त्वरूपाः, चतस्रः-चतुः संख्याः प्रज्ञप्ताः, ताः क्रमेण प्रदर्शयितुमाह" तत्थ" इत्यादि-तत्र-चतमपु दुःखशय्यासु मध्ये खलु इयम्-अनुपदं वक्ष्यमाणा प्रथमा दुःखशय्या, तद्यथा-सा-कश्चित गुरुकर्मा जीवः ‘णं' वाक्यालङ्कारे एवमग्रेऽपि, मुण्ड:-लुश्चितशिरः केशः, भूत्वा अगारात्-गृहात् अनगारिताम्आगारी-गृही तद्विपरीतोऽनगारी-संयतः, तस्य भावोऽनगारिता, तां तथा संय. कर्मा की निर्जरा होगी इस प्रकारके विचारले जो आभ्युदयिकी एवं औपक्रमिकी वेदनाको सहता है उसकी यह चतुर्थी सुखशय्या है-४ टीकार्थ-यहां दुःखशय्या पदमें दुःखोत्पादिकी शय्या ऐसामध्यमपदलोपी समास है । यह दु.खशय्या द्रव्यभाव लेदसे दो प्रकारकी है. ___असमीचीन-टूटी फूटी जो खटिया आदि है वे द्रव्यरूप दुःखशय्या हैं, तथा दुःस्थचित्त होनेसे दुःश्रमणता रूप-प्रवचनकी-अश्रद्धारूप-१ परलाभ प्रार्थना रूप -१ कामशंखना रूप एवं संवाहनादिकी चाहना रूप जो भाव हैं वे भावरूप दुःखशय्या हैं ये दुःखशय्याएँ चार प्रकारकी हैं, प्रथम प्रकारकी वह है। कि जो कोई गुरुकर्मा जीव केशोंका लुश्चन करके गृहस्थावस्थाले अनगारावस्थावाला हो जाताहै गृहस्थावस्थाकात्याग कर मुनि बन जाता ધર્મને આરાધક હેવાને કારણે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતો નથી. જેથી સુખશધ્યાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. ટીકાઈ–અહીં “દુઃખશય્યા” આ પદમાં “દુખત્પાદિકી શય્યા એવો મધ્યમ પદલોપી સમાસ છે તે દુખશય્યા દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારની છે. ભાંગ્યા તૂટ્યા ખાટલા વગેરેને દ્રવ્યરૂપ દુખશધ્યા કહી શકાય. તથા મનના દુપરિણામેને કારણે દુશમણુતારૂપ જે ભાવે ઉત્પન્ન થાય છે તેમને ભાવરૂપ દુખશય્યા કહી શકાય છે એવી ભાવરૂપ દુઃખશય્યા ચાર કહી છે– (૧) प्रयन प्रत्ये सद्धा३५ शय्या, (२) ५२सान प्रार्थना३५ हु.पशव्या (3) કામશંસતારૂપ દુખશય્યા અને (૪) સંવાહનાદિની ચાહનારૂપ દુઃખશો. પહેલા પ્રકારની દુઃખશય્યાનું સ્પષ્ટીકરણ–કઈ ગુરુકર્મો જીવ કેશોનું લુચન કરીને ગૃહસ્થાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક નિર્મથ પર્યાયને સવીકાર કરી Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२४ स्थान , 1 ततां प्रव्रजितः - अधिगतः प्राप्त इत्यर्थः, नैग्रन्थे - निर्मन्थ :- बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहिता अर्हन्तः, तेपामिदं नैर्ग्रन्थं तस्मिन् प्रवचने = शङ्कितः - शङ्कावान् ' आहेतशासने यदुक्तं जीवादिकं तत् सत्यं वा मिथ्या वे'ति देशसर्वशङ्कावान्, तथा काङ्क्षितः आईतमतातिरिक्तमते इच्छावान्-' मतान्तरमपि समीचीनमिति मतिमान् विचिकित्सितः - फले संशययुक्तः, तथा भेदयमापन्नः - जिनोक्तं सर्वम् इत्थमेव अन्यथा वे 'ति बुद्धिभेदवान् कलुपममापन:-' नैतदेव' मिति विषरीतज्ञानवान् नै न्थ-प्रवचनं नो श्रधानि तत्र श्रद्धां न करोतीत्यर्थः, नो प्रत्येति--प्रतीतिं न प्रतिपद्यते, नो रोचयति-न रुचिविपयीकरोति, इत्थं नैर्ग्रन्थं है और फिर भी वह वाह्याभ्यन्तर परिग्रह विहीन निर्ग्रन्थ अर्हन्त भगवन्त द्वारा प्रतिपादित प्रवचन में ऐसी शङ्कावाला बनता है कि आर्हत शासन में जो जीवादिक तत्त्व कहे गये हैं वे सत्य हैं या मिथ्या हैं, इस प्रकार से देशरूप से या सर्व रूपसे वह शङ्कावाला बनता है, तथा - ऐसी शङ्कावाला बनता है कि मनान्तर भी समीचीन हैं, तथाविचिकित्सित फलमें संशययुक्त बनता है भेदसमापन्न बनता है, "जिनोक्त तत्त्व आहेत मनसे अतिरिक्त सबके सब प्रकार से हैं याअन्यथा है" इस प्रकार से बुद्धि भेवाला बनता है तथा कलुप समापन्न होता है यह इस तरह से नहीं है, इस प्रकार से विपरीत ज्ञानवाला बनता है, इस प्रकारके भावोंसे युक्त होकर यह नैर्यन्ध प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता है, उस पर प्रतीति नहीं लोता है, उसे अपनी લે છે નિગ્રંથ ખતવા છતાં માહ્યાભ્યન્તર પરિગ્રહથી વિહીન એવા તે અર્હત ભગવન્ત દ્વારા પ્રતિપાતિ પ્રવચનમાં અશ્રદ્ધા રાખે છે, તેને એવા વિચાર આવે છે કે અર્હત શાસનમાં જે જીવાદિક તત્ત્વ પ્રરૂપ્યાં છે તે શુ સત્ય છે કે મિથ્યા છે ? આ પ્રકારે તે દેશરૂપે (અંશત:) અથવા સર્વરૂપે (સપૂર્ણ રૂપે) શકાવાળા બને છે, તથા તેને એવેા સભ્રમ થાય છે કે અન્ય મત વાદીએની માન્યતા પણ સાચી હાઈ શકે છે. વળી તે ચિકિત્સિત ખની જાય છે એટલે કે લની ખાખતમાં પણુ સંશયયુક્ત બની જાય છે તથા તે ભેદસમાપન્ન પણ ખની જાય છે, એટલે કે જનાક્ત તત્વ જિનપ્રરૂપિત રવશાસન અને પરશાસન (અન્ય સિદ્ધાંતા) એક જ પ્રકારની માન્યતા ધરાવે છે કે વિરૂદ્ધ માન્યતા ધરાવે છે, આ પ્રકારની મુજવણને કારણે બુદ્ધિભેદવાળેા બની જાય છે, તથા તે કલુષસમાપન્ન બની જાય છે એટલે કે અર્હુત પ્રવચન મિથ્યા છે, એવી વિપરીત માન્યતાવાળા ખની જાય છે. આ પ્રકારના ભાવેથી Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२५ सुधा टीका स्था०४ ३०३ सू०२६-२७ साधोः दुःखशय्यानिरूपणम् प्रवचनम् अश्रद्दधानः अमतियन् अरोचयन् स संयतो मनउच्चावचम् - अनेकप्रकारकं विषयम् विविधविषयेषु निर्गच्छति गमेरत्रान्तर्भावितण्यर्यतया निर्गमयतिनयति तेन हेतुना स विनिधात-धर्मभ्रंशं संसारं वा आपद्यते =प्नोतीति प्रथमा दुःखशय्या १| 13 " अहावरा दोच्चे " - त्यादि - अथ = प्रथमदुःखशय्यानिरूपणानन्तरम् अपरा - द्वितीया दुःखशय्या निरूप्यते, तथाहि - " से णं इत्यादि प्राग्वत्, नवरं स्वकेन - स्व एव स्वकः - स्वकीयस्तेन लाभेन - भक्तपानादि प्राप्तिरूपेण, तो तुष्यति - सन्तुष्टो न भवति, किन्तु परस्य - स्वातिरिक्तस्य संयतस्य सकाशात् लाभ - भक्तपानादि प्राप्तिरूपम् आशयति तस्य आशां करोति स म दारयतीति संभावयति, स्पृहयति - वान्छति, प्रार्थयति = याचते, अभिलषति लब्बेऽप्यन्नादौ पुनर्वाव्छति, शेषं च प्रथम दुःखशय्यामूत्रवद् बोध्यम् । इति द्वितीया दुःखशय्या २ | रुचिका विषय नहीं बनाता है तो ऐसी परिणतिमें वह नैर्ग्रन्थ प्रवचनकी श्रद्धादिसे विहीन बना हुवा संयत विविध विषयोंमें अपने मनको ले जाता है, इस कारण वह " विनिघात " को धर्मभ्रष्टताको, या संसारको प्राप्त करता है इस प्रकार की यह प्रथम दुःखशय्या है - १ | द्वितीय दुःख शय्यामें भी ऐसाही कथन जानना चाहिये, परन्तु इसमें वह संयत अपने प्राप्त भक्तपानादिमें संतुष्ट नहीं होता है, किन्तु अपनेले अतिरिक्त संयत के भक्तपानादिककी आशा करता है कि वह मुझे अपने भक्तपानादिक में से दे दे बाकीका कथन मूलार्थ जैसा है - २ तृतीय --- ચુક્ત થવાને કારણે તે નથ પ્રવચન પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખતા નથી, તેને પેાતાની પ્રતીતિના વિષય મનાવતા નથી અને તેમાં રુચિ પણ રાખતા નથી. આ પ્રકારની પરિણતિથી યુક્ત થયેલા અને નગ્રંથ પ્રત્યેની શ્રદ્ધા અાદિથી વિહીન ખનેલેા તે શ્રમણુ નિગ્રČથ વિવિધ વિષયામાં પોતાના મનને ભમવા ઢે છે. તે કારણે તે ધર્માંભ્રષ્ટ અથવા ધર્મના વિાષક થઈ જવાને કારણે સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યાં કરે છે. આ પ્રકારની પહેલી ભાવરૂપ દુઃખશય્યા છે. - ખીજી દુઃખશય્યાનું સ્વરૂપ—અહી પણ પહેલો દુઃખશય્યા જેવુ કથન સમજવું. આ દુખશય્યાના વધુનમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે તે સયત પેાતાને પ્રાપ્ત થયેલા આહારપાણી આદિથી સત્તાષ માનતા નથી પણ અન્ય સયતને પ્રાપ્ત થયેલા આહરાતિની આશા કરે છે. એટલે કે તે એવી અભિલાષા રાખે છે કે અન્ય સયત મને તે આહારાદિ આપી દે. બાકીનુ કથન મૂળામાં કહ્યા અનુસાર સમજવું, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ . . . . . स्थानाशस्त्र "अहावरा तच्च"-इत्यादि-अथ तृतीया दुःखशय्या निरूप्यते, तथाहि" से णं" इत्यादि-पूर्ववत् , नारं दिव्यान्-देवलोके भवान मनोज्ञान् वा मानुप्य कान्-मनुष्यलोक मवान् कामभोगान्-शब्दादीन् विषयान् आशयति-इत्यारभ्य अभिलपति यावत् ' अभिलषतिपदायन्तं बोध्यम् , शेपं सर्व स्पष्टम् । इति तृतीया तुःखशय्या ।३।। ___ " अहावरा चउत्था " इत्यादि - अथ-चतुर्थी दुःखशय्या निरूप्यतेतथाहि-" से णं " इत्यादि-प्राग्वत् , नवरं-यदाऽहम् अगारवासम् - वसल्यत्रेति वासः, अगारं-गृहमेव वासोऽगारवासस्तम् आवसामि-अधितिष्ठामि-तत्राऽऽ वसामोत्यर्थः, तदा खलु अहं संवाहनपरिमर्दन-गानाभ्यङ्गगात्रोत्क्षालनानि,तन-संवाहनं-शरीरस्य मुखोत्पादको मर्दनविशेषः, परिमर्दनं-पिष्टादिना शरीरोद्वतनम् ' पीठीकरना। इति भापापसिद्धम् , गात्राभ्यङ्ग-तैलादिनाऽङ्गम्रक्षणं शरीरे तैलाभ्यङ्ग इत्ययः, गात्रोत्क्षालन-शरीरस्य जलेन शोधनम् , एतानि लभेअवाप्तवानित्यर्थः, च-पुनः यत्प्रभृति-यस्मात्कालादारम्य ‘णं' इति वाक्यालदुःख शय्यामें वह संयत देवलोक सम्बन्धी, या मनुष्यलोक सम्बन्धी कामभोगोंकी, शब्दादिक विषयोंकी आशा करता है यहां "अभिलापा" आदि पदोंका सबका सम्बन्ध कथन कर लेना चाहिये-३। चतुर्थ प्रकारको दुःखशय्या इस प्रकारसे है कि वह संयत गृहस्थाऽवस्थामें भोगे गये चरणववाना आदि संवाहको परिमर्दन-मालीश आदि सुखोंको याद करता है और अब संयतावस्थामें उन बातोंका लाभ नहीं होता है ऐसा विचारता है-शरीरको सुख उपजे, ऐसे मर्दनका नाम संवाहन है, पीठी करना इसका नाम-शरीरोद्वर्तन है, शरीरमें तेलकी मर्दन करना-इसका नाम गात्राभ्यङ्ग है, शरीरका ત્રીજી દુઃખશયા-આ દુખશઓનું કથન મૂળાર્થ પ્રમાણે જ સમજવું અહીં દેવલોક અથવા મનુષ્યલક સંબંધી કામભેગોની–શબ્દાદિક વિષયની આશા રાખનાર સંયત પિતાને સંસાર વધારે છે, એવું સમજવું થિા પ્રકારની દુખશય્યા–અહીં એવા સંતની વાત કરી છે કે જે પિતાની ગૃહસ્થાવસ્થામાં જોગવેલા ચરણ દબાવરાવવા આદિ રૂપ સંવાહનને, પરિમર્દન (માલિશ) આદિ સુખને યાદ કરે છે અને સંયતવસ્થામાં એ લાભે ન મળવાને કારણે મનમાં દુઃખ અનુભવે છે (શરીરને સુખ ઉપજે જેવી રીતે તેને દબાવરાવવું તેનું નામ સંવાહન છે શરીરે પીઠી, સુખડ આદિ -ળાવવી તેનું નામ શરીર દ્વર્તન છે, શરીરે તેલનું માલિશ કરવું તેનું નામ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ सुधा टीका स्था०४ १०३ सू० २७ साघोः सुखशय्यानिरूपणम् डारे, 'अहं मुण्डः' इत्यारभ्य प्रबजित इत्यन्तं प्राग्वद् वोध्यम् , तावत्मभृति तस्मात्मालादारभ्य अहं संवाहनादिकं न लभे, शेषं व्याख्यातपूर्वम् । इति चतुर्थी दुःखशयया । ४ । सू० २६ ।। अथ सुखशय्यानिरूप्यते टीका-" चत्तारि सुहसेज्जाओ" इत्यादि-सुखशय्या:-सुखदाः शय्याः सुखशय्याः, ता द्रव्यभावभेदेन द्विविधाः, तत्र द्रव्यतस्तथाविधसुखदपयादिरूपाः, भावतः स्वस्थचित्तत्वेन सुश्रमणत्वस्वभावाः, ताः प्रवचनश्रद्धा १-परला भानिच्छा २-कामानाशंसना ३-वेदनासम्यक्सहनरूपाश्चतस्रः प्रज्ञप्ताः, तत्र प्रथमा सुखशय्या-स खलु मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितो नैर्गन्थे प्रवचने निश्शङ्कितो निष्काक्षितो यावत् नो विनिघातमापद्यत इति । १ । द्वितीया शोधन जलसे करना, न्हाना स्नान करना इसका नाम गात्रोत्क्षालन है। बाकी का सब कथन मूल जैसा है ॥ २६॥ __ अब सुख शय्याके विषयमें खूत्रकार कहते हैं, कि सुखशय्याभी चार प्रकारकी है। यह-सुखशय्या द्रव्य-भावके मेदसे दो प्रकार है, तथाविध सुखकारक पल्यङ्क-पर्यङ्क आदिरूप द्रव्यसुखशय्या है, और स्वस्थ चित्तसे सुश्रमण स्वभावरूप भावसुखशय्या है। यह भावरूप सुखशय्या-प्रवचन श्रद्धारूपसे, परलाभकी इच्छा न करने रूपसे, और वेदना सम्यक् सहनरूपसे चार प्रकारकी है-इनमें प्रवचन श्रद्धारूप जो सुखशय्या है वह इस प्रकारसे है, जब मुण्डित होकर कोई पुरुप गृहस्थावस्थासे अनगारावस्थाको प्राप्त होता है तब वह नेग्रन्थ प्रवचन में निश्शङ्कित होता है, निष्काङ्कित आदि विशेषणोंवाली है, अतः वह धर्मभ्रष्ट नहीं होता है या संसारमें परिभ्रमण नहीं करता है-१ ગાત્રાભંગ છે, જળથી શરીરની શુદ્ધિ કરવા રૂપ નાનને ગાત્રક્ષાલન કહે છે, બાકીનું કથન મૂલાર્થ અનુસાર સમજવું. હવે સૂત્રકાર સુખશ'નું નિરૂપણ કરે છે-તેના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ તેના બે પ્રકાર પડે છે સુખકારક પલંગ આદિને દ્રવ્યરૂપ સુખશય્યા કહી શકાય, અને સ્વસ્થચિત્તની અપેક્ષાએ સુશ્રમણ સ્વભાવરૂપ ભાવ સુખશા સમજવી તેના ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે – (१) प्रवचन श्रद्धा३५ (२) ५२सामनी मनिन्छ। ३५, (3) भाग प्रत्ये અનાસક્તિ રૂપ અને (૪) સમતા ભાવે વેદના સહન કરવા રૂપ , પ્રવચન શ્રદ્ધારૂપ સુખશય્યા–કઈ પુરુષ મુંડિત થઈને ગૃહસ્થાવસ્થાના ત્યાગપૂર્વક અણગારાવસ્થા સ્વીકારે છે. તે સંયત નિગ્રંથ પ્રવચન પ્રત્યે નિઃશંકિત, નિષ્કાંક્ષિત આદિ પૂર્વોક્ત ભાવથી યુક્ત મનઃપરિણામવાળો રહે છે Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ स्थानास्त्रे तु स खलु सुण्डो यावत् स्वकेन लाभेन तुष्यति परस्य लाभं नो आशयति यावत् नो विनिघातमापयते इति । २ । तृतीया तु-स खलु मुण्डो यावत् प्रत्रजितो दिव्यान मानुष्य कान् कामभोगान् नो आशयति यावत् नो विनिधातमापद्यत इति । एतास्तिस्रोऽवि व्याख्यातमायाः । ३ । तथा चतुर्थी सुखशव्या एवं बोध्या, तथाहि-स खलु कश्चित् मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां मनजितः, तस्य प्रत्रजितस्य मनसि खलु एवं भवति-एवं विचारो जायते-यदि तावत् अर्हन्तो भगवन्तो हृष्टाः-हृष्टा इव हृष्टाः-विगतशोक तया आनन्दिताः, तथा-आरोग्याः ज्वरादिरोगवर्जिताः, तथा-बलिकाः-बलं द्वितीया लुखशय्यामें मुण्डित आदि होकर अपने लाभलेही सन्तुष्ट रहता है परके लापकी कामना आदि नहीं करता है, अतः वह बिनिघातको प्राप्त नहीं होना है-२ तृतीया सुखशय्या रहा हुवा वह संयत दिव्य मनुष्य सम्बन्धी कामभोगोंको चाहना नहीं करता है, उनकी आशा आदिले बिलकुल रहित हो जाता है अतः वहभी विनिघातको प्राप्त नहीं होता है-३, चौथी सुखशय्या वलसान संयत मनमें हृष्टादि विशेषणोचाले अर्हत लगवन्तोंके अन्यतरादि विशेषणों. वाले तपाकर्मो का चिन्तवन करता हुवा अपनेमें औपक्रमिकी एवं आभ्युपगमिकी वेदनाको सहन आदि करने की क्षमताको जागृत करताहै। તેથી તે તચારિત્રરૂપ ધર્મની સમ્ય રીતે આરાધના કરીને પિતાના સંસારને અલેપ કરી નાખે છે. પરકીય લાભની અનિચ્છારૂપ બીજી સુખશય્યા–અહીં એવા સંતની વાત કરી છે કે પિતાને પ્રાપ્ત થયેલા આહારદિથી જ સંતુષ્ટ રહે છે. અન્ય સંયતને પ્રાપ્ત થયેલા આહારાદિની કામના આદિ રાખતો નથી. તે કારણે તે પણ ધર્મને વિરાધક બનતો નથી-આરાધક જ બને છે અને અપ સંસારવાળો બને છે. ત્રીજી સુખશય્યા–અહીં એવા સંતની વાત કરી છે કે જે દેવસંબંધી કે મનુષ્ય સંબધી કામભોગની બિલકુલ ચાહના કરતો નથી એવો સંયત પણ ધર્મભ્રષ્ટ થતો નથી, પણ ધર્મને આરાધક બનીને પોતાને સંસાર ઘટાડે છે. ચોથી સુખશાસ પન્ન સંયત હૃષ્ટાદિ પૂર્વોક્ત વિશેષણવાળા અહંત ભગવતની અન્યતર આદિ પૂર્વોકત વિશેષવાળા તપ કર્મોનું ચિન્તવન કરતો થકે આભ્યપગમિકી અને અપકમિકી વેદનાને સહન કરવાની ક્ષમતા પિતાના મનમાં જાગૃત કરે છે Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू० २७ लाधोः सुखशय्यानिरूपणम् -मामयं तच्च चतुस्त्रिंशदतिशयरूपम् , तदेपामस्तीति बलिका:-चतुस्त्रिंशद्विधातिशयसामर्थ्यवन्तः, तथा-कल्यशरीरा:-कल्यो-मोक्षः, तत्पापकं शरीरं येषां ते तथा तद्भवमोक्षगामिन इत्यर्थः, तपःकर्माणि प्रतिपद्यन्ते, कीरशानि तानी ?त्याह - " अनयराई ” इत्यादि - अन्यतराणि - अन्यतमानि, अनशनप्रभृतिद्वादश विधतपःकर्मणां मध्ये एकतमानि, तथा - उदाराणि-अमाप्तवस्तुपाप्त्यभिलापरूपाऽऽशंसा-दोषवर्जितत्वेन प्रधानानि, तथाकल्याणानि-शिवसुख जनकानि विपुलानि - बहुदिवसेभ्योऽनुष्ठिततया बहूनि हृष्टादि विशेषणोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है, अर्हन्त भगवन्त इन वेदनाओं के आने परली हृष्ट हुवे की तरह हर्षले युक्त रहे क्लान्त नहीं बने, अतः उन्हे दृष्ट विशेषणसे विशेषित किया गया है, शोकसे रहित होनेके कारण उन्हें आनन्दित कहा गया है ज्वरादि रोगसे वर्जित होने के कारण उन्हें आरोग्य रूपसे प्रकट किया गया है, तथो-३४ अतिशय रूप सामर्थ्यवाले होनेले उन्हें पलिक किया गया है, और तद्भव मोक्षगानी होनेसे उन्हे कल्य शरीरवाला कहा गया है. तपाकर्म उनके कैसे थे यह बात “ अन्यतराणि" पदोंसे प्रकट की गई है उनके तप.कले अनशन आदि १२ प्रकारके तपाकों में से एकतम थे, ऐसा इस पदसे प्रकट किया गया है। ___"उदार" पदसे प्रकट किया गया है कि अप्राप्त वस्तुकी प्राप्तिकी अभिलाषा रूप आशंसा दोषसे वर्जित होने के कारण प्रधान थे। - હવે આ સૂત્રમાં આવતા હષ્ટાઉિ વિશેષણને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં माछ આ વેદનાઓ આવી પડી ત્યારે અહંત ભગવાન હર્ષથી યુક્ત રહ્યા હતા, તેથી તેમને “હૃષ્ટ” વિશેષણ લગાડયું છે, શોથી રહિત હોવાને કારણે તેમને આનંદિત કહ્યા છે, જવરાદિ રોગોથી રહિત હોવાને કારણે તેમને આરોગ્યરૂપ (નરેગી) કહ્યા છે અને ચોત્રીશ અતિશય રૂપ સામર્થ્ય વાળા હોવાને લીધે તેમને બલિક કહ્યા છે આ એક જ ભવ પૂરે કરીને મોક્ષગામી થનારા હોવાથી તેમને કલ્ય શરીરવાળા કહ્યા છે. तमना तप:&ni ai “ अन्यतराणि" म विशेषाथी प्रट કરવામાં આવેલ છેઆ પદનો ભાવાર્થ એ છે કે તેમનાં તપ કર્મો ૧૨ પ્રકારના તપ કર્મો વડે એકતમ રૂપ બની ગયાં હતા. “ઉદાર” વિશેષણ એ પ્રકટ કરે છે કે તેમનાં તપ કર્મો અાપ્ત વસ્તુની પ્રાપ્તિની અભિલાષારૂપ આશંસા દેષથી રહિત હેવાને કારણે ઉત્તમ હતાં. “ કલ્યાણ” પદ દ્વારા म-१७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" "" स्थानसूत्रे पाण्मासिकादीनि, प्रयतानि - प्रकृष्टं प्रमादातिचारादिरहिततथा उत्कृष्टं यातंयत्नो येषु तानि तथा=प्रमादादिरहित तत्वेनोत्कुष्टयत्नसम्पन्नानि तथा गृहीतानि - प्रकृष्टेनादरभावेन स्वीकृतानि महानुभागानि - महान अनुभाग:- अचिन्त्यातिशयो येषु तानि महाप्रभावयुक्तानि - कर्मक्षयकारणानि मोक्षसाधकत्वेन कर्मोन्मूलन हेतुभूतानि यदि एतादृशानि तपःकर्माणि घोरतपांसि, अर्हन्तो भगवन्तः प्रतिपद्यन्तेआचरणीयत्वेनाङ्गीकुर्वन्ति, तर्हि किमः । पुनरहम् आभ्युपगमिकीम् - अभ्युपगमः- शिरोलोचब्रह्मचर्यादीनां स्वीकारः, तत्र भवा आभ्युपगनिकी, तेन निर्वृत्तावाssस्युपगमिकी - ब्रह्मचर्य भूमिशयन के शोल्लुश्च नातापनादिरूपा, ताम्, तथाऔपक्रमिकीम्, उपक्रम्यते क्षीयते आयुरनेनेत्युपक्रमः ज्वरातिसारप्रभृतिरोगः, कल्याण " पदसे यह प्रकट किया गया है कि वे शिवसुख के जनक थे, age " पहले यह प्रगट किया गया है जो वे बहुत दिनोंसे अनुष्ठित होतेसे पाण्मासिक आदि रूपसे अनेक थे, प्रयत पद से यह प्रकट किया है, ये प्रमादादि रहित होने से उत्कृष्टयान सम्पन्न थे, " प्रगृहीत" से माना जाय कि ये अत्यधिक आदरभाव से स्वीकृत हुवे थे, महानुभाग " से इनमें अचिन्त्य अतिशय था ऐसा जाना जाता है। अर्थात् महाप्रभावयुक्त थे, तथा मोक्ष साधनसून होने के कारण ये कर्मक्षयके कारणसूत थे, अतः यह संयत विचारता है कि जब ऐसे २तपःकर्मो को भगवन्तोंने आचरणीय कोटि अङ्गीकार कर लिया है तो क्यों में आभ्युपगमकी, ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, केालुञ्चन, आतापना आदि रूपक वेदनाको, एवं औपकमिकी जबर अतिसार आदि रोगजन्य शोबात अउट यह छे ते तयः शिव सुणना न हता. " विपुल " પદ્મથી એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે તે ઘણા જ દિવસેાથી અનુષ્ઠિત હાવાથી છ માસિક આદિ અનેક લાંબા કાળવાળા હતાં “ પ્રયત પદ્મ એ પ્રકટ કરે છે કે તે પ્રમાદાદિથી રહિત હાવાને કારણે ઉત્કૃષ્ટ ચાન સંદેશ હતાં “ પ્રગૃહીત ” પદ એ પ્રકટ કરે છે કે તે તપકને આદર ભાવપૂર્વક સ્વીકાર वामां भाव्यो हतो, " મહાનુભાગ ”થી તેમાં અચિત્ત્વ અતિશયતા પ્રકટ થાય છે એટલે કે તે તપઃકાં મહાપ્રભાવ યુક્ત હતાં અને મેાક્ષ સાધનભૂત હાવાને કારણે તેઓ ક યના કારણભૂત હતાં. 66 તે સયત એવેા વિચાર કરે છે કે આવા આવા તપઃકર્મોને અહુત ભગવન્તાએ આચરણીય ગણીને જે અગીકાર કરી લીધાં હતાં તે આલ્યુપગમિકી વેદનાને (બ્રહ્મચર્ય, ભૂમિશયન, કેશલુચન, આતાપના આદિ જન્ય વેદનાને ) અને ઔપમિકી વેદનાને ( જવર, અતિસાર આદિ રાગજન્ય વેદ १३० " " ܕܕ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटीका स्था०४०३ ०२७ साधौ सुखशय्यानिरूपणम् ( तत्र भवा=पक मिकी तां वेदनां सम्यग् नो सहे मुखाद्यविकार करणेन कथं तो सहन करोमि ?, सम्यग् नो क्षमे कोपाभावेन, तथा सम्यङ्कनो तितिक्षे अदीनभावेन, तथा - सम्यङ् नो अध्यासनामि अध्यासोऽवस्थानं तं न करोमीत्यध्यासयामि, तस्यामेव वेदनायां निश्चलतया कथं न तिष्ठामि ? च पुनः मम खलु आस्युप गामिकी औपक्रमिक च वेदनाम्, असहमानस्य - अक्षममाणस्य, अतितिक्षमाणस्य अध्यासयत किं ' मने ' इति मन्ये, अयं वितर्कार्थी निपात: क्रियते ? = किं भवति ? इति वितर्के माह - " एगंतसो " इत्यादि, मे मम एकान्तश - एकान्तेन सर्वथा पापं कर्म क्रियते भवति । तथा च तामेव वेदनां सम्यक् सहमानस्य क्षममाणस्य वितिक्षमाणस्य अध्यासनश्च मम खलु किं क्रियते ? - किं भवति', एकान्तशो मम निर्जरा क्रियते भवति । इति चतुर्थी सुखशय्या । ० २७ ॥ वेदनाको जोकि - आयुःक्षयका साधन है "नो सहे" भली भांति सुखादिके ऊपर उदासीनता लाये बिना ही मध्यस्थ भावले नहीं सहूं, "नो क्षये" क्रोधादिका अभाव करके अभिवादनपूर्वक सम्यक् प्रकारसे क्यों न सहूं " नो तितिक्षे " अच्छी तरह बिना दीनता दरसाये क्यों न मध्यस्थ भावसे सहूं, " नो अध्यासयासि " क्यों न उसे सहन करने के लिये मैं डटा रहूं-अडोल रहूं, यदि मैं ऐसा नहीं करूंगा तो मुझे सर्वथा ज्ञानावरणीयादि कर्मले दुःखरूपी कैदखाने में रहना पडेगा मैं कर्मों से ही लिप्स बना रहूंगा और जो उस वेदना आदिको सह लेता हूं तो एकान्ततः मेरे माँकी निर्जरा हो जाती है इस प्रकारकी विचारधारा रूप यह चतुर्थी सुखशय्या है ॥। ३०२७ ॥ નાને) શા માટે હું' સમતાભાવે સહન ન મરૂ ? તેને એવા વિચાર આવે છે કે આ વેદનાએ તેા કનિજ રા કરીને આયુષ્ય કર્માંના ક્ષય કરનારી છે. નો सहे'। तेो ते वेहनाने शा भाटे समता लावपूर्व ४-भुमाहि पर उहासीनताना लाव साव्या विना हुँ सहुन न 3 ? " नो क्षमे " धाहिना त्यागपूर्व अभि (" વાદનપૂર્વક તેને કેમ સહન ન કર્| नो तितिक्षे" मद्दीन लावे - मध्यस्थ लावे तेने शा भाटे सहन न ४३ ! " नो अध्यास्यामि " तेने सन ४२वाने શા માટે દૃઢતાપૂર્વક તત્પર ન ખતું ! જો હું એવું નહીં કરૂં તે મારે જ્ઞાનાવરણીય આદિ કરૂપી કારાગૃહમાં દુખ જ સહન કરવું પડશે−હું કર્મોનું આવરણ હઠાવવાને સમર્થ થઈ શકીશ નહી. જો હું તે વેદના આદિને સમતા ભાવે સહન કરી લઇશ તા મારા કર્મોની એકાન્ત રૂપે નિર્જરા થઈ જશે, આ પ્રકારની વિચાર ધારાથી પ્રેરાઈને તે ધર્મભ્રષ્ટ થતે નથી, પણ ધર્મના આરાધક મનીને પેાતાના સંસાર ઘટાડે છે. । સૂ ૨૭ ! " Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो ___ पूर्व दुःखशय्याः सुखशय्याश्चोक्ताः तद्वन्तो गुणरहिता गुणसम्पन्नाश्च भवन्ति, तदर्थ किं करणीयम् ? इति दर्शयितुं सूत्रद्वयमाह-- मूलम्-चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा-अविणीए १, विगइपडिबद्धे २, अविओसवियपाहुडे ३, साई ॥ चत्तारि वायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा-विणीए १, अविगइ-पडिबद्धे २, विओलवियपाहुडे ३, अमाई । सू० २८ ॥ छाया-चत्वारोऽवाचनीयाः प्रज्ञप्ताः, तबधा, अविनीतः १, विकृतिपतिबद्धः २, अव्यवमितमाभृतः ३, मायी ४१ चत्वारो वाचनीयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विनीतः १, अविकृतिप्रतिवद्धः २, व्यवशमितप्राभृतः ३, अमायी ४।।मु० २८ ।। टीका-" चत्तारि अवायणिज्जा" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-अवाचनीयाःवाचनाया अयोग्याः अविनीतः-विनयरहितः १, विकृतिप्रतिवद्धः-विकृतिः ये कही गई दुःखशय्याओंवाले गुणरहित और गुणसम्पन्न जीव होते हैं इसके लिये क्या करणीय है इस बातको दिखाने के लिये सूत्रकार कहते हैं " चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता" इत्यादि २८ ___ चार अवाचनीय कहे गये हैं जैसे अविनीत-१, विकृति प्रतिबद्ध २ अव्यवशासित प्राभृत-३ और मायी-४, जो वाचनाके अयोग्य होते हैं वे अवाचनीय हैं। जो विनय रहित होते हैं-३ अविनीत हैं-२ घृतादि रूप विकृति विगयमें जो प्रतिबद्ध होते हैं, आसक्त होते हैं वे विकृतिप्रतिबद्ध हैं और जिनका आया हुवा तीत्र क्रोध उपशान्त ઉપર્યુક્ત દુઃખશવ્યાએવાળા ગુણરહિત અને ગુણસંપન્ન જીવ હોય છે તેમને માટે શું કરવું જોઈએ તે વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે छे-" चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता" त्या (२८) ચાર અવાચનય કહ્યા છે–જેમકે (૧) અવિનીત, (૨) વિકૃતિ પ્રતિબદ્ધ (૩) અવ્યવશમિત પ્રાભૂત અને (૪) માયી. જે છ વાચનાને પાત્ર હતા નથી તેમને અવાચનીય કહે છે. જેઓ વિનયરહિત હોય છે તેમને અવિનીત કહે છે. ઘી આઢિ રૂપ વિકૃતિમાં જે પ્રતિબદ્ધ (આસક્ત) હોય છે તેમને વિકૃતિપ્રતિબદ્ધ કહે છે. જેને ક્રોધ અતિ તીવ્ર હોય છે જેને ક્રોધ કઈ પણ પ્રકારે ઉપશાત થતો નથી તેને અનુપશાન્ત કોષ સમાપન્ન અથવા તીવ્ર Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था०४ उ.३ सू २९ चतुर्विधपुरुषजातविषकचतुर्दशचतुर्भङ्गीनि० १३३ घृतादिरूपा, तत्र प्रतिबद्धः-आसक्तः २, अव्यवशमितप्राभृतः-अव्यवशमितम्अनुपशान्तं प्राभृतं-मामृतमिव प्राभृतम्-उपायनवदागतं तीनोधरूप वस्तु यस्य स तथा अनुपशान्तकोपसम्पन्नः ३, मायी-माया-कपटमस्यास्तीति मायी-छलयुक्तः ४। इति । ____तथा चत्वारो विनीतादयो वाचनाया योग्या भवन्ति, इति प्रदर्शयति-चत्तारि वायणिज्जा" इत्यादिना, स्पष्टमेतत् , नवरं-विनीतः-विनयसम्पन्नः १, अविकृ. तिप्रतिवद्धः-घृतादिविकृत्यनासक्तः, व्यवशमितप्राभूतः-कोपवर्जितः ३, अमायी. मायारहितः ४। इति । सू० २८ । पूर्व वाचनीया बाचनीयाश्च पुरुषा अभिहिताः, सम्मति पुरुषाधिकारात् पुरुषविशेषान् प्रतिपादयितुं चतुर्दश चतुर्भङ्गीप्रतिवद्धं सूत्रप्रवन्धमाह- मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-आयभरे णाममेगे णो परंभरे १, परंभरे णासमेगे णो आयंभरे २, एगे आयंभरेऽवि परंभरेऽवि ३, एगे णो आयंभरे णो परंभरे ४ (१) चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा-दुग्गए णाममेग दुग्गए १, दुग्गए णाममेगे सुग्गए २, सुग्गए णाममेगे दुग्गए ३, सुग्गए णाममेगे सुग्गए ४ (२) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-दुग्गए गाममेगे दुव्वए १, दुग्गए णाममेगे सुव्बए २, सुग्गए णाममेगे दुव्वए ३, सुग्गए णाममेगे सुव्वए ४। (३) चत्तारि पुरिसजाया. पण्णत्ता, तं जहा-दुग्गए णामसेगे दुप्पडियाणंदे १, दुग्गए णममेगे सुप्पडियाणदे० ४, (४) नहीं होता है वे अनुपशान्त कोप समापन हैं, अर्थात् तीव्र क्रोधी हैं। छल-कपटवाले जो होते हैं वे मायी हैं । इनसे विपरीत जो हों, अर्थात विनीत आदि होते हैं वे वाचनाके योग्य हैं । सू०२८॥ ફોધી કહે છે જેઓ છળકપટવાળા હોય છે તેમને મારી કહે છે અવિનીત આદિથી વિપરીત એટલે કે વિનીત આદિ છ વાચનાને ગ્ય ગણાય છે. સારા Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ स्थानास्त्र चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-दुग्गए णाममेगे दुरगइगामी १, दुग्गए णाममेगे सुग्गइगासी० ४, (५) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-दुग्गए णाममगे दुग्गइं गए १, दुग्गए णाममेगे सुगई गए २, (६) चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा--तमे णाममेगे तमे १, तसे णाममेगे जोई २, जोई णाममेगे तमे ३, जोई णाममेगे जोई । (७) चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--तमे णाममेगे तमबले १, तमे णाममेगे जोइवले २, जोई णाममेगे तमवले ३, जोई णाममेगे जोइलले ४ (८) ___चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--तमे णाममेगे तमबलपलज्जणे १, तसे णासमेगे जोइबलपलज्जणे० ४। (९) चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा- परिणायकम्से णाममेगे णो परिषणायलन्ने १, परिणायसन्ने नाममेगे नो परिप्रणायकम्मे, २, एगे परिणायकम्मेऽवि परिण्णायसन्नेऽवि ३ 'एगे नो परिणायकम्मे नो परिणायसन्ने ४॥ (१०) __ चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा परिण्णायकम्मे णाममेगे णो परिणगायगिहावासे, परिणायगिहावासे णाममेगे णो परिणायकम्मे० ४। (११) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--परिन्नायसन्ने नाममेगे नो परिन्नायगिहावासे, परिन्नायगिहावासे णाममेगे नो परिन्नायसन्ने० ४। (१२) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०४४०३सू०२९ चतुर्विधपुरुषजातविषयकचतुर्दशचतुर्भङ्गीनि० १३५ चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा- इहत्थे णाममेगे णो परत्थे १, परत्थे णाममेगे णो इहत्थे० ४॥ (१३) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--एगेणं णाममेगे वड्डइ एगेणं हायइ १, एगेणं णाममेगे वड्इ दोहिं हायइ २, दोहिं णाममेगे वड्डइ एगणं हायइ ३, दोहिं णाममेगे वड्डइ दोहिं हायइ (१४)॥ सू० २९॥ छाया-चत्वारि पुरुषजातानि प्रजातानि, तद्यथा-आत्मम्भरिनोमैको नो परमरः १, परमरो नामैको नो आत्मम्भरिः २, एक आत्मम्भरिरपि परभरोऽपि ३ एको नो आत्मम्मरिनों परभरः ४। (१) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा दुर्गतो नामैको दुर्गतः१, दुर्गतो नामैकः शुगतः २, सुगतो नामैको दुर्गतः ३, सुगतो नामकः सुगतः ४। (२) । - पुरुष विशेषोंका प्रतिपादन करनेके लिये अब सूत्रकार चतुर्दशी प्रतिबद्ध स्त्र प्रयन्धका कथन करतेहैं"चत्तारि पुरिलजाया पण्णता" इत्यादि सूत्रार्थ-पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे आत्मभरि नो परभर १ परभर नो आत्मम्भरि-२ आत्मभर भी परभरभी-३ नो आत्मम्भरि नो परभर-४ ॥ १॥ . पुनश्च-पुरुष जात चार कहे गये हैं, दुर्गत दुर्गत नामवाला १ दुर्गत सुगत नामवाला २ सुगत दुर्गत नामवाला ३ और सुगत सुगत नामवाला ४ (२) પુરુષ વિશેનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે હવે સૂત્રકાર ૧૪ ભાંગાઓથી प्रतिमद्ध सूत्रानू थन ४२ छ- 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णता" त्याहસૂત્રાર્થ–ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યું છે –(૧) આત્મભરી ને પરભર (સ્વાર્થ સાધકને આત્મસારી અને પરાર્થસાધકને પરભર કહે છે) (૨) પરભર ને मात्ममार, (3) मात्मभर भने ५२१२ मन (४) न माम मरिन। ५२१२ (१) આ પ્રમાણે પણ ચાર પ્રકારના પુરુષો કહ્યા છે–(૧) દુર્ગત દુર્ગત नामपाणी, (२) दुत सुगत नामवाणा, (3) सुगत-दुगत नामवाणी भने (४) सुगत सुगत नाभवाणी (२) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना चत्वारि पुरुष नातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-दुर्गतो नामैको दुतः १, दुर्गतो नामकः सुत्रतः २, मुगतो नामको दुतः ३, सुगतो नामै कः सुव्रतः ४, (३) चत्वारि पुरुष नातानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-दुर्गतो नामैको दुष्प्रत्यानन्दः १, दुर्गवो नामैकः सुप्रत्यानन्दः ४। (४) ___चत्वारि पुरुषजानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-दुर्गती नामैको दुर्गतिगामी १, दुर्गतो नामैकः सुगतिगामी० ४। (५) ____चत्वारि पुरुपजातानि प्रजातानि, तद्यथा,-दुर्गतो नामैको दुर्गतिं गतः १, दुर्गतो नामैकः मुगतिं गत० ४। (६) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-तमो नामैकस्तमः १, तमो नामैको ज्योतिः २, ज्योति मै रुस्तम ३, ज्योति मैको ज्योतिः ४। (७) फिरभी-पुरुष जात चार कहे गये हैं, दुर्गन दुव्रत १ दुर्गत सुव्रतर सुगत दुर्ग्रन ३ और सुगत-सुव्रत ४ (३) पुनश्च-पुरुप जात चार कहे गये हैं, दुर्गत दुष्प्रत्यानन्द-१ दुर्गत लुप्रत्यानन्द० (४) पुनश्च-पुरुष जात चार कहे गये हैं, दुर्गत दुर्गतगामी १ दुर्गत सुगतिगामी० ४ (५) फिर भीपुरुष जात चार कहे गये हैं, दुर्गत दुर्गतिङ्गत-१ दुर्गत सुगतिङ्गल० ४ (६) पुनश्च-पुरुष जात चार कहे गये हैं, तमस्तम स्वरूप १ तमो ज्योतिः स्वरूप २ ज्योतिस्तमः स्वरूप ३ ज्योतिया॑तिः स्वरूप ४ (७) quी पुरुषना मी प्रमाणे यार ४२ प ५ छ-(१) दुर्गत-दुर्बत, (२) दुर्गत-सुनत, (३) सुगत-हुत मन (1) सुगत-सुव्रत (3) આ પ્રમાણે પણ ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે–(૧) દુર્ગત-દુપ્રત્યાनन्द, (२) दुर्गत सुप्रत्यानन्द त्याहि या२ प्रा२. (४) मा प्रमाणे 4 बार १२ना पुरुष ४ा छ-(१) हुत-दुगत. भी, (२) गत-सुरातभाभी ध्याह या२ ४२ (५) मा प्रमाणे पाणु या२ प्रा२ना पुरुष हा छ-(१) दुर्गत-दुर्गात गत, (२) हुत-सुगतिगत त्याहि या२ ॥२ (6) આ પ્રમાણે ચાર પ્રકારના પુરુષે પણ કહ્યા છે–(૧) તમરતમ સ્વરૂપ (२) तभी याति:१३५, (3) ज्योतिरतम २१३५ मन (४) ज्योति ज्योति २१३५ (७) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४४०३०२९ चतुर्विधपुरुषजातविषयकचतुर्दश चतुर्भङ्गी नि० १३७ चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा तमो नामैकस्तमोवलः १, तमो नामैको ज्योतिर्वलः २ ज्योतिनिमिकस्तमोवलः ३, ज्योतिनको ज्योतिर्वलः ४ (८) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा तमो नामैकस्तमोवलः प्रज्वलनः १, तमो नामैको ज्योतिर्बलः प्रज्वलनः ४। ( ९ ) 1 चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञतानि तद्यथा- परिज्ञातकर्मा नामैको नो परिज्ञातसंज्ञः १, परिज्ञातसंज्ञो नामैको नो परिज्ञातकर्मा २, एकः परिज्ञानकर्माऽपि परि ज्ञातसंज्ञोऽपि ३, एको नो परिज्ञातकर्मा नो परिज्ञातसंज्ञः ४ । (१०) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - परिज्ञातकर्मा नामैको नो परिज्ञातगृहवासः १, परिज्ञातगृहावासो नामैको नो परिज्ञातकर्मा ० ४ । ( ११ ) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - परिज्ञातसंज्ञो नामैको नो परिज्ञातगृहाऽऽत्रासः १, परिज्ञातगृहावासो नामैको नो परिज्ञातसज्ञः ० ४। (१२) पुनश्च - पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे तमस्त मोबल १ तमो ज्योति बलर ज्योति तमो वल ३ और ज्योति ज्योतिबल ४ (८) पुनश्च - पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे तमोवल प्रज्वलन १ तमो ज्योतिबल प्रज्वलन० ४ (९) पुनश्च पुरुष जान चार कहे गये हैं जैसे परिज्ञात कर्मा नो परिज्ञात संज्ञ १ परिज्ञात संज्ञ नो परिज्ञात कर्मा २ परिज्ञान कर्मा भी परिज्ञात संज्ञ भी ३ और नो परिज्ञान कर्मा नो परिज्ञात संज्ञ० ४ (१०) पुनश्च - पुरुष जान चार कहे गये हैं जैसे परिज्ञात कर्मा नो परिज्ञात गृहावास १ परिज्ञात गृहावास नो परिज्ञात कर्मा० ४ ( ११ ) फिर भी - पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे परिज्ञात संज्ञ नो परिज्ञात गृहावास १ परिज्ञात गृहावास नो परिज्ञात संज्ञ० ४ (१२) પુરુષાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણુ પડે છે—(૧) તમસ્તમા ખલ, (२) तभो ज्योतिणस, (3) ज्योति तमोमंस भने (४) ज्योति ल्योतिषस (c) પુરુષાના નીચે પ્રર્થે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે—(૧) તમેામલ પ્રજાसन, (२) तभी न्योतिषस अन्वसन इत्यादि यार प्रहार (2) નીચે પ્રમાણે ચાર પુરુષ પ્રકાર પણ કહ્યા છે—(૧) રિજ્ઞાતકમાં ના પરિજ્ઞાત સજ્ઞ (ર) પિરજ્ઞાત સૌંસ ને પિરજ્ઞાત કર્મો, (૩) પિરજ્ઞાતકર્મો અને પિરજ્ઞાત સજ્ઞ (૪) ને પિરજ્ઞ તકમાં ના પિરજ્ઞાત સંજ્ઞ (૧૦) પુરુષના આ પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે—(૧) પરજ્ઞાતકર્મો ના પરિજ્ઞાત ગૃહાવાસ, (૨) પરિજ્ઞ'ત ગૃહાવાસના પરિજ્ઞાત કર્યાં ઈત્યાદિ यार प्र५|२. (११) પુરુષના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે—(૧) પરિજ્ઞાત સ’જ્ઞ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ स्थानाङ्गसूत्रे चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - इहार्थी नामैको नो परार्थः १, परार्थो नामको नो इहार्थ : ० ४। (१३) चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि तद्यथा - एकेन नामैको वर्धते एकेन हीयते १, एकेन नामैको वर्धते द्वाभ्यां हीयते ० ४ । (१४) ० २९) । टीका - " चतारि पुरिसजाया" इत्यादि - चत्वारि पुरुषजातानि मझप्तानि, तथा - एकः कश्चित् पुरुषः आत्मम्मरिः- आत्मानं विभर्ति - पुष्णातीति आत्ममरि:- स्वाकारको भवति, किन्तु नो परंभः - परार्थसाधको न भवति, स च जिनकल्पिकः । इति प्रथमो भङ्गः । १ । तथा - एकः परभरी भवति न तु आत्मम्भरिः, स च परार्थसाधको भगवानईन्, तस्य सकलस्वार्थसमाप्त्या परेषां पर फिर भी - पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे-ईहार्थ नो परार्थ१ परार्थ नो इहार्थ० ४ (१३) फिर भी - पुरुष जात चार कहे गये हैं, जैसे एकसे बर्द्धमान, एकसे हीयमान १ एकसे वर्द्धमान दोसे हीयमान० ४ (१४) इस २९ सूत्रका सारांश ऐसा है प्रथम इसके सूत्रमें जो पुरुष जात चार प्रकार के प्रकट किये गये हैं, उनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो केवल आत्मंभरि होता है - अपनाही पोषण करनेघाला होता - स्वार्थ साधक होता है परार्थ साधक नहीं होता है अर्थात् स्वार्थी १ इस भंग में जिनकल्पिक साधु आते हैं । द्वितीय भंग में परार्थ साधक भगवान् अर्हन्त आते हैं क्योंकि ये आत्मंभरि नहीं होते हैं परार्थ साधक होते है । इनमें सकल स्वार्थ ના પરજ્ઞાત ગૃહાવાસ, (૨) પરિજ્ઞાત ગૃહવાસ ના પરિજ્ઞાત સંગ્ન ઇત્યાદિ यार १४:२ (१२) - डार्थ न परार्थ', નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકારના પુરુષા પણુ કહ્યા (२) परार्थ ना हाथ हत्याहि यार अठार (13) પુરુષના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે—(૧) એકમાં વદ્ધમાન એકમાં દ્વીયમાન, (૨) એકમાં વમાન અને પ્રેમાં ીયમાન ઇત્યાદિ તે यार प्रहारे. (१४) પહેલા સૂત્રના ભાવાય~પહેલા ભાંગાના ભાવાથ નિચે પ્રમાણે છેકોઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે કેવળ આત્મભિર (પેાતાનું જ પાણ કરનારા અથવા સ્વાર્થ સાધક) હાય છે, પણ પરા સાધક હાતા નથી. જિન કલ્પિક સાધુને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય. બીજા ભાંગાના ભાવાર્થ-કોઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે પરાય સાષક હોય છે પશુ સ્વાસ્થ્ય સાધક હાતા નથી. આ પ્રકારમાં અસ"ત ભગવાન Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुधा टीका स्था०५३०३सू०२९ चतुर्विधपुरुषजातविषयकचतुर्दशचतुर्भङ्गीनि० १३६ मानन्दसन्दोहप्रापकत्वात् । इति द्वितीयो भङ्गः । २ । तथा-एकः पुरुषः आत्ममरिः परभरश्च भवति, स च स्वपरार्थकारी स्थविरकल्पिकः, तस्य विहितानुष्ठा. नेन स्वार्थकारित्वाद् विधिवत् सिद्धान्तदेशनया च परार्थकारित्वात् । इति तृतीयः । ३ । तथा-एको नाऽऽत्मम्भरिनै च परभरः, सचोभयानुपकारी मुग्धबुद्धिः कोऽपि पुरुषः । यदा-यवाच्छन्दः । इति चतुर्थ ४। इदं भङ्गचतुष्टयं लोकोत्तरपुरुषमपेक्ष्य । लौकिकपुरुषापेक्षयाऽपि यथायोग्यं भङ्गचतुष्टयं योजयितव्यम् । ।४ । (१) समाप्त हो जाते हैं और ये दूसरों को परमानन्द संदोह के प्राप्त करने वाले होते हैं। तृतीय भंग में स्वपरार्थकारी स्थविर कल्पिक आता है क्योंकि धार्मिक अनुष्ठानों से यह अपना भी भला करता है और विधिवत् सिद्धान्तकी देशना द्वारा अन्य जीवोंका भी भला करता है। चतुर्थ भंगमें स्वपर अनुपकारी कोई भी मुग्ध धुद्धिवाला (विवेक रहित) पुरुष आता है क्योंकि ऐसा पुरुष न आत्मभरि होता है और न परका हित साधक होता है अथवा जो स्वेच्छाचारी होता है वह भी इम भंगके अन्तर्गत होता है ये इस प्रकार के चार भंग लोकोत्तर पुरुषकी अपेक्षा से व्याख्यात किये हैं। पर जो लौकिक पुरुष हैं उनकी अपेक्षा से भी इनका यथायोग्य व्याख्यान करना चाहिये (१) આવી જાય છે કારણ કે તેઓ સ્વાર્થ સાધક હોતા નથી પણ પરાર્થસાધક હોય છે પરમાનન્દ સંદેહ (સમૂહ) પ્રાપ્તિ કરાવનારા હોય છે. ત્રીજા ભાંગામાં સ્વાર્થ સાધક અને પરાર્થસાધક સ્થવિર કલ્પિકને ગણાવી શકાય છે, કારણ કે ધાર્મિક અનુષ્ઠાનેથી તેઓ પિતાનું પણ ભલું કરે છે અને સિદ્ધાન્તની દેશના દ્વારા અન્ય જીનું પણું ભલું કરે છે. સ્વપર અનુપકારી કઈ પણ મુગ્ધ બુદ્ધિવાળા (વિવેક રહિત) પુરુષને ચોથા ભાંગામાં સમાવેશ થાય છે કારણ કે તે પુરુષ આત્મભરિ (સ્વાઈ સાધક-પિતાનું હિત સાધનારે) પણ હતું નથી અને અન્યનું હિત સાધ નારે પણ હાત નથી. અથવા જે સ્વેચ્છાચારી (સ્વછંદી) હોય છે તેને પણ આ ભાંગામાં સમાવેશ થાય છે. લેકેત્તર પુરુષની અપેક્ષાએ આ ચાર ભાંગાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. લૌકિક પુરુષની અપેક્ષાએ પણ આ ચાર ભાંગાનું યથાય કથન થવું જોઈએ. કે. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० . स्थानागपत्र ___ अनन्तरं चतुर्थभङ्गे उभयानुपकारी मोक्तः, स च दुर्गत एव भवितुमर्हनीति दुर्गतं निरूपयितुमाह-" चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-स्पष्टमू , नबरम्एकः पुरुपो दुर्गतः-पूर्व धनहीनत्वात् ज्ञानादिरत्नहीनत्वाद्वा दरिद्रः, स एव पश्चादपि दुर्गतः, अथवा-पूर्व द्रव्यतो दुर्गतः, पश्चाद् भारतो दंगतो भवतीति प्रथमो भङ्गः । १ । एवं शेषभङ्गत्रयं बोध्यम् । तत्र केवलं सुगतः-द्रव्यतो धनसम्पन्नः, भावतस्तु ज्ञानादिरत्नसम्पन्नः सुगतपदेन बोध्यः ।४। (२) पूर्व दुर्गत उक्तः, स च कश्चिद् व्रती भवितुमर्हतीति दुर्गतमूत्रं निरूपयितुमाह-" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-एकः पुरुषः दुर्गत:___यहाँ चतुर्थ भङ्ग में जो दोनों के अनुपकारी कहा गया है वह दुर्गता (दरिद्र)ही हो सकताहै अतःअव मन्त्रकार उस दुर्गतकी निरूपणा करते हुए कहते हैं कि कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले से ही धन हीन होता है अथवा ज्ञानादि रूप रत्नसे रहित होता है दरिद्र होना है और आगे चलकर भी ऐसा ही धना रहता है अथवा पहिले जो दुर्गन द्रव्य की अपेक्षा दरिद्र होता है याद में भावकी अपेक्षा भी वह दुर्गन धन जाता है ऐसा वह पुरुष द्वितीय सूत्रगत प्रथम भंग में गिना गया है इसी प्रकार से शेष भंगत्रय भी कथित कर लेना चाहिये सुगत सुगत नामका जो यहां भंग है उसका तात्पर्य ऐसी है कि कोई एक ऐसा होता है जो द्रव्यसे सुगत संपन्न होता है और ज्ञानादि रत्नरूप भावसे भी संपन्न होता है (२) અહીં ચોથા ભાંગામાં જે બન્નેના અનુપકારી પુરુષ કહ્યો છે તે દુર્ગા જ હોઈ શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર તે દુર્ગતની પ્રરૂપણ કરે છે– કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલેથી જ ધનહીન હોય છે અથવા જ્ઞાનાદિ રૂપ રત્નથી રહિત હોય છે-દરિદ્ર હોય છે અને ભવિષ્યમાં પણ એ જ ચાલુ રહે છે અથવા પહેલા જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ દુર્ગત હોય છે તે પાછળથી ભાવની અપેક્ષાએ પણું દુર્ગત બની જાય છે. એવા પુરુષને બીજા સૂત્રના પ્રથમ ભાગમાં સમાવેશ થાય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાગાને ભાવાર્થ પણ સમજી લે, અહીં “સુગત-સુરત” નામને જે ભાંગે છે તેનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ સુગત સંપન્ન હોય છે અને જ્ઞાનાદિ રત્નરૂપ ભાવથી પણ સંપન્ન હોય છે. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४३०३ सू०२९ चतुर्विधपुरुष नातविषयकचतुदशचतुर्भङ्गीनि० १४१ दरिद्रः सन् दुर्बत:-अप्सम्यग्वनो भवति, यद्वा-' दुव्यए' इत्यस्य दुर्व्यय इत्यर्थः, स चाऽऽयनिरपेक्षव्ययः, यद्वा-कुस्थानव्यय इति प्रथमो भङ्गः । १। तथा एका पुरुषो दुर्गतः सन् सुव्रतः-निरतिचारनियमो भवति, यद्वा-सुव्ययः-मुस्थाने समुचितव्ययकारको भवति । इति द्वितीयः । २ । तथा-एकः सुव्रतः सन् दुव्रतो दुर्व्ययो वा भवति, इति तृतीयः । ३ । तथा-एकः सुव्रतः सुख्पयो वा सन् पश्चादपि सुव्रत एव सुव्यय एव वा भवति । इति चतुर्थः । ४ । (३) ___ "चत्तारि पुरिसजाया” इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तघथा-एको दुर्गतः सन् दुष्प्रत्यानन्दः-दुःखेन प्रत्यानन्धते-आनन्द प्राप्यत तृतीय सूत्रगत जो चार भंग हैं दुर्गत दुव्रत आदि रूपसे कहे गये हैं उनका तात्पर्थ ऐसा है कि कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो दरिद्र होता है और सम्यग् व्रतसे रहित भी होता है अथवा-" दुचए"। की संस्कृतच्छाया " दुर्व्यय" ऐसी भी होती है ऐसा व्यक्ति आय निरपेक्ष व्यय करता है अथवा-कुस्थान में व्यय करता है। कोई एक व्यक्ति ऐसा भी होता है जो दुर्गत होता हुआ भी नियतिचार नियमवाला होता है अथवा-स्थानमें समुचित व्यय करनेवाला होता है अथवा अपनी आमदनीके अनुसार व्यय करताहै तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो सुव्रत संपन्न होकर भी दुर्व्ययकारक सावध व्यापार में द्रव्यादि लगानेवाला होता है और कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सुव्रत संपन्न ही होता है और सुव्ययकारक भी होता है (३) ત્રીજા સૂત્રના ચાર ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ-(૧) દુર્ગત-દુતને ભાવાર્થ કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દરિદ્ર પણ હોય છે અને સમ્યગવ્રતથી २डित ५ डाय छ अथवा "दुव्वए" मा पहनी संस्कृत छ.या "दुर्व्यय" દુર્વ્યય થાય છે આ સંસ્કૃત છાયા પ્રમાણે આ ભાંગાને નીચે પ્રમાણે ભાવાર્થ થાય છે—કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે પિતાના ધનનો દુર્વ્યય કરે છે અથવા આવકને વિચાર કર્યા વિના ખર્ચ કરે છે, અને સમ્યવ્રતથી પણ રહિત હોય છે. (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દુર્ગત હવા છતાં પણ નિરતિચાર નિયમવાળો હોય છે, અથવા સુસ્થાનમાં સમુચિત વ્યય કરનારે હોય છે અથવા પિતાની આમદાની પ્રમાણે વ્યય કરનારો હોય છે કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સુવ્રત સંપન્ન હોવા છતાં પણ દુર્ભય. કારક સાવદ્ય વ્યાપારમાં દ્રવ્યાદિને વ્યય કરનારો હોય છે (૪) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સુવ્રત સંપન્ન પણ હોય છે અને સુવ્યયકારક પણ હોય છે, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ स्थानासत्र इति दुष्प्रत्यानन्दः-उपकारिणा कृतमुपकारं नाभिमन्यते तथाविधो भवति १, तथा-एकः पुरुषो दुर्गतः दरिद्रः सन्नपि सुप्रत्यानन्दः-उपकृत जनकृतोपकारमन्ना भवति २। एकः सुगतो दुप्पत्यानन्दो भवति ३। एक सुगतः सुप्रत्यानन्दो भवति । १ । (४) ____ " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-दुर्गतो नामैकः पुरुषो दुर्गतिगामी-दुर्गति-नरकादिगति गमिप्यतीति दुर्गतिगामी नरकतिर्यगादिकुगतिगमनशीलो भवति । तथा-एको दुर्गतः मुग____चतुर्थ सूत्रगत जो चार भंग प्रकट किये गये हैं-उनका तात्पर्य ऐसा है कि कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो दुर्गत होता है और घडी कठिनता से आनन्द को प्राप्त कराया जाता है ऐसा मनुष्य उपकारियोंके उपकार को नहीं मानता है तथा कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो दुर्गत तो होता है पर उपकार करनेवाले के उपकारको मानता है २ कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सुगत धनादि संपन्न होता है पर वह दुष्पयत्यानन्द (आनन्दित) नहीं होता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सुगत भी होता है सुप्रत्यानन्द भी होता है उपकार करनेवाले के उपकारको मानने वाला भी होता है (४) पांचवें सूत्र में जो चार प्रकारके पुरुष कहे गये हैं-उनका सारांश ऐसा है कि एक पुरुप ऐसा भी होता है जो दुर्गत दरिद्र होता है और दुर्गतिगामि नरकादि गतिमें जावेगा ऐसा होता है १ नरक-तिर्यग ચેથા સૂત્રના ચાર ભાગાનું સ્પષ્ટીકરણ–(૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દુર્ગત હોય છે અને ઘણું મુશ્કેલીથી આનંદિત કરી શકાય એ હોય છે એ પુરુષ ઉપકારીઓના ઉપકારને જ માનતો નથી (૨) કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે દુર્ગત તે હેાય છે પણ ઉપકારી જનેનો ઉપકાર માનનારો હોય છે. (૩) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સુગત (ધનાદિથી સંપન) હોય છે, પણ ઘણી મુશ્કેલીથી ખુશ કરી શકાય એ અથવા ઉપકારીને ઉપકાર ન માનનારા હોય છે. (૪) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સુગત પણ હોય છે અને સરળતાથી ખુશ કરી શકાય એ અથવા ઉપકારીને ઉપકાર માનનારે પણ હોય છે. પાંચમાં સૂત્રના ચાર ભાગાને ભાવાર્થ–(૧) કઈ પુરુષ દુર્ગત (દરિદ્ર) પણ હેય છે અને દુર્ગતિગામી (નરકાદિ ગતિમાં જનાર) પણ હોય છે. (નરક આદિ દુર્ગતિમાં જવાના સ્વભાવવાળા પુરુષને દુર્ગતિગામી કહે Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटीका स्था०४४०३ सू०२९ चतुर्विधपुरुषजातविषय कच्चतुर्दशच्चतुर्भङ्गी नि० १४३ तिगामी - देवादियुगतिगमनशीलो भवति । २ । तथा-एकः सुगतो दुर्गतिगामी भवति ३ | तथा - एकः सुगतः सुगतिगामी भवति । ४ । ( ५ ) " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि - पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथां - एकः पुरुषः पूर्व दुर्गतः पञ्चादपि दुर्गतिं दुष्टगतिं गतः प्राप्तो भवति, मृगापुत्रवत् १। एनद्वर्णन दुःखविपाकस्य प्रथमाध्ययनतोऽव सेयम् । १ एकः पूर्व दुर्गतः पश्चात् सुगतिं - शोमनगतिं गतो भवति दृढमहारिचौरवत् । २ । तथाएक: सुनो दुर्गतिं गतो भवति सुभूमनामकाष्टमचक्रवर्तित्रत् ३ तथा - एकः पूर्व सुगतः पचादपि सुगतिं गतो भवति भरतचक्रवर्तिवत् । ४ । ( ६ ) आदि दुर्गतियों में जिसके जानेका स्वभाव होता है ऐसा होता है । तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो दुर्गंत - दरिद्र तो होता है पर वह सुगतिगामी होता है- देवादि गतियों में जानेके स्वभाववाला होता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सुगत धनादि संपन्न होता है और दुर्गतिगामी भी होता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सुगत भी होता है और सुगतिगामी भी होता है ४ (५) छट्ठे सूत्र में जो पुरुषजात कहे गये हैं उनका सारांश ऐसा है कि कोई एक पुरुष ऐसो होता है जो मृगापुत्र की तरह पहिले से भी दुर्गंत होता है और पश्चादपि वह दुर्गतिको ही प्राप्त होता है इसके दुःखविपाकका वर्णन विपाक सूत्रके प्रथम अध्ययन से जान लेना चाहिये १, दृढ प्रहारि चौर की तरह कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले तो दुर्गत होता है और बाद में वह शोभन गतिको प्राप्त होता है २ सुभूमनामक अष्टमचक्रवर्ती की तरह कोई एक पुरुष ऐसा होता छे (२) होर्ध खेड पुरुष हुर्गंत (हरिद्र) तो होय छे पशु सुगतिभाभी (हेवाहि ગતિમાં ગમન કરવાના સ્વભાવવાળા) હાય છે. (૩) કેાઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે સુગત (ધનાદિથી સપન્ન) તે હાય છે પણ દુગ તિગામી હાય છે (૪) કેઇ એક પુરુષ સુગત પણ હોય છે અને સુગતિગામી પણ હૈાય છે. છઠ્ઠા સૂત્રના ચાર ભાંગાઓનું સ્પષ્ટીકરણ—(૧) કાઇ એક પુરુષ એવે હાય છે કે જે મૃગાપુત્રની જેમ પહેલાં પણ દુગત હેાય છે અને પાછળથી પણ ક્રુતિને પ્રાપ્ત કરનારા હાય છે. તેના દુઃખ વિપાકનું વર્ણન વિપાક સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનમાથી વાંચી લેવુ'. (૨) દૃઢપ્રહારી ચારની જેમ કંઈ એક પુરુષ પહેલાં તે દુર્ગંત હાય છે પણ પાછળથી સુગતિને પ્રાપ્ત કરનારા હાય છે (૩) સભ્રમ નામના આઠમાં ચક્રવતીની જેમ કાઈ પુરુષ પહેલાં Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ स्थामाङ्गसूत्रे ___ " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषः तमः-तम इत्र तमः-पूर्वमन्धकारतुल्यो भवति, ज्ञानरहितत्वात मकागरहितत्वाद्वा, स पश्चादपि तमः-तमासदृश एच भवतीति प्रथमो भङ्गः ।१। तया-एकः तमः पूर्व ज्ञानरहितत्वेन प्रसिद्धिरहितत्वेन वा तमस्तुल्यो भवति, स एव पश्चाद ज्योतिः-ज्योतिरिव ज्योति: ज्योतिःसदृशो भवति, उपार्जितज्ञानत्वात् लो के औदार्या दिगुणेः प्रसिद्धिमाप्तत्याद्वा इति द्वितीयः । २ । तथा-एको ज्योतिः-पूर्व ज्ञानसम्पन्नत्वेन ज्योतिस्तुल्यो भवति, स एव पश्चात् तमः-ज्ञानरहितत्वेन तमस्तुल्यो भवति । इति तृतीयः ३। तथा-एकः पूर्व ज्योतिः है जो पहिले तो सुगत होता है बादमें दुर्गतिको प्राप्त हो जाता है ३ तथा भरतचक्रवर्तीकी तरह कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो पहिले भी सुगत होता है और बाद में भी सुगतिगत होता है ४ (६) सातवें सूत्र में जो पुरुष चार प्रकारके कहे गये हैं-उनका सारांश ऐसा है कि कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले भी ज्ञान रहित होने से अन्धकार के तुल्य होता है और पीछे भी वह अज्ञानी बना रहनेके कारण अन्धकार के जैसा ही बना रहता है १ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले तो ज्ञानरहित होने से या प्रसिद्धि रहित होने से तमस्तुल्य होता है पर बाद में वही जब ज्ञानका उपार्जन कर लेता है या अपने औदार्य आदि गुणांसे प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है तब वह ज्योति के जैसा हो जाता है २, तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले तो ज्ञान संपन्न होने से ज्योति के जैसा होता है और સંગત હોય છે પણ પાછળથી દુર્ગતિને પ્રાપ્ત કરનારો હોય છે (૪) ભરત ચક્રવર્તીની જેમ કે એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ સુગત હોય છે અને પાછળથી પણ સુગતિગત પણ હોય છે સાતમાં સૂત્રમાં પુરુષોના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર બતાવ્યા છે –(૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ જ્ઞાનરહિત હોવાને લીધે અધકાર સમાન હોય છે અને પછી પણ તે જ્ઞાનરહિત જ ચાલુ રહેવાને કારણે અંધકાર સમાન જ રહે છે (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં જ્ઞાનરહિત અથવા પ્રસિદ્ધિરહિત હોવાને કારણે અંધકાર સમાન હોય છે પણ ત્યારબાદ જ્યારે તે જ્ઞાનનું ઉપાર્જન કરી લે છે અથવા પિતાના ઔદાર્ય આદિ ગુણેથી પ્રસિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લે છે ત્યારે જ્યોતિસમાન બની જાય છે. (૩) કે એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં જ્ઞાનાદિથી સંપન્ન હોવાને કારણે જાતિસમાન હોય છે, પણ ત્યાર બાદ કેઈ નિમિત્તને લઈને Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४३०३सू०२९ चतुर्विधपुरुषजातविषयाचतुर्दशचतुर्भङ्गीनि० १४५ पश्चादपि ज्योतिरेव भवति, सर्वदा ज्ञानप्रकाशसम्पन्नत्वात् । इति चतुर्थः ।४ (७) " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तथथा-एकः पुरुषः पूर्व तमः-कुकर्मकारितया मलिनस्वभाो भवति स एव पश्चात् तमोवलः-तमः-प्रच्छन्नमज्ञानं बलं सामर्थ्य यस्य स तमोबलः, यद्वातमः-अन्धकार एव बल तत्र वा बलं यस्य स तमोबलो भवति, स चासदाचारवानज्ञानी रात्रिचरो वा चौरादिः, इति प्रथमो भगः । १ । तथा-एका पूर्व तमःकुकर्मकारितया मलिनस्वभावो भवति, स एव पश्चात् ज्योतिबल:-ज्योति-नि बल यस्य स तथा ज्ञानवलप्सम्पन्नः, यद्वा-ज्योतिः-सूर्यादिप्रकाशः, तदेव तत्र बाद में किसी निमित्त वश ज्ञान रहित हो जानेसे अन्धकार तुन्य हो जाता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले ज्ञानवाला होनेले ज्योति के जैसा होता है और बाद में भी वह ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशवाला घना रहने के कारण ज्योति जैसा ही बना रहता है (७) ____ आठवें सत्रमें जो पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं-उनका सारांश ऐसा है-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले भी दुराचारी होनेसे अन्धकार तुल्य मलिन स्वभावकाला होता है और बाद में भी वह मलिन स्वभाववाला होता है ऐसा वह पुरुष असदाचारवाला होता है अथवा अज्ञानी होता है या रातमें फिरनेवाला चौर आदिजन होता है ? तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले तो तमः-कुकर्मकारी होने से मलिन स्वभाववाला होना है और वही आगे चलकर ज्योतिबल-ज्ञान ही है घल जिसका ऐसा होता है अर्थात् ज्ञानबल सम्पन्न हो जाता જ્ઞાન અથવા પ્રસિદ્ધિથી રહિત થઈ જવાને કારણે અંધકારસમાન બની જાય છે. (૫) કેઈ એક પુરુષ પહેલાં પણ જ્ઞ નથી યુક્ત હોવાને કારણે તિ, સમાન હોય છે અને પછી પણ જ્ઞાનરૂપ પ્રકાશથી પ્રકાશિત રહેવાને કારણે તિસમાન જ ચાલુ રહે છે આઠમાં સૂત્રમાં પુરુષના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–૧) કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ દુરાચારી હોવાથી અંધકાર સમાન મલિન સ્વભાવવાળે હેય છે અને આગળ જતાં પણ દુરાચારી જ રહેવાને કારણે અંધકારતુ મલિન સ્વભાવવાળે જ ચાલુ રહે છે. એ તે પુરુષ અસદાચારવાળે અથવા અજ્ઞાની અથવા નિશાચર (ચાર આદિ) હોય છે (૨) કેઈ એક પુરુષ પહેલાં તે દુરાચારી (કુકર્મકારી) હોવાથી મલિન સ્વભાવવાળો હોય છે, પણ આગળ જતાં જતિબલા જ્ઞાન જ જેનું બલ છે स०-१९ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो पा बलं यस्य स तथा भवति, सच पूर्व सदाचारसम्पन्नः पश्चाद् ज्ञानी, यहा-लुण्टको दिवसचारी, इति द्वितीयः ।। तथा-एकः पूर्व ज्योति -सत्कर्मकारितया उज्ज्य ल भावमम्पन्नो भवति, स एव पश्चात् तमोवला-मलिनस्वभावतया अज्ञानबलो. ऽन्धकारबलो वा भवति, अयं च सदाचारवान् अज्ञानी कारणान्तराद्वा रात्रिचरः। हति तृतीयः । ३ । तथा-एकः पूर्व ज्योतिः पश्चादपि ज्योतिर्वलो भवति, अयं च सदाचारी ज्ञानी दिवसचारी वा । इति चतुर्थः । ४। (८) है अथवा-ज्योति-सूर्यादिका प्रकाशही है यल जिसका ऐसा होता है, ऐमा वह पुरुष पहले असदाचार संपन्न फिर लानी होनाहै या-लुटेगहो कर दिवसचारी होताहै २,नथा कोई एक पुरुष ऐमा शेताहै जो पहिले तोज्योति:सत्सर्मकारी होने से उज्वल स्वभाव संपन्न होता है और योद में यह तमोमल-मलिन रचनाववाला बन जाता है अज्ञान रूप बलवाला हो जाता है अथवा अन्धकार में अपना दल प्रकट करनेवाला यन जाता है ऐसा पुरुष सदाचारी अज्ञानी जीव होता है, या कारणान्तरको पाकर जो मनुष्य चौर बन जाता है वह होता है तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले भी ज्योतिः-सत्कर्मकारी होने से उज्ज्वल स्वमा सम्पन्न होता है और बाद में भी वह ज्योतिघल - ज्ञानही है पल जिसका ऐसा बना रहता ज्ञानयल सम्पन्न यना रहता है अथवाતેને અથવા જ્ઞાનસંપન પુરુષને તિર્બલ કહે છે) થઈ જાય છે. અથવા સૂર્યાદિકને પ્રકાશ જ છે બળ જેનું એ થઈ જાય છે અથવા સૂર્યાદિના પ્રકાશમાં જ છે બળ જેનું એ થઈ જાય છે એ તે પુરુષ પહેલાં અસદાચાર સ પન્ન પછી જ્ઞાની હોય છે અથવા દિનચારી હોય છે. (૩) કે પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં જ્યોતિસંપન્ન ( સત્કર્મ કારી ) હોવાથી ઉજવળ સ્વભાવસંપન્ન હોય છે, પણ આગળ જતાં તે તમેબલ સંપન્ન-મલિન સ્વભાવવાળ બની જાય છે-અજ્ઞાનરૂપ બળવાળો બની જાય છે અથવા અંધકારમાં પોતાનું બળ પ્રકટ કરનારો બની જાય છે એ પુરુષ સદાચારી અજ્ઞાની જીવ હોય છે અથવા કેઈ કારણને લીધે ચોરી કરવાના કાર્યમાં પડી ગયેલ છવ હોય છે (૪) કેઈ એક મનુષ્ય એવો હોય છે કે જે પહેલાં પણ સકર્મકારી હોવાથી જેતિસંપન હોય છે અને પાછળથી પણ જ્યોતિર્બલ ( જ્ઞાન જ છે બળ જેનું એ અથવા સત્કર્મકારી લેવાથી ઉજજવલ સ્વભાવવાળો જ) ચાલુ રહે છે તિબંધ સંપનને આ પ્રકારને અર્થ પણ થઈ શકે છે–સૂર્યાદિને પ્રકાશ જ જેનું બળ હોય એવા પુરુષને તિર્બલ સંપન્ન કહે છે. અથવા સૂર્યાદિને Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधाटीका स्था०३३०३सू०२९ चतुर्विधपुरुष जातविषयकचतुर्दशचतुर्भङ्गीनि० १४७ __ " चत्तारि पुरिसजाया” इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तघधा एकः पुरुषः पूर्वतमः-दुराचारितया मलिनस्वभावो भवति, स पश्चात् तमोबल परञ्जन:-तमोऽधकार एव वलं तमोवलं, यद्वा-तमो मिथ्याज्ञानमेव वलं तमोवलं, तत्र परज्यते अनुरक्तो भवतीति तथा मिथ्याज्ञानरतिकरः, रात्रि. चरश्वोरो वा, यहा-तमएच बलं यस्मिन् यस्य वा स तमोबला-असदाचारी मिथ्याज्ञानी रात्रिचरश्चौरो वा, तत्र प्ररज्यत इति तमोवलपरञ्जनः-मिथ्याज्ञानिषुचौरेषु वाऽनुरागवान् । इति प्रथमः । १ । सूर्यादिका प्रकाश ही है बल जिसका ऐसा होता है अथवा-सूर्यादि के प्रकाश होने पर है बल जिसका ऐसा होता है ऐसा वह पुरुष सदा. चारी ज्ञानी या दिवसचारी होता है (८) आठवें सत्र में जो पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं-उनका सारांश ऐसा है-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले से तमा-दुराचारी होने से मलिन स्वभाववाला होता है और पीछे भी तमोबल प्ररञ्जन अन्धकार रूप बल में या मिथ्याज्ञान रूप बलमें ही बना रहता है या मिथ्याज्ञानमें रति करनेवाला बना रहता है ऐसा वह जीव या तो मिथ्यादृष्टि होता है या रात्रिचर-चौर होता है अथवा-तम ही है बल जिसमें-या तमही है बल जिसका ऐमा वह मनुष्य तमोघल है ऐसा वह तमोबल मनुष्य असदाचारी मिथ्याज्ञानी या रात्रिचर-चौर होता है इस तमोगल में जिसका अनुराग होता है वह तमोबल प्ररञ्जन है ऐसा तमोपल प्ररजन मिथ्याज्ञानियों में तथा चोरोंमें अनुराग रखने. પ્રકાશ થતાં જ જેને બળ પ્રાપ્ત થાય છે એવા પુરુષને યે તિર્બલ સંપન્ન કહે છે. એ તે પુરુષ સદાચારી જ્ઞાની અથવા દિવસચારી હોય છે. 'આઠમાં સૂત્રમાં નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે--(૧) કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલેથી જ તમ સંપને (દુરાચારી) હોવાથી મલિન સ્વભાવવાળો હોય છે અને પાછળથી પણ તમબલ પુ૨જન ( તબલ પ્રજવલન) એટલે કે અંધકારરૂપ બલથી અથવા મિથ્યાજ્ઞાન રૂપ બલથી સંપન્ન રહે છે એટલે કે મિથ્યાજ્ઞાનમાં જ રત રહ્યા કરે છે એવો જીવ કાં તે મિચ્છાદષ્ટિ હોય છે, અથવા રાત્રિચર ચેર' હેાય છે. અથવા તમામલો અર્થ આ પ્રમાણે પણ છેતરમ (અંધકાર)જ છે બળરૂપ જેમાં અથવા તેમ જ છે બળ જેનું એવા મનુષ્યને તમેબલ સંપન કહે છે. એ તે તમેબલ સંપન મનુષ્ય અસદાચારી, મિથ્યાજ્ઞાની અથવા નિશાચર (ચોર) હોય છે, આ તબલમાં જેને અનુરાગ હોય છે તે પુરુષને તમેબલ પ્રરંજન કહે Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ स्थानासूत्र ___तथा-एकरतमः-पूर्व दुराचारितया मलिनस्वभावः सनपि पश्चात् ज्योतिचलमरञ्जन:-ज्योति-नि-सूर्यादिप्रकाशो वा, तदेव बलं ज्योनिलं, तत्र परज्यत इति तथा असदाचारी ज्ञानानुरागी दिवाचौरी वा, पहा-ज्योतिरेव बलं यस्य स ज्योति लो ज्ञानी दिवाचीरो वा, तत्र प्ररज्यत इति तया-ज्ञानिपु दिवाचौरेषु वा अनुरागवान् । इति द्वितीयः।२।। तथा-एको ज्योति:-सदाचारितया सुस्त्रमावः सत्यपि तमोवलपरजनो मिथ्याज्ञानादिरतिकरो भवति, सदाचारवान् अन्नानी रात्रिचरोवेनि । तीयः ।। ____ तथा-एको ज्योति:-पूर्व सदाचारितया सुस्वभावो मपति, पश्चात्तु ज्योतिवलपरञ्जनो भवति, अयं सदाचारवान् ज्ञानी दिवाचरो वा । इति चतुर्थः । ४ । वाला मनुष्य होता है १ तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो पहिले तो तमा-दुराचारी होनेसे मलिन स्वभाववाला होता है और पीछे ले ज्योतिर्षल परन्जन-सूर्यादिके प्रकाशरूप बलमें अनुरक्त होता है-ऐसा वह मनुष्य असदाचारी ज्ञानानुरागी अथवा दिवाचोर ( दिन में चोरी करने वाला ) होता है अथवा - ज्योति ही है बल जिसका वह ज्योतिर्वल है एसा ज्योतिर्थल ज्ञानी अथवा दिवाचोर होता है इप्समें जो अनुगग रखता है वह ज्योति. बल पुरज्जन है । २ । तथा कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो ज्योतिःसदाचारी होनेसे सुस्वभाववाला होता है फिर भी तसोचल प्ररञ्जनमिथ्या ज्ञानादि में रति करनेवाला होता है ऐसा यह मनुष्य सदाचारः शाली अज्ञानी होता है या रात्रिचर मनुष्य होता है। ३। तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है-जो पहिले भी सदाचारी होनेसे सुस्वभावછે. એ તબલપુરંજન મિથ્યાજ્ઞાનીઓમાં અથવા ચેરોમાં અનુરાગ રાખનારે પુરુષ પણ હોઈ શકે છે. (૨) કોઈ એક મનુષ્ય એવો હોય છે કે જે પહેલાં તે તમ.સંપન્ન (દુરાચારી) હોવાથી મલિન સ્વભાવવાળો હોય છે, પણ પાછળથી તિબંલકરંજન–સૂર્યાદિના પ્રકાશરૂપ બળમાં અનુરક્ત થઈ જાય છે એ તે મનુષ્ય અસદાચારી જ્ઞાનાનુરાગી અથવા દિવાર–સાધુ પુરુષ હોય છે. અથવા જાતિ જ જેનું બળ છે તેને તર્બલ કહે છે. એ તિર્બલ કાંતે જ્ઞાની હોય છે અથવા તો દિનચર હોય છે. તેમના પ્રત્યે અનુરાને રાખનાર મનુષ્યને તિર્બલપરંજન કહે છે. (૩) કોઈ એક પુરુષ જયોતિસંપન્ન (સદાચારી) હોવાથી સુસ્વભાવવાળે હોય છે, છતાં પણ તમે બલપ્રરંજન-મિથ્યાજ્ઞાન આદિ પ્રત્યે અનુરાગ રાખનારો હોય છે. એવે તે મનુષ્ય સદાચારશાળી અજ્ઞાની હોય છે અથવા નિશાચર હોય છે. (૪) કેઈ એક મનુષ્ય એ હેય છે કે જે પહેલાં પણ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था. ४ उ ३ २९ चतुर्विधपुरुषजातविषयऋचतुर्दशचतुर्भही नि० १४५ पलज्जणे " इति पाठस्य यद्वा66 मलज्जनः " इतिच्छाया, तत्र - एकः कश्चित् तमः - अप्रसिद्धः तमोवलेन अन्धकारवलेन संचरन् मलज्जते लज्जितो भवतीति तमोवलमलज्जनः अत्र - प्रथमभने प्रकाशचारी, द्वितीयभने अन्धकारचारी, तृतीयभङ्गे प्रकाशचारी, चतुर्थभङ्गे तु कुतोऽपि कारणादन्धकारचार्येवेति | ४ | यद्वा - ' पज्जलणे 'ति पाठे ' प्रज्वलनः ' इतिच्छाया, तत्र - अज्ञानवबलेन - अन्धकारवचेन वा, ज्ञानबलेन प्रकाशवकेन वा प्रज्वलति दर्पितो भवति यः स तथा । अत्रापि सङ्गचतुष्टयं संयोज्यम् । (९) ८८ वाला होता है और पीछे ज्योतिर्बल पुरञ्जन होता है एसा वह मनुष्य सदाचारवाला ज्ञानी मनुष्य होता है अथवा दिवाचर - साधु मनुष्य होता है ४ अथवा 44 पलज्जणे " इसकी संस्कृतच्छाया-" मलज्जनः " ऐसी भी होती है इस पक्ष में ऐसा अर्थ होता है कि कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो प्रसिद्ध होता है और अन्धकार थलसे चलता हुआ लज्जित होता है इस प्रथम भङ्ग में अप्रसिद्धिवाला प्रकाशचारी साधु मनुष्य लिया गया है तथा द्वितीय भङ्गमें अन्धकार चारी चौरादि मनुष्य लिया गया है. तृतीय भङ्ग में भी प्रकाशचारी साधुजन लिया गया है और चतुर्थभङ्ग में भी किसी कारणवश अन्यकार में ही चलनेवाला मनुष्य लिया है यहा - "पज्जलणे' इस पाठकी संस्कृत छाया प्रज्वलन: "ऐसी भी होती है इस पक्ष में जो अज्ञानके बलसे या अन्धकार के बलसे ज्ञानके बल से સદાચારી હોવાથી સુસ્વભાવવાળા હોય છે અને પછી પણ જ્યેાતિલપુર જન જ રહે છે એવો તે મનુષ્ય સદાચારશીલ જ્ઞાની હોય છે અથવા દિવાચર-સાધુ भनुष्य होय छे. अथवा " पलजणे " मा पहुनी संस्कृत छाया થાય છે આ સંસ્કૃત છાયા લેવામાં આવે તે ચાર ભાંગા આ પ્રમાણે અને छे – (१) अ ो मनुष्य सेवो होय हे } ? तमः (अप्रसिद्ध) होय छे અને અંધકારરૂપ ખળથી ચાલતાં લજજા અનુભવે છે આ પ્રથમ પ્રકારમાં અપ્રસિદ્ધિવાળા પ્રકાશચારી સાધુપુરુષ ગૃહીત થયા છે (" "" प्रलज्जन. બીજા પ્રકારમાં અંધકારચારી (નિશાચર) ચાર આદિ ગૃહીત થયા છે, ત્રીજા ભાગામાં પ્રકાશચારી સાધુજન ગૃહીત થયા છે. અને ચેાથા ભાંગામાં કોઈ કારણને આધીન થઇને અધકારમાં જ ચાલના। મનુષ્ય ગૃહીત થયા छे. अथवा " पज्जलणे "नीसंस्कृत छाया 'अभ्वसन ' पशु थाय छे मा संस्कृत છાયાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તેા જે અજ્ઞાનના ખળથી મથવા અંધકારના ખળથી, જ્ઞાનના મળથી અથવા પ્રકાશના મળથી પ્રજવલિત થાય Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० Cinema . स्थानाङ्गसूत्र __" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः परिझातकर्मा-ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतः परिज्ञातानि-अवगतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहतानि कर्माणिसावधरूपाणि येन स तथाभूतो भाति, किन्तु परिज्ञातसज्ञः-परिज्ञाताः संज्ञाः-आहारादि संज्ञा येन स तथाभूतो न भवति, स च रसदः संयतः श्रावको वा । इति प्रथमो भङ्गः । १ ।। . तथा-एकः परिज्ञातसंज्ञो भवति, सद्भावनाभावितत्वात् , किन्तु नो परिज्ञातकर्मा भवति सावधव्यापारानिटत्तेः, स च श्रावकः । इति द्वितीयः । २ । तथा-एका परिज्ञानकर्माऽपि परिज्ञातसंज्ञोऽपि भवति, स च प्रकृष्टक्रियावान या प्रकाशके बलसे प्रज्वलित होता है-दर्प युक्त होता है ऐसा मनुष्य लिया गया है यहां पर भी भंग चतुष्य लगा लेना चाहिये (९) दशवे सूत्र में जो पुरुषजात चार कहे गये हैं-उनका सारांश ऐसा है कि कोई एक पुरुष ऐसा होना है जो परिज्ञातकर्मा होता हैसंगरिज्ञाले सावयरूप कर्मों का स्वरूप जान लेता है-और जानकर प्रत्याख्यान परिज़ा से उनका परित्याग कर देता है परन्तु फिर भी वह आहारादि संज्ञाओं को जिसने जाना है ऐसा नहीं होता है ऐसा मनुष्य रसगृद्ध संयत होता है या श्रावक होता है १ तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो सदभावना से भावित होनेके कारण परिज्ञान संज्ञावाला तो होता है पर वह सावद्यव्यापार से अनिवृत्त होनेसे परिज्ञातकर्मा नहीं होना है २ ऐसा वह मनुष्य आवक होता है तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो सावध आदिके स्वरूप को છે-દર્પયુક્ત થાય છે, એવો મનુષ્ય ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું. આ દષ્ટિએ પણ અહીં ચાર ભાંગાએ સમજી લેવા જોઈએ. - દસમાં સૂત્રમાં પુરુષના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે પરિજ્ઞાતકમાં હોય છે એટલે કે સાવદ્ય રૂપ કર્મોના સ્વરૂપને જ્ઞાતા હોય છે, અને તેના સ્વરૂપને જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેમને પરિત્યાગ કરી નાખનારો હોય છે, છતાં પણ તે આહારાદિ સંજ્ઞાઓને જાણકાર હેતે નથી. એવો જીવ રસમૃદ્ધ (રસલે લુપ) સંયત હોય છે અથવા શ્રાવક હોય છે (૨) કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે સદૂભાવનાથી ભાવિત (યુક્ત) હેવાને કારણે પરિજ્ઞાન સંજ્ઞાવાળો તે હોય છે, પણ તે સાવધ વ્યાપારોમાં પ્રવૃત્ત હોવાથી પરિજ્ઞાત કર્મા હોતે નથી. એવો તે મનુષ્ય શ્રાવક હોય છે. (૩) કેઈ એક મનુષ્ય એવો હોય છે કે જે સાવદ્ય આદિના સ્વરૂપને પણ જાણકાર હોય છે અને Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४३० ३सू०२९ चतुर्विधपुरुषजातविषयकचतुर्दशचतुर्भङ्गीनि० १५१ मुनिः प्रतिमामतिपन्नः श्रमणोपासको वा । इति तृतीयः । ३ । तथा-एको नो । परिज्ञातकर्मा भवति नापिच परिज्ञात पंज्ञः, सचासंयतः । इति चतुर्थः ।४। (१०) " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषः परिज्ञातकर्मा-सावधव्यापारकरणकारणानुमतिनिवृत्तो भवति, किन्तु परिज्ञातगृहाऽवासाम्यवजितो नो भवति, स चाप्रव्रजितो गृहस्थः। इति प्रथमो भङ्गाः । १ । तथा-एकः परिज्ञातगृहाऽऽवासो भवति किन्तु नो परिज्ञातकर्मा भवति, स च दुष्प्रवजितः । इति द्वितीयः । २ । तथा-एकः परिज्ञातजाननेवाला भी होता है और परिज्ञान संज्ञावाला भी होता है ऐसा वह प्रकृष्ट क्रियावाला मुनि होता है या प्रतिमा प्रतिपन्न श्रमणोपासक होना ३ तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होताहै न परिज्ञात कर्मा होता है और न परिज्ञात संज्ञावाला ही होताहै ऐसा वह मनुष्य असंयत होताहै। (१०) __ग्यारहवें सूत्र में जो चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं उनका सारांश ऐसा है कि कोई ऐक पुरुष ऐसा होता है जो सावचव्यापारको स्वयं नहीं करता है दूसरों से भी नहीं कराता है और करनेवालोंकी अनु. मोदना भी नहीं करता है किन्तु प्रवजित नहीं होता है ऐसा वह अप्रअजित गृहस्थ होता है १ तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो अप्रव्रजित गृहस्थ तो होता है पर वह परिज्ञान कर्मा नहीं होता है सावद्यब्यापार को स्वयं करता है दूसरों से कराता हैं और करनेवालोंकी अनुमोदना करता है ऐसा मनुष्य दुष्प्रवजित होता है २ तथा પરિજ્ઞાન સંજ્ઞાવાળો પણ હોય છે. એવો જીવ પ્રકૃષ્ટ કિયાવાળો મુનિ હોય છે અથવા પ્રતિમાપ્રતિપન્ન શ્રમણે પાસક હોય છે. (૪) કેઈ એક મનુષ્ય એવો હોય છે કે જે પરિજ્ઞાત કર્યા પણ નથી અને પરિજ્ઞાત સંજ્ઞાવાળો પણ નથી. એ તે મનુષ્ય અસંયત હોય છે. ૧૧ માં સૂત્રમાં જે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે, તે ચારે પ્રકારોનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે -(૧) કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે પિતે સાવદ્ય વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત થતો નથી, અન્યની પાસે સાવદ્ય વ્યાપાર કરાવતે પણ નથી અને સાવવ્યાપાર કરવાની અનુમોદના પણ કરતે નથી. છતાં પિતે પ્રવ્રજિત થતો નથી આવો પુરુષ અપ્રવ્રજિત ગૃહરથ હોય છે. (૨) કોઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે પ્રવજિત તે હોય છે પણ તે પરિજ્ઞાતક હોતો નથી તેથી તે પોતે સાવદ્ય વ્યાપારો કરે છે, અન્યની પાસે સાવદ્ય વ્યાપાર કરાવે છે અને સાવઘવ્યાપાર કરનારની અનુમોદના પણ કરે છે. એવો મનુષ્ય દુપ્રત્રજિત હોય છે. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ स्थानाजस्त्र कर्माऽपि परिज्ञातगृहाऽऽ पासोऽपि भवति, स च साधुः । इति तृतीयः । ३ । तथाएको नोपरिज्ञातकर्मा नोपरिज्ञातगृहाऽऽवामश्च भाति, स चासंयतः । इति चतुर्थः । ४ । (११) " चत्तारि पुरिस नाया" इत्यादि-पुनः पुरुपनानानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषः परिज्ञातसंज्ञो भवति विशिष्टगुणस्थानकत्वात् , फिन्तु नो परिज्ञातगृहाऽऽत्रासः-त्यक्तगृहाऽऽासो न भवति, गृहस्थत्वात्, स च प्रतिमाधारी श्रावक । इति प्रथमो भङ्गः । १ ।। तथा-एकः परिज्ञातगृहाऽऽत्रासः-त्यक्तगृहाऽऽत्रासो भवति संपतत्वात् , किन्तु नो परिज्ञातसंज्ञः-त्यक्ताऽऽरम्मो न भवति अभावितत्वात् , स च दुप्पत्रकोई एक मनुष्य एसा होता है जो परिज्ञात कर्मा भी होता है सावध व्यापारको स्वयं नहीं करता है दूसरोंसे भी नहीं कराता है तथा करनेबालोंकी अनुमोदना भी नहीं करता है-और परिजात गृहावास भी होता है प्रजित नहीं होता है ऐसा वह साधु होता है तथा कोई एक मनुष्य ऐसो होता है जो न परिज्ञात कर्मा भी होता है और न परिज्ञानगृहावास भी होता है ऐसा वह असंयत होता है । (११) बारहवें सूत्रमें जो चार प्रकारके पुरुष कहे गये हैं उनमें कोई एक पुरुष ऐसा होताहै जो विशिष्ट गुणोंका स्थानक होनेसे परिज्ञात संज्ञाचाला होता है किन्तु गृहस्थ होने से वह तो परिज्ञात गृहावास-त्यक्त गृहावासवाला नहीं होता है ऐसा वह प्रतिमाघारी श्रावक होता है १ तथा कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो परिज्ञातगृहावाम होता (૩) કેઈ એક મનુષ્ય એ હેય છે કે જે પરિસાત કર્યા પણ હોય છે એટલે કે પિતે સાવધ વ્યાપાર કરતું નથી, કરાવતો નથી અને કરનારને અનુદતે પણ નથી પરિજ્ઞાત ગૃહાવાસ પણ હોય છેપ્રવ્રજિત હોય છે એવો તે સાધુ હોય છે ? (૪) કઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે પરિજ્ઞાતક પણ હોતો નથી અને પરિજ્ઞાત ગૃહાવાસ પણ હવે નવી એ તે અસંયત હોય છે. (૧૧) બારમાં સૂત્રમાં જે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ ४२वामां आवे छे-- (૧) કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે વિશિષ્ટ ગુણોનું સ્થાનક હોવાને લીધે પરિજ્ઞાત સંજ્ઞાવાળે હોય છે, પણ ગૃહસ્થ હોવાને કારણે તે પરિજ્ઞાત મૃડાવાસ (ત્યક્ત ગૃડાવાસવાળ) હોતે નથી પ્રતિમાધારી શ્રાવકને આ પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. (૨) કોઈ એક મનુષ્ય એવો હોય છે કે Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटोका स्था०४४०३सू०२९ चतुर्विधपुरुपजातविश्यकचतुर्दश चतुर्भङ्गी नि० १५३ जितः । इति द्वितीय | २ | तथा - एकः परिज्ञातसज्ञोऽपि परिज्ञातगृहावासोऽपि च भवति, स च साधुः । इति तृतीयः | ३ | तथा - एको नो परिज्ञातसंज्ञो नापि च परिज्ञातगृहाऽऽवासो भवति स च सामान्यगृहस्थः । इति चतुर्थः । ४ । ( १२ ) " चचारि पुरिसजाया " इत्यादि - पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञतानि, तयथा - इहार्थो नामै हो नो परार्थः, तत्र एकः पुरुषः हाथ:-इन-अस्मिन्नैव जन्मनि अर्थ:- भोगसुखादि प्रयोजनं यस्य स इहार्थः = ऐष्टिकभोगसुखार्थी, यद्वाहै- व्यक्त गृहावासवाला होता है क्योंकि ऐसा वह संवत होता है परन्तु वह व्यक्त आरम्भवाला नहीं होता है क्योंकि वह अभावित होता है ऐसा वह दुष्प्रव्रजित होता है २ तथा कोई एक ऐसा मनुष्य होता है जो परिज्ञात संज्ञावाला भी होता है ३ ऐसा वह मनुष्य साधु होता है तथा कोई एक ऐसा भी मनुष्य होता है जो न परिज्ञात संज्ञावाला होता है और न परिज्ञात गृहावासवाला भी होता है ४ ऐसा वह सामान्य गृहस्थजन होता है । ( १२ ) " चत्तारि पुरिसजाया " इस १३ वें सूत्र द्वारा जो पुरुष जात चार कहे गये हैं उनका सारंग ऐसा है इनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जिसका प्रयोजन इसी जन्म में भोग सुखादिरूप होता है ऐसा वह पुरुष इहार्थ कहा गया है अर्थात् यह इहार्थ पुरुष ऐहिक જે રિજ્ઞાત ગૃહાવાસ (ત્યક્ત ગૃાવાસવાળે) હોય છે, પણ તે ત્યક્ત આર ભવાળા હોતા નથી. એટલે કે સાધુ હોવા છતાં પણુ આરભના પરિત્યાગ ન કરી શકનાર દુષ્પ્રજિત જીવને આ પ્રકારના પુરુષ કહી શકાય છે. (૩) કોઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે પિરસાત સ`જ્ઞાવાળા પણ હોય છે અને પરિજ્ઞાત ગૃહાવસવાળા પણ હોય છે એવા જીવ સયત (સાધુ) હોય છે (૪) કાઇ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે પરિજ્ઞાત સંજ્ઞાવાળા પણ ઢાતેા નથી અને પરિજ્ઞાત ગૃડાવાસવાળે પણુ હતેા નથી સામાન્ય ગૃહસ્થ જનને આ પ્રકારને પુરુષ કહી શકાય છે. (પરિજ્ઞાત ગૃડાવાસ-ગૃહાવાસના સ્વરૂપને જાણીને તેના પરિત્યાગપૂર્વક પ્રથા અંગીકાર કરનાર ) " चत्तारि पुरिसजाथा ” इत्यादि. १३ मां सूत्रमां में यार अझरना પુરુષ। કહ્યા તેનુ સ્પષ્ટીકરણ—(૧) કે.ઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે આ જન્મના ભાગેાપભાગ રૂપ સુખની ઇચ્છાવાળા હોય છે એટલે કે ઐહિક ભાગસુખાથી હાય છે પણ પરભવના દેવલાક આદિના સુખની ઈચ્છાવાળા स- २० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ स्थानास्त्रे 'इइस्थे ' इत्यस्य ' इहाऽऽस्थः' इतिच्छाया, तत्पक्षे -इहास्थ इत्यस्य इहैव जन्मनि आस्था-विश्वासो यस्य स तथा इहलोकप्रतिबद्धो भवति किन्तु न परार्थ:-परत्र जन्मनि अर्थ:-स्वर्गादिसुखप्रयोजनं यस्य स तथा न भवति, यद्वा-' परत्थे' इत्यस्य 'पराऽऽस्थ' इतिच्छाया, इति पक्षे परत्र आस्था-विश्वासो यस्य स तथा न भवति, स च नास्तिकः । इति प्रथमो भङ्गः । १ । शेपभनत्रयमेवं संयोजनीभोग सुखार्थी होता है यदा-" इहत्थे " शब्दकी छाया " इहस्थः " ऐसी भी होती है इस पक्षमें ऐसा अर्थ होता है-कि कोई एक पुरुष ऐसा होता है कि जिसकी आस्था इसी जन्म पर होती है ऐसा वह ईहार्थ पुरुष " नो परत्थे " परजन्ममें स्वर्गादि सुखका प्रयोजनवाला नहीं होता है अथवा-" परत्थे" की संस्कृत छाया-"परास्थ" ऐसी होगी तप इसका ऐसा अर्थ होगा-कि वह इहास्थ पुरुष परलोकमें विश्वास रखनेवाला नहीं होता है ऐसा वह नास्तिक पुरुष होता है ? शेष ३ भङ्ग इस प्रकारसे बना लेना चाहिये-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो " परत्थे नो इहत्थे २ " परार्थ या परास्थ होता है इहाथ या इहास्थ नहीं होता है २ कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो " इहत्थे परत्ये वि" इहार्थ या इहास्थ भी होता है और परार्थ या परास्थ भी होता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा भी होता है जो 'नो इहत्थे नो परत्ये" न इहाथै या इहास्थ होता है और न परार्थ या परास्थ હિતે નથી એવા પુરુષને “ઈહાર્થી–નો પરાથી” રૂપ પહેલા પ્રકારમાં ગણાવી शाय छ अथवा-"ईदस्थे" मा पहनी सकृत छाया " इहस्थः" पर थाय છે. આ સંસ્કૃત છાયાની અપેક્ષાએ પહેલે ભાગે આ પ્રકારને બને છે– કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે આ જન્મ પરઆસ્થા રાખનારે હોય છે પણ પરભવના સુખાદિમાં આસ્થાવાળો હોતો નથી. એ પુરુષ નાસ્તિક હોય છે. બાકીના ત્રણ ભાંગાઓ આ પ્રમાણે સમજવા–(૨) કેઈ ४ २५ " परस्थे नो इहस्थे" वो डाय छ है २ ५२सना सुमनी અભિલાષા અથવા આસ્થાવાળો હોય છે પણ આ લેકને સુખની અભિલાષા अथवा मास्थावाने जात नथी. (3) " इहत्थे परन्थे वि" मे पुरुष આ લેકના સુખની ઇચ્છા તથા આસ્થાવાળે પણ હોય છે અને પરલેકના सुमनी ५९] छ। मने मास्यावाणी हाय छे. (४)"नो इहत्थे-नो परत्थे" કેઈ એક પુરુષ આલેકના સુખની ઈછા કે આસ્થાવાળે હોતો નથી અને પરલેકના સુખની ઈચ્છા કે આસ્થાવાળે પણ હેતો નથી. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमा टीका 403 3 ३ सू२१ चतुधारु प्रजातविषाचतुर्दशचतुर्भङ्गोनि० १५५ यम् । तत्र द्वितीयभायो वाजतास्त्री, तयाविधश्रद्धावान् साधु २॥ तृतीयमगस्थः सुश्रावकः ३। चतुर्थभङ्गस्थस्तु कालसोकरिकादिमूढोवेति ।४। (१३) __" चत्तारि पुरिसमाया” इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चंगारि प्रज्ञप्तानि, तपथा-एकः पुरुषः एकेन-श्रुतेन वर्धते, एकेन-सम्यग्दर्शनेन हीयते-हीनो भवति, यथोक्तं च"जह जब बहुस्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिी य समए तह तह सिद्धतपरिणी मो ।१। छाया-" यथा यथा बहुश्रुतः संमतश्च शिष्यगणसंपरिकृतश्च । ____ अविनिश्चितश्च समये तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः ।१॥” इति, .. अयमर्थ:-पुरुषो यथा यथा बहुश्रुतः-बहुशास्त्रज्ञो भवति, संपतः-जनैराहतः शिण्यगगसंपरितः - शिष्य गणपरिवेष्टितश्च भवति, स च यदि समयेहोता है द्वीतीय भङ्ग में बाल तपस्वीको तथाविध श्रद्धाशाली पुरुष को तृतीय भङ्ग में सुश्रावकको और चतुर्थ भङ्ग में कालसौकरिक आदि अथवा सूढको दृष्टान्तमें रखना चाहिये (१३) । चौदहवें सूत्र में जो चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं-सो उनका सारांश ऐसा है कि इनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो एकसेश्रुतसे तो बढता है अर्थात् स्वाध्याय करते २ या अध्ययन करते २ अपने श्रुतज्ञानको तो बढा लेना है-बहुश्रुन हो जाता है पर बह एकसे-सम्यग्दर्शन से रहित होता है कहा भी है-- ___“जह जह बहुस्सुआ" इत्यादि ॥१॥ इस गाथा का तात्पर्यार्थ ऐसा है-पुरुष जैसे २ बहुश्रुत बहु शास्त्रज्ञ होता है संमत जनों द्वारा બીજા ભાંગામાં બાલતપસ્વીને, તે પ્રકારની શ્રદ્ધાવાળા પુરુષને અથવા સાધુને મૂકી શકાય છે ત્રીજા ભાંગામાં સુશ્રાવકને અને ચોથા ભાંગામાં મૂઢ અથવા કાલસૌકરિક જેવા પુરુષને મૂકી શકાય છે. ચૌદમાં સૂત્રમાં જે ચાર પ્રકારના પુરુષો કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ-(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હેય છે કે જે એક બાબતમાં–જેમકે શ્રતમાં તે આગળ વધતું જાય છે એટલે કે સ્વાધ્યાય કરતે કરતે શ્રતજ્ઞાનમાં તે આગળ વધતું જાય છે પરંતુ બીજી બાબતમાં હીયમાણ થતું રહે છે જેમકે સમ્યગુ शनिथी २डित थने तय छे. ५ छ है-"जह जह वहुस्सुआ"त्याहि. આ ગાથાને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–પુરુષ જેમ જેમ બહુશ્રુત-બહુ શાસ્ત્રજ્ઞ થતો જાય છે, સંમત (લેકે દ્વારા તેના અભિપ્રાયને સ્વીકારવામાં Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १५६ स्थानो . - सिद्धान्ते अविनिश्चितः - संशययुक्तो भवति तदा स तथा तथा सिद्धान्तमत्यनीकःसिद्धान्तप्रतिकूलो भवति । १ । इति प्रथमः | १ | तथा - एकः पुरुष एक्रेनश्रुतेनैव वर्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शन- विनयाभ्यां डीयत इति द्वितीयः । २ । तथाएक द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यां वर्धते, एकेन सम्यग्दर्शनेन होयते । इति तृतीयः | ३ | तथा-एको द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यां वर्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शन- विनया भ्यां हीयत इति चतुर्थः । ४ । (१) + यद्वा-एक एकेन - ज्ञानेन वर्धते, एकेन - रागेण हीयते इति प्रथमः । १ । तथा - एक एकेन - ज्ञानेन वर्धते दाभ्यां राग-द्वेषाभ्यां ह्रीयते इति द्वितीयः |२| आहत होता है और शिष्य गणोंसे परिवेष्टित होता है वह यदि सिद्धान्त में अविनिश्चित संशययुक्त हो जाता है तो वह वैसे २ सिद्धान्त प्रत्यनीक - सिद्धान्त प्रतिकूल हो जाता है १ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो केवल एक अतसेही तो बढता है पर सम्यग्दर्शन और विनय इन दोसे रहित होता है २ अर्थात् ज्ञानकी तो वृद्धि कर लेता है पर सम्यग्दर्शन और विनय इनकी वृद्धि नहीं करता है इनसे हीन होता है २ तथा कोई पुरुष - ऐसा होता है जो श्रुत और अनुष्ठान इन दो से बढ़ता है पर एक सम्यग्दर्शन से हीन होना है ३ तथा कोई एक ऐसा होता है श्रुत और अनुष्ठान इन दोरो बढता है और सम्यग्दर्शन एवं विनय इन दोसे हीन होता है ४ - १ अथवा -- कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो ज्ञानसे बढ़ता है- बढा होता है और एक रामसे हीन होता है १ कोई एक पुरुष ऐसा होता આવે એવા) થતા જાય છે, અને શિષ્યેાના સમૂહથી યુક્ત થતા જાય છે, તેમ તેમ જે તે સંશયયુક્ત પણુ થતા જાય તે તે સિદ્ધાન્ત પ્રત્યેનીક–સિદ્ધાન્ત પ્રતિકૂલ પણ થતા જાય છે. (૨) કાઈ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે એકલા શ્રુતમાં તે વૃદ્ધિ પામતા રહે છે, પરન્તુ સમ્યગ્ દર્શન અને વિનયથી રહિત થતા જાય છે. એટલે કે તે શ્રુતજ્ઞાન તે વધારે છે પણ સમ્યગ્દન અને વિનયની વૃદ્ધિ કરતા નથી પણ તેનાથી વિહીન થતા જાય છે. (૩) કેઈ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે એમાં શ્રુત અને અનુષ્ઠાનમાં આગળ વધતા જાય છે, પણુ એકથી સમ્યગ્દર્શનથી જ વિહીન થતા જાય છે (૪) કાઇ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે શ્રુત અને અનુષ્ઠાનમાં તે વૃદ્ધિ કરતા રહે છે પણ સમ્યગ્દન અને વિનયથી રહિત થતા જાય છે. અથવા—(૧) કાઈ એક પુરુષ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधां टोका स्था०४४०३०२९ चतुर्विधपुरुषजातविषयकचतुर्दशचतुर्भङ्गीनि० १५७ तथा एको द्वाभ्यां ज्ञान- संयमाभ्यां वर्धते, एकेन रागेण हीयत इति तृतीयः । ३ । तथा--एको द्वाभ्यां - ज्ञान-सयमाभ्यां वर्धते, द्वाभ्यां - राग द्वेपाभ्यां हीयत इति चतुर्थः । ४ । (२) , अथवा - एक एकेन- क्रोधेन वर्धते, एकेन -मायया हीयते इति प्रथमः | १| तथा एक एकेन - कोपेन वर्धते, द्वाभ्यां माया लोभाभ्यां हीयते । इति द्वितीयः । २ । द्वाभ्यां क्रोधमानाभ्यां वर्धते एकेन - मायया हीयत इति तृतीयः । ३ । तथा - एको द्वाभ्यां = क्रोध - मानाभ्यां वर्धते द्वाभ्यां - माया लोभाभ्यां हीयत इति चतुर्थः । ४ । ( ३ ) (१४) f हैं जो एक ज्ञानसे बढा होता है और दोसे राग एवं दोष से हीन होता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो ज्ञान एवं संयम से बढा होता हैं और रामसे हीन होता हैं - ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो ज्ञान एवं संयम से बढा होता है और राग एवं द्वेष से हीन होता है ४-२ अथवा -- कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो एकसे - क्रोध से बढ़ा होता है बहुत क्रोधी होता है और एकसे मायासे होन होता है १ तथा - कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो एकसे कोप से बढा होता है और दोसे माया और लोभसे हीन होता है २ तथा कोई एक ऐसा पुरुष होता है जो क्रोध एवं मानसे बढा होता है और एकसे मायासे हीन होता है - ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो क्रोध मान इन दोसे बढा होता है एवं माया और लोभ इनले हीन होता है જ્ઞાનમાં વધતા જાય છે પણ રાગથી રહિત થતા જાય છે. (૨) કેાઈ એક पुरुष मेऽभां (ज्ञानभा) वधनो लय है, या मेमां ( राग भने द्वेषथी ) ઘટતા જાય છે. (-) કાઈ પુરુષ એમાં (જ્ઞાન અને સયમમાં) વધતેા જાય છે પણ રાગથી રહિત થતા જાય છે. (૪) કાઈ પુરુષ જ્ઞાન અને સયમમાં વધતા જાય છે અને રાગ અને દ્વેષમાં ઘટતા જાય છે. અથવા—(૧) કાઈ પુરુષ એક માખતમાં-કોધમાં વૃદ્ધિ કરતા રહે છે પણ માયાથી રહિત ખનતા જાય છે. (ર) કાઈ પુરુષના કોષની વૃદ્ધિ થતી રહે છે પણ માયા અને લાભની હાનિ થતી રહે છે. (૩) કાઈ પુરુષના ક્રોધ અને માનની વૃદ્ધિ થતી રહે છે, પણ માયા ઘટતી જાય છે. (૪) કાઈ પુરુષના ક્રોધ અને માનની વૃદ્ધિ થતી રહે છે પશુ માયા અને લેાસ ઘટતા જાય છે Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ स्थानासू अत्रेदं वोध्यं -- सामान्येनैकेनेति नपुंसकलिङ्गनिर्दिष्टस्य माययेति विवरणे मायारूपेण वस्तुना -- पदार्थेनेति लिङ्गसाम्येन भिन्नलिङ्गनाशङ्काऽपनोदनीया ( सू० २९ ) अथ कन्थकदृष्टान्तसूत्रम् - मूलम् - चत्तारि कंथना पण्णत्ता, तं जहा - आइने णामसेगे आइने १, आइने णाममेगे खलुंके २, खलुंके णामसेगे आइने ३, खलुंके णाममेगे खलुंके | एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - आइने णाममेगे आइने चउभंगो । (१) चत्तारि कंथगा पण्णत्ता, तं जहा - आइन्ने णाममेगे आइनया विहरइ ९, आइन्ने णाममेगे खलुंकत्ताए विहरइ ४ | एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - आइन्ने णाममेगे आइन्नया विहरइ, चउभंगो । ( २ ) यदि यहां पर ऐसी आशंका की जाय कि " एकेन " यह शब्द सामान्य रूप से निर्दिष्ट हुआ है और जो सामान्य रूपसे निर्दिष्ट होता है वह नपुंसकलिङ्ग होता है अतः जब ऐसी बात है तो फिर आप " एकेन ' से "साया" ऐसा विवरण कैसे करते हैं तो इसका समाधान इस रूप से कर लेना चाहिये कि " एकेन माया रूपेण वस्तुना "} एक - माया रूप वस्तुसे इस प्रकार से माया वस्तु के साथ लिङ्ग साम्यता आजाने से भिन्नलिङ्गताकी शङ्का दूर हो जाती है | सू. २९॥ शौं–“ एकेन ” आ यह तो नपुंसलिंगनुं यह छे, छतां न्याय ते "" ," પદ્મ દ્વારા मायया 'भायाथी मा પ્રકારના સ્ત્રીલિંગ વાચક શબ્દને કૈવી રીતે ગૃહીત કરી છે ? उत्तर—भड एकेन मायारूपेण वस्तुना 66 "" 'भायाथी ' આ પદ્મ આ રીતે માયા માયારૂપ એક વસ્તુથી ” આ પ્રકારના અતું વાચક છે. રૂપ વસ્તુની સાથે 'લિંગની સમાનતા આવી જવાથી ભિન્ન ભિન્ન લિગતાની શંકાનું નિવારણ થઈ જાય છે. ! સૂ. ૨૯૫ " Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था०४ उ०३ २०३० कन्यकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम १५९ ___चत्तारि कंथगा पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो कुलसंपन्ने० ४॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपन्ने गाममेगे णो कुलसंपन्ने, चउभंगो । (३) चत्तारि कंथगा पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपन्न णाममेगे णो बलसंपण्णे० ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहाजाइसंपन्ने णाममेगे णो बलसंपन्ने ४। (४) ___ चत्तारि कंथगा पण्णता, तं जहा-जाइसंपन्ने णाममंग णो रूवसंपन्ने । एवामेब. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-जाइसंपन्ने णासमेगे णो रूवसंपन्ने । (५) चत्तारि कंथगा पण्णत्ता, तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपण्णे० ४॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--जाइसंपन्ने णासमेगे णो जयसंपण्णे० ४। (६) एवं कुलसंपन्नेण य बलसंपन्नेण य । (७) कुलसंपन्नेण य रूबसंपन्नेण य० ४, (८) कुलसंपन्नेण य जयसंपन्नेण य ४॥ (९) एवं बलसंपन्नेण य रूवसंपन्नण य०४, (१०) बलसंपन्नेण य जयसंपन्न्नेण य० । सम्बत्थ पुरिसजाया पडि. वक्खो । (११) चत्तारि कंथगा पण्णत्ता, ' तं जहा-रूवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने ४। एवामेव चत्तारि पुरिलजाया पण्णत्ता, तं जहा-रूवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने । (१२) चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-सोहत्ताए णामभेगे निक्खंते सोहताए विहरइ १, सीहत्ताए णाममेगे निक्खते Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० स्थानानसूत्र सियालत्ताए विहरइ २, सियालत्ताए णाममेगे निक्खंते सीहताए विरहइ ३, खियालत्ताए णासमेगे निकखंते सिचालत्ताए विहरइ ४ (१३) ॥ सू० ३०॥ ___ छाया-चत्वारः कन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तबया-आकीर्णो नामैक आकीर्णः १, आकीर्णो नामैकः खलुङ्क. २, खलुको नामैक आकीर्णः ३, खलुको नामका खलुकः । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-अकीर्णो नामैक आकीर्णः ११ चतुर्भङ्गी । (१) चत्वारः कन्यकाः प्रज्ञताः, तद्यथा-आकीणो नामैक आकीर्णतया विहरति, आकीर्णो नामैकः खलुङ्कतया विहरति । एवामेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञसानि, तद्यथा-आकीर्णो नामैक आकीर्णतया विहरति चतुर्भङ्गी ४। (२) चत्तारि कथगा पण्णत्ता इत्यादि स्त्र ३० ॥ स्त्रार्थ-कन्या चार प्रकारके कहे गयेहैं-एक आकीर्ण आकीर्ण १ दूसरा आकीर्ण ग्बल २ तीसरा खलङ्क आकीर्ण ३ और चौथा खलङ्क खलुङ्क इसी प्रकार से पुरुष जात भी चोर कहे गये हैं-आकीर्ण आकीर्ण १ . इत्यादि ४-(१) पुनश्चकन्या चार प्रकारके कहे गये है-एक आकीर्ण आकीर्ण रूपसे विहारी १ दूमरा आकीर्ण खलङ्क रूपसे बिहारी २, तीसरा खलङ्ग आकीर्ण रूपसे विहारी ३, और चतुर्थ खलङ्ग और खलङ्क रूपसे विहारी ४ इसी तरह से पुरुष जान भी चार कहे गये हैं जैसे आकीर्ण आकीर्ण रूपसे बिहारी इत्यादि ४ (२) “चत्तारि कंथगा पण्णत्ता" त्याह- (सू ३०) सत्राथ' -४न्य (म? विप)ना या२ ५४२४ा छ-(१) मा -माधी, (२) lef-म, (3) मनु:-माण मने (८) मदु-भर मेश પ્રમાણે પુરુષોના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. જેમકે “આકીર્ણ–આકીશું ? વગેરે ચાર પ્રકાર ઉપર મુજબ સમજી લેવા. કર્થીકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે– (१) साधी-सादी ३२ विडारी, (२) सादी-- ३२ विडारी (3) '४-2मी ३ विहारी मने (४) मनु'४- ४ ३ विडारी. એજ પ્રમાણે પુરુના પણ “આકીર્ણ–આકરૂપે વિહારી ” આદિ ચાર પ્રકાર સંમજવા. રિા Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू० १० कन्थकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् १६१ चत्वारः कन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो कुलसम्पन्नः ४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैकः, चतुभङ्गी ४.३) चत्वारः कन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो वलसम्पन्नः ४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञसानि, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो बलसम्पन्नः ।। (४) चत्वारः कन्थकाः प्रज्ञप्ता, त था-जातिसम्पनो नामैको नो रूपसम्पन्नः ४। एवमेव चखारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः ४। (५) पुनश्च-कन्धक चार प्रकारके कहे गये हैं-जैसे, जाति संपन्न नो कुल संपन्न १ कुल संपन्न नो जाति संपन्न २ जाति संपन्न भी और कुल संपन्न भी ३ और नो जाति संपन्न मोडल संपन्न ४ इसी प्रकार से पुरुष जात भी चार कहे गये हैं, जैले जातिसंपन्न नो कुल संपन्न इत्यादि ४ (३) ___ पुनश्च-कन्थक चार प्रकार के कहे गये हैं-जैसे जातिसंपन्न नो घलसंपन्न १ घलसंपन्न नो जातिसंपन्न २ जातिसंपन्न भी और बल संपन्न भी ३ और नो जातिसंपन्न नो बलसंपन्न ४ इसी प्रकारसे पुरुष जात भी चार कहे गये हैं जैसे-जाति संपन नो बलसंपन्न इत्यादि ४-(४) ___ पुनश्च-कन्या चार प्रकार के कहे गये हैं जैसे-जातिसंपन्न नो रूप संपन्न १ रूप संपन्न नो जाति संपन्न जातिसम्पन्न भी रूप सम्पन्नभी न्य: (A)ना नीचे प्रमाणे या२ ५.२ ५५] a छ-(1) नतिसपन्न ना ससपन्न, (२) मुसस -न तिस पन्न, (3) नतिसपन्न અને કુલસંપન્ન અને (૪) ને જાતિસંપન્ન ને કુલસંપન એજ પ્રમાણે પુરૂષને પણ “જાતિ પત્ની ને કુલ પન્ન ” આદિ ચાર પ્રકાર સમજવા સા કથકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે–(૧) જાતિસંપન્ન નો मपन्न, (२) ५३ ५-न न तिस पन्न, (3) तिसपन्न भने मला. સંપન (૪) ને જાતિસ પન્ન ને બલસંપન્ન. એ જ પ્રમાણે પુરુષોના પણ “ જાતિસંપન્ન ને બલસંપન” આદિ ચાર પ્રકાર સમજવા ૪ કથકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે–(૧) જાતિસંપન્ન નો ३५ सपन्न, (२) ३५सपन्न नतिसपन्न, (3) तिसन्न भने ३५. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाने चत्वारः कन्थकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः ४। एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः ४। (८) एवं कुलसम्पन्नेन च बलसम्पन्नेन च ४, (७) कुलसम्पन्नेन च रूपसम्पन्नेन च ४। (८) कुलसम्पन्नेन च जगसम्पन्नेन च ४, (९) एवं वल. सम्पन्नेन च रूपसम्पन्नेन च ४, (१०) वलसम्पन्नेन च जयसम्पन्नेन च ४, सर्वत्र पुरुषजातानि प्रतिपक्षः । (११) । ३ नो जातिसंपन्न नो रूपसंपन्न ४ इमी तरहसे पुरुष जात भी चार प्रकार के कहे गये हैं जैसे-जातिसंपन्न नो रूप संपन्न १ इत्यादि ४ (५) पुनश्च-कन्थक चार प्रकार के कहे गये हैं जैसे-जाति संपन्न नो जय संपन्न १ इत्यादि ४ इसी प्रकारसे पुरुष जात भी चार कहे गये हैं जैसे-जातिसंपन्न नो जयसंपन्न इत्यादि ४-(६) इसी प्रकार से कुल संपन्न और बल संपन्न पद से चतुर्भही बना लेना चाहिये (७) इसी तरह से कुलसंपन्न और रूपसंपन्न पदसे चतुर्भङ्गी बना लेना चाहिये (८) इसी तरहसे कुलसंपन्न और जयसंपन्न पदले चतुर्भङ्गी बना लेना चाहिये (९) इसी तरहसे बल सम्पन्न और रूपलम्पन्न पदसे भी चतुर्भङ्गी बना लेना चाहिये (१०) इसी तरह से चल सम्पन्न और जय सम्पन्न पदसे भी चतुर्भङ्गी बना लेना चाहिये (११) यहां सब સંપન્ન (૪) ને જાતિસંપન્ન ને રૂપસં૫ન્ન એજ પ્રમાણે પુરુષોના પણ " तिसपन्न न ३५स पन्न" माह या२ प्रा२ समपा. (५) કન્વકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે– (૧) જાતિસંપન ને જયસંપન્ન ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર સમજવા. એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ “જાતિસંપન્ન ને જયસપન” ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર સમજવા. ૬ એજ પ્રમાણે કુલસંપન્ન અને બલસંપન્ન પદે વાપરીને પણ ચતુર્ભાગી બનાવી લેવી. પછી એજ પ્રમાણે કુલસંપન્ન અને રૂપjપન આ બે પદે વાપરીને પણ ચાર ભાંગા કહેવા જોઈએ. ૮ એજ પ્રમાણે કુલસંપન્ન અને જયસંપન્ન, આ બે પદે વાપરીને પણ ચાર ભાંગા બનાવવા જોઈએ. લિ એજ પ્રમાણે બલસંપન્ન અને રૂપસંપન્ન આ બે પદેને રોગથી દસમી ચતુર્ભાગી બનાવવી જોઈએ ૧૧૦ એજ પ્રમાણે બલસંપન્ન અને જયસંપન્નના ગલી અગિયારમી ચતુ ભંગી બનાવવી જોઈએ. ૧૧ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४७०३ सू०३० कन्धकदृष्टान्तेन पुरुषजात निरूपणम् १६३ चत्वारः कन्यकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - रूपसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः ४ | एवमेत्र चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - रूपसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः ४ । (१२) चत्वारि पुरुषजावानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा सिंहतया नामैको निष्क्रान्तः सिंहतया विहरति १, सिंहतया नामैको निष्क्रान्तः शृगालवया विहरति ३ शृगालतया नामैको निष्क्रान्तः सिंहतया विहरति ३ शृगालतया नामैको निष्क्रान्तः गालतयाविहरति । (१३) । सु०३० ॥ टीका -- " चत्तारि कंथगा " इत्यादि - कन्थकजातीया अश्वविशेषाः चत्वारः प्रज्ञताः, तद्यथा - एकः कश्चिदश्वः आकीर्णः -पूर्व वेगादिगुणैर्युक्तत्वाज्जातिमान् स में प्रतिपक्ष दृष्टान्त - दाष्टन्तिरूप पुरुष जात कहना चाहिये, पुनश्च - कन्धक चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे रूपसंपन्न नो जयसंपन्न १ इत्यादि ४ भङ्ग इसी प्रकार से पुरुषजान भी चार कहे गये हैं जैसेरूप सम्पन्न नो जय सम्पन्न इत्यादि ४ भङ्ग (१२) पुरुषजात चार कहे गये हैं जैसे- सिंह रूपसे निकलकर सिंह रूप से विहार करनेवाला १ सिंह रूपसे निकलकर शृगालरूपले विहार करनेवाला २ शृगाल रूपसे निकलकर सिंहरूप से विहार करनेवाला ३ और शृगालरूप से निकलकर शृगाल रूपसे ही विहार करनेवाला ४ (१३) टीकार्थ - इस ३० वे सूत्र में ये पूर्वोक्त१३ सूत्र हैं इनमें कन्धरूके प्रकार के साथ पुरुष प्रकार की साम्यता प्रदर्शित की गई है अतः प्रथम सूत्रगत એજ પ્રમાણે ‘રૂપ સપન્ન ના જયસંપન્ન ’ઈત્યાદિ ચાર ભાંગાવાળી બારમી ચતુગી પણ સમજી લેવી. દાન્તિક પુરુષ સૂત્રમાં પણ આ પ્રકારની જ ખાર ચતુર્ભ ́ગી સમજી લેવી જોઈએ ૧રા 11 પુરુષાતા નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે— (१) सिंडु ३ये (गृहस्थात्रा समांथी ) नीतीने सिद्ध ३ये विहार ४२० નાર, (૨) સિંહરૂપે નીકળીને શિયાળ રૂપે વિહાર કરનાર, (૩) શિયાળ રૂપે નીકળીને સિંહરૂપે વિહાર કરનાર અને (૪) શિયાળ રૂપે નીકળીને શિયાળ રૂપે જ વિહાર કરનાર ૧૩૫ ટીકા આ ૩૦ માં સૂત્રમાં ચાર ભાંગાવાળા ઉપયુક્ત ૧૩ સૂત્ર આપવામાં આવ્યા છે તે સૂત્રેા દ્વારા કન્વકના પ્રકારાની સાથે પુરુષ પ્રકારની સામ્યત્તા Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ स्थानाङ्गसूत्रे पश्चादपि आकीर्णो भवति । इति प्रथमः । १ । तथा-एकः पूर्वमाकीर्णः पश्चात्तु खलुङ्कः-अविनीतः विस्मृतशिक्षो भवति । इति द्वितीयः । २ । तथा-एकः पूर्व खलङ्कः सन्नपि पश्चात् स आकीर्णः-शिक्षकशिक्षया विनयवेगादिगुणसम्पन्नो भवति । इति तृतीयः । ३ । तथा-एका पूर्वमपि खलुङ्गः पश्चादपि खलुङ्क एव भवतीति चतुर्थः।४। (१) जो चार प्रकारके कन्धक कहे गये हैं उनका स्पष्टार्थ इस प्रकार से हैकन्थक जातीय अश्व विशेष होता है इनमें कोई एक कन्यक अश्व ऐसा होता है जो पहिले भी वेगादि गुणों से युक्त होने के कारण आकीर्ण जातिवाला होता है, और पीछे भी वह आकीर्ण, ही बना रहता है ? तथा-कोई एक कन्धक अश् ऐसा होता है जो पहिले तो आकीर्ण वेगादि गुणों से युक्त होने के कारण जातिवाला होता है और बादमें वह खलखा-अविनीत हो जाना है-विस्त शिक्षाबासा हो जाना है २ तथा कोई एक कन्धक अश्व ऐसा होता है कि पहिले तो यह ग्वल-अविनीत होता है और बादमें अश्व शिक्षक की शिक्षासे विनय वेग आदि गुणोंसे सस्पन्न हो जाता है और कोई एक कन्यक अश्व ऐसा होता है जो पहिले मी खल-अभिनीत होता है और बाद में भी खलुङ्क अविनीत ही बना रहता है ४ इस प्रकारके ये प्रथम सत्र के चार भङ्गा हैं इसी प्रकारसे पुरुषजात भी जो चोर कहे गये हैं-उनमा सारांश પ્રકટ કરવામાં આવી છે. કન્યક જાતિને એક અશ્વવિશેષ હોય છે. તે અશ્વ સાથે પુરુષની અહીં જુદી જુદી સરખામણી કરી છે. પહેલા સૂત્રમાં જે ચાર પ્રકારના કન્યક કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે સમજવું-(૧), કેઈ એક કન્થક એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ વેગાદિ ગુણોથી યુક્ત હોવાને કારણે આકણું જાતિવાળો હોય છે અને પાછળથી પણ આકીર્ણ જ ચાલુ રહે છે. . (૨) કોઈ એક કન્યક એ હોય છે કે જે પહેલાં વેગાદિ ગુણેથી યુક્ત હોવાને કારણે આકીર્ણ –જાતિવાળો હોય છે, પણ પાછળથી ખલુંક (અવિ. નીત અથવા વિસ્મૃત શિક્ષાવાળો) થઈ જાય છે. (૩) કોઈ એક કન્થક (અશ્વ) એ હોય છે કે જે પહેલાં તે ખલુંક (અવિનીત) હોય છે, પણ પાછળથી અશ્વપાલની તાલીમ મળવાથી વિનય, વેગ આદિ ગુણોથી સંપન્ન થઈ જાય છે (૪) કેઈ એક કન્જક અશ્વ એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ ખલુંક (અવિનીત) હેય છે અને પાછળથી પણ અવિનીત જ ચાલુ રહે છે. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठोका स्था०४ उ०३ सू०३० कन्थकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् १६५ अथ पुरुषदान्तिकमाह" एवामेव चत्तारि पुरिसजाया” इत्यादि-एवमेव-कन्थकवदेव पुरुपजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक:-कश्चित् पुरुष. आकीर्णः-पूर्व विनयादिगुणैाप्तो भवति, स पश्चादपि आकीर्ण:-तैः सम्पन्न एव भवति । इति प्रथमः । १। तथा-एकः पूर्वमाकीर्णः सन्नपि पश्चात् खलुङ्गः-अविनीतो भवति, इति द्वितीयः । २। तथा-एकः पूर्व खलुङ्क:-अविनीतः सन्नपि पश्चाद् आकीर्ण:विनयादिगुणव्याप्तो भवति । इति तृतीयः । ३ । तथा-एकः पूर्वमपि खलुङ्कः पश्चादपि खलु एच तिष्ठतीति चतुर्थः । ४। इत्याशयेनाऽऽह-" चउभंगो" इति-उक्तक्रमेण चतुर्भङ्गी वोध्या ।१। पुनः कन्थकदृष्टान्तमूत्रम् - " चत्तारि कंथगा" इत्यादि-कन्यकाः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकःकथिदश्वभाकीर्णः-पूर्व विनयवेगादिगुण पम्पन्नः पश्चादपि स आकोर्णतया-तैर्गु भी ऐसा ही है कि कोई पुरुष तो ऐसा होता है कि पहिले श्री विनयादि गुणोंसे रहित होता है और बाद में भी वह विनयादि गुणोंसे युक्त बना रहता है १ तथा-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले ती-आकीर्ण होता है बिनयादि गुणोंसे सहित होता है पर बादसे वह खलुङ्क-अविनीत हो जाता है २, तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले तो खलङ्क अविनीत होता है पर बादमें आकीर्ण विनयादि गुणों से सहित हो जाना है ३, और कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले भी और बाद में भी खलुङ्क अविनीन का अविनीन ही बना रहता है १ द्वितीय सूत्र में जो कन्धक चतुमैगी कही गई है उसका सारांश ऐसा है-कि कोई एक अश्व ऐसा होता है जो पहिले विनय वेगादि દાર્જીન્તિક પુરુષ સ્ત્રમાં પણ એક પ્રકારના ચાર ભાગ બને છે તે ચારે ભાગાતુ હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે– - (૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ વિનય દિ ગુણેથી યુક્ત હોય છે અને પછી પણ વિનયાદિ ગુણોથી યુક્ત જ રહે છે. (ર) કેઇ એક પુરુષ પહેલા તો આકીર્ણ (વિનયદિ ગુણેથી સંપન્ન હોય છે પણ પાછળથી ખલક (વિજયાદિ ગુણેથી રહિત થઈ જાય છે. (૩) કોઈ એક પુરુષ પહેલા ખલુક (વિનયાદિ ગુણોથી રહિત) હોય છે, પણ પાછળથી આકીર્ણ (વિનય દિ ગુણોથી યુક્ત) બની જાય છે. (૪) કોઈ એક પુરુષ પહેલાં પણ ખલુંક (અવિનીત) હોય છે અને પછી પણ ખલુંક (અવિનીત)જ ચાલુ રહે છે. બીજા સૂત્રના કનેકના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ स्थानांशी णैर्व्याप्ततया विहरति-विचरति । इति प्रथमः । १ । तथा-एकः आशीर्णः सन्नपि= वेगविनयादिगुगसम्पन्नोऽपि खलु तया-अविनीततया विहरति, इति द्वितीयः ।२। तथा-एकः खलुङ्क:--अविनीतः सन्नपि आकीर्णतया-आरोहकगुणाद् वेगादिगुणव्याप्ततया विहरति, इति तृतीयः । ३ । तथा-एकः खलुङ्क:-अविनीतः खलुङतया-अविनीततया विहरति । इति चतुर्थः । ४ । (२) अथ पुरुष नातदार्टान्तिकमूत्रम् - " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-एकामेव अनन्तरोक्तकन्थकचदेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पूर्व विनयशीलादिगुणैराकीर्णः व्याप्तः सन् पश्चादपि तैर्गुणैराकीर्णतया-व्याप्ततया विहरति । इति प्रथमो मङ्गः । १। तथा-एक आफीणः खलुङ्तया विहरति । इति द्वितीयः । २। गुणों से सम्पन्न होता है और इसी तरह ले बह चाल भी चलता है तथा कोई एक अश्द ऐला होताहै जो विनय वेगादि शुगोंसे युक्त होता है पर चलने में अबिनीत जैसी चाचाला होता है २ तथा कोई एक अश्व ऐसा होता है जो अविनीत होता हुआ भी चहनेवाले पुरुष के गुणके अनुसार अच्छी चाल से चलताहै ३ तथा कोई एक अश्व ऐसा होता है जो अविनीत ही होता है और अचिनीत जैसी ही चाल से पलता है ४ इसी प्रकार से कोई एक पुरुष ऐसा होताहै जो विनयशील आदि गुणों से सहित होता है और उसी तरह भी चाल चलता है, तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो विनयशील आदि गुगोंसे युक्त हुआ भी अविनीत की जैसी चाल चलता પ્રકારનું છે–(૧) કેઈ એક કથક અશ્વ એ હોય છે કે જે વિનય, વેગ આદિ ગુણોથી યુક્ત હોય છે અને તેની ચાલ પણ વિનીત હોય છે. (૨) કઈ એક કન્વક એ હોય છે કે જે વિનય, વેગ આદિ ગુણોથી તે યુક્ત હોય છે પણ તેની ચાલ અવિનીત જેવી હોય છે (૩) કેઈ એક કન્થક એ હોય છે કે જે અવિનીત હોવા છતાં પણ તેના પર સવાર થનાર પુરુ ષના ગુણ ગુમાર સારી ચાલ ચાલનારે હોય છે. (૪) કેઈ એક કપક અને અવિનીત પગ હોય છે અને અવિનીત જેવી ચાલ ચાલનારો પણ હોય છે. એજ પ્રમાણે દાઈન્તિક પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર સમજવા(૧) કેઈ એક પુરુષ વિનય, શીલ આદિ ગુણોથી યુક્ત હોય છે અને તેની ચાલ પશુ એજ પ્રકારની હોય છે (૨) કઈ એક પુરુષ વિનય, શીલ આદિ ગુણોથી યુક્ત હોવા છતાં પણ અવિનીતના જેવી તેની ચાલવાની ઢબ હેય Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३ सू० ३० कन्थकदृष्टान्न पुरुषजातनिरूपणम् १६७ तथा-एकः खलुक आकीर्णतया विहरति, इति तृतीयः । ३। तथा-एकः खलङ्क: खलुङ्कतया विहरति । इति चतुर्थः । ४ । इत्याशयेनाऽऽह-" चउभंगो" इतिप्रदशितक्रयेण चतुर्भङ्गी वोध्या । (२) पुनः कन्थकदृष्टान्तमूत्रम्" चत्तारि कंथगा" इत्यादि-कन्थकाः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो कुलसम्पन्नः १, कुलसम्पन्नो नामै को नो जातिसम्पन्नः २, एको जातिसम्पन्नोऽपि कुलसम्पन्नोऽपि ३, एको नो जातिसम्पन्नो नो कुलसम्पन्नः ४। एते सुगमाः । (३) ____ अथ पुरुषजातदान्तिकसूत्रम्"एवामेत्र चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-एवमेव-कन्थकवदेव चत्वारि है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होनाहै अविलीत आहुली विनयशीलादि गुणों से चाल चलता है और कोई एक पुरुष ऐसा भी होता है अविनीत होता हुआ अविनीत की ही चाल चलता है ४ (२) तृतीय सूत्र कथित जो कन्थक चतुर्भगी है-उसका सारांश ऐसा हैं-कोई एक कन्यक अश्व ऐला होता है जो जातिसम्पन्न हुआ भी कुल सम्पन्न नहीं होता है १, कोई एक कन्थक ऐसा होता है जो कुल सम्पन्न होने पर भी जालिसम्पन्न नहीं होता है २ कोई एक कन्थक ऐसा होता है जो जाति सम्पन्न भी होता है और कुल सम्पन्न भी होता है ३ कोई एक अश्व ऐसा होता है जो न जाति सम्पन्न होता है और न कुल सम्पन्न भी होता है ४ इसी प्रकारसे कोई एक છે (૩) કેઈ એક પુરુષ વિનય, શીલ આદિ ગુણોથી રહિત હોવા છતાં પણ તેની ચાલવાની ઢબ વિનયશીલાદિ ગુણસંપન્ન હોય છે. (૪) કોઈ પુરુષ વિનય, શીલાદિ ગુણેથી યુક્ત પણ તે નથી અને વિનીતના જેવી ચાલથી ચાલતે પણ નથી. ત્રીજા સૂત્રમાં કન્જકના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–(૧) કોઈ એક કથક અશ્વ એ હોય છે કે જે જાતિસંપન્ન હોય છે પણ કુલસંપન હોતો નથી (૨) કોઈ એક કન્જક અશ્વ કુલસંપન્ન હોય છે પણ જાતિય પન્ન હોતું નથી. (૩) કોઈ એક કન્થક અશ્વ જાતિસંપન્ન પણ હોય છે અને કુલસંપન્ન પણ હોય છે અને (૪) કોઈ એક કન્જક અશ્વ જાતિના પન્ન હોતું નથી અને કુલ પન પણ હેતે નથી. એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર પડે છે–(૧) કોઈ પુરુષ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ स्थानान पुरुषजातानि मज्ञप्तानि तद्यथा - जातिसम्पन्नो नामको नो कुलसम्पन्नः १ | 9 एवं चतुङ्गी बोध्या । (३) पुनः कन्थकदृष्टान्त मूत्रम् " चत्तारि कन्धगा " इत्यादि — चलारः कन्यकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो वलसम्पन्नः १, बलसम्पन्नो नामैको नो जातिसम्पन्नः २, एक जातिसम्पन्नोऽपि बलसम्पन्नोऽपि ३, एको नो जातिसम्पन्नो नो वलसस्पन्नः । ४ । एते सुगमाः ( ४ ) अथ पुरुषजातदान्तिकसूत्रम् - " एवामेव चत्तारि पुरिसनाया " इत्यादि - एवमेव - अनन्तरोक्तकन्यकत्र देव चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो वलसमनुष्य ऐसा होता है जो जाति सम्पन्न हुआ भी कुलसम्पन्न नहीं होता है १, कोई एक कुलसम्पन्न होने पर भी जाति सम्पन्न नहीं होता है २, कोई एक जाति सम्पन्न भी होता है और कुल सम्पन्न भी होता है ३ और कोई ऐसा होता है जो न जातिसम्पन्न होता है और न कुलसम्पन्न भी होता है (४) चतुर्थ सूत्रगत जो कन्थक चार प्रकार कहे गये हैं उनका सारांश ऐसा है कि कोई कन्थक ऐसा होता है, जो जाति सम्पन्न होने पर भी चल सम्पन्न नहीं होता है १, कोई एक ऐसा होना है जो चलसम्पन्न होने पर भी जातिसम्पन्न नहीं होता है २, कोई एक ऐसा होता है जो जाति सम्पन्न भी होना है और चल सम्पन्न भी होता है ३, तथा कोई एक कन्धक ऐसा भी होता है जो न जातिसम्पन्न होता है और જાતિસ પન્ન હાય છે પણ કુલસંપન્ન હાતેા નથી (૨) કાઇ પુરુષ કુલસંપન્ન હાય છે પણ જાતિસંપન્ન હેાતા નથી (૩) કેાઈ પુરુષ જાતિસ’પન્ન પણ હાય છે અને કુલસ'પન્ન પણ હાય છે (૪) કૈાઇ પુરુષ જાતિસંપન્ન પણ હોતા નથી અને કુલસ'પન્ન પણ હાતા નથી ચેથા સૂત્રમાં કન્થક અશ્વના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણુ नीचे प्रभाछे (૧) કાઇ એક કન્થક એવા હાય છે કે જે જાતિસ ́પન્ન હોય છે પણ અલસપન્ન હતેા નથી (ર) કૈાઇ એક કન્થક એવા હાય છે કે જે મલસપન્ન હાય છે, પણ જાતિપ્ત પન્ન હેાતે નથી (૩) કેાઇ એક કન્થક એવે હાય છે કે જે જાતિસ’પન્ન પણ હાય છે અને ખલસ'પન્ન પણ હાય છે. (૪) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०३० कन्थकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् १६९, सम्पन्नः १, एवं-वलसम्पन्नो नामको नो जातिसम्पन्नः २। एको जातिसम्पन्नोऽपि वलसम्पन्नोऽपि ३। एको नो जातिसम्पन्नो नो वलसम्पन्नः ।४। (४) पुनः कन्थकदृष्टान्तमूत्रम्"चत्तारि कथगा" इत्यादि-कन्यकाश्चत्वारःमइताः, तद्यश-जातिसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः ११ रूपसरपन्नो नासैको नो जातिसम्पन्न:-२॥ एको जातिसम्पन्नोऽपि रूपसम्पन्नोऽपि ३। एको नो जातिसम्पन्नो नो रूपसम्पन्नः । ४ । (५) अथ पुरुषजातदान्तिकसूत्रम्:-.. " एवामेव चत्तारि पुरिस नाया " इत्यादि-एवमेव अनन्तरोक्त कन्यकव: देव चत्वारि पुरुषजानानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-जातिसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः ११ रूपसम्पन्नो नामैको नो जाविसम्पनः २। एको जातिसम्पन्नोऽपि रूपसम्पनोऽपि ३। एको नो जातिसम्पन्नो नो-रूपसम्पन्नः । ४ । (५) , ... न घल सम्पन्न भी होता हैं इसी प्रकार से पुरुष प्रकार भी घटित कर लेना चाहिये (४) ___पंचम सूत्रगत जो कन्थक प्रकार कहे गये हैं वे इस प्रकार से हैं कोई एक कन्धक ऐसा होता है जो जाति सम्पन्न हुआ भी रूप सम्पन्न नहीं होता है १, रूप सम्पन्न हुआ भी कोई एक जाति सम्पन्न नहीं होता २ कोई एक दोनों प्रकार से सम्ल होता है, और --कोई अश्व ऐसा होता है जो न जाति सम्पन्न होता है और न रूप सम्पन्न -ही होता है ४ इसी प्रकार की चतुभगी पुरुष दार्टान्नमें भी घटित कर लेनी चाहिये (५) કેઈ એક કન્જક અશ્વ એ હોય છે કે જે જાતિસંપન્ન પણ હેત નથી અને બલસંપન્ન પણ હોતો નથી એ જ પ્રમાણે દાર્શનિક પુરુષના ચાર પ્રકારે પણ સમજી લેવા, પાંચમાં સૂત્રમાં કન્જકના જે ચાર પ્રકારે કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-(૧) કઈ એક કન્જકે એ હેય છે કે જે જાતિસંપન્ન હોવા છતાં રૂપ સંપન્ન હોતું નથી (૨) કોઈ એક કથક રૂપ હોય છે પણ જાતિરાપન્ન હોતો નથી (૩) કેઈ એક કર્થક જાતિ અને રૂપ બનેથી સંપન્ન હય છે અને (૪) કોઈ એક કન્વક જાતિસંપન પણ હોતું નથી અને રૂપસન પણ હોતું નથી એ જ પ્રમાણે દાન્તિક પુરુષના પણ ચાર પ્રકારે સમજવાં. ल-२२ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܦ errated पुनः कन्यकदृष्टान्तसूत्रम् " चत्तारि कंथगा " इत्यादि — कन्यकाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - जातिसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः १, जयसम्पन्नो नामको नो जातिसम्पन्नः २, एको जातिसम्पन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि ३ । एको नो जातिसम्पन्नो नो जयस*पन्नः ४। एते सुगमाः, नवरं - जयः - पराभिभवः । (६) अत्र पुरुषजातदान्तिक सूत्रम् - " एवामेत्र चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि - एवमेत्र - अनन्तरोक्तकन्यकर" देव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - जातिसम्पन्नो नानेको नो जयस*पन्नः १| जयसम्पन्नो नामैको नो जातिसम्पन्नः २। एको जातिसम्पन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि ३॥ एको नो जातिसम्पन्नो नो जयसम्पन्नः ४ (६) छठे सूत्रमें जो कन्धक चतुर्भागी कही गई है वह इस प्रकार से है जैसे कोई एक कन्धक ऐसा होता है जो जाति सम्पन्न हुआ भी जय सम्पन्न नहीं होता है १ कोई एक कन्धक जय सम्पन्न होने पर भी जाति सम्पन्न नहीं होता है २, कोई एक कन्धक उभय सम्पन्न होता है ३ और कोई कन्थक ऐसा भी होता है जो जाति सम्पन्न ही होता है ४, परका अभिभव करना इसका नाम जय है ( ६ ) इसी प्रकार से पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-जैसे कोई एक पुरुष जाति सम्पन्न होता हुआ भी जय सम्पन्न नहीं होता है. १ कोई एक जयसम्पन्न होता हुआ भी जाति सम्पन्न नहीं होता है २ कोई एक जाति और जय इन दोनोंसे भी सम्पन्न होता है ३ और कोई एक पुरुष जाति और जथ इन दोनों से भी सम्पन्न नहीं होता है ४ (६) છઠ્ઠા સૂત્રમાં કન્થકના જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે—(૧) કાઇ એક કન્થક જાતિસ’પન્ન હોય છે પણ જયસ′પન્ન હતા નથી. (૨) કાઇ એક કન્થક જયસ’પન્ન વ્હાય છે પણ જાતિસ પન્ન હતા નથી. (૩) કાઈ એક કન્થક જાતિ અને જય ખન્નેથી સપન્ન હૈાય છે અને (૪) કાઇ એક કન્યક જાતિસ’પન્ન પણ હાતા નથી અને જયસંપન્ન પણ હતા નથી એજ પ્રમાણે દાન્તિક પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે (૧) કાઈ એક પુરુષ જાતિસ′પન્ન હાય છે પણ જયસ પન્ન હાતા નથી; (૨) કૈાઈ પુરુષ જયસ'પન્ન હાય છે પણ જાતિસ`પન્ન હાતા નથી. (૩) કાઇ પુરુષ જાતિસ’પન્ન પણ હાય છે અને જયસ‘પન્ન પણ હોય છે. (૪) કાઇ પુરુષ જાતિસ*પન્ન પણુ હાતા નથી અને જયસ'પન્ન પણુ હાતા નથી. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३ सू०३० कन्थकट तेन पुरुषजातनिरूपणम् ११ ___ " एवं कुलसंपण्णेण य वलसंपण्णेग य ४" इति-एवं-यथा-जातिसम्पन्नेन जयसम्पन्नेन च सह चतुर्भङ्गो प्रोक्ता तथा-कुलसम्पन्नेन च वलसम्पन्नेन च चतुभेङ्गी भणनीया, तथाहि-चत्वारः कन्यकास्तद्वत् चत्वारि पुरुषजातानि च भवन्ति, तद्यथा-कुलसम्पन्नो नामैको नो बलसम्पन्नः १, बल सम्पन्नो नामैको नो कुलसम्पन्नः २, एकः कुलसम्पन्नोऽपि बलसम्पन्नोऽपि, ३, एको नो कुलसम्पन्नो नो वलसम्पन्नः । ४ । (७) " कुलसंपण्णेण य रूवसंपण्णेण य" इति-कुलसम्पन्नेन रूपसम्पन्नेन च सह चतुर्भङ्गी प्राग्वद्भणनीयाः, तथाहि-चत्वारः कन्थकाः-तद्वत् चत्वारि पुरु सातवें सूत्र में जैसी जातिसम्पन्न और जयसम्पन्न पदोंको जोडकर छठे सूत्र में चतुर्भगी बनाई गई है वैसी है चतुर्भगी कुलसम्पन्न और बलसम्पन्न इन दो पदोंको जोड़कर बनाई गई है, जैसे कोई एक कन्धक ऐसा होता है जो कुलसम्पन्न होता हुआ भी बलसम्पन्न नहीं होता है १ कोई एक कन्थक बलसम्पन्न हुआ भी कुलसम्पन्न नहीं होता २ कोई एक कन्थक उभयसम्पन्न भी होता है ३ और कोई एक कन्थक ऐसा होता है जो न कुलसम्पन्न होता है और न बलसम्पन्न होता ४ इसी प्रकारसे पुरुषों में भी कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो कुलसम्पन्न होता हुआ भी बलसम्पन्न नहीं होता है १ कोई एक ऐसा होता है जो बल सम्पन्न होने पर भी कुल सम्पन्न नहीं होता २ कोई एक ऐसा होता है जो उभयसम्पन्न होता है ३ और कोई एक ऐसा भी होता है जो उभय सम्पन्न नहीं भी होता है ४ (७) સાતમા સૂત્રમાં કક–અશ્વને નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે– (૧) કેઈ એક કન્યક કુલસંપન હોય છે, પણ બલસંપન હેતે નથી. (૨) કે એક કન્થક બલસંપન્ન હોય છે, પણ કુલસંપન્ન હેતે નથી. (૩) કેઈ એક કથક કુલસંપન્ન પણ હોય છે અને બલસંપન્ન પણ હોય છે અને (૪). કેઇ એક કથક કુલસંપન્ન પણ હોતો નથી અને બલસંપન્ન પણ નથી. એજ પ્રમાણે દાર્જીન્તિક પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પડે છે– (૧) કેઈ પુરુષ કુલસંપન્ન હોય છે, પણ બલસપન હેતે નથી, (૨) કેઈ પુરુષ બલસંપન્ન હોય છે, પણ કુલસંપન હેતે નથી. (૩) કઈ કુલસંપન્ન પણ હોય છે અને બલસંપન્ન પણ હોય છે. (૪) કોઈ કુલસંપન્ન પણ હોતું નથી અને બલસંપન પણ હોતે નથી. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्र पजातानि भवन्ति, तद्यथा-कुलपम्पन्नो नामे को नो पासम्पन्नः १, रूपसम्पन्नो नामैको नो कुलसम्पन्नः । २ । एका कुलपम्पन्नोऽपि रूपसम्पन्नोऽपि ३। एको नो कुलसम्पन्नो नो रूपमम्पन्नः ४। (८) "कुलसंपण्योण य जयसंपण्णेग य" इति-मुलसम्पन्नेन जयसम्पन्नेन च सह प्राग्यचतुर्भङ्गी वाच्या, तथाहि-चन्चारः कन्धकास्तचत्वारि पुरुषजातानि आठवें स्त्र में जो कुल सम्पन्न और रूप सम्पन्न पदोंको जोड़कर चतुभंगी प्रकार की गई है यह इस प्रकारले है-जैसे कोई एक कन्धक ऐसा होता है जो कुल सम्पन्न होता हुआ भी रूप सम्पन्न नहीं होता है १ कोई एक कन्यक ऐसा होता हे जोर सम्पन्न होता हुआ भी कुलसम्पन्न नहीं होता है २ कोई एक कन्धक पाना होता है जो उभय सम्पन्न होता है ३ और कोई एक कन्या इन दोनों से भी रहित होता है ४ इसी प्रकारसे पुरुष जोत भी चार होते है जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो बुल सम्पन्न होता हुआ भी रूप सम्पन्न नहीं होता है ४ इत्यादि (८) , ९ वें सूत्रों जो कुलसम्पन्न और जय सम्पन्न पदोंको जोडकर चतुभंगी बनाई गई है पर इस प्रकार से है जैसे-कोई एक कन्थक ऐसा होता है जो कुल सम्पन्न होता हुआ भी जय सम्पन्न नहीं होता है ? कोई एक बन्धक जय सम्पन्न होने पर भी कुलसम्पन्न नहीं होता है २ આઠમાં સૂત્રમાં કુલસંપન અને રૂપસંપન્નના યોગથી કન્થક વિષયક જે ચાર ભાંગા કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે – (૧) કેઈ એક કન્યક એ હોય છે કે જે કુલસંપન્ન હોવા છતાં પણ 'રૂપસંપન્ન હેતું નથી. (૨) કોઈ એક કન્યક રૂપસંપન્ન હોય છે, પણ કુલસંપન્ન હોતો નથી. (૩) કેઈ એક કન્યક કુળ અને રૂપ બનેથી સંપન્ન હોય છે અને (૪) કેઇ એક કન્યક કુળ અને રૂપ બનેથી રહિત હોય છે. એજ પ્રમાણે દાર્શનિક પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર સમજવા–(1) કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે કુળસંપન્ન હોય છે, પણ રૂપસંપન હેતું નથી. બાકીના ત્રણ પ્રકારો જાતે જ સમજી લેવા. નવમાં સૂત્રમાં કુલસપન અને જયસ પાનના વેગથી કથકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે– (૧) કોઈ એક કથક એવો હોય છે કે જે કુલસંપન્ન હોય છે, પણ જયસંપન હેતે નથી. (૨) કઈ જયસંપન્ન હોય Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघों को स्था०४३०३ .३० कन्र्थकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् १७३ च भवन्ति, तद्यथा-कुलसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः १, जयसम्पन्नो नामैको नो कुलसम्पन्नः । २ । एकः कुलसम्पन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि ३। एको नो कुलसम्पन्नो नो जयसम्पन्नः। ४ । (९) " एवं वलसंपन्नेण य रूवसंपन्नेण य" इति-एवं-यथा कुलसम्पन्नेन जयसम्पन्नेन च सह चतुर्भङ्गी प्रोक्ता, तथा वलसम्पन्नेन च रूपसम्पन्नेन च चतुभंडी भणितव्या, तथाहि-चत्वारः कन्थकास्तद्वत् चत्वारि पुरुषजातानि च भवन्ति, तद्यथा-वलसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः १, रूपसम्पन्नो नामैको नो वलकोई एक कन्थक उभय सम्पन्न होता है ३ और कोई एक कन्थक इन दोनोंसे भी सम्पन्न नहीं होता है । इसी प्रकारसे इन चार भंगोंको पुरुषमें भी योजित करके कहना चाहिये (९) १० वें सूत्र में जो चतुर्भगी बल और रूप इन दो पदोंकी सम्पबता करके बनाई गई है वह इस प्रकारसे है-जैसे कोई एक कन्थक ऐसा होतो है जो बल सम्पन्न होने पर भी रूप सम्पन्न नहीं होता है १ कोई एक कन्यक रूप सम्पन्न होने पर भी बल सम्पन्न नहीं होता है कोई एक उभय सम्पन्न होता है ३ और कोई एक कन्थक ऐसा होता है जो न बल सम्पन्न होता है और न रूपसम्पन्न ही होता है तो जैसे ये चार प्रकारके कन्थक कहे गये हैं। इसी प्रकारसे पुरुष भी चार प्रका. रके होते हैं जैसे-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो बल सम्पन्न होने पर भी रूप सम्पन्न नहीं होता है तथा कोई एक ऐसा होता है जो रूप છે પણ કુળસ પન્ન હેતું નથી. (૩) કેઈ કુળ અને જય બનેથી સંપન્ન હોય છે અને (૪) કેઈ કન્થક કુળસંપન્ન પણ હો નથી અને જયસંપન્ન પણ હેતે નથી. દાસ્કૃતિક પુરુષને પણ આ પ્રકારના જ ચાર ભાંગા (પ્રકારો) સમજી खेवा न . દસમાં સૂત્રમાં બલ અને રૂપ, આ બને ના ગથી કન્થક વિષષક જે ચતુર્ભગી કહી છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે (૧) કોઈ એક કન્થક બલસંપત હોય છે પણ રૂપ સંપન્ન હતો નથી (૨) કેઈ એક રૂપસંપન હોય છે પણ બલસંપન્ન હોતો નથી. (૩) કેઈ એક કન્થક ઉભયસંપન્ન હોય છે. (૪) કોઈ એક કથક બલસંપન્ન પણ હિતે નથી અને રૂપસંપન્ન પણ હોતું નથી એજ પ્રમાણે પુના નીચે પ્રમાણે પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે (૧) કેઇ એક પુરુષ બલસપન હોય છે પણ રૂસંપન્ન હોતો નથી, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ स्थानावे सम्पन्नः २, एको वलसम्पन्नोऽपि रूपसम्पन्नोऽपि ३, एको नो वलसम्पन्नो नो रूपसम्पन्नः ४। (१०) ___" वलसंपन्नेण य जयसंपन्नेण य" इति-चलसंपन्नेन जयसंपन्नेन च सह पूर्ववचतुर्भङ्गी वोध्या, तथाहि-चत्वारः कन्यकास्तचत्वारि पुरुषजातानि च भान्ति, तद्यथा-वलसम्पन्नो नामैको नो ज यसम्पन्नः १, जयसन्पन्नो नामको नो बलसम्पन्नः २, एको वलसम्पन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि ३, एको नो वलसस्पन्नो नो जयसम्पन्नः । ४ । (११) सम्पन्न होने पर भी बल सम्पन्न नहीं होता है २ शेष दो भग पूर्वोक्त रूपसे ही जान लेना चाहिये ४ (१०) __ग्यारहावे सूत्र में जो " बल सम्पन्न और जय सम्पन्न " इन दो पदोंको जोडकर चतुभंगी बनाई गई है वह इस प्रकारसे है जैसे-कोई एक कन्धक ऐसा होता है जो बल सम्पन्न हुआ भी जय संपन्न नहीं होता है १ कोई एक कन्यक जय संपन्न हुआ भी बल सम्पन्न नहीं होता है २ तथा कोई एक कन्थक वल संपन्न भी होता है और जय संपन्न भी होता है ३ और कोई एक कन्धक न वल सम्पन्न होता है और न जय सम्पन्न होता है । इसी तरहसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो घलसम्पन्न होने पर भी जय सम्पन्न नहीं होता है १ कोई एक ऐसा होता है जो जय सम्पन्न होने पर भी चल सम्पन्न नहीं होता है २तथा कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो चल सम्पन्न होता है और जय सम्पन्न भी होना है ३ और कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो न चल सम्पन्न (૨) કેઇ એક પુરુષ રૂપસ પન્ન હોય છે પણ બલસંપન હેતે નથી. (૩) કેઈ ઉભયસંપન્ન હોય છે અને (૪) કેઈ ઉશયથી રહિત હોય છે. અગિયારમાં સૂત્રમાં બલસંપન્ન અને જયસંપનના ચોગથી કન્થક વિષયક ચાર ભાંગ આ પ્રમાણે બને છે–(૧) કેઈ એક કન્થક બલસંપન્ન હેવા છતાં પણ જયસંપન્ન હોતો નથી. (૨) કેઈ એક કથક જયસંપન્ન હોય છે પણ બલસંપન હેતું નથી. (૩) કેઈ એક કન્જક બળસંપન્ન પણ હોય છે અને જયસંપન્ન પણ હોય છે (૪) કેઈ એક કન્થક બલસંપન્ન પણ નથી હોતું અને જયસંપન્ન પણ નથી તે એજ પ્રમાણે દાન્તિક પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પડે છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ બલસંપન્ન હોય છે, પણ જયસંપન હેતે नथी. (२) ७ ५५-1 डाय छ पशु सपन्न खाता नथी. (3) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ ४०३० ३० कन्थकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् १७५ चत्तारि कंथगा ' इत्यादि - चत्वारः कन्यकाः प्रज्ञताः, तद्यथा - रूपसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः १, जयसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः २, एको रूपसेपन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि३, एको नो रूपसम्पन्नो नो जयसम्पन्नः ४ । ' एवामेव चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि - एवमेव कन्यकवदेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञतानि, तथा - रूपसम्पन्नो नामैको नो जयसम्पन्नः १, जयसम्पन्नो नामैको नो रूपसम्पन्नः २, एको रूपसम्पन्नोऽपि जयसम्पन्नोऽपि ३, एको नो रूपसम्पन्नो नो जयसम्पन्नः ४ । (१२) अथ प्रव्रजितमुद्दिश्य चतुर्भङ्गीमाह - " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादिपुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एकः पुरुषः सिंहतया = सिंहसदृशतया - होता है और न जय सम्पन्न होता है ४ इस तरहसे कन्थकों के चतुभगों की तरह पुरुष जान भी चार भङ्गोंवाले होते हैं (११) (6 १२ वें सूत्र में जो कन्थक रूप सम्पन्न नो जय सम्पन्न " आदि रूपसे चतुभगी कही गई है वह इस प्रकार से है-जैसे कोई एक कन्थक ऐसा होता है जो रूप संपन्न तो होता है पर जय संपन्न नहीं होता है १ कोई एक कन्धक ऐसा होता है जो जय सम्पन्न होता है पर रूप सम्पन्न नहीं होता है २ कोई एक क्रन्थक ऐसा होता है जो रूप सम्पन्न भी होता है और जय सम्पन्न भी होता है३ तथा कोई एक कन्धक ऐसा भी होता है जो न रूप संपन्न होता है और न जय संपन्न ही होता है ४ इसी प्रकार के चार भङ्ग पुरुषोंकी चतुर्विधता होने में भी बना लेना चाहिये (१२) " to सूत्रकारने प्रजित को लक्ष्यकर इस १३ वें सूत्रमें जो चतुभैगी बनाई है वह इस प्रकार से है जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है, ખલસ પન્ન પણ હોય છે અને જયસપન્ન પણ હેાય છે. (૪) કેઇ ખલસ'પુન પણ નથી હાતા અને જયંસ‘પન્ન પણ નથી હોતા. હવે ખારમાં સૂત્રમાં રૂપસ પન્ન ના જયસંપન્ન ” આદિ જે ચાર કન્યક પ્રકાશ કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે—(૧) કાઇ એક અન્ય રૂપસપન્ન હોય છે પણ જયસ પન્ન હેાતેા નથી. (૨) કોઇ એક અશ્વ જયસ'પન્ન હેાય છે પણુ રૂપસપન્ન હતેા નથી. (૩) કોઇ એક અશ્વ રૂપ સપન્ન પણ હાય છે અને જયસ'પન્ન પણુ હાય છે. (૪) કાઈ એક અશ્વ રૂપસપન્ન પણ હાતા નથી અને જયસ`પન્ન પણ નથી હાતા. આ કન્થકવિષયક ચાર લાંગા જેવા જ પુરુષવિષયક ચાર ભાંગા પણુ જાતે જ સમજી લેવા, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १७६ स्थानासो पराक्रमवृत्त्येत्यर्थः, गृहावासाद् निष्क्रान्तः प्रत्रजितः निर्गतःसन् सिंहतया पराक्रम. वृत्त्यैव विहरति उद्यतविष्हारेण विहरति । इति प्रथमः । १। तथा-पकः सिंहतया गृहा. थासाद् निष्क्रान्तः शृगालतया शृगालसदृशतया शिथिलत्त्येत्यर्थः विहरति । इति द्वितीयः । २ । तथा-एकः शृगालनया गृहागासाद् निष्क्रान्तः सन् सिंहतया विहरति । इनि तृतीयः । ३ । एकः शगालतया गृहावासाद् निष्क्रान्तः श्रृगालतया विहरति । इति चतुर्थः । ४ । (१३) ।। सू० ३० ॥ __ पूर्व पुरुषाणां जात्यादि गुणैरश्वादिसाम्यमुक्तं, साम्प्रतमप्रतिष्ठानादीनामायामविष्कम्भादिप्रमाणेन साम्यमाह मूलम् ---चत्तारि लोगे समा पण्णता, तं जहा-अपइट्ठाणे नरए १, जंबुद्दीवे २, पालए जाणविमाणे ३, सबसिद्धे महाजो सिंहको जैली वृत्तिसे-पराक्रमवृत्ति से गृहावाम से निष्क्रान्त होता है और ऐसी ही वृत्तिसे वह विहार करता है १ कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो सिंहकी जैसी वृत्तिसे तो गृहावास से निष्क्रान्त होता पर वह शृगालकी जैसी वृत्तिसे-शिथिल वृत्तिसे-विहार करता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो शृगालकी जैसी वृत्तिसे शिथिल. वृत्तिसे-गृहावास से निष्क्रान्त होता है पर वह सिंहकी जैसी वृत्तिसे विहार करता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो शृगालकी जैसी वृत्तिसे ही तो गृहावास से निष्क्रान्त (प्रव्रजित) होता है और शृगालकी जैसी वृत्तिसेही विहार करता है ४ (१३) ॥ सूत्र ३०॥ . ૧૩ માં સૂત્રમાં સૂત્રકારે પ્રવ્રજિત પુરુષના ચાર પ્રકારનું કથન કરતી " यंती तन २५४२६५ ४२पामा माछ- - (૧) કોઈ એક પુરુષ એ હેય છે કે જે સિંહના જેવી વૃત્તિથી પરાક્રમ વૃત્તિથી ગૃહવાસમાંથી નીકળે છે–પ્રત્રજ્યા અંગીકાર કરે છે અને એવી જ વૃત્તિથી વિહાર કરે છે - (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સિંહના જેવી વૃત્તિથી ગૃહા'વાસમાંથી નીકળી જાય છે. પણ શિયાળના જેવી વૃત્તિથી (શિથિલ વૃત્તિથી) વિહાર કરે છે (૩) કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે શિયાળના જેવી વૃત્તિથી ગૃહાવાસમાંથી નીકળી જાય છે, પણ સિંહના જેવી વૃત્તિથી વિહાર - કરે છે. (૪) કેઈ એક પુરુષ શિયાળના જેવી વૃત્તિથી ગૃડાવાસમાંથી નીકળી જાય છે मन शियाना वी वृत्तिथी । विडा२ ४२ छ. ॥ सू ३० ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३ ३सू०३१ मप्रतिष्ठाननरकादिविषयकसाम्यनिरूपणम् .१५७ विमाणे ४। चत्तारि लोगे समा सपक्खि सपडिदिसिं पण्णत्ता, तं जहा-सीमंतए नरए १, समयक्खेत्ते २, उड्डविमाणे ३, ईसीपब्भारा पुढवी ४ ॥ सू० ३१ ॥ छाया-चत्वारो लोके समाः प्रज्ञप्ताः, रघथा-अप्रतिष्ठानो नरकः १, जम्बूद्वीपो द्वीपः २, पालकं यानविमानं ३, सर्वार्थसिद्धं महाविमानम् । ४ । चत्वारो लोके समा. सपक्ष सप्रतिदिक् प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सीमन्तको नरकः १, “समयक्षेत्रम् २, उर्ध्वविज्ञानम् ३ ईपत्प्रारभारा पृथिवी ४ ॥ ३१॥ टीका-" चत्तारि लोगे " इत्यादि-लोके चत्वारः-चतुःसंख्यकाः पदार्थाः समाः-प्रमाणतः समानाः प्रज्ञप्ताः तथा अप्रतिष्ठान:-तदाख्यो नरकानरकाऽऽवासः, स च सप्तमनरकपृथिव्यां काल-महाकाल-रौरव-महारौरवा-ऽप्रतिष्ठानानां पञ्चानां नरकाऽऽाप्तानां मध्यवर्ती योजन लक्षपमाणः १, तथा-जम्बूद्दीपो इस प्रकारसे जात्य दि गुणोंको लेकर पुरुषोंकी समानतो अश्वादिकोंके साथ कही अब सूत्रकार अप्रतिष्ठान आदिकोंकी समानता आयाम विष्कम्भ को लेकर प्रकट करते हैं " चत्तारि लोगे समा पणत्ता" इत्यादि सूत्र ३१॥ लोकमें ये चार पदार्थ प्रमाणकी अपेक्षा समान कहे गये हैं-उनके नाम इस प्रकारसे हैं-अप्रतिष्ठान नरक १ जम्बूद्रीप नामका दीप २ पालकयान विमान ३ और सर्वार्थ सिद्ध महाविमान ४ ___ अप्रतिष्ठान नामका नरक-नरकावास-सप्तम नरक पृथिवी में जो पांच ये काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान नरकावास कहे गये हैं उनके मध्यमें है यह एक लाख योजनका प्रमाण. આ પ્રકારે જાતિ આદિ ગુણની અપેક્ષાએ અશ્વાદિકની સાથે પુરુષની સમાનતાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર અપ્રતિષ્ઠાન આદિકની સમાનતા, આય.મ, વિઝંભ આદિને અનુલક્ષીને પ્રકટ કરે છે – ___“ चत्तारि लोगे:समा पण्णत्ता" याह-(३१) ___सभामा या२ स्थान प्रमाणुनी अपेक्षा समान" -(१) मप्रतिष्ठान न२४, (२) दी५ नमन द्वीप, (3) पायान विभान भने (४) साथ सिद्ध नामनु महाविभान. સાતમી પૃથ્વીમાં (નરકમા) નીચે પ્રમાણે પાંચ નરકાવાસ આવેલા છે. (१) ४, (२) भ७४।१, (3) शै२१, (४) महारी२१ मन (५) मप्रति हान. આ અપ્રતિષ્ઠાન નામને નરકાવાસ ઉપરના પાંચે નરકાવાસોની મધ્યમાં આવેલ स-२३ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ द्वीपः २, तथा-पालक-पालकदेवनिर्मितं सौधर्मेन्द्राविप्टितं यानविमान-यात्यने. नेति यानं तच्च तद् विमानं च यानविमानं, यद्वा-यानाय गमनाय विमान यानविमानं, न तु शाश्वतम् ३, तथा-साथ मिदनामकं पञ्चानामनुनरविमानानां मध्यवर्ति विमानम् ४। एते चत्वारः प्रमाणतः समाः सन्ति । पुनः सीमन्तकनरकादयश्रत्वारः प्रमाणतः समाः सन्तीत्याह " चत्तारि लोगे” इत्यादि-लोके चत्वार -सीमन्तकनरकावासः सपक्षसमानाः पक्षाः पार्थाः पूर्वापरदक्षिणोत्तारूपा दिगो यस्मिन् तत् सपक्षम समानपार्श्वमित्यर्थः, ‘सपक्खि ' इत्यत्रानुरबार उकारथ प्राकृतत्वात, तथासप्रतिदिक-समानाः प्रतिदिशो-विदिशो यस्मिन् तत् समतिदिकममानविदि गित्यर्थः, यद्वा-'सदृशाः परः सपक्ष, सदृशाः प्रनिदिग्भिः मप्रतिदिक ' इति विग्रहे सादृश्येऽव्ययीभावः, समासह येऽपि क्रियाविशेषण गेन यम् , तचात्यन्त. साम्यज्ञापनार्थम् । ततश्च सपक्ष सप्रतिदिक् यथा स्पानथा समाप्रमाणनम्तुल्याः वाला है तथा-जम्बूद्वीप नामका दीप पालक विमान जो कि पालक देवके द्वारा निर्मित होता है और सौधर्मेन्द्र से अधिष्ठित होता है ऐसा यानविमान तथा-सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान जो कि पांच अनु. त्तर विमानोंके मध्यमें है बह-इस प्रकाररो चे प्रमाण की अपेक्षा समान कहे गये हैं। पालक विमान शाश्वत नहीं होता है क्योंकि सौधर्मेन्द्र जय जाता है तब उसका निर्माण होता है. पुनश्च-सीमन्तक नरक आदि चार भी प्रमाण की अपेक्षा सम कहे गये हैं उनके नाम इस प्रकारसे हैं-सीमन्तक १ समयक्षेत्र २उड्ड विमान ३ और ईषत्मारभारापृथिवी(सिद्धशिला) ४ ये चारों सप्रतिदिन છે. તેને વિસ્તાર એક લાખ જન પ્રમાણુ કહ્યો છે. જબૂદ્વીપ નામના દ્વીપનો વિસ્તાર પણ એક લાખ જન પ્રમાણ કહ્યો છે પાલક વિમાન પાલક દેવના દ્વારા નિર્મિત થાય છે અને સૌધર્મેન્દ્ર દ્વારા અધિષ્ઠિત હોય છે તેને વિરતાર પણ એક લાખ જન પ્રમાણ કહે છે સર્વાર્થસિદ્ધ નામનું વિમાન પાંચ અનુત્તર વિમાનોની મધ્યમાં છે તેને વિસ્તાર પણ એક લાખ ચોજન પ્રમાણે કો છે. પાલાન વિમાન શાશ્વત હોતું નથી, કારણ કે સૌધર્મેન્દ્ર જ્યારે જાય છે ત્યારે તેનું નિર્માણ થાય છે. : વળી સીમન્તક નરક આદિ ચાર સ્થાને પ્રમાણુની અપેક્ષાએ સરખાં ह्या छ- यारन नाम नीये प्रमाणे छे-(१) सीमन्त४, (२) समय क्षेत्र, (૩) ઉડુ વિમાન અને (૪) ઈષત્રાસારા પૃથ્વી, આ ચારે સપ્રતિદિ અને Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४३०३०३२ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकस्थ द्विशरीरजीवनिरूपणम् १७९ मज्ञप्ताः, तद्यथा - सीमन्तकः - तदाख्यो नरकः, स च प्रथमपृथिव्यां प्रथम प्रस्तटे पञ्चचत्पारिंशद्योजनशत महस्रममाणोऽस्ति १ तथा समयक्षेत्र - समयः - कालस्तदुपलक्षितं क्षेत्रं समयक्षेत्रं = मनुष्यक्षेत्रम् २, उर्ध्वविमानं - सौधर्मे प्रथमप्रस्तट एवेदमस्ति ३, ईषत्प्राग्भारा - ईपद - अल्पो रत्नप्रभाद्यपेक्षया माग्भारः - उन्नततादिरूपो यस्यां पत्प्राग्भारा पृथिवी । ४ । ॥ सू० ३१ ॥ अनन्तरमपत्मारमारा पृथिवी मोक्ता, सा चोलोके भवतीत्यूर्ध्वलोकप्रस्तावादिदमाह - मूलम् —— उड्डलोगे र्ण चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, १, आउकायिका २, वणस्सइकाइया ३, उराला तसा पाणा ४ । अहोलोगे णं चतारि बिसरीरा पण्णत्ता, तं जहा एवं चैत्र, एवं तिरियलोएवि । ॥ सू० ३२ ॥ और सपक्ष हैं। इनमें सीमन्तक नरकावास प्रथम पृथिवी में प्रथम प्रस्तर में है इसका प्रमाण ४५ लाख योजन प्रमाणवाला है यह पृथिवी रत्नप्रभा आदि पृथिवियों की अपेक्षा उन्नतत्ता (ऊंचाई) आदि रूप प्राग्भार में अल्प है इसलिये इसका " ईषत्प्राग्भारा " ऐसा नाम हुआ है।' इन चारोंके पूर्व पश्चिम दक्षिण और उत्तर दिशारूप पक्ष समान हैं अर्थात् ये समान पार्श्ववाले हैं, इसलिये इन्हें सपक्ष ऐसा कहा गया है तथा ये समान विदिशावाले हैं इसलिये इन्हें सप्रतिदिक् कहा गया है । सू० ३१| सपक्ष छे. सीमन्त नरावास पहेली पृथ्वी (नर) ना प्रथम अस्तरमा छेતે ૪૫ લાખ ચેાજન પ્રમાણુ વિસ્તારવાળે છે. મનુષ્યક્ષેત્રને સમયક્ષેત્ર કહે છે. કાળથી ઉપલક્ષિત હાવાને કારણે મનુષ્યક્ષેત્રનુ” નામ સમયક્ષેત્ર પડયુ છે. આ સમયક્ષેત્રના વિસ્તાર પણ ૪૫ લાખ ચેાજન પ્રમાણુ છે, ઉડુવિમાન સૌધ૫ના પહેલે પ્રસ્તરમાં રહેલું છે. તેના વિસ્તાર પણ ૪૫ લાખ ચેાજન પ્રમાણ છે. ઈષપ્રાગ્મારા પૃથ્વી પણ ૪૫ લાખ ચેાજનના વિસ્તારવાળી છે આ પૃથ્વી રત્નપ્રભા આદિ પૃથ્વીએ કરતાં ઊંચાઈ આદિ રૂપ પ્રાભારમાં અલ્પ હાવાને કારણે તેનું નામ “ ઇષત્માગ્ભારા ” છે, તે ચારેના પૂર્વ, પશ્ચિમ, ઉત્તર અને દક્ષિણ દિશારૂપ પક્ષ સમાન છે-એટલે કે તે ચારે સમાન પાશ્વ વાળા હાવાથી તેમને સપક્ષ કહેવામાં આવેલ છે. તથા તેઓ સમાન વિદિશાયુક્ત હોવાથી તેમને સપ્રતિક્િ કહેવામાં આવેલ છે. સુ૩૧ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे खलु चत्वारों द्विशरीराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पृथिवीका छाया - ऊर्ध्वलो के विकाः १, अकायिकाः २, वनस्पतिकायिकाः ३, उदारास्त्रमाः प्राणाः ४ | rator खलु चत्वारो द्विशरीराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एवमेव, एवं दिर्यग्लोकेऽपि । । ० ३२ ॥ टीका - " उडूलोगे णं " इत्यादि - ऊर्ध्वलोके खलु चत्वारः - चतुःसंख्यका द्विशरीरा:- द्वे शरीरें येषां ते तथा, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- पृथिवी का थिका :- पृथिव्येव काय येषां ते तथा १, अप्फायिकाः २, वनस्पतिकायिकाः ३, उदाराः - स्थूलाः साः पञ्चन्द्रियत्रसाः प्राणाः प्राणिनः । अयं भावः केपांचित् पृथिव्यव्वनस्पति अनन्तर कथित ईपरप्राग्भारा पृथिवी उर्ध्वलोक में हैं इसलिये अब सूत्रकार उर्ध्वलोकके वर्णन से यह सूत्र कहते हैं— उड्ढलोगे णं चत्तारि बिसरीरा इत्यादि । सूत्र ३२ ॥ ऊर्ध्वलोक में चार दो शरीरवाले कहे गये हैं- जैसे- पृथिवीकायिक १ अकाधिक २ वनस्पतिकाधिक ३ और उदारत्र सप्राण ४ । पुनश्च अधोलोक में चार दो शरीरवाले कहे गये हैं जैसे- पृथिवीकायिक १ आदि इसी तरहसे तिर्यग्लोक में भी समझना चाहिये । दो शरीर जिनके होते हैं वे दि शरीर हैं इनमें पृथिवीकायिक पृथिवी ही हैं काय जिन्होंका वे पृथिवीकायिक १ इसी तरहसे अम्ही काय जिन्होंका के अष्कायिक हैं २ वनस्पतिही है शरीर जिन्होंका वे वनस्पतिकायिक हैं- एवं पंचेन्द्रिय प्राणी स्थूल बस हैं । इस कथनका भाव १८० - પહેલાના સૂત્રમાં જે ઇષત્પ્રાગ્મારા પૃથ્વીની વાત કરવામાં આવી તે ઇષ પ્રાભારા પૃથ્વી ઉલેાકમાં છે તે સાધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર ઉષ્ણુલેાકનું ચાર સ્થાનકની અપેક્ષાએ કથન કરે છે “उढलोगे णं चत्तारि बिसरीरा " इत्यादि ३२ ઉધ્વ લેાકમાં નીચેના ચાર જીવાને એ શરીરવાળા કહ્યા છે. (१) पृथ्वी अयिक, (२) मधुमायि४, ( 3 ) वनस्पतिठायिष्ठ रमने (४) ઉદારવસમ્રાણુ 1 1 (૧) પૃથ્વીકાયિક આદિ ઉપર્યુક્ત ચાર પ્રકારે જ સમજવા, એજ પ્રમાણે તિય બ્લેકમાં પણ એજ ચાર જીવાને એ શરીરવાળા સમજવા, જેમને બે શરીર હાય છે તેમને દ્વિશરીરી કહે છે, જેમાં પહેલા પૃથ્વીકાયિકા કહ્યા છે. પૃથ્વી જ છે કાય જેની એવા જીવાને પૃથ્વીકાયૅક કહે છે અપૂ (જળ)જ છે કાય જેમની એવા જીવેને અપ્રકાયિક કહે છે. વનસ્પતિ જ છે. કાય જેમની એવા જીવેને વનસ્પતિ'ાયિક કહે છે. અને Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० उ०३सू०३२ ऊर्ध्वाधस्तियग्लोकस्थद्विशरीर जीवनिरूपणम् १८१ कायिकानां स्थूलत्रसानां च पृथिव्यादिरूपं प्रथमं शरीरं भवति, जन्मान्तरभावि च मानुषं शरीरं द्विनीयम् , तेषां द्वितीयभवे सिद्धिगमनादिति, ' उदारा' इति विशेषणेन तेजोवायुरूपाः सूक्ष्मास्त्रसा निराकृताः, तेपामनन्तरभवे मानुपत्वा. प्राप्त्या सिद्धिगतेरभावेन शरीरद्वयाधिकशरीरसम्भवात् । तथा-' उदारास्त्रसाः' इत्यनेन द्वीन्द्रियादिवसानामुपस्थितावपि पञ्चेन्द्रिया एव सा गृह्यन्ते, तेपामेव केषांचिदनन्तरभवे सिद्धिगमनात् , विकलेन्द्रियाणां त्वनन्तरभवे सिद्धयभा. वात् । तदुक्तम्-“विगला लभेज्ज विरई ण हु किंचि लभेज्ज सुहुमतसा ।" ऐसा है-कितनेक जीवोंके-पृथिवीकायिकोंके अप्कायिकोंके वनस्प तिकायिकोंके और स्थूलत्रसोंके पृथिव्यादि रूप प्रथम शरीर तो होता ही है और द्वितीय शरीर जन्मान्तर भावी मनुष्य शरीर होता है क्योंकि ये द्वितीय भवमें सिद्धिमें गमन करते हैं। " उदार" पदसे तेजस्कायिक वायुकायिक रूप स्टूक्ष्मत्रस इनका निराकरण किया गया है क्योंकि अनन्तर भवमें मानुषत्वकी अप्राप्तिसे सिद्धि गतिकी प्राप्ति नहीं होने के कारण शरीर इससे भी अधिक शरीर इनमें सम्मवित होते है। "उदारास्त्रसाः" इस कथनसे द्वीन्द्रियादिक त्रसोंकी उपस्थिति होने पर भी यहां पञ्चेन्द्रिय स ही गृहीन हुए हैं क्योंकि इनमें से कितनेक प्रसोंका अनन्तरभवमें सिद्धि गतिमें गमन होता है। विकले. न्द्रियोंको तो अनन्तर भवमें भी सिद्विगति प्राप्तिका अभाव रहताहै। उक्तं च “विगलाल भेज्ज विरई"विकलेन्द्रिय जीव अनन्तर भवमें मनुष्य પિચેન્દ્રિય પ્રાણી સ્થલત્રસ છે આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-કેટલાક જેને પૃથ્વીકાયિકને, અપૂકાયિકેને, વનસ્પતિકાયિકોને અને થુલત્રોને પૃથ્વી આદિ રૂપ પ્રથમ શરીર તે હોય છે જ, અને બીજું શરીર જન્માન્તર ભાવી મનુષ્ય શરીર હોય છે, કારણ કે તેઓ બીજા ભવે સિદ્ધિમાં ગમન કરે છે “ ઉદાર ત્રસ” આ પદના પ્રાગ દ્વારા તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક રૂપ સૂક્ષમ ત્રસનું નિરાકરણ કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે અનન્તર ભવમાં મનુષ્ય ભવની પ્રાપ્તિ ન થવાને લીધે સિદ્ધિગતિની પ્રાપ્તિ નહી થવાથી બે કરતાં પણ અધિક શરીરને તેમનામાં સદુભાવ હોઈ શકે છે “ઉદારાત્રસા” આ પદના પ્રયોગ દ્વારા શ્રીયિાદિક ત્રસોની ઉપસ્થિતિ હોવા છતાં પણ અહીં પંચેન્દ્રિય ત્રસે જ ગૃહીત થયા છે, કારણ કે એ ત્રસમાંના કેટલાક ત્રસેનું અનન્તર ભવમાં સિદ્ધિગતિમાં ગમન થાય છે વિકલેન્દ્રિમાં (દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિમાં) તે અનન્તર ભવમાં પણ સિદ્ધિ ગતિની પ્રાપ્તિનો અભાવ જ રહે છે. કહ્યું પણ છે કે – Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानात ૬૮૨ ___ स्थानागसूत्र छाया-विकला लभेरन् विरतिं न खलु किञ्चित् लभेरन् सक्षमत्रसाः।" इति, अयं भावः-विकलेन्द्रिया अनन्तरभवे मानुपत्व पाप्त्या विरति-संयमं प्राप्तुं शक्नुवन्ति, न तु सिद्धिम् , तया-मुक्ष्मत्रसा अनन्तरभवे मानुषत्वाप्राप्त्या किञ्चि. दपि-विरतिमपि प्राप्तुं न शक्नुवन्तीति । भवकी प्राप्ति द्वारा संघमको पा सकते हैं पर वे सिद्धिगतिको नहीं पा सकते है तथा जो सूक्ष्मनस हैं वे अनन्तर भवमें मानुषत्वकी अप्राप्ति के कारण विरतिको भी नहीं पा सकते हैं। तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि कितनेक पृथिवीकाधिक अप्कायिक और वनस्पतिकाधिक जीव तथा स्थूल त्रसकायिक जीव जब अपनी गृहीत पर्यायका परित्याग करते हैं तो वे मनुष्य भवमें जन्म लेकर सिद्धिगतिकोभी प्रोप्त कर सकते हैं परन्तु जो तेजस्काधिक जीव हैं और वायुकायिक जीव हैं वे उस पर्यायसे छुटकर अनन्तरभवों मनुष्य भवमें नहीं उत्पन्न होते हैं अतः सिद्विगतिकी प्राप्ति इन्हें हो ही नहीं सकती है तथा विकलेन्द्रिय जीव अनन्तर भत्र में मनुष्ण पर्याय प्राप्त कर सकते हैं पर वे भी सिद्धि गतिको प्राप्त नहीं कर सकते हैं इस तरह समझकर यह सूत्र लगाना चाहिये पृथिव्यादिकों में जो द्विशरीरता यहां प्रगट की गई है वह " विगला लभेज विरई" त्या विवन्द्रिय | मनन्तर लमi મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ દ્વારા સંયમ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, પણ તેઓ સિદ્ધિ ગતિને પ્રાપ્ત કરી શક્તા નથી. તથા જે સૂફમત્ર છે, તે તે અનન્તર ભવમાં માનુષત્વની અપ્રાપ્તિને કારણે વિરતિ પણ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે– કેટલાક પૃથ્વીકાયિક, અપકાયિક, વનસ્પતિકાયિક અને સ્કૂલત્રસકાયિક છે જ્યારે પિતાની ગૃહીત પર્યાયને પરિત્યાગ કરે છે ત્યારે મનુષ્યભવમાં જન્મ લઈને સિદ્ધિ ગતિને પણ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. પરન્તુ તેજસ્કાયિક અને વાયુકાથિક જીવે જ્યારે પિતાની ગૃહીત પર્યાયને પરિત્યાગ કરે છે ત્યારે મનુષ્યભવમાં ઉત્પન્ન થતાં નથી. તે કારણે તેમને સિદ્ધિગતિની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી વિકસેન્દ્રિય છે અનતર ભવમાં મનુષ્ય પર્યાય પ્રાપ્ત કરી શકે છે, પણ તેઓ સિદ્ધિગતિને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, આ વાત ધ્યાનમાં લેવાથી આ સૂત્ર સમજવું સરળ પડશે પૃથ્વીકાય આદિકે માં જે દ્વિશરીરતા અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે ઉપર્યુક્ત ભાવને ધ્યાનમાં લઈને જ પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે જેમાં Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था० ४ उ०३ सू०३३ ह्रीसत्त्वादिचतुर्विधपुरुषजातनिरूपणम् १८३ अनेनैव प्रकारेण अधोलोक - तिर्यग्लो कयोद्विशरीराश्चत्वारवत्वारो भवन्ति, तत्प्रतिपादनायाऽऽह-“ अहोलोगे णं " इत्यादि स्पष्टम् । । ० ३२ ॥ पूर्वं तिर्यग्लोकद्विशरीरावस्वार उक्ताः, साम्प्रतं तिर्यग्लोकाधिकारात्तदुद्भवं संयंतादिपुरुषं भेद प्रदर्शन पुरस्सरं निरूपयितुमाह मूलम् - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -हिरिसत्ते १, हिरिमणसत्ते २, चलसत्ते ३, थिरस ४ ॥ सू० ३३॥ छाया - चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - हीसत्त्वः १, हीमनः सत्र: २, चलसचः ३, स्थिरसव ४ | | ० ३३ ॥ इसी भावको लेकर प्रकटकी गई है प्रथम शरीर तो इनमें वे जिस शरीर में वर्तमान हैं वही है और द्वितीय शरीर इनके अनन्तर जन्म में प्राप्त होनेवाला जो मनुष्य शरीर है उसकी अपेक्षा से कहा गया है । इसी प्रकार से ये चार २ अधोलोकमें और तिर्यग्लोक में भी दो दो शरीरवाले हैं ऐसा कथन कर लेना चाहिये ॥ सू ३२ ॥ अब सूत्रकार तिर्यग्लोकके अधिकारसेही तिर्यग लोक में उत्पन्न हुए संयतादि पुरुष भेद् प्रदर्शन पुरस्सर निरूपण करते हैं 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ३३ ॥ पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे ही सच्चवाला - १ ड्रीमनः सत्त्ववाला - २ चल सत्त्ववाला ३ और स्थिर सत्ववाला - ४ વમાન, ભવમાં જે શરીર વિદ્યમાન હોય છે તે શરીરને તેમનું પ્રથમ શરીર સમજવું અનન્તર ભવમાં મનુષ્યશરીર તેમને પ્રાપ્ત થવાનું છે, તેને અહી દ્વિતીય શરીર રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે આ પ્રકારે જ પૃથ્વીકાય આદિ ઉપર્યુક્ત ચાર પ્રકારના જવા અધેાલેક અને ગ્લિાકમાં પણ મુખે શરીરવાળા છે, એવુ' કથન સમજવું! સૂ ૩૨।। ; તિય ગ્લાકને ઉપરના સૂત્રમાં ઉલ્લેખ થયેા છે. તે સંબધને અનુલક્ષીને તિર્થંગ્લેાકમાં ઉત્પન્ન થયેલા સયતા પુરુષાના ભેદ્દેનું નિરૂપણ કરતાં સૂત્રકાર डे छे – “ च्चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता " त्याहि-सू 33 પુરુષોના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે—(૧) હી સત્ત્વવાળે, (२) ड्रीमनः सत्त्ववाणी, (3) यस सत्त्रवाणी अने (४) स्थिर सत्यवाणी. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्थामानसूत्रे --- टीका - चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - हीसच:-हिया - लज्जया सत्त्वं- परीपढादिसहने वा समराङ्गणे स्थैर्य वलं वा यस्य स ड्रीसचः १, तथाड्रीमनः सच्चा हिया - परीपदादिसहनात् समराङ्गणाद्वा पराङ्मुखं मामुत्तमकुलोत्पन्नं लोका हसिष्यन्तीति लज्जया मनस्येव न तु काये रोमाञ्चकम्पप्रभृतिचिह्न दर्शनात् सत्वं यस्य स व्हीमनःसच्चा = लोकलज्जानिमित्तमानसधैर्य सम्पन्नः २, - टीकार्थ – लज्जासे जो पुरुष परीषहादिके सहने में या समराङ्गण में स्थिरतावाला या चलवाला होता है वह ही सचवाला पुरुष कहा गया है १ उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए मुझको परीषहादि सहने से अथवा समराङ्गणसे पराङ्मुख हुआ देखकर लोग हँसेंगे इस लज्जासे जिसके मनमें द्वी सत्व होता है रोमाश्र कम्प आदि भीति चिह्न देखने से जिसके काय में सत्व नहीं होता है ऐसा वह पुरुष ड्रीमनः सत्त्ववाला कहा गया है २ अर्थात् लोकलाज के निमित्त से जो मानसिक धैर्य से सम्पन्न होता है वह इस द्वितीय भङ्गमें गिना गया है जिसका सत्व परिषहादिके उपस्थित होने पर अस्थित हो जाना वह अस्थिर चित्तवाला तृतीय भङ्गमें लिया गया है ३ परोष आदिके समुपस्थित होने पर भी जिसका सत्व दृढ रहता है वह चतुर्थ भंगमें गृहीत हुआ है इस प्रकारसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो ही सत्त्ववाला होता है - १ कोई एक पुरुष ऐसा होता है જે પુરુષ લજ્જાને કારણે પરીષહાર્દિકાને સહન કરવાને અથવા સમરાંગણમાં સ્થિરતા (અડગતા) ધારણુ કરવાને સમર્થ હોય છે તેને વ્હીસત્ત્વયુક્ત પુરુષ કહે છે. ઉત્તમ કુલમાં ઉત્પન્ન થયેલા એવા મને પરીષહ આદિ સહન કરવામાં અસમથ' દેખીને અથવા સમરાંગણમાંથી પરાંગમુખ થતા જોઇને લેાકેા મારી હાંસી કરશે. આ પ્રકારની લજ્જાને કારણે જ જેના મનમાં સત્ત્વ ( ખળ ) ઉત્પન્ન થાય છે. રામાંચ કપ આદિ ભીતિના ચિહ્ન જોવાથીના શરીરમાં સત્ન ઉત્પન્ન થતું નથી એવા પુરુષને હીમન. સત્ત્વવાળા કહ્યો છે. એટલે 'કે લેાકક્ષાજને નિમિત્તે જે માણસ માનસિક ધૈય`થી સ`પન્ન થાય છે તેને આ ખીજા ભાંગામા ગણાવી શકાય છે, જેનું સત્ત્વ ( માનસિક ખળ ) પરી ષહાર્દિ સહન કરવાના આવી પડે ત્યારે અસ્થિર થઈ જાય છે એવા પુરુષને અસ્થિર ચિત્તવાળા કહે છે. પરીષા આવી પડે ત્યારે જેનું સત્ત્વ દૃઢ રહે છે તેને સ્થિર સત્ત્વવાળા કહે છે, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५. सुधा टीका स्था० ५ उ०३ सु०३४ चतुर्विधाभिप्रहनिरूपणम् तया-चलसत्त्व'-चलति-परीपहादिसमुपस्थितौ इति चलम् अस्थिरं सत्त्वं यस्य स चलसत्त्वा=अस्थिरचित्तः ३॥ तथा-स्थिरसत्त्वः-स्थिर-परीषहादिसमुपस्थितावपि दृढं सत्त्वं यस्य स स्थिरसत्त्वः ४। इति । ॥ सू० ३३ ॥ अनन्तरं स्थिरसत्त्व उक्तः, स चाभिग्रहान् प्रतिपद्य परिपालयति चेत्तदा भवतीत्यभिग्रहान् प्रदर्शयितुं चतुःसूत्रीमाह मूलम्-चत्तारिसिज्जपडिमाओ पण्णत्ताओ (१), चत्तारि वत्थपडिमाओ पगत्ताओ (२) चत्तारि पायपडिमाओ पण्णताओ (३) चत्तारि ठाणपडिमाओ पण्णत्ताओ (४)।सू०३४॥ छाया-चतस्रः शय्यापतिमाः प्रज्ञप्ताः(१), चतस्रो वस्त्रप्रतिमाः प्राप्ताः(२), चतस्रः पात्रप्रतिमाः प्रज्ञप्ताः (३), चतस्रः स्थानप्रतिमा. प्रज्ञप्ताः (४) ॥सू०३४॥ जो होमनः सत्त्यवाला होता है २ कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो चल सत्त्ववाला होता है ३ और कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो स्थिर सत्ववाला होतो है। इस प्रकारसे ये मनुष्यके चार प्रकार प्रकट किये गये हैं। सू० ३३॥ अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि " कथित स्थिर सत्त्ववाला प्राणी तभी होता है कि जब वह अभिग्रहों को स्वीकार कर यथावत् उनका परिपालन करता है " अतः वे अभिग्रह इस प्रकारसे हैं "चत्तारि सिज्झपडिमाओ पण्णत्ताओ" इत्यादि सूत्र ३४ ॥ शय्या प्रतिमा चार कही गई है (१) बस्त्र प्रतिमा चार कही गई है હવે ચારે ભાંગાનું ફરીથી સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે (૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે હી સત્વવાળો હેય છે. (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે હીમના સવવાળો હોય છે. (૩) કોઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે ચલ સત્વવાળે હોય છે. અને (૪) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સ્થિર સત્ત્વવાળ હોય છે આ પ્રમાણે મનુષ્યના या२ घरे। मही ५४८ ४या छ. ॥ सू. 33॥ આગલા સૂત્રમાં સ્થિર સત્વયુક્ત પુરુષની વાત કરી. જીવ ત્યારે જ સ્થિર સત્વવાળે બની શકે છે કે જ્યારે તે અભિગ્રહને ધારણ કરીને તેનું વિધિ અનુસાર પરિપાલન કરે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર તે અભિગ્રહના સ્વરૂપનું नि३५ ४रे छे-" चत्तारि सिझपडिमाओ पण्अत्ताभो" त्याहि सू ३४ स-२४ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्र टीका:- चत्तारि सिज्जपडिमाओ" इत्यादि-शय्याप्रतिमा:-शय्यतेऽस्यामिति शय्या-पीठफलकादिरूपा, तस्याः प्रतिमा:-अभिग्रहरूपाः शय्याप्रतिमाः चतस्रः प्रज्ञप्ताः, ता यथा-प्रथमा पतिमा ' अमुकप्रकारकं पीठफलका दिकं मया ग्राह्यमिति। १। द्वितीया प्रतिमा-'अमुकपकारकं पीठफलकादि चेद् द्रक्ष्यामि तदा तदेव ग्राह्यमिति । २। तृतीया प्रतिमा-' अमुकपकारकमपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवेत तदा ग्राहामिति । ३। चतुर्थी तु-अमुकपकारकमपि फलकादि यदि यथासंस्तृतमेव स्यात्तदा प्राधमिति । ४। . तत्र प्रथम-द्वितीये प्रतिमे गच्छनिर्गतानां न भवतः, किन्तु तृतीय-चतु. थ्योरन्यतरा प्रतिमा भवति । गच्छस्थितानां तु चतस्रोऽपि प्रतिमाः कल्पन्त इति । १। (२) पात्र प्रतिमा चार कही गई है (३) स्थान प्रतिमाचार कही गई हैं (४) जिस पर शयन किया जाता है वह शय्या है ऐसी वह शय्या पीठफलक आदि रूप होती है, इस शय्याकी जो अभिग्रह रूप प्रतिमा है वह शय्या प्रतिमा है १ यह शय्या प्रतिमा इस रूपसे चार प्रकारकी होती है-में अमुक प्रकारका पीठफलक आदि ग्रहण करूंगा १ अमुक प्रकारका पीठफलक आदि यदि देखूगा तो वही ग्रहण करूंगा २ यदि उसी शय्यातर के घर पर अमुक प्रकारका भी पीठफलक आदि होगा तो ग्रहण करूंगा ३ अमुक प्रकारका भी पीठफलक आदि यदि यथा संस्कृत ही होगा तो ही ग्रहण करूंगा ४ इनमें प्रथम और द्वितीय प्रतिमा गच्छनिर्गत साधुओंके नहीं होती हैं किन्तु तृतीय और चतुर्थी में से (१) शय्या प्रतिभा या२ ४ही छे. (२) १५ प्रतिमा यार ही 9. (३) પાત્ર પ્રતિમા ચાર કહી છે. (૪) રસ્થાન પ્રતિમા ચાર કહી છે. જેના પર શયન કરાય છે તેનું નામ શય્યા છે. એવી તે શમ્યા પીઠફલક આદિ રૂપ હોય છે, તે શાની જે અભિગ્રહ રૂપ પ્રતિમા તેને શય્યાપ્રતિમા કહે છે. તેના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર છે-(૧) હું અમુક પ્રકારનું પીઠફલક આદિ ગ્રહણ કરીશ. (૨) અમુક પ્રકારનું પીઠફલક આદિ જોઈશ તે તેને જ ગ્રહણ કરીશ. (૩) જે એજ શય્યાતરના ઘરમાં અમુક પ્રકારનું પણ પીઠફલક આદિ હશે તે ગ્રહણ કરીશ (૪) અમુક પ્રકારનું પીઠફલક આદિ જે યથાસંસ્કૃત હશે તે જ ગ્રહણ કરીશ. આ ચાર પ્રકારની પ્રતિમા એમાંની પહેલી અને બીજી પ્રતિમાઓનું આરાધન ગચ્છનિર્ગત સાધુઓ વડે Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | = १८७ सुघाटीका स्था०४ ४०३ सू०२४ चतुविधाभिननिरूपणम् " चत्तारि वत्थपडिमाओ " इत्यादि - - वस्त्रप्रतिमाः- वस्त्रग्रहणविषया अभि ग्रहाः, चतस्रः मज्ञप्ताः, ता यथा - अमुकप्रकारकं कार्पासिकादि वस्त्र याचितन्यमिति प्रथमा । १ । - तथा - यद् दृष्टं तदेव याचनीयमिति द्वितीया । २ । तथाऽन्तरपरिभोगेनोत्त परिभोगेन वा गृहस्थेन परिभुक्तं वस्त्रं ग्राह्यमिति तृतीया । ३ । तथा-तदेवीसृष्टधर्मकं ग्राह्यमिति चतुर्थी । ४ । " चचारि पायपडिमाओ" इत्यादि - पात्रप्रतिमाः- पात्रग्रहणविषयेऽभिगृहाः, चतस्रः प्रज्ञप्ताः, ता यथा-अमुकप्रकारकं मृत्तिकादारुपात्रादि याचितव्यम् ' इति प्रथम १। तथा यद् दृष्टं तदेव याचितव्यमिति द्वितीया २ तथा गृहस्थस्य कोई एक प्रतिमा होती है । गच्छस्थित साधुओंको तो चारों प्रकारकी ये प्रतिमाएं कल्प्य हैं (१) चार जो वस्त्र प्रतिमाएँ कही गई हैं वे इस 'प्रकार से हैं- जैसे मैं अमुक प्रकारका सुनीया ऊनी वस्त्र मांगूंगा १ या जो देखा है वही मांगू गार या अन्तर परिभोग रूपसे या उत्तरीय परिभोगपसे गृहस्थजन द्वारा जो वस्त्र परिभुक्त होगा वही वस्त्र लूंगा ३ तथा वस्त्र यदि उत्सृष्ट (फेंकने योग्य) धर्मवाला होगा तो ही लूंगा ४ इस तरहसे जो व ग्रहण विषयक अभिग्रह हैं वे वस्त्र प्रतिमा हैं । (२) चार जो पात्र ग्रहण विषयक अभिग्रह होते हैं वे पात्र प्रतिनगएँ हैं जैसे-जो मृत्तिकाका पात्र काष्ठका पात्र तुम्बीका पात्र आदि अमुक प्रकारका होगा तो ही मैं उसे मांगूंगा १ तथा जो मैने दिखा है वही पात्र में ' થતું નથી, પણ ત્રીજી અને ચેાથીમાથી કોઈ એક પ્રતિનાનું જ તેમના દ્વારા આરાધન થાય છે. ગચ્છસ્થિત સાધુઓને માટે તે આ ચારે પ્રકારની પ્રતિ भागो उभ्य शत्रु छे. ચાર વસ્ત્રપ્રતિમા નીચે પ્રમાણે છે—(૧) હું” અમુક પ્રકારનું સૂતરાઉ અથવા ગરમ વસ્ત્ર માગીશ. અથવા (૨) જે વસ્ત્ર જ્ઞેયુ' છે એજ માશીશ અથવા (૭) આન્તર પરિભાગ રૂપે અથવા ઉત્તરીય પરિભાગ રૂપે ગૃહસ્થ જનદ્વારા જે વસ્ત્ર પરિભુક્ત હશે એજ વસ્ર સ્વીકારીશ અથવા વસ ઉત્સષ્ટ ધર્મવાળું હશે તે જ તેને સ્વીકાર કરીશ. આ રીતે વસ્રગ્રહણુ વિષયક જે અભિગ્રહ છે તેને વસ્ત્રપ્રતિમા કહે છે. 1 પાત્રગ્રહણ વિષયક અભિગ્રહના ચાર પ્રકાશ નીચે પ્રમાણે છે (૧). માટીનું કે કાષ્ઠનું કે તુમ્બીનુ' પાત્ર જો અમુક પ્રકારનુ` હશે તે જ ચંહુણ हरीश (२) अथवा ? यात्र में हेयु हशे तेन स्त्रीअर रीश, (3) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટટ स्थानाङ्गसूत्र स्वाङ्गिक तत्परिभुक्तमाय वा द्वित्रेषु पात्रेषु पर्यायेण परिभुज्यमानं पात्रं याचितव्यम्' इति तृतीया । ३ । तथोज्झितधर्मकं पात्रं याचितव्यमिति चतुर्थी ।४।।।३। "चत्तारि ठाणपडिमाओ" इत्यादि-स्थानप्रतिमाः-कायोत्सर्गाद्यर्थ स्थानग्रहणविपयेऽभिग्रहाः चतस्रः प्राप्ताः, ता यथा-यत् स्थानमचित्तमेपणीयमाकुचनप्रसारणादिनियायोग्यं कुडयाद्यालम्बनसमन्वितं चक्रमविकाशयुक्तं भवेत् तदेवाऽऽश्रयणीमिति प्रथमा १, चक्रयणावकाशरहितं पूर्व निर्दिष्टं स्थानं यदि भवेत्तदेवा. ऽऽश्रयणीयमिति द्वितीया । २ । तथा-कुडयाद्यालम्बनादिरहितं चक्रमणावकामांगूंगा २ तथा गृहस्थका जो स्वाङ्गिक होगा या परिभुक्त प्राय होगा या जो दो तीन पात्रों में पर्यायसे परिभुज्यमान हो रहा होगा वही पात्र मैं मांगूंगा ३ तथा उज्झित धर्मक पात्र ही मांगू गा ४ अर्थात् उन तीन प्रकारका पात्र ही साधुओंको कल्पता है, इमलिये तीनका नाम लिया हैं प्लास्टिक आदि का पात्र लेना नहीं कल्पता । (३) कायोत्सर्ग आदिके लिये स्थानग्रहण के विषय में जो अभिग्रह होते हैं वे स्थानप्रतिमाह, और ये इस प्रकारसे चार रूप होती हैं-जो स्थान अचित्त होगा एषणीय होगा आकुश्चन प्रसारण आदि क्रियाके योग्य होगा कुडयादिरूप आलम्बन से समन्वित होगा चक्रमणावकाश युक्त होगा वही मेरे द्वारा आश्रयणीय होगा ऐसी यह प्रथम स्थान प्रतिमा है १ यदि पूर्व निर्दिष्ट स्थान चक्रमणावकाश (कारणवश इधर उधर फिरने) से रहित होगा तो ही मेरे द्वारा वह आश्रयणीय होगा ऐसी यह द्वितीय स्थानप्रतिमा है २ तथा-पूर्वोक्त स्थान कुडयादि (भिक्ति) आलम्पनसे रहित होगा और चंक्रमणावकाशसे रहित होता तप ही અથવા ગૃહસ્થનું જે સ્વાંગિક હશે અથવા જે પરિભક્ત (વપરાશને માટે અયોગ્ય ગણીને કાઢી નાખેલું) હશે અથવા જે બે ત્રણ પાત્રોમાં પર્યાયની અપેક્ષાએ પરિભૂજ્યમાન થઈ રહ્યું હશે એવું જ પાત્ર હું લઈશ તથા ઉઝિતધર્મક પાત્ર જ લઈશ એટલે કે ઉપર્યુક્ત ત્રણ પ્રકારના પાત્ર જ સાધુઓને ४६ छ, तथी त्रशुना नाम मी ५४८ ४ा छ. કાયોત્સર્ગ આદિને માટે સ્થાન ગ્રહણ કરવાના વિષયમાં જે અભિગ્રહ થાય છે તેને સ્થાન પ્રાંતમાં કહે છે તેને ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે–(૧) જે સ્થાન અચિત્ત હશે, એષણય હશે, આકુચન પ્રસરણ આદિ ક્રિયાઓને ગ્ય હશે, દિવાલ આદિ રૂપ અવલંબન આધારથી યુક્ત હશે અને ચક્રમણાવકાશ યુક્ત (કારણવશ આમ તેમ ફરવાને યોગ્ય) હશે, એ જ સ્થાન મારે માટે આશ્રયણીય થશે. આ પ્રથમ સ્થાન પ્રતિમાનું સ્વરૂપ સમજવું. (૨) જે પૂર્વોક્ત સ્થાન ચંક્રમણવકાશથી રહિત (કારણવશ આમ તેમ ફરવાને માટે અમેગ્ય Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०३ सू० ३५ शरी शरहितं च पूर्वोक्तमेव यदि स्थानं भवेत् तदेवाऽऽश्रयणीयमिति तृतीया । ३ । तथा यत् स्थानम् आकुञ्चनप्रसारणादिक्रियाया अयोग्यं कुडयावालम्बनरहितं चक्र मणावकाशरहितं च सत् अचित्तमेषणीयं च भवेत्तदाऽश्रयणीयमिति चतुर्थी । ४। (४) इति । मू. ३४॥ अनन्तरं शरोरचेष्टानिरोध उक्त इति शरीरप्रस्तावादिदं सूत्रद्वयमाह___ मूलम्-चत्तारि सरीरगा जीवफुडा पण्णत्ता, तं जहावेउविए १, आहारए २, तेयए ३, कम्मए ४ । (१) चत्तारि सरीरमा कम्मुम्मीसगा पण्णता, तं जहा--ओरालिए १, वेउविए २, आहारए ३, तेउए । (२) ॥ सू० ३५॥ ___ छाया-चत्वारि शरीरकाणि जीवसृष्टानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वैक्रियम् १, आहारकं २, तैजसं ३, कार्मणम् ।। (१) मेरे द्वारा आश्रयणीय होगा ऐसी यह तृतीय स्थानप्रतिमा है ३ तथा जो स्थान आकुश्चन प्रसारण आदि क्रिया के अयोग्य होगा कुड्यादि रूप आलम्बनसे रहित होगा एवं चंक्रमणावकाशसे रहित होगा अचित्त और एषणीय होगा तब वह मेरे द्वारा आश्रयणीय होगा ऐसी यह चतुर्थी स्थान प्रतिमा है । सू० ३४ ॥ अब सूत्रकार शरीरको लेकर दो सूत्र कहते हैं"चत्तारि सरीरगा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ३५ ।। चार शरीर जीवस्पृष्ट कहे गये हैं-जैसे-वैक्रिय १ आहारक २ तैजस ३ और कामण ४ (१) હશે તે જ તે મારા દ્વારા આશ્રણય થશે. આ બીજી સ્થાનપ્રતિમા સમજવી. (૩) જે પૂર્વોક્ત સ્થાન દીવાલ આદિ અવલંબન (આધાર)થી રહિત હશે અને ચંક્રમણવકાશથી રહિત હશે તે જ મારા દ્વારા આશ્રણય થશે આ ત્રીજી સ્થાન પ્રતિમા સમજવી. (૪) જે પૂર્વોક્ત સ્થાવ આકુંચન પ્રસરણે આદિ ક્રિયાએને માટે અગ્ય હશે, દીવાલ આદિ રૂપ અવલંબનથી રહિત હશે અને ચંક્રમણાવકાશથી રહિત હશે, અચિત્ત અને એષણીય હશે, તે તે મારા દ્વારા આશ્રયણીય થશે આ ચોથી સ્થાનપ્રતિમા સમજવી. | સૂ ૩૪ હવે સૂત્રકાર શરીર વિષયક બે સૂત્રોનું કથન કરે છે – " चत्तारि सरोरगा पणत्तो " छत्याह-सू ३५ नायनां यार शरी२ १२Yष्ट ४i -(१) वश्य, (२) मा२४, (3) तस भने (४) मधु ॥१॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० स्थानाङ्गसूत्रे चत्वारि शरीरकाणि कामणोन्मिश्रकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिकं १, वैक्रियम् २, आहारकं ३, तैनसम् ४। (२) ॥ सू० ३५ ॥ टीका-" चत्तारि सरीरंगा" इत्यादि-चत्वारि-शरीरकाणि-शरीराण्येव शरीरकाणि, स्वार्थे कन् प्रत्ययोऽत्र बोध्या, जीवस्पृष्टानि-जीवव्याप्तानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-क्रिय-विक्रिया-विविधरूपकरणं तया निर्वृत्तम्-अनेकाद्भुताऽऽ. श्रयं विविधगुणद्धि सम्पयुक्तपुद्गलवर्गगाप्रारब्धं वैक्रियम् १, आहारकम्-आहि. यते-निर्वयं ते चतुर्दशपूर्व विदा प्राणिदयद्धिदर्शन-च्छमस्थोपग्रहणसंशयव्युच्छेदरूपचतुष्टयप्रयोजनवशाद् यत्तदाहारकम् , आहारकशरीरं चतुकृता मोक्षो भव चार शरीर कार्मण शरीरसे उन्मिश्र कहे गये हैं-जैसे-औदारिक १ वैक्रिय २ आहारक ३ और तैजस ४ (२) जीव द्वारा व्याप्त जो शरीर हैं वे जीय स्पृष्ट शरीर हैं विविध रूप करना इसका नाम विक्रिया है इस विक्रियासे जो शरीर निवृत्त होता है वह वैक्रिय शरीर है यह वैक्रिय शरीर अनेक अद्भुतरूपोंका आश्रयभूत होता है विविध गुणों से एवं ऋद्धियोंसे सम्प्रयुक्त पुद्गल वर्गणाओंसे प्रारब्ध (जिसका प्रारंभ किया जाय) होता है आहारक शरीर चौदह पूर्वधारीकेही पाया जाता है वह चौदह पूर्वधारी मुनि . प्राणिदया ऋद्धिदर्शन छद्मस्थोपग्रहण और संशयविच्छेद इन चार प्रयो जनके वशसे आहारक शरीरका निर्माण करता है इस आहारक शरीरका निर्माण चार बार होता है फिर जीवका मोक्ष हो जाता है। तेजः पुद्गलोंका जो विकार है वह तैजस है इसका लिङ्ग उष्मा है और यह નીચેનાં ચાર શરીર કાર્મણ શરીર સાથે ઉત્મિશ્ર કહ્યાં છે– (१) मोहोरित, (२) वैठिय, (3) मा.२४ मन (४) तेस ॥२॥ , જીવદ્વારા વ્યાપ્ત જે શરીરે છે તેમને જીવસૃષ્ટ શરીર કહે છે. વિવિધ રૂપ કરવું તેનું નામ વિક્રિયા છે. આ વિકિયાથી જે શરીર નિર્વત થાય છે. તેને વૈકિય શરીર કહે છે તે વિક્રિય શરીર અનેક અદ્ભુત રૂપનું આશ્રય ભૂત હોય છે, વિવિધ ગુણેથી અને ઋદ્ધિઓથી સંપ્રયુક્ત પુદ્ગલ વર્ગણાઓથી પ્રારબ્ધ (જેને પ્રારંભ કરાય) હોય છે. આહારક શરીરને સદૂભાવ ચૌ પૂર્વ ધારીમાં જ હોય છે. તે ચૌદ પૂર્વધારી મુનિ પ્રાણિદયા, બ્રિદર્શન, છાપગ્રહણ અને સંશય વિચ્છે રૂપ ચાર કારણેને લીધે અહારક શરીરનું નિર્માણ કરે છે. - આ આહારક શરીરનું નિર્માણ ચાર વાર થાય છે, ત્યાર બાદ જીવ ક્ષમાં ચાલ્યા જાય છે. તેજ પુદ્ગલેને વિકાર છે તે તેજસ, છે. તેનું Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ५ उ०३ सू० ३५ शरीरचतुष्कनिरूपणमू तीति । २ । तैजस-तेजः पुद्गलानां विकारस्तैजसम्-उमलिङ्गो भुक्ताऽऽहारपरिणपनहेतुः शरीरविशेषः । ३। कार्मण-कर्मणा निवृत्तं कार्मणम् , यद्वा-शरीरनामकर्मण उत्तरप्रकृतिरूपं कर्म समुदायभूतात् कर्माष्टकाद् भिन्नमेवेति कमै व कामणम् , इदं च कार्मणशरीरं सर्वकर्माधारभूतं धान्यानां कोष्ठवत् सर्वकर्मप्रसवसमर्थम् अङ्कुरादीनां वीजवत् १-कर्मभिनिष्पन्न कर्मसु भवं कर्ममुजातं कमैं व वा कार्मणम् ४। एतानि वैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मणानि चत्वारि जीवेन स्पृष्टान्येव भवन्ति, न तु यथाऔदारिकं जीवमुक्तमपि भवति मृतावस्थायां तथैतानि । (१) । खाये हुए आहारके परिणमन में हेतु होता है यह कार्मण शरीर कर्मसे निवृत्त होता है अथवा-शरीर नामकर्मकी उत्तरप्रकृतिरूप जो कर्म है वह समुदायभूत कर्माष्टकसे भिन्न है इसलिये कर्मरूपही कार्मण है यह कार्मण शरीर सर्व कर्मों का आधारभूत होता है जैसे धान्योंका आधारभूत कोष्ठ-कोठी-आदि होता है समस्त कर्मोंको प्रसव करने में यह समर्थ होता है जैसे अङ्कुरादिकोंको प्रसव करने में बीज समर्थ होता है। कर्मो से जो निष्पन्न होता है कर्मों में जो होता है अथवाकर्मों के होने पर जो होता है वह कार्मण शरीर है अथवा कर्मों का समूहही कार्मण शरीर है। ये चार वैक्रिय आहारक तैजस एवं कार्मण शरीर जीवसे स्पष्ट ही होते हैं जैसा औदारिक जीव मुक्त भी होता है वह मृतावस्था में होता है उस प्रकारसे ये शरीर नहीं होते है। तात्पर्य લક્ષણ ઉષ્મા છે અને તે ખાધેલા આહારના પરિણમનમાં કારણભૂત બને છે. કામણ શરીર કર્મથી નિવૃત્ત હોય છે. અથવા શરીર નામકર્મની, ઉત્તર પ્રકૃતિ રૂપ જે કર્મ છે તે સમુદાયભૂત કર્માષ્ટકથી ભિન્ન છે, તેથી કર્મ રૂપ જ કાર્પણ છે. આ કાર્મણ શરીર સર્વ કર્મોનુ આધારભૂત હોય છે. જેમ ધાના આધારભૂત કેઠી હોય છે એમ કર્મોના આધારભૂત કાશ્મણ શરીર હોય છે. -જેમ અંકુરાદિની ઉત્પત્તિ કરવાને બીજ સમર્થ હોય છે એજ પ્રમાણે સમસ્ત કને પ્રસવ (ઉત્પત્તિ) કરવાને કામણ શરીર સમર્થ હોય છે. કર્મો દ્વારાજે નિષ્પન્ન થાય છે અથવા કર્મોમાં જે હોય છે અથવા કર્મોના સદ્દભાવમાં જે હોય છે તે કાર્મણ શરીર છે અથવા કર્મો સમૂહ જ કાર્મણ શરીર છે. આ ચાર-વૈક્રિય, આહારક, તિજસ અને કાર્મ શરીરે જીવથી પૃષ્ટ જ હોય છે જેમ ઔદારિક શરીર જીવમુક્ત પણ હોય છે--મૃતાવસ્થામાં પણ હોય છે એમ આ શરીરમાં બનતું નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ स्थानाले ___पुनः " चत्तारि सरीरगा " इत्यादि-चत्वारि शरीरकाणि कार्मणोनिमश्रकाणि-कामणेन शरीरेण उन्मिश्राणि-युतानि कार्मणोन्मिश्राणि, तान्येव कार्मणो. मिश्रकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिकम्-उदारं-प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यस्य अनुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा-उदारं-सातिरेकयोजनसहस्र मानत्वात् , शेषशरीरापेक्षया वृहत्प्रमाणम् , बृहस्से यह है कि औदारिक शरीर जीवको भी छोडकर मृतावस्थामें बना रहता है अतः वह जीव स्पृष्टही होता है ऐसा नहीं कहा जाता है इस प्रकारले ये चार शरीर नहीं हैं ये तो जीवस्पृष्टही होते हैं जीवके यिना नहीं रहते हैं। १ चार शरीर जो कार्मण उन्मिश्रक(मिलेहुवे कहे गयेहैं सो इसका अभि प्राय ऐसाहै कि ये चार शरीर कार्मण शरीरके साथ रहते हैं-जहां कार्मण शरीर होगा वहाँ वैक्रिय शरीरभी हो सकता है, जैसा कि देव और नारकियों में वह होता है मनुष्यों तियञ्चोंमें उसके साथ आहारक शरीर होता है चौदह पूर्वधारीके उसके साथ आहारक शरीर होता है तथा तैजस और कार्मण ये साथ २ रहतेही हैं। जो शरीर उदार प्रधान होता है वह औदारिक शरीर है औदारिक शरीरमें प्रधानता तीर्थकर गणधरके शरीरकी अपेक्षासे आती है क्योंकि इससे भिन्न जो अनुत्तर देवका शरीर है वैक्रिय शरीर है वहां अनन्त गुणहीन होता है अथवा स्वयंभूरमण समुद्रमें रहा हुआ जो महामत्स्य है उसके औदारिक शरी. જીવને છેડ્યા બાદ મૃતશરીરમાં મૃતાવસ્થામાં પણ દારિક શરીરને સદુભાવ કાયમ રહે છે તેથી દારિક શરીર જીવસૃષ્ટ જ હોય છે, એવું કહી શકાતું નથી. પરંતુ વૈકિય આદિ ઉપર્યુક્ત ચાર શરીરે તે જીવન્સ્પષ્ટ જ હોય છે, જીવના વિના તેમનું અસ્તિત્વ જ સંભવી શકતું નથી. ચાર શરીરને જે કામણ ઉન્મિથક કહ્યા છે તેને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે –તે ચાર શરીરે કાર્મણ શરીરની સાથે જ રહે છે. જ્યાં કામણ શરીર હશે ત્યાં વૈકિય શરીર પણ હશે. જેમ કે દેવ અને નારકોમાં તે હોય છે. મનુષ્ય તિય"ચોમાં તેની સાથે આહારક શરીર હોય છે. ચૌક પૂર્વધારીને તેની સાથે આહારક શરીર પણ હોય છે, તથા તૈજસ અને કામણ આ બે શરીરે તે સાથે સાથે જ રહે છે જે શરીર ઉદાર પ્રધાન હોય છે તેને દારિક કહે છે. ઔદ્યારિક શરીરમાં પ્રધાનતા તીર્થકર ગણધરના શરીરની અપેક્ષાએ આવે છે, કારણ કે તેનાથી ભિન્ન જે અનુત્તર દેવનું શરીર છેવિકિય શરીર છે તે અનંતગણું હીન હોય છે. અથવા સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રમાં Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटी.स्था ४उ ३सू ३६चतुर्विधैरस्तिकायैरुत्पद्यमानवादरकायैश्च लोकस्पृष्टत्वनि १९३ चास्य भवधारणीयवैक्रियापेक्षया, तदेव औदारिकम् । १। वैक्रियम् २। आहारकम् ३। तैजसम् ४। एतानि शरीराणि कार्मणशरीरयुक्तानि सन्ति ॥ (२) ॥ सू० ३५॥ __ स्पृष्टप्रसङ्गात् सूत्रद्वयमाह मूलम्-चउहिं अस्थिकाएहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहा-- धम्मत्थिकाएणं १, अधम्मस्थिकारणं २, जीवस्थिकाएणं ३, पुग्गलस्थिकारणं ४ (१) चउहि बायरकाएहिं उववज्जमाणेहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहा--पुढविकाइएहिं १, आउकाइएहिं २, वाउकाइएहिं ३, वणस्सइकाइएहिं ४। (२) ॥ सू० ३६ ॥ __छाया-चतुर्भिरस्तिकायैर्लोकः स्पृष्टः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-धर्मास्तिकायेन १, अधर्मास्तिकायेन २, जीवास्तिकायेन ३, पुद्गलास्तिकायेन ४, (१) रकी अपेक्षा औदारिकको उदार वृहत्प्रमाणवाला कहा गया है क्योंकि उसका प्रमाण शेप शरीरकी अपेक्षा कुछ अधिक एक हजार योजनका कहा गया है अतः शेष शरीरकी अपेक्षा यह वृहत्यमाणवाला होता है भवधारणीय वैक्रिय शरीरकी अपेक्षासे इसमें वृहत्ता है । सू०३५॥ स्पृष्ट प्रसगसे अय सूत्रकार दो सूत्र कहते हैं "चउहि अस्थिकाएहिं लोगे फुडे" इत्यादि सूत्र ३६ ॥ यह लोग चार अस्तिकायरूप द्रव्योंसे स्पृष्ट व्याप्त कहा गयाहै जैसे धर्मास्तिकायसे,अधर्मास्तिकाय से जीवास्तिकायसे और पुद्गलास्तिकायसे १ રહેલે જે મહામસ્યા છે તેના ઔદારિક શરીરની અપેક્ષાએ દારિકને ઉદારબહત્ પ્રમાણવાળું કહેવામાં આવ્યું છે, કારણ કે તેનું પ્રમાણુ બાકીના શરીરની અપેક્ષાએ ૧૦૦૦ એજન કરતાં પણ વિશેષ કહ્યું છે. તેથી શેષ શરીરે કરતાં તે અધિક પ્રમાણવાળું હોય છે ભવધારણીય વૈકિય શરીરની અપેક્ષાએ તેમાં બૃહત્તા છે. જે સૂ ૩૫ છે ઋણની સાથે સંબંધિત બે સૂત્રેનું હવે સૂત્રકાર કથન કરે છે– " चाहिं अस्थिकाएहि लोगे फुडे" प्रत्याहि-(सू. ३६) આ લેક નીચેના ચાર અસ્તિકાય રૂપ દ્રવ્યથી પૃષ્ટ (વ્યાપ્ત) કહ્યો -१) स्तिथी (२) मास्ति यथा (3) स्तियथी भने (४) पुगसास्तियथी. स०-२५ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा सू चतुर्भिरकायैरुपपद्यमानैर्लोकः स्पृष्टः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - पृथिवीकायिकः १, अकायिकेः २, वायुकायिकैः ३, वनस्पतिकायिकैः ४ । ( २ ) ॥ सू० ३६ ॥ ." टीका - " चउहिँ अत्थिकाएहिं " इत्यादि - चतुर्भिः अस्तिकायः लोकः स्पृष्टः- प्रतिप्रदेशं व्याप्तः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - ' धर्मास्तिकायेने "त्यादि । (१) " चहिं वायरकाहिं " इत्यादि चतुर्भिः वादरकायैः उपपद्यमानैर्जीवः लोकः स्पृष्टः - व्याप्तः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - पृथिवीकायिकैः १, अप्कायिकैः २, वायुकायिकैः ३, वनस्पतिकायिकैः ४ अयं भावः - बादरा हि पृथिव्यन्यायुवनस्प तयः सर्वतो लोकादुद्धृत्य पृथिव्यादि - घनोदध्यादि-घनवातवलयादि घनोदध्यादिषु स्वकीयस्त्र की ये पूत्पत्तिस्थानेष्वन्यतरगत्या समुत्पद्यमाना अपर्याप्तकावस्थायामवित्वात् सकललोकं स्पृशन्ति, ते पुनः पर्याप्ता वादरतेजस्कायिकाखसाध लोकासंख्येयभागमेव स्पृशन्ति, उक्तं च प्रज्ञापनायाम् - " एत्थ णं बादरपुढवि. काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, उववारणं लोयस्स असंखेज्जइभागे " | उत्पद्यमानं बार बार कार्योंसे यह लोक स्पृष्ट कहा गया है, जैसे पृथिवी कायिकों से अष्कायिकों से वायुकायिकों से और वनस्पतिकायिकों से । इनमें प्रथम सूत्रका अभिप्राय तो स्पष्ट है द्वितीय सूत्रका अभिप्राय ऐसा है - वादकायिक पृथिवी, अप्, वायु, और वनस्पति जीव समस्त लोगसे उद्वर्तना करके पृथिवी आदिकों में घनोदध्यादि चातवलयादिकों में अपने २ उत्पत्तिस्थानों में किसी एक गतिसे उत्पन्न होते हुए अपर्याप्तावस्था में अति बहुत होनेसे सर्व लोककी स्पर्शना करते हैं और जो पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव हैं वे और त्रस जीव लोकके असंख्यात भागकोही स्पर्श करते हैं । उक्तं प्रज्ञापनायाम् प्रज्ञापना सूत्रमें कहा है- "एत्थ णं बादरपुढविकाइयाणं पज्जन्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, उब ! --- ઉત્પદ્યમાન ચાર ખાદર કાર્યાથી આલેાક પૃષ્ટ કહ્યો છે—(૧) પૃથ્વી श्रथिथी, (२) मधूमायाथी, (3) वायुअयि मेथी मने (४) वनस्पतिप्रयि अथी. આ એ સૂત્રેામાંથી પહેલા સુત્રને ભાવાથ તે સુગમ છે. બીજા સૂત્રને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે—માદરકાયિક પૃથ્વીકાય, અસૂકાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય જીવે સમસ્ત લેાકમાંથી ઉદ્ધૃતના કરીને પૃથ્વી આફ્રિકામાં ધનદધિ આદિ વાતવલયામાં પેાત પેાતાના ઉત્પત્તિ સ્થાનામાં કોઇ એક ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈને અપર્યાપ્તાવસ્થામાં ઘણા વધારે હાવાથી સર્વ લાકની સ્પર્શના કરે છે. અને જે પર્યાપ્ત ખ દર તેજસ્સાયિક જીવે છે તેએ અને ત્રસજીવા લાકના અસંખ્યાતમાં ભાગના સ્પર્શ કરે છે. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં કહ્યુ છે કે " एत्थण वादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाण ठाणा पण्णत्ता, उववाएणं लोगस्स असं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटी.स्था.४उ ३सू.३६चतुर्विधैरस्तिकायरुत्पद्यमानवादरकायैश्च लोकस्पृष्टत्वनि २९५ छाया-अत्र खल वादरपृथिवीकायिकानां पर्याप्तकानां, स्थानानि प्रज्ञप्तानि, उपपातेन लोकस्य असंख्येयभागे"। तथा-" वादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तः गाणं ठाणा पण्णत्ता, उवचारणं सव्वलोए", छाया-" वादरपृथिवीकायिकानामपर्याप्तकानां रथानानि प्रज्ञप्तानि, उपपातेन सर्वलोके "एवमवायुवनस्पती: नाम् । तथा-वादरतेउकाइयाणं पजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे" वादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, लोयस्त दोस उड़कवाडेसु तिरियलोयत। य"छाया-बादरतेजस्कोयिकानां पर्याप्तानां , स्था। नानि प्रज्ञप्तानि, उपपातेन लोकस्य असंख्येयभागे, बादरतेजस्कायिकानाम् अपर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि, लोकस्य द्वयोरूर्वापाटयोः तिर्यग्लोकवस्थे वाएण लोयस्त असंखेज्जइभागे"यहां पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकों के स्थान कहे गये हैं उपपातकी अपेक्षा इनके स्थान लोकके असंख्यातवें भागमें हैं तथा "बादर पुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पणत्तो उव - एणं सचलोए" बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तकोंके स्थान लोके असंख्यातवें भागमें हैं। ये स्थान इनके उपपातकी अपेक्षासे कहे गये हैं। इसी तरहसे पर्याप्तक अपर्याप्तक अप्कायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिकोंके उपपत्तिकी अपेक्षासे स्थान जानना चाहिये । तथा"चादर तेउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता उपचाएणं लोघस्स असंखेज्जहभागे बादरतेउकाझ्याणं अपज्जत्तगाणं. ठाणा पण्णत्ता लोयस्त दोलु उड्ढ कवाडेसु तिरियायतटेय " पर्याप्त तेजस्कायिक जीवोंके उत्पत्तिस्थान लोकके असंख्यातवें भागमें कहे गये हैं। अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिकों के स्थान ऊर्चकपाटस्थ-तिर्यम्खेज्जइभागे " 2480 पर्यात ६२ पृथ्वी यिनi स्थान ४ह्य छ. पातनी अपेक्षा तमना स्थान ना २१ भ्यातमा मा छे. तथा "बादर पुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता उववाएणं सब्बलोए " २ पृथ्वी“કાયિકના પૃધીકાયિક અપર્યાપ્તકનાં સ્થાન ઉપપાતની અપેક્ષાએ સમસ્તકમાં છે. એજ પ્રમાણે પર્યાપક અને અપર્યાપક અપ્રકાયિક વાયુકાયિક અને વન२५तियिोनी उत्पत्तिनी अपेक्षा स्थान सभा मे तथा-""बादर ते उकाइयाणं पजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता उववाएणं लोयस असंखेज्जइभागे बादर. उक्काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता, लोयस्स दोसु उड्ढकवाडेसु तिरिय. लोयतदेय " मा२ पर्यात ४२४॥५४ योना उत्पत्तिस्थान न सस'. ખ્યાતમાં ભાગમાં કહ્યા છે. અપર્યાપ્તક બાદર તેજસ્કાચિકેના ઉત્પત્તિસ્થાન ઉદેવૈપાટસ્થ તિર્યકમાં કહ્યાં છે. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફ્ स्थानां (ऊर्ध्वपाटस्थतिर्यग्लो के ) च " तथा " कहिणं भंते! हुमढविकाइया जे पज्जतगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविदा अवि से समगाणत्ता सव्वलोगपरियावन्नगा पण्णत्ता, समणाउसो ! | छाया -क्व खलु भदन्त | सूक्ष्मपृथिवी कायि कान पर्याप्तकानामपर्याप्तकानां च स्थानानि मज्ञप्तानि, गौतम ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका ये पर्याप्ता ये च अपर्याप्तकाः ते सर्वे एकविधा अविशेषा अनानात्वाः सर्वलोकपर्यापनकाः प्रज्ञप्ताः श्रमणाऽऽयुष्मन् !, एवमन्येऽपि, " एवं वेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, उनवारण लोयस्स असंखेज्जइमागे छाया - द्वीन्द्रियाणां पर्याप्तकापर्याप्तकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि, उपपातेन लोकस्या संख्येयभागे, एवं शेषाणामपि । 11 " लोकमें कहे गये हैं तथा - " कहिष्णं भंते ! सुहमपुढविकाया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्व लोगपरियावन्नगा पण्णत्ता समणाउसो " हे भदन्त ! पर्याप्तक अपर्याकि सूक्ष्म पृथिवीकायिकों के स्थान कहे गये हैं ? - हे गौतम ! जो पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक हैं वे सब एकविध हैं अविशेष हैं नाना नहीं हैं और सर्व लोकमें पर्यापनक हैं व्याप्त हैं इस प्रकारको कथन इनके विषय में किया गया है इसी तरह अन्य भी सूक्ष्म जीव जानना चाहिये । 66 एवं बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइ भागे " इसी तरहसे पर्याप्त अपर्याप्त दो इन्द्रिय जीवोंके स्थान कहे गये हैं ये उपपातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवे तथा - "कहिणं भंते ! सुहुमपुढविकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जतगा सेस एगविहा अविसेसमणाणचा सव्वलोगपरियावन्नगा पण्णत्ता समणाउसो' હે ભગવન્ ! પર્યાપ્તક અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકાનાં સ્થાન ક્યાં કહ્યાં છે. મહાવીર પ્રભુના ઉત્તર—“ હું શ્રમણાયુષ્મન્ ! હે ગૌતમ! જે પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકા છે, તેએ સૌ એક જ પ્રકારના છે, તેમનામાં વિશેષતા નથી કે વિવિધતા નથી. તેએ સ લેાકમાં પર્યાપનકવ્યાસ છે. આ પ્રકારનું કથન તેમને વિષે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યુ. છે, એજ પ્રમાણે અન્ય સૂક્ષ્મ જીવે વિષે પણ સમજવું, "" एवं बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जगाणं ठाणा पण्णत्त उवत्राएणं लोयस्स असंखेज्जद भागे ?” से प्रमा पर्याप्त भने अपर्याप्त द्वीन्द्रिय लानां स्थान કહ્યાંછે. એટલે કે તે સ્થાના ઉપપાતની અપેક્ષાએ લાકના અસંખ્યાતમાં Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटी.स्था. ४उ ३ ३६ चतुर्विधैरस्तिकायैरुत्पद्यमानवादकायैश्च स्पृष्टत्वनि १९७ ननु तेजसोऽपि परिणामविशेषलक्षणवादरत्वसत्त्वेन वादरतेजः कायेनापि उत्पयमानजीवस्पर्शी लोके वक्तव्यः एवं च पञ्चभिर्वादरकायैरुपपचमानैर्लोकः स्पृष्ट इति वक्तव्ये चतुर्भिर्वादरकायैरित्युक्तौ शास्त्रे न्यूनत्वं प्रतिभातीतिचेत्- श्रूयताम् - यद्यपि सूक्ष्माः पृथिव्यादयः पञ्चापि सर्वलोकात् सर्वलोके समुत्पद्यन्ते, तथापि तत्र बादरतैजसानां सर्वलोकादुवृत्य मनुष्यक्षेत्रे ऋजुगत्या वक्रगत्या च जायमानानामूर्ध्व कपाटये एव वादरतैजस्त्वं व्यवहियत इति न सर्वत्र वादर"तेजस्त्वमिति चतुर्भिर्वादरकायैरित्येवोक्तं न तु पश्चभिरिति ॥ सू० ३६ || भाग में हैं इसी तरहका कथन शेष जीवोंके उपपात स्थानोंके विषय में भी जानना चाहिये । शंका- तेज भी परिणामविशेष रूप वादरत्वमें रहता है अतः बादर तेजस्काय से भी उत्पद्यमान जीव स्पर्श लोकमें कहने योग्य है इस तरह उपपद्यमान पांच चादर कार्यों द्वारा लोक स्पृष्ट होता है ऐसा कहना चाहिये था सो ऐसा न कहकर उपपद्यमान चार बादरकायों द्वारा लोक स्पृष्ट है ऐसा कथन न्यूनता भरा हुआ प्रतीत होता है ? उत्तर - यद्यपि पांचोंही सूक्ष्म पृथिव्यादिक जीव सर्वलोकसे समस्त लोकमें उत्पन्न होते हैं तथापि सर्वलोक से उतना करके मनुष्य क्षेत्र में ऋजुगति से या वक्रगति से उत्पन्न होते हुए बादर तेजस्कायिकों का उर्ध्वपाट में ही बादर तैजसरूपसे व्यवहार होता है सर्वत्र नहीं इस कारण चार उत्पद्यमान बादरकार्यों द्वारा यह लोक स्पृष्ट है ऐसा ही कहा गया है पांचों से यह स्पृष्ट है ऐसा नहीं कहा गया है || ३६ ॥ ભાગમાં છે, એમ સમજવુ.... એજ પ્રકારનું કથન માકીના છવેાના ઉષપાત સ્થાનાના વિષયમાં પણ સમજવું, શકા——તેજ પણ પરિણામવિશેષ રૂપ બાદરત્વમાં રહે છે તેથી માદર તેજ કાયમાંથી ઉત્પદ્યમાન જીવસ્પર્શ લેાકમાં કહેવા ચૈાગ્ય છે. આ રીતે તે અહીં એવુ કથન થવું જોઇએ કે ઉપપદ્યમાન પાંચ ખાદરકાયા દ્વારા લેાક સ્પૃષ્ટ (व्याप्त) थाय छे. या प्रमाणे उडेवाने महले " उपपद्यमान यार माहरायो દ્વારા લેક પૃષ્ટ છે ” આ પ્રમાણે કહેવુ તે ન્યુનત્તાયુક્ત લાગતુ નથી ? ઉત્તર જો કે પાંચે સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાય આદિ જીવા સર્વ લેાકમાંથી સમસ્ત લેાકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, છતાં પણ્ સ લેાકમાંથી ઉદ્ધૃત ના કરીને મનુષ્યક્ષેત્રમાં ઋજુગતિથી કે વક્રગતિથી ઉત્પન્ન થતાં ખાદર તેજસ્કાયિકાના ઉર્ધ્વ કપ ટયમાં જ ખાદર તૈજસરૂપે બ્યવહાર થાય છે—સત્ર નહી'. તે કારણે તેજસ્કાયિક સિવાયના ચાર ઉત્પદ્યમાન ખાદરકાચા દ્વારા આ લેક પૃષ્ટ (પાસ) છે, એવુ' કહેવામાં આવ્યુ' છે-પાંચ દ્વારા પૃષ્ટ હોવાનું કહેવામાં આવ્યુ નથી. સૂ ૩૬ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ स्थानापर्व पूर्व चतुर्भिर्लोकः स्पृष्ट इत्युक्त, सम्पति लोकस्य धर्मारिकायादीनां च प्रदेशपरिमाणतः परस्परं तुल्यतामाह- मूलम् - चत्तारि पएसग्गेणं तुला पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए ९, अम्मत्थिकाए २, लोगागासे ३, एग जीवे ॥सू०३७॥ छाया - चत्वारः प्रदेशाग्रेण तुल्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः १, अधर्मास्तिकायः २ लोकाऽऽकाशः ३, एकजीरः ४ ॥ म्रु० ३७ ॥ --- टीका - " चत्तारि पएसम्गेणं " इत्यादि - प्रदेशाग्रेण - प्रदेशपरिमाणेन चत्वारः तुल्याः समाः सर्वेषां धर्मास्तिकायादिकाना मे पामसङ्ख्यातम देशत्वेन समानाः मज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः १ अधर्मास्तिकायः २, लोकाकाशः ३, एकजीव : ४। तत्राssकाशस्यानन्तमदेशत्वेन धर्मास्तिकायादित्रयतुल्यत्वं न अब सूत्रकार लोककी और धर्मास्तिकायादिकों की प्रदेश परिमाणकी अपेक्षा परस्पर में तुल्यताका कथन करते हैं 'चत्तारि परसग्गेणं तुल्ला' इत्यादि सूत्र ३७ ॥ प्रदेश परिणामकी अपेक्षा चार पदार्थ आपस में तुल्य कहे गये हैं लोकाकाश के, धर्मास्तिकायके, अधर्मानिकाय और एक जीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं इस तरह असंख्यात प्रदेशोंकी अपेक्षासे धर्मास्तिकायादिकों में समानता प्रकटकी गई हैं “लोकाकाश" ऐसा जो लोक पद से विशेषित आकाश कहां गया है उसका कारण ऐसा है कि आकाशके अनन्न प्रदेश होते हैं अतः धर्मास्तिकायादिके साथ तुल्यता इसकी घटित नहीं हो सकती है इसलिये धर्मास्तिकायादिकों के साथ હવે સૂત્રકાર લાકની અને ધર્માસ્તિકાયાક્રિકાની પ્રદેશ પરિમાણની અપે ક્ષાએ પરસ્પરમાં તુલ્યતા પ્રકટ કરે છે— " चत्तारिं परखग्गेणं तुल्ला " हत्याहि (सू ३७) પ્રદેશ પરિમાણુની અપેક્ષ એ લેાકાકાશ, ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય અને જીવાસ્તિકાયમાં સમાનતા કહી છે, કારણ કે લેાકાકાશના, ધર્માસ્તિકાયના, અધર્માસ્તિકાયના અને એક જીવના અસખ્યાત પ્રદેશ! હાય છે. આ રીતે અસખ્યાત પ્રદેશેાની અપેક્ષાએ ધર્માસ્તિકાય અદિ ચાર પદાર્થોમાં તુક્ષ્મતા અતાવવામાં આવી છે. "लोकाकाश" या यहां लोपथी विशेषित ने आााश हेवामां आव्यु છે તેનુ', કારણ એ છે કે આકાશના અનંત પ્રદેશે! હાય છે, તેથી ધર્માસ્તિકાય વગેરેની સાથે તેની સમાનતા સભવી શકતી નથી. તે કારણે ? ધર્માસ્તિકાયા Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधाटीका स्था०४३०३सू०३७ चतुर्विधस्तिकायादीनां प्रदेशाग्रतुल्यत्वनि० १२९ स्यादिति लोकपदं योजयित्वा लोकाऽऽकाशपदं प्रोक्तं, तथा सति लोकाऽऽकाशस्याप्यसंख्यातपदेशत्वेन धर्मास्तिकायादित्रयसाम्यमुपपन्नम् । 'एकजीवे - -त्यत्रैकपदानुपादाने सामान्यतया सर्वनीवोपस्थितौ सर्वेषां जीवानामनन्तप्रदेशत्या धर्मास्तिकायादित्रयसाम्यं न स्यादित्येकजीव इति पदमुपात्तम् , तथा सति एकस्य जीवस्यानन्तप्रदेशत्वाभावेनासङ्ख्यातप्रदेशत्वेन त्रिभिः साम्यमुपपन्नमिति वोध्यम् ॥ मू० ३७॥ पूर्व पट्त्रिंशन्तममूत्रे पृथिव्यादिभिः स्पृष्टो लोकः' इत्युक्तमिति पृथिव्यादीनां चतुणाँ निकायानामेकं शरीरं सुदृश्यं न भवतीति प्रतिपादयितुमाह - - मूलम्-चउण्हमेगं सरीरं नो सुदस्सं भवइ, तं जहा-. पुढविकाइयाणं १, आउकाइयाणं २, तेउकाइयाणं ३, वणस्सइकाइयाणं ४। सू० ३८॥ आकाश प्रदेशकी अपेक्षा तुल्यता घटित करने के लिये “लोकाकाश" एसा कहा गया है क्योंकि लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश कहे गये हैं। इसी तरहसे “एक जीव " ऐसा जो पद कहा गया है उसकाभी तात्पर्य ऐसाही है अर्थात् सर्व जीवोंकी अपेक्षा जीवोंके प्रदेश अनन्त होते हैं परन्तु एक जीयके प्रदेश असंख्यातही होते हैं अनन्त नहीं होते हैं यदि जीवके साथ एक पद न दिया जाता सर्व जीवोंकी उपस्थिति हो जानेसे धर्मास्तिकायादिकोंके साथ जीवकी प्रदेशोंकी अपेक्षा समानता नहीं बनती अतः धर्मास्तिकायादिकोंके साथ एक विशेषण दिया गया है क्योंकि एकजीवमें असंख्यात प्रदेशही कहे गये हैं। सु. ३७॥ દિની સાથે આકાશની પ્રદેશોની અપેક્ષાએ તુલ્યતા ઘટાવવાને માટે કાર કાશ” પદનો પ્રયોગ કરવામાં આવ્યા છે, કારણકે લેકાકાશના અસંખ્યાત ‘પ્રદેશો કહ્યા છે. એજ પ્રમાણે “એક જીવ” આ પદને પ્રયોગ કરવાનું કારણ પણ નીચે પ્રમાણે છે–સર્વ જીવોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેમનાં પ્રદેશ અનંત છે. પરંતુ એક જીવના પ્રદેશો અસંખ્યા જ હોય છે–અનંત હોતા નથી જે “જીવ પદની આગળ એક વિશેષણ મૂકવામાં આવ્યું ન હોત તે સર્વ જીવોની ઉપસ્થિતિ થઈ જવાને કારણે ધર્માસ્તિકાય આદિકેની સાથે જીવની પ્રદેશોની અપેક્ષાએ સમાનતા જ સંભવી શક્ત નહી તેથી ધર્મા. સ્તિકાય આદિકોની સાથે જીવની સમાનતા ઘટાવવાને નિમિત્તે જીવ પદની આગળ “એક વિશેષણ લગાવવામાં આવ્યું છે, કારણ કે એક જીવના અસં ખ્યાત પ્રદેશે જ કહ્યા છે. એ સૂત્ર ૩૭ છે Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे छाया - चतुर्गामेकं शरीरं नो सुदृश्यं भवति, तद्यथा- पृथिवीकायिकानाम् अकायिकानां २, तेजस्कायिकानां ३, वनस्पतिकायिकानाम् ४ | ० ३८ ॥ २०० , टीका - " चउण्डमेगं " इत्यादि - चतुर्णाम् - अनुपदं वक्ष्यमाणानां पृथिवीकायिकादीनाम् एकं सूक्ष्मं शरीरं सुइयम् - अनुमानादिगम्यत्वेऽपि प्रत्यक्षं नो भवति, अतिसूक्ष्मत्वात्, केपां चतुर्णामित्याकाङ्क्षायामाह - " तद्यथे " - त्यादि - पृथिवीकायिकानाम् १, अष्कायिकानाम २, तेजस्कायिकानाम्, वनस्पतिकायिकानाम् ४। अत्रैकशब्दः सूक्ष्मवाचकः । ननु वायोरपि शरीरं दृश्यं न भवतीति पञ्चानामिति वक्तव्ये कथं चतुर्णामिति निर्देशः कृत इति चेदाह - वादरवायूनां सूक्ष्माणां पृथिव्यन्त्रायुतेजोवनस्प पृथिवीव्यादिकों से लोक स्पृष्ठ है ऐसा कहा गया है- सो अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पृथिव्यादिक चारोंका एक शरीर ऐसाभी है जो सुइय नहीं होता है - " चउण्हमेगं सरीरं नो सुदस्सं " इत्यादि सूत्र ३८ ॥ इन चार पृथिव्यादिकों का एक शरीर सुदृश्य नहीं होता है वे चार इस प्रकार से हैं - पृथिवीकायिक १, अष्कायिक २, तेजस्कायिक ३ और वनस्पतिकायिक ४ इनका एक शरीर सुदृश्य नहीं होता है उसका कारण ऐसा है वह अनुमान आदि से ही गम्य होता है प्रत्यक्ष से गम्य नहीं होता है क्योंकि वह सूक्ष्म शरीर अति सूक्ष्म होना है यहां जो "एक" शब्द प्रयुक्त हुआ है वह इसी सूक्ष्म शरीरका वाचक है। शंका- वायुका भी तो शरीर दृश्य नहीं होता है फिर यहां सूत्र में " चतुणी " ऐसा न कहकर " पञ्चानाम् " ऐसा कहना चाहिये था પૃથ્વીકાય આદિકાથી લેક સ્પૃષ્ટ છે, એવુ' પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે, હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે પૃથ્વીકાય આદિ ચારેનુ એક શરીર मेवु छे? सुदृश्य होतु' नथी - " चउहमेगं सरीर नो सुदस्सं इत्यादि - ( सू ३८) " (१) पृथ्वी डायिक, (२) माथि, (3) तेरा भने (४) वनस्पतिः કાયિક, આ ચાર પ્રકારના જીવાનું એક શરીર સુદૃશ્ય હાતુ નથી, તેનું કારણુ એ છે કે તે અનુમાન આદિ દ્વારા જ ગમ્ય (નણી શકાય એવુ) હાય છે— પ્રત્યક્ષ જોઈ શકાય એવું હાતું નથી કારણ કે તે અતિ સૂક્ષ્મ હોય છે. અહીં જે “ એક” શબ્દ વપરાયે છે તે સૂક્ષ્મ શરીરના વાચક છે— માદર શરીરના વાચક નથી. શંકા——વાયુનું શરીર પણ દૃશ્ય હતુ... નથી. તેથી આ સૂત્રમાં ચારનું એક શરીર દૃશ્ય હાતું નથી ’ એમ કહેવાને બદલે C પાંચનું એક શરીર Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४४०३०३८ पृथिव्यादिवर्णा सूक्ष्मशरीरस्यादृश्यत्वनि० २०१ तिकायिकानां पञ्चानामेकमनेकं वा शरीरमदृश्यं भवति । वादरपृथिव्यप्तेजोवनस्पतिकायिकानां तु एकमेव शरीरमदृश्यं भवति, अत एव चतुर्णामित्युक्तं न तु पञ्चानामिति । वनस्पतयस्विह साधारणा एव गृह्यन्ते, तेपामेवैकशरीरस्यादृश्यत्वात्, प्रत्येकशरीरस्यतु एकस्यापि दृश्यत्वादिति । मू० ३८ ॥ पूर्वं पृथिव्यादीनां चतुर्णां सूक्ष्मशरीरस्य चक्षुरग्राह्यत्वमुक्तं, साम्मतमिन्द्रियप्रस्तावाच्छ्रोत्रादिकेन्द्रियचतुष्टय शब्दाद्यर्थ चतुष्टयस्येन्द्रियसम्बद्धत्वेनाssसो ऐसा न कहकर " चतुणी " ऐमा ही क्यों कहा गया है ? उत्तर- इस कथनका ऐसा भाव प्रगट कर करनेके लिये ऐसा कहा गया कि जो वायुकायिक सूक्ष्म और बादर होते हैं उनका तो कोई भी शरीर चाहे वह सूक्ष्म हो या बादर हो सुदृश्य देखने योग्य) होताही नहीं है परन्तु जो सूक्ष्म पृथिव्यादि चार हैं उनकाही सूक्ष्म शरीर सुदृइय नहीं होता है बादर पृथिव्यादिकों का वादर शरीर तो सुदृश्य होता है, अतः ये चार ऐसे हैं कि जिनका एक सूक्ष्म शरीर ही सुदृश्य नहीं होता है बादर शरीर तो सुदृश्य होता ही है परन्तु वायुकायिकका तो कोई भी शरीर सुदृश्य नहीं होता है। यहां वनस्पति शब्द से साधारण वनस्पतिकायिक ही गृहीत हुआ है प्रत्येक वनस्पतिकायिक नहीं क्योंकि उनका ही एक सूक्ष्म शरीर अदृश्य होता है वादर वनस्पतिकायिकका वादर शरीर तो दृश्य होता है ।। सू० ३८ ॥ દૃશ્ય હતું નથી એમ કહેવુ જોઈએ ઉત્તર—આ કથન પ્રકટ કરવાનું કારણુ નીચે પ્રમાણે છે—વાયુકાયિક સૂક્ષ્મ અને માદર બન્ને પ્રકારના હોય છે. તેમનું ખાદર શરીર પણ સુદૃશ્ય હેાતું નથી અને સૂક્ષ્મ શરીર પણ સદૃશ્ય હેતુ નથી, આ રીતે તેમનું એક પણ પ્રકારનું શરીર સુદૃશ્ય હતુ... નથી. પરન્તુ જે સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાય આદિ પૂર્વોક્ત ચાર પ્રકારના જીવા જ છે તેમનાં જ સૂક્ષ્મ શરીર સુદૃશ્ય હતાં નથી, ખાદર પૃથ્વીકાય આફ્રિકાના ખાદર શરીરે। તા સુ હાય છે જ. તેથી પૂર્વોક્ત પૃથ્વીકાય આદિ ચાર જ એવાં છે કે જેમના સૂક્ષ્મ શરી સુદૃશ્ય હાતાં નથી—તેમના ખાદર શરીરા તે સુદૃશ્ય હાય છે જ. પરન્તુ વાયુકાયિકાનું તે કાઇ પણુ શરીર સુદૃશ્ય હેતું નથી અહીં વનસ્પતિ શબ્દ દ્વારા સાધારણ વનસ્પતિકાયિક જ ગૃડીત થયેલ છે, પ્રત્યેક વનસ્પતિકાયિક ગૃહીત થયેલ નથી કારણ કે તેનુ' એક સૂક્ષ્મ શરીર જ અદૃશ્ય હાય છે-ખાદર વનસ્પતિકાયિકનું ખાદર શરીર તે દૃશ્ય હાય છે ! સૂ. ૩૮ ૫ स- २६ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ स्थानास्त्रे स्मज्ञेयत्वं प्रतिपादयितुमाह मूलम्-चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेदति, तं जहा सोइंदियत्थे १, पाणिदियत्थे २, जिभिदियत्थे ३, फालिंदियत्थे ४। सू०३९॥ छाया--चत्वार इन्द्रियार्थाः स्पृष्टा वेद्यन्ते, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियार्थः १, घ्राणेन्द्रियार्थः २, जिह्वेन्द्रियार्थः ३, स्पर्शेन्द्रियार्थः ४। ॥ सु० ३९ ॥ टीका--" चत्तारि इंदियत्था" इत्यादि-चत्वारः-चतुःसंख्यका इन्द्रियार्था:इन्द्रियैरय॑न्ते-खविषयीक्रियन्त इतीन्द्रियार्थाः = शब्दादयः स्पृष्टाः - इन्द्रियैः सम्बद्धाः सन्तो वेद्यन्ते-आत्मना ज्ञायन्ते, ते के चत्वार इत्याह-" तद्यथे"त्यादि-श्रोत्रेन्द्रियार्थः-श्रवणेन्द्रियगोचरः शब्दः १, घाणेन्द्रियार्थः घाणेन्द्रियगो___ पृथिव्यादिक चारोंका सूक्ष्म शरीर चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य नहीं होता है ऐसा कहकर अव सूत्रकार इन्द्रिय प्रस्तावको लेकर ऐसा कथन करते हैं कि श्रोत्रादिक चार इन्द्रियां ही प्राप्तार्थ प्रकाशक होती हैं अन्य नहीं-"चत्तारि इंदियस्था पुट्ठा वेदेति" इत्यादि सूत्र ३९ ॥ ___ चार इन्द्रियों के विषय इन्द्रियोंके साथ स्पृष्ट होकर जाते हैं वे इम प्रकार से हैं-एक प्रोत्रेन्द्रियार्थ १, दूसरा घ्राणेन्द्रियार्थ २, तीसरा जिहेन्द्रियार्थ और चौथा स्पर्शनेन्द्रियार्थ ४ ____ इन्द्रियों द्वारा जो अपने विषयभूत बनाये जाते हैं वे इन्द्रियार्थ हैं ऐसे ये इन्द्रियार्थ शब्दादि रूप होते हैं। ये शब्दादिक विषय जब इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध होते हैं तभी आत्मा जाने जाते हैं-शब्द श्रव. णेन्द्रिय गोचर होनेसे श्रोत्रेन्द्रियार्थ (श्रोत्रेन्द्रियका विषय)है गन्ध घाणेन्द्रिय પૃથ્વીકાય આદિ પૂર્વોક્ત ચારનાં સૂમ શરીર ચક્ષુઈન્દ્રિય દ્વારા ગ્રાહ હેતા નથી, આ પ્રકારનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ઈન્દ્રિય–પ્રસ્તાવને અનુલક્ષીને એવું કામ કરે છે કે શ્રોત્રાદિક ચાર ઇન્દ્રિયો જ પ્રાપ્તાર્થ પ્રકાશક डाय छे-अन्य ती नथी-" चत्तारि इंदियत्था पुरा वेदे ति"-(सू 3८) ચાર ઈન્દ્રિયોના વિષય ઈન્દ્રિયની સાથે પ્રુષ્ટ થઈને ગ્રાહ્ય થાય છે, ते या२ विषयो नीय प्रभाव छ-(१) श्रोत्रन्द्रियाः , (२) प्राणेन्द्रियार्थ (3) જિન્દ્રિયાઈ અને (૪) સ્પર્શનેન્દ્રિયાર્થ. ઈન્દ્રિ દ્વારા જેને પિતાના વિષયભૂત ગ્રાહ્ય બનાવવામાં આવે છે તેમને ઈન્દ્રિયાઈ કહે છે તે ઇન્દ્રિયાર્થ શાદિ રૂપ હોય છે, તે શબ્દાદિક વિષય જ્યારે ઈન્દ્રિયોની સાથે સંબદ્ધ થાય છે ત્યારે જ આત્મા દ્વારા જાણી શકાય છે. શબ્દ શ્રવણેન્દ્રિય ગોયર હોવાથી શ્રોત્રેન્દ્રિયાર્થ રૂપ છે. ગન્ધ ધ્રાણેન્દ્રિય Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४३०३ सू०३९ पृथिव्यादिवतुर्गा सूक्ष्मशरीरस्यादृश्यत्यनि० २०३ चरो गन्धः २, निहन्द्रियार्थः-रसनेन्द्रियगोचरो रसः ३, स्पर्शेन्द्रियार्थः त्वगि न्द्रियगोचरः स्पर्शः ४, एते चत्वार इन्द्रियार्थाः श्रोत्रादीन्द्रियसम्बद्धा आत्मना ज्ञायन्ते । चक्षुमनोभ्यां त्वष्टा एवार्था आत्मना वेद्यन्त इति " चत्तारि' इत्युक्तम् । उक्तं च-- "पुट्ट सुणेइ .सई, रूवं पुण पासइ अपुठं तु । ___गंध रसं च फासं, बद्धपुष्ठं वियागरे । १।" छाया-" स्पृष्टं शणोति शब्द, रूप पुनः पश्यत्यस्पृष्टं तु । गन्धं रसं च स्पर्श, बद्धस्पृष्टं व्याकुर्यात् । १।” इति, ०३९॥ पूर्व जीव-पुद्गलयोरिन्द्रियद्वारेण ग्राह्यग्राहकभाव उक्तः, सरपति तयोर्गतिधर्म प्रदर्शयितुमाह मूलम्-चउहि ठाणेहिं जीवा य पोरगला य णो संचायति बहिया लोगंता गमणयाए, तं जहा-गइअभावणं १, णिरुवरगहयाए २, लुक्खयाए ३, लोगाणुभावेणं ४॥सू० ४०॥ गोचर होनेसे घ्राणेन्द्रियार्थहै, रस रसनेन्द्रिय गोचर होने से जिह्वेन्द्रियार्थ है,और त्वगिन्द्रिय गोचर होनेले स्पर्श, स्पर्शन्द्रियार्थहैं । ये चार ही-शब्द, गन्ध, रस और स्पर्शही श्रोत्रादीन्द्रियोंके साथ सम्बद्ध होने पर आत्मा द्वारा जाने जाते हैं चक्षु इन्द्रिय और मन इनके द्वारा अपने विषयभूत पदार्थ अपृष्ट हुए ही जाने जाते हैं। अतः " चत्तारि" ऐसा कहा गया है । उक्तं च-" पुढे सुइ सई ” इत्यादि । सूत्र ३९ ॥ इस प्रकारसे जीव और पुदगलका ग्राह्य ग्राहक भाव कहकर अब सूत्रकार इनके गति धर्मकी प्ररूपणा करते हैंગોચર હોવાથી ઘણેન્દ્રિયાઈ રૂપ છે. રસ (સ્વાદ) રસનેન્દ્રિય ગોચર હોવાથી જિહૂન્દ્રિયાઈ રૂપ છે અને સ્પર્શ સ્પર્શેન્દ્રિય ગોચર હોવાથી સ્પર્શેન્દ્રિયાઈ રૂપ છે. આ ચાર જ-એટલે કે શબ્દ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ જ શ્રોત્રેન્દ્રિય આદિની સાથે સંબદ્ધ થાય ત્યારે જ આત્મા દ્વારા જાણી શકાય છે ચક્ષુઈન્દ્રિય અને મન, આ બેની સાથે પૃષ્ટ થયા વિના જ-અસ્પૃષ્ટ રહીને એમના વિષયभूत पहानि तमना ! ती २४य छे. यु ५५ छ ४-" पुढं सुणेई सहं "त्यादि । सू. ३८॥ આ પ્રકારે જીવ અને પુદ્ગલને ગ્રાહ્ય ગ્રાહક ભાવ પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમના ગતિ ધર્મની પ્રરૂ પણ કરે છે – Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ स्थांनाङ्गसूत्रे छाया-चतुर्भिः स्थानैर्जीवाश्च पुद्गलाश्च नो शक्नुवन्ति बाह्याल्लोकान्ताद गमनतायै, तयथा-गत्यभावेन १, निरुपग्रहतया २, रूक्षतया ३, लोकानुमा वेन ।। || सु० ४० ॥ ___टीका-" चउर्हि ठाणेहिं " इत्यादि-जीवाः पुद्गलाश्च चतुर्भिक्ष्यमाणैः स्थानः-कारणैः वाह्याल्लोकान्ताद्-अलोके गमनतायै-गमनाय-गन्तुं नो शक्नुवन्ति, तद्यथा-गत्यमावेन-गतिरहितत्वेन, लोकान्तात् परतो जीवपुद्गलानां गति स्वभावविरहात् , अधोगतिस्वभावरहितदीपशिखावत् १, तथा-निरुपग्रहतयाधर्मास्तिकायाभावेन तज्जनितगत्युपष्टम्भविरहात् शकटीमभृतिरहितपगुवत् २, "चउहि ठाणेहिं जीवाय पोग्गलाय' इत्यादि सूत्र ४० ॥ सूत्रार्थ-इन चार कारणोंसे जीव और पुद्गल बाह्य लोकान्तसे अलोकमें जाने के लिये समर्थ नहीं होते हैं-वे चार कारण इस प्रकार से हैं-गतिका अभाव १ गति साधक कारणका अभाव २ स्निग्ध रहितता ३ और लोकानुभाव ४ । टीकार्थ-लोकान्तसे आगे जीव और पुद्गलोंकी स्वभावताका विरह हो जाता है इसलिये वे अलोकमें जानेके लिये समर्थ नहीं होते हैं, ऐसा यह वहां न जा सकनेका प्रथम कारण है जैसे दीपशिखाका स्वभाव अधोगतिवाला नहीं होताहै, इसी तरहसे लोकान्तमें रहनेवाले जीवका भी ऐसाही स्वभाव है कि जिस कारण वह लोकान्तसे बाहर रहे हुए अलोक नहीं जाता है, द्वितीय कारण ऐसा है कि जीव और पुद्गलों की गति क्रिया निमित्त कारण धर्मद्रव्य होता है वह " चउहि ठाणेहि जीवा य पोग्गला य" या (सू ४०) સૂત્રાર્થ–નીચેના ચાર કારણને લીધે જીવ અને પુદ્ગલ કાન્તમાંથી બહાર આલાકમાં જઈ શકવાને સમર્થ થતાં નથી-(૧) ગતિને અભાવ, (૨) ગતિ સાધક रना मनाव, (3) स्निग्यताथी २डित भने (४) बानुभाव. ટીકાઈ—કાન્તથી આગળ જીવ અને પુદ્ગલેની ગતિ સ્વભાવતાને વિરહ (અભાવ) થઈ જાય છે. તેથી તેઓ અલેકમાં જઈ શકવાને સમર્થ થતાં નથી. આવું અલેકમાં ન જઈ શકવાનું પહેલું કારણ સમજવું. જેમ દીપ શિખાને સ્વભાવ અધોગતિવાળા હોતે નથી, એજ પ્રમાણે લેકાન્તમાં વિરાજમાન જીવને પણ એવો જ સ્વભાવ થઈ જાય છે કે જેના કારણે તે લેકા તથી બહારના પ્રદેશમાં (અલકમાં જઈ શકતો નથી. બીજુ કારણ–જીવ અને પુદ્ગલેની ગતિમાં ધર્મદ્રવ્ય નિમિત્તરૂપ બને છે. કાન્તની બહાર Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ. ३ सू० ४० जीवपुद्गलयोगतिधर्मनिरूपणम् २०५ तथा-रूक्षतया-स्निग्धतारहितनया वालुकामुष्टिवत्, पुद्गला हि लोकान्तेषु तथा परिणमन्ति यथा ततः परतो गन्तुं न शक्नुवन्ति, कर्मपुद्गलयुक्ता जीवा अपि लोकान्तात परतो गन्तुं न शक्नुवन्ति, सिद्धजीवास्तु धर्मास्तिकायाभावेनैव लोका. न्तात् परतो गन्तुं न शक्नुवन्ति ३, तथा-लोकानुभावेन-लोकमर्यादया विषयक्षेत्रादन्यत्र गन्तुं न शक्नुवन्ति, सूर्यमण्डलवत् ।। सू० ४० ॥ ___ अनन्तरोक्ता अर्थाः प्रायो दृष्टान्ततः प्राणिनां प्रतीता भवन्तीति दृष्टान्तभेदान प्रदर्शयितुं पञ्चसूत्रीमाह___ मूलम्-च उबिहे गाए पष्णते, तं जहा-आहरणे १, आहरणतद्देसे २, आहरणतहोसे ३, उवण्णासोवणए । (१) धर्मद्रव्य लोकान्तसे आगे नहीं अतः वे उस कारणके अभावसे शकटी (गाडी)आदि गति साधनसे रहित पङ्गुकी तरह आगे अलोकमें नहीं जाते हैं। तथा-वालुका मुष्टिकी तरह स्निग्धतासे रहित होने के कारण वे लोकान्तसे आगे नहीं जाते हैं-पुद्गलोंका लोकान्तमें ऐसा परिणमन हो जाता है कि जिससे वे उससे आगेको जाने के लिये समर्थ नहीं होते हैं तथा कर्म पुद्गलोंसे जो वहां जीव रहतेहै वे भी लोकके अन्तसे आगे अलोकमें नहीं जा मकते हैं । तथा जो सिद्ध जीव हैं, वे तो धर्मास्तिका. यके अभोवसेही लोकके अन्तसे आगे नहीं जा सकते हैं। चतुर्थ कारण ऐसा है कि जो लोककी मर्यादाही ऐसी बंधी हुई हैं कि अपने विषय क्षेत्र से आगे सूर्यमण्डलकी तरह जीव और पुद्गल नहीं जा सकते हैं। सू० ४०॥ અલેકમાં ધર્મ દ્રવ્યને સદૂભાવ જ નથી. જેમ ઘેડી આદિથી રહિત લગડો માણસ ગતિ કરવાને અસમર્થ બને છે એ જ પ્રમાણે ગતિકિયાના સાધનરૂપ ધર્મદ્રવ્યને અભાવે અલકમાં જીવ અને પુદ્ગલેની ગતિક્રિયા અટકી જાય છે. ત્રીજું કારણ-જેમ વાલુક (રેતી) ચિનગ્ધતાથી રહિત હોય છે તેમ તે સ્નિગ્ધતાથી રહિત થઈ જવાને કારણે લોકાન્તની બહાર અલેકમાં જઈ શકતા નથી. પુદ્ગલેનું લેકાતમાં એવું (સ્નિગ્ધતા રહિત) પરિણમન થઈ જાય છે કે જેથી તેઓ કાન્તથી આગળ જઈ શકવાને સમર્થ થતાં નથી. તથા કર્મ પુદગલોથી જે જીવે ત્યાં રહે છે તેઓ પણ કાન્તની બહાર અલેકમાં જઈ શકતા નથી તથા જે સિદ્ધ જીવે છે તેઓ તે ધર્માસ્તિકાયના અભા , વને લીધે જ કાન્તથી આગળ જઈ શકતા નથી ચોથું કારણ એવું છે કે લેકની મર્યાદા જ એવી બંધાયેલી છે કે સૂર્ય મંડળની જેમ જીવ અને પગલ પિતાના નિયત ક્ષેત્ર કરતાં આગળ જઈ શક્તા જ નથી. સૂ. ૪૦ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसून आहरणे चउछिहे पण्णते, तं जहा-अवाए १, उवाए २, उवणाकम्मे ३, पडुप्पपणविणासी । (२) आहरणतंद्देसे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-अणुसिद्रि १, उवालंभे २, पुच्छा ३, निस्तावयणे ४ (३) ___ आहरणतदोसे चतुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अधम्मजुत्ते १, पडिलोभे २, अत्तोवणीए ३, दुरुवणीए ४ (४)। उवण्णासोवणए चउठिवहे पण्णते, तं जहा-तव्वत्थुए १, तयन्नवत्थुए २, पडिनिभे ३, हेऊ ४। (५) - हेऊ चउठिवहे पण्गत्ते, तं जहा--जावए १, थावए २, वंसए ३, लूसए । अहवा--हेऊ चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा--पच्चक्खे १, अणुमाणे २, ओवम्मे ३, आगमे ।। अहवा-हेऊ चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा--अस्थि तं अस्थि सो हेऊ १, अस्थि तं णस्थि सो हेऊ २, णत्थित्तं पत्थि सो .हेऊ ३, णस्थित्तं णस्थि सो हेऊ ४। ॥ सू० ४१ ।। छाया-चतुर्विधं ज्ञातं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-आहरणम् १, आहरणतद्देशः २, आदणत दोपः ३, उपन्यासोपनयः ४। (१) अनन्तरोक्त अर्थ प्रायः दृष्टान्तसे प्राणियोंको समझमें आता है इस लिये अब सूत्रकार दृष्टान्त भेदोंको प्रकट करने के लिये पंचसूत्री कहते हैं "चउविहे गाए पण्णत्त" इत्यादि सूत्र ४१ ॥ सूत्रार्थ-ज्ञात-दृष्टान्त चार प्रकारका कहा गयाहै जैसे-आहरण१ आह અનન્તરોક્ત અર્ધ (વિષય) સામાન્ય રીતે દશાનને દ્વારા સમજી શકાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર દાન્તના ભેદે પ્રકટ કરવા નિમિત્તે નીચેનાં પાંચ सूत्र ४ छ-" चउन्धिहे णाए पण्णत्ते "त्याहि (सू ४१) ભૂવાર્થ-જ્ઞાત (દાત) ચાર પ્રકારના કહ્યા છે. તે ચાર પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ० ३ सू०४१ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् ૧૦૯ आहरणं चतुर्विधं मज्ञप्तम्, तद्यथा - अपायः १, उपायः २, स्थापना कर्म ३, प्रत्युत्पन्नविनाशी ४। (२) आहणतदेशश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा - अनुशिष्टिः १, उपालम्भ: २, पृच्छा ३, निश्रावचनम् ४। (३) आहारणतद्दोपञ्चतुर्विधः प्रज्ञसः, तद्यथा - अधर्मयुक्तं १, प्रतिलोम २, आत्मोपनीतं ३, दुरुपनीतम् ४ । (४) उपन्यासोपनयश्चतुर्विधः प्रक्षप्तः, तद्यथा तद्वस्तुकः १, तदन्यवस्तुकः २, प्रतिनिभः ३, हेतुः ४। (५) हेतुश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - यापकः १, स्थापकः २, व्यंसकः ३, लूपकः ४ | अथवा- - हेतु चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - प्रत्यक्षम् १, अनुमानम् २, औपम्यम् ३, आगमः ४। रणतद्देश२ आहरणतद्दोष ३ और उपन्यासोपनय ४ इनमें आहरण चार प्रकारका कहा गया है जैसे - अपाय १ उपाय २ स्थापना कर्म ३ और प्रत्युत्पन्नविनाशी ४ - (२) आहरण देश भी चार प्रकारका कहा गया उपालम्भ २ पृच्छा ३ और निश्रावचन ४ - ( ३) C है जैसे - अनुशिष्ट १ आहरणतद्दोष भी चार प्रकारका कहा गया है जैसे- अधर्मयुक्त १ प्रतिलोम २ आत्मोपनीत ३ और दुरुपनीत ४ (४) उपन्यासोपनय भी चार प्रकारका कहा गया है जैसे - तद्वस्तुक १ तद्न्यवस्तुक २ प्रतिनिभ ३ और हेतु ४ ( ५ ) इनमें हेतु चार प्रकारका कहा गया है जैसे-यापक १ स्थापक २ (१) माईर], (२) माडुरतदेश, (3) माहेरथुतद्दोष, अने (४) उपन्यासोपनय (१) तेमां मारना नीचे प्रभार अछे - (१) अयाय, (२) उपाय, (3) स्थापनाभ भने (४) प्रत्युत्यन्नविनाशी, (२) આહરણુતદેશના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) અનુશિષ્ટ, (२) उपासाल, (3) पृथ्छा, अने (४) निश्रावयन (3) આહરણતદ્દોષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) અધમ - युक्त, (२) अतिलोभ, (3) आत्मोपनीत अने (४) हुरुपनीत. (४) उपन्यासोपनयना पशु यार अक्षर उद्या छे - ( १ ) तद्वस्तु, (२) तहन्यवस्तु, (3) प्रतिनिल भने (४) हेतु. तेभाथी हेतु थार अारना उद्या छे - ( १ ) यापड, (२) स्थापड, (3) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ स्थानास्त्रे अथवा-हेतुश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अस्तितत् , अस्त्यसौ हेतुः १, अस्ति तत् नास्त्यसौ हेतुः, नास्ति तत् अस्त्यसौ हेतुः ३, नास्ति तत् नास्त्यसो हेतुः ४|| ।। सू० ४१ ॥ टीका--'चउबिहे गाए ' इत्यादि । ज्ञात (न्यायः)चतुर्विध प्रज्ञप्तं तद्यथा-" आहारणे" इत्यादि, आहरणम् १, आहरणतद्देशः २, आहरणतद्दोपः ३, उपन्यासोपनयः ४ सामान्यतो ज्ञातं द्विविधं व्यंसक ३ और लूषक ४ अथवा हेतु चार प्रकारका कहा गया है-प्रत्यक्ष १ अनुमान २ औपम्य ३ आगम ४ ___ अथवा-इस प्रकारले भी हेतु चार प्रकारका कहा गया है अस्तितत् अस्ति असौ हेतुः १ अस्तितत् नास्त्यसो हेतु २ नास्तितत् अस्त्यसो हेतुः ३ और नास्तितत् नास्त्यसो हेतुः ४ । विशेषार्थ-ज्ञात शब्दका अर्थ दृष्टान्त उदाहरणहै यह जो प्रथम मूत्र द्वारा आहरण आदिके भेदसे चार प्रकारका कहा गया है उसका तात्पर्याय इस प्रकारसे है दृष्टान्त साध्यको बतानेवाला होता है वह साध्य साधनके संबंध वादी एवं प्रतिवादीका बुद्धिसाम्य का स्थान होता है अतः सामान्य रूपसे यह दृष्टान्त साधम्य दृष्टान्त और वैधयं दृष्टान्त इस तरहसे दो प्रकारका होता है साध्य से व्याप्त साधन जहां दिखाया जाता है वह साधर्म्य दृष्टान्त है इमका दूसरा नाम अन्वय दृष्टान्त भी વ્યંસક અને (૪) ભૂષક. અથવા હેતુના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કદા छ-(१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (3) मौ५भ्य, मन (४) भागम. ___ मथवा तुना नीय प्रभार या२ २ ५९ ४ा छ-(१) ' अस्तितत् अस्ति असौ हेतुः", (२):" अस्तितत् नास्त्यसौ हेतुः ", (3) " नास्तितत् अस्त्यसौ हेतुः" मन (४) " नास्तितत् नास्त्यसो हेतु." विशेषा-'ज्ञात' ०७४ म Gals (-1)ना पाय - याન્તને આહરણ આદિ જે ચાર ભેદે કહ્યા છે તેમનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં भाव छ દેષ્ટાન્ત સાધ્યને બતાવનારું હોય છે. તે સાધ્ય સાધનના સંબંધમાં વાદી અને પ્રતિવાદીના બુદ્ધિસામ્યનું સ્થાન હોય છે. તેથી સામાન્ય રીતે તેના સામ્ય દષ્ટાન્ત અને વૈધમ્મ દષ્ટાન્ત નામના બે પ્રકાર પડે છે સાધ્ય દ્વારા વ્યાપ્ત સાધન જ્યાં બતાવવામાં આવ્યું હોય છે તેનું નામ “સાધમ્ય દષ્ટાન્ત છે. તેનું બીજું નામ અન્વય દૃષ્ટાન્ત” પણ છે કહ્યું પણ છે કે Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ सुधाटीका स्था० ४ उ०३ सू०४१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम् साधर्म्यवैधय॑भेदात् , यथा-यत्र यत्र धूमस्तत्राग्नियथा महानसः, यत्र वति नास्ति तत्र धूमोपि न भवति यथा जलाशये। तदुक्तम्-- . " साध्ये नानुगमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता। ख्यायते यत्र दृष्टान्तः स साधर्म्यतरो द्विधा ॥१॥ है। उक्त च-"साध्यव्याप्त साधनं यत्र प्रदर्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः" जैसे" यत्र २ धूमस्तत्र तत्राग्निः यथा महानसः यहां पर महानस (रसोई. घर) यह अन्वय दृष्टान्त है क्योंकि-धूम और अग्निका साहचर्य सम्बन्ध हम उन दोनोंको महानसमें देखने के साथ होता है जहां २ धूम होता है वहां२ अग्नि होती है इस बातफी प्रनीति हम महानस-रसोईघरमें उन दोनोंको साथ २ रहनेसे करते हैं-रसोई घरमें धूम भी होता है और अग्नि भी होती है, इसलिये धूम अग्निके बिना नहीं हो सकता है यदि होगा तो वह अग्निके सद्भावमें ही होगा-जैसा कि वह रसोई घरमेंहै साधनके अभाव में साध्यका अभाव जहां प्रकट किया जाता है वह वैधम्र्य व्यतिरेक दृष्टान्त कहलाता है जैसे-" यन्त्र बहिनस्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति यथा जलाशयः" यहां पर जलाशय तालाब आदि वह व्यतिरेक दृष्टान्त है क्योंकि जलाशय साध्यका बह्निका भी अभाव है और धूमका भी अभाव है यही बात "साध्येनानुगमो हेतोः" " साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्यते सोऽन्वयष्टान्तः " भ-" यत्र यत्र धूमस्तत्रतत्राग्निः यथा महानसः" मह महानस (રડું) અન્વય દષ્ટાન્ત રૂપ છે, કારણ કે ધૂમ અને અગ્નિને સાહચર્ય સંબંધ આપણે તે બન્નેને મહાનસમાં જોઈએ ત્યારે સમજી શકાય છે. “જ્યાં જ્યાં ધુમાડે હેય ત્યાં ત્યાં અગ્નિ હોય છે,” આ વાતની પ્રતીતિ આપણે તે બનેને રસોડામાં સાથે સાથે જ જેવાથી કરી શકીએ છીએ–રસોડામાં ધુમાડો પણ હોય છે અને અગ્નિ પણ હોય છે, તેથી એ વાતની પ્રતીતિ થાય છે કે અગ્નિ વિના ધુમાડે સંભવી શકતો નથી, જે ધુમાડાને સદૂભાવ હશે તે અગ્નિને પણ સદૂભાવ જ હશે. સાધનને અભાવે જ્યાં સાધ્યને અભાવ પ્રકટ કરવામાં આવે છે, એવા घटान्तन वैधभ्य व्यति३४ दृष्टान्त ४९ छ. म -" यत्र वहि नास्ति तत्र धूमोऽ पि नास्ति यथा जलाशय. " म तापने व्यतिरे ष्टान्त ३ પ્રકટ કર્યું છે, કારણ કે તેમાં સાધ્યને–અગ્નિનો પણ અભાવ હોય છે અને साधना-धुमाउन ५ मनाव हाय'छे थे। पात "साध्ये नानुगमो हेतोः" ઈત્યાદિ ગ્લૅક દ્વારા પૃષ્ટ કરવામાં આવી છે. स-२७ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦ स्थानानसूत्रे अथवा आख्यानकं ज्ञातं तत्-चरितकल्पितभेदाद् द्विविधम् । तत्र चरितं यथा ' निदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव ' कल्पितं यथा - ' प्रमादवत्तां प्रतिबोधनाय " अनित्यं यौवनादिकम्" इत्याद्युपदेशनं; यथा पाण्डुपत्रेण किशलयानां देशितम् । तथाहि- (6 जद तुम्भे वह अम्हे, तुम्भे वि य होहिहा जहा अम्हे । अप्पा पडत, पंडुयपत्तं किरायाणं ||१|| " इति । छाया -- यथा यूयं तथा वयं, यूयमपि भविष्यथ यथा वयम् । अध्यापयति (शिक्षयति ) पतत्, पाण्डुपत्रं किशलयानाम् ॥१॥ इति । reate | इस लोक द्वारा पुष्ट की गई है अथवा जो आख्यानक होता है वह ज्ञात है यह चरित और कल्पित के भेद से दो प्रकारका होता है जैसे"निदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येच" ब्रह्मदत्तकी तरह निदानबन्ध (नियाणा) दुःखके लिये होता है यहां ब्रह्मदत्त चरितरूप आख्यानक है क्योंकि यह प्रसिद्ध है और उसे ही यहां दृष्टान्त रूपमें रखा गया है कल्पित आख्यानक इस प्रकार से है - जैसे प्रमादपतित व्यक्तियोंको प्रतियोधन करनेके लिये ऐसा कहना कि यौवनादिक अनित्य है जैसा कि पीले पोंने जीर्णशीर्ण पत्तोंने किशलयों से कोंपलोंसे कहा “जह तुम्भे तह अम्हे " इत्यादि । जैसे तुम हो वैसे हमभी थे अब तुम भी आगे चलकर हम जैसे हो जाओगे यहां पाण्डुपतों (पीले परसों) ने किशलयों (कोंपलों) 1 અથવા—જે માથ્થાનક (ઉદાહરણ) હાય છે તેને જ્ઞાત કહે છે. તેના व्यक्ति भने 'स्थित सेवा में लेह पडे छे प्रेम - " निदान दुःखाथ ब्रह्म दत्तस्येव ” “ श्रह्महत्तनी भेस निधानमंन्त्र दुः३५४ होय छे. ” सहीं પ્રજ્ઞાદત્ત ચરિતરૂપ આખ્યાનક (દૃષ્ટાન્ત) છે, કારણ કે તેની કથા જાણીતી છે, છે, તેથી તેને અહીં દૃષ્ટાન્ત રૂપે મૂકવામાં આવેલ છે. કલ્પિત આખ્યાનકનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે— કાઈ પ્રમાદી માણસને પ્રતિખેાધિત કરવા માટે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે કે યૌવનાર્દિક અનિત્ય છે' આ અનિત્યતા પ્રકટ આ પ્રકારનું કલ્પિત દૃષ્ટાંત આપવામાં આવે છે— કરવા માટે પીળાં પડી ગયેલાં પણ એ જીણુ શીણુ પ[એ-ઢાંપળાને (નવાં ફૂટી नी४जेसां याने ) या प्रमाणे ४ - " जह तुम्भे तद्द अम्हे " त्याहि “ જેવાં તમે છે! એવાં અમે પશુ હતાં ભવિષ્યમાં તમે પણ અમારાં જેવાં જ ખની જશે. ” અહી પીળાં પણીએ હરિત કપળાને તેમની અતિ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाटीका स्था० उ० सू०४२ दृष्टान्तमेव निरूपणम् २११ यद्वा ज्ञातमुपपत्तिमात्रं ज्ञातहेतुत्वात् यथा - " करमा धान्यानि क्रीयन्ते ? यस्मान्मुधान लभ्यन्ते" । यद्वा-' किमर्थः धर्मः क्रियते, मुधा कल्याणं न जायते" इति । अथवा - उपमानमात्र ज्ञातम्, यथा-सुकुमारः करः कमलवत्, इति । एवको जो उपदेश दिया है वह कविने अपनी तरफ से कल्पित किया हैं अतः इस प्रकार के आख्यानक कल्पित दृष्टान्त हैं । और ये प्रमादपतित व्यक्तियोंके धनयोवनादिक अनित्य हैं इस वातको समजाने के लिये कहे जाते हैं । तुम 'धान्यको उत्तर में कहा अथवा-धर्म अथवा - ज्ञातको हेतु होने से जो उपपत्ति मात्र होता है वह ज्ञात है जैसे- " कस्मात् धान्यानि क्रीयन्ते ? यस्मात् दुधा न लभ्यन्ते " यद्वा-" किमर्थः धर्मः क्रियते ? सुधा कल्याणं न जायते " क्यों खरीद रहे हो ? इस प्रकारके प्रश्न के है कि विना खरीदे चावल नहीं मिलते हैं क्यों किया जाता है ? विना धर्मका किये कल्याण नहीं होता है इस प्रकारका यह सब कथन उपपत्ति मात्र है, क्योंकि यह ज्ञातकाही हेतु है । अथवा- जो उपमान मात्र होता है वह ज्ञात है जैसे-“ सुकुमारः करः कमलवत् " कमलकी तरह कर - हाथ सुकुमार है यहां कमल उपमान होनेसे ज्ञात स्वरूप है इस प्रकारसे साध्यके ત્યતા વિષે ઉપદેશ આપવાની વાત કવિ કલ્પિત હોવાથી તેને કલ્પિત દૃષ્ટાન્ત રૂપ ગણી શકાય. પ્રમાદપતિત વ્યક્તિએને ધન, યૌત્રન અદિની અનિત્યતા ખતાવવા માટે આ પ્રકારનું દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છે અથવા—જ્ઞાતના હેતુરૂપ હાવાથી જે ઉપપત્તિ માત્ર રૂપ હાય છે, તે ज्ञात छे. प्रेम के “ कस्मात् धान्यानि कीयन्वे १ यस्मात् मुधा न लभ्यते " अथवा – “ किमर्थ धर्मः क्रियते १ मुधा कल्याणं न जायते " तभे धान्यने શા માટે ખરીદિ રહ્યા છે ?’” આ પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે કહેવામાં આવે છે કે તે ખરિધ્યા વિના ચાખા મળતા નથી અથવા ધમ શા માટે કરવામાં भावे छे ? " " उत्तर – “ धर्म र्या विना भवतु दयालु तु नथी. " मा अठारनु' સમસ્ત કથન ઉપપત્તિ માત્ર જ છે કારણ કે તે જ્ઞાતના જ હેતુ છે. અથવાઉપમાન માત્ર હાય છે તે જ્ઞાત છે-જેમ કે-“ सुकुमारः करः कमलवत् હાથ કમળના જેવાં સુકુમાર છે ” અહીં કમલ ઉપમાન હાવાથી જ્ઞાત સ્વરૂપ છે. આ પ્રકારે સાધ્યના મેાધક સ્વરૂપવાળુ' જ્ઞાત ઉપાધિ ભેદની અપે 16 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ स्थानागपत्रे मनेकप्रकारेण साध्ययोधनस्वरूपं ज्ञातमुपाधिभेदात् चतुर्विधं भवति “आह. रण" मित्यादि । तत्र आ-समन्तात् हीयते प्रतीतिपथमानीयते अज्ञातः साध्य. रूपोऽर्थाऽने नेत्याहरणम् अर्थाद् यत्र स्थले समुदित एच दाष्टान्तिकोऽर्थः प्राप्यते तदाहरणम् यथा-पापे कालसोकरिकस्येवेति १॥ द्वितीयभेदमाह-'आहरणतद्देसे' इति । ' आहरणतदेस' इति । तस्याहरणार्थस्य देशस्तद्देशः सत्व असौ आहरणं चेत्युपचाराद् आढरगतदोप इति, अत्र प्राकृतत्वातारणपदस्य पूर्वनिपातः। अत्रायमभिसन्धिः यत्र दृष्टार्थस्य केनरावयवेन दार्टान्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तद्देशोदाहरणम् यथा चन्द्र इव मुखमिति, अत्र हि दार्टान्ते चन्द्रे वहवो धर्माः सन्ति तेभ्य एकस्यैव सौम्यत्वस्य मुखे उपनयनं न वायामविष्कम्भादीनामित्येकदेशेनैनोपनय इति २। तृतीयभेदमाह-" आहरणत. बोधक स्वरूपवाला ज्ञात उपाधि भेदसे चार प्रकारका प्रकट किया गया है-जिसके द्वारा अज्ञात साध्यरूप अर्थ अच्छी तरहले प्रतीति मार्ग में लाया जाता है वह आहरण ज्ञात है अर्थात् जिस स्थल में समुदितही हाष्टान्तिकका अर्थ प्राप्त किया जाता है वह आहरण ज्ञात है जैसे पापमें कालसौकरिकका समुदित संपूर्ण अर्थ प्राप्त हो जाता है । जिसमें दृष्टान्तार्थके एकही अवयवसे दाटोन्तिक अर्धका उपनयन किया जाता है वह आहरणतद्देश ज्ञात है जैसे-" चन्द्र इव सुखम् " सुख चंद्रमाके समान है यहां दृष्टान्त चंद्र में यद्यपि अनेक धर्म हैं परन्तु उनमें से एक सौम्य धर्मकाही सुख में उपनयन आरोप किया गया है आयाम वि. कम्भ (लंबाई चौडाई) आदि धर्मो का नहीं, इस तरह दान्तिके एक देशसे जो उपनयन होता है वह तद्देशाहरण-आहरणतद्देश ज्ञात है। ક્ષાએ ચાર પ્રકારનું કહ્યું છે–જેના દ્વારા અજ્ઞાત સાધ્ય રૂપ અર્થની સારી રીતે પ્રતીતિ કરાવાય છે, તેને આહરણ જ્ઞાત કહે છે. એટલે જે સ્થળે સમુદિત જ દાબ્દન્તિકને અર્થ પ્રાપ્ત કરવામાં આવે છે, એવા દૃષ્ટાન્તને આહરણ જ્ઞાત કહે છે. જેમકે પાપમાં કાલસૌકરિકનો સમુદિત સંપૂર્ણ અર્થે પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. જેમાં દષ્ટાર્થના એક જ અવયવથી રાષ્ટ્રતિક અર્થ નું ઉપનયન (આપણ) કરવામાં આવે છે તેનું નામ “આહરણતદેશ જ્ઞાત” છે रेम है-" चन्द्र इव मुखम् " " भुम यन्द्रना समान छ." मडा यन्द्रमा અનેક ગુણો હોવા છતાં પણ તેમાંથી એક માત્ર સૌમ્ય ગુણનું જ મુખમાં उपनयन (मारे।५४) ४२वामा माव्युछे-यन्द्रनी CHS, ५७, विस्तार અદિનું સુખમાં આરોપણ કરવામાં આવ્યું નથી. આ રીતે દાર્ટીન્તના એક દેશ (અંશ)થી જે ઉપનયન થાય છે તેને શાહરણ (આહરણતદેશ) કહે છે. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघटी स्था ४ उ. ३ सू ४९ इष्टान्तमेदनिरूपणम् २१३ दोस " इति । तरयाहरणस्य साक्षात्सम्बन्धी दोपस्तद्दोषः स चासौ आहरणं चेति आदरणवद्दशेषः, इहापि प्राकृतत्वादेवहरणस्य पूर्वनिपातः । यद्वा तस्यआहरणस्य दोषो यस्मिन् तत्तथा आहरणतदोष इति । अयमाशयः - यत् साध्यविकलत्वादि दोष दुष्टं तत्-तदोपाहरणम् यथा नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् घटवदित्यत्र दृष्टान्ते नित्यत्वममूर्तत्वं च नास्तीति साध्यसाधन वैकल्यं नाम दृष्टान्तदोषः । अथवा साध्यसिद्धिं संपादयन् दोषान्तरमप्युपनयति तदपि तद्दोपाहरणमेव यथा" वरं कूपशताद्वापी, वरं वापीशतात् क्रतुः । वरं क्रतुशतात्पुत्रः, सत्यं पुत्रशताद्वरम् " ||१|| इति लोकोक्तिः, 39 इसका तात्पर्य ऐसा है जो ज्ञात उदाहरण साध्य विकल आदि दोन से दुष्ट होता है वह उदाहरणमदोष-तदोषाहरण ज्ञात है जैसे- " नित्यः शब्दः अमूर्तस्वात् घटवत् " यहां " घट यह ज्ञात है इसमें नित्यत्वरूप साध्य और असूर्तत्वरूप साधन ये दोनों नहीं पाये जाते क्योंकि घट कार्य होने से अनित्य है और पौद्गलिक होने से वह मूर्त है । इस तरह यह घट दृष्टान्त-ज्ञान-साध्य और साधन दोनोंसे विकल (हीन) है साय साधनसे विकल (हीन) होना यह दृष्टान्तका दोष है । इस दृष्टान्त दोषवाला घट है, अतः यह घट ज्ञात तद्दोषाहरण भेदवाला है । अथवा - जो ज्ञात साध्य सिद्धिको करता हुआ भी दोषान्तर में साध्यसिद्धि कर देना है वह भी तदोपाहरण ज्ञात है जैसे- " वरं कूपशताद्वापी " इत्यादि । यह लोकोक्ति है इस कथन से श्रोताओंके मन में ८ હવે આહરણતદોષ ( તદ્દોષાહરણુ-તદ્દોષ ઉઢાહરણ)ના ભાવાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે—જે જ્ઞાત-ઉદાહરણ સાધ્યવિકલ આદિ દેખાથી દુષ્ટ (દુષિત) હાય છે તેનુ નામ तद्दोषाडुरण ज्ञात' छे म " नित्यः शब्दः अमूर्त स्वात् घटवत् " सही " घट" से ज्ञात (उढाडेर) छे तेसां नित्यत्व ३५ સાધ્ય અને અમૃત રૂપ સાધન એ અન્નેને સદ્ભાવ દેખાતા નથી, કારણુ કે ઘટ કાર્ય રૂપ હાવાથી અનિત્ય નથી અને પૌદ્ગુગલિક હાવાથી મૂર્ત પણ નથી. આ રીતે ઘટતુ દૃષ્ટાન્ત સાધ્ય અને સાધન મન્નેથી રહિત છે. સામ્ય અને સાધનથી વિકલ (હીન) હેવુ' એજ દૃષ્ટાન્તને દોષ ગણાય છે. આ પ્રકારના દૃષ્ટાન્ત દોષવાળા ઘટ (ઘડા) છે. તેથી આ ઘટનું દૃષ્ટાન્ત તવેષાહરણુ (આહરણુતોષ) ભેદવાળુ ગણાય છે અથવા જે જ્ઞાત (દૃષ્ટાન્ત) સાયસિદ્ધિ કરતુ' થયું. પશુ દોષાન્તરમાં સાધ્યસિદ્ધિ કરી નાખે છે તેને પશુ તદ્દોષાહરણ સાત કહે છે. જેમકે Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ स्थानाङ्ग ___अनेन कथनेन श्रोतृगां मनसि संसारकारणेष्वारम्भपरिग्रहेप्वपि वापीपुत्रा दिषु धर्मजनकत्वं स्थापितमिति भवत्येव तस्यापि-आहरणतदोपतेति । ३ । चतुर्थभेदमाह-' उपन्नासोवणए' इति । वादिना स्वाभिमतसाध्यस्य साधनाय हेतूपन्यासे कृते तद्विषटनाय प्रतिवादिना यद् विरुद्धार्थस्योपनयनं क्रियते स उपन्यासोपनयः, यथा आत्मा अफर्ता अमूर्तत्वाद्गनवदिति वादिनोक्ते सति तद्विघटनाय प्रतिवादिनोच्यते यदि गगन दृष्टान्तेन त्वया आत्मनि अकर्तृत्व साध्यते संसारके कारण आरम्भ एवं परिग्रह रूप वापी पुत्रादिकों में भी धर्मजनकता स्थापित होती है। अतः यह आहरणतदोषवाला है तात्पर्य इसका ऐसा है कि यहां ऋतु (यज्ञ) और सत्यके प्रान्तले वापी एवं पुत्रों में धर्मजनकता पुष्टको गई है, अतः ये दोनों दृष्टान्त दृष्टान्तके दोषवालेहैं । "उवनासोवणए" यह चतुर्थ भेद है इसका तात्पर्य ऐसा है कि किसी वादीने अपने साध्यको सिद्ध करने के लिये हेतुका प्रयोग किया और उसे विघटन(निवा रण) करनेके लिये प्रतिवादीने विरुद्धार्थका उपनयन किया जैसे-"आत्मा अकर्ता अमूर्तत्वात् गगनचत्" ऐसा किसी वादीने-सांख्यने कहा इसके विरुद्ध प्रतिवादीने उसके मन्तव्यको हटाने के लिये ऐसा कहा कि यदि तुम गगनके दृष्टान्तको लेकर आत्मामें अफई त्व सिद्ध करते हो " वर कूपशताद्वापी" याह- वाहित छ. मा ४थन द्वारा श्रोता ઓના મનમાં સંસારના કારણભૂત આરંભ અને પરિગ્રહ રૂપ વાપી પુત્રાદિકેમાં પણ ધર્મજનતા સ્થાપિત થાય છે. તેથી આ આહરણતાવાળું દૃષ્ટાંત છે આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે અહીં ક્રતુ (યજ્ઞ) અને સત્યના દષ્ટાત દ્વારા વાપી (વાવ) અને પુત્રોમાં ધર્મજનતા પુષ્ટ કરવામાં આવી છે તેથી આ બન્ને દષ્ટાન્ત દષ્ટાતના દેલવાળાં છે. " उबन्नाखोवणए " 'पन्यासीपनय' मा याथा प्रारना मापाथ હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે-કઈ વાદીએ પિતાના સાધ્યને સિદ્ધ કરવાને માટે હેતુને પ્રયોગ કર્યો તેને તોડી પાડવાને માટે પ્રતિવાદીઓ વિરુદ્ધાર્થનું Gधनयन (मा२।५) ४१, रेम “ आत्मा अकर्ता अमूर्तत्वात् गगनवत्" “અમૂર્ત હોવાને કારણે આમા આકાશની જેમ અકર્તા છે”, આ પ્રકારનું કથન કેઈ સાંખ્યમતવાળાએ કર્યું. તેના આ મતનું ખંડન કરવાને માટે તેના કરતાં વિરૂદ્ધ અભિપ્રાય ધરાવનારે આ પ્રમાણે દલીલ કરી. “જે તમે ગગનના દુષ્ટાતને આધારે આત્મામાં અકતૃત્વ સિદ્ધ કરતા હો તે એજ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टी स्था. ४३ ३१५१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम् तदा तेनैव दृष्टान्तेनाभोक्तकृत्वमपि सिद्धयतु, तच्चानिष्टमिति । यथा वा मांस भक्षणम् अदुष्टं प्राण्यङ्गत्वात् ओदनवदिति प्रयोगेण वादिना मांसभक्षणे दोषाभावः प्रतिपाद्यते. तत्र प्रतिवादिना कथ्यते प्राण्यङ्गत्वाविशेषात् स्वपुत्रांसभक्षणमपि विधेयं स्यादिति आहरणोपन्यासः । यद्वा-यत्किचित्साधर्म्यमादाय भवतमानं प्रति यत्किंचित्साधयेणैव प्रत्यवस्थानमाहरणोपन्यास इति । तो इसी दृष्टान्तसे अभोक्तकृत्वनी सिद्ध हो जाना चाहिये क्योकि गगनमें अकृर्तृत्व और अभोक्तकृत्व ये दोनों बाते हैं परन्तु सांख्य आत्मामें अभोक्तकृत्व मानता नहीं है यह उसे अनिष्टहै "अकर्ता निर्गुणो मोक्ता आत्मा कापिलदर्शने " ऐसा उसका कथन है अथवा-ऐसा कहना कि मांस भक्षणं अदुष्टं प्राण्यत्वात् ओदनवत् " ओदनकी तरह मांसका भक्षण अदुष्ट है क्योंकि उसकी तरह वह भी प्राणीका अङ्ग है इस प्रकारके कथन में ओदन दृष्टान्त लेकर प्राण्यङ्ग हेतुद्वारा वादीने मांस अक्षण में दोषाभाव प्रतिपादित किया तष प्रतिवादीने ऐसा कहा-प्राणीके अङ्गकी अविशेषता होनेसे स्थानका मांस भक्षणभी विधेय हो जाता है इस तरहसे यह कथन विरुद्धार्थका उपनयन-उपन्यासोपनय रूप है अथवा चाहे जो कुछ साधर्थ लेकर प्रवर्तमानके प्रति चाहे किसी साधhसेही प्रत्यवस्थान करना यह उपन्यासोपनय आहरणोपन्यास है દૃણાત દ્વારા આત્મામાં અભકતૃત્વ પણ સિદ્ધ થઈ જવું જોઈએ, કારણ કે આકા શમાં અકર્તવ અને અભેફતૃત્વ, આ બન્નેને સદ્ભાવ છે પરંતુ સાંખ્ય મતને માનનારા લોકે આત્મામાં અકતૃત્વ માનતા નથી–એ વાત તેમને માટે मी छ. “ अकर्ता निगुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने " तेया तो આત્માને અકર્તા. નિર્ગુણ અને ભક્તા માને છે. અથવા એવું કહેવું કે “ मांस भक्षण अदुष्टं प्राण्यङ्गस्वात् ओदनवत् " साहननी रेभ भांसतुं सक्ष પણ અદૃષ્ટ છે, કારણ કે તેની જેમ તે પણ પ્રાણીનું અંગ છે આ પ્રકારના કથન વડે ઓદન દૃષ્ટાન્તને આધાર લઈને પ્રાયંગ હેત દ્વારા વાદીએ માંસ ભક્ષણમાં દેષના અભાવનું પ્રતિપાદન કર્યું ત્યારે પ્રતિ વાદીએ એવી દલીલ કરી કે “પ્રાણુના અંગની અવિશેષતા હોવાથી સ્વપત્રના માંસનું ભક્ષણ પણ વિધેય થઈ જાય છે એટલે કે સ્વપુત્રનું માંસ ખાવાનો પણ નિષેધ સંભવી શકે નહીં.” આ રીતે આ કથન વિરૂદ્ધાર્થના ઉપનયન (આપણુ) રૂપ એટલે કે ઉપન્યાસોપનય રૂપ છે. અથવા–કોઈ પણ સાધમ્યની અપેક્ષાએ પ્રવર્તમાનમાં કોઈ પણ સાધમ્ય વડે જ પ્રત્યવસ્થાપન કરવું તેનુ નામ ઉપન્યાસપનય આહરણે પન્યાસ છે. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ स्थानासूत्रे ___ अर्थपा प्रत्येकं चातुर्विध्यमाह-' आहरणे' इत्यादि आहरणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं तद्यथा-' अवाए ' इत्यादि । ' बाप' अपाया अनर्थः, स यत्र द्रव्यादिषु कथ्यते तदाहरणमपायः यथा एनेषु द्रव्यविशेषेवस्त्यपीयः विवक्षितद्रव्यादिषदेचेति । अथवा-द्रव्यादीनां हेयता कथ्यते तदाहरणमपायः । अपायश्चतुर्विधो द्रव्यक्षेत्र कालभावभेदात् । तत्र द्रव्यादपायो द्रव्यापायः, द्रव्ये अपायः द्रव्यमेव वा अपायो द्रव्यागायः एतद्धे यता साधकमेनत्सायकं वा आहरणमुच्यते तत्र द्रव्यापायस्याय प्रयोगः द्रव्यापायः परिहार्यः द्रव्ये वा अपायो निराकरणीयः । देशान्तरगमनेनो. पार्जितद्रविणयोः भ्रातृवाणिजोरिव (१) अब सूत्रकार इन सबके प्रत्येक चार चार भेदों को प्रकट करते हुए कहते हैं जो आहरण ज्ञात है बह चार प्रकारका कहा गया है जैसे"अघाए" इत्यादि अपाय नाम अनर्थका है यह अपाय जहां द्रव्यादिकोमें कहा जाता है वह आहरणका भेद अपाय है जैसे-विवक्षित द्रव्यादिकी तरहही इन द्रव्य विशेषोंमें अपाय है । अथवा-द्रव्यादिकोंकी हेयता जिसके द्वारा कही जाती है वह आहरणका भेद अपाय है यह अपायसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकारका है द्रव्यसे या द्रव्यरूप जो अपाय है वह द्रव्यापाय है द्रव्य की हेयताका साधक अथवा द्रव्यका साधक जो उदाहरण होता है ब्रह अपाय आहरण है देशान्तर गमन से उपार्जित द्रव्यवाले दो वैश्य भाइयों की तरह द्रव्यापाय परिहार्य हैं या द्रव्यमें अपाय निराकरणीय હવે સૂત્રકાર તે પ્રત્યેકના ચાર ચાર ભેદોનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે...આહ. २५ज्ञातना “ अवाए " 24पाय त्याहि या२ ४१२ ४ा छे सपाय मेटले અનર્થ. તે અપાયનું જ્યાં દ્રવ્યાદિમાં કથન કરવામાં આવે છે ત્યાં તે આહરણના અપાયભેદ રૂપ હોય છે, જેમકે–વિવક્ષિત દ્રવ્યાદિની જેમ જ આ દ્રવ્યવિશેષમાં અપાય છે અથવા-દ્રવ્યાદિની હેયતાનું જેના દ્વારા પ્રતિપાદન કરાય છે તે આહરણના ભેદ અપાયરૂપ છે. આ અપાય પણ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવના ભેદથી ચાર પ્રકારને કહ્યો છે દ્રવ્ય વડે, દ્રવ્યમાં અથવા દ્રવ્યરૂપ જે અપાય છે તેને દ્રવ્યાપાય કહે છે દ્રવ્ય ક્ષેત્રાદિકની હેયતાનું સાધક અથવા દ્રવ્યની હેયતાનું સાધક જે ઉદાહરણ હોય છે તેને અપાય આહરણ કહે છે. પરદેશ જઈને જેમણે ઘણું જ ધન ઉપાર્જન કર્યું હતું એવાં બે વૈશ્યભાઈઓના દૃષ્ટાન્તની જેમ દ્રવ્યાપાય પરિહાર્ય છે અથવા દ્રવ્યમાં અપાય નિરાકરણીય છે. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४३०३सू०४१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम्. . . ... ... .२१७ तथाहि-कस्मिश्विनगरे द्वौ वणिजौ स्तः तौ देशान्तराद् धनमुपायं गृहस. मीपमागतो, तत्रकेन विचारितं भ्रातरं मारयित्वा सर्वमेव धन नेयं, तत्र द्वयोनिवादो जातः तदनन्तरं धनं जले प्रक्षिप्तम् तत्र मत्स्येन निगलितं तद्धनम् , मत्स्यश्च धीवरेण व्यापादितः । तं चान्यः क्रीत्वा स्वगृहे नीतवान् । तद्गृहे मातृपुन्यौ मिलित्वा मत्स्यं विदारयितुमारब्धवत्यौ, तदुदरे ताश धनं दृष्ट्वा पुच्या माता व्यापादिताः एतत्सर्वं दृष्ट्वा तौ भ्रातरौ वणिजौं समुत्पन्नवैराग्यौ प्रवजितौं । तत्परिहारश्च प्रव्रज्या ग्रहणादिति आहरणता चैकदेशेन, उपनयस्य , त्यागात् १६ है इस दृष्टान्तका स्पष्टीकरण इस प्रकारसे है-किसी नगर में दो वैश्य रहते थे जब वे देशान्तरसे धन उपार्जित कर अपने घरके पाप्त आ पहुँचे तब एकने विचार किया कि भाईको मारकर. सब धन ले लेना चाहिये इतने में दोनों में विवाद हो गया तब उस धनको जलमें फेंक दिया वहां मत्स्यने उसे निगल लिया, धीवरने उस मत्स्यको पकड़ने से वह मत्स्य मर गया उस मत्स्य को किसी दूसरेने उससे खरीद लिया जब वह उसे लेकर घर आया तो मां और बेटीने मिलकर उसे चीरा चीरतेही उसके पेट में धन देखकर पुत्रीने मांको मार दिया यह सब हाल देखकर वे दोनों भाई संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त होकर प्रत्रजित हो गये १ यह व्यापाय परिहार्य है. क्षेत्रसे क्षेत्र में जो अपाय है वह या क्षेत्ररूप जो હવે તે છત્તનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે –કેઈ નગરમાં બે વૈશ્ય રહેતાં હતા. તેઓ ધન કમાવા પરદેશ ગયા. ધનપાર્જન કરીને તેઓ પિતાને ગામ પાછા ફરવા માટે રવાના થયા. ઘરની પાસે આવતાં જ એકના મનમાં એ વિચાર આવે કે ભાઈને મારી નાખીને બધું. ધન હું જ કબજે કરી લઉં. આ ધનને કારણે બન્ને ભાઈઓ વચ્ચે ભારે ઝગડે થયે. તેમણે ગુસ્સે થઈને તે ધનને કઈ જળાશયમાં ફેંકી દીધું. જળાશયમાં રહેલા કેઈ મત્સ્ય તે ધનને ગળી ગ. કે ઈ એક માછીમારે તે માછaોને પકડીને મારી નાખ્યું અને તેને કેઈ બીજા માણસને વેચ્યું. તે માણસે તે મત્સ્ય પિતાને ઘેર લઈ જઈને રાંધવા માટે પત્નીને સેંપ્યું. તેની પત્ની અને પુત્રીએ તે મસ્યા જ્યારે ટુકડા કર્યા ત્યારે તેના પેટમાંથી પેલું ધન તેમને હાથ લાગ્યું તે ધનને ખાતર પુત્રીએ માતાને મારી નાખી આ સમસ્ત હકીકત જ્યારે તે વૈશ્ય ભાઈઓએ જાણી ત્યારે તેમને સંસાર પર વૈરાગ્યભાવ આવી જવાથી ભેગથી વિરકત થઈને તેમણે પ્રત્રજ્યા અંગીકાર કરી લીધી. આ દ્રવ્યાપાય પરિહાર્ય છે. स०-२८ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान १३ स क्षेत्रापायमाह- क्षेत्रात् क्षेत्रे क्षेत्र वा अपायः क्षेत्रापायः यथा संभवत्यपायः सशत्रु क्षेत्रे ससर्पगृहवत् " ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः " इति । यथा च जरासन्धाभिध मतिवासुदेवात् संभावितापायं सौर्यपुरं परित्यक्तवन्तो दशाही इति । कालापायमाह - कालापायो यथा सापायकालवर्जने प्रयत्नं कुर्यात द्वेषानवत् यथा द्वादशवर्षेण द्वारका, विनश्यतीति नेमिनाथवचनश्रवणेन द्वैपायनो उत्तरापथमवृत्तोऽभूत् । भावापायमाह - भावापायो यथा - कोपभावं परिहरेत् चण्डकौशिकवदिति यथा - समुत्पन्न - जातिस्मरण्डकौशिकः कोपरूपं भावापायं परिहृतवानिति । १ । つ द्वादशवलक्षण सापाय कालपरिहारेच्छया. अपाय है वह क्षेत्रापाय है जिस प्रकार सर्प सहित गृहमें निवास करने से मृत्यु संभावित है उसी प्रकार शत्रु सहित क्षेत्र में रहने से भी अपाय संभावित है - " ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः " जिस क्षेत्र में अपाय संभवित होना है उसे छोड़ देना चाहिये जैसे - जरासंध प्रति वासुदेव से संभावित अपापवाले सौर्यपुर नगरको दशाहों ने छोड दिया धा यह क्षेत्रापाय है अपाय सहित कालके त्यागमें द्वैपायनकी तरह प्रयत्न करना चाहिये जैसे कि १२ वर्षके बाद द्वारका नगरी नष्ट हो जावेगी ऐसी भविष्यवाती जय द्वैपायनने नेमिनाथके मुंहसे सुनी तो वे उस सापाकालको छोडने की इच्छा से उत्तरापथमें चले गये थे यह कालापाय है कोपभाव (क्रोध) का चण्डकौशिककी तरह छोड देना भावापाय है चण्डकौशिकको जब जातिस्मरण ज्ञान हो गया तब उसने कोपरूप भाषा ક્ષેત્ર વડે, ક્ષેત્રમાં કે ક્ષેત્રરૂપ જે અપાય છે તેને ક્ષેત્રાપાય કહે છે. જેવી રીતે સર્પવાળા ઘરમાં નિવાસ કરવાથી મૃત્યુના સ ́ભવ રહે છે. એજ પ્રમાણે શત્રુસહિતના ક્ષેત્રમાં રહેવાથી અપાયના સભવ રહે છે. કહ્યું પણ छे -" सर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः " ने क्षेत्रमां अपाय (अनर्थ) સભવિત હાય તે ક્ષેત્રના ત્યાગ કરવા જોઇએ. જેમકે-પ્રતિવાસુદેવ જરાસ’ઘ દ્વારા અપાય (અનથ) થવાનેા સભવ લાગવાથી દશા''એ સૌ પુર છેડી દીધુ હતુ. આ ક્ષેત્રાપાયના દૃષ્ટાન્તરૂપ સમજવુ. કાલાપાયના ત્યાગમાં દ્વૈપાયનની જેમ પ્રયત્નશીલ રહેવુ' જોઇએ. નેમિનાથ ભગવાને એવી ભવિષ્યવાણી ઉચ્ચારી કે ૧૨ વર્ષ પછી દ્વારકા નગરીનેા નાશ થશે, ત્યારે તે અપાયચુક્ત કાળથી ખચવાને માટે દ્વૈપાયન ઉત્તરપથમાં ચાલ્યા ગયા હતા. આ પાયનુ દૃષ્ટાન્ત છે, ચંડકૌશિકની જેમ કાપભાવને પરિત્યાગ કરી નાખવા असा.. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४ उ०३ सू०४१ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् ... २१९ अथ द्वितीय भेदमाह-'उत्राए' त्ति. उपायः प्राप्तव्यपदार्थप्रति पुरुषव्यापारादिरूपा साधनसामग्री, स यस्मिन् द्रव्यादौ उपेये विद्यते इत्यभिधान, या घटादि द्रव्यविशेषेषु साध्येषु विद्यते उपायो विवक्षितद्रव्यवदिति, अथवा यत्रोपादेयता कथ्यते द्रव्यादेस्तदाहरणमुपायः । उपायोपि चतुर्धा द्रव्यक्षेत्रकाल भावभेदात् । तंत्र द्रव्यस्य सुवर्णादेः प्रासुकोदकादेर्वा उपाय:-द्रव्यमेव वा उपाय इति द्रव्योपायः यथाऽस्ति सुवर्णादिषूपायः उपायेनैव वा सुवर्णादौ प्रयत्नो विधेयं इति । अथवा प्रामुकोदकादि द्रव्यमेषणोपायेन ग्रहीतव्यमिति १॥ एवं क्षेत्रपरिकर्मणा उपायः पायका परिहार कर दिया था, इस प्रकारले चे आहरणज्ञात के अपाय भेद के चार भेद है १ आहरण ज्ञातका द्वितीय भेद जो उपाय है-वह इस प्रकार से हैंप्राप्तब्धपदार्थके प्रति जो पुरुष व्यापारादिरूपं साधन सामग्री होती है वही उपाय होती है अतः इस द्रव्यादिरूप उपेयमें यह उपाय है ऐसा आहरण उपाय है जैसे घटादि द्रव्य विशेष साव्यों में विवक्षित वृत्तिकादि द्रव्य उपायरूप होता है अथवा-द्रव्यादिकोंकी जहां उपादेयता कही जाती है वह आहरण उपाय है यह उपाय भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकारको है सुवणोदि द्रव्यका या प्रामुक उदक आदि द्रव्यपका जो उपाय है वह या द्रव्यरूप जो उपाय है वह द्रव्योपाय है जैसे-सुवर्णादिकों के विषय में उपाय है उपायसेही सुवर्णादिकोंमें प्रयत्न विधेय है अथरा-प्रासुक उदकादि द्रव्य एषणोपायसे તેનું નામ ભાવાપાય છે ચંડકૌશિકને જ્યારે જાતિમણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું ત્યારે તેણે કપરૂપ ભાવાપાયને પરિત્યાગ કરી નાખ્યું હતો. આ રીતે અપાયે આહરણજ્ઞાતેના ચાર ભેદોનું સ્પષ્ટીકરણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. આહરણફાત (આહિરણ' ઉદાહરણ)નો જે બીજો ઉપાય નામને ભેદ છે તેકું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–પ્રાધ્ય પદાર્થને નિમિત્તે પુરુષ વ્યાપાર આદિ રૂપ સામગ્રી હોય છે, તેનું નામ જ ઉપાય છે. તેથી આ દ્રવ્યાદિ રૂપ ઉપેયમાં (પ્રાપ્તવ્ય પદાર્થમાં) એ ઉપાય છે એમ કહેવું તે નામ એહરણ ઉપાય છે. જેમકે-ઘટાદિ દ્રષ્યવિશેષ રૂપ સાધ્ધમાં વિરક્ષિત માટી આદિ દ્રવ્ય ઉપાય રૂપ હોય છે. અથવા-દ્રવ્યાદિકની જેમ ઉપાદેયતા” -પ્રતિપાદિત થાય છે તે હરણ ઉપાય છે, તે ઉપાય પર્ણ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવના ભેદથી ચાર પ્રકારને કહ્યું છે સુવર્ણાદિ દ્રવ્યનો અર્થવ પ્રાંક ઉદક (પાણી) આદિ દ્રવ્યને જે ઉપાય છે અથવા દ્રવ્યરૂપ જે ઉપાય છે તૈને દ્રવ્યે પાય કહે છે, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० स्थानागसूत्रे क्षेत्रोपायः यथा विद्यतेऽस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो लांगलादिः, यद्वा जांगलादिनैव प्रवर्तितव्यं तथाविधान्यक्षेत्रवदिति । अथवा-मिथ्यात्वसमाक्रान्तक्षेत्रस्य सदुपदेशाधुपायेन सम्यक्त्वीकरणम् २, कालज्ञानोपायः कालोपायः यथा अस्ति कालस्य ज्ञाने उपायो धान्यादेरिव, यद्वा जानीहि कालं छायादिनोपायेन तथाविधगणितज्ञवदिति । यद्वा प्रतिलेखनादिकालं ज्ञानं कालोपायः ३। एवं भावो. पायो यथा भावज्ञानेऽस्ति उपायः, भावं वा उपायतो जानीयात् यथा बृहत्कुग्रहण करना चाहिये ऐसा यह कथन आहरण उपायका प्रथम भेद द्रव्योपाय है । क्षेत्र परिकर्मसे जो उपाय है वह क्षेत्रोपायहै जैसे क्षेत्रको क्षेत्रीकरण करने में उपायरूप लागल (हल) आदि हैं अधवा-जिस प्रका. रसे अन्य क्षेत्रादिमें लागल आदिसे प्रवृत्ति की जाती है उसी प्रकार से इस क्षेत्रादिमें भी उसीसे प्रवृत्ति करनी चाहिये ऐसा कथन क्षेत्रोपाय है अथवा-मिथ्या समाकान्त क्षेत्रको सदुपदेशनादि उपायसे सम्यक्त्वयुक्त करना यह क्षेत्रोपाय है २ जिस प्रकार धान्यादिकके ज्ञानका उपाय है उसी प्रकारसे कालके ज्ञानका भी जो उपाय है वह कालोपाय है अथवा - जिस प्रकार तथाविध गणितज्ञ (गणितविद्या को जानने वाला ) छायादिरूप उपाय से कालको जान लेता है उसी प्रकारसे जो छायादि द्वारा कालको जानता है वह कालोपाय है अथवा-प्रतिलेखनादि कालका जो ज्ञान है वह कालोपाय है ३ भावज्ञानमें जो उपाय है वह भावोपाय है अथवा જેમકે સુવર્ણાદિકના વિષયમાં ઉપાય છે, ઉપાય દ્વરાજે સુવર્ણાદિકમાં પ્રયત્ન વિધેય છે. અથવા–પ્રાસુક ઉદકાદિ દ્રવ્ય એષણે પાય દ્વારા ગ્રહણ કરવું જોઈએ, એવું આ કથન આહરણ ઉપાયના પ્રથમ ભેદ ( દ્ર પાય) રૂપ છે. ક્ષેત્રપરિકર્મ રૂપ જે ઉપાય છે તેનું નામ ક્ષેત્રપાય છે. જેમકે-આ ક્ષેત્રને ખેડવાના ઉપાય રૂપ હળ આદિ છે. અથવા–જે પ્રકારે અન્ય ક્ષેત્રાદિમાં હળ વડે પ્રવૃત્તિ કરવામાં આવે છે એ જ પ્રમાણે આ ક્ષેત્રાદિમાં પણ તેના દ્વારા જ પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ, એવું કથન ક્ષેત્રપાય છે. અથવા મિથ્યાવયુક્ત ક્ષેત્રને સદુપદેશ આદિ ઉપાય દ્વારા સમ્યકત્વયુક્ત કરવું તેનું નામ ક્ષેત્રે પાય છે. જેમ ધાન્યાદિકના જ્ઞાનનો ઉપાય છે એ જ પ્રમાણે કાળના જ્ઞાનને પણ જે ઉપાય છે તેનું નામ કાલેપાય છે. અથવા-જે પ્રકારે તથાવિધ ગણિતજ્ઞ, છાયાદિ રૂપ વડે કાળને જાણી લે છે એજ પ્રમાણે જે છાયાદિ દ્વારા કાળને જાણે છે તે કાલેપાય રૂપ છે અથવા પ્રતિલેખના આદિ કાળનું જે જ્ઞાન છે તેનું નામ કાલેપાય છે. ભાવ-જ્ઞાનમાં જે ઉપાય છે તેનું નામ ભાવે પાય Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३ सु०३४ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् ૨૨૨ मारिकावार्ता कथनेन विज्ञातचोरभावाऽभयकुमारवदिति । अथवा भावेन कल्याणोपाय परिज्ञाय भगवता नेमिनाथेन गजसुकुमालमुनेः कायोत्सर्गार्थं श्मशानगमननिदेशः कृत इति । २ । तृतीयभेदमाह - 'ठवणाकम्म ' त्ति स्थापनं स्थापना, तस्याः कर्म = संपादनमिति स्थापना कर्म, अर्थात् यद् ज्ञात्वा परमत प्रदृष्य स्वमतस्य स्थिरीकरणं स्थापना कर्म | एतच्च सूत्रकृताङ्गसूत्रे द्वितीयश्रुतस्कन्धे पुण्डरीकाख्यं प्रथममध्ययनम् । तत्र- काचित्पुष्करिणी स्वल्पजला पङ्कबहुला तन्मध्ये चैकं महत्पुण्डरीकमासीत् तदुद्धरणार्थं चतसृभ्यो दिग्भ्यः समागताश्चत्वारः पुरुषाः पूर्वादिक्रमेण कर्दममाउपाय से जो भावका जानना होता है वह भावोपाय है, जैसे बृहकुमारिकाको बात कहने से अभयकुमारने चोरका भाव जान लिया था अथवा भाव से कल्याणके उपायको जानकर भगवान् नेमिनाथने गजसुकुमार मुनिको कायोत्सर्ग करनेके लिये इमशान भूमिमें जाने की आज्ञा दीथी २ स्थापना कर्म - स्थापनाका जो कर्म-संपादन है वह स्थापना कर्म है अर्थात् परमतको जानकर जो फिर उसमें दूषण बतला कर अपने मतकी स्थापना की जाती है वह स्थापना कर्म है, यह स्थापनाकर्म सूत्रकृतागसूत्र में द्वितीय श्रुतस्कन्धमें पुण्डरीक नामक प्रथम अध्ययन रूप है वहां ऐसा प्रकट किया गया है-एक पुष्करिणीके बीच में जो कि स्वल्पजलवाली और पबहुल (बहुत कीचडवाली ) थी एक बडा पुण्डरीक છે. અથવા ઉપાય દ્વારા જે ભાવને જાણવાનુ` થાય છે તેનુ નામ ભાવેાપાય છે. જેમકે બૃહત્કુમારીને વાત કરવાથી અભયકુમારે ચારના ભાવ જાણી લીધા હતા અથવા ભાવ વડે કલ્યાણના ઉપાય જાણી લઈને નેમિનાથ ભગવાને ગજસુકુમાર મુનિને કાચાત્સગ કરવા માટે શ્મશાન ભૂમિમાં જવાની અનુમતિ આપી હતી. આ રીતે આહરજીન્નતના ઉપાય નામના ખીજા ભેદનુ વન અહી ५३ थाय छे. હવે આહરણના ત્રીજા ભેદનું-સ્થાપનાકનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે छे—स्थापनानुं ने भ-संपाहन छे तेनु' नाम स्थापना उभ छे. गोटो ठे પરમતને જાણી લઈને અને તેમાં દૂષણે ખતાવીને પેાતાના મતની સ્થાપના કરવી તેનુ નામ સ્થાપનાકમ છે તે સ્થાપનાકમ સૂત્રકૃતાંગ સૂત્રના દ્વિતીય શ્રુતર્કન્ધમાં પુંડરીક નામના પ્રથમ અધ્યયન રૂપ છે, ત્યાં એવું પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે-થાડા પાણી – અને ઘણા જ કાદવથી ભરપૂર એક પુષ્કરણી (જળાશય વિશેષ)ની વચ્ચે Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ । स्थानासूत्र प्रेम प्रवेष्टुमारब्धाः ने च कृततदुद्धरणा एवं पङ्के निमग्नाः। अन्यस्तु तटस्थ एवासंस्पृष्टकई मोऽमोघपचनस्तदुधृतवानिति स्थापनाकर्मणि ज्ञातम् । अत्रोपनयश्चेन्थम्-कर्दमस्थानापना विपयाः, पुण्डरीकं राजादिभव्यपुरुपः, परतीथि काश्चत्वारः पुरूषाः तटस्थ एकः पञ्चमः पुरुषः साधुः अमोघवचनं धर्मदेशना पुष्करिणी संसारः, तदुद्धारो निर्वाणमिति । इत्थे परदूपणेन स्वमत स्थापितमितोद ज्ञातं स्थापनाकर्मेति । लगा हुआ था उसे लेनेके लिये चार दिशाओंसे चार पुरुष आये ये जिस २ दिशासे आये थे उसी २ दिशावाले कदम मार्ग (कीचडयाले भान)से होकर उस पुष्करिणी में प्रवेश किया और प्रवेश करके उन्होंने उस कमलको उखाड लिया परन्तु वे कीचड़ में फंस गये वहीं पर कोई एक मनुष्य और तट पर खड़ा हुआ था, वह अमोघ वचनवाला था अतः उसने उन्हें उस कर्दम ने बाहर निकाल लिया इस प्रकारका यह स्थापनाविषय है, पुष्करिणीके स्थानापन्न संसार है, कमलके स्थानापन्न. कर्ममें ज्ञात है यहां इसका उपनय इस प्रकारसे है-कर्दमके स्थापनापन्न राजादिरूप भव्य पुरुष है चार पुरुषों के स्थानापन्न परतीर्थिक हैं एक पुरुष जो तट पर खड़ा हुआ है उसके स्थानापन्न श्री साधु पुरुष है अमोधवचनके स्थानापन्न धर्मदेशना है और उद्धार के स्थानापन्न निर्वाण है इस प्रकार परके दुषणसे स्वमतकी स्थापना इस दृष्टान्त हाराकी. गई है इसलिये यह स्वमतस्थापना कर्म है। એક મોટું પુંડરીક (કમલ વિશેષ) ઉગેલું હતું તેને લેવાને માટે ચાર દિશામાંથી ચાર માણસ આવ્યા. જે જે દિશાઓમાંથી તેઓ આવ્યા હતા તે તે દિશાઓવાળા કર્દમ (કાદવવાળ) માર્ગે થઈને તેઓ તે પુષ્કરિણુંમાં આગળ વધ્યા. અને ગમે તે પ્રકારે તે પુંડરીક પાસે પહોંચીને તેમણે તેને તેડી લીધું. પણ કાદવમાં ફસાઈ જવાને કારણે તેઓ તે પુષ્કરિણીમાંથી બહાર નીકળી શક્યા નહીં. તે પુષ્કરિણીને કિનારે કેઇ એક માણસ ઊભો હતો તે અમેઘવચનવાળો હતા. તેથી તેણે તેમને કોઈ પણ પ્રકારે તે કઈમ (કાદવ)માંથી महार यस. मा ४२नु स्थापना भनु या ज्ञात (8615२९) छ. मी તેને ઉપનય (આપણ) પ્રમાણે કરી શકાય છે-કર્દમના સમાન' વિષય છે; પુષ્કરિણું સમાન સંસાર છે, કમલ (પુંડરીક સમાન રાજાદિ રૂપ મધ્ય પુરુષ છે, ચાર પુરુષે સમાન પરતીથિકે છે, કિનારે ઊભેલાં પુરુષના સમાન સાધુપુરુષ છે; અમેઘવચન સમાન ધર્મદેશના છે અને ઉદ્ધારનાં સમાન નિર્વાણ છે. આ પ્રકારે પરના દૂષણને પ્રકટ કરીને સર્વમતની સ્થાપના આ દષ્ટાન્ત દ્વારા કરવામાં આવી છે. તેથી તે દૃષ્ટાંત સ્થાપનાકર્મ રૂપ છે. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका उ०३ सू० ४१ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् २२३ , 1 , तथाहि — अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, अत्र कृतकत्वेन शब्देऽनित्यत्वं साधयति तत्र कथिते भो ! वर्णात्मके शब्दे कृतकत्वं नास्ति तेषां नित्यतायाः प्रतिपादनात् इत्येवं सकलपक्षे हेतुर्न यातीति विभाव्य स्थापना हेतुवादी वदति वर्णात्मकः शब्दः कृतकः कारणभेदेन भिद्यमानत्वात् घटपटादिवत् यथा स्व स्व कारणभेदाद् घटादयो भिद्यन्ते तथा शुकसारिकादिकारणभेदाद् वर्णात्मकः शब्दोपि भियत एवेति घटादिदृष्टान्तेन वर्णानां कृतकत्वं स्थापितमिति भवत्यत्र स्थापना कर्मेति ॥ अथवा - जैसे - " अनित्य शब्दः कृतकत्वात् " इस प्रकार के अनुमान प्रयोग से कोई वादी शब्द में कृतकत्व हेतुसे अनित्यकी सिद्धि करता है तब कोई उससे ऐसा कहता है कि वर्णात्मक शब्द में " कृतhea " नहीं है क्योंकि-मीमांसककी अपेक्षा उनमें नित्यताका प्रतिपादन किया गया है इस तरह कृतकत्व यह हेतु अपने वर्णरूप सम्पूर्ण पक्ष में नहीं जाता है इस प्रकार सुनकर जो स्थापन हेतुवादी है वह कहता है जो वर्णात्मक शब्द है यह कृतकही होता है क्योंकि कारणभेद से वह घटपटादिकी तरह भेदवाला होता है जैसे अपने २ कारणके भेद घटपटादिकों में भेद होता है, उसी तरह शुकसारिका आदिरूप कारण के भेद से वर्णात्मक शब्द भी भेदवाला होता है इस प्रकार घटादि दृष्टान्तसे वर्णों में कृतकताकी स्थापनाकी जानी है इसलिये यह दृष्टान्त स्थापनाकर्म है। अथवा—“ अनित्यशब्दः कृतकत्वात् " मा प्राश्ना અનુમાન પ્રયાગ દ્વારા જ્યારે કોઇ વાદી શબ્દમાં કૃતકત્વ હેતુદ્વારા અનિત્યતાની સિદ્ધિ કરે છે, ત્યારે કોઇ તેને એવુ' કહે છે કે વર્ણાત્મક શબ્દમાં “કૃતકત્વ ” હાતું નથી, કારણ કે સીમાંસકની અપેક્ષાએ તેમનામાં નિત્યતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે. આ રીતે કૃતકવહેતુ પાતાના વઘુ રૂપ સંપૂણું પક્ષમાં જતા નથી. આ પ્રકારની દલીલ સાંભળીને જે સ્થાપના હેતુવાદી છે તે કહે છે કે જે વર્ણાત્મક શબ્દ છે તે કૃતક જ હાય છે, કારણ કે કારણભેદથી તે ઘટપટાદની જેમ ભેદવાળા થાય છે જેમ પાત્ પેાતાના કારણના ભેદથી ઘટપટાદમાં ભેદ હોય છે, એજ પ્રમાણે શુક સારિકા (પાપટ, મેના) આદિ રૂપ કારણના ભેદથી વર્ણાત્મક શબ્દ પણ ભેદવાળા હાય છે. આ પ્રમાણે ઘટાના દૃષ્ટાન્ત દ્વારા વર્ણમાં, કૃતકતાની સ્થાપના કરવામાં આવે છે. તેથી તેનું નામ ‘દૃષ્ટાન્તસ્થાપના ક” છે. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ स्थाना वनविणामि' ति-प्रत्युपानविनागीति प्रत्युत्पन्नस्य-तत्काले एव सम्मानप्यानो विनाशो चत्र भवति वाच्यतया स प्रत्युत्पन्नविनाशी यधाचिट गवस्तुविशेष शिप्यस्याक्तिमुपलभ्य दुष्करतपश्चरणविहारादी नियोकर शिपम्यागनिकारण विनागनीयमित्येवं प्रत्युपनविनागनीयता साध. पचारमा प्रत्युत्पत्रविनाशिनातता भवति । अथवा आत्मा अर्ता अमूतन्यादिपमानना ननोऽकन ये माधित अनुवापत्तिलक्षणदोपस्य विनाशायोच्यते वामा कर भवनि कथंचिन्मुन्यात् , देवदत्तवदित्यनुमानेन तत्कालोत्पन्नेना. मनोडर धमपि नीयते इति भवति प्रत्युत्पन्नविनाशिताया ज्ञातमिति समाप्त मदमारणाभिय ज्ञानम् ॥ १ ॥ 'पयनविणामिति" प्रत्युपन्नका (तत्काल में ही जायमान वस्तुका बिना ri पर वापरूप होता है वह प्रत्युपन्न विनाशी है जैम पाई गुन यातु विशेपमें शिप्यको अशक्तिको जानकर उसे दुष्कर तप अरण विहार आदि में नियुक्त करता है इस विचारसे कि " शिष्यकी अगनि.का कारण विनष्ट करना चाहिये " इस तरह प्रत्युपन्नकी बिनाशनीयताका माधक होनेसे हममें प्रत्युत्पन्नविनाशिज्ञातता जोतीअश्या-" आत्मा अमृत होनेसे अकर्ता है। इस अनुमानमाग आत्मामें अमर्तृत्व साध्य करके इस अकर्तुत्यापत्तिरूप दोपका विनाश करने के लिये जय ऐमा कहा जाता है कि आमा कथित मन होने से देवदत्तकी तरह कर्त्ताभी है, इस प्रकार मनमानापन्न अनुमानसे जो आत्माका अमृतत्व हटा दिया जाता पा प्रत्युत्पन्न विनाशिताका ज्ञात है। हम प्रहारसे यहां तक आहरणके विगामिनि 'न्युननी-तसे नयभान परतुना विनाश જપ ૧૫ . છે ને દુષ્ટાતને પ્રત્યુત્પનવિનાશી ” કહે છે જેમકે કે પિમાં શિઘની અશક્તિને જીને તેને દુષ્કર તપશ્ચર, Me.. ३. मास ४२५॥ ५४ तमना गोवा या डाय in la nir मा३ विनय ४२ नसणे" मारे - વિનાશ કરવામાં સઘક લેવાથી તેમાં પ્રત્યુત્પન વિનાશી 1-" भा 141 मत," 21 अनुमान द्वारा ...... न मातृत्वापत्ति ३५ ॥ विना ४२. " .. ५. .. आई " चित्त (यसरी प्रा. ___ ५... ..... 42 ID अमृत ४२ 11.. ..: ers . . मी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टी. स्था. ४ उ ३ सू. ४१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम् २२५ संप्रति आहरणतद्देशो व्याख्यायते - 'आहरणतदे से' इत्यादि । आहरण- तदेशचतुर्विधः अनुशास्त्युपालं मपृच्छा निश्रावचनभेदात् । तत्रानुशास्तिः अनुशासनमनुशास्तिः सद्गुणकीर्त्तनेनोपवहणम् सद्गुणसंकीर्त्तनमेव यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा अनुशास्ति, यथाये गुणवन्तस्तेऽनुशासनीया भवति, यथा-चम्पानगर्या कदाचि ज्जिनकल्पिको मुनिभिक्षार्थ सुभद्रागृहे समागतः तन्नेत्रे रजःकणं पतितं दृष्ट्वा सुभद्रा स्वजिहया तन्निःसारितवती । तत्समये तल्ललाटगतकुङ्कुम विन्दुर्मु नि ललाटे संलग्नः । तद् दृष्ट्वा लोके तद्विषये शीलभङ्गशङ्का समुत्पन्ना । तामपनेतुं सा लोकसमक्षं चालत आमसूत्रेण कूपाज्जलं निस्सार्य तज्जलाच्छोटनेन शासचार भेदों का कथन समाप्त कर अब आहरणतदेश का कथन किया जाता है- यह आहरणतद्देश भी चार प्रकारका कहा गया है अनुशास्ति १ उपालम्भ २ पृच्छा ३ और निश्रावचन ४ जहां सद्गुण संकीर्तनही विधेयता रूपसे उपदिष्ट होता है वह अनुशास्ति है जैसे-जो गुणवान् होते हैं वे अनुशासनीय होते हैं- इस पर दृष्टान्त इस प्रकार से है चंपानगरी में किसी समय जिनकल्पिक मुनि गोचरीके लिये सुभ द्राके घर पर आये उनकी आंख में रजःकण (धूलिकण ) गिर गया था सुभद्राने रजःकणको उनकी अखिमेंसे अपनी जीभ द्वारा निकाल दिया निकालते समय उसके ललाटकी कुङ्कुमविन्दु मुनिके ललाटमें लग गई इस बात को देखकर लोकमें उनके शीलभङ्गकी चर्चा प्रारम्भ हो गई इस चर्चाको - शीलभङ्गको शंकाको दूर करने के लिये सुभद्राने लोकोंके समक्ष સુધીમાં આહરણ દૃષ્ટાન્તના ચાર ભેદનું વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે. આહરણતદેશના દેષ્ટાન્તનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે. આહરણતદેશના नीथे प्रभाऐ यार प्रहार ह्या छे – (१) अनुशास्ति, (२) उपासन, (3) પૃચ્છા અને (૪) નિશ્રાવચન જ્યાં સસ‘કીતન જ વિષયતા રૂપે ઉપષ્ટિ થાય છે તેનું નામ અનુશાસ્તિ છે જેમકે-જે ગુણવાન હાય છે તે અનુશાસનીય હાય છે. આષયને અનુલક્ષીને નીચે પ્રમાણે દૃષ્ટાન્ત છે— ચપા નગરીમાં કેાઈ એક સમયે એક જિનકલ્પિત મુનિ ગેચરી કરવા નિમિત્તે ફરતા કરતા સુભદ્રા શેઠાણીને ત્યાં પધાર્યા. તેમની આંખમાં રજ (કન્નુ) પડવાને કારણે તેમાંથી આસુ નીકળી રહ્યા હતાં. સુભદ્રાએ પાતાની જીભના ટેરવા વડે તેમની આખમાંથી તે રજને કાઢી નાખી, પણ રજ કાઢતી વખતે તેના લલાટને કકુને ચાંલ્લા મુનિના કપાળમાં લાગી ગયા. મુનિના કપાળમાં તે નિશાન જોઈને લેાકેામા તેમના શીલભ ́ગની ચર્ચા ચાલવા માંડી આ શીલભગની વાત ખેાટી છે એ સામીત કરવાને માટે સુભદ્રાએ કાચા સૂતર स- २९ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाक्षसूत्रे नदेवतामुद्रितं चम्पानार्या गोपुरत्रयं समुद्घाटितवती तेन ' अहो ! सुभद्रा महा. शीलवती'-ति नगरजनेनानुशासितेति १। प्रकृते रजाकणापनयनरूपवैयावृत्त्यकरणादप्युपनयः संभवति तत्यागेन च नगरजनानुशास्तिमात्रेणात्रोपनयः कृत इत्याहरणतद्देशतेति । एवमनभिमतांशत्यागादधिमतांशग्रहणादुपनयनम् । एवमुत्तरेष्वपि विज्ञेयमिति । अथ द्वितीय भेदमाह-'उवालंभे' इति । उपालंभनम् उपालंभः प्रकारान्तरेणानुशासनमेव । तद् यत्राभिधीयते स उपालंभः यथाआसीत्काचिन्मृगावती नाम्नी साध्वी, सा भगवतो महावीरस्य समवसरणसमये कच्चे मृतको चालनीमें बांधकर उससे कुएँ में से पानी खींचा और उस पानीको चंपानगरीके तीन दरवाजों पर छिड़का, क्योंकि शासनदेवताने उन दरबाजोंको पहिलेसेही कील दिया था (धन्द कर दिया था) अतः वे दरबाजे खुल गये तय सुभद्रा महाशीलवती है इस प्रकारसे लोकने फिर अनुशासित किया ? __ प्रकृतमें रजाकणको निकालने रूप वैधावृत्य करनेसे भी उपनय संभावित होता है क्योंकि उस रजाकणके निकालनेसे जो नगरजनोंने उसकी अनुशास्तिकी है, इतने मात्रसे यहां उपनय किया गया है, यह इस प्रकार अनभिमत अंशके त्यागसे और अभिमत अंशके ग्रहणसे उपनय होताहै। इसी प्रकारसे आगेभी जानना चाहिये " उवलंभे" उल्हाना प्रकारान्तरसे अनुशासनही उपालम्भहै यह अनुशासन जहां 'कहा जाताहै वह उपालम्भई जैसे कोई एक सृगावती साध्वीधी,वह भगवान् વડે ચાલીને બાંધીને લોકની સમક્ષ તે ચાલણી વડે કવામાંથી પાણી ખેંચ્યું. તે “નગરના ત્રણ દરવાજાઓ શાસન દેવતાએ બંધ કરી દીધા હતા. સુભદ્રાએ ચાલણ વડે કૂવામાંથી ખેંચેલા પાણીને તે ત્રણ દરવાજા પર છાંટયું અને પાણી છાંટતાની સાથે જ તે દરવાજા ઉઘડી ગયા. ત્યારે કે એ ફરીથી એવું 'અનુશાસિત કર્યું કે સુભદ્રા મહા શીલવતી છે આ દૃષ્ટાતમાં રજને કાઢવા રૂપ વૈયાવૃત્ય કરવા રૂપ ઉપનય પણ સંભવિત થાય છે, કારણ કે તે રજને કાઢવાથી જે નગરજને એ તેની અનુશાસ્તિ કરી છે એટલા માત્રથી જ અહી ઉપનય કરવામાં આવ્યો છે. આ રીતે અનભિમત અંશના ત્યાગથી અને અભિમત અંશના ગ્રહણથી તેમાં ઉપાય થાય છે એ જ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું. "उवालभे" प्रारान्तरनी अपेक्षा अनुशासन पास ३५ छे. આ અનુશાસન જ્યાં કહેવાય છે તેને ઉપાલંભ કહે છે. તેનું નીચે પ્રમાણે Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था० ४ उ०३ सू० ४१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम् समागता सविमानचन्द्रादित्यप्रकाशेन कालविभागमज्ञात्वा समवसरणे एव स्थिता, ततस्तद्गमने ' अतिकालोऽय'-मिति संभ्रान्तचित्ता साध्वीभिः सहार्यचन्दना समीपे समागता। तया-' अयुक्तमिदं भवाशीनामुत्तमकुलसमुत्पनानामित्युपालव्धेति । अत्र कालातिक्रमरूपैकदेशग्रहणाद् आहरणतद्देशतेतिः । ___ अथ तृतीयभेदमाह- पुच्छा इति । पृच्छा प्रश्नः किं कथं केन कृतमित्यादि, सा. यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा पृच्छा यथा कोणिका श्रेणिकराजपुत्रो भगवन्तं महावीरं पमच्छ-भदन्त ! अप; रित्यक्तकामाश्चक्रवर्तिनो मृताः क्व यान्ति, भगवता कथितम् सप्तम्यां-पृथिव्याम् । महावीरके समवसरणके समयमें आई वहाँ सविमानचन्द्र और सूर्य आदि: के प्रकाशसे कालका ज्ञान नहीं रहा, सो वह समवसरण ही, बैठी रही इसके बाद जब वह वहांसे चली तो वह " अतिकालोऽयम् " ऐसा समझकर संभ्रान्तचित्तवाली बन गई, सब साध्वियों के साथ वह आर्य चन्दनाके पास आई, उसने उसे ऐसा उपालम्भ दिया कि आप जैसी उत्तम कुलोद्भूत साध्वीओंको यह अयुक्त है यहां कालातिक्रम रूप एकदेशताके ग्रहणसे आहरणतद्देशता है " पृच्छा "-क्या किया कैसा कियो किसने किया इत्यादि प्रश्न का नाम पृच्छाहै यह पृच्छा जहां विधेयरूपसे उपदिष्ट होतीहै वह पृच्छाहै जैसे-श्रेणि राजपुत्र कोणिकने भगवान महावीरसे पूछा-हे मदन्त ! चक्रवर्ती काम भोगोंका परित्याग દૃષ્ટાન્ત છે– મૃગાવતી નામની કઈ એક સાવી હતી. તે કે એક વખતે મહાવીર પ્રભુના સમવસરણમાં ગઈ હતી ત્યાં સવિમા 1 ચન્દ્ર અને સૂર્યના પ્રકાશને લીધે તેને કાળનું ભાન ન રહ્યું. તેથી તે સમવસરણમાં ઘણી વાર सुधी भी रही त्या२ मा न्यारे ते त्यांथी यादी नाणी त्यारे “ अतिकालोऽयम्" "घ ५ ण व्यतीत थऽ गया-भूम माय गथु" સમજીને સંભ્રાન્ત ચિત્તવાળી બની ગયેલી તે સૌ સાઠવીઓની સાથે આ ચન્દનાની પાસે આવી ત્યારે તેમણે (આર્યા ચન્દનાએ) તેને એ ઠપકે આપે કે “આપના જેવી ઉત્તમ કુલેમ્પ સાધ્વીઓને માટે ઘણું જ અયક્ત ગણાય.” આ દૃષ્ટાન્તમાં કાલાતિમ રૂપ એકતાના ગ્રહણની અપેક્ષાએ આહરણતદેશતા છે " छ।"-शु यु. १ ॐवी रीत इयु १ अणे यु ? त्यादि प्रशन: નામ પૃચ્છા છે. આ પૃચ્છા જેમાં વિધેય રૂપે ઉપદિષ્ટ હોય છે તેને પૃચ્છા કહે છે. જેમકે-શ્રેણિક રાજાના પુત્ર કેણિકે મહાવીર પ્રભુને એ પ્રશ્ન પછી કે “હે ભગવન! ચક્રવર્તી જે કામો પરિત્યાગ કર્યા વિના મરણ પામે Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ स्थानाङ्गसूत्रे कोणिकः पृष्टवान्-अहं क्व यास्यामि ? भगवानाह-पष्टयाम् । कोणिकः प्राहअहं कथं न सप्तभ्यां यास्यामि ? । भगवता कथितम्-चक्रवर्तिनस्तत्र गच्छंति । ततः कोणिकः पप्रच्छ-किमहं न चक्रवर्ती ? ममापि गनाश्वादिकं चक्रवर्ति साधनं विद्यते । भगवतोक्तम्- तव रत्ननिधयो न सन्ति । ततोऽसौ कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वा भरतक्षेत्रसाधनाय प्रवृत्तः कृतमालिकयक्षेण व्यापादितः पष्ठी गत इति । अत्र पष्ठीपृथिवीगमनरूपानभिमतांशत्यागात् सप्तमीपृथिवीगमनरूप स्वाभिमतांशग्रहणाद्, आहरणतद्देशतेति ३। किये विना यदि मर जाते हैं तो वे कहां जाते हैं ? तब भगवान्ने कहा वे सातवीं पृथिवीमें जाते हैं। पुनः कोणिकने पूछा मैं मरकर कहाँ जाऊंगा? तब भगवान्ने कहा-तुम मरकर छठी पृथिवी में जाओगे, पुनः कोणिकने प्रश्न किया-में सातवीं पृथिवीमें क्यों नहीं जाऊंगा? प्रभुने कहाचक्रवर्तीही वहां जाते हैं । कोणिकने कहा तो क्या मैं चक्रवर्ती नहीं है ? मेरे पास भी तो चक्रवर्तीके साधनभूत गज अश्वादिक रत्न हैं । भगवान्ने कहा तुम्हारे पास रत्न और निधियां नहीं हैं। तप इसने कृत्रिम रत्नोंको करके भरतक्षेत्रको साधनके लिये प्रवृत्ति की (और तमसगुफा पर पहुंचा, ) उसी समय कृतमालिक देवने इसे मार डाला सो यह छठी पृथिवीमें गया यहां छठी पृथिवीमें गमनरूप अनभिमत अंशके त्यागसे और सातवीं पृथिवीमें गमनरूप स्वाभिमत अंशके ग्रहणसे आहरणतद्देशता है । “निश्रावचन " किसी તે કઈ ગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે” ત્યારે ભગવાને જવાબ આપ્યો- સાતમી નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ” કુણિકે બીજે પ્રશ્ન પૂછ્યો “હે વાગવન્! હું મરીને ક્યાં જઈશ?” ત્યારે ભગવાને જવાબ આપે- તમે મરીને છઠ્ઠી નરકમાં જશે.” ત્યારે કુણિકે પૂછયું-“હે ભગવન્! હું સાતમી નરકમાં શા કારણે નહીં જઉં ?” પ્રભુએ જવાબ આપ્યો-“ચકવતી જ મરીને સાતમી નરકમાં જાય છે.” ત્યારે કુણિકે પૂછયું “શું હું ચક્રવર્તી નથી ? મારી પાસે પણ ચક્રવર્તીના સાધનરૂપ ગજ, અશ્વાદિક છે.” ત્યારે ભગવાને તેને એ જવાબ આપ્યો કે “તમારી પાસે રન અને નિધિઓ નથી ” ત્યારે તેણે કૃત્રિમ રત્નને એકત્ર કરીને ભરતક્ષેત્રને જીતવાની પ્રવૃત્તિ શરુ કરી. ત્યારે કૃતમાલિક નામના દેવે તેને મારી નાખ્યો. તે મરીને છઠ્ઠી નરકમાં ઉત્પન થયો. આ દન્તમાં છઠ્ઠી નરકમાં ગમનરૂપ અનભિમત અંશના ત્યાગની અપેક્ષાએ અને સાતમી નરકમાં ગમનરૂપ સ્વાભિમત અંશના ગ્રહણની અપેક્ષાએ આહરણતદ્દેશતા સમજવી જોઈએ. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०३ सू०४१ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् २२६ चतुर्थभेदमाह-'निस्सावयणे ' इत्यादि । निश्रया वचनं निश्रावचनम् । अयमाशयः कमपि विनीतविनेयमालंव्य यदन्य मवोधाय वचनं तद्यत्र विधेयतयोच्यते तदाहरणं निश्रावचनम् । यथा मार्दवादि गुणसंपन्नविनेयनिश्रया असहमानानन्यान् विनेयान् प्रति कथनम् । यथा गौतममभिलक्ष्य भगवतो महावीरस्य कथनमिवेति । यथा सद्यः प्रबजितस्य गागलिमुनेः केवलज्ञानोत्पत्तावनुत्पन्नकेवलज्ञानत्वेन परित्यक्तधृति गौतमं प्रति भगवान् कथितवान्-चिरसंश्लिष्टोऽसि गौतम | चिरपरिचितोऽसि गौतम ! मात्वमधृति कार्षीः' इत्यादि वचनप्रकारेण गौतममनुशासयता भगवताऽन्येऽप्यनुशासिता इति । अत्राधृतिरूपानभिमतांशत्यागाद् धृतिरूपार्मिमतांशग्रहणादाहरण तद्देशतेति इत्याहरणतद्देशोदाहरणम् ।। २ ।। "विनीत शिष्यको लेकर अन्यके प्रबोधनके लिये वचन जहां विधेयरूपसे कहा जाताहै वह आहरण निश्रावचन है जैसे-मार्दवादि(कोमलता) गुणसंपन्न विनेय शिष्यकी निश्रासे असहमान अन्य शिष्योंके प्रति गौतमको लक्ष्यकर जैसा भगवान महावीरने कहा था, उस तरहसे कहना जैसे जब तुरतके दीक्षित गागलिमुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया तब केवलज्ञान नहीं होनेसे परित्यक्त तिवाले गौतमले भगवान ने कहा-बहुत दिनों संश्लिष्ट हो गौतम ! चिरपरिचित हो गौतम! तुम अधृतिको प्राप्त मत होओ इत्यादि वचन प्रकारसे गौतमको अनुशासित करनेवाले भगवान्ने अन्योंको भी अनुशासित किया यहां अधृतिरूप अनभिमत ___"निश्रावचन" विनात शिष्यनो मतो साधीन अन्यने प्रमाधित કરવા નિમિત્તે વિધેય રૂપ જે વચને કહેવામાં આવે છે તેનું નામ આહરણનિશ્રાવચન છે. જેમકે-માર્દવાદિ ગુણસંપન્ન વિનીત શિષ્યની નિશ્રાને સહન ન કરનારા અન્ય શિષ્યને ગૌતમ સ્વામીને લય કરીને જે વચને મહાવીર પ્રભુએ કહ્યા હતાં તે વચનને નિશ્રાવચન કહે છે. તે પ્રસંગ હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે–તુરતના દીક્ષિત ગાગલિ મુનિને જયારે કેવળજ્ઞાન થયું ત્યારે પરિત્યક્ત યુતિવાળા ગૌતમસ્વામીને મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રમાણે કહ્યું હતું–ઘણા જ દિનેથી સંશ્લિષ્ટ છે ગૌતમ ! ચિરપરિચિત છે ગૌતમ! તું અતિસંપન્ન ન થઈશ પરિત્યક્ત ધુતિવાળા થવું તારે માટે ઉચિત નથી” ઈત્યાદિ વચને દ્વારા ગૌતમને અનુશાસિત કરનાર મહાવીર પ્રભુએ અન્ય મુનિજનેને પણ અનુશાસિત કર્યા હતા અહીં અનભિમત રૂપ અતિ રૂપ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० स्थानास्त्रे ___अथ तृतीयमाहरणतदोपज्ञातमाह-' आहरणतदोसे' इत्यादि । आदरणतद्दोपः, स च चतुर्दा-अधर्मयुक्त-प्रतिलोमात्मोपनीत-दुरुपनीतभेदात्। तत्र प्रथमभेदमाह-' अधम्मजुत्ते' इत्यादि । यदुदाहरणं पापाभिधानस्वरूपं कस्यचिदर्थस्य साधनायोपादीयते येन च प्रतिपादितेन श्रोतरधर्मबुद्धिजन्यते तदधर्मयुक्तमुदाहरणम् , यथा कथाप्रसंगे केनचिदुक्तं सप्तरात्रोपितं कांस्यपात्रस्थित धृतं विपायते तच्छूखा कश्चित्तथाविधं धृतं प्रवेपिणे भ्रात्रे दत्वा मारित इति आहरणदोपता चास्याधर्मयुक्तत्त्वात्-तथाविध श्रोतुरधर्मज्ञानोत्पादकत्वाच्चेति । अंशके त्यागसे एवं धृतिरूप अभिमत अंशके ग्रहणसे आहरणतद्देशता है इस प्रकारसे आहरणनद्देशका यह सभेद कथन है आहरणतदोषका कथन इस प्रकारसे है-अधर्मयुक्त १ प्रतिलोम २ आत्मोपनीत ३और दुरुपनीत-४ ये इसके चार भेद हैं-जो उदाहरण पाप कथन स्वरूप हो और किसी अर्थकी सिद्धि के लिये दिया गया है कि जिनके प्रतियादित होने पर श्रोताको अधर्मबुद्धि हो जाय, ऐसा वह उदाहरण अधर्मयुक्त उदाहरण है जैसे कथा प्रसङ्गमें किसीने ऐसा कहा कि साल रात तक कांसेकी थाली में रखा गया वृत विषके तुल्य हो जाता है इस बातको सुनकर किसीने ऐसाही किया और उस घृतको अपने द्वेषी भाई के लिये दे दिया तब वह उसके खानेसे मर गया इस उदाहरणमें आहरणदोषता अधर्मयुक्त होनेसे है। અનભિમત અંશના ત્યાગ અને તિરૂપ અભિમત અંશના ગ્રહણની અપેક્ષાએ આહરણતશતા છે, આ પ્રકારે આહરણતશતાના ચારે ભેદનું કથન અહીં સમાપ્ત થાય છે આહરણતોષનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–તેને નીચે પ્રમાણે या लेह छ-(१) मधमयुस्त, (२) प्रतिसाभ, (3) मामानात, मन (४) रुपनात જે ઉદાહરણ પાપકથન સ્વરૂપ હોય, અને કોઈ એવા અર્થનું પ્રતિપાદન કરવા નિમિત્તે આપવામાં આવ્યું હોય કે જેનું પ્રતિપાદન થઈ જવાથી શ્રોતાની બુદ્ધિ અધર્મયુક્ત થઈ જાય, એવા ઉદાહરણને અધર્મયુક્ત ઉદાહરણ કહે છે જેમકે કોઈ એક કથાકારે એવું કહ્યું કે સાત દિનરાત સુધી કાંસાની થાળીમાં મૂકી રાખેલું ઘી વિષસમાન થઈ જાય છે આ વાત સાંભળીને કે ઈ માણસે એ પ્રમાણે જ કર્યું –ધીને કાંસાની થાળીમાં સાત દિનરાત રાખી મૂકયું. ત્યાર બાદ તેણે તે ઘી પિતાને દ્વેષ કરનાર ભાઈને મારી નાખવા માટે વાપર્યું. તે ઘી ખાવાથી તેને ભાઈ મરી ગયે આ ઉદાહરણમાં અધર્મયુક્તતાને કારણે તથા શ્રોતામાં અધર્મજ્ઞાન ઉત્પન્ન કરનાર હોવાને કારણે અહરણદેષતા છે. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था० उ०३:४१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम् २३१ द्वितीयभेदमाह-' पडिलोमे' इति । प्रतिलोमः-पातिकूल्यं, स यत्रोपदिश्यते तत्यतिलोमोदाहरणम्, यथा “ जति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः" इत्यादि । यथा चण्डप्रधोतं प्रति तदपहताभयकुमा रेण यथा कृतं तद्वत् तद्दोषताचास्य श्रोतुः परापकरणनिपुणबुद्धिजनकत्वादिति । -अथवा-'जीवोऽजीवश्चेति द्वावेव राशी' इत्युक्तेऽन्यः कोऽपि तन्निग्रहार्थमाहसृतीयोऽपि नोजीवाख्यो राशिरस्ति गृहगोधिकादिच्छिन्नपुच्छवदिति । अस्या हरणतदोषता चोत्सूत्रप्ररूपणादिति । अथ तृतीयभेदमाह- अत्तोवणीए' इति । आत्मोपनीतम् आत्मा उपनीतो वियोजितो यस्मिस्तत्तथा अर्थात् येन "प्रतिलोम" प्रतिकूलता जहां उपदिष्ट होतीहै वह प्रतिलोमोदाहरणहै जैसे- "ब्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः " इत्यादिमें कहा गयाहै।अथवा-चण्डप्रद्योतके प्रति उसके द्वारा अपहत हुए अभयकुमारने जैसा किया है वैसा करना यह सब भतिलोमोदाहरण है इसमें आहरणतदोषता ओताको परापकरण (दूसरेको नुकसान करने) में निपुण ऐसी बुद्धि की जनकतासे आती है अथवा-"जीव और अजीव ऐसी ये दो राशी हैं " ऐसा कहने पर इसके निग्रह निमित्त 'अन्य कोई भी यदि ऐसा कहता है कि नहीं गृहगोधिकादि छिन्न पुच्छकी तरह नोजीवराशिभी तीसरी राशि है ऐसे कथन में आहरण. तदोषता उत्सूत्र प्ररूपणासे आई है " आत्मोपनीत"-जिसमें आत्मा "स्वयंही उपनीत हो जाय वह आत्मोपनीत है अर्थात्-ऐसा वह ज्ञात प्रतिक्षाम"-रेमा प्रतिशत vिe थाय छे ते न प्रतिक्षामाहा र ४ छे. म-"व्रजन्ति ते भूदधियः पराभवं भवन्ति माया• विप ये न मायिन." त्याहिमा वामां मा०यु छ. अथवा पाताने मपाईत કરનાર (અપહરણ કરનાર) ચંડપ્રદ્યોતની સાથે અભયકુમારે જેવું કર્યું એવું કરવું તે પ્રતિમાના ઉદાહરણ રૂપ છે તેમાં આહરણતદ્દોષતા હેવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે-આ પ્રકારનું ઉદાહરણ શ્રોતાની પરાકરણ (અન્યને નુકસાન)માં નિપુણ એવી બુદ્ધિનું જનક થઈ પડે છે. અથવા–“જીવ અને અજીવ એવી આ બે જ રાશી છે” આ પ્રમાણે જ્યારે કહેવામાં આવે ત્યારે તેના નિગ્રહ નિમિત્ત કેઈ એવું કહે કે “ગૃહગેધિકાદિ છિન્ન પુછની જેમ નજીવરાશિ પણ ત્રીજી રાશિ છે.” આ પ્રકારના કથનમાં ઉસૂત્ર પ્રરૂપણાને લીધે આહરણતદ્દોષતા રમેલી છે. આત્માનીત”—જેમાં આત્મા પોતે જ ઉપનીત થઈ જાય એવા ઉદાહરણને આત્માનીત કહે છે. એટલે કે પરમતના ખંડનને માટે કઈ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ स्थानाने ज्ञातेनान्यदीयमतनिराकरणाय परिगृहीतेन स्वकीयमतमेव दुष्टं भवेद् यत्र तद् आत्मोपनीता । यथा परिपदि केनापि कथितम्-अत्र सर्वे मूर्खा ' इति । अत्रसर्वपदेन स्वात्माऽपि मूर्खतयोपात्त इति । आहरणतदोपता चात्र स्ववचनदोपात् । यथावा " सव्वे पाणा न हंतव्या" सर्व प्राणिनो न हन्तव्याः अस्य पक्षस्य दपणाय कश्चिदाह-अभ्यधर्मस्थितास्तु हन्तव्या विष्णुना राक्षसा इव, एवं वदता तेनास्मैव हन्तव्यतया उपनीतः तस्यापि धर्मान्तरस्थितत्वात । अथवा-केनापि राज्ञा पृष्टः- तडागोऽयं कथमभेद्यो भवति ? ' अन्येन कथितम्-द्वात्रिंशल्लक्षणे पुरुघेऽत्र निखाते सत्यभेद्यो भवतीति । अमात्येन तु-स एव तत्र तादृशगुणसम्पन्नत्वा. कि जो अन्य मतके निराकरण के लिये दिया गया है परन्तु उससे स्वयं का मतही दुष्ट हो जाय वह आत्मोपनीतहै जैसे किसी सभामें किसीने कहा-यहाँ सबही मूर्ख है सो इस प्रकारके कथनसे कहनेवालेको भी सूर्खता प्राप्त हो जाती है क्योंकि सर्व पदसे वह भी गृहीत हो जाता है ऐले कथनमें आहरणतदोषता स्ववचन दोषसे है अथवा-जैसे-"सब्वे पाणा न हतवा' इस कथनको दृषित करने के लिये कोई ऐसा कहे कि अन्य धर्मस्थित प्राणीको तो विष्णुने जैसे राक्षसोंको मारा है वैसे मार देना चाहिये, इस प्रकारके उसके कथनके अनुसार वह स्वयं भी हन्तव्य रूपसे उपस्थित हो जाता है क्योंकि वह स्वयं भी धर्मान्तरमें स्थित है अथवा-किसी राजाने पूछा-यह तालाव अमोघ कैसे हो सकता है तब किसीने कहा-बत्तीस लक्षणोंवाला यदि कोई पुरुष यहां पर जीता गाड़ દેષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું હોય, પરંતુ તેના દ્વારા પોતાના મતનું જ ખંડન થઈ જતું હોય, તે એવા દષ્ટાન્તને આત્માનીત કહે છે. જેમકે કેઈ સભામાં કેઈ માણસ એવું બેલે કે “અહીં બધાં મૂઓ એકત્ર થાય છે. તો તેના આ કથન દ્વારા તે પોતે પણ મૂર્ખ ઠરે છે કારણકે “બધા મૂખે છે” એમ કહેવામાં કહેનાર પિતે પણ મૂર્ખ રૂપે ગણાઈ જાય છે. આ કથનમાં स्ववयन षने सीधे सातदोषता छ. अथवा-" सव्वे पाणा न तव्वा" કઈ પણ જીવને હણ જોઈએ નહીં, ” આ કથનને દૂષિત કરવાને માટે કઈ એવું કહે કે “જેમ ભગવાન વિષ્ણુએ રાક્ષસોને મારી નાખ્યા હતા, તેમ અન્ય ધર્મ સ્થિત છને મારી નાખવા જોઈએ, આ કથન અનુસાર તે આવું કહેનાર પણ હણી નાખવાને એગ્ય પ્રતિપાદિત થાય છે, કારણ કે અન્ય ધર્મને માનનારા લોકોની દૃષ્ટિએ તો તે પણ વિધમી જ છે. અથવા–કઈ રાજાએ પૂછ્યું. “આ તળાવ અમોઘ કેવી રીતે બની શકે?” ત્યારે કેઈએ એવો જવાબ આપે કે “કોઈ બત્રીસ લક્ષણ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुधाटीका स्था० ४ उ०३ सू०४१ दृष्टान्तमेवनिरूपणम् .२३३ निखात इति तेन यात्मैव तत्र नियुक्तः स्त्रस्यैव ववनदोषादत आत्मोपनीतत्वमति । चतुर्थभेदमाह-'दुरुवणीए' इति । दुरुपनीतम् दुष्टप्नुपनीतं योजितं यस्मिन् इति दुरुपनीतम्-यथा केनचित्कस्मैचित् किमपि पृष्टम् तस्मै तेनासंगत. मुत्तरं प्रदत्तं भवेत् , यथा कस्मैचिद् मिक्षुकाय केनापि पृप्टे सति मिक्षोरसंगत मुत्तरम् , यथा"भिक्षो । मांसनिषेवणं प्रकुरुषे ? किं तेन मध विना, मद्यं चापि तत्र प्रियं ? प्रियमहो वाराङ्गनाभिः सह । वेश्या द्रव्यरुचिः कुतस्तव धनं ? -छूतेन-चौर्येण वा, चौयत्तपरिगहोपि भवतः १ भ्रष्टस्य कान्या गतिः॥१॥" इतिः। यद्वा केनचिद्धन कनिश्चिन् हस्तगतजाले भिक्षु के पृष्टे तेनासंगतपुत्तरं दत्तं यथादिया जाये तो यह तालाब अमोघ हो सकता है, उसकी ऐसी बात सुनफर अमात्यने उसकोही बत्तीस लक्ष ग संपन्न होने से वहां गाड़ दिया इस तरह उसने अपने आपको ही अपने बचनदोषसे विपत्तिमें डाल 'दिया, इस तरह स्ववचनदोषसेही आहरणतद्दोषतामें आत्मोपनीतता आती है "दुरुवणीए" जिसमें उत्तरदाता अपने आपका दुराष्ट्र रूपसे ‘योजित करता है वह दुरुपनीत है अर्थात्-किसीने किसीके लिये अछ भी पूछा हो, यदि वह उसका असंगत उत्तर देताहै तो ऐसी अवस्था , वह दुरुपनीत कहा जाता है जैसे-किसीने एक भिखारीसे कुछ पूछा तो उसने मांस भवन की शंकाले उसको उत्तर कुछ ही दिया जैसे "भिक्षो! मांसनिषेण प्रकुरुषे” इत्यादि । हे भिक्षो ! क्या तुम मासका निलेकम-सेवन करते हो ? उस भिखारीने कहा मद्य विना પુરુષનો અહીં ભોગ આમવામાં આવે તે આ તળાવ અમોઘ થઈ શકે તેનાં આ શબ્દો સાંભળીને અમાત્યે, ૩ર લક્ષણેથી સંપન હોવાને કારણે એવી સલાહ આપનારઝુ જ બળિદાન આપી દીધું. આ રીતે તેણે પિતાના વચનદોષને કારણે પિતાને જ જાન ગુમાવ્યા આ રીતે સ્વવચન દેષતાને લીધે જ આહરણતદ્દોષતામાં અભેપનીતતા આવી જાય છે "दुरूवणी "३५नात'-मा उत्तरता पातान: इवित इथे ચેજિત કરે છે, તેનું નામ “દુરૂપનીત” છે. જેમ કે કોઈને કોઈ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવે અને તે તેનો અસંગત જવાબ આપે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તેને કુંપનીત કહેવામાં આવે છે જેમ કે કોઈએ એક ભિખારીને કઈ પૂછયું તે તેણે માંસ સેવાની શંકાથી તેને બીજે જ ઉત્તર આપે જેમ કે – " भिक्षो ! मांसनिपेवण' प्रकुरुपे" त्याdि-" मिक्षु ! शु तमे भासन स-३० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ स्थानाने "कन्याऽऽचार्याऽघना ते ननु शफरवधे जालमनासि मत्स्यान् ?, ते मे मयोपदशाः पिबसि ननु ? युतो वेश्यया यालि वेश्याम् । दत्वाऽरीणां गलेऽधिं वरनु तब रिपत्रो ? येपु सन्धि छिनदिम, चौरस्त्वं ? द्यूतहेतोः कितव इति कथं? येन दासी सुतोऽस्मि" ॥१॥इति । वहअच्छाही नहीं लगता है तो क्या प्रद्य सेवन भी करते हो ? हां करता हूं किंतु अकेला नहीं वह तो वेश्याके साथही प्रिय लगता है, तो क्या वेश्याके पास भी जाते हो ? वह तो द्रव्यसे ही प्रेम करनेवाली होती है तो तुम द्रव्य कहांसे लाते हो ? जुएँ और चोरीसे लाता हूं, तो क्या आप जुआँ और चोरी भी करते हो? हां, भ्रष्ट पुरुपकी अन्य गति ही क्या हो सकती है ? इसमें केवल यही दिखलाया गया कि किसीके कुछ पूछने पर उत्तर देने वालेने कितना अधिक अलंगन उत्तर दिया है इसी तरहसे हाथमें मच्छी पकड़ने की जाल लिये जाते हुवे भिखारीको किसी धूर्तने पूछा तो उसने उसे इस प्रकारका उत्तर दिया. "कन्धाऽs चार्याधना ते" इत्यादि । जो कन्या लेकर घूमनेवाले हे भिक्षुक ! तेरी कन्था ये जगह २ छेद क्यों हो रहे हैं १ नहीं २ यह तो मच्छी पकड़नेकी जाल है, तो क्या तू मच्छी भी खाते हो ? हां, वह बिना मञ्चके अच्छी नहीं लगती है, तो क्या तुम मधभी पीते हो સેવન કરે છે ખરા? તે શિખારીએ કહ્યું મદિરાપાન સિવાય તે તેમાં મજા જ કેવી રીતે પડે? તે શું તમે મદિરાનું પણ સેવન કરે છે? હા કરું છું પણ એકલો નહી તે તો વેશ્યા સાથે જ પ્રિય લાગે છે તે શું તમો વેશ્યા સેવન પણ કરે છે? તે તો ધનથી જ પ્રેમ કરવાવાળી હોય છે, તે તમે ધન ક્યાંથી લાવે છે ? જુગાર અને ચેરીથી લાવું છું તો શું તમો ચેરી પણ કરે છે ? હા ભ્રષ્ટ પુરુષની બીજી ગતી જ શું થઈ શકે ? આ દષ્ટાન્તમાં કેવળ એજ વાતને પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે એક સામાન્ય પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે કેવી અસંગત વાતો ઉત્તર દેનાર દ્વારા કરવામાં આવી છે. આ પ્રકારનું એ બીજું દષ્ટાન્ત હવે આપવામાં આવે છે. કોઈએ એક ભિખારીને કંઈ પૂછયું તે તેણે માંસસેવનની શંકાથી તેને બીજે - त्त२ मा-या २५ - फन्थाऽऽचार्यापना से"-"8 न्या. 'મારી ભિક્ષુક ! તારી કન્થામાં સ્થળે સ્થળે છિદ્ર કેમ દેખાય છે? ના ના આ તો માછલા પડવાની જાળ છે, ને શું ? તમો માછલી પણ ખાવ છે? હાં પણ તે મદ્ય સેવન વગર બરોબર લાગતી નથી તો શું તમે મદ્ય Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ सुधा टो स्था. ४ उ ३ सू ४१दृष्टान्तमेदनिरूपणम् यत् प्रकृतसाध्यानुपयोगि दान्तिकेन सह साधाभावात्तद् दुरुपनीतम् , यथा नित्यः शब्दः कार्यत्वाद् घटवदित्यत्र दृष्टान्ते घटे नित्यत्वधर्मों नास्ति इति तत्साधर्म्यात् शब्दस्य नित्यत्वं कथं सिद्धयेत् अनित्यतैव पर्यवस्यतीति तृतीयं ज्ञातस्३॥ ___ अथ चतुर्थ ज्ञातमाह- उबन्नासोदणए .' इत्यादि । 'उवन्नासोवणए ' उपन्यासोपनयश्चतुर्दा भवति-तद्वस्तु-तदन्यवस्तु, प्रतिनिभ-हेतु-भेदात् । तत्र प्रथमं भेदमाह- तबथुए ' इति तद्वस्तुकम् तदेव= हां किन्तु अकेला नहीं वह वेश्याके साथही पीता हूं, तो क्या तुम वेश्याके यहां भी जाते हो? दुश्मनोंके गले पर पैर रखकर जाता है, तुम्हारे दुश्मन कहाँले हुवे ? में जिनके घर पर खात लगाता हूं वे मेरे शत्रु हो जाते हैं । तो क्या तुम चोरीभी करते हो ? हां, जुवेके लिये सब कुछ करना पड़ता है ऐसा क्यों करते हो ? मैं दासी पुत्र हूं इसलिये ॥१॥ दार्शनिक दृष्टि से इस दुरुपनीतका तात्पर्य ऐलाही निकलता है कि जो प्रकृत साध्यमें उपयोगी नहीं होता है अनुपयोगी रहता है वह दुरुपनीतहै क्योंकि दार्टान्तिकमें इसके साधर्म्यका अभाव रहता है जैसे-" नित्यः शब्दः कार्यत्वात् घटवत्" कार्य होनेसे घटकी तरह शब्द नित्य है । यही घट दृष्टान्तमें नित्यत्व धर्म नहीं है इसलिये उसके साधर्म्यसे शब्दमें नित्यता कैसे सिद्ध हो सकती है इससे तो अनित्यताही सिद्ध होती है ३ પણ પીવો છે? હા, પણ એકલે નથી પીતે વેશ્યાની સાથે જ પીઉં છું, તો શું તમે વેશ્યાને ત્યાં પણ જાય છે ? હા દુશ્મનને ગળા પર પગ રાખીને જાઉં છું, તમારે વળી દુશ્મન કયાથી ? હું જેના ઘરોમાં ખાતર પાડું છું તેઓ મારા દુશ્મન બને છે. તે શું ? તમે ખાતર પણ પાડે છે ! જુગાર માટે તેમ કરવું પડે છે. તે છે ધૂર્ત આવું તું શા માટે કરે છે? હું દાસીને પુત્ર છું એ માટે ?” આ પણ દુરૂપનીતનું દષ્ટાન્ત છે. દાર્શનિક દષ્ટિએ આ દુરૂપનીતને ભાવાર્થ એ થાય છે કે જે પ્રકૃતિ સાધ્યમાં ઉપયોગી થતું નથી પણ અનુપયેગી જ થઈ પડે છે, તેને દુરૂપનીત કહે છે, કારણ કે પ્રાન્તિની સાથે તેના સાધમ્યને અભાવ રહે છે. भडे-" नित्यः शब्द कार्यत्वात् घटवत् " " य पाथी घट (431)नी જેમ શબ્દ નિત્ય છે અહીં ઘટ દષ્ટાતમાં નિત્યત્વ ધમને જ અભાવ હોવાથી તેને સામ્ય વડે શબ્દમાં નિત્યતા કેવી રીતે સિદ્ધ થઈ શકે ? આ દષ્ટાન વડે તે શબ્દમાં અનિત્યતા જ સિદ્ધ થાય છે. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ स्थानानासूत्र परोपन्यस्तसाधनमेव वस्तु . इति उत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तद्वस्तुकः । अथवा तत् परोपन्यस्तं वस्तु. इति तद्वस्तु, तदेव तद्वस्तुकं तेन युक्त उपन्यासोपनयोपितहस्तुक इति कथ्यते । यथा कश्चिदाह-भो भोः शृणुत मदीयग्रामे महदेकं सरः, तत्परिसरे महान् शाल्मलीतरुर्विद्यते तस्य यानि पर्णानि जले पतंति तानि जलचरा जीवा भवन्ति, यानि च स्थले पतन्ति तानि च स्थलचरा भवन्तीति लोकानां कुतूहलार्थमित्थं निवेदितम् , तत्र तदुपन्यस्तमेव तादृशतरुपत्रपतनवस्तु; अधिकृत्य केनचिदुक्तं भो ? यानि पत्राणि भूमिजलयोरन्तराले पतन्ति तेपां का स्थितिरिति, उपपत्तिमात्रमुत्तरभूतं वस्तु तद्वस्तुफ उपन्यासो चौथा ज्ञात जो उपन्यासोपनयहै वह चार प्रकारकाहे जैसे-तद्वस्तुक १, तदन्यवस्तुल २ प्रतिनिभा३ और हेतु.४ जिल उपन्यासोपनयमें परके द्वारा दिया गया साधनही वस्तुरूप होता है अर्थात् उत्तररूप होता है वह तदस्तुक है। अथवा-परोपन्यस्तवस्तुख्य वस्तुकले युक्त जो उप न्यासोपनय है यह भी तबस्तुक कहलाता है। जैसे किसीने कहाहे भाईओ ! सुनो मेरे गांवमें एक बड़ा भारी तालाव है उसके तट पर एक बहुत बड़ा सेमरका वृक्षहै उसके पत्ते जितने जलमें गिरतेहैं वे सय. जलचर जीवोंके रूपमें परिणतहो जाते हैं, और जितने पत्ते जमीन पर गिरते हैं वे सब स्थलचर जीवोंके रूपमें परिणत हो जाते हैं ऐसा जो उसने कहा सो लोकोंको कुतूहल उत्पन्न कराने के लिये कहा इस पर किसी दूसरेने उससे कहा कि भाई ! यह तो बताओ कि जो पत्ते भूमि और ચેથા જ્ઞાત (ઉદાહરણ) રૂપ જે ઉપન્યાસપનય છે, તેના નીચે પ્રમાણે यार प्रा२ छ।-(१) तरतु, (२) तन्यरतु४, (3) प्रतिनिल मन (४) हेतु જે ઉપન્યાસ૫નયમાં રાજ્યના' દ્વારા આપવામાં આવેલું સાધન જ વસ્તુરૂપ હોય છે એટલે કે ઉત્તર રૂપ હોય છે, તેનું નામ તકતુક ઉપન્યાસોનય છે. અથવા–પાપન્યસ્ત વસ્તુરૂપ વસ્તુકથી યુક્ત જે ઉપન્યાસે પય છે તેને પણ તદસ્તક કહે છે. જેમકે-કેઈ પુરુષે આ પ્રમાણે કહ્યું-“હે ભાઈએ ? મારા ગામમાં એક ઘણું વિશાળ તળાવ છે. તેના કાંઠા પર એક મોટું સેમર (શીમળાનું વૃક્ષ છે. તેનાં જેટલાં પાન પાણીમાં પડે છે, તે બધાં જલચર જી રૂપે પરિણમી જાય છે અને જેટલાં પત્તાં જમીન પર પડે છે તે બધાં સ્થલચર જી રૂપે પરિણમી જાય છે.” તેણે આ પ્રકારનું જે કથન કર્યું તે લેકેમાં કુતૂહલ ઉત્પન્ન કરવા નિમિત્તે કહેવામાં આવ્યું હતું. ત્યારે કેઈએ તેને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછ–“એ તો બતાવો કે જે પાન ભૂમિ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टी. सुधा ૨૭ पनय इतिः । द्वितीयभेदमाद - ' तदन्नवत्थुए ' इति । परोपन्यस्तवस्तुनो भिन्न मुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुकः यथा-तत्रैवोदाहरणे जले पतितानि पर्णानि जलचराः इति कथिते तद्विघटनाय पर्णपतनाद् भिन्नमुत्तरसाह - यानि पर्णानि पुनः दण्डादिना पातयित्वा खादति नयति वा स्वगृहं तस्य गतिर्भवति न कापीत्यर्थः । यद्येवं तर्हि यानि पत्राणि जले स्थले वा जलके अन्तराल में गिरते हैं उनकी क्या दशा होती है इस प्रकारका उपपत्ति मात्र जो उत्तरभूत वस्तु है वही तद्वस्तुक उपन्यासोपनय है क्योंकि कहनेवाले जो सेमरके वृक्ष के पत्रोंके गिरनेके बारेमें कहा है उसे ही लेकर दूसरे ने उससे ऐसा कहा है इस उत्तररूप कथन से यही सिद्ध किया गया है कि जिस प्रकार अन्तरालपत्ति पत्र पत्तोंके रूपमें रहते हैं उसी प्रकार से पानी और स्थलपर पतित पत्र भी पत्तोंकेही रूपमें रहते हैं इस प्रकारका यह उत्तर कथन तद्वस्तुक उपन्यासोपनय है स्था. ४उ. ३४१ दृष्टान्त मेदनिरूपणम् "" तदन्नवत्थुए " जिस उपन्यासोपनय में परोपन्यस्त वस्तुसे भिन्न उत्तरभूत वस्तु होती है, ऐसा वह उपन्यासोपनय तदन्यवस्तुक है । जैसेइसी पूर्वोक्त उदाहरणमें जब उसने ऐसा कहा कि जलमें पतित पसे जलचर हो जाते हैं तो जिन पत्तों को वह दण्डादिक से गिराकर खाता है या अपने घर पर ले जाता है उसकी क्या हालत होती है ? यहां जो અને જળના અન્તરાલમાં પડે છે, તેમની શી દશા થાય છે ?' આ પ્રકારની જે ઉપપત્તિ માત્ર રૂપ ઉત્તરભૂત વસ્તુ છે, તેનુ' નામ જ તદ્વંસ્તુક ઉપન્યાસેાપનય છે કારણ કે કહેનાર વ્યક્તિએ સેમર વૃક્ષના પાન પડવાથી તેમનુ શું થાય છે તે કહ્યુ છે અને બીજી વ્યક્તિએ પણ એ સેમર વૃક્ષના પાન જમીન અને પાણીના અન્તરાલમાં પડવાથી તેમનુ શું થાય છે એવા પ્રશ્ન પૂછ્યા છે. આ ઉત્તર- રૂપ કથનથી એજ વાત સિદ્ધ કરવામાં આવી છે કે જે પ્રકારે અન્તરાલપતિત પત્તાં પાન રૂપે જ રહે છે એજ પ્રમાણે જલપતિત અને સ્થલ પતિત પત્તાં પણ' પાનરૂપે જ રહે છે આ પ્રકારનું આ ઉત્તર કથન તદ્દક ઉપન્યાસાપનય રૂપ છે; "( તન્યવસ્તુક ′′—જે ઉપન્યાસે પનયમાં પરાપન્યસ્ત વસ્તુ કરતા ભિન્ન ઉત્તરભૂત વસ્તુ - હાય છે, એવા ઉપન્યાસે પનયને તાન્યવસ્તુક કહે છે, જેમકે-પૂર્વોક્ત ઉદાહરણમાં પહેલી વ્યક્તિએ જ્યારે આ પ્રકારનું કથન "समां पडेल पत्ता सयर ३ये परिभी लय छे, " त्यारे તેને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછી શકાય-“ જે પત્તાંતે તમે લાકડી આફ્રિ વડે પાડીને ખાઓ છે. અથવા તમારે ઘેર લઇ જાઓ છે તેમની શી હાલત Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩૮ Fritter पतन्ति तान्यपि जलचरजीवत्वेन स्थलचरजीवत्वेन वा भवितुं नार्हन्ति मनुष्याद्यात्रितपत्राणी । यथा मनुष्याचाश्रितानि पत्राणि मनुष्यादिभययूकादि रूपतया न सम्पद्यन्ते तथैव जलस्थलपनितानि पत्राण्यपि जलचररथलचरजीवत्वेन चितुं नार्हन्ति, यदि तानि तथा संपद्यन्ते तर्हि मनुष्याद्याश्रितानि पत्राण्यपि यूकादितया संपद्यन्ताम् मनुष्याद्याश्रितानि तु न तथा भवन्ति इति जलस्थलपतितान्यपि तानि न जलचरत्वेन स्थलचरत्वेन च भवितुमर्हन्तीति । तृतीय भेदमाह-'पडिनिभे' इति । प्रतिनिम इति यत्रोपन्यासोपनये वादिना उपन्यरतपूछने वाले ने उससे जो पूछा है वह अपने आप गिरे हुए पत्तोंसे भिन्न रूपसे गिराये गये पत्तोंके विषय में पूछा है अतः इस प्रकारका यह भिन्न रूप से उत्तर पूछना रूप कथन उसका यही बात साबित कर देता है कि उनकी जैसी वह गति होनेकी बात कहना है, वैसी उनकी गति नहीं होती है वे तो मनुष्याश्रित पत्तों की तरहसेही पत्तों के रूपमें बने रहते हैं नतो वे जलचर जीव रूपसे परिणमित होते हैं और न स्थलचर जीव रूपसे परिणमित होते हैं अर्थात् जिस प्रकारसे मनुष्यादिकों में होनेवाले यूकादि रूपसे वे पत्ते नहीं परिणमते हैं उसी प्रकार से जलस्थल पतित पत्ते भी जलचर स्थलचर जीव रूपसे नहीं परिणम सकते हैं यदि वे उस रूपसे परिणमते होते तो मनुष्याद्याश्रित पत्ते भी यूकादि रूपसे परिणमित होने चाहिये परन्तु वे तो उस प्रकार से परिणमित होते नहीं है । " पडिनिभे " - जिस उपन्यासोपनय में वादीके द्वारा उपन्यस्त થાય છે ? ” અહી પ્રશ્ન કર્તાએ પહેલી વ્યક્તિને જે પ્રશ્ન પૂછયેા છે તે પેાતાની જાતે તૂટી પડેલાં પત્તાંથી ભિન્ન રૂપે નીચે પાડવામાં આવેલાં પાન વિષે પૂછ્યા છે. તેથી આ પ્રકારને આ ભિન્ન રૂપે ઉત્તર જાણવા રૂપ તેનું કથન એજ વાત સિદ્ધ કરે છે કે જેવી રીતે મનુષ્યાશ્રિત પાન જુદે રૂપે પરિણમતાં નથી એજ પ્રમાણે જલપતિત પાન પણ જલચર જીવે રૂપે પરિણમન પામતાં નથી, અને સ્થલપતિત પાન સ્થલચર જીવા રૂપે પરિણમતા નથી. એટલે કે જેમ મનુષ્યાદિ જીવેાની પાસે રહેલાં પાન ચૂકાદ રૂપે (જુ' લીખ આદિ રૂપે) પરિણમતાં નથી, એજ પ્રમાણે જળ અને સ્થલપતિત પત્તા પણુ ' જલચર અને સ્થલચર જીવે રૂપે પરિણમતાં નથી, જે તેએ તે રૂપે પરિણમતાં હાત તા મનુષ્યાદિને આશ્રિત પત્તાં પણ જૂ, લીખ આદિ રૂપે પરિણુમિત થવાં જ જોઈએ. પરન્તુ એવું બનતુ નથી. " पांडेनिभे " " अतिनिल " -જે ઉપન્યાસે પનયમાં વાદી દ્વારા ઉપ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४ उ०३ सू०४९ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् २३९ 3 पदार्थस्योत्तरदानाय सदृशमेव वस्तु उपनीयते स प्रतिनियः, यथा - आसीत्कश्चि द्राजा स इत्थमघोषयत् यः अपूर्व श्लोकं आवविष्यति तस्मै लक्षं दास्यामि । तच्छ्रुत्वा अपूर्वान् लोकान् श्रावयितुं बहवोपि समागता अथावयंश्च श्लोकान् । तच्छुला राजोवाच एते तु मया श्रुना एव ततोऽन्यः कोपि गत्वा इत्थं गाथामपठत्तुझ पिया मज्जपिउणो, धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जर सुपुत्र दिज्जउ, अह्न न सुयं खोरयं देहि " ॥ १ ॥ छाया - तव पिता मम पितु र्धारयत्यनून शतसहस्रम् । यदि श्रुतपूर्वे ददातु अथ न श्रुतं कठोरकं देहि ॥ १ ॥ " उपस्थित किये गये पदार्थ उत्तर देनेके लिये सदृशही वस्तुका उपनय होता है सहाही वस्तु उपस्थित की जाती है वह - प्रनिनिभ उपन्यासोपनय है जैसे किसी राजाने ऐसी घोषणा की जो मुझे अपूर्व इलोक सुनावेगा उसके लिये मैं एक लाख रुपया प्रदान करूंगा इस उसकी घोषणाको सुनकर अनेक विद्वानोंने अपूर्व २ इलोकोंकी रचना करके उसे उन्हें सुनाया उत्तर में राजाने कहा- ये इलोक तो मैंने सुनेही हैं तब किसीने जाकर इस गाथाको उसे सुनाया - 46 तुज्झ पिया मज्झ पिउनो " तुम्हारे पिता पर मेरे पिताके एक लाख रुपया लेना है, यदि यह बात तुमने पहिले से सुन रखी है तो १ लाख रुपया मुझे दो और जो नहीं सुनी है तो भी मुझे १ लाख रुपया दो क्योंकि मैंने आपको यह अपूर्व श्लोक सुनाया है । ન્યસ્ત ઉપસ્થિત કરવામા આવેલા પદાર્થના ઉત્તર દેવાને માટે સદેશ (સમાન) વસ્તુના જ ઉપનય થાય છે—સમાન વસ્તુ જ ઉપસ્થિત કરાય છે તે પ્રતિનિભ ઉપન્યાસાપનય છે. જેમકે કૈાઇ એક રાજાએ એવી જાહેરાત કરી કે જે કાઇ માણુરા અને અપૂર્વ (પહેલાં ન સાંભળ્યો હોય એવે) શ્ર્લેક સભળાવશે તેને હુ' એક લાખ રૂપીઆનું ઇનામ આપીશ. મા ઘેષણા સાભળીને અનેક વિદ્વાનાએ અપૂવ લૈકા મનાવીને તેને સભળાવ્યા. તેમને રાજા આ પ્રમાણે જવાબ આપતા ... આ શ્લેક તે મે પહેલાં સાંભળેલા છે '” ત્યાર બાદ કોઇ એ માણસે તે રાજા પાસે જઈને तेने या श्लोठ सलजान्यो " तुज्झ पिया मज्झपिउणो " त्याहि 66 તમારા પિતાજી પાસે મારા પિતાજીના એક લાખ રૂપીયા લેણા છે જે આ વાત આપે પહેલાં સાંભળેલી હેાય તે તે લેણા પેટે એક લાખ રૂપી આપે, અને આ વાત તમે સાંભળેલી ન હોય તે અપૂર્વ સ્લેક સાંભળવાના ઈનામ તરીકે મને એક લાખ રૂપીઆ આપે. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० स्थामा % 3D - - '५ अपि च स्वस्ति श्री भोजराज ! त्रिभुवन विजयी धार्मिकस्ते पिताऽभूत् , पित्रा ते से गृहीता नवनयंति युता रत्न कोटिर्मदीया । तास्त्वं देहि प्रदेयैः सकलचुधगणे आयते वृत्तमेतत् , नो वा जानन्ति नूनं नवकृतमथवा देहि लक्षं ततो मे" ॥१॥ इति एवं प्रकारेण तत्र निगृहीतो राजा, प्रतिनिभता चास्यासत्यवचनं त्रुवाण प्रत्यसत्यवचनस्यैवोपन्यासादिति । चतुर्थभेदमाह - ' हेउ ' इति, हेतुः - यत्रोपन्यासोपनये तथा-" स्वस्ति श्री भोजराज" इत्यादि । इस श्लोकका भाव भी पूर्वोक्त श्लोकदे अनुसारही है इसमें भोजराजके पिताको त्रिभुवन'विजयी और धार्मिक प्रकट किया गया है निन्यानवे ९९ करोड रत्न उन पर मुझे लेना है पेमा कर्जा इसमें कहा गया है अतः वह तुम मुझे दो यह बात यहां के सब विद्वानोंको ज्ञात है और यदि वे इस रातसे अनभिज्ञ हैं तो हमारी कृति यह अपूर्व है अतः इसे अपूर्व होने के कारण आप हमें अपनी घोषणाके अनुसार १ लाख रुपया प्रदान कीजिये। इस प्रकारले राजा निगृहीत परास्त हो जाताहै यहां इस कथनमें जो प्रतिनिभता आई है, वह अमत्य वचन घोलने के प्रति "मैंने ये श्लोक-ती सुनेही हैं-इस प्रकार से कहनेवाले राजाके प्रति असभ्य वचनके उपन्यास करनेसेही आई है, क्योंकि-वादीके द्वारा उपन्यस्त पदार्थका उत्तर तथा-" स्वस्तिश्री भोजराज" त्याल. ५. सन लापा ५५ Jકત ક જે જ છે આ ફ્લેકમાં ભેજરાજાના પિતાને ત્રિભુવનવિજયી અને ધાર્મિક કહ્યા છે, અને તેમની પાસે પિતાનું (આ અપૂર્વ શ્લેક બના વનારનું) ૯૯ કરોડ રનનું લેણું છે. મારી આ વાત અહીના સર્વ પંડિત જાણે છે. જે તેએ આ વાતને ન જાણતા હોય તો મારી આ કૃતિ અપૂર્વ હોવાને કારણે આપે જાહેર કર્યા અનુસાર એક લાખ રૂપીઆનું ઈનામ મને મળવું જોઈએ આ પ્રકારે રાજા પરાસ્ત થાય છે એવું બનાવવામાં આવ્યું છે. આ કથનમાં પ્રતિનિભતા કેવી રીતે આવી છે તે હવે સમજાવવામાં આવે છે –“ મેં આ લેક પહેલાં સાંભળે છે, ” આ પ્રકારના અસત્યવચન બોલનારની સામે મારા બાપાનું તમારા પિતાશ્રી પાસે એક લાખ ૩પીઆનું શું છે ? આ પ્રકારના અસત્ય વચનને ઉપન્યાસ કરવાથી તેમાં પ્રનિનિભતા આવી છે. કારણ કે વાદીના દ્વારા ઉપન્યસ્ત પદાર્થને ઉત્તર તેના જેવી જ વસ્તુ વડે અપાયે છે. જેમાં પહેલાં રાજાએ જૂઠાણાનો આશ્રય લીધે Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ सुधा टीका स्था०४३०३४०४१ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् पर्यनुयोगस्य (प्रश्नस्य ) हेतुरुत्तरतया कथ्यते स हेतुरिति, यथा केनापि कश्चित् पृष्टः-अहो ! त्वया यवाः किं क्रीयन्ते ? स प्राह-येन सुधैव न लभ्यन्ते, एवं कस्माद् ब्रह्मचर्यादिकमनुष्ठीयते उत्तरमाइ-अकृततपसां नरके वेदना भवति । यद्वा-कस्मात्वया पत्रज्या गृहीता १ तां विना मोक्षो न भवतीति । इह उपपत्तिमात्रमेवेदं ज्ञानत्वेनोक्तमर्थज्ञापकत्वादिति ४।। उसकी जैसी सदृश बातुसेही दिया गया है राजाने पहिले झूठ कहा बादमें श्लोक उपस्थित करनेवालोंने भी उसमें उसके जैसाही असत्य वस्तुका उल्लेख कर उसे परास्त किया है। . "हेउ"-जिस उपन्यासोपनयमें पर्यनुयोग-प्रश्नका हेतु उत्तर रूपसे कहा जाता है वह हेतु उपन्यासोपनय है जैसे-किसीने किसी से पूछा तुम यवोंको क्यों खरीद करतेहो ? उत्तरमें उसने कहा ये बिना खरीद किये प्राप्त नहीं होते हैं। ब्रह्मचर्यादिकका पालन क्यों किया जाताहै ? उत्तरमें कहा गया है जो तपस्या नहीं करते हैं उन्हें नरकमें वेदना भोगनी पड़ती है अथवा-तुमने प्रव्रज्या क्यों ग्रहण की है ? उत्तरमें कहा गया है-उसके विना मोक्ष नहीं होता है । इन सब कथनोंमें प्रश्नही उत्तर रूपमें कहा गया है क्योंकि जब पूछनेवालेने ऐसा पूछाहै कि जौ को तुम खरीद क्यों करते हो ? तम उत्तर में ऐसा कहा गयाहै कि वे विना खरीद किये प्राप्त नहीं होते हैं इसलिये उन्हें खरीद किया जाताहै इसी तरहसे હતે તેમ અપૂર્વ કે ઉપસ્થિત કરનાર પુરુષે પણ અસત્યને જ આશ્રય લઈનેલેણ રૂપ અસત્ય વસ્તુને તે કમાં ઉલ્લેખ કરીને-તે રાજાને પરાસ્ત કર્યો હતે. "हे"-' '-2 पन्यासोपनयमा ५नुया प्रश्न उत्तर રૂપે કહેવામાં આવે છે તેને “ હેતુ ઉપન્યાસોપનય ” કહે છે. જેમ કે – કેઈએ કેઈને પૂછયું—“ તમે જવ શા માટે ખરીદ કરે છે ?” उत्तर - पा १२ भात नथी." प्रश्न - " प्राय આદિનું પાલન શા માટે કરાય છે? ” ઉત્તર – “ જેએ તપસ્યા કરતા નથી તેમને નરકમાં વેદના ભેગવવી પડે છે.” પ્રશ્ન-“તમે પ્રવજ્યા કેમ ગ્રહણ કરી છે ?” ઉત્તર–પ્રવજ્યા ગ્રહણ કર્યા વિના મેક્ષ મળતું નથી. ” આ બધાં કથનમાં પ્રશ્ન જ ઉત્તર રૂપે કહેવામાં આવ્યો છે. કારણ કે જ્યારે પ્રશ્નકર્તા એ પ્રશ્ન કરે છે કે “તમે શા માટે જવ ખરીદ કરે છે ?” ત્યારે ઉત્તર રૂપે એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે “ખરીદ કર્યા વિના જવ મળતા નથી, તેથી તેને ખરીદ કરવામાં આવે છે. ” એ જ પ્રમાણે અન્ય Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ान अथ हेतोश्रातुर्विध्यमाह – 'हेऊचउव्हेि' इत्यादि । हेतुः - हिनोति गमयति ज्ञेयमिति हेतुः साध्यनिरूपितव्याप्तिमान् अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणः यथा पर्वतो वह्निमान् धूमान्यथानुपपत्तेरिति, तदुक्तम् - " अन्यथाऽनुपपन्नत्थं हेतोर्लक्षणमीरितम्तदप्रसिद्धिसन्देह विपर्यासैस्तदाभता " ॥ १ ॥ अत्र लोकपूर्वार्द्धन हेतोर्लक्षणम्, अन्य प्रश्नों के उत्तर में भी ऐसाही समझना चाहिये जो प्रश्न किया गया है वही उत्तर रूपमें यहां प्रकट किया गया है । "हेऊ चउत्रिहे" हेतु चार प्रकार का कहा गया है - यापक १, स्थापकर, व्यंसक३ और लूषक४ जो ज्ञेयका गमक-चतानेवाला होता है वह हेतु है। यह हेतु अपने सांध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रूप व्याप्तिवाला है " माध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः " ऐसा हेतुका लक्षण कहा गया है जो अपने साध्य के साथ अविनाभाव संबन्धवाला होता है वही हेतु होता है यह हेतु अन्यथानुपपत्ति है लक्षण जिसका ऐसा होता है यहां अन्यथा शब्द से साध्य के बिना लिया गया है और अनुपपत्ति शब्द से हेतुका नहीं होना लिया गया है जैसे- " पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमान्यथानुपपत्तेः " यह पर्वत अग्निवाला है क्योंकि धूम की अन्यथा (अग्निके बिना) अनुपपत्ति होतो है विना अग्नि के धूम होता नहीं है, पर वह है, इससे पर्वतमें अग्नि है यह बात प्रमाणित - अनुमित हो जाती है यही बात - "अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणપ્રશ્નોના ઉત્તરા વિષે પણ એવું સમજવુ' જોઈ એ કે જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યા છે, તેને જ ઉત્તર રૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યે છે. " देऊ चउव्विहे " हेतुना नीचे प्रभाषे यार प्रहार ह्या छे – (१) याय, (२) स्थाय, ( 3 ) व्यास भने (४) सूषपु. જે જ્ઞેયને પતાવનાર હાય છે તેનું નામ હેતુ છે. આ હેતુ પેાતાના साध्यनी साधे अविनाभाव संबंध ३५ व्यासिवाणा होय छे. " साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु " मेवु हेतुनुं वक्षाय छे. पोताना साध्यनी સાથે અવિનાભાવ સંબધ વાળા હોય છે એનું નામ જ હેતુ છે. તે હેતુ અન્યથાનુપપત્તિ લક્ષણવાળા હાય છે. અહી અન્યથા” પદ સાધ્ય વિનાનુ વાચક છે અને ‘ અનુપપત્તિ શબ્દ હેતુના અભાવને વાચક છે. એટલે हे साध्यनो अभाव होय तो हेतुना या मलाव ४ होय छे. नेमडे - " पर्वतो६यम् वह्निमान् धूमान्यथानुपपत्तेः આ પર્યંત અગ્નિવાળા છે, કારણ ધૂમાડાની અન્યથા (અગ્નિ વગર) અનુપપત્તિ જ હાવી જોઇએ એટલે કે ધૂમાડા વિના અગ્નિ હૈ।તી નથી, ધૂમાડા છે એટલે અગ્નિ પણ હાવી જોઇએ, આ વાત तेना द्वारा प्रभावित — अनुमानित यह लय छे भेट वात-" अन्यथानुपप 29 6. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ २ ३ सू० ४१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम् अपरभागेन तु हेत्वाभासागां लक्षणं प्रतिपादितम् । उपन्यासोपनये उत्तो हेतुः पृष्टस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रम्, अत्र तु अयं साध्य प्रति अपयव्यतिरेकवान् दृष्टान्तदर्शितव्याप्तिमान् । असौ यद्यपि एकस्वरूपोपि किंचिद्विशेषात् चतुर्धा भवति-यापक-स्थापक-व्यंसकलूपकभेदात् । तत्र 'जाइए' इति-यापयति वादिनः कालयापनां यः करोति स यापको हेतुः । यथा सचेतना वायवः परप्रेरणेष्वसत्सु तिर्यगनियतत्वाभ्यां गतिमत्त्वात् गोशरीरवत्, अत्र हेतुर्विशेषण मीरितम्, तदप्रसिद्धिलन्देहविपर्यास्तदाता" इस लोक द्वारा प्रकटकी गई है। यहां श्लोकके पूर्वाद्धसे हेतुका लक्षण कहा गया है और अपर भागसे हेत्वाभालोंका लक्षण कहा गया है। उपन्यानोपनय में उक्त हेतुका पृष्ट प्रश्न के उत्तररूपमें उपपत्ति मात्र-कथन मात्र होता है परन्तु यहां वह साध्यके प्रति अन्वयव्यतिरेक सम्बन्धवाला और दृष्टान्तसे दर्शित व्यासिवाला होता है यह यद्यपि एक स्वरूप होता है तो भी किश्चित् विशेषताको लेकर यापक आदिके भेदले चार प्रकारका हो जाता है- जो हेतु,दादीकी कालयापना करता है वह यापक हेतु होता है कालयापक वही हेतु होता है जो विशेषण बहल होता है ऐसे हतके उच्चारण करने में वादीको विशेष समय लगता है जैसे-".सचेतना वायवः परप्रेरणेष्वसत्सु तिर्यगनियतत्वाभ्यां गतिमत्त्वात् गोशरीरवत्" वायु सचित्त होता है, विना प्रेरणा ही तियों और अनियत, गमन करने वाला होने से, गाय के शरीर के समान इस अनुमानप्रयोगमें "गतिमत्वात् " हेतुके " परप्रेरणे असति अव हेतोलक्षणमीरितम् तदप्रसिद्धिसन्देह विपर्यासैस्तदाभता" मा श्वास પ્રકટ કરવામાં આવી છે અહી ફ્લેકના પૂર્વાર્ધ દ્વારા હેતુનું લક્ષણ કહેવામાં આવ્યું છે અને અપરાર્ધ દ્વારા હેત્વાભાસોનું લક્ષણ કહેવામાં આવ્યું છે. ઉપન્યાપનમાં ઉકત હેતુનુ પૃષ્ટ પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપમાં ઉપપત્તિ માત્ર–કથન માત્ર હોય છે, પરન્તુ અહીં તે સાધ્યની સાથે અન્વયવ્યતિરેક સંબંધવાળે અને દેહાન્ત દ્વારા દર્શિત વ્યાપ્તિવાળા હોય છે. તે જો કે એક જ સવરૂપ વાળ હોય છે, છતા પણ થેડી થેડી વિશેષતાને લીધે તેના યાપક આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે , જે હેતુ વાદીની કાલથાપના કરે છે–ઘણે કાળ ગુમાવે લે છે તે હેતનું નામ “યાપક હેતુ છે. કાલયાપક એ જ હેતું હોય છે કે જે વિશેષણોની વિપુલતાવાળે હોય છે. એવા હેતુનું ઉચ્ચારણ કરવામાં વાદીને ઘણે સમય सा छ भ है-“ सचेतना वायव परप्रेरणेष्वसत्सु "तिर्यगनितयत्वाभ्यां गतिमत्त्वात् गोशरीरवत्" वायु सथित डाय छे, मीना प्रेरण! १२ तिय मन मानयताभन ४२वावाणी डापाथमा मनुमान प्रयोगमा गतिमत्वात्"तुन मा विशेष है-" परप्रेरणे असति तिर्यगनियतत्त्व'' PARge विशेष थे. मा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ स्थानास बहुलतया प्रतिपादितः दुरधिगमत्वात् कालं यापयति अतो यापको हेतुरिति । यद्वा- काचित्कुलटा स्वपतेः कालयापनां कर्त्तुं कथितवती - अहो सांप्रतमुन्दि ण्डानि महाणि जातान्यतस्तानि गृहीत्वा नगरे गच्छ तत्र एकैकरूप्यकेण एकैकं fooडं देयमिति द्विक्रयार्थप्रेपणोपायेन जारसेवायां कालयापनां कृतवतीति यापको हेतुः । अथवा-यो हेतु र्झटिति साध्यं न प्रत्याययति किन्तु कालक्षेपेण, स कालयापकत्वात् यापको हेतु:, यथा- ' सर्व वस्तु क्षणिकं सत्त्वात् ' इत्यत्र तिर्यगनियतत्त्वं " ये बहुल विशेषण हैं विशेषणवल हेतु दुरधिगम हो जाता है उसका समझना बड़ा कठिन हो जाता है इसलिये ऐसा हेतु दुरधिगम होने से काल घापक होता है अर्थात् प्रतिवादी उस हेतुको बड़ी देर में समझ पाता है इसलिये उसके भी कालकी यापना होती है यहा - किसी कुलटाने अपने कालकी यापना करनेके निमित्त पतिसे ऐसा कहा -देखो इस समय ऊंट के मेंगणाओंकी बहुत कीमत बढ गई है इसलिये तुम उन्हें लेकर नगर में जाओ और वहां एक २ रुपयामें उन्हें बेच आओ इस प्रकार उसने अपने पतिको मेंगणें बेचने के वहानेसे उसके वापिस आने तक के समय में अपने समयको उपपत्ति के साथ काल व्यतीत किया । इस प्रकार यहां यह हेतु कालयापक होता है अथवा जो हेतु शीघ्रतासे अपने साध्यका गमक नहीं होता है, किन्तु देरी से अपने साध्यका गमक होता है ऐसा वह हेतु कालयापक होने से 1 પ્રકારના વિશેષણાની વિપુલતાવાળા હેતુ દુરધિગમ (સમજવા ઘણ્ણા કઠિન) થઈ જાય છે. તે કારણે દુધિગમ હાવાને કારણે એવા હેતુ કાલયાપક હોય છે—તેને સમ જવામાં ઘણુંા સમય લાગે એવા હાય છે, એટલે કે પ્રતિવાદી તે હેતુને સમवामां धो। आज व्यतीत पुरी नाचे छे, तेथी तेना अजनी पशु यायनाथाय छे. V અથવા—કાઈ કુલટાએ પેાતે ઇચ્છિત સમય વ્યતીત કરવાને માટે તેના પતિને કહ્યું —“ હાલમાં ઊટન લી'ડા એની કીમત ખૂબ જ વધી ગઈ છે. તેથી તમે અત્યારે જ આપણા ઊંટના લીડાએ લઈને નગરમાં જાગે અને તેને એક રૂપીઆના એકના ભાવે વેચી આવા ” આ પ્રકારે તેણે તેના પતિને ઊંટના લીડાએ વેચવાને બહાને ગામમાં મેાકલીને, તે પાછે ફ ત્યાં સુધીના કાળ પેાતાના યારની સાથે વ્યતીત કર્યા. આ પ્રકારે અહી આ હેતુ કાલયાપક થઈ પડે છે. અથવા જે હેતુ શીવ્રતાથી પેાતાના સાધ્યના ગમક (જાણનારા ) હાતા નથી, પણ ઘણા સમય પછી પેાતાના સાધ્યને જાણનારા હાય છે એવા તે હેતુ કાલયાપક હાવાથી યાપક રૂપ હાય છે. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ० ३ सू०४१ दृष्टान्तमेदनिरूपणम् सर्ववस्तुनः क्षणिकत्वं साधयितुं बौद्धः ‘सत्वात् ' इति हेतुरुपन्यस्तः । नहि कश्चित् सत्त्वश्रवगादेव क्षगिफत्वं प्रत्येति, अतो वौद्धाः सत्त्वं क्षणिकत्वेन साधयन्ति, सत्त्व नामार्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यथा, बन्ध्यामृतस्यापि सत्त्तप्रसङ्गः, अर्थक्रियाकारित्वं तु नित्यस्यैकरूपत्वान्न कथंचिदपि संभवति, अतो नित्यभिन्नस्य क्षणिकस्यैव अर्थक्रियाकारित्वरूपं सत्त्वं सिध्यति । इत्थं च सत्त्वं क्षणिकत्वव्याप्तयापक होता है जैसे “सर्व वस्तु क्षणिकं सत्वात् " समस्त यस्तुएँ सत्त्व विशिष्ट होनेसे क्षणिकहैं, इस प्रकारके अनुमानसे बौद्धोंने समस्त पदार्थों में क्षणिकता-क्षणविनश्वरताकी सिद्धि जो सत्त्व हेतुसे की है सो इस हेतुके सुनतेही कोई भी व्यक्ति इस हेतुसे पदार्थों में क्षगिकताकी प्रतीति झटिति नहीं कर पाताहै अतः फिर वह समझाताहै कि “यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् " जो अर्थक्रियांकारी अर्थरूप क्रियाको करनेवाला होताहै वही परमार्थतः सत् होताहै यदि अर्थ क्रियाकारीकोही सत् न माना जावे तो बन्ध्याके पुत्रमें भी सत्त्व मानना पड़ेगा अतः जब यह बात मानली जाती है कि जो अर्थ क्रियाकारी होता है वही परमार्थसे सत् है तो फिर जो सर्वथा नित्य पदार्थ है कूटस्थ नित्य है उसमें अर्थक्रियाकारिता आती ही नहीं है, क्योंकि वह नित्य तो एक रूपही होता है यदि उसमें अर्थक्रियाकारिता मानी जावे तो वह किर एकरूप नहीं रह सकता है एकरूप नहीं रह सकनेसे वह नित्य नहीं रेभ.-" सर्व वस्तु क्षणिक सवात् ” समस्त १२०ी सत्पविशिष्ट बाथी ક્ષણિક છે, ” આ પ્રકારના અનુમાનથી બૌદધે સમસ્ત પદાર્થોની ક્ષણિકતા– ક્ષણભંગુરતાની સિદ્ધિ જે સહેતુ દ્વારા કરી છે, તે હેતુને સાંભળતાં જ કે પણ વ્યક્તિ તે હેતુ દ્વારા પદાર્થોમાં ક્ષણિક્તાની પ્રતીતિ જલદીથી (તુરત જ) કરી શકતી નથી તેથી જ તેમણે આ પ્રકારે તેની વિશેષ સ્પષ્ટતા કરી छे-" यदेवार्थ क्रियाकारि तदेव परमार्थ सत् " " म ठियारी डाय છે એ જ પરમાર્થાત (સ્વભાવતઃ) રત હોય છે જે અર્થ ક્રિયાકારીને સત ન માનવામાં આવે તે વંધ્યા પત્રમાં પણ સર્વ માનવું પડશે એટલે કે વંધ્યાને પુત્ર હોવાની વાત પણ સ્વીકારવી પડશે. તેથી જો આ વાત માની લેવામાં આવે કે “જે અર્થ ક્રિયાકારી હોય છે એ જ પરમાર્થતઃ સત રૂપ છે,” તે જે સર્વથા નિત્ય પદાર્થ છે ફૂટસ્થ નિત્ય છે તેમાં અર્થ ક્રિયાકારિતા સભવતી જ નથી, કારણ કે તે નિત્ય તે એક રૂપ જ હોય છે. જે તેમાં અક્રિયાકારિતા માનવામાં આવે છે તે એક રૂપ રહી શકતું નથી, અને એક રૂપનહીં રહી શકવાથી તેને નિત્ય કહી શકાતું નથી, કારણ કે નિત્યનું Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ स्थांना मेव । एवं साध्यसाधने कालो यापितो भवतीति कालयापनाकारित्वादयं सव. लक्षणो हेतुर्यापक इति । द्वितीयभेदमाह-यावए' इति । स्थापयति पक्ष शीघ्रत या अर्थात् मसिद्धव्याप्तिकतया समर्धयतेति स्थापको हेतुरिति । यथा पर्वतोकहा जा सकता है, क्योंकि नित्यका तो लक्षण " अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिर करूपं नित्यं " अप्रच्युत-नाग न हो उत्पन्न न लो और स्थिर रहे वह नित्य है ऐसा कहा गया है इमलिये यह मानना पड़ता है कि अप्रच्युतानुत्पन्नस्विरैफरूपवाले पदार्थमें किसी भी तरहसे न कालकी अपेक्षासे न देशकी अपेक्षासे अर्थ क्रिया होती है अतः नित्यसे भिन्न जो क्षणिक पदार्थ है उसमेंही अर्थ क्रियाकारिता आनी है और इसीसे उसी में सत्त्व व्यवस्थापित होता है इस प्रकारसे सत्व और क्षणिकत्वकी व्याप्ति सिद्ध होकर वह सत्व, क्षणिकत्वसेही व्याप्त सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार कहकर वह ौद्ध अपने अभीष्ट साध्यको सिद्ध करने में प्रदत्त सत्य हेतुकी सिद्धि करने में समय व्यतीत करता हैं अतः सत्त्व यह हेतुकाल यापनाकारी होने से अपने साध्यकी सिद्धि कराने में अधिक समयको खर्च करनेवाला होने से यापक होना है____ "थोवए " जो हेतु अपने साध्य के साथ प्रसिद्ध व्याप्तिवाला होनेसे शीघ्रताके साथ उमका स्थापक होता है समर्थन करने वाला होता है ऐसा वह हेतु स्थानक हेतु होता है । जैसे-" पर्वतोऽयं वहिनान् धूमसक्षy प्रमाणे मधु छ-"अप्रयुतानुवन्नस्थिरैकरूपं निस्य" या એમ માનવું પડે છે કે “ જેને નાશ નથી અને જેની ઉત્પત્તિ નથી એવા સ્થિર રૂપ વાળા પદાર્થમાં કઈ પત્ર રીતે-કાળની અપેક્ષાએ અથવા દેશની અપેક્ષાએ—અર્થ કિયા હોતી નથી તેથી નિત્યથી ભિન્ન એ જે ક્ષણિક પદાર્થ છે તેમાં જ અર્થ ક્રિયાકારિતા સંભવિત છે અને તેથી જ તેમાં સર્વ વ્યવસ્થાપિત થાય છે. આ પ્રકારે સત્વ અને ક્ષણિકત્ત્વની બાપ્તિ સિદ્ધ થઈને સત્વક્ષણિકત્વથી જ વ્યાપ્ત સિદ્ધ થઈ જાય છે. આ પ્રકારે કહીને તે બૌદ્ધ પિતાના અભીષ્ટ સાધ્યને સિદ્ધ કરવા માં–પ્રદત્ત સત્ત્વ હેતુની સિદ્ધિ કરવામાં સમય વ્યતીત કરે છે તેથી સત્વરૂપ હેતુ કાળયા નાકારી હોવાથી પોતાના સાથની સિદ્ધિ કરાવવામાં અધિક સમય વ્યતીત કરનાર હોવાથી યાપક રૂપ હોય છે. ___. “ थावए " स्था५४ हेतुना भ ट ४२पामा आव छ-२ હેતુ પોતાના સાધ્યની સાથે પ્રસિદ્ધ વ્યાપ્તિવાળો હોય છે, અને તે કારણે શીઘ્રતાથી તેને સ્થાપક અથવા સમર્થન કરનારે હોય છે, એવા હેતુનું નામ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ सुघाटीका स्था०४३०३-०४१ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् वह्निमान् धूमात्, तथा नित्यानित्यं वस्तु द्रव्यपर्यायतस्तथैव प्रतीयमानलात् अनयो प्रतिपादितत्वोर्ज्ञातव्याप्तितया झटित्येव साध्यस्य समर्थनात् भवति स्थापकत्वमुभयोर्हेत्वोः । यद्वा कस्मिंश्चिद् धूर्ते परिव्राजके -' लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति, तच्चाहमेव जानामि इति मायया प्रतिग्राममन्यान्यलोकमध्यं प्ररूपयति सति तन्निग्रहाय कथिन्मुनिराह - भो परिव्राजक ! लोकमध्यभागस्त्वेको वत्वात्, अथवा नित्यानित्यात्मकं वस्तु द्रव्यपर्यायतस्तथैव प्रतीय" यहां धूम और वह्निकी "पत्र २ धूमस्तत्र तत्र बह्निः” इस रूप से व्याप्ति प्रसिद्ध है अतः धूम " हेतु शीघ्रता से अपने साध्य अग्निका स्थापक होता है इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु द्रव्यको अपेक्षा से free और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य मानी गई है तो इससे यह बात झटिति स्थापित हो जाती है वस्तु नित्यानित्यात्मक है । अतः ये दोनों हेतु अपने साध्यके शीघ्रता से गमक होने के कारण उसे बताने में समर्थ होने से स्थापक होते हैं । मानत्वात् 66 यद्वा-किसी धूर्त परिव्राजकने मायासे ऐसी प्ररूपणा प्रत्येक ग्राम में हरएक लोकके समक्ष की कि लोकके मध्य भागमें दिया गया दान बहुत फलवाला होता है इस बातको केवल मैं ही जानता हूं तब उसकी इस प्ररूपणा निग्रह करने के निमित्त उससे किसी मुनिने कहा- भा स्थाय हेतु छे. नेम - " पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमवत्त्वात् " अथवा " नित्या नित्यात्मकं वस्तु द्रव्यपर्यायतस्तथैव प्रतीयमानभावात् ” अहीं घुमाडा मने અગ્નિની “ જ્યાં જયાં ધૂમાડે ડાય છે ત્યાં ત્યાં અગ્નિ ાય છે ' આ રૂપે વ્યાપ્તિ પ્રસિદ્ધ છે. તેથી ધૂમરૂપ હેતુ પોતાના અગ્નિરૂપ સાધ્યના શીઘ્રતાથી સ્થાપક અને છે. એ જ પ્રમાણે પ્રત્યેક વસ્તુ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ નિત્ય અને પર્યાયની અપેક્ષાએ અનિત્ય મનાય છે તેથી એ વાત શીવ્રતાથી સ્થાપિત થઈ જાય છે વસ્તુ નિત્યાનિત્યાત્મક છે. આ બન્ને હેતુ પોતાના સાધ્યને શીવ્રતાથી ગ્રહણુ કરાવનારા હોવાથી તેમને બતાવવામાં સમથ હાય છે તે કારણે આ પ્રકારના હેતુને સ્થાપક કહ્યો છે અથવા-કેાઇ એક ધૂત પરિવ્રાજકે માયાભાવથી યુક્ત થઈને પ્રત્યેક ગામમા પ્રત્યેક મનુષ્યની સમક્ષ એવી પ્રરૂપણા કરવા માંડી કે “ લેાકના મધ્ય ભાગમાં અર્પણુ કરવામાં આવેલુ દાન મહાફલ પ્રદાન કરનારૂ હાય છે, આ વાત કેવળ હું... જ જાણુ' છું'' ત્યારે તેની આ મિથ્યા પ્રરૂપણાને રાકવાને માટે કેાઇ મુનિએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યુ—“ હું પરિવા Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २४० स्थानागावये भवति तत् कथं बहुपु ग्रामादिषु तत्संभव, इत्येवं युक्त्या त्वदर्शितो लोकमध्यभागो न भवनीति पक्ष स्थापितवानिति स्थापको हेतुः । तृतीयभेदमाह-सए' इति । व्यंसक-व्यंसयति परान् व्यामोहयतीति व्यंसको हेतुः यथा-केनचित् प्रयुक्तम् अस्ति जीवोऽस्तिघटः इति स्वीकारे जीवघटयोरस्तित्वं समानरूपतया वर्तते इति जीवघटयोरेकता-माप्यते अभिन्नगब्दविषयत्वात् , घटशब्दविषयघटस्वरू. परिव्राजक ! लोकका मध्यभाग तो एकही होता है फिर वह प्रत्येक ग्राममें अलग २ रूपमें कैसे संभवित हो सकता है अतः तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित लोक मध्यभाग ठीक नहीं है इस तरहसे उसने अपने पक्षको स्थापित कर लिया इस प्रकारसे अपने पक्षका स्थापन करनेवाला हेतु स्थापक होता है। "वंसए " जो हेतु परको व्यामोहित कर लेता है-व्यामुग्ध कर देता है-वह व्यंसक हेतु है जैसे किसी ने कहा-" अस्ति जीवः अस्ति घटः" इस पर किसीने कहा यदि जीव और घटमें समान रूपसे अस्तित्व रहता है तो जीव और घटमें एकता प्राप्त होती है, क्योंकि उन दोनोंका अस्तित्व अभिन्न शब्दका विषयभूत होता है अर्थात् जीव और घटमें रहा हुआ अस्तित्व " अस्तित्व" इस एकही शब्दके द्वारा वाच्य होता है जैसे घट शब्दसे घट और घटका स्वरूप वाच्य होता है अतः एक शब्द वाच्य होनेसे घट और घटके स्वरूपमें अभिन्नता જક ! લેકને મધ્ય ભાગ તો એક જ હોય છે. તે તે પ્રત્યેક ગામમાં અલગ અલગ રૂપે કેવી રીતે સંભવી શકે છે? તે કારણે તમે પ્રત્યેક ગામ લોકના મધ્ય ભાગ રૂપ હવાની જે પ્રરૂપણ કરે છે તે મિથ્યા છે” આ રીતે તે મુનિએ પોતાની માન્યતાનું પ્રતિપાદન કર્યું. આ પ્રકારે પોતાના પક્ષનું સ્થાપન કરનારે હેતુ સ્થાપક રૂપ હોય છે. "वसए" यस हेतु-२8 ५२२ व्याभडित (व्याभु०५) નાખે છે તે હેતુનું નામ “ભૂંસક હેતુ ” છે જેમ કે—કોઈએ એવું કહ્યું કે "अस्ति जीवः अस्ति घटः " " 0 ५५ छ म घर पर छे બનેનું અસ્તિત્વ છે” ત્યારે કેઈએ એવી દલીલ કરી કે –“જીવ અને ઘડામાં જે સમાન રૂપે અસ્તિત્વ રહેલું હોય તે જીવ અને ઘડામાં એકતા પ્રાપ્ત થાય છે, કારણ કે તે બનેનું અસ્તિત્વ અભિન્ન શબ્દને વિષયભૂત હોય છે–એટલે કે જીવ અને ઘડામાં રહેલું અસ્તિત્વ “અસ્તિત્વ” આ એક જ શબ્દ દ્વારા વાગ્યે થાય છે. જેમ ઘટ શબ્દથી ઘટ અને ઘટનું સ્વરૂપ વાગ્યે થાય છે, તે કારણે એક શખવા હોવાથી ઘટ અને ઘટના સ્વરૂપમાં અભિન્નતા પ્રાપ્ત Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सुधा टीका स्था०४३० सू०४१४ हेतुभेदनिरूपणम् . पवत् यदि जीवादौ अस्तिता न स्वीक्रियते तदा जीवादीनामभाव एव स्यात् अस्तित्वाभावात् इति प्रतिवादिनो व्यामोहकरणाद् व्यंसकोय हेतुरिति । कश्चि दन्तराललब्धतित्तिरीयुक्तेन शकटेन नगर पविष्टः । तत्रैकेन धूतेन कथितम्शकटतित्तिरी कथ लभ्यते १ तेन ज्ञातम्-' अयं किल शकटस्थितां तित्तिरीयाचत इत्यभिप्रायेण कथितवान्-तर्पणालोडिकयेति । ततो धूर्तः सतित्तिरिक आती है इसी प्रकारसे जीव और घटका अस्तित्व भी एक अस्तित्व शब्द वाच्य होने के कारण एकही माना जावेगा और इसकी एकतासे जीव और घट में भी एकत्व आनेका प्रसङ्ग प्राप्त होगा यदि कहा जावे कि हम जीवादिकमें अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं तो जीवादिकोंमें अनस्तित्व आनेसे उनका अभावही स्वीकार करना पड़ेगा, अतः इस तरह के कथनसे जो प्रतिवादीका हेतुवादीको व्यामोह उत्पन्न कर देताहै वह हेतु व्यंसक कहा गया है इस पर दूसरा दृष्टान्त इस प्रकार से भी हैकोई शकटवाहक गाड़ीचान अपनी गाड़ी को जोतकर किसी दूसरे गाव जा रहा था रास्ते में उसने एक तित्तिरी पकड़ कर अपनी गाड़ी में रखली चलते २ वह किसी नगर में पहुँच गया वहां किसी एक धर्तने उससे कहा-इस शकट तित्तिरीका क्या लेते हो? अर्थातू शकट तित्तिरी कितनेमें देते हो ? तब उसकी बातको सुनकर शकटवाहकने ऐसा समझा कि यह शकटमें रक्खी हुई इस तित्तिरीको मांग रही है तब उसने થાય છે, એ જ પ્રમાણે જીવ અને ઘરનું અસ્તિત્વ પણ એક અસ્તિત્વ શબ્દ દ્વારા વા હેવાથી એક જ માનવું પડશે અને તેની એકતાને લીધે જીવ અને ઘટમાં પણ એકત્વ માનવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે. જે એમ કહેવામાં આવે કે અમે જીવાદિકના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરતા નથી, તે જીવા દિકમાં અસ્તિત્વ પ્રાપ્ત થવાને કારણે તેમને અભાવ જ સ્વીકાર પડશે.” આ પ્રકારના કથન દ્વારા પ્રતિવાદીને હેતુ વાદીમાં વ્યાહ ઉત્પન્ન કરી નાખે છે, તેથી તે હેતુને ધક કહેવામાં આવ્યો છે. આ વાતનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે નીચે પ્રમાણે દાન્ત આપવામાં આવ્યું છે—કેઈ એક ગાડાવાળે પિતાનું ગાડું જોડીને કઈ બીજે ગામ જઈ રહ્યો હતો. રસ્તામાં તેણે એક તિત્તિરી પકડી. તે તિત્તિરીને પિતાના ગાડામાં મૂકીને તે ત્યાંથી આગળ વધ્યો, અને કોઈ એક નગરમાં આવી પહોંચ્યા. ત્યાં કઈ એક ધૂતે તેને પૂછયું. આ શકટતિત્તિરીને કેટલામાં વેચવાની છે?” (આ દિ અથી શબ્દપ્રયોગ छ. (१) २४८ साथै तित्तिरी (२) २४८मा २७दी तित्तिरी) त्यारे गावाળાએ તેને કહ્યું–આ શકટતિત્તિરી (ગાડામાં રહેલી તિત્તિરી) હું તર્પણ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० स्थानास शकटं ग्रहीतुं प्रवृत्तः । तेनोक्तं मदीयमेतत् शकटम् । धूर्तेनोक्तम्-त्वमेव शकटतित्तिरीति कथयित्वा दनवान् अतोऽहं शकटहितां तित्तिरी गृह्णामीति साक्षिण आहूय सतित्तिरीकं शक्टं जग्राह । ततो विषण्णः शाकटिक इति शाकटिकव्यामोहकरणादयं व्यंगको हेतुः । चतुर्थभेदमाह-' लूमए' इति । लूपका-लूपयति खण्डयति धृष्पादितमनिष्टमिति लपको हेतुः यथा-स एव शाकटिकोऽन्यधृतसमीपे गत्वा युक्तिं शिक्षित्वा समागतस्तं धृतमयादीत्-भोः ! तर्हि देहि कहा इस शकट तित्तिरीको मैं तर्पणालोडिका....(लत्त)में देता हूं तय वह धूर्त तित्तिरी सहित शाकटको लेने लगा, शकटवाहकने कहा-यह तुमक्या करते हो ? गाडी तो मेरी है तब धूर्त ने कहा-तुमनेही तो "शकटतित्तिरी" ऐसा कहकर इसे तर्पणालोडिका देना स्वीकार किया है इसलिये मैं शकट सहित तित्तिरीको लेतो तुम नहीं सानो तो इन गवाहोंसे पूछ लो इस प्रकारसे उसने उसकी सतित्तिरीक गाडीको ले लिया तब वह शाकटिक चिन्तित हो गया इस तरह से शाकटिकको व्यामोह कर देने के कारण यह व्यंसक हेतु है। ___ "लूसए" जो हेतु द्वारा धूर्तजन ओपादित अनिष्टका खण्डन कर देता है ऐसा वह हेतु लूपक होता है-जैसे जब उस शाकटिककी वह धूर्त गाडी ले लेता है तब वह शाकटिक अन्य धूत्तों के पास जाता है और उनसे युक्तिको सीखकर पुनः उस धूर्त्तके पास आता है और લોડિકામાં (તાવડી કે કડાહી અગર સાથવાને બદલે વેચું છું” ત્યારે તે ધૂર્ત ગાડા તથા તિત્તિરીને લઈને ચાલવા માંડ્યો ત્યારે ગાડાવાળાએ તેને કહ્યું – “આ તમે શું કરો છો ? મારી ગાડી શા માટે લઈ જાઓ છે ?” પેલા પૂર્વે જવાબ माया- तमे १ शतित्तिरी (गाई भने तित्तिरी) galsslil બદલામાં આપવાની વાત કબુલ કરી છે, તેથી હું શકટ અને તિત્તિરી લઈ જાઉં છું. જે તને મારી વાત માનવામાં ન આવતી હોય તે આ બધાં સાક્ષીઓને પૂછીને ખાતરી કરી લે ” આ પ્રમાણે તે પૂર્વે તેના શકટ અને તિત્તિરીને પડાવી લીધાં. તેથી તે ગાડાવાળો ચિતિત થઈ ગયો આ પ્રકારે ગાડી વાળાને વ્યામોહિત કરી નાખનાર હોવાને કારણે આ હેતુ ચુંસકતુ રૂપ છે. ___ "लूसए " सूप तु-२ हेतु धूत- २१ मााहित मनिटर्नु ખંડન કરી નાખે છે એવા હેતુને લૂષક હેતુ કહે છે. જેમ કે – ઉપર્યુક્ત દાન્તમાં ગાડીવાળાની ગાડી તે ધૂર્ત લઈ જાય છે એમ કહે વામાં આવ્યું છે. ત્યારબાદ તે ગાડીવાળો કઈ બીજા ધૂર્ત પાસે જઈને ગાડી પાછી મેળવવાની યુક્તિ શીખી લે છે અને ત્યાર બાદ પિતાની ગાડી Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०४ उ०३ सु० ४१ हेतुमेदनिरूपणम् ર तर्पणाडिकामिति । धूर्तेन स्वभार्या प्रोक्ता - अस्मै सक्तूनालो देहीति । तां च तथा कुर्वतीं तद्भार्या गृहीत्वासौ गन्तुं प्रवृतोऽवादीच धूर्तम् - मदीयेयं भार्या तर्पणमिति सक्तूनालोडयतीति तर्पणालोडिकेति त्वयैव दत्तत्वादिति लूप - कोऽयं हेतुः । सचायं जीवघटयोरेकत्त्वं व्यंसकः स्थापितवान् तत्र लूपको वदति यदि अस्तित्वादिशेषाज्जीवघटयोरेकस्वमापाद्यते तदा सर्वभावानामेवैकथं स्यात् यतः सर्वत्रास्तित्त्रवृत्तेः समानत्वात् नचैवं दृश्यते संभाव्यते वा ततोयं जीवकहता है है भाई लाओ तुम मुझे तर्पणालोडिका दे दो, ने जाकर अपनी भार्या से कहा- तू इसे सक्त सानकर दे दे। जब वह सक्त सानने लगी तो यह उस स्त्रीको लेकर चलने लगा और धूर्त से बोलायह भार्या मेरी है, क्योंकि तर्पणके निमित्त जो सत्तुको सानती है वह तर्पणालोडिका है तर्पणालोडिका को तुम्हींने मुझे कीमत में देना स्वीकार कर लिया है | इस प्रकार से यह हेतु लूषक है व्यंसकने जो जीव और घट में पूर्वोक्त रूपसे एकत्व स्थापित किया है अतः लूषक इस पर उससे कहता है कि यदि अस्तित्वकी अविशेषता लेकर तुम जीव और घटमें एकत्वकी स्थापना करते हो तो सर्व भावों में ही एकत्व हो जावेगा क्योंकि सर्व भावों में अस्तित्व रहता है परन्तु ऐसी बात न कहीं देखी जाती है और न संभवित ही होती है इस तरह से जीव घटनें एकनाका લઈ જનાર પેલા શ્વેત પાસે જઈને કહે છે કે “ ભાઈ, લાએ મને તણાલાડિકા આપી દો ” ત્યારે તે ધૂત તેને પેાતાને ઘેર લઇ ગયેા અને તેણે પેાતાની પત્નીને કહ્યું—તુ' કણેક ખાંધીને આને તર્પણુાલેડિકા દઈ દે ’ જ્યારે તે કણેક ખાંધવા માંડી ત્યારે પેલા ગાડીવાળા તે ધૂતની સ્ત્રીને લઈને ચાલતા થયે. જતાં જતાં તેણે તે ધૂતને કહ્યુ— આ મારી ભાર્યા છે. તે તપણુને નિમિત્તે સત્ત (લેાટની કણેક અથવા સાથવે!) બાંધતી હતી માટે તે તપ`ણાલાડિકા છે, શકતિત્તરીના બદલામાં મને તણાલેકા આપવાની વાત તેં કબૂલ કરી હતી ( અહી તેના ખીજો અથ લેાઢી કે કડાહી થાય છે). આ પ્રકારના આ લૂષક હેતુ સમજવેા. વ્યસક હેતુ દ્વારા જીવ અને ઘટમાં પૂર્વોક્ત રૂપે જે એકત્વ સ્થાપિત કરવામા આવ્યુ છે તેનું લૂષક હેતુ દ્વારા આ પ્રમાણે ખડન કરાય છે જે અસ્તિત્વની વિશેષતા ( સમાનતા ) ને લીધે તમે જીવ અને ઘટમાં એકવની સ્થાપના કરતા હા, તેા સર્વ ભાવેામાં પણ એકત્વ માનવાને પ્રસગ ઉપસ્થિત થશે, કારણ કે સત્ર ભાવેશમાં અસ્તિત્વ રહે છે પરન્તુ એવું કદી જોવામાં પણ આવતું નથી અને એવુ એકત્વ સ`ભવિત પણ હાતું નથી. આ પ્રકારે જીવ અને ઘટમા એકતાનુ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे घटयोरेकत्वापादनरूपस्याभावापत्तिरूपस्य वा परापादितानिष्टस्यानेन लुषितत्वात् ऌपको हेतु भवतीति । " , । " पुनर्देवोश्रातुर्विध्यमाह - अया देऊ चउन्त्रिहे ' इत्यादि । अथवा हेतुश्वतुविंध इत्यत्र अथवाशब्द हेतोः प्रकारान्तरयोतकस्ततः - ' अथवा हेतुश्रुतुर्विधः ' इति । हिनोति गमयति पदार्थमिति हेतुः द्दीयतेऽधिगम्यते पदार्थोऽनेनेति हेतुः पदार्थावगमं प्रति प्रमाणमिति । स चतुर्विधः प्रत्यक्षानुमानौपम्यागमभेदात् । तत्र प्रथमं भेदमाह - पचखखे ' इत्यादि । प्रत्यक्षम् - अश्नुते व्याप्नोत्यर्थानिति अक्षः भात्मा तं प्रति यद्वर्तते ज्ञानं तत्पत्यक्षम् - निश्चयनयतोऽवधिमनः पर्यय केवलज्ञाआपादन करनेवाला अथवा अभावकी आपत्ति प्रकट करनेवाला जो परोक्त अनिष्ट है उसको यह लूषित कर देता है- हटा देता है इसलिये यह लूषक हेतु है अब अन्य प्रकार से भी हेतुकी चलुष्प्रकारता प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं । પર 66 'अहवा हेऊ चउव्विहे" इत्यादि - यहां अथवा शब्द, प्रकारान्तरका धोतक है, जो पदार्थका गमक (बोधक) होता है अथवा पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाता है वह हेतु है । यह हेतु पदार्थ के जानने में प्रमाणरूप होता है | प्रत्यक्ष अनुमानउपमान और आगमके भेद से यह प्रमाणरूप हेतु चार प्रकारका है इनमें “पच्चक्खे" प्रत्यक्ष प्रमाणका स्वरूप ऐसा है जो ज्ञान अक्ष- आत्माकी प्रति-सहायता से उत्पन्न होता है इन्द्रियादिकों की सहायता नहीं वह प्रत्यक्ष है ऐसे प्रत्यक्ष अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान ये આપાદન કરનારું અથવા અભાવની આપત્તિ પ્રકટકરનારૂ' જે પરોક્ત અનિષ્ટ છે તેને આ પ્રકારને હેતુ કૃષિત કરી નાખે છે દૂર કરી નાખે છે, તેથી આ પ્રકારના હેતુને લૂષક હેતુ કહે છે (( હવે સૂત્રકાર હેતુના ખીજી રીતે પણુ ચાર પ્રકાર પ્રકટ કરે છે अहवा हेऊ चन्त्रि " इत्याहि-अडी "" અથવા પદ્મ પ્રકારાન્તરનું દ્યોતક છે. પદાના જેના દ્વારા મેધ થાય છે તેનું નામ હેતુ છે. આ હેતુ પદાર્થને જાણવામાં પ્રમાણુ રૂપ હાય છે. આ પ્રમાણુ રૂપ હેતુના નીચે પ્રમાણે यार र छे. (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (3) उपमान भने (४) आगम, स्व३५ मा प्रास्तु छे ? मोघ) भक्षઇન્દ્રિયાની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થતા અવધિજ્ઞાન, મનઃપયજ્ઞાન અને " पच्चक्खे "---प्रत्यक्ष प्रभानुं આત્માની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થાય છે. નથી, તેને પ્રત્યક્ષ કહે છે. એવા પ્રત્યક્ષ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ सुधा टीका स्था०४ २०३९० ४१ हेतुभेदनिरूपणम् नात्मकम् । अथवा अक्षाणि-इन्द्रियाणि, तानि प्रति वर्तते यत् तत्प्रत्यक्षम् व्यवहा. रतश्चक्षुरादिजनितं ज्ञानम् । लक्षण पुनरिदं तस्य " अपरोक्षतयाथेस्य, ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् ।। प्रत्यक्षमितरत् ज्ञेयं, परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥१॥ ग्रहणेक्षया ग्रहणापेक्षयेत्यर्थः । द्वितीय भेदमाह-' अणुमाणे' इति । अनुमा नम्-अनु-पश्चात् लिङ्गदर्शनव्याप्तिस्मरणयोः पश्चात् मान-ज्ञानमनुमानम् । लक्षणमिदम्तीन ज्ञान है इनमें प्रत्यक्षताका यह कथन निश्चय नयको अपेक्षाले है व्यवहार नयकी अपेक्षासे तो जो ज्ञान अक्ष इन्द्रियोंकी प्रति-सहायताले उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है ऐसा प्रत्यक्षज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान है प्रत्यक्षका लक्षण इस प्रकारसे कहा गया है "अपरोक्षतयाऽर्थस्थ" इत्यादि। जो स्पष्ट रूपसे सर्वथा विशदरूपसे अर्थका ग्राहक होता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष है तथा जो ज्ञान स्पष्टरूपसे पदार्थका ग्राहक नहीं होता है वह परोक्ष है इस गाथाका तात्पर्य ऐसा है मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, और केवलज्ञान इस प्रकारसे ज्ञानके पांच भेद माने गये हैं। इनमें आदिके दो ज्ञान एरोक्ष हैं और बाकी के ३ ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। प्रत्यक्षके भी सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्षके भेदसे दो भेद हैं अवधि मनःपर्यय ये दो देश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष हैं मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है वैसे तो ये परोक्ष हैं। કેવળજ્ઞાન છે. તેમને નિશ્ચયનયની અપેક્ષાએ પ્રત્યક્ષ કહ્યા છે, વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ તે જે જ્ઞાન ઇન્દ્રિયની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થાય છે તેને પ્રત્યક્ષ કહે છે મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન આ પ્રકારના પ્રત્યક્ષ છે. પ્રત્યક્ષનું લક્ષણ આ પ્રમાણે કહ્યુ છે – “अपरोक्षतयाऽथस्य " त्याल-२ स्पट ३२-सर्वथा विश: ३३ અર્થનું ગ્રાહક હોય છે તે જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ ગણાય છે, તથા જે જ્ઞાન સ્પષ્ટ રૂપે પદાર્થનું ગ્રાહક હોતું નથી તેને પરોક્ષ કહે છે આ ગાથાને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જ્ઞાનના પાંચ ભેદ કહ્યા છે. મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન, મન પર્યયજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન તેમાંથી મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન પરોક્ષ છે અને બાકીનાં ત્રણ જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે. પ્રત્યક્ષના પણ બે ભેદ છે–(૧) સકલ પ્રત્યક્ષ અને (૨) વિકલપ્રત્યક્ષ અવધિજ્ઞાન અને મન પર્યજ્ઞાન વિકલ પ્રત્યક્ષ (દેશ પ્રત્યક્ષ) છે અને કેવળજ્ઞાન સકલ પ્રત્યક્ષ છે. મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન પરોક્ષ હોવા છતાં તે બન્નેને સાંવ્યવહારિક પ્રત્યક્ષ માનવામાં આવ્યા Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ " साच्याविनाशुत्र लिंगात, सांध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणस्यात् समक्षवत् " ॥ १ ॥ इति । एतादृशं ज्ञान हेतु जनित मिन्युपचाराद्धे तुरेवानुमानम् । तृतीयभेदमाह - 'ओम्मे ' इति । औपम्यम् - उपमा=सादश्यं तत्साधनमौपम्यम् । अनेन गायेन सदृशोऽसौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपम्, तथोक्तम्"गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा । भूयोऽवयवसामान्य भाजं वर्तुलकण्टकम् ॥ १ ॥ तस्यामेवत्ववस्थायां यद्विज्ञानं प्रवर्तते । पशुनैतेन तुल्योऽसौ, गोपिण्ड इति सोपमा ॥ २ ॥ " turnip सूत्रे " " अणुमाणे " लिङ्ग दर्शन और व्याप्तिके स्मरणके पश्चात् जो ज्ञान होता है वह अनुमान है। इस अनुमानका ऐसा लक्षण कहा है " साध्याविनाभुवो लिङ्गात् इत्यादि । साध्य के साथ अविनाभावी लिङ्ग से जो साध्यका निय्यायक ज्ञान होता है, वह अनुमान है यह अनुमान अभ्रान्त होने से समक्ष प्रत्यक्षकी तरह प्रमाण माना गया है, अनुमान ज्ञान यद्यपि हेतु से जनित होता है परन्तु उसे जो यहां हेतुरूप कहा गया है वह उपचार से कहा गया है " ओवम्भे " गवय (रोग) के समान यह गाय है ऐसी साइप प्रतिपत्ति-समानताका ज्ञान जिससे होता है वह उपमान प्रमाण है सोही कहा है । " गां दृष्ट्वाऽमरण्ये " इत्यादि । कोई मनुष्य गायको देखकर जंगल में गया, वहां उसने 'गवण' रोझ को देखा, तो देखकर उसने विचार भने व्याप्सिना અનુમાનનું નીચે त्याहि- साध्यनी छे. " अणुमाणे " अनुभान - सिंगदर्शन ( लक्षशुनुं दर्शन ) સ્મરણુ બાદ જે જ્ઞાન થાય છે તેનું નામ અનુમાન છે. તે प्रभाणे सक्षषु ४ह्यु ं छे- “ साध्याविनाभुवो लिङ्गात् " સાથે અવિનાભાવી લિંગથી જે સા"નું નિશ્ચયાત્મક જ્ઞાન થાય છે તે અનુમાન છે. આ અનુમાન અભ્રાન્ત હાવાથી સમક્ષ જોઇલે પ્રત્યક્ષની જેમ પ્રમાણભૂત માનવામાં આવ્યુ છે, અનુમાન જ્ઞાન જો કે હેતુનિત હાય છે, પરન્તુ તેનેઅહી‘ જે હેતુરૂપ કહેવામાં આવ્યુ' છે તે ઉપચારની અપેક્ષાએ-ઔપચારિક રીતે કહ્યું છે " ओवम्मे " अपमानप्रमाणु – “ भी गाय राञ नेवी छे " એવી સાદણ્ય પ્રતિપત્તિ-સમાનતાનું જ્ઞાન જેના દ્વારા થાય છે તે પ્રમાણુને ઉપમાન પ્રમાણ કહે છે. એ જ वात "र्गा वाऽयमरण्ये " इत्यादि गाथा द्वारा મકટ કરી છે. કોઇ એક માણસ ગાયને તેઈ ને જ ગલમાં ગયા. ત્યાં તેણે Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था० ४ उ० ३ सू० ४१ हेतुमेवनिरूपणम् ___ चतुर्थ भेदमाह-' आगमे' इति, आगमः-आगम्यन्ते निर्णीयन्ते पदार्थाअने नेत्यागमः आप्तवचनसंपादितं विप्रकृष्टार्थविषयकं ज्ञानम् । तदुक्तम्-" दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाभिधायिनः । तत्व ग्राहितयोत्पन्नं ज्ञानं शाब्दं प्रकीर्तितम् " ॥१॥ आप्तोषज्ञमनुल्लङ्घ्य महण्टेटविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सा शाखे कापथघट्टनम् ॥ २ ॥ इति ४१ 'कापशघट्टन '-मिति कुपथव्यावर्त्तकमित्यथः । किया जैसे-गायके अवयव हैं उसका कण्ठ गोल है, इसी तरह से इसके भी हैं इस तरहसे अवयवोंकी समानतावाले वर्तुल कण्ठवाले उस रोझको देखकर यह ऐसा ज्ञान कर लेता है कि इस पशुके तुल्य गोपिण्ड है, इस तरहका जो उस मनुष्यको ज्ञान हुआहै वह उपमान है "आगमे " पदार्थों का निर्णय जिससे किया जाता है वह आगम है यह ऐसी आगल शब्दकी व्युत्पत्ति है तात्पर्य इससे यही निकलता है कि " आप्तवचनादिनियन्धनमर्थज्ञानमागमः" आप्तके वचनसे उत्पन्न हुआ जो विप्रकृष्टार्थका सूक्ष्म अन्तरित और दूरार्थका ज्ञान है वह आगम है। ___तदुक्तम्-" दृष्टेष्टाव्याहताद्वाश्यात् " इत्यादि । जिसके वचनमें दृष्ट और इष्ट प्रमाणसे-प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे वाधा नहीं आती है और जो पदार्थका स्वरूप जैसा है, वैसाही उसे कथन करता કેઈ એક રેઝ જોયું તેને જોઈને તેના મનમાં એ વિચાર થયો કે – જેવાં ગાયનાં અવયવો છે, એવાં જ આ રોઝના અવયવ છે. ગાયની જેમ રેઝનો કંઠ પણ વર્તુળાકાર છે ” આ પ્રકારે અવયની સમાનતાવાળા અને વર્તુલાકાર કંઠવાળા તે રઝને જોઈને તેને એવું ભાન થાય છે કે આ પશ સમાન ગેપિંડ છે. આ પ્રકારનું તે મનુષ્યને જે જ્ઞાન થાય છે તે ઉપમાન રૂપ છે. “आगमे " हाथ ना नियना २॥ ४२पामा मावे छ । मागम છે,” એવી આગમ પદની વ્યુત્પત્તિ થાય છે. તેનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે छे-" आप्तवचनादिनिवन्धनमर्थज्ञानमागम " पासपुरुषाना (मत व. લીના) વચન દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલું જે વિકૃણાર્થનું સૂમ અન્તરિત અને દૂરथन ज्ञान छ, त मागम छ यु ५५ छे -" दृप्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् " ઈત્યાદિ–જેમનાં વચનમાં દષ્ટ અને ઈષ્ટ પ્રમાણથી-પ્રત્યક્ષ અને અનુમાન પ્રમાણથી-કઈ બાધા (વા) નડતી નથી, અને જે પદાર્થના સ્વરૂપને જેવું Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ स्थानागो पुनरपि हेतोश्चातुर्विध्यमाह--' अहया हेऊ चउबिहे ' इत्यादि । अत्रत्वन्यथानुपपन्नत्तलक्षण हेतु जन्यत्वादनुमानमेव कार्य कारणोपचागत् हेतुः । स चतुविधः चतुर्भगीरूपत्वात् । तत्र प्रथमं भेदमाह-' अत्यित्तं अस्थि सो हे' इति । है ऐले आप्त पुरुषके वचनसे उत्पन्न हुआ जो यथार्थ ज्ञान है वह शाद आगम ज्ञान है । यह ओगम वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशीसे प्रणीत होता है वादी प्रतिवादी इसका खण्डन नहीं कर सकते हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान इनमें से किसीभी प्रमाणसे इसमें बाधा नहीं आनी है वस्तुके यथार्थ स्वरूपका यह प्रतिपादक होता है सय जीवोंका हित साधक होता है और मिश्यामतरूप जो कुपय उससे दूर कराने वाला होता है। __ "अहवा-हेच उबिहे" यहाँ अन्यथानुपपत्ति लक्षणवाले हेतुसे उत्पन्न होने के कारण अनुमानही कार्य में कारण के उपचारमे हेतु कहा गया है तात्पर्य हम कथनका ऐसा है कि अनुमान जो होता है वह अन्यथानुपपत्ति लक्षणवाले हेतु से उत्पन्न होताहै, अतः इस अनुमानका कारण अन्यथानुपपत्ति लक्षणवाला हेतु है, परन्तु यहां पर जो अनुमान रूप कार्यको हेतुरूपसे कहा गया है वह कार्यमें अनुमानमें कारणका अन्यथानुपपत्ति लक्षणवाले हेतुका आरोप कर लिया गया है, इसलिये છે એવું જ પ્રકટ કરે છે એવાં આ પુરુષના વચનથી ઉત્પન્ન થયેલું જે યથાર્થ જ્ઞાન છે તેને આગમ જ્ઞાન કહે છે. આ આગમ વીતરાગ સર્વજ્ઞ અને હિતોપદેશી દ્વારા પ્રણીત હાથ છે, વાદી પ્રતીવાદી તેનું ખંડન કરી શકતા નથી. પ્રત્યક્ષ કે અનુમાન પ્રમાણ દ્વારા પણ તેમાં કઈ પણ બાધા આવતી નથી, તે પદાર્થને યથાર્થ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારુ છે, સમસ્ત જીવોનું દિતસાધક હોય છે અને મિથ્યામત રૂપ જે કુપથ છે તેનાથી દૂર કરાવનાર હોય છે. “ अहवा-हेऊ चउबिहे " मह मन्यथा मनु५५त्ति सक्षवा तु વડે ઉત્પન્ન હોવાને કારણે અનુમાન જ કાર્યમાં કારણના ઉપચારથી હેતુ રૂપ કહ્યું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે–જે અનુમાન થાય છે તે અન્યથા પપત્તિ (બીજી રીતે સાધ્ય વગર ઉત્પત્તિને અભાવ) લક્ષણવાળું હોય છે તેથી આ અનુમાનનું કારણ અન્યથાનુપત્તિ લક્ષણવાળે હેતુ છે, પરંતુ અહીં અનુમાન રૂપ કાર્યને જે હેતુરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે, તે કાર્યમાં–અનુમાનમાં કારણના અન્યથાનુપપત્તિ લક્ષણવાળા છેતુનું આરોપણ કરીને કહેવામાં આવ્યું છે તે કારણે તેને હેતુ રૂપ કહેવામાં આવ્યું છે એ આ અનુમાન રૂપ तु या२ ५४।२। झो है-तेमा ५डेसी ४१२ मा प्रमाणे छ-" अस्ति तत् Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४४०३ सू० ४१ दृष्टान्तभेदनिरूपणम् .२५७ अस्ति विद्यते तदिति लिङ्गभूतं धूमादिवस्तु इति कृत्वा अस्ति वह्नयादिरूपः साध्योऽर्थ इत्येवं हेतुरित्यनुमानम् १। द्वितीयभेदमाह-अस्थित्तं नत्थि सो हेऊ ' इति। अस्तित्वं नास्ति स हेतुरिति । अस्तिवह्निरूपं वस्तु तस्मान्नास्ति यतिविरुद्धः शीतादिरर्थ इत्यपि हेतुरनुमानम् २। तृतीयभेदमाह- नत्थित्तं अस्थि सो हेऊ' इति, नास्तित्वमस्ति सो हेतुः, तथा नास्तिवह्नयादिकोथैः अत' शीतकाले विद्यते शीतादिरर्थ इत्ययमपि हेतुरनुमानम् ३। चतुर्थभेदमाह-' नत्थित्तं नत्थि सो हेऊ' इति, नास्तित नास्ति स हेतुरिति । तथा नास्ति वृक्षरूपोऽथ इवि नारित शिशपारूपोप्यर्थः इत्ययापि हेतुरनुमानमिति ४। ।। सू० ४१ ॥ उसे हेतु कह दिया गया है ऐमा यह अनुमान रूप हेतु चार प्रकारका है-इनमें प्रथम प्रकार " अस्ति तत् अस्त्यसौ " ऐसा है-इसका तात्पर्य ऐसा है कि एक अनुमान ऐमा हो. साधन के होने पर वयादि रूप साध्यवाला होता है १ द्वितीय प्रकार " अस्ति तत् नास्त्यसो" ऐसा होता है इसका भाव ऐसा है कि वह्निरूप वस्तु के होने पर वह्नि विरुद्ध शीतादि स्पर्शवाला नहीं होता है २ तृतीय प्रकार-" नास्तित्वं अ. स्स्यसौ" ऐसा होता है इसका भाव ऐसा है कि वहिके अभावमें शीतादि स्पशवाला होता है और चतुर्थ प्रकार-" नस्थि तं नस्थि" ऐसा होता है इसका भाव ऐसा है कि जहां वृक्षरूप अर्थका अभाव हाता है वहां शिशपारूप अर्थका भी अभार होता है इस तरहसे ये सय हेतु अनुमानरूप होते हैं । तात्पर्य इसका ऐसाहै-" पर्वतोऽयं वह्नि मान् धूमवत्वा " यहां धूमवत्त्व हेतु प्रथम प्रकारवाला है " अत्र शीतअस्यसौ" मेट है मे, मनुमान से डाय छ रे साधनना सदमाવમાં વહ્નિ આદિ રૂપ સાધ્ય વાળું હોય છે એટલે કે “ ધુમાડા રૂપ સાધનો સદૂભાવ હોય તે અગ્નિને પણ સદ્ભાવ હોય છે, ” આ પ્રકારના અર્થનું अतिपाहन ४२नार हाय छे भान ४.२ २ प्रमाणे छ,-" अस्ति तत् नास्यसौ" भेट पलि३५ १२तुन समामा पलिवि३ शीतल २५शવાળું હોતું નથી. त्रीले प्रा२ मा प्रमाणे छ-" नास्तितं अम्त्यसौ” मेट वह्निना અભાવે શીતાદિ સ્પર્શવાળું હોય છે या। प्रा२ प्रभारी छ-" नास्थि तं नथि" छ. स है crii વૃક્ષ રૂપ પદાર્થને અભાવ હોય છે ત્યાં શિંશપારૂપ (શીસમરૂપ) અર્થ પણ અભાવ હોય છે ” આ પ્રમાણે આ બધા હેતુ અનુમાન રૂપ હોય છે. मा समरत ४थननु तात्पर्य नाथे प्रमाणे छ-" पर्वतोऽयं वहिमान् धूमवत्वात् " मही धूमाडाना समाप ३५ उत प्रथम पाणी छे “मत्र शीतस्पर्शी Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे मूलम् - चउनिवहे संखाणे पण्णत्ते, तं जहा पडिकम्मं १, ववहारे २, रज्जू ४, रासी ४ सू० ४२ ॥ छाया - चतुर्विधं संख्यानं प्रज्ञतम्, तद्यथा - परिकर्म १, व्यवहारः २, रज्जुः ३, राशिः ४| || सू० ४२ ॥ टीका - " चउबिहे संखाणे " इत्यादि-संख्यानं - संख्यायते - गण्यतेऽनेनेति संख्यानं = गणितं तच्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - परिकर्म-संकलनव्यवकलनयोजन - विभजनादिरूपं पाटीप्रसिद्धम् १, तथा - व्यवहारः - मिश्रकव्यवहारादिरनेकविधः २, तथा-रज्जुः - रश्मिः, तस्कृतगणितं = क्षेत्रगणितम् ३ | तथा - राशि:त्रैराशिक - पञ्चराशिकादिगणितमिति । ॥ सू० ४२ ॥ ३५८ - (4 " स्पर्शो नास्ति अग्नि सद्भावत् " यह अग्नि सद्भावरूप हेतु द्वितीय प्रकारवाला है अत्र अग्निर्नास्ति शीतस्पर्शसद्भावात् ・ラ यह अनुमान तृतीय प्रकारवाला है और " नास्त्यत्र शिशपा वृक्षाभावात्' यह चतुर्थ प्रकार वाला है यह केवल कथन कीही विचित्रता है वैसे तो अविनाभावी साधन से जो भी साध्यका ज्ञान होता है वह सब अनुमान रूप ही है || सू० ४ १ ॥ 'चविहे संखाणे पण्णत्ते, इत्यादि' सूत्र ४२ ॥ जिससे गिना जाता है वह संख्यान गणित है यह संख्यान रूप गणित चार प्रकारका है, संकलन १, व्यवकलन २, योजन ३ विभजन४ आदि रूप पाटी प्रसिद्ध गणित परिकर्म है, संकलन नाम गुणा करने का है, यांकी करनेका नाम व्यवकलन है जोडका नाम योजन है और भागाकारका नास्ति अग्निवद्भावात् " या अग्नि सहभाव ३५ हेतु मील खाणे छे. 66 અને "" अत्र अग्निर्नास्ति शीतस्पर्शस्रभावात् " मा अनुमान श्रील अमरवाणु है, नास्त्यत्र शिशा वृक्षाभावात् આ ચેાથા પ્રકારવાળુ' અનુમાન છે આ તેા કેવળ કથનની જ વિચિત્રતા ( વિવિધતા) છે. આમ તે અવિનાભાવી સાધન વડે જે કાઇ સાધ્યનુ જ્ઞાન થાય છે તે બધાં અનુમાન રૂપ જ ડાય छे ॥ सू. ४१ ॥ 66 चवि संखाणे पण्णत्ते " धत्याहि - ( सू. ४२ ) मां गतरी ४२• વામાં આવે છે તેનું નામ સખ્યાન-ગણિત છે. તે સ ́ખ્યાન રૂપ ગણિત यार अारनु ऽधुं छे– (१) ससन, (२) व्यवसन, (3) योजन भने (४) વિભજન. આ ચાર પ્રકારનું ગણિત પરિકમ છે. સંકલન એટલે ગુડ્ડાકાર, વ્યવકલન એટલે માદબાકી, ચેાજન એટલે સરવાળા અને વભજન એટલે ભાગાકાર મિશ્ર વ્યવહાર આદિ અનેક પ્રકારનું વ્યવહાર ગણિત છે. માપ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीकास्था०४३०३ सू०४३ अधऊर्ध्वलोकगतान्धकारोद्योतनिरूपणम् २५९ अनन्तरं रज्जुपदेन क्षेत्रगणितमुक्तमिति क्षेत्रसम्बन्धाश्लोकलक्षणक्षेत्रस्य विधा विभस्तस्यान्धकारोद्योतावाश्रित्य सूत्रत्रयेण निरूपणामाह मूलम्-अहोलोगे णं चत्तारि अंधगारं करेंत, तं जहां-- नरगा १, णेरया २, पावाइं कम्माई ३, असुभा पोग्गला ४ (१) तिरियलोगे णं चत्तारि उज्जोयं करोति, तं जहा--चंदा १, सूरा २, मणी ३, जोई ४। (२) उड्डलोगे चत्तारि उज्जोयं करेंत, तं जहा- देवा १, देवीओ २, विमाणा ३, आभरणा ४। (३) । सू० ४३ ॥ - छाया-अधोलोके खलु चत्वारि अन्धकारं कुर्वन्ति, तद्यथा-नरकाः १, नैरयिकाः २, पापानि कर्माणि ३, अशुभाः पुद्गलाः ४। (१) । तियग्लोके खलु चत्वारि उधोतं कुर्वन्ति, तद्यथा-चन्द्राः १, सूर्याः २, मणयः ३, ज्योतिः ४। (२)। ऊर्ध्वलोके खलु चलारि उद्योतं कुर्वन्ति, तद्यथा-देवाः १, देव्यः २, विमानानि ३, आमरणानि ४। (३) ॥ सू० ४३ ॥ टीका-" अहोलोगे णं " इत्यादि-अधोलोके-अधोगस्थितलोके 'खलु'. वक्यिालङ्कारे, चत्वारि वस्तूनि अनुपदं वक्ष्यमाणानि अन्धकारं कुर्वन्ति, तद्यथानाम विभजनहै। मिश्र व्ययहार आदि अनेक प्रकारका व्यवहार गणित है रस्सी आदिसे नापने रूप जो गणितहै वह रज्जु गणितहै तथा रा. शिक एवं पञ्चराशिक आदि रूप जो गणितहै वह राशि गणितहै।सू०४२॥ रज्जुपदसे जो क्षेत्र गणित कहा गया है सो क्षेत्रके सम्बन्धसे तीन प्रकारसे विभक्त लोकरूप क्षेत्रके अन्धकार और उद्योतको लेकर अब सूत्रकार तीन सूत्रोंसे निरूपण करते हैंપટ્ટી આદિ વડે માપવા રૂપ જે ગણિત છે તેનું નામ રજજુ ગણિત છે. ચેર શિક, પંચરાશિક આદિ રૂપ જે ગણિત છે તેનું નામ રાશિગણિત છે સૂ.૪રા. રજુપદ દ્વારા જે ક્ષેત્ર ગણિતનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે ક્ષેત્રના સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર ત્રણે લેકરૂપ ક્ષેત્રના અંધકાર અને ઉદ્યોતનું નિરૂપણ કરવા નિમિત્ત ત્રણે સૂત્રેાનું કથન કરે છે Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानां सूत्रे --- → नरका:-नरकाऽऽवासाः १, तथा नैरयिकाः = निरये भवास्तथा - नारका जीवाः, ते च कृष्णरूपत्वादन्धकारं कुर्वन्ति २ तथा पापानि पापजनकानिकर्माणि - ज्ञानावरणीयादीनि त्वादन्धकारं कुर्वन्ति ३ | तथा-अशुभाः गमशस्ताः पुद्गलाः - अन्धकारतया परिताः सन्तोऽन्धकारं कुर्वन्ति । पुद्गलळक्षणं च अप्रै मिथ्यात्वाज्ञानरूपभावान्धकारजनक ૬૦ (6 सधवारउज्जोओ पद्दा छायाऽऽतवेह वा । नगंधरसा फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ १ ॥ " -" शब्दोऽन्धकार उद्द्योतः प्रभा छायाऽऽतपो वा । वर्ण- गन्ध - रसाः स्पर्शाः पूलानां तु लक्षणम् |१| इंति, एभिर्लक्षणैः पुद्गला लक्ष्यन्ते । (१) छाया "अहो लोगे णं चत्तारि इत्यादि" सूत्र ४३ ॥ अधोलोक में ये चार वस्तुएँ अन्धकार करती हैं जैसे- नरक नरकावास १ नैरयिक- निरयमें रहे हुए नारक जीव २ पापकर्म ज्ञानावरणीय आदि पापजनक कर्म ३ और अशुभ पुद्गल - अप्रशस्त पुद्गल ४ इनमें नारक जीव कृष्ण स्वरूप होने से अन्धकार करते हैं तथा ज्ञानावरणीय आदि आठ पापकर्म मिथ्यात्व अज्ञान रूप भावान्धकार के जनक होने से अन्धकार करते हैं और जो अप्रशस्त पुद्गल होते हैं वे अन्धकार रूपसे परिणत होते हुए अन्धकारको करते हैं पुद्गलका लक्षण इस प्रकार से है - " सद्दधयार उज्जोओ " इत्यादि । शब्द अन्धकार उद्योत प्रभा छाया और आतप ये सब पुद्गल द्रव्यकी पर्याय हैं क्योंकि रूप गंभ रस और स्पर्श इन गुणोंवाला पुद्गल होता है अतः इन पर्यायोंमें ये सब गुण पाये जाते हैं । अहो लोगेणं चत्तारि " त्याहि - ( सू ४३ ) अधोसोम भा यार वस्तुग्यो अधार रेछे (१) न२४ नरावांस, (२) नैरथि - नरशुभां रडेला ना२४ वो, (3) पायाभ - ज्ञानावरणीय माहि पाउ भने (४) અશુભ પુદ્ગલ-અપ્રશસ્ત પુદ્ગલા નારક જીવા કૃષ્ણવ વાળા હૈાવાને કારણે અધકાર કરે છે, જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પાપકમાં મિથ્યાત્વ અજ્ઞાન રૂપ ભાવાષકારના જનક હાવાથી અંધકાર કરે છે. અને જે અપ્રશસ્ત યુદ્ધે હાય છે તે અધકાર રૂપે પરિણુમિત થઇને અધકાર કરે છે. પુદ્ગલનુ લક્ષણ नीचे प्रमाणे छे-" सदधयार उज्जोओ " त्यिाहि - शब्द, अन्धकार, प्रभा, छाया અને આતપ, આ પુદ્ગલદ્રવ્યની પર્યાયે છે, કારણ કે પુદ્ગલ રૂપ, રસ, ગંધ અને પશ, આ ગુણાથી યુક્ત હાય છે. તેથી આ પર્યાયામાં એ બધાં ગુણા હાય છે. 66 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुँधाटीका स्थां०४ उ०१ सू०४३ अधऊर्ध्वलोकगतान्धकारोयो निरूपणम् २६१ " तिरियलोगे णं " इत्यादि - तिर्यग्लो के ' खलु ' प्राग्वत्, चत्वारि वस्तूनि उद्योतं - प्रकाशं कुर्वन्ति, तद्यथा - चन्द्रः १, सूर्याः २, मणयः चन्द्रकान्तसूर्यकान्तादयः ३, ज्योतिः - वह्निः ४ एते चत्वारस्तिर्यग्लोकप्रकाशं कुर्वन्ति, अन्धकारनाशकत्वात् । (२) " 1 " उडूंलोगे णं " इत्यादि -- ऊर्ध्वलोके चत्वारि वस्तूनि उद्योतं - प्रकाश कुर्वन्ति, तद्यथा - देवाः, तेजसशरीरत्वात् तथा देव्यश्व प्रकाशं कुर्वन्ति तथाविमानानि - सौधर्मेश नादीनां देवानां तथा आमरणानि - मणिरचितालङ्काराः, एतानि चत्वारि वस्तूनि ऊर्ध्वलोके प्रकाशं कुर्वन्ति ॥ सु० ४३ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-मविशुद्ध गद्यपद्यनेकग्रन्थ निर्माषक - वादिमानमर्दक - श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुर राजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य पदभूषित - कोल्हापु रराजगुरु बालब्रह्मचारि- जैनाचार्य -- जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री -- घासीलालवतिविरचितायां ' स्थानाङ्गसूत्रस्य ' सुधाख्यायां व्याख्यां चतुर्थस्थानस्य तृतीयोद्देशः समाप्तः ||४-३।। " " तिरियलोगेणं " इत्यादि - तिर्यग्लोक में ये चार वस्तुए प्रकाश करती हैं जैसे - चन्द्रमा १ सूर्य २ चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणि ३ और ज्योति अग्नि४ ये सब अन्धकारनाशक हैं इसलिये ये तिर्यग्लोक में प्रकाश प्रदान करती हैं । 66 'उडलोगेणं " इत्यादि - ऊर्ध्वलोक में ये चार वस्तुएँ प्रकाश करती -हैं जैसे तैजस शरीर वाले होनेसे देव १ देवियां २ सौधर्म ईशान आदि देवोंके विमान और मणिरचित अलङ्कार || सू०४३ ॥ श्री जैनाचार्य श्री घासीलालजी महाराज रचित " स्थानोङ्गसूत्र " की सुधा नामकी व्याख्या के चौथे स्थानका तीसरा उद्देशा समाप्त ४-३ ॥ " तिरियलोगेण " त्याहि तिर्यग्भां मा यार वस्तुमा अाश रे छे. (1) शुन्द्रमा, (२) सूर्य, (3) यन्द्रअन्त, सूर्य अन्त आदि भषि भने (४) અગ્નિની Àાતિ આ ચાર વસ્તુઓ અંધકારના નાશ કરીને તિય ગ્લાકમાં પ્રકાશ પ્રદાન કરે છે. "C उढलोगेणं ” ४त्याहि—– सोभां आ यार वस्तुओ प्रकाश रे छे--(१) हेवा, अरथ तेथे तेन्स्वी शरीरवाजा होय छे (२) देवीओ।, (3) સૌધર્મ, ઇશાન આદિ દેવોનાં વિમાનેા અને (૪) મણિરચિત અલકારે. સૂ ૪૩મા જૈનાચ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે રચેલા “ સ્થાનાંગ સૂત્ર”ની સુધા નામની વ્યાખ્યાના ચેાથા સ્થાનના ત્રીને ઉદ્દેશ સમાસ ૫ ૪-૩ lu Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૧ स्थाना " ॥ अथ स्थानाङ्के चतुर्थस्थाने चतुर्थोद्देशः प्रारभ्यते ॥ उक्तस्तृतीय उद्देशः, सम्मति चतुर्थ आरभ्यते, पूर्वोदेशकेन च सहास्यायममिसम्बन्धः - तृतीये विविधा मावाचतुःस्थानकतया प्रोक्ता, इहापि विविधा एव भावाञ्चतुःस्थानकतया निरूप्यन्ते ' इत्यनेन सम्बन्धेन समायातस्यास्योद्देशकस्येदं प्रथमं सूत्रम् - मूलम् - चत्तारि पसप्पा पण्णत्ता, तं जहा -अणुपपन्नार्ण भोगाणं उत्पाता एगे पसप्पए १, पुष्पन्नाणं भोगाणं अविप्पओगेणं एगे पसपए २, अणुपपन्नाणं सोक्खाणं उप्पाइत्ता एगे पसप्प ३, पुन्नाणं सोक्खाणं अविप्पओगेणं एगे पसप्पए ४| || सू० १ ॥ छाया - चत्वारः प्रसर्पकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अनुत्पन्नानां भोगानामुत्पादयिता एकः सर्पक. १, पूर्वोत्पन्नानां भोगानामविप्रयोगेण एकः प्रसर्पकः २, अनुत्पन्नानां सौख्यानाम् उत्पादयिता एकः प्रसर्पकः ३, पूर्वोत्पन्नानां सौख्यानामविमयोगेण एकः सपैकः ४ | सू० १ । टीका - " चत्तारि पसप्पगा " इत्यादि - अस्यानन्तरसूत्रेणायं सम्बन्धःअनन्तरसूत्रे देवा देव्यश्च निर्दिष्टाः, ते च भोगवन्तः सुखिताश्च भवन्तीति भोगचौथे स्थानका चौथा उद्देशा तृतीय उद्देश कहा अब चतुर्थ उद्देश प्रारम्भ होना है पूर्वोदेशके साथ इस उद्देशका सम्बन्ध ऐसा है कि तृतीय उद्देश में अनेक प्रकार के भाव चार स्थानरूपसे कहे गये हैं सो यहां पर भी विविधही भाव चार स्थानरूपसे निरूपित किये जाते हैं, सो इसी सम्बन्धसे इसका प्रारम्भ हुआ है. 'चत्तारि पप्पा पण्णत्ता' इत्यादि || सूत्र १ ॥ टीकार्थ - इस प्रथम सूत्रका अनन्तर सूत्र के साथ ऐसा सम्बन्धहै कि अनચેાથા સ્થાનના ચોથા શા ત્રીજો ઉદ્દેશક પૂરા થયા. હવે ચેાથા ઉદ્દેશકના પ્રારભ થાય છે. ત્રીજા ઉદ્દેશક સાથે આ ઉદ્દેશાના સંબધ આ પ્રમાણે દે-ત્રીજા ઉદ્દેશામાં અનેક પ્રકારના ભાવેાની ચાર સ્થાનાની અપેક્ષાએ પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે. આ ઉદ્દેશામાં પણ વિવિધ ભાવાનું ચાર સ્થાનાની અપેક્ષાએ નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. " चत्तारि पप्पा पण्णत्ता " इत्यादि - ( १ ) ટીકા 1 આ સૂત્રના પૂર્વસૂત્ર સાથે આ પ્રકારના સંબંધ છે-પૂર્વ દેવમાંસૂત્ર Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ ४०४ सू०१ प्रसर्पकनिरूपणम् ૬૨ सुखाश्रयणेन प्रसर्पकभेदान् निरूपयति तथाहि - प्रसर्पकाः - प्र-प्रकर्षेण सर्पन्ति - गच्छन्ति भोगार्थ देशानुदेशं सञ्चरन्ति यद्वा - आरम्भपरिग्रहतो विस्तारं मातुवन्तीति प्रसर्पकाः जीवात्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एकः कश्चित् सर्पको जीव अनुत्पन्नानाम् भोगानां भुज्यन्ते - सेव्यन्ते इन्द्रियैरिति भोगाः - शब्दादयः, तेषां - शब्दादीनाम्, उत्पादयिता - जनयिता भवति १, इति प्रयमो भङ्गः | १ | तथा - एकः प्रसर्पक पूर्वोत्पन्नानां - माक्सम्पन्नानां भोगानां - शब्दादीनाम् अविप्रयोगेण - अविपयोगाय - रक्षणायेत्यर्थः, प्राकृतत्वाच्चतुर्थ्यर्थे तृतीयाविधानात् भोगार्थ प्रसर्पति । २ । , न्तर सूत्रमें देव और देवियोंका निर्देश हुआ है ये देव देवियां भोगयुक्त और सुखित होती हैं अनः भोगसुखके आश्रयसे सूत्रकार प्रस कोंके भेदोंका निरूपण करते हैं जो प्रकर्ष रूप से भोगादिकके निमित्त एकदेशसे दूसरे देशको जाते हैं सञ्चरण करते हैं वे प्रसर्पक हैं अथवा आरम्भ और परिग्रहसे जो विस्तारको प्राप्त होते हैं वे प्रसर्पक हैं ऐसे प्रसर्पक जीव होते हैं ये चार प्रकारके कहे गये हैं इनमें एक प्रसर्पक जीव ऐसा होता है जो अनुत्पन्न (भोगोंका उत्पादक होता है इन्द्रियों द्वारा जो सेवित किये जाते हैं वे भोग हैं ऐसे भोग शब्दादिक होते हैं यह प्रथम भङ्ग एक प्रसर्पक जीव ऐसा होता है, जो पूर्वोत्पन्न शब्दादिरूप भोगोंके अविप्रयोगके लिये रक्षणके लिये एकदेश से दूसरे देशमें जाता है २ एक सर्पक ऐसा होता है जो शब्दादि भोगों द्वारा होनेवाले सुख विशेषों का उत्पादयिता होता हुआ एकदेशसे दूसरे देशमें जाता है ३ और कोई અને દેવીએના નિર્દેશ થયા છે. તે દેવ, દેવીએ ભાગયુક્ત અને સુખી હાય છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર ભાગસુખ નિમિત્ત દેશવિદેશમાં ગમન કરનારા પ્રસપ'કોના ભેદોનું નિરૂપણ કરે છે. જેમ પ્રક રૂપે ભાગભાગાદિક ભાગવવાને માટે એક દેશમાંથી બીજા દેશમાં જાય છે તેમને 'स' 'छे. અથવા—આરંભ અને પરિગ્રહમાં જેએ વધુને વધુ વૃદ્ધિયુક્ત થતા રહે છે તેમને ‘પ્રસપક ' કહે છે. આવા પ્રસપક જીવા હાય છે. તેમના ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે કહ્યા છે—(૧) કાઈ એક સર્પક જીવ એવા હાય છે કે જે અનુત્પન્ન ભાગેાના ઉત્પાદક હાય છે. (ઈન્દ્રિયા દ્વારા જેનું સેવન થાય છે તે ભાગે છે. એવા ભેગા રાખ્વાદિક રૂપ હાય છે (૨) કાઈ પ્રસપ ક જીવ એવા હાય છે કે જે પૂર્વોત્ત્પન્ન શબ્દાદિ રૂપ ભેગાના રક્ષણ માટે એક દેશથી ખીજા દેશમાં સ‘ચરણ કરે છે. (૩) કૈઈ પ્રસપક જીવ એવા હોય છે Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ स्थानासूत्रे तथा - एकः प्रसर्पकोऽनुत्पन्नानां सौख्यानां - शब्दादिभोगं सम्पाद्य पुखविशेषाणाम् उत्पादयिता सन् प्रसर्पति ३ | तथा -- एकः प्रसर्पकः पूर्वोत्पन्नानां सौख्यानाम् अविमयोगेण- रक्षणाय प्रस पति ४ | मसर्पकाश्च प्रलोभन एव भवन्ति, तदुक्तम् (6 धाव रोहणं तरह सागरं भमर गिरिनिकु जेसु । मारे वधपि हु पुरिसो जो होज्न धणलुद्रो । १ । अडर बहुं बह भरं, सहइ छु पात्रमायर घिो । कुळसीलनापचयद्विच, लोभद्दुओ चयः । २ । " छाया - " धावति रोहणं तरति सागरं भ्रमति गिरिनिकुः खेषु । मारयति बान्धवमपि हि पुरुषो यो भवेद् धनलुब्धः | १ | 1 एक प्रसर्पक ऐसा होता है जो पूवेपिन सुखों के संरक्षण के लिये एकदेश से दूसरे देश में जाता है। प्रसर्पक जीव प्रलोभीही होते हैं । तदुक्तम्कहा भी है “घाइ रोहणं तरह" इत्यादि । जो जीव धनलुब्ध होता है यह 'क्या २ काम नहीं करता है यही इन श्लोकों द्वारा प्रकट किया गया है, धन लुग्धक जीव रातदिन इधर से उधर भमता रहता है समुद्र मार्ग से जाने में भी वह अपने जीवनकी परवाह नहीं करता है भयंकर से भी भयंकर गिरि निकुञ्जों में जानेमें वह नहीं डरता है यहाँ तक कुकृत्य वह धन लुब्धक कर देता है कि वह अपने बन्धुजनों का भी गलाघोट डालता है, भूख की वेदना वह सह लेना है घोरसे घोर पाप वह कर सकता है अपने कुलकी मर्यादा वह तोडता है और शील और કે જે શબ્દાદિ લાગેા દ્વારા પ્રાપ્ત થનારા સુખવિશેષાના ઉત્પાદક બનતા થકા એક દેશમાંથી ખીજા દેશમાં જાય (૪) કાઇ પ્રશ્નક જીવ એવા હાય છે કે જે પૂર્વોત્પન્ન સુખના સરક્ષણ નિમિત્તે એક દેશમાંથી ખીજા દેશમાં જાય છે, असर्प व बोली होय छेउ पशु छे - " धावइ रोहणं तरइ " ઇત્યાદિ-ધનલેાભી જીવ ધનને માટે શું શું નથી કરતા એ વાત આ બ્લેકમાં પ્રકટ કરવામાં આવી છે. ધનલેાભી જીવ રાતદિને ધનપ્રાપ્તિ માટે ભટકચા કરે છે. સમુદ્રમાળે પરદેશ જવાનું જોખમ પણ તે ખેડે છે, ભયંકરમાં ભયંકર પહાડા અને વનાને આળગતા પણ તે ડરતા નથી. ધનલુબ્ધક માણસ ગમે તેવુ' દુષ્કૃત્ય કરતા પાછા હડતા નથી. અરે! ધનને ખાતર તે તે પેાતાના સહેાઢરની પણ હત્યા કરી નાખે છે! તેને ખાતર તે ભૂખની વ્યથા સહુન કરી લે છે, ભયંકરમાં ભયંકર પાપ પણ કરી શકે છે, પેાતાના કુળની મર્યો Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपा दीका स्था०४ उ०४ सू०२ नारकाणामाहारनिरूपणम् ૨૬ अटति वहु वहति भारं सहते क्षुधां पापमाचरति धृष्टः । कुलशीलजातिप्रत्ययस्थितिं च लोभोपद्रुतस्त्यजति ।।" इति ।मु०१॥ पूर्व प्रसर्पका उक्ताः, ते च भोगसौख्यलोभेनैव प्रसर्पन्ति, लोभिनश्च नरकानुवन्धिकर्म समुपायं नारकत्वेनोत्पद्यन्त इति नारकाणामाहारनिरूपणामाह मूलम्—णेरइयाणं चउबिहे आहारे पण्णते, तं जहा-- इंगालोवमे १, मुम्मरोवमे २, सीयले ३, हिमतीयले ४। सू०२।। . छाया-नरयिकाणां चतुर्विध आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अङ्गारोपमः १, मुर्मुरोपमः २, शीतलः ३, हिमशीतलः ४' सू० २।। टीका-"णेरइयाणं " इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-अङ्गारोपमः-अङ्गारतुल्यः, अल्पकालदाहत्वात् १, तथा-मुर्मुरोपमः-सुर्मुरः-करीपाग्निः, तदुपमः-तत्तुल्यः, स्वभावमें आग वह लगा सकता है उसको तो धन मिलना चाहिये इस प्रकोरसे बह जघन्य से भी जघन्य नीच से भी नीच कार्य करनेमें जरा साभी संकोच नहीं करता है ।।०१।। ____ कथित प्रसर्पक जीव भोग एवं सुखके लोभलेही इधरसे उघर जाते हैं, लोभी जीव नरकानुबन्धी कर्मको उपार्जित करके नारककी पर्यायसे उत्पन्न होते हैं अतः अब सूत्रकार नारकोंके आहारकी प्ररूपणा करतेहैं-'णेरइयाणं च उब्धिहे आहारे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र २॥ नैरयिकोंका चार प्रकारका आहार कहा गया है जैसे-अङ्गारोपन १ मुरोपम २ शीतल ३ और हिमशीतल ४ जो आहार अल्प कालतक दाह करनेवाला होता है वह आहार अङ्गारोपम है । जो आहार करीषाग्निके जैसा स्थिरता दाहक होता है वह मुसुरोपम आहार है २ जो દાનો લેપ પણ કરી શકે છે, શીલ અને સ્વભાવમાં આગ પણ લગાવી શકે છે. આ રીતે ધનને ખાતર અધમમાં અધમ કાર્ય કરતાં પણ તે પાછા હઠ નથી. | સૂ ૧ છે પૂર્વોક્ત પ્રસર્પક જીવ ભોગ અને સુખના લોભથી જ દેશવિદેશમાં . સંચરણ કરે છે. એ જીવ નરકાયુબન્ધનું ઉપાર્જન કરીને નારકની પર્યાયે ઉત્પન્ન થાય છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર આહારનું નિરૂપણ કરે છે– "णेरइयाणं चरविहे आहारे पण्णत्ते" त्यहि-(सू. २) नाना पाहा या२ छो 2-(१) म ॥।५म, (२) भुभु२५भ, (3) शीतल, मने (४) मिशीतस. જે આહાર ચેડા કાળ સુધી શરીરમાં દાહ ઉત્પન કરનારો હોય છે તે આહારને અંગારોપમ કહે છે. જે આહાર કરીષાગ્નિ સમાન દીર્ઘકાલિન દાહકતાને જનક હોય છે તેને યુરોપમ આહાર કહે છે. જે આહાર શીત स-३४ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 स्थानाने स्थिरतरदाहत्वात् २, तथा-शीतला-शीतः, शीत वेदनाजनकत्वात् ३, तथाहिमशीतलः-हिमवच्छीतः, अत्यन्तशोतवेदनाजनकत्वात, अयमाहारक्रमः प्रमशोऽधोवर्तिनां नारकाणां बोध्य इति । सू० २। आहाराधिकारात् तिर्यग्मनुष्यदेवानामाहारनिरूपणार्थ सूत्रत्रयमाह मूलम्-तिरिक्खजोणियाणं चउविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहाकंकोवमे १, विलोवमे २, पाणसंसोवमे ३, पुत्तमंसोवमे ४। (१) मनुस्लाणं चउबिहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-असणे जाव साइमे०, (२) देवाणं चउबिहे आहारे पणते, तं जहा-वन्नमंते १, गंधमंते २, रसमंते ३, फासमंते ४।। सू० ३ ॥ ___ छाया-तिर्यग्योनिकानां चतुर्विध आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-कडोपमः १, विलोपमः २, पाणमांसोपमः ३, पुत्रांसोपमः ४। (१) ___मनुष्याणां चतुर्विध आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अशनं यावत् स्वादिमम् ४ देवानां चतुर्विध आहारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वर्णवान् १, गन्धवान् २, रसवान् ३, स्पर्शवान् ४ (३) ॥ सू० ३ ॥ टीका-तिरिक्वजोणियाणं " इत्यादि तिर्यग्योनिकानां-पक्षिप्रभृतीनाम् , आहारश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-कको पमः-सङ्क:-पक्षिविशेषः तस्याऽऽहारः कङ्काऽऽहारः तेनोपमा यस्य स कङ्कोपमः आहार शीतपेदनाका जनक होता है वह शीतल आहार है ३ और जो अत्यन्त शीतवेदनाका जनक होता है वह हिमशीतल आहार है ४ इल प्रकारका यह आहार क्रम क्रमशः अधोऽधोवी नीचे रहनेवालेनारकों को होता है ऐसा जानना चाहिये । सू०२॥ आहारके अधिकारको लेकर अब सूत्रकार निर्यग् मनुष्य और વેદનાને જનક હોય છે તેને શીતલ આહાર કહે છે, જે આહાર હિમ જેવી અત્યંત શીતવેદનાને જનક હોય તેને હિમશીતલ આહાર કહે છે. આહારને આ પ્રકારનો ક્રમ અનુક્રમે વધુને વધુ અધેવતી નારકના નારમાં સમજ એટલે કે તે સૌથી નીચેની નરકમાં–સાતમી નરકમાં-હિમશીતલ આહાર सभाका.॥ सू २ ॥ - આહારનું નિરૂપણ ચાલી રહ્યું છે તેથી હવે સૂત્રકાર તિચ, મનુષ્ય Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था०४ उ ४ सू ३ तिथे मनुष्यदेवानामाद्दारनिरूपणम् , कङ्काssहारोपम इत्यर्थः, अत्राऽऽहाररूपमध्यमपदलोपः, शाकपार्थिवादित्वात्, तिरथामाहारे कङ्काऽऽहार सादृश्यं च - दुर्जरत्वेन सुभक्षत्वेन च ग्राह्यम्, अयं भावःयथा - कङ्कस्य स्वरूपेण दुर्जरोऽप्याहारः सुभक्षः सृपरिणामश्च भवति तथा तेपामपि य आहारो स कङ्कोपमो बोध्य इति १ | देवोंके आहारकी प्ररूपणा तीन सूत्रसे करते हैं— २६७ - 'तिरिक्खजोणियाणं चव्विहे इत्यादि' सूत्र ३ ॥ टीकार्थ- पक्षी आदि निर्यञ्चका आहोर चार प्रकारका कहा गया है जैसेकङ्कोपम १ चिलोपन २ पाणमांसोपम ३ और पुत्र मांसोपम : कङ्कनाम पक्षी विशेषका है इसका जो आहार है वह आहार कङ्काहार है इस आहार के साथ जिस आहारकी उपमा होती है अर्थात् कङ्काके आहारके जैसा होता है यह कट्टाहार है तिर्यञ्चोंके आहारमें कङ्काहारकी समानता दुर्जर होने से सुभक्ष होने से और सुखपरिणाम होने से ग्रहण करना चाहिये, कङ्काहार दुर्जर होता है अर्थात् घड़ी कठिनता से पचता है फिर भी खाने में वह अच्छा होता है एवं इसका पाकभी सुखकारी होता है इसी प्रकार से तिर्यञ्चों का भी एक आहार ऐसा होता है जो दुर्जर होने पर भी सुख भक्ष होता है और सुखद परिणामवाला होता है ऐसा उनका वह आहार कङ्कोपय आहार है १ शब्द चिलमें जाते हुए बिलोपम आहार में विल અને દેવાના આહારનું નિરૂપણ કરે છે “तिरिक्त जोणियाणं चउव्विछे " त्याहि- (सू. 3) ટીકા-પક્ષી આદિ તિય ચાના આહાર ચાર પ્રકારના કહ્યો છે-(૧) ક કાપત્ર, (२) मिसोपस, (3) चाशुभासोपभ भने (४) पुत्रमसोम 55 अर्ध पक्षी વિશેષનું નામ છે તે પક્ષો જે આહાર લે છે તેને કકાહાર કહે છે. તે કક પક્ષીના જેવા આહાર જે તિયચા લે છે તે તિય ચાના આહારને કાપમ આહાર કહે છે. તિર્યંચેાના આહારમાં કકાહારની સમાનતા દુર હાવાથી, સુભક્ષ હાવાથી અને સુખપરણામરૂપ હાવાથી ગૃહીત થવી જોઇએ. કકાહાર દુર હાય છે એટલે કે પચવા મુશ્કેલ હાય છે પણુ ખાવામાં સુખાકારી હાય છે. આ રીતે તિય ચાના એક આહાર એવા હાય છે કે જે પચવા મુશ્કેલ હાય છે પણ ખાવામાં સુખેત્પાદક હોય છે અને સુખદ પરિણામવાળા હાય છે. એવા આહારને કકાયમ આહાર કહે છે. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ स्थांना ___तथा-विलोपम:-अत्र विलशब्दो विले प्रविशद्रव्यपरः तेन विलं विले प्रविश. द्रव्यमित्यर्थः, तेनोपमा यस्य स विलोपमः-यथा-विले शीघ्र प्रविशद्व्यम् अल. धरसाऽऽस्वादं भपति तथा गलबिले शीघ्र प्रविशन् तेपामामारोऽलब्धासाऽऽ. स्वादो भवति । तथा-पाणमांसोपमः-पाण:-श्वपचाण्डाल इत्यर्थः, तन्मांस चाण्डालशरीरमांसं जुगुप्सितत्वेन दुःखाचं दुःखेन खाद्यं तदःखाद्यत्वेन तदुपमस्तिरश्रामाहारः स इति ३। तथा-पुत्रमांसोपमंयथा पुत्रमांसं स्नेहपरतया दुःखाधतरम् अत्यन्तदुःखेन खाद्य भवति तद्गुःखाद्यत्त्वेन तदुपमस्तिरश्चामाहरो भवति, इति ।। एते क्रमेण-समा-ऽशुभा-ऽशुभतरा बोध्याः । (१) ___मणुस्साणं ' इत्यादि-मनुष्याणामाहारश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तधधा-अशनं, ' यावत् '-पदेन पानं खादिमं तथा स्वादिमम् ४। (२) द्रव्यका योधक है, इस बिल में जाते हुए द्रव्यसे जिस आहारको उपमा होती है वह चिलोपम आहार है अर्थात् पिलमें प्रवेश करता हुआ द्रव्य जिस प्रकार अपने रसास्वादका प्रदाता नहीं होता है उसी प्रकारसे जो आहार गलेमें शीघ्रतासे प्रवेश पाता हुआ अपने रसास्वादका जनक नहीं होता है ऐसा वह आहारकि जिसके रसका आस्वाद उपभोक्ताको अलब्ध हो वह बिलोपन आहारहै २ तथा तृतीय प्रकारका जो पाणमांसोपम आहार है यह चाण्डालके शरी. रके मांस जैसा होता है ३ और जो चौथे प्रकारका आहार है वह पुत्रके मांस जैसा होता है ४ ये आहार क्रमसे शुभ, सम, अशुभ और अशुभतर होते हैं ऐसा जानना चाहिये. मनुष्योंका आहार चार प्रकारका होता है जैसे अशन पान खादिम तथा स्वादिम. બિલોપમ આહાર-બિલ એટલે દર અહીં બિલ શબ્દ બિલમાં પ્રવિષ્ટ થતાં દ્રવ્યને વાચક છે. આ બિલમાં પ્રવેશ કરતાં દ્રવ્યની સાથે જે આહારને સરખાવી શકાય છે તે આહારને “બિલોપમ આહાર” કહે છે. એટલે કે ખિલમાં પ્રવેશ કરતો પદાર્થ જે પ્રકારે પોતાના રસાસ્વાદનું પ્રદાન કરાવનાર હેતો નથી એજ પ્રમાણે જે આહાર ગળામાં શીઘ્રતાથી પ્રવિષ્ટ થવાને કારણે પિતાને રસીવાદને પ્રદાતા થતું નથી એવા આહારને બિલોપમ કહે છે. ઉપલેક્તા એવા આહારના રસને આસ્વાદ કરી શકતો નથી. પાણમાં પમ આહાર– આ આહાર ચાંડાળના શરીરના માંસ જે હોય છે. પુત્રના માસ જેવા આહારને પુત્રમાંસેપમ આહાર કહે છે - આ ચારે પ્રકારના આહાર તે અનુક્રમે શુભ, સમ, અશુભ અને અશુભતર ગણાય છે, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०४ आशीविषस्वरूपनिरूपणम् ૨૬૨ " देवाणं " इत्यादि - देवानामाहारश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वर्णवान् = प्रशस्त वर्णसम्पन्नो वाऽतिशयितवर्ण सम्पन्नः, प्रशंसायां वाऽतिशायने मतुव्विधाएवमग्रेऽपि १, तथा - गन्धवान् २, रसवान् ३, स्पर्शवान् ४। ( ३ ) || ०३ || पूर्वमादार उक्तः, स च भक्षणीय इति भक्षणाधिकारादाशीविषान् निरूपयितुमाह नात् मूलम् - चत्तारि जाइ आसीविसा पण्णत्ता, तं जहा - विच्छुअजाइ आसीविसे ९, मंडुक्कजाइ आसीविसे २, उरगजाइ आसीविसे ३, मणुस्सजाइ आसीवसे ४ विच्छुयजाइ आसी - विसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? पभू णं विच्छुजाइ आसीविसे अद्धमरहपमाणमेत्तं बोंदिं विसेणं विसपरिणयं विसहमाणि करित विसए से विसयाए नो चेत्र णं संपत्तीए कासी वा करेइ वा करिस्सइ वा । १ मंडुक्कजाइ आसीविसस्स पुच्छा, पभू णं मंडुककजाइ आसोविले भरहप्पमाणमेतं बोंदि विसेणं विसपरिणयं विसहमाणि सेसं तं चैव जाव करिस्सइ वा २ । उरगजाइ पुच्छा, पभू णं उरगजाइ आसीदिसे जंबूदीवपमाणमत्तं बोदित व जाव करिस्सइ वा ३ | मणुस्तजाइपुच्छा, देवोंका आहार चार प्रकारका होता है जैसे- प्रशस्त वर्णवाला, प्रशस्त गंधवाला, प्रशस्त रसवाला और प्रशस्त स्पर्शवाला अथवा वह प्रशस्त वर्णसम्पन्न होता है अतिशयित वर्णसे युक्त होता है इसी प्रकार गन्धादिकों में भी जानना चाहिये || सू० ३ ॥ મનુષ્યના આહારના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) અશન, (२) पान, (3) माहिम ने (४) स्वाहिभ.. દેવેાના આહારને નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—( ૧ ) પ્રશસ્ત पशुवाणी, (२) प्रशस्त गंधवाणी (3) प्रशस्त रसवाणी मने (४) प्रशस् સ્પર્શીવાળા એટલે કે તેમના આહાર પ્રશસ્ત વણુ સ ́પન્ન હાથ છે, અને અતિશયત્ત વધુ યુક્ત હાય છે એવુ' જ કથન ગન્ધાદિમાં પણ સમજવું. સૂ ૩ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૦ स्थानासो पभू णं मणुस्साजाइआसीविसे समयखेत्तपमाणमेत्तं वोदि विसेणं विसपरिणयं विसहमाणि करित्तए, विसए से विसदृयाए नो चेव णं जाव करिस्सइ वा । सू० ४ ॥ छाया-चयारो जात्याशीविपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वृश्चिकजात्याऽऽशीविषः मण्डूकजात्याऽऽशीविपः २, उरगजात्याऽऽशीविषः ३, मनुष्यजात्याऽऽशीविए:४। वृश्चिकजात्याऽऽशी विपयस्य खलु भदन्त ! कियान् विषयः प्रज्ञप्तः १, प्रभुः खलु वृश्चिकनात्याऽऽशीविपः अभिरतप्रमाणमात्रां बोन्दि विषेण विपपरिणत विदलयन्ती कत्तु, विपयस्तस्य विपार्थतया नैव खल्ल सम्पत्त्या अकाद्वा करोति वा करिष्यति वा ११ मण्डूकनात्याऽऽशी विपस्य पृच्छा, प्रभुः खलु मण्डूकजात्याऽऽशीविषः सरतप्रमाणमात्रां योन्दि विषेण त्रिपपरिणतां विदलयन्ती शेपं तदेव यावत् करिष्यति वा। उरगजातिपृच्छा, प्रसुः खलु उरगजात्याशीविपः जम्बूद्वीपप्रमाणमात्रां योन्दि तदेव यावत् करिष्यति वा, ३ __मनुष्यजातिपृच्छा, प्रमुः खलु मनुष्यजात्याशी विपः समयक्षेत्रप्रमाणमात्रां वोन्दि विषेण विपपरिणतां विदलयन्ती कर्तु, विषयः स विपर्यतया नैव खलु यावत् करिष्यति वा । सू०४ । टीका-" चत्तारि जाइआसीविसा" इत्यादि-जात्याशीविपाः-जातितः जन्मतः आशीविपाः-विषधराः प्राणिनश्चतुर्विधाः प्रोक्ताः, तद्यथा-वृश्चिकजात्या अब सूत्रकार भक्षणके अधिकारको लेकर आशीविषोंकी प्ररूपणा करते हैं-'चत्तारि जाइ आसीविसा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ४॥ आशीविष चार प्रकारके होते हैं जैसे-वृश्चिक जात्याशीविष १ मण्डूकजात्याशीविष २ उरगजात्याशीविप ३ और मनुष्यजात्याशीविष ४ जो प्राणी जातिसे जन्मसे आशीविष विषधर होते हैं वे जात्याशीविष हैं. ભક્ષણને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર આશીવિષેની પ્રરૂપણ કરે છે– " चत्तारि जाइ आसीविसा पण्णत्ता" त्याह-(४) । माशीविष या२ प्रारना ४ा छे-(१) वृश्चिः लत्याशीविष, (२) મક જાત્યાશવિષ, (૩) ઉરગજાત્યાશીવિષ અને (૪) મનુષ્ય જાત્યાશવિષ, જે જીવ જન્મથી જ આશીવિષ (વિષધર) હોય છે તેને “જાત્યાશીવિષ” કહે છે, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०४ आशीविषस्वरूपनिरूपणम् २७१ शीविषः १, मण्डूकजात्याशीविषः २, उरगजात्याशीविपः ३ मनुष्यजात्याशी विषः । तत्र प्रत्येकविषयप्रश्नः " विच्छुयजाई आसीविसस्से "-त्यादि-हे भदन्त ! वृश्चिकजात्याशीविषस्य क्रियान् विषस्य विषयः प्रज्ञप्तः १ इति प्रश्नः, प्रभुराह-हे गौतम ! वृश्चिकजान्याशीविषः खलु अर्द्धभरतपमाणमात्राम्-अर्द्धभरतस्य पमाणं सातिरेकत्रिपपष्टय. धिकशेजनशतद्वयलक्षणमेव मात्राप्रमाणे यस्यास्तां बोन्दि-शरीरं विषेण-करणभू. तेन विषपरिणतां विषव्याप्ताम्,विदलयन्ती-विदलकरणसमर्था परविनाशनशीलामित्यर्थः कर्तुं प्रभुः-समर्थोऽस्ति । तस्य-वृश्चिकस्य विषयः विषार्थतया-विषमेवार्थों विषाथस्तस्य भावो विषार्थता तया नैव खलु सम्पत्त्या-एतादृशशरीरमाप्त्या वृश्चिकः ____०-हे भदन्त वृश्चिक जात्याशीविषके विषका विषय कितना कहा गया है ? ___उ०-वृश्चिकजात्याशीविषका विष, भरतक्षेत्रका जितना प्रमाण है उसके आधे प्रमाणवाले शरीरको व्याप्त कर सकता है उसे विदलन अर्थात् विनाश करने की शक्ति से युक्त कर - सकता है भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६,६ योजनका कहा गया है इसका आधासे कुछ अधिक २६३ योजन होता है इतने बडे शरीरको भी वृश्चिक अपने विषसे विषरूपमें परिणत कर सकता है उसे पूरे रूप में व्याप्त कर सकताहै उसे दूसरेको विनाश करनेवाला कर सकताहै यह ऐसा कथन उसके विषकी शक्तिको प्रकट करने के लिये कहा गया है यद्यपि आज तक ऐसा देखा नहीं गया है न देखा जाता है और न देखा जावेगा परन्तु यदि उसका विष व्याप्त होना चाहे तो પ્રશ્ન–હે ભગવન ! વૃશ્ચિક જાત્યાશીવિષને વિષને વિષય કેટલે કહ્યો છે. ઉત્તર–વૃશ્ચિક જાત્યાશીવિષનું વિષ ભરતક્ષેત્ર કરતાં અર્ધા પ્રમાણુવાળા શરીરને વ્યાપ્ત કરી શકે છે અને તેને વિલન અર્થાત્ વિનાશ કરવાની શકતીથી યુક્ત કરી શકે છે. ભરતક્ષેત્રને વિસ્તાર પર૬ જનને કહ્યો છે તેનાથી અર્ધા એટલે કે ૨૬૩ એજન કરતાં થોડે વધારે જનને વિસ્તાર સમજ. એટલા મોટા શરીરને પણ વીંછી પોતાના વિષથી વિષ રૂપે પરિણુત કરી શકે છે તેને સંપૂર્ણ રૂપે વ્યાપ્ત કરી શકે છે અને તેનાથી બીજાને વિદી અવસ્થાવાળું કરી શકે છે. આ કથન તેના વિષની શક્તિ બતાવવા માટે જ કરવામાં આવ્યું છે જે કે એવું કદી બન્યું નથી, બનતું નથી અને બનવાનું પણ નથી. સૂત્રકાર અહીં એ વાત જ પ્રકટ કરવા માગે છે કે તેનું વિષ અધ જંબુપ્રમાણુ શરી Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હર स्थानाजस्त्रे अकापी दवा करोति वा करिष्यति वा । त्रिकालनिर्देशश्चाशीविपाणां त्रिकालवर्तित्वसूचनार्थः । (१) ___" मंडकनाइआसीविसस्से " त्यादि-प्राग्वत् , नवरम्-मण्डूकसूत्रे 'भरत क्षेत्रप्रमाणमात्रां बोन्दि ' इति, उरगसूत्रे जम्बूद्वीपप्रमाणमात्रां वोन्दि, इति, मनुष्यसूत्रे समयक्षेत्रप्रमाणमात्रां वोन्दिम् , इति बोध्यम् ।। सू० ४ ॥ इतने बडे शरीरमें भी वह पूर्णरूपसे व्याप्त हो सकता है ऐसी उसकी शक्ति है ऐसा कथन उसकी शक्तिके प्रभावको प्रकट करने के लियेही सूत्र कारने कहा है। "मंडकजाह आसीविसे" इत्यादि-इस सूत्रका प्रश्नोदभावन पहिले जैसाही है अर्थात् हे भदन्त ! मण्डूकके विषका विषय कितना कहा गया है ? उत्तर में प्रभुने कहा है कि-मण्डूकका विष भरत. क्षेत्र प्रमाणवाले शरीरको भी अपने प्रभावसे प्रभावित कर सकता है यद्यपि ऐसी बात अभी तक हुई नहीं है, न होती है और न होनेवाली है परन्तु यह उसकी शक्ति मात्रका प्रदर्शन किया गया है इसी तरहसे उरग (सर्प)का जो विष है वह अपने प्रभावसे जम्बूद्वीप प्रमाणवाले शरीरको प्रभावित कर सकता है अर्थात् इतने बडे शरीरमें वह व्याप्त हो सकता है उसे विचलित कर सकता है परन्तु यह केवल उसके प्रभावका प्रदर्शन मात्र है क्योंकि ऐसा न पहिले कभी हुआ है न होने वाला है और न होता है इसी प्रकारसे मनुष्य का जो विष है वह भी રમાં પણ સંપૂર્ણ રૂપે વ્યાપ્ત થઈ શકે છે. તેને વિષની શક્તિને પ્રભાવ બતાવવા માટે જ આ કથન કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું., “ मंडुक्कजाइआसीविसे" त्या:પ્રશ્ન–હે ભગવન ! દેડકાના વિષને વિષય કેટલો કહ્યો છે? ઉત્તર–-દેડકાનું વિષ ભરતક્ષેત્રના જેટલા પ્રમાણુવાળા શરીરને પણ વ્યાપ્ત કરી શકે છે. જો કે એવી વાત કદી બની નથી, બનતી પણ નથી અને બનવાની પણ નથી. આ વાત તે તેના વિષની શક્તિ બતાવવા નિમિત્તિ જ કહેવામાં આવી છે. એ જ પ્રમાણે ઉરગ (સર્પ)નું ઝેર પણ જ બૂદ્વીપપ્રમાણ શરીરને વ્યાપ્ત કરી શકે છે, તેને વિકીર્ણ કરી શકે છે. આ વાત પણ તેના વિષને પ્રભાવ પ્રકટ કરવા નિમિત્તે કરવામાં આવ્યું છે, પરંતુ એવું કદી બન્યું નથી, બનતું નથી અને બનવાનું પણ નથી. એ જ પ્રમાણે મનુષ્યનું વિષ પણ સમયક્ષેત્ર (અઢી દ્વીપ) પ્રમાણ શરીરને પિતાના પ્રભાવથી Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ सुपा टीका स्था०४ उ०४ सू० ५ व्याधिभेदनिरूपणम् विषपरिणामो हि व्याधिरिति तदधिकाराद् व्याधिभेदानिरूपयितुमाह-- म्लम्-चउविहे वाहि पण्णत्ते, तं जहा-वाइए १, पित्तिए २, सिंमिए ३, संनिवाइए ४॥ चउठिवहा तिगिच्छा पण्णत्ता, तं जहा-विजो १, ओसधाई २, आउरे ३, परिचारए ४ ॥ सू० ५॥ छाया-चतुर्विधो व्याधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वातिकः १, पैत्तिकः, श्लैष्मिका ३, सानिपातिकः ।। चतुर्विधा चिकित्सा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-वैद्यः १, औषधानि २, आतुरः ३, परिचारकः । ॥ सू० ५॥ । समय क्षेत्र (अढाई द्वीप) प्रमाणवाले शरीरको अपने प्रभावसे प्रभावित कर सकता है ऐसा जानना चाहिये यह सब कथन किसके विषका कितना विषय है इस बातको प्रकट करने के लिये किया गया है ।।सू०४॥ विषका परिणाम व्याधिरूप होता है अतः अब सूत्रकार व्याधिके भेदोंका निरूपण करते हैं-"चउबिहे वाही पण्णत्ते" इत्यादि सूत्र ५ ॥ सूत्रार्थ-व्याधि चार प्रकारकी कही गई है-जैसे-वातजन्य व्याधि १ पित्तजन्य व्याधि २ कफजन्य व्याधि ३ और सन्निपातजन्य व्याधि ४ चिकित्सा चार प्रकारकी कही गई है जैसे--वातकी चिकित्सा १ पित्तकी चिकित्सा २ कफकी चिकित्सा ३ और सन्निपातकी चिकित्सा ४ પ્રભાવિત કરવાને સમર્થ હોય છે. આ કથન પણ તેને પ્રભાવ બતાવવા નિમિત્તે જ કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું. આ કથન વિછી આદિના વિષને કેટલો વિષય છે તે પ્રકટ કરવા માટે જ કરવામાં આવ્યું છે. એ સૂત્ર ૪ - વિષનું પરિણામ વ્યાધિ રૂપ હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર વ્યાધિના सहानु नि३५ ४२ छ-" चउन्विहे बाही पण्णत" त्याह-सू. ५ सूत्रा-व्याधिना या२ ५४२ ४ छ-(१) वातन्य, (२) पित्तन्य, (3) કફજન્ય અને (૪) સનિપાત જન્ય. शिरिसा यार प्रा२नी ४डी 2-(१) वातनी मिसा, (२) पित्तनी (Asसा, (3) ४३नी यिरिसा मन (४) सन्निपातनी विहिसा. स्था०-३५ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭% स्थामाङ्गसूत्रे D टीका-" चउधिहे वाही" इत्यादि व्याधिः-रोगः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वातिकः-बातो-वायुः, तस्माज्जातो वातिका वायुप्रकोपोत्पन्नः १, पैत्तिकः-पित्तप्रकोपभवः २, श्लैष्मिकःकफप्रकोपजातः ३, सानिपातिक वातादिपु द्वयोस्त्रयाणां वा संयोगजः । वातादीनां स्वरूपमन्यत्राभिहितम् । तत्र वातस्वरूपं यथा "तत्र रूक्षो लघुः १ शीतः २ खरः ३ सूक्ष्म ४ श्चलो ५ ऽनिल " इति । पित्तस्य यथा-पित्तं सस्नेह १ तीक्ष्णो २ ष्णं ३ लघु ४ विथ ५ सरं ६ द्रवम् ७।" इति, कफस्य-यथा-कफो गुरु १ हिंमः २ स्निग्धः ३ प्रक्छेदी ४ टीकार्थ-व्याधि नाम रोगका है वातके प्रकोपसे जो रोग होता है वह वातिक व्याधि है, पित्तके प्रकोपसे जो व्याधि उत्पन्न होती है वह पैतिक व्याधि है, कफके प्रकोपसे जो रोग उत्पन्न होता है वह श्लैष्मिक व्याधि है, एवं वात आदिकोंमें दो या तीनके संयोगसे जो व्याधि उत्पन्न होती है वह सान्निपातिक व्याधि है । वातादिकों का स्वरूप अन्यत्र कहा गया है जैसे-वातका स्वरूप ऐसा है "तत्र रूक्षो लघुः शीतः" इत्यादि अनिल अर्थात् वायु, हलका ठंडा खर कर्कश स्पर्शवाला, सूक्ष्म और चल-चलन स्वभाववाला होता है । पित्तका स्वरूप ऐसा है-"पित्तं सस्नेह तीक्ष्णोष्णं " पित्त चिकना, तीखा, उष्ण-गरम, हलका, कच्चो गन्धवाला सर-सरण-गमन स्वभा. ववाला, द्रव-तरल और ढीला होता है । ટકાથ-વ્યાધિ એટલે રે. વાયુના પ્રકોપથી જે રોગ થાય છે તેને વાતજનિત વ્યાધિ કહે છે. પિત્તના પ્રકોપથી જે રોગ થાય છે તેને પિત્તજન્ય વ્યાધિ કહે છે. કફના પ્રકોપથી જે રોગ થાય છે તેને લેમ્બિક વ્યાધિ (કફ જનિત व्याधि) से छे. વાત, પિત્ત અને કફ, આ ત્રણેના પ્રકોપથી અથવા તેમાંથી ગમે તે બેના પ્રકોપથી જનિત રંગને સાનિ પાતિક વ્યાધિ કહે છે. વાતાદિકનું સ્વરૂપ અન્યત્ર પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. વાતનું સ્વરૂપ નીચે પ્રમાણે કહ્યું છે "तत्र रूक्षो लघुः शीतः " त्या मनिस-पायु-पवन-6aal,831, ખર-ઠેર સ્પર્શવાળ, સૂક્ષ્મ અને ચલ–ચલન સ્વભાવવાળો હોય છે. पित्त २१३५ मा प्रमाणे छ “ पित्तं सस्नेह तीक्ष्णोणं " ,त्यादि पित्त थि४', तीe, , गरम, इस, ४ायी वाणु, स२-२२-गमन સ્વભાવવાળુ દ્રવ–તરલ અને ઢીલું હોય છે, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ ४ सू०५ व्याधिभेदनिरूपणम् રહે स्थिर ५ पिच्छिलः । " इति सन्निपातस्य यथा - सन्निपातस्तु सङ्कीर्णलक्षणो द्वयादिमीलकः " इति । (4 वातादीनां कार्याण्यपि तत्राऽभिहितानि तत्र वातस्य कार्यं यथापारुष्य-सङ्कोचन - तोद - शूल - श्यामत्व - मङ्गव्यथ- चेष्टभङ्गाः । सुप्तत्व-श‍ -शीतल-1 - खरत्व-शोषाः कर्माणि वायोः प्रवदन्ति तज्ज्ञाः | १|" इति । पित्तस्य यथा - परिस्रव - स्वेद - विदाह-रागा वैगन्ध्य-संक्लेद - विपाक - कोपाः । प्रलाप - मूर्च्छा - भ्रमि- पीतभावाः पित्तस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः | २ | " इति कफस्य यथा-श्वेतत्व- शीतत्व - गुरुत्व - कण्डू - स्नेहोप देह - स्तिमितत्वलेपाः कफका स्वरूप ऐसा है- " कफी गुरुर्हिमः स्निग्धः " इत्यादि कफगुरु- भोरी ठंडा चिकना क्लिन्न-गीला स्थिर होता है । सन्निपातका स्वरूप ऐसा है - " सन्निपातस्तु संकीर्ण लक्षणो द्वयादि मीलकः " वातादिकोंके कार्य भी वहां कहे गये हैं- वातका कार्य ऐसा कहा है- " पाहण्यसंकोचनतोदशुल " इत्यादि अर्थात् शरीर में कठिनता, संकोच, सूजन, छूल, श्यामता अंगपीडा और चेष्टाका भंग, अधिक निद्रा होना. शरीर में ठंडापन, खरदरापन और कंठशोष होना इत्यादि है । पित्तका कार्य " परिस्रवस्वेदविदाहरागा " इत्यादि अर्थात् लार आदि टपकना, पसीना, दाह, तग, दुर्गन्ध, गीला, पाककुपित होना, बकना मूच्र्छा, चक्कर चढना, शरीर में पीलापन इत्यादि है । કનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે કહ્યુ' " कफो गुरुर्हिमस्निग्धः " इत्यादि ४३ गुइ-लारे, 'डा, थिथेो, उसीन्न-नरम भने स्थिर होय छे. सन्निपातनुं स्व३ मा अारनुं द्वयादि मीलकः " उधु छे-“ सन्निपातस्तु संकीर्णलक्षणो વાચુતું કાર્ય આ પ્રમાણે કહ્યુ છે " पारुण्यसंकोचनतोदशल " त्याहि अर्थात् शरीरमां णुता, सभेय, सोले, शुद्ध, अजाश, संगयीडा मने ચેષ્ટાના ભંગ તેમજ ઉંઘ વધારે આવવી, શરીરમાં ઠંડાપણું, ખરબચડાપણુક અને કઠોાષ-ગળુ' સુકાવુ' એ રીતે કહ્યું છે. पित्ततु डार्थ–“ परिस्रत्रस्वेदविदाहरागा ” छत्याहि अर्थात् साज सहितुं टपम्वु, परसेवा, ढाड, राग, दुर्गन्ध ढीसायायें, हुचित थवु, जवु, भूर्छा આવવી ચક્કર આવવા, શરીર પીળું પડવુ ઈત્યાદિ હાય છે. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे उत्सेध-सम्पात-चिरक्रियाच कफस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः | ३ |” इति । अनन्तरं व्याधिरुक्तः, अधुना तच्चिकित्सामाह - " चउन्धिदा तिमिच्छा " इत्यादि - चिकित्सा - व्याधिमतीकारः, चतुर्विधा प्रज्ञता, तद्यथा - वैद्यः - प्रसिद्धः १, औषधानि - हरीतक्यादिरूपाणि २, आतुरः- रोगार्त. ३. परिचारकः-शुश्रूषुः, एतत्सूत्रोक्तमपरैरप्यनुदितम् - ૨૯: "( भिषग् द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् । १ । दक्षो विज्ञातशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा शुचिर्भिषक् । बहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौषधम् | २ | अनुरक्तः शुचिर्दक्षो बुद्धिमान् परिचारकः । reat रोगी भquareो ज्ञापकः सत्त्वानपि । ३. । " इति, इति द्रव्यरोगचिकित्सा । कफका कार्य इस प्रकार है- " श्वेतत्व गीतत्व गुरुत्व कण्डू " इत्यादि शरीरमें सफेदी, ठंडक, भारीपन, कण्डू-खाज, चिकनापन, इत्यादि है " चउविहे तिमिच्छा " व्याधि प्रतिकाररूप चिकित्सा चार प्रकार की कही गई है ऐसा कथन करते हैं- इनमें एक कारण वैद्यहै, दूसरा कारण औषधियां हैं, तीसरा रोगार्त है, और चौथा परिचारिक शुश्रूषा करनेवाला है । इस चिकित्सा सूत्रमें जो कहो गया है दूसरे जनोंने भी इसे इस प्रकार से अनुमोदित किया है -- 46 भिषक द्रव्याणि उपस्थाता " इत्यादि । वह जो वैद्य आदिके भेदसे चिकित्सा चार प्रकारकी कही गई है। वह द्रव्यरोगकी चिकित्साको लेकर कहा गया है, मोहरूप भावरोगकी मुइनु કાર્ય આ પ્રમાણે કહ્યું છે "वेतत्वशीतत्त्व गुरुत्वकण्डू " ईत्यादि शरीरमां सङ्गृही, उडङ, लारेयालु एडू- मनवा भाववी, शिष्यायागु ईत्यादि छे. આ પ્રમાણે વ્યાધિએનું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર વ્યાધિઓના अतिार ३५ थत्सानु' उथन रे छे - " चउव्विा तिमिच्छा " ચિકિત્સા ચાર પ્રકારની કહી છે—(૧) ચિકિત્સા કરવામાં પહેલો મદદગાર વૈદ અને છે, (૨) ઔષધિએ પશુ ચિકિત્સામાં કારણભૂત બને છે, (૩) રાગાત (રેગી) પણ તેમાં કારણભૂત ખને છે અને (૪) પરિચારક કે પરિચારિકા પણુ ચિકિત્સામાં કાણુ રૂપ અને છે આ વાતને અન્ય લોકોએ अनुमोहित उरी छे.- " भिषक द्रव्याणि उपस्थाता " इत्यादि वैध माहिना Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ सुधा टीका स्था०४७०४सू०५ व्याधिमेदनिरूपणम् मोहरूपभावरोगचिकित्सात्वेवम्" निविगइ निब्बलोमे तव उद्धट्ठाणमेव उभामे । वेयावच्चाहिंडणमंडलिकप्पट्ठियाहरणं । १ । छाया-" निर्विकृतिः निर्बलम् अवमं तप ऊर्ध्वस्थानमेव उद्भ्रामः । वैयावृत्त्याऽऽहिण्डनमण्डली कल्पस्थिताऽऽहरणम् । १।। अयमर्थ:-निर्विकृतिः-विकृतिपत्याख्यानम् , निर्वलम्-वल्लचणकाद्यन्नविशेषः' अत्रमं-न्यूनम् अवमोदरी, तपः-आचामाम्लादि, ऊर्ध्वस्थानं कायोत्सर्गः, उद्भ्रामोमिक्षार्थभ्रमणम् , वैयावृत्त्यम्-अन्नपानादिभिः साहाय्यकरणम् , आहिण्डनं-देशेषु विहारः, मण्डली-मूत्रार्थ समूहः, एषा मोहचिकित्सा । अत्र आदरणम् उदाहरणंकल्पस्थिता-मर्यादास्थिता कुलवधूः । मू० ५ ॥ पूर्व चिकित्सोक्ता, सा च चिकित्सकाधीनेति चिकित्सकं निरूपयति मूलम्-चत्तारि तिगिच्छया पण्णत्ता, तं जहा- आय तिगिच्छए नाममेगे नो परतिगिच्छए १, परतिगिच्छए नाममेगे चिकित्सा इस प्रकारसे है--" निम्विगइ तिव्वलोमे इत्यादि ) इसका अर्थ इस प्रकारसे है-घृतादि विकृतियोंका प्रत्याख्यान करना निर्बल बल्लादि अन्न विशेषका उपयोग करना, अर्थात् भारी खोराक न लेना अवम-भूखसे काम करना, ऊनोदर तप करना, आचामाम्ल आदिकी तपस्या करना कायोत्सर्ग करना, भिक्षाके निमित्त भ्रमण करना, अन्नपान आदिसे वृद्धग्लान आदि साधुजनोंकी सेवा करना एक देशसेदूसरे देशमें विहार करना और सुत्रका अर्थका और तदुभयका पठन पाठन करना आदि ये सब मोहरूप भावरोगकी चिकित्सारूप है ।सू०५॥ ભેદથી ચિકિત્સા જે ચાર પ્રકારની કહી છે તે દ્રવ્યારોગની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલ છે. મેહરૂપ ભાવરોગની ચિકિત્સા આ પ્રકારની છે– "निविगइ तिव्वलोमे" त्याह. गाथानी भावार्थ नये प्रभारी છે-જી આદિ વિકૃતિઓના પ્રત્યાખ્યાન કરવા, નિઃસત્ત્વ અનાવિશેને ઉપયોગ કર, ભુખ હોય તેના કરતા અલેપ આહાર કર, ઊદરી તપ કરવું, આય બિલ આદિ તપસ્યા કરવી, કાયોત્સર્ગ કરો, ભિક્ષા નિમિત્તે ભ્રમણ કરવુ, વૃદ્ધ, લાન (બિમાર) આદિને માટે અનપાન લાવી દઈને તેમની સેવા કરવી, એકદેશમાંથી બીજા દેશમાં વિહાર કરે, તથા સૂત્રનું, અર્થનું અને તે બન્નેનું પઠન પાઠન કરાવવું, આદિ કાર્યો મેહરૂપ ભાવગની ચિકિત્સા રૂપ છે એમ સમજવું. જે સૂ પા Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૯૮ स्थानास नो आयतिच्छिए । आयतिमिच्छवि, परतिगिच्छवि ३ । नो आयतिगिच्छए तो परतिगिच्छए ४। ( १ ) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - वणकरे णाममेगे णो वणपरिमासी १, वणपरिमासी नाममेगे णो वणकरे २, एगे वणकरेणपरमासी वि ३, एगे णो वणकरे णो वर्णपरिमासी ४ ( १ ) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-वणकरे णाममेगे णो वणसारखी ४ (२) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा वणकरे णाममेगे णो वणसरोही ४ ( ३ ) - तारिवणा पण्णता, तं जहा- अंतोसले नाममेगे णो बहसले ४ ( १ ) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -- अंतोसल्ले णाममेगे णो बासिले ४ (२) चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा - अंतोदुडे णाममेगे णो हिंदुडे, बाहिंदुडे णाममेगे णो अंतोदुट्टे, ४, ( ३ ) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - अंतो दुट्टे णाममेगे णो बाहदुट्ठे ४ ( ४ ) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - सेयसे णाममेगे सेयंसे १, सेयं से णाममेगे पावंसे २, पावसे णाममेगे सेयं से ३, पावसे णाममेगे पासे ४, ( १ ) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - सेयंसे णाममेगे सेयंसेति सालिसए, सेयं से णाममेगे पावसेति सालिसए ४ (-२) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ ४ ६ चिकित्सक स्वरूपनिरूपणम् २७१ चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति मण्णइ, सेयंसेत्ति णाममेगे पावसेत्ति मण्णइ ४, (३) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - संयंसे णाममेगे सेयंसेति सालिसए मण्णइ, सेयंसे णाममेगे पावंसेत्ति सालिसए मण्णइ ४ ( ४ ) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - आघवइत्ता णाममेगं णो परिभावइत्ता, परिभावइत्ता णाममेगे णो आघवइत्ता ४ (५) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - आघवइत्ता णाममेगे णो उंछजीविसंपन्ने, उंछजीविसंपन्ने णाममंगे णो आघवत्ता ४ (६) वा क्खविगुव्वया पण्णत्ता, तं जहा पवालत्ताए १, पत्तत्ताए २, पुष्कत्ताए ३, फलत्ताए ४ (७) ॥ सू० ६ ॥ छाया - चत्वारश्चिकित्सकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - आत्मचिकित्सको नामैको नो पर चिकित्सकः १, परचिकित्सको नामैकः नो आत्मचिकित्सकः २। एक आत्म चिकित्सोऽपि परचिकित्सकोऽपि ३, एको नो आत्मचिकित्सकः नो परचिकित्सकः ४, (१) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-व्रणकरो नामैको नो व्रणपरिमर्शी १, व्रणपरिमर्शी नामैको नो व्रणकरः २, एको व्रणकरोऽपि व्रणपरिमपि ३, एको नो व्रणकरो नो व्रणपरिमर्शी ४ । ( १ ( चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-वणकरो नामैको नो व्रण संरक्षी ० ४। (२) " चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-त्रणकरो नामैको नो व्रणसंरोही ० 81(3) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे (१) चत्वारो व्रणाः प्रज्ञाः, तद्यथा - अन्तःशल्यो नामैको नो वहिः शल्यः, एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - अन्तःशल्यो नामको नो वहिः शल्य: ४, ( २ ) २८० चत्वारो व्रणाः प्रज्ञताः, तद्यथा-अन्तर्दुष्टो नामको नो वहिर्दष्ट, वहिर्दष्टो नामैको नो अन्तर्दुष्टः ० ४ ( ३ ) । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाअन्तर्दुष्टो नामैको नो वहिर्दुष्ट० ४, ( ४ ) 1 चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - श्रेयान् नामैकः श्रेयान् २, श्रेयान् नामैकः पापीयान २, पापीयान् नामकः श्रेयान् ३, पापीयान् नामैकः पापी. यान् ४। ( १ ) 1 चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा श्रेयान् नामैकः श्रेयानिति सदृशकः, श्रेयान् नामकः पापीयानिति सदृशक० ४ ( २ ) चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञतानि तद्यथा श्रेयानिति नामैकः श्रेयानिति मन्यते, श्रेयानिति नामैकः पापीयानिति मन्यते ० ४ ( ३ ) चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि तद्यथा-श्रेयान् नामकः श्रेयानिति सदृशकः मन्यते, श्रेयान् नामकः पापीयानिति सदृशको मन्यते ० ४, ( ४ ) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - आख्यायको नामैको नो परिभावयिता, परिभावयिता नामैको नो आख्यायकः ० ४, (4) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-आख्यायको नामैको नो उञ्छनी. विका सम्बन्नः १, उजीविका सम्पन्नो नामैको नो आख्यायकः ० ४ ( ६ ) चतुर्विधा वृक्षविकुर्वणा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- प्रवालतया १, पत्रतया २, पुष्पतया, फलता | | ० ६ ॥ टीका - " चत्तारि तिमिच्छ्गा " इत्यादि चिकित्सकाः रोगप्रतिकारकाः, ते च द्विधा - द्रव्यतो भावतश्च । तत्र - द्रव्यतोज्वरादिरोगाणाम् भावतस्तु रागादीनां बोध्याः, ते चत्वारः प्रज्ञप्ताः, चिकित्सा रोग प्रतीकार चिकित्सकके आधीन होती है अतः तद्यथा 2 3 अब सूत्रकार चिकित्सककी निरूपणा करते हैं-" चत्तारि तिमिच्छया पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र ६ ॥ टीकार्थ-चार चिकित्सक कहे गये हैं जैसे कोई एक चिकित्सक ऐसा होता है जो अपनी चिकित्सा करता है परकी चिकित्सा नहीं करता है १ ચિકિત્સાના આધાર ચિકિત્સક પર રહે છે તેથી હવે સૂત્રકાર ચિકિ सनु नि३ ४२ छे - " चत्तारि तिमिच्छया पण्णत्तो" इत्याहि--(सू ६) ટીકા –ચિકિત્સક ચાર પ્રકારના કહ્યા છે-(૧) કાઇ એક ચિકિત્સક એવા હાય છે કે જે પેાતાની ચિકિત્સા કરે છે, પણ પરની ચિકિત્સા કરતા નથી. (૨) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०६ चिकित्सकस्वरूपनिरूपणम् ર૮ર एक:-कश्चिचिकित्सकः आत्मचिकित्सकः-आत्मनो ज्वरादेः कामादेर्वा चिकित्सकः-प्रतिकारको भवति, किन्तु नो परचिकित्सकः-परस्य-अन्यस्य ज्वरादेः कामादेर्वा नो चिकित्सकः १, इति प्रथमः ११ - एकः परचिकित्सको भवति न तु आत्मचिकित्सकः २, एक आत्मचिकि कोई एक चिकित्सक ऐसा होता है जो परकी चिकित्सा करताहै, अपनी चिकित्सा नहीं करता है । तीसरा चिकित्सक ऐसा होता है जो अपनी भी चिकित्सा करता है, और परकी भी चिकित्सा करता है । और कोई एक चिकित्सक ऐसा होता है जो न अपनी चिकित्सा करताहै, और न परकी चिकित्सा करताहै ४।अर्थात् चिकित्सक वही होताहै जो रोगका प्रतीकार करनेवाला होता है, ये चिकित्सक द्रव्य और भावकी अपेक्षा दो प्रकारके कहे गये हैं-जो ज्वरादि रोगोंका प्रतीकार करते हैं, वे द्रव्य चिकित्सक हैं और जो रागादि रूप रोगोंका प्रतीकार करते हैं वे भाव चिकित्सक हैं। इन चिकित्सकों केही यहां ये चार प्रकार कहे गये हैं इनमें कोई एक चिकित्सक ऐसा होता है जो अपने ज्वरोदिकोंका या कामा. दिकका प्रतिकारक होताहै पर-अन्यके ज्वरादिका अथवा कामादिकका चिकित्सक नहीं होता है । १ ऐसा यह प्रथम विकल्प है। दसरा कोई एक चिकित्सक ऐसा होता है जो परके ज्वरादिकोंका या . કેઈ ચિકિત્સક એ હોય છે કે જે પરની ચિકિત્સા કરે છે પણ પિતાની | ચિકિત્સા કરતે નથી (૩) કેઈ એક ચિકિત્સક એવો હોય છે કે જે પિતાની ચિકિત્સા પણ કરે છે અને પરની ચિકિત્સા પણ કરે છે. (૪) કેઈ ચિકિત્સક એ હોય છે કે જે પિતાની ચિકિત્સા પણ કરતું નથી અને પરની ચિકિત્સા પણ કરતા નથી. “. ચિકિત્સક એને જ કહી શકાય છે કે જે પિતાના રોગના નિવારણને ઉપાય કરે છે. તેના દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ મુખ્ય બે પ્રકાર પડે છે જે નવરાદિ (તાવ આદિ) ગોના નિવારણને ઉપાય કરે છે તેને દ્રવ્ય" ચિકિત્સક કહે છે, અને રાગાદિ રૂપ રંગોના નિવારણનો ઉપાય કરનારને ભાવચિકિત્સક કહે છે તે પ્રત્યેકના અહીં ચાર ચાર પ્રકાર કહ્યા છે– (૧) કોઈ એક ચિકિત્સક એ હોય છે જે પિતાના જવરાદિને અથવા કામાદિક વિકારેને પ્રતિકાર કરનારે હોય છે પણ પ-બીજાના વરાદિને કે કામાદિ. કને પ્રતિકાર કરવાવાળા દેતા નથી. (૨) કોઈ એક ચિકિત્સક એ હોય છે કે જે અન્યના જવરાદિ રોગને અથવા કામાદિક વિકારોને ચિકિત્સક स्था-३६ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ स्थामा त्सकोऽपि परचिकित्सकोऽपि ३, एको नो आत्मचिकित्सको नो परचिकित्सकः ।४। इति । ___अथाऽऽत्मचिकित्सकान् भेदतः सूत्रत्रयेणाऽऽह-" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक:-आत्मचिकित्सकः, व्रणकर:-वर्ण-शरीरे क्षतं स्वयं करोतीत्येवं शीलो व्रणकरो सपति, किन्तु नो व्रणपरिमर्शी-त्रणं परिमृशति-स्पृशतीत्येवं शीलो व्रणपरिमर्गी व्रणस्पर्शी न भवति । इति प्रथमः १। तथा-एको-त्रणपरिमर्शी भवति किन्तु व्रणकरो न भवति, इति कामादि विकारोंका चिकित्सक होता है अपने ज्वरादिकोंका या कामादिकोंका चिकित्सक नहीं होता है २। तृतीय प्रकारका कोई एक चिकित्सक ऐसा होता है जो अपने ज्वरादिकोंका या कामादिकोंका भी चिकित्सक होता है और परके स्वरादिकोंका या कामादिकोंका भी चिकित्सक होता है ३ । तथा कोई एक चिकित्सक ऐसा होता है जो न अपने ज्वरादिकोंका या कामादिकोंका चिकित्सक होता है , और न. परकेही ज्वरादिकोंका या कामादिकोंका चिकित्सक होता है ४। . । अप.सूत्रकार आत्मचिकित्सकोंका उनके भेदोंको लेकर तीन सूत्रसे कथन करते हैं-" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-- ... पुरुष जात चार कहे गये हैं इनमें कोई एक आत्मचिकित्मक ऐसा होता है जो व्रणकर होता है व्रणपरिमर्शी नहीं होता है अर्थात् जो शरीर में क्षत-घाव स्वयं करता है पर व्रणस्पर्शी नहीं होता है १ । तथा હોય છે, પણ પિતાના જવરાદિકે અથવા કામાદિકને ચિકિત્સક હેત નથી. (૩) કોઈ એક ચિકિત્સક એ હોય છે કે જે પિતાના અને અન્યના વરાદિક રોગો અને કામાદિક વિકારને ચિકિત્સક હોય છે. (૪) કોઈ એક ચિકિત્સક એ હોય છે કે જે પિતાના વરાદિક રોગોને અથવા કામાદિક વિકારોને ચિકિત્સક પણ હેત નથી અને પરના જવરાદિક રાગને અથવા કામાદિક વિકારોને પણ ચિકિત્સક હેતું નથી. હવે સૂવકાર આત્મચિકિત્સકેના ભેદનું ત્રણ સૂત્ર દ્વારા નિરૂપણ કરે छ-" चत्तारि पुरिसजाया" त्यादि-पुरुषांना नीये प्रमाणे या२ १२ yan છે-(૧) કેઈ એક આત્મચિકિત્સક એ હેય છે કે જે વણકર હોય છે પણ ત્રણ પરિમશી લેતો નથી. એટલે કે જે પોતે શરીરમાં ક્ષતિ (વાવ) કરે છે પણ ઘણુરૂશી હેત નથી, (૨) કોઈ એક આત્મચિકિત્સક એ હોય છે Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૩ सुधा टीका स्था० ४ उ०४० ६ चिकित्सक स्वरूपनिरूपणम् द्वितीयः २ | तथा-एको व्रणकरोऽपि व्रणपरिमयपि च भवति । इति तृतीयः ३ । एको नो व्रणकरो नो व्रणपरिमर्शी च भवतीति चतुर्थः । ४ । इति द्रव्यत्रणमाश्रित्य व्याख्या | भावव्रणमाश्रित्य तु - व्रणकरः - व्रणम् - अतिचारलक्षणं करोति कायेनेत्येवंशीलो भवति किं तु न व्रणपरिमर्शी - व्रणमतिचाररूपं परिमृशति - पुनः पुनः स्मरणेन स्पृशतीत्येवं शीलो न भवति इति प्रथमः १ | तथा -एकः - व्रणपरिमर्शी - अतिचारस्य स्मरणेन पुनः पुनः स्पर्शनशीलो भवति किन्तु न व्रणकरः - अतिचारकरणशीलो न भवति कायतः संसारभयादिभिः । इति द्वितीयः २ । एवं शेषभङ्गद्वयम् । 6 'कोई एक आत्मचिकित्सक ऐसा होना है जो व्रणको घावको स्पर्श करता है पर व्रणको करनेवाला नहीं होता है २। कोई एक तीसरा आत्मचिकित्सक ऐसा होता है जो व्रणको करनेवाला भी होता है और व्रणका स्पर्श करनेवाला भी होता ३ | और कोई एक आत्मचिकित्सक ऐसा होता है जो न व्रणकर होता है और न व्रणपरिमर्शीही होता है | यह व्याख्या द्रव्य व्रणको आश्रित करके की गई है भावव्रण को ओश्रित कर के व्याख्या इस प्रकार से है कोई एक आत्मचिकित्सक ऐसा होता है जो कायसे अतिचार रूप व्रणको करनेके स्वभाववाला होता है पर अतिचार रूप उस व्रणको वह पुनः पुनः स्मरणसे स्पर्श नहीं करता है १ कोई एक आत्मचिकित्सक ऐसा होता है जो अतिचार रूप व्रणको पुनः पुनः स्मरण से स्पर्श न करने के स्वभाકે જે ણુસ્પશી હાય છે પણ શુકર (ઘાવ કરનારા) હાતા નથી. (૩)કાઇ એક આત્મચિકિત્સક એવે! હાય છે કે જે વણકર પણ હાય છે અને ત્રણ- સ્પશી પણ ડેાય છે. (૪) કાઇ એક આત્મચિકિત્સક એવા હાય છે કે જે મણુકર પણ હાતા નથી અને ત્રણસ્પશી પણ હાતા નથી. આ ચાર પ્રકારે દ્રવ્યત્રણને અનુલક્ષીને પાડવામાં આવ્યા છે. ભાવત્રણની અપેક્ષાએ આત્મચિકિત્સકના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પડે છે-(૧) કાઈ એક આત્મચિકિત્સક એવા હાય છે કે જે કાયા વડે અતિચાર રૂપ ત્રણુ કરનારા હોય છે, પરન્તુ અતિચાર રૂપ તે ત્રણનું કરી ફરીને સ્મરણ કરનારા હાતા નથી. એટલે કે તે અતિચારના સ્મરણુ વડે સ્પર્શી કરનારા હાતેા નથી. (૨) કોઈ એક આત્મચિકિત્સક એવા હાય છે કે જે અતિચાર રૂપ ત્રણના ફરી ફરીને સ્મરણ વડે સ્પર્શ કરવાના સ્વભાવવાળા હૈાય છે. પશુ સ ́સારના ભય સ્માદિને કારણે - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ __स्थानाजसत्रे "चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक:-कश्चित्पुरुषो व्रणकर:-द्रव्यतः शरीरे क्षतकरः, भावतोऽतिचारलक्षणवणकरो भवति, किन्तु न वणसंरक्षी-द्रव्यतो व्रणस्य पवन्धनादिना संरक्षणकारी भावतोऽतिचारस्य सानुवन्धीभवतः कुशीलादिजनसंसर्गतन्निदानापनयनतः संरक्षणकारी न भवति । इति प्रथमः १। तथा-व्रणसंरक्षी नामैको नो व्रणकरः इति द्वितीयः २, तथा-एको व्रणकरोऽपि व्रणसंरक्ष्यपि ३ इति तृतीयः ३। तथा-एको नो व्रणकरो नो व्रणसंरक्षीति चतुर्थः । भङ्गत्रयं प्रथमभङ्गमनुसृत्य विवरणीयम् । ववाला होताहै, पर संसारके भय आदिसे अतिचार करनेके स्वभाववाला नहीं होताहै इसी तरहसे शेष दो भङ्गोंका कथन भी कर लेना चाहिये। " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुष जात चार कहे गये हैं इनमें से कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो द्रव्यकी अपेक्षा अपने शरीरमें व्रणकर होता है और भावकी अपेक्षा अतिचार रूप व्रण करनेवाला होता है, किन्तु वह द्रव्यकी अपेक्षा उसका पट्टी बांधने आदि रूपसे संरक्षणकारी नहीं होताहै, और भावकी अपेक्षा अनुबन्ध सहित होनेवाले अतिचारका कुशील आदि जनके संसर्गको एवं अतिचारके कारणोंको हटानेसे संरक्षणकारी नहीं होता है ऐसा यह प्रथमभङ्ग है । तथा कोई एक आत्मचिकित्सक ऐसा होता है जो व्रणसंरक्षी होता है पर व्रणकर नहीं होता है २। कोई एक आत्मचिकित्सक ऐसा होता है जो न व्रणकर होता है, और न व्रणसंरक्षी होता है ३। तथा कोई અતિચાર કરવાના વિભાવવાળ હેતે નથી, એજ પ્રમાણે બાકીના બે ભગા પશુ સમજી લેવા. __ " चत्तारि पुरिसजाया "त्याह-पुरुषाना नाय प्रमाणे या२ २ પણ કહ્યા છે-(૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પિતાના શરીરમાં ત્રણ કરનારો હોય છે અને ભાવની અપેક્ષાએ અતિચાર રૂપ વ્રણ કરનારો હોય છે, પરંતુ તે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તેના પર પાટે આદિ બાંધવા રૂપ સંરક્ષણકારી હેતે નથી અને ભાવની અપેક્ષાએ અતિચારના અતિચારના કારણોને દૂર કરવાના સ્વભાવવાળો–સંરક્ષણકારી હોતું નથી, કારણ કે એ માણસ કુશીલવાળા જેનેને સંસર્ગ રાખનારો અને અતિચારોનું સેવન કરનારો હોય છે. (૨) કોઈ એક આત્મચિકિત્સક એ હોય છે કે જે ત્રણ સંરક્ષી હોય છે પણ વણકર હેતો નથી. (૨) કેઈ એક આત્મચિકિત્સક એ હોય છે કે જે વણકર હોય છે પણ ત્રણસંરક્ષી હોતો નથી. (૪) કેઇ એક આત્મ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ४ सू०६ चिकित्सकस्वरूपनिरूपणम् ૨૮ ___ " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तघया-एकः पुरुषो व्रणकरः द्रव्यतः क्षतकरः, भावतोऽति वारकरो भवति, किन्तु व्रणरोही-द्रव्यतो व्रणं संरोहयति-औषधदानादिना नैरुज्य करोतीत्येवंशीलो वणसरोही न भवति, भावतो व्रणमतिचारं संरोहयतीत्येवं शीलो न भवति, प्राय श्चित्ताप्रतिपत्तेः इति प्रथमः १।। तथा-एको व्रणसरोही-द्रव्यतः क्षतनरुज्यकारी, भावतोऽतिचारसंशोधी च पूर्वकृतातिचारप्रायश्चित्तपतिपत्त्या भवति, किन्तु व्रणकर-द्रव्यतः क्षतकरः, भावतस्तु अतिचारकरो न भवति, इति द्वितीयः २॥ एक आत्मचिकित्सक ऐसा होता है जो न व्रणकर होता है और व्रणसंरक्षी होता है ४ इन तीन भङ्गोंकी व्याख्या प्रथम भङ्गकी व्याख्याको हृदयंगम करके कर लेनी चाहिये। ____ " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुनः पुरुष जात चार कहे गये हैं इनमें एक पुरुष ऐसा होताहै जो व्रणकर होताहै, द्रव्यकी अपेक्षा व्रण- . घावको करनेवाला होता है, और भावकी अपेक्षा अतिचार करनेवाला होताहै, किन्तु वह व्रण संरोही (रुझानेवाला) नहीं होताहै-द्रव्यकी अपेक्षा औषधिदान आदिसे उसे निरोग अवस्थावाला नहीं करताहै । और भाव की अपेक्षा उन अतिचारों की प्रायश्चित्त आदि नहीं लेनेसे शुद्धि नहीं करता है, ऐसा यह प्रथमभङ्ग है । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो द्रव्यकी अपेक्षासे व्रणको ठीक करता है और भोवकी अपेक्षासे अतिचारकी शुद्धि करताहै क्योंकि पूर्वकृत अतिचारोंकी शुद्धि प्रायश्चित्तलेनेसे ચિકિત્સક એ હોય છે કે જે વણકર પણ હોતું નથી અને સંરક્ષી પણ હેતો નથી. બીજા, ત્રીજા અને ચોથા વિકલ્પની વ્યાખ્યા પહેલા વિક૯ ની વ્યાખ્યાને આધારે સમજી લેવી. "चत्तारि पुरिसजोया " - Vत्या - पुरुषोना नीचे प्रमाणे यार પ્રકાર પણ પડે છે-(૧) કેઇ એક પુરુષ વણકર હોય છે પણ ત્રણસરોહી હોતો નથી. એટલે કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ત્રણ (વાવ) કરનારે હોય છે અને ભાવની અપેક્ષાએ અતિચાર સેવનારો હોય છે, પરંતુ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઔષધિ આદિ દ્વારા તેને રોગરહિત કરનારો હતા નથી અને ભાવની અપેક્ષાએ પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ દ્વારા તે અતિચારેની શુદ્ધિ કરનારે હેતે નથી. (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ઘણુસંડી હોય છે પણ વણકર હેતો નથી. એટલે કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ત્રણને ઔષધિ આદિ દ્વારા રૂઝવ. ના હોય છે અને ભાવની અપેક્ષાએ પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ દ્વારા અતિચારોની Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ स्थानागसूत्रे ___ एवं-एको व्रणरोह्यपि प्रण करोऽपि इति तृतीयः ३, तथा-एको नो व्रणसं. रोही नो व्रणकरः । इति चतुर्थः । ४ । इत्यात्मचिकित्सकनिरूपणा । अथ चिकित्स्यत्रणं दृष्टान्तीकृत्य पुरुपभेदानाह " चत्तारिवणा" इत्यादि-व्रणाश्चत्वारः प्रत्रताः, तद्यथा-एक:-कश्चिद् व्रणः अन्तःशल्यः-अन्त:-मध्ये शल्यं-यस्यादृश्यमानतया सोऽन्तःशल्यो भवति, किन्तु बहिःशल्यो-वहिः-त्रणस्यान्तर्गताल्पशल्यापेक्षया वहि:प्रदेशे शल्यं यस्य स बहिःशल्यो न भवति इति प्रथमः । १ । तथा-एको बहिशल्यो भवति होतीहै किन्तु व्रणकर द्रव्यकी अपेक्षाक्षतकर(घाव करनेवाला)नहीं होता है और भावकी अपेक्षा अतिचार कर नहीं होता है ऐसा यह द्वितीय भङ्ग है । कोई एक पुरुष ऐमा होताहै,जो व्रण संरोही भी होताहै, और व्रणकर भी होता है ऐसा यह तृतीय भङ्गहै । तथा कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो न व्रणसरोही होता है और न व्रणकर होता है ४ इस प्रकारसे यह आत्मचिकित्सककी निरूपणा है .. अब सूत्रकार चिकित्साके योग्य व्रणको दृष्टान्तभूत करके पुरुष भेदोंका कथन करते हैं " चत्तारि वणा" इत्यादि-व्रण चार प्रकारके कहे गये हैं जैसेकोई एक व्रण ऐसा होता है जो अन्तःशल्यवाला होता है, किन्तु यहिःशल्यवाला नहीं होता है अदृश्यमान होनेसे नहीं दिखलाई पडनेसेमध्यमें है शल्य-दुःख जिसको ऐसा वह व्रण अन्तःशल्यवाला कहा गया , શુદ્ધિ કરનારા હોય છે પરંતુ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ત્રણ (ક્ષત-ઘાવ) કરનારા હેતું નથી અને ભાવની અપેક્ષાએ અતિચાગનુ સેવન કરનારો પણ હવે નથી. (૩) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે વણકર પણ હોય છે અને ઘણુસરોહી પણ હોય છે. (૪) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે વણકર પણ હોતો નથી અને ત્રણસોહી પણ હોતો નથી. આ પ્રમાણે આત્મચિકિ સકનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર ચિકિત્સાને ચેપગ્ય ત્રણના દૃષ્ટાન્ત દ્વારા પુરુષ ભેદનું કથન કરે છે– " चत्तारि वणा" त्याहि-माना नीचे प्रमाणे यार ५४२ ४ा छ'(१) मे प्रण (धाव) अन्त:शयवाणे डाय छ ५५ "नो वहिः शल्य." બહિર્શલ્યવાળો હોતે નથી એટલે કે કઈ વ્રણ એ હોય છે કે જે અદશ્ય માન હવાથી અંદર અંદર વ્યથા કરનારે હોય છે, પણ શરીરના બાહા ભાગમાં પીડા કરનારો હોતો નથી. અથવા કોઈ ત્રણ એ હોય છે કે જે આંતરિક વેદના ઉત્પન્ન કરનારે હોય છે પણ બાહદના ઉત્પન્ન કરનારે Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा रीका स्था०४३०४ सू०६ चिकित्सकस्वरूपनिरूपणम् ૨૮૭ न तु अन्तःशल्यः, इनि द्वितीयः । २। तथा-एकोऽन्तःशल्योऽपि वहिःशल्योऽपि भवति, इति तृतीयः। तथा-एको नो अन्तःशल्यो न बहिःसल्यः,इति चतुर्थः४। ___एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-एवमेव-व्रणवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः कश्चित् पुरुषः अन्तःशल्य-अन्त:-अन्तःकरणवति शल्यम्-अतिचारलक्षणं यस्य स तथा-अनालोचितातिचारो भवति न है बाहरमें जिसकी वेदना नहीं होती है ऐसा वह व्रण " नो बहिः शल्यः " ऐसा कहा गया है तात्पर्य ऐसा कहा गया है कि कितनेक व्रण ऐसे होते हैं जो भीतरही भीतर दुःख देते हैं-बाहरमें उनकी वेदना नही होती है भीतरमें जितनी वेदना होती है उतनी वेदना बाहरमें-बाहरके स्थानमें नहीं होती है ऐसा यह प्रथमभङ्ग है। कोई एक व्रण ऐसा होता है कि जो बहिःशल्यवाला होता है भीतरमें शल्यवाला नहीं होता है अर्थात् जहां वह होता है उतनेही ऊपरी स्थानमें वह वेदनाकारक होता है, भीतरमें वह वेदनाकारक नहीं होता है ऐसा यह द्वितीय भङ्गहै तथा कोई एक व्रण ऐसा होता है जो भीतर बाहर दोनों स्थानोंमें वेदनाकारी होताहै ऐसा यह तृतीयभङ्ग है। तथा कोई एक व्रण ऐसा होता है जो न भीतरही वेदनाकारी होतो है और न घाहरही वेदनाकारी होता है ऐसा यह चौथा भङ्ग है। "एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-इसी तरहसे पुरुष जात - भी चार होते हैं जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होताहै जो केवल अन्तः शल्यवालाही होता है बहिः शल्यवाला नहीं होता है अर्थात् अतिचार रूप હિતે નથી. અથવા અધિક આન્તરિક વેદના અને ઓછી બાહ્ય વેદના કરનારા હોય છે. (૨) કોઈ એક ત્રણ એ હોય છે કે જે બહિર્શલ્યવાળો હોય છે પણ અન્તશલ્યવાળો હેતો નથી. એટલે કે શરીરના જે બાહ્ય ભાગમાં ત્રણ પડ હેય એટલા ભાગમાં જ વેદના ઉત્પન્ન કરનાર હોય છે પણ આંતરિક વેદના ઉત્પન્ન કરનારે હેત નથી. (૩) કેઈ એક વ્રણ એ હોય છે કે જે આંતરિક અને બાહ્ય, અને પ્રકારની વેદના ઉત્પન્ન કરનારે હોય છે. (૪) કેઈ એક એ હોય છે કે જે આંતરિક વેદનાકારી પણ તે નથી અને બાહ્ય વેદનાકારી પણ હેત નથી. "एवामेव चत्तारि पुरिसजोया" त्याह-माना न्या२ प्रत २१ पुरुषना પણ ચાર પ્રકારે કહ્યા છે–(૧) કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે કેવળ અન્ત શલયવાળ હોય છે પણ બહિ શલ્યવાળ હોતે નથી એટલે કે અતિચાર Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ स्थानाने तु वहिःशल्यः-क्रियापरिणतातिचार-आलोचितातिचारो न भवति, इति प्रथमः १, तथा-एको बहिःशल्यो पहिः शल्यमालोचिततया यस्य स तया-आलोचितातिचारो भवति न तु अन्तःशल्यः-अनालोचितातिचारी भवति, इति द्वितीयः २। तथा-एकोऽन्तःशल्योऽपि-अनालोचितातिचारोऽपि वहिःशल्योऽपि आलोचितातिचारोऽपि भवति, इति तृतीयः । तथा-एको नो अन्तःशल्यो न यहि शल्यः। इति चतुर्थः ४ (२) शल्य जिसके अन्तःकरणमेंही रहता है बाहर में नहीं रहता है, याहरमें तो वह जितनी भी क्रियाएँ करता है उनमें अतिचार नहीं लगाता है अतः ऐसा वह मनुष्य क्रिया परिणत अतिचारवाला नहीं होनेसे आलोचित अतिचारवाला नहीं होताहै, इस प्रकारका यह प्रथमभङ्गहै। तथा कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो बहिःशल्यवालाही होताहै, अन्तःशल्यवाला नहीं होना है, ऐसा वह पुरुष बाहिरी क्रिया जो अतिचार लगते हैं, उनकी तो आलोचना नहीं करता है, केवल मानसिक अतिचारोंका ही आलोचना करता है ऐसा वह पुरुष द्वितीयभङ्गमें लिया गया है । तथा तीसरे प्रकारका पुरुप ऐसा होता है जो कायिक और मानसिक दोनों प्रकारके भी अतिचारोंकी आलोचना नहीं करता है अर्थात् मानसिक अतिचारोंकी आलोचना नहीं करनेसे अन्तःशल्यवाला भी होता है, और बाहिरी क्रियामें आगत अतिचारोंकी आलोचना नहीं करनेसे बहिःशल्यवाला भी होता है ऐसा वह पुरुष तृतीयभङ्गवाला होता है । तथा चतुर्थभङ्गमें वह पुरुष રૂપ શલ્ય કેવળ તેના અતઃકરણમાં જ રહે છે, પણ બહાર રહેતું નથી. એટલે કે તેની બાહ્ય ક્રિયાઓ અતિચાર રહિત હોય છે. તેથી તે મનુષ્ય કિયા પરિણત અતિચારવાળે નહીં હોવાથી આલોચિત અતિચારવાળો હોત. નથી, આ પ્રકારનો આ પહેલે ભાંગે છે (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હેય છે કે જે બહિ શલ્યવાળા હોય છે પણ અન્તઃશલ્યવાળ હતો નથી. એ પુરુષ બાહ્ય ક્રિયાકાંડમાં જે અતિચારે લાગે છે તેમની આલોચના તો કરતા નથી, પણ માનસિક અતિચારેની જ આલોચના કરે છે. આ પ્રકારને પુરુષ બીજા ભાંગામાં ગણાવી શકાય છે. (૩) કોઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે કાયિક અને માનસિક અને પ્રકારના અતિચારોની આલોચના કરતા નથી. એટલે કે માનસિક અતિચારોની આલોચના નહીં કરવાને કારણે તે અંતઃશલ્યવાળો પણ હોય છે અને બાહ્ય ક્રિયાકાંડોને લીધે લાગેલા અતિચારોની આલેચના નહીં કરવાને કારણે બાહ્યશલ્યવાળો પણ હોય છે. આ પ્રકારને પુરુષ ત્રીજા ભાંગાવાળે ગણાય છે. (૪) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०६ वृणादिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् २८९ ___पुनर्बणदृष्टान्तसूत्रम्- . - " चत्तारिवणा” इत्यादि-व्रणाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एको व्रणः अन्तदुष्टः-अन्त:-मध्ये दुष्टः-लूतादि दोषयुक्तो भवति, किंतु न बहिर्दुष्टः-वहिातोक्तदोषयुक्तो न भवति, इति प्रथमः । १। तथा-एको बहिर्दुष्टो भवति न त्वन्तर्दुष्टः, इति द्वितीयः २, तथा-एकोऽन्तर्दुष्टोऽपि वहिर्दुष्टोऽपि च भवति, इति तृतीयः ३॥ तथा-एको नो अन्तर्दुष्टो नो वहिर्दुष्टः । इति चतुर्थः ४ (३) आता है जो न अन्तःशल्यवालाही होता है, और न यहिः शल्यवाला ही होता है, ऐसा पुरुष केवलज्ञानी आत्मा ही होता है। पुनश्च-" चत्तारि वणा" इत्योदि-व्रण चार प्रकारके कहे गये हैं-जैसे एक अन्तर्दुष्ट नो बहिर्दुष्ट, १ बहिर्दुष्ट नो अन्तर्दुष्ट २ अन्त १ष्ट भी और बहिर्दुष्ट भी ३ और न अन्तर्दुष्ट नो बहिर्दुष्ट ४ इनमें प्रथम प्रकारका जो व्रण होता है वह भीतरमें तो लूनादि (वातादि रोग) दोषसे युक्त होता है, पर बाहरमें लूतादि (वातादि रोग) दोषसे युक्त नहीं होता है, द्वितीय प्रकारका जो व्रण होता है वह बाहरमेंही लूतादि दोषसे युक्त है भीतरमें लूतादि दोषसे युक्त नहीं होता है । तृतीय प्रकारका व्रण भीतर याहर दोनो जगहमें लूतादि दोषसे युक्त रहता है और चौथे प्रकारका व्रण न भीतरमें लूनादि दोषवाला होता है और न बाहरमेंही लूतादि दोषवाला होता है ४ જે અન્તઃશલ્યવાળે પણ હોતું નથી અને બહિઃશલ્યવાળો પણ હોતે નથી.” કેવળજ્ઞાની જીવને આ પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે આ ચોથો ભાંગે સમજે. “चत्तारि वणा" त्याह-प्रधुनी नीय प्रभार या२ १२ पहा छ-(१) मत नो मडिट, (२) मडिट नो मतट, (3) मतદુષ્ટ અને બહિષ્ટ અને (૪) અંતર્દષ્ટ બહિષ્ટ આ ચારે પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ–પહેલા પ્રકારના ત્રણ અંદરથી તે વાતાદિક દેશથી યુક્ત હોય છે પણ બહારથી વાતાદિ દેષથી યુક્ત હેત નથી, બીજા પ્રકારનો જે વ્રણ કહ્યો છે તે બહારથી તે વાતાદિ દેષથી યુક્ત હોય છે પણ અંદરથી વાતાદિ દેષથી યુક્ત હોતે નથી ત્રીજા પ્રકારને વ્રણ અંદર અને બહાર અને જગ્યાએ વાતાદિ દેષથી યુક્ત હોય છે ચોથા પ્રકારને ત્રણ બહાર પણ વાતાદિ દોષથી યુક્ત હોતું નથી અને અંદરથી પણ વાતાદિ દોષથી યુક્ત હોતે નથી स्था०-३७ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० अथ दाष्टन्तिकपुरुपसूत्रम् - " एवामेव चचारि पुरिसजाया " इत्यादि ――――― स्थानावसूत्रे एवमेव प्रणवदेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एकः कचित् पुरुषोऽन्तर्दुष्टः शठतया भवति किंतु वहिर्दुष्टो न भवति संगोपिताकारत्वात् इति प्रथमः १, तथा - एको बहि दुष्ट:- केनचित्कारणेन बहिरेवोपदर्शितपारुप्यादित्वादुष्टो भवति किन्तु अन्तर्दुष्टो न भवति, इति द्वितीयः २ तथा - एकोऽन्तर्दुष्टोऽपि वहि दुष्टोऽपि च भवति, इति तृतीयः ३. तथा - एको नो अन्तर्दुष्टो नो यहि दुष्टः, इति चतुर्थः । ४ ( ४ ) पुरुषाधिकारात्पुरुष भेदनिरूपणाय पसूत्रीमाह "" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि - पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तपथाएकः पुरुषः श्रेयान् - पूर्वमतिशयेन प्रशस्यः - प्रशस्य भावो भवति, तद्बोधसम्पन्न इसी तरह से पुरुषजात भी चार होते हैं- जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो शठता से भीतर मेंही दुष्ट होता है बाहर में संगोपित आकारवाला होनेसे दुष्ट नहीं होता है, १ कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो किसी कारणवश बाहर से ही कठोरता आदि दिखाने से दुष्ट होता है भीतर से दुष्ट नहीं होता है २, कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो भीतरसेभी दुष्ट होता है, और बाहर से भी दुष्ट होता है, ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता जो न भीतरसे दुष्ट होता है और न बाहर से ही दुष्ट होता है ४ | षट् सूत्री द्वारा पुरुष भेद निरूपण -- "वत्तारि पुरुषजाया" इत्यादि पुरुषजात चार कहे गये हैं जैसेएक श्रेयान् श्रेयान् १ श्रेयान् पापीयान् २ पापीयान् श्रेयान् ३ और अर्थ એજ પ્રમાણે પુરુષાના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) કાઈ એક પુરુષ એવા હાય છે. કે જે તેની આંતરિક શઠતાને કારણે અન્તદુષ્ટ હાય છે, પણ મૃભાવયુક્ત મુખાકૃતિને કારણે ખહિદુષ્ટ હાતા નથી. (૨), એક પુરુષ એવા હાય છે કે જેની મુખાકૃતિ જ કઠાર હાય છે પણ તેનુ અંતઃકરણ દુષ્ટતાયુક્ત હાતું નથી. (૩) કૈઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે અન્તદુષ્ટ પણ હોય છે અને મહિષ્ટ પણ હેાય છે. (૪) કેાઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે અન્તર્દષ્ટ પણુ હાતા નથી અને હિંદુષ્ટ પશુ હોતા નથી, ખાકીના ભાંગાઓનુ સ્પષ્ટીકરણ પહેલા ભાંગાને આધારે સમજી લેવું. છ સૂત્રેા દ્વારા પુરુષ ભેદોનું નિરૂપણુ~~~ " चत्तारि पुरिसजाया " पुरुषोना नीचे प्रभा यार प्रहार यशु थ छे (१) " श्रेयान् श्रेयान् " अ ये पुरुष सेवा होय छे ! ? सहयोध Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ ० ४ सू०६ वृगादिदान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् २९१ वात, स एव पुनः पचादवि श्रेयान् प्रशंस्ताचरणत्वाद्भवति साधुवत् इति प्रथमः १। तथा - एकः - श्रेयान् - पूर्व प्रशस्यभावो भवति स एव पश्चात् तु पापीयान् 'भवति अविरतत्वेन दुष्क्रियाव्यसनित्वात् इति द्वितीयः २ तथा एकः पापीयान-भावतो मिथ्यात्वादिभिरुपहतत्वादतिशयेन पापः- पापकर्मवासनावासितान्तःकरणो भवति स एव केनापि करणेन सदाचारित्वाच्छ्रेयान् प्रशस्यभावो भवति, उदायिनृपघातवत् इति तृतीयः । ३ । तथा एकः पूर्वमपि पापीयान् पश्चादपि पापीयानेव भवति, इति चतुर्थः ॥ ४ ॥ " पापीयान् पापीयान् ४ इनमें प्रथम प्रकारका जो पुरुष होता है, वह सबोधयुक्त होने से पहिले से ही प्रशस्य भाववाला होता है और अन्तर्तक 'भी प्रशस्त आचरणवाला बना रहने से साधुकी तरह प्रशस्त भाववाला "बना रहता है। दूसरे प्रकारका जो पुरुष होता है वह पहिले तो प्रशंस्य भाववाला होता है और पादमें निमित्तवश दुष्क्रिया आदिमें फंस ● जाने के कारण अविरतियुक्त हो जानेसे अत्यन्त पापी बन जाता है ! तृतीय प्रकारका जो पुरुष होता है वह पहिले तो अत्यन्त पापी होता - मिथ्यात्व आदि भावों से आहत होने के कारण पापकर्मों की वासना से अतिशय दूषित अन्तःकरणवाला होता है, पर बाद में वही किसी निर्मि"वेश सदाचारी बन जाने से प्रशस्त भाववाला हो जाता है, जैसे उदायि "राजोको मारनेवाला पुरुष ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता जो अपने जीवन में पहिले भी पापो रहता है और बाद में भी पापी बना रहता है४ अर्थवा યુક્ત હાવાથી પહેલાં પણ પ્રશસ્યભાવયુક્ત હાય છે અને પાછળથી પણુ (માજીવન) પ્રશસ્ત આચરણવાળા જ રહેવાને કારણે સાધુના જેવા પ્રશસ્ત लाववाणी यासु रहे छे (२) " श्रेयान- पापीयान " मे पुरुष पडेलां તા-પ્રશસ્ત ભાવવાળા હાય છે પણ પાછળથી કાઈ પણ કારણે દષ્ક્રિયા 'આદિમાં લપટાઈ જવાથી અવિરતિયુક્ત થઇ જવાથી અત્યંત પાપી બની જાય છે, ( 3 ) " पापीयान् श्रेयान् " अर्थ खेड. पुरुष पसां ध पापी होय छेમિથ્યાત્વ આદિ ભાવેાથી યુક્ત થઈ જવાને કારણે પાપકર્મોની વાસનાથી અતિશય કૃષિત અન્ત કરણવાળા હોય છે, પણ પાછળથી કાઇ સòધ આદિ (નિમિત્ત મળવાથી સદાચારી ખની જવાથી પ્રશસ્ત 'ભાવવાળા ની જાય છે. हाथी नृपने सारवावाजा पुरुषनी भा३४. (४) "पापीयान् पापीयान् " પુરુષ પાતાના જીવનમાં પહેલાં પાયી હાય છે અને પછી પણ પાપી જ રહે છે, Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ . स्थानगिसूत्रे ., यद्वा-एकः पुरुषः पूर्व गृहस्थत्वे वा गृहतो निष्क्रमणकाले श्रेयान् भवति, स एव पुनः प्रत्रज्यायां वा विहारसमये श्रेयान्-प्रशस्वभावो भवति, इति प्रथमः ।१। तथा-एकः पूर्व-गृहस्थत्वे वा निष्क्रमणकाले पापीयान् भवति स एव पुनः प्रव्रज्यायां वा विहारकाले श्रेयान भवति इति द्वितीयः । २। एवं भगद्वयमपि योजनीयम् । ४ । (१) : "चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुनः पुरुपजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषो भावतः श्रेयान् भवति, द्रव्यतस्तु श्रेयान्-अतिप्रशस्य इति. इत्येवं बुद्धिजनकतया सदृशकः-श्रेयसा तुल्यो न तु सर्वथाऽतिप्रशस्य एव भवतीति कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पहिले गृहस्थावस्थामें अथवा गृहसे निष्क्रमण (दीक्षा) कालमें जैसे प्रशस्यभावों युक्त होता है, वैसेही प्रशस्थ भावोंसे युक्त होता है, बसेही प्रशस्त भावोंसे युक्त वह प्रव्रज्यामें या विहार समयमें बना रहता है, ऐसा यह प्रथमभङ्ग है । तथा कोई 'एक ऐसा होता है जो पहिले गृहस्थावस्थाम या निष्क्रमणकालमें अतिशय पापी होता है वही बादमें प्रव्रज्या या विहारकाल प्रशस्त भाववाला हो जाता है ऐला यह द्वितीयभङ्ग है। इसी तरहसे शेष दो भङ्गोंको भी समझ लेना चाहिये १ "चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनश्च-पुरुष चार कहे गये हैं जैसे इनमें कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो भावकी अपेक्षा श्रेयान् प्रशस्त होता है पर द्रव्यकी अपेक्षा तो यह " अतिप्रशस्त है " ऐसी वुद्धिका जनक होनेसे प्रशस्त तुल्य होता है अति प्रशस्तके जैसा होता અથવા આ ચાર ભાંગીને નીચે પ્રમાણે અર્થ પણ થઈ શકે છે-(૧) કોઈ એક પુરુષ ગૃહસ્થાવસ્થામાં અથવા દીક્ષા અંગીકાર કરતી વખતે પ્રશસ્ત ભાવેથી યુક્ત હોય છે અને ત્યાર બાદ પોતાના સમસ્ત દીક્ષાકાળમાં પણ પ્રશસ્ત ભવોથી જ યુક્ત રહે છે. (૨) કેઈ એક પુરુષ પોતાની ગૃહસ્થા-વસ્થામાં અતિશય પાપી હોય છે પણ પ્રવજ્યા અંગીકાર કર્યા બાદ પિતાની - શ્રમણુપર્યાયમાં પ્રશસ્ત ભાવયુક્ત જ રહે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના બે - "चत्तोरि पुरिसजाया"-पुरुषांना नीचे प्रमाणे या२ २ ५] ५३ છે–(૧) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ભાવની અપેક્ષાએ શ્રેયાન (પ્રશસ્ય) હોય છે, અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ “આ માણસ અતિ પ્રશસ્ત છે” આ પ્રકારના ભાવને જનક હોવાથી અતિ પ્રશસ્ત જેવો લાગે છે-સર્વથા અતિ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ ७०४ सू०६ वृणादिष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् २९३ प्रथमः । १ । तथा-एको भावतः श्रेयान् भवन्नपि द्रव्यतः पापीयान् अति पाप इति-इत्येवं बुद्धिजनकतया-सदृशकः-पापीयसा तुल्यो न तु सर्वथाऽतिपाप एव भवतीति द्वितीयः ।२। तथा-पापीयान्नामैकः श्रेयानिति सदृशकः एकः पापी. यान्-भावतोऽतिपापो भवन्नपि संगोपिताकारतया श्रेयानिति-अतिप्रशस्य इत्याकारकबुद्धिजनकतया सदृशकः श्रेयसा पुरुषेण तुल्यो न तु श्रेयान् भवति, इति तृतीयः ३। तथा-एकः पापीयान् पापीयानिति सदृशकः अयं भावतो- द्रव्यतश्च पापीयानेव भवति । इति चतुर्थः ४ (२) है सर्वथा अति प्रशस्तही नहीं होता है १ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है-जो भावकी अपेक्षा श्रेयान् प्रशस्त होता हुआ भी द्रव्यकी अपेक्षा पापीयान्-" अतिपापी है" इस प्रकारको बुद्धिका जनक होनेसे सदृशक-पापीयसा तुल्य होता है अतिपापीके जैसा होता है-सर्वथा अतिपापीही नहीं होता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो भावकी अपेक्षा अतिपापी होता हुआ भी अपने आकारको छिपानेवाला होनेसे " यह अतिप्रशस्त है " इस प्रकारकी बुद्धिका जनक होनेसे अति प्रशस्तके जैसा होताहै, अति प्रशस्त नहीं होता है ३तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो भावकी अपेक्षा अतिपापी होता हुआ भी " यह अतिपापी है " इस प्रकारकी बुद्धिका जनक होनेसे अतिपापी जैसा होता है सर्वथा अतिपापी नहीं होता है, यह भावकी अपेक्षासे और द्रव्यकी अपेक्षासे दोनों अपेक्षासे अतिशय पापीही होता है ४ પ્રશસ્ય હોતો નથી. (૨) કોઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે ભાવની अपेक्षा श्रेयान् (प्रशस्य) डा। छतi ५४] द्रव्यनी अपेक्षा "पापीयान" આ માણસ અતિ પાપી છે, આ પ્રકારના ભાવને જનક હોવાથી અતિ પાપી જે હોય છે–સર્વથા અતિપાપી હોતું નથી. (૩) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ભાવની અપેક્ષાએ અતિપાપી હોવા છતાં પણ પોતાના મનભાવને મુખ પર પ્રકટ નહીં થવા દેવાને કારણે “આ માણસ અતિ પ્રશસ્ય છે ? આ પ્રકારના ભાવને જનક હોવાથી અતિ પ્રશસ્ય જેવો લાગે છે પણ ખરી રીતે અતિ પ્રશસ્ય હોતો નથી. (૪) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ભાવની અપેક્ષાએ અતિપાપી હોય છે, અને પિતાના મને ભાવેને છૂપાવી નહીં શકવાને કારણે “આ માણસ અતિ પાપી છે. આ પ્રકારના ભાવને જનક હોવાથી અતિ પાપી જેવો લાગે છે–સર્વથા અતિપાપી હોતું નથી. તે માણસ ભાવની અપેક્ષ એ પણ અતિપાપી હોય છે અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ અતિપાપી જ હોય છે. કે . ” Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्थानाने __" चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-स्पष्टम्-नवरम् एकः श्रेयान्-अतिपश. स्यभावो भवति सद्वृत्तत्वात्तस्मादहं श्रेयान्-प्रशस्यभावोऽस्मीत्यात्मानं मन्यते, यथावरोधात् , यद्वा-प्रशस्यतराचरणात् स श्रेयानिति लोकेन मन्यते स्वीक्रियते, अस्मिन् पक्षे कर्मणि प्रत्यये यक् । प्रथमपक्षे तु देवादिकः श्यन् कतरि, । इति "प्रथमः १। एकः श्रेयान् भवन्नपि आत्मन्यरुचितत्परत्वात् पापीयानेहमित्यात्मनि 'मन्यते-स्त्रीकरोति, यद्वा-यान् सन्नपि लोकेन पूर्वलब्धतद्दोपेण पापीयानितिमन्यते-स्वीक्रियते, दृढपहारिचोरवत् । इति द्वितीयः २। तथा-एकः पापीयानपापतरोऽपि मिथ्यात्वाद्युपहततयाऽहं श्रेयान् अति प्रशस्योऽस्मीत्यात्मानं मन्यते पुनश्च-" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-स्पष्ट है इनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अतिशय प्रशस्त (अच्छे) भाववाला होता है क्योंकि यह सवृत्तवाला होता है, इसलिये मैं प्रशस्त भाववाला हूं इस प्रकारसे अपनेको यथावबोधसे मानताहै अथवा-अतिप्रशस्त चिरणवाला होनेसे वह अतिशय प्रशस्तभाववाला है, ऐसा लोकों द्वारा स्वीकार किया जाता है १ कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो अति प्रशस्त भाववाला होता हुआ भी अपनेमें अरुचिवाला होनेसे मैं अति'पापीहू" ऐसा अपने आपको मानता है अथवा अति प्रशस्त भाववाला होता हुआ भी यह लोकों द्वारा पूर्वके प्राप्त उसके दोषसे "यह अतिपापी है " ऐसा स्वीकार किया जाता है २ कोई एक पुरुष ऐसा "होता है जो अतिपापी होता हुआ भी मिथ्यात्व आदि दोषोंसे उप । हत होने के कारण मैं अति प्रशस्त है ऐसा अपने आपको 'मानता है, , “चत्तारि पुरिसजाया" त्याह-पुरुषना नीचे प्रमाणे या२ ॥२ ५४ પડે છે-(૧) ઈ પુરુષ સદુવૃત્તિવાળો હોવાને કારણે અતિશય પ્રશસ્ત ભાવ વાળ હોય છે. તે પિતે એમ માનતા હોય છે કે “ હું પ્રશસ્ત ભાવવાળો ‘ઇ છે અને તેનું પ્રશસ્ત આચરણ જોઈને લેકે પણ એમ કહેતા હોય છે કે આ માણસ અતિશય પ્રશસ્ત ભાવવાળે છે” (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે અતિશય પ્રશસ્ત ભાવવાળો હોવા છતાં પણ પિતે એમ માને છે કે “હું અતિશય પાપી છું” અથવા તે અતિશય પ્રશસ્ત ભાવ, વાળે રહેવા છતાં પણ તેને પૂર્વ જીવનના દોષને કારણે કે એમ કહેતા होय छे. ४ " 24 मास मतिपापी छ." . (૩) કેઈ માણસ અતિપાપી હોય છે, પણ મિથ્યાત્વ આદિ દેથી યુક્ત હોવાને કારણે એમ માનતા હોય છે કે “હું અતિશય પ્રશસ્ય છું” Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टोका स्था० ४ उ० ४ सू० ६ वृणादिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् २९५ स्वीकरोति, कुतीथिकवत् , यद्वा-पापिष्ठजनसेवकेन. पापीयानपि. श्रेयानिति मन्यते लोकेन । इति तृतीयः ।३। ___ तथा एकः पापीयान्-अविरतत्वात् , पापीयानहमित्यात्मानं मन्यते सोधात् , यद्वा-एकः पापीयान् अविरतत्वात् । संयतलोकेन पापीयानिति-असंयत इति मन्यते-स्वीक्रियते । इति चतुर्थः (३) ___" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-एकः पुरुषः श्रेयान्-भावतोऽतिप्रशस्यः, द्रव्यतस्तुकिञ्चित्सदनुष्ठायित्वात् श्रेयानिति-प्रशस्यतरोऽयमित्येवं विकल्पजनकतया सदृशकः-श्रेयसा पुरुषेण तुल्यो जैसा कुतीर्थिक अपने आपको अति प्रशस्त मानता है अथवा-पापिष्ट जनकी सेवा करनेवाले लोकके द्वारा अतिपापी भी श्रेयान्-अति प्रशस्य, भाववाला माना जाता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अविरति होनेसे अतिपापी होता है, और मैं अतिपापीह, ऐसा सदबोधसे अपनेको.मानता है अथवा-अविरति होनेसे अति पापी बना हुआ वह संयतजन द्वारा यह पापीहै असंयतहै ऐसा स्वीकार किया जाताहै.४ ___ " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि-पुरुष जात चार कहे गये हैंइनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो श्रेयान् भावकी अपेक्षा अति प्रशस्य होता है पर द्रव्यकी अपेक्षा किञ्चित् सदनुष्ठायी होनेसे अर्थात् सदनुष्ठान करनेवाला होनेसे-"यह प्रशस्यतरहै" ऐसा विकल्प उत्पन्न कर देता है सो इस विकल्पका जनक होनेसे लोक. उसे ऐसा जानते જેમ કે કુતીર્થિક પિતાને અતિપ્રશસ્ય માને છે. અથવા–પાપીજનની સેવા કરનારા લોકો તેને પાપી માનવાને બદલે અતિ પ્રશસ્ય ભાવવાળો માનતા, હોય છે. (૪) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે અવિરતિથી યુક્ત હોવાનેકારણે અતિપાપી હોય છે અને સદુધને કારણે તે પોતાને અતિ પાપી જ, માનતે હોય છે અથવા અવિરતિને કારણે અતિ પાપી બનેલા તે જીવને વિષે સંયત માણસ આ પ્રમાણે માનતા હોય છે-“આ માણસ અસં. यत छ-मति पापी छे." । ____चत्तारि पुरिसजाया " त्याह-पुरुषांना नीय प्रभारी या२. प्रार ५६. हा छ-(१) मे पुरुष सेवा होय छे , २ श्रयान्-मास पता હોવાને લીધે ભાવની અપેક્ષાએ અતિપ્રશસ્ય હોય છે અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ થાડા ઘણા સદનુષ્ઠાન કરનારો હોવાથી “આ માણસ પ્રશસ્યતર છે,” એવું:લેકે કહેતા હોય છે. એટલે કે તેને અતિપ્રશસ્ય પુરુષ જે ગણતા હોય, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ स्थानासूत्रे 3 जनेन मन्यते--शायते, यद्वा - महशकमात्मानं मन्यते स्वयम् । इति प्रयमो भङ्गः | १ | तथा-एकः श्रेयान् पापीयानिति सदृशको मन्यते २ तथा - एकः पापीयान् श्रेयानिति सदृशको मन्यते ३, एकः पापीयान पापीयानिति मन्यते ४, एते त्रयोऽपि भङ्गाः प्रथमभङ्गमनुसृत्य विज्ञेयाः ( 2 ) को " चतारि पुरिसजाया" इत्यादि चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाएकः पुरुषः आख्यायकः - प्रवचनोपदेष्टा भवति किन्तु परिभावयिता- शासनस्य प्रभावको न भवति उदारक्रिया-प्रतिभाप्रभृतिरहितत्वान् । यद्वा - ' परिभावइत्ते ' त्यस्य ' परिभाजयिते = तिच्छाया, तत्पक्षे प्रवचहैं कि यह अति प्रशस्य पुरुषके जैसा है अथवा वह स्वयं आपको मैं अति प्रशस् पुरुष हूं ऐसा मानना है १ तथा कोई एक पुरुष ऐमा होता है जो येषान् भावकी अपेक्षा अति प्रशस्य होता है, पर अपनेको मैं अतिपापी जैसा हूं ऐसा मानता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पापीयान अतिपापी होता हुआ भी अपने को श्रेयान् अनि प्रशस्प भाववाले के जसो मानता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अतिपापी होता हुआ भी अपनेको अतिपापी जैसा मानता है ४ फिरभी - " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि पुरुष जात चार कहे गये हैं- जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आख्यायक- प्रचचनका उपदेशक होता है परन्तु वह परिभावयिता- शासनका प्रभावक नहीं होता है क्योंकि वह उदार क्रिया-प्रतिमा आदिसे रहित होता है अथवा " परिभावइत्ते " इसकी संस्कृतच्छाया " परिभाजयति " ऐसी भी - છે. અથવા તે પાતે એમ માનને હોય છે કે “ હું... અતિપ્રશસ્ય છું ” (૨) કોઈ એક પુરુષ શ્રેયાન—ભાવની અપેક્ષાએ અત્યંત પ્રશસ્ય હોય છે, છતાં પાતે એમ માનતા હાય છે કે “હું અતિ પાપી છું” (૩) કૅાઇ એક પુરુષ પાપીયાન—અતિયાપી હાય છે, છતાં તે એમ માનતે હોય છે કે “ હુ શ્રેયાન્અતિ પ્રશસ્ય ભાવવાળાધુ 66 "" (૪) કાઈ એક માશુસ અતિપાપી હાય છે અને તે પોતે પણ એમ જ भाने छे 'हुँ यति पायी छु " " " चत्तारि पुरिसजाया " त्याहि- पुरुषना नीथे प्रभा भार प्रार પશુ પડે છે–(૧) કેાઇ એક પુરુષ આગ્ન્યાયક હાય છે એટલે કે પ્રવચનના ઉપદેષ્ટા હોય છે, પણ તે પિરભાવિયેતા હાતા નથી-એટલે કે તે શાસનના પ્રભાવક હાતા નથી કારણ કે તે ઉદાર ક્રિયા-પ્રતિમા આદિથી રહિત હાય छे. अथवा - " परिभावइत्ते " मा पहनी संस्कृत छाया " पदिभाजयति ” सेवाभां Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठोका स्था०४ उ०४ सू०६ वृणादिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् नार्थस्य नयोत्सर्गापवादादिद्वारेण विवेचयिता न भवति, इति । यद्वा — आख्यायकः - सूत्रस्योपदेशकः, स भवति किन्तु न परिभावयितासूत्रार्थस्य न विचारयिता, यद्वा-सूत्रार्थस्य न परिभाजयिता - विवेचयिता न भवतीत्यर्थः, इति प्रथमः । एवं शेषभङ्गत्रयं बोध्यम् । ४ । (५) " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि - पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषः आख्यायकः - सूत्रार्थस्योपदेशको भवति, किन्तु नो उ छजीविकासम्पन्नः - एषणादिनिरतो न भवति, स चापद्गतः संविग्नः संविग्नपाक्षिको वा, यदुक्तम् " होज्ज उ वसणं पत्तो, सरीरदुब्बल्लयाए असमत्थो । चरणकरणे अमुद्धे, सुद्धं मग्गं परूवेज्जा ॥ १ ॥ २९७ होती है तब इस पक्ष में इसका अर्थ ऐसा होता है, कि वह प्रवचन के अर्थका नय मार्ग से एवं उत्सर्ग और अपवाद आदि मार्गसे विवेचक नहीं होता है, अथवा - आख्यायक होता है सूत्रका वह उपदेशक होता है पर सूत्रार्थका वह विचारक नहीं होता है अथवा सूत्रार्थका, वह परिभाजयिता - विवेचन करनेवाला नहीं होता है ऐसा यह प्रथम भङ्ग है इसी तरह शेष तीन भङ्ग भी जानना चाहिये ५ फिरभी - " चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे इनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आख्यायक- सूत्रार्थका उपदेशक होता है किन्तु वह उञ्छजीविका सम्पन्न एषणादि दोष टालमें तत्पर नहीं होता है ऐसा वह पुरुष या तो आपत्ति में पड़ा हुआ संविग्न (वैराग्यवाला) होता है या संविग्न पाक्षिक होता है-उक्तं च આવે તે તેના અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે- તે પ્રવચનના અર્થના નય. માગથી અને ઉત્સગ તથા અપવાદ આદિમાગથી વિવેચક હાતા નથી, અથવા-તે સૂત્રને ઉપદેશક હાય છે પણ સૂત્રાના વિચારક હોતે। નથી. અથવા-તે સૂત્રને ઉપદેશક હૈાય છે પણ પરિભાવિતા (વિવેચન કરનારા) હાતા નથી. આ પ્રકારના આ પહેલેા ભાગા સમજવા એજ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગા પણુ સમજવા " चत्तारि पुरिसजाया " त्याहि-पुरुषाना नीचे प्रमाणे यार प्रहार પણ કહ્યા છે—(૧) કેઇ એક પુરુષ ન્યાયક હાય છે-પ્રવચનના ઉપદેશક હોય છે, પણ ઉ’છવિકાસ'પન્ન હાતા નથી એટલે કે એષણાહિનિરત હાતા નથી, એવા તે પુરુષ કાંતા આપદમસ્ત સંવિગ્ન (વૈરાગ્યવાળા) હોય છે, અથવા તેા સ વિગ્નપાક્ષિક હોય છે. કહ્યુ પણ છે ફૈ स- ३८ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानने तथा-" ओसन्नोऽवि विहारे कम्म सिढिलेइ सुलहबोडी य । चरणकरणं विसुद्धं उचवृहंतो परूघेतो ॥ २ ॥" छाया-भवेद् हि व्यसनं प्राप्तः शरीरदुर्वलतया असमर्थः । चरणकरणे अशुद्ध शुद्धं मार्ग मरूपयेत् ॥ १॥ । तथा-अवसन्नोऽपि विहारे कर्म शिथिलयति सुलभवोधिश्च । चरणकरणं विशुद्धम्, उपवयन प्ररूपयन् । २।" इति, इति प्रथमः १। तथा-एक उन्छ जीविकासम्पन्नो भवति, नत्वाख्यायकः, स च यथाच्छन्दः, इति द्वितीयः २। तथा-एका आख्यायकोऽपि उच्छजीविकासम्पन्नोऽपि, सच " होज्ज उ बसणं पत्तो" इत्यादि । तात्पर्य इन गाथाओंका यही है जो संविग्न व्यसनग्रस्त-कष्ट प्राप्त होता है या शरीरसे दुर्बल होनेके कारण असमर्थ हो जाता है उसके चरणकरण अशुद्ध हो जाते हैं, अवसन्न भी विहारमें अपने कर्तव्यमें शिथिल हो जाता है पर उसकी बोधि शिथिल नहीं होती है वह चरण. करणकी विशुद्धिको बढानेकी चेष्टामें रहता है और शुद्ध मार्गकी प्ररूपणा करता है ? ___ तथा कोई एक मनुष्य ऐसा है जो उञ्छजीविकासम्पन्न होता हैएषणादि निरत होताहै, पर वह आख्यायक (प्रवचनका उपदेशक) नहीं होता है-ऐसा वह यथाच्छन्द होता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आख्यायक भी होता है और उन्छजीविकासंपन्न भी होता है ऐसा वह साधु होता है ३, तथा कोई एक ऐसा पुरुष होता है, "होग्ज उवसणं पत्तोऽत्यादिमा गाथामान भावार्थ नये प्रभारी छ-२ सविन વ્યસનબ્રસ્ત અથવા આપદુબસ્ત હોય છે, અથવો શરીરની કમજોરીને કારણે અશક્ત થઈ ગયે હોય છે, તેના ચરણકરણ અશુદ્ધ થઈ જાય છે, એ સાધુ પિતાના શ્રમણને ગ્ય કર્તવ્યપાલનમાં પણ શિથિલ બની ગયેલ હોય છે, પરંતુ તેની બેધિ શિથિલ થતી નથી, તેથી તે ચરણુકરણની વિશુદ્ધિ વધારવાની ચેષ્ટા કર્યા કરે છે અને શુદ્ધ માર્ગની પ્રરૂપણ કરે છે (૧) કેઈએક પુરુષ એ હોય છે કે જે ઉછજીવિકાસંપન્ન હોય છે-એષણાદિ નિરત હોય છે, પણ તે આખ્યાયક (પ્રવચનને ઉપદેશક) હેત નથી એ પુરુષ યથાશ્મદ હેાય છે (૨) કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે આખ્યાયક પણ હોય છે અને ઉછછવિકાસંપન પણ હોય છે એ જીવ સાધુ હોય છે. (૩) Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०६ वृणादिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् २९९ साधुः । इति तृतीयः ३। तथा-एको नो आख्यायको नो उन्छजीविकासम्पन्नः, सच गृहस्थादिः, इति चतुर्थः । ४ । (६) . इति षट्स्त्रीपूर्वमुन्छजीविकासम्पन्नः साधुपुरुष उक्तः, तस्य च वैक्रियलब्धिमतः प्रयोजनवशाद् वृक्षं विकुर्वतो यादृशी वृक्षविक्रया स्यात्तामाह-" चउबिहे " त्यादि____ यद्वा - पूर्वमुत्र साधुपुरुषस्याख्यापकत्वोच्छजीविकासम्पन्नत्वरूपविभूपणमुक्तं सम्प्रति तत्तुल्यत्वाद् वृक्षविभूषणमाह-"चउबिहे" त्यादि-चतुर्विधा वृक्षविकुवेणा मज्ञप्ता, तद्यथा-प्रवालतया १, पत्रतया २, पुष्पतया ३, फलतया च ४॥सू०६॥ जो न आख्यायक होताहै और न उच्छजीविका सम्पन्नहीं होताहै४-६ इस प्रकारसे यह षटूसूत्री है उन्छजीविकासम्पन्न साधुपुरुष कहा गया है-सो इनमें जो वैक्रियलन्धिसम्पन्न होता है, वह प्रयोजनवश वृक्षकी भी विकुर्वणा कर सकता है तब उसकी जैसी वृक्षविक्रिया होती उसको अब सूत्रकार "चविहे" इत्यादि सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं यद्वा-पूर्वोक्त सूत्र में साधु पुरुषको आख्यापक और उञ्छजीविकासम्पन्न इन दो विभूषणोंसे युक्त प्रकट किया गया है सो अब तत्तुल्य होनेसे वृक्षके विभूषण सूत्रकोर कहते हैं वृक्ष विकुर्वणा चार प्रकारकी कही गई है जैसे-एक प्रवालरूप दुसरी पत्ररूप तीसरी पुष्परूप और चौथी फल रूप ॥सू०६॥ કઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે આખ્યાયક પણ હેત નથી અને विपन्न पर खाता नथी. ॥४-६॥ આ પ્રકારે છ સૂત્ર દ્વારા અહીં પુરુષપ્રકારનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે સાધુ પુરુષને ઉછજીવિકાસંપન્ન કહેવામાં આવેલ છે. જે સાધુ વૈકિયલબ્ધિસંપન્ન હોય છે તે કોઈ પ્રયજન ઉદુભવવાથી વૃક્ષની વિક્ર્વણા પણ કરી श छ. त्यारे तेना द्वारा २ वृक्षति या थाय छेतेनुसूत्रा२ “ चउविहे" ઈત્યાદિ સૂત્ર દ્વારા કથન કરે છે–અથવા પૂર્વોક્ત સૂત્રમાં સાધુપુરુષને આખ્યાપક અને ઉછજીવિકાસંપન્ન, આ બે વિશેષણોથી યુક્ત પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. વૃક્ષ સાધુસમાન હોવાથી હવે સૂત્રકાર વૃક્ષવિકુણાના ચાર પ્રકારની પિતે પ્રરૂપણ કરે છે– (१) प्रवाद (५५) ३५ विणा , (२) ५५३५ विभुया, (३) ४५. રૂપ વિકુવરણ અને (૪) ફલરૂપ વિકવણા આંસૂ દા Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थगान पूर्व वृक्षविभूपणं प्रोक्तं धर्मस्य विभूषणं तीर्थिका भवन्तीति तत्स्वरूपं निरूपयितुमाह- मूलम् — चत्तारि वाइसमोसरणा पण्णत्ता, तं जहा - किरिया - वाई १, अकिरियावाई २, अन्नाणियावाई ३, वेणइयावाई ४ | ॥ सू० ७ ॥ छाया -- चत्वारि वादिसमवसरणानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - क्रियावादिनः १, अक्रियावादिनः २, अज्ञानिकवादिनः ३, वैनयिकवादिनः ४ ॥ ०७ ॥ टीका - " चत्तारि बाइसमोसरणा" इत्यादि - वादिसमवसरणानि - वादिनःवादि - १ प्रतिवादि -२ सभ्य - ३ सभापति - ४ रुपायां चतुरङ्गायां सभायां परमतखण्डनपूर्वकं स्वमतस्थापनार्थमवश्यं वादोऽस्त्येषामिति तया, निरुपसवादिलब्धिस १०० वृक्ष विभूषण कहकर अब सूत्रकार " धर्मके विभूषण तीर्थिक होते हैं " इस कारण उनके स्वरुपका निरूपण करते हैं "चत्तारि वाइसमोसरणा पण्णत्ता " इत्यादि सूत्र ७ ॥ वादि समवसरण चार कहे गये हैं-जैसे एक क्रियावादीका एक अक्रियावादीका एक अज्ञानिकवादीका और एक वैनयिकवादीका वादी प्रतिवादी, सभ्य और सभापतिरूप चारप्रकारकी सभा में जो परमतको खण्डन करते हुए अपने मत की स्थापना अवश्य करता है उसका नाम वाद है अर्थात् चतुरङ्ग चार प्रकार की सभा में परमत खण्डनपूर्वक जो स्वमत स्थापन है उसका नाम वाद है इस प्रकारका वाद जो करता है वह वादी निरूपम वादि लब्धिवाला होता है अतः वाचालवादि वृन्द भी वाग्वैभवको વૃક્ષવિભૂષણુનુ કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ધર્મોના વિભૂષણ રૂપ તીથિहोना स्व३यनुं निश्याय रे - " चत्तारि वाइसमोसरणा पण्णत्ता" इत्याहि-सू. ७ વાદિસમવસરણ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે–ક્રિયાવાદીનું (૨) અક્રિયાવાદીનું, (3) अज्ञानिष्ठवाहीतुं मने (४) वैनयिम्वाहीतुं વાદી, પ્રતિવાદી, સભ્ય અને સભાપતિ રૂપ ચતુરંગ સભામાં જે પરમતનું ખંડન કરીને પેાતાના મતની અવશ્ય સ્થાપના કરે છે તેનું નામ વાદી છે. એટલે કે ચતુર'ગ સભામાં પરમતના ખડન પૂર્વક સ્વમતનું સ્થાપન કરવા માટેના જે વિવાદ ચાલે છે તેનુ' નામ વાદ્ય છે. આ પ્રકારના વાદ કરનાર વ્યક્તિને વાદી કહે છે તે વાદી નિરૂપમ વાઢિલબ્ધિસ`પન્ન હૈાય છે તેશ્રી વાચાલ વાદિવ્રુન્દ પણ તેના વાવૈંભવને મન્દ પાડી શકતું નથી એટલે કે તેના મતનુ' ખંડન કરવાને કાઇ સમ હાતું નથી. એવા વાદી તરીકે Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैघाटीका स्था०४ उ०४ सू०७ क्रियावाद्यादितीर्थिकस्वरूपनिरूपणम् ३०१ म्पन्नत्वेन वाचालवादिवृन्दैरप्यमन्दीकृतवाग्विभवाः, ते चात्र तीथिका, ते समवसरन्ति-सम्यगवतरन्ति-समुपस्थिता भवन्ति एञ्चिति समवसरणानि, वादिनां समवसरणानि वादिसमवसरणानि-वादिसमुपस्थितिस्थानानि, तेषां तदायिणां चाभेदोपचाराद्वादिसमवसरणपदेनेहवादिनो गृह्यन्ते, तानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि । वादिनश्चत्वारा प्रज्ञप्ता इति चातुर्विध्यमेवाह-' तद्यथे' त्यादि-क्रियावादिनः क्रियां - जीवाजीवादिपदार्थोऽस्तीत्याकारिका - जीवाजीवादिपदार्थसत्तात्मिकां वदन्तीत्येवं शीलाः क्रियावादिन:-आस्तिकाः १, अक्रियावादिना-न क्रियावादिन:-क्रियावादिविपरीता नास्तिकाः २, अज्ञानिकवादिनः-अज्ञानं स्वीकरणीयतयाऽस्त्येषामित्यज्ञानिकास्त एवं वादिनोऽज्ञानिकवादिनः अज्ञानमेवातिप्रशस्य. मित्येवं प्रतिज्ञाकारिणः ३, तथा-वैनयिकवादिनः-विनयः-विनयनं कर्मापनयन, मन्द नहीं कर सकते हैं ऐसे वादी यहां तीथिक लिये गये हैं, ये जहां पर समुपस्थित होते हैं वे वादिसमवसरण हैं अर्थात् वादि जनोंकी जो उपस्थितिके स्थान हैं वे वादिसमवसरण हैं परन्तु यहां वादि समवसरण पदसे उन स्थानोंको ग्रहण नहीं किया गया है किन्तु उन स्थानोंमें और वादिजनों में अभेद सम्बन्धके उपचारसे वादि जनोंकोही ग्रहण किया गया है इस तरह वादिसमवसरणहै वादिजन चार प्रका. रके क्रियावादी आदिके भेदसे प्रकट किये गये हैं, जो जीव अजीव आदि पदार्थों की “अस्ति" इस रूप क्रियाको-जीव अजीव आदि पदार्थों की सत्तात्मक स्थितिको कहने के स्वभाववाले हैं वे क्रियावादी हैं अर्थात् आस्तिकजल क्रियावादी हैं इनसे विपरीत अक्रियावादी है वे अक्रियावादी नास्तिक हैं । अज्ञानही अतिप्रशंसनीयहै इस प्रकारसे અહી તીર્થિકને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. તેઓ જે સભામાં હાજર હોય છે તે સભાને વાદીસમવસરણ કહે છે. એટલે કે વાદિ જ વિવાદ કરવા માટે જ્યાં એકત્ર થાય છે તે સ્થાનને વાદિસમવસરણ કહે છે. - અહી વાદિસમવસરણ પદ વડે તે સ્થાને ગ્રહણ કરવાના નથી, પણ તે સ્થાનોમાં અને વાદીજમાં અભેદ સંબંધના ઉપચારની અપેક્ષાએ વાદીજનને જ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. આ રીતે વાદિસમવસરણ અથવા વાદીજનોના અહીં ક્રિયાવાદી આદિ ચાર પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા છે– કે જીવ, અજીવ આદિની સત્તામક સ્થિતિને સ્વીકાર કરનારા હોય છે-જીવ, અજીવ આદિના અસ્તિત્વને સ્વીકારનારા હોય છે અને તેનું પ્રતિપાદન કરનારા હોય છે તેમને ક્રિયાવાદી કહે છે. એટલે કે આસ્તિકને ક્રિયાવાદી છે તેમના કરતાં વિપરીત માન્યતાવાળા લેકે અકિયાવાદી અથવા Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ स्थानाशस्त्र स एव वैनयिकम् , स्वार्थिक ठक् प्रत्ययोऽत्र विनयादित्वात् , तदेव मोक्षाय कल्पत इत्येवं वदन्तीत्येवं शीलाः वैनयिकवादिनः ४, एतेषां भेदसंख्या चेयम्"असियसय किरियाणं, अकिरियावाईण होइ चुलसीई। अन्नाणिय सत्तही वेणइयाणं च वत्तीसा ॥ १ ॥ छाया--" अशीति-शतं क्रियाणामक्रियावादिनां भवति चतुरशीतिः । ___ अज्ञानिनां सप्तपष्टिः वैनयिकानां च द्वात्रिंशत् ।। १ ।। तत्राशीतिशतम्-अशीत्यधिकं शतं क्रियाणां क्रियावादिनाम्, अन्यत्सुगमम् इति । एषां स्वरूपमन्यतोऽवसेयम् ।। सू० ७ ॥ पूर्व वादिसमवसरणानि निरूपितानि, सम्प्रति तान्येव चतुर्विंशतिदण्डकेनिरूपयितुमाह ___ मूलम्—णेरइयाणं चत्तारि वादिसमोसरणा पण्णत्ता, तं जहा-किरियावाई जाव वेणइयवाई ४ एवमसुरकुमाराणं वि जाव थणियकुमाराणं, एवं विकलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं ॥ सू० ८॥ ____ छाया-नैरयिकाणां चत्वारि वादिसमवसरणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-क्रियाजो उसको मण्डन करके उसे स्वीकार किये रहते हैं वे अज्ञानिकवादी हैं विनयकोही जो मोक्ष प्राप्तिका कारण मानते हैं वे वैनयिक हैं इनके भेदोंकी संख्या इस प्रकारसे है " असियसयं किरियाणं " इत्यादि । क्रियावादियोंके भेद १८० हैं अक्रियावादियोंके ८४ हैं अज्ञानवादियोंके ६७ और वैनयिकवादियोंके ३२ हैं। इन सबका स्वरूप षदर्शन समुच्चय आदि ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिये ।०७। નાસ્તિક છે. “અજ્ઞાન જ અતિ પ્રશસ્ય છે,” આ પ્રકારની માન્યતાવાળા અને તે માન્યતાનું પ્રતિપાદન કરનારા લોકોને અજ્ઞાનિકવાદી કહે છે. વિનયને જ જે લોકો એક્ષપ્રાપ્તિનું કારણ માને છે તેમને વૈયિક કહે છે. તેમના ભેદની સંખ્યા નીચે પ્રમાણે છે " असियसय किरियाणं " त्याहि-यावाहीमाना १८० ले छ, मा. યાવાદીઓના ૮૪ ભેદ છે, અજ્ઞાનીઓના ૬૭ ભેદ છે અને નૈનચિકેના ૩૨ ભેદ છે. આ બધાનું સ્વરૂપ પર્શન સમુચ્ચય આદિ ગ્રંથમાંથી સમજી લેવું જોઈએ. એ સૂ૭ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ ४ सू ८ क्रियावाद्यादितीथिकस्वरूपनिरूपणम् ३०३ वादी यावत् वैनयिकवादी ४॥ एवमसुरकुमाराणामपि यावत् स्तनितकुमाराणाम् । एवं विकलेन्द्रियवर्ज यावत् वैमानिकानाम् ।। म् ० ८ ॥ टीका-" णेरड्याण " इत्यादि, स्पष्टम् , नवरं-नारकादिपञ्चेन्द्रियाणां समनस्कत्वादेतानि चत्वारि अपि वादिसमवसरणानि भवति, " विकलिंदियवज्ज" इति एक द्वि त्रिचतुरिन्द्रियाणामसंक्षिपञ्चेन्द्रियाणां जीवानाममनस्कत्वा. देतानि चत्वारि न सम्भवन्तीति ।। सू० ८॥ पुरुषाधिकारात् पुरुषविशेषान्निरूपयितुं प्रायो दृष्टान्तसूत्रपुरस्सराणि त्रिचत्वारिंशतं (४३) पुरुषसूत्राण्याह___मूलम् -चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-गजित्ता गाममेगे णो वासित्ता १, वासित्ता णाममेगे णोगज्जित्ता, २, एगे गज्जित्ताऽवि वासित्ताऽवि ३, एगे णो गजित्ता णो वासित्ता ४। (१)। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-गज्जित्ता णाम मेगे णो वासित्ता ४, (२) वादि समवसरणोंका कथन करके अब सूत्रकार उन्हें २४ दण्डकोंमें निरूपित करते हैं-"णेरड्याणं चत्तारि वादिसमोसरणा पण्णत्ता इत्यादि - नारकादि पञ्चेन्द्रियोंके क्रियावादी थावत् वैनयिकवादी आदि चार वादिसमवसरण होते है । इसी तरहसे असुरकुमारों को लेकर यावत् स्तनितकुमारोंके भी ये चार वादिसमवसरण होते हैं। तथा विकलेन्द्रिय-दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय इन जीवोंको तथा एकेन्द्रियको और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंको छोड़कर यावत् वैमानिकजीवों तक येही चार वादिसमवसरण होते हैं । ये सब एकेन्द्रियादिक जीव अमनस्क (असंज्ञी) होते हैं अतः उनमें ये सम्भवित नहीं होते हैं ॥स्तू०८॥ વાદિ સમવસરણનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમને ૨૪ દંડકમાં नि३पित ४२ छ " णेरझ्याणं चत्तारि वादिसमोसरणा पण्णत्ता " ध्यान-सू ८ નારકાદિ પંચેન્દ્રિયના કિયાવાદીથી લઈને વનયિકવાદી પર્યન્તના ચાર વાદિસમવસરણ હોય છે એજ પ્રમાણે અસુરકુમારથી લઈને સ્તનતકુમારે પર્યન્તના પણ ચાર વાદિસમવસરણે હોય છે તથા વિકલૅન્દ્રિયો (દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય), એકેન્દ્રિ અને અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવ સિવાયના"વમાનિક પર્યન્તના સમસ્ત જીવોના પણું એજ ચાર સમવસરણ હોય છે. એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય અને અજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જી અમનરક હોય તેથી તેમનામાં તે સંભવી શકતા નથી. પાસ ૮ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ स्थानाशस्त्रे चत्तारि मेहा पण्णत्ता तं जहा-गज्जित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता १, विज्जुयाइता णाममेगे णो गाज्जित्ता ४। (३) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-गज्जित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता ४, (४)। चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा--बासित्ता णाममेगे नो विज्जुयाइत्ता ४। (५) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--वासित्ता णामलेगे णो विज्जुयाइत्ता ४, (६) चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-कालवासी णाममेगे णो अकालवासी ४, (७) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-कालवाली णाममेगे णों अकालवासी ४, (८)। - चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा--खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी ४, (९)। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तं जहा- खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी ४ (१०) . चत्तारि सेहा पण्णत्ता, तं जहा-जणइत्ता गाममेगे णो जिम्मवइत्ता, जिम्मवइत्ता णाममेगे णो जणइत्ता ४, (११) एवामेव चत्तारि अम्मापियरो पण्णत्तो, तं जहा--जणइत्ता णाममेगे णो णिस्मवइत्ता ४ (१२) । चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-देसवासी णाममेगे णो सव्ववासी ४, (१३) एवामेव चत्तारि रायाणो पण्णत्ता, तं . जहा--देसाहिबई णाममेगे णो सव्वाहिवई ४ (१४)॥सू०९ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुधा टीका स्था०४३०४ सू०९ मेघदृष्टान्तेन गुरुपजातनिरूपणम् ३०५ छाया-चत्वारो प्रेघाः प्राप्ताः तद्यथा-गजिता नामको नो वर्पिता १, वर्षिता नामैको नो गर्जिता २, एको गर्जिताऽपि वर्पिताऽपि ३, एको नो गर्जिता नो वर्षिता ४। (१) एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-गर्जिता नामैको नो वर्पिता ४। (२)।। ___ चत्वारो मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-गर्जिता नामैको नो विद्ययिता १, विद्ययिता नामको नो गर्जिता ४, (३) एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथागर्जिता नामैको नो विद्ययिता ४ (४)।। चत्वारो मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वर्पिता नामैको नो विद्ययिता ४। (५) एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वर्पिता नामैको नो विद्ययिता ४, (६) |चत्वारो मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कालवी नामैको नो अकालवर्षी ४। (७) एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तथ्या-कालवी नामैको नो अकालवर्षी ४ (८) चत्वारो मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्षेत्रवी नामैको नो अक्षेत्रवर्षी ४ (९) एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञसानि, तद्यथा-क्षेत्रवर्षी नामैको नो अक्षेत्रवर्षी ४। (१०)। चत्वारो मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जनयिता नामैको नो निर्मापयिता, निर्मापयिता नामैको नो जनयिता ४ (११), एवमेव चत्वारि मातापितरः प्रज्ञप्ताः, तधथा-जनयितारौ नामैको नो निर्मापयितारौ ४, (१२)। चत्वारो मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-देशवर्षी नामैको नो सर्ववी ४ (१३) एवमेव चत्वारो राजानः प्राप्ताः, तद्यथा-देशाधिपति नामको नो सर्वाधिपतिः ४, (१४) मु०९॥ टीका-" चत्तारि मेहा" इत्यादि-मेघाः-चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएक:-कश्चिन्मेघः गणिता-गर्जनकारी भवति, किन्तु-चर्षिता-जलवर्षणकारी नो पुरुष अधिकारको लेकरही अब सूत्रकार पुरुष विशेषोंका निरूपण करनेके लिये प्रायः दृष्टान्तसूत्र पुरस्सर ४३ पुरुष सूत्र कहते हैं टीकार्थ-'चत्तारि मेहा एपणत्ता' इत्यादि स्त्र ९॥ मेघ चार प्रकारके कहे गये हैं-जैसे कोई एक मेघ ऐसा होता है जो गर्जना करता है पर वह जल बरसानेवाला नहीं होता है । कोई - પુરુષ અધિકાર ચાલી રહ્યો છે તેથી હવે સૂત્રકાર પુરુષ વિશેનું નિરૂપણ કરવા માટે દષ્ટાન્ત સૂત્ર સહિતના ૪૩ પુરુષ સૂત્રે કહે છે– साथ-" चत्तारि मेहा पण्णत्ता" त्या सू ८ મેઘને નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) કેઈ મેઘ એ હોય છે કે જે ગર્જના કરે છે પણ વરસતે નથી. (૨) કે ઈ મેઘ એ હોય છે स-३९ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ स्थामाह भवति, इति प्रथमः १, एको वर्पिता न त, गर्जिनेनि द्वितीयः २, एको गर्जिता'ऽपि वर्पिताऽपीति तृतीयः ३, एको नो गर्जिता नो यर्पिताऽपि च भवतीति चतुर्थः ४ (१) एवामे ये' त्यादि.----.मेव मेघवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यया-एक:-कश्चित् गर्जिता-दानज्ञानव्याख्यानानुष्ठानगनिग्रहादिविपये उच्चैः प्रतिज्ञाकारी भवति, किन्तु नो वर्पिता-प्रतिसातकारको न भवति । इति प्रथमः १। तथा-एको बर्पिता-कार्यकर्ता अनि, किन्नु नो गनिता-उच्चैः प्रतिज्ञाता न भवतीति द्वितीयः रा तथा-एको गर्जिनापि वर्णिताऽपि, इति तृतीयः ३। तथा-एको नो गर्जिता नो वर्पिता च भाति । इनि चतुर्थः । (२) एक मेघ ऐसा होता है, जो जल बरसानेवाला होना है, पर वह गर्ननकारी नहीं होता है । कोई एक मेघ ऐसा होनाई, जो गरजता भी है और बरसता भी है ३। और कोई एक मेध ऐना होता है जो न गरजता है और न बरसताही है ४ (१) इसी तरहसे पुरुष जात भी चार कहे गये हैं इनमें कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो दान ज्ञान व्याख्यान अनुष्ठान एवं शत्रुनिग्रह आदिके विषयमें ऊंची प्रतिज्ञा करनेवाला होता है परन्तु वह प्रतिज्ञात अर्थका करनेवाला नहीं होता है ११ तथा-कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो केवल कार्यका करनेवाला होता है, किन्तु वह ऊंची प्रतिज्ञा करनेवाला नहीं होताहै २ तथा कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो कार्य करता भी होता है और ऊंची प्रतिज्ञा करनेवाला भी होता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो न ऊंची प्रतिज्ञा करता है और न उसका निर्वाह करनेवालाही होता है ४(२) કે જે વરસે છે ખરે પણ ગર્જતે નથી. (૩) કે ઈ મેઘ એવા હોય છે કે જે ગર્જે પણ છે અને વરસે પણ છે () કોઈ મેઘ એ હોય છે કે જે ગર્જતે પણ નથી અને વરસતે પણ નથી. ૧ મેઘની જેમ પુરુ પણ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે–(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે જ્ઞાન, દાન, વ્યાખ્યાન, અનુષ્ઠાન, શત્રુનિગ્રહ આદિ વિષે ઊંચી પ્રતિજ્ઞા કરનારે હોય છે, પરંતુ પ્રતિજ્ઞા અનુસાર આચરણ કરના હેતે નથી. (૨) કે પુરુષ એ હોય છે કે જે કેવળ કાર્ય કરનારે હોય છે અને ઊંચી ઊંચી પ્રતિજ્ઞા કરનારે હોતે નથી. (૩) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે કાર્ય કરનારે પણ હોય છે અને ઊંચી ઊંચી પ્રતિજ્ઞા કરનારે પણ હોય છે. (૪) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ઊંચી ઊંચી પ્રતિજ્ઞા કરનારે પણ તે નથી. અને એવાં કાર્યો કરનારે પણ તે નથી.રા Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४ उ०७ सू०९ मेघदृष्टान्तेनपुरुषजातनिरूपणम् ३०७ " चत्तारि मेहा " इत्यादि-चत्वारो मेघाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एको मेघो गर्जिता भवति न तु विद्ययिता-विद्युत्कर्ता १, एवं शेपभङ्गत्रयम् ४ (३) । 'एवामेवे " त्यादि-एवमेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक:-कश्चित् पुरुषः गर्जिता उच्चैः प्रतिज्ञाता भवति, किन्तु न विद्ययिता-विद्युत्कर्ता-विद्युत:विद्युत्सदृशस्य-दानज्ञानव्याख्यानानुष्ठानशत्रुनिग्रहादिविषये उच्चः प्रतिक्षाता. रम्भाडम्बरस्य कती न भवति इति प्रथमः ११ तथा-एको विद्ययिता-आरम्भाडम्बरस्य कर्ता भवति किन्तु गर्जिता-प्रतिज्ञाता न भवति इति द्वितीयः २॥ तथा-एको गर्जिताऽपि विद्ययिताऽपि भवति इति तृतीयः । तथा-एको नो गर्जिता नो विद्ययिता च भवतीति चतुर्थः ४। (४) पुनश्च-" चत्तारि मेहा" इत्यादि-चार मेघ कहे गये हैं-जैसे कोई एक मेघ ऐसा होता है जो गरजता है पर चमकना नहीं है १ कोई एक ऐसा होता है जो चमकता है पर गरजता नहीं है २ कोई एक मेघ ऐसा होता है जो गरजता भी है और चमकता भी है ३ तथा. कोई एक मेघ ऐसा होता है जो न गरजता है और न चमकता है ४ (३) इसी तरहसे पुरुष जात भी चार कहे गये हैं जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो गर्जिता-ऊंची प्रतिज्ञा करनेवाला होता है किन्तु चमकनेके जैसे दान, ज्ञान, व्याख्यान, अनुष्ठान एवं शत्रुनिग्रह आदिके विषयमें उच्च प्रतिज्ञात अर्थके आरम्भके आडम्बरको करनेवाला नहीं होता है । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो आरम्भके आडम्बरका करनेवाला होता है किन्तु वह प्रतिज्ञा करनेवाला नहीं होता है । कोई " चत्तारि मेहा" त्याहि-मेघना नीय प्रमाणे या२ २ ५y Hal છે-(૧) કઈ મેઘ એ હોય છે કે જે ગજે છે ખરે પણ ચમક્તા નથી. કોઈ મેઘ એ હોય છે કે જે ચમકે છે ખરો પણ ગર્જતે નથી. (૩) કોઈ મેઘ એ હોય છે કે જે ગજે છે ખરે અને ચમકે છે પણ ખરો. (૪) કોઈ મેઘ એ હોય છે કે જે ગર્જત પણ નથી અને ચમકતો પણ નથી. ૩ એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે– (૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ઊંચી પ્રતિજ્ઞા કરનાર હોય છે પણ ચમકનારો હોતો નથી. એટલે કે દાન, જ્ઞાન, વ્યાખ્યાન, અનુઠાન અને શત્રુ નિગ્રહ આદિના વિષયમાં ઉચ્ચ પ્રતિજ્ઞા રૂપ અર્થના આરંભ આડંબર કરનારે હોતે નથી. (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે આરંભનો આડંબર કરનારે હોય છે, પણ પ્રતિજ્ઞા કરનાર હોતો નથી. (૩) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ स्थानाशस्त्र ____"चत्तारि मेहा" इत्यादि-मेघाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एको मेघो वर्पिता-न तु विद्ययिता भवति इति प्रथमः १॥ एवं शेषभनत्रयं बोध्यम् ४, (५)। एवामेवे ' त्यादि-एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाएकः पुरुपो वर्पिता-दानादिभि भवति, किन्तु नो विचयिता-दानाद्यारम्भाडम्बरकर्ता न भवति इति प्रथमः १। तथा-एको विद्ययिता न तु गणितेति द्वितीयः एक पुरुष ऐसा होता है जो गर्जनेवाला भी होता है और विद्ययिता भी होता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो न गर्जिता होता है और न विद्ययिता होता है ४ (१) पुनश्च-" चत्तारि मेहा" इत्यादि-मेघ चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-एक मेघ ऐसा होता है जो वर्पिता-बरसता है पर वह विद्ययिता नहीं होता है चमकता नहीं है १ शेष तीन भङ्ग इसी प्रकारसे लगा लेना चाहिये ४ (५) इसी प्रकारसे पुरुष जात भी चार होते हैंइनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो दानादिकों द्वारा बरसता है, किन्तु वह दानादिकोंके आरम्भका आडम्परकर्ता नहीं होता है ? तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो विद्ययिता दानादिकोंके आरम्भका आडम्बरकर्ता होता है पर वह गजिता दान, ज्ञान, व्याख्यान, अनु'ष्ठान, शत्रुनिग्रह आदिके विषयमें उच्च प्रतिज्ञाकारी नहीं होता है । तथा कोई एक ऐसा भी होता है, जो गजिता भी होता है और विद्यકોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે પ્રતિજ્ઞા કરનારો પણ હોય છે અને આરંભને આડંબર કરંનારો પણ હોય છે (૪) કોઈ એક પુરુષ પ્રતિજ્ઞા કરનારે પણ હોતું નથી અને આરંભને આડંબર કરનારો પણ હેતે નથી. જા __" चत्तारि मेहा" त्याटि-भवना नाय प्रमाणे ५ या२ २ ४ा છે-(૧) કોઈ મેઘ એ હોય છે કે જે વરસે છે ખરો પણ ચમકતો નથી. 'ઉપરના ક્રમને અનુસરીને બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ સમજી લેવા. પા એજ પ્રમાણે ચાર પ્રકારના પુરુષે કહ્યા છે-(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દાનાદિક દ્વારા વરસે છે ખરે પણ દાનાદિકોના આરંભને "આડંબરકર્તા હોતે નથી (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ચમકે છે ખરે પણ વરસતો નથી. એટલે કે દાનાદિકોના આરંભને આડંબરકર્તા હોય છે, પણ દાન, જ્ઞાન, વ્યાખ્યાન, અનુષ્ઠાન અને શત્રુનિગ્રહ આદિના વિષયમાં ઉચ્ચ પ્રતિજ્ઞાકારી હોતું નથી. (૩) કોઈ એક પુરુષ વરસે છે પણ "બર અને ચમકે છે પણ ખરે (૪) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधां टीका स्था० ४ ७०४ सु०९ मेघदृप्रान्तेनपुरुषजातनिरूपणम् ३०९ २। तथा-एको गर्जिताऽपि विद्ययिताऽपि च भवतीति तृतीयः ३ तथा एको नो गर्जिता नो विद्ययिताऽपि व भवतीति चतुर्थः ४ (६) " चत्तारि मेहा " इत्यादि — स्पष्टम् - नवरम् - कालवर्षी अवसरवर्षी, एवमन्येऽपि बोध्याः ४ (७) एवमेव पुरुषजातानि चत्वारि तद्यथा - एकः पुरुषः कालवर्षी - कालवर्षीय कालवर्षी अवसरे दानव्याख्यानादिपरोपकारार्थमवृत्तिकः, न तु अकालवर्षी भवतीति प्रथमः १, तथा - एकः अकालवर्षी - अनवसरवर्षी भवति न तु कालवर्षीति द्वितीयः २ (७) तथा - एक: कालाकालवर्षी भवति इति तृतीय. ३ । एको नो कालवर्षी नो अकालवर्षीति चतुर्थः । ४ । (८) यिता भी होता है ३ तथा कोई एक ऐसा पुरुष होता जो न गर्जिता होता है, और न विद्ययिता भी होता है ४ (६) फिरभी - " चत्तारि मेहा " इत्यादि-मेघ चार प्रकार के कहे गये हैं जैसे - कोई एक मेघ ऐसा होता है, जो कालवर्षी अवसर पर वरसता है, विना अवसरके नहीं वरसता है । इसी प्रकार से शेष तीन भङ्ग भी समझ लेना चाहिये (७) इसी प्रकार से पुरुषजात चार कहे गये हैं- इनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो कालवर्षी मेघकी तरह अवसर पर दान देता है, व्याख्यान देता है और परके उपकार आदि करनेमें प्रवृत्तिवाला होता है, पर वह अकालवर्षी नहीं होता है १ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो अकालवर्षी होता है, अवसरवर्षी होता है विना अवसर केही दान देता है व्याख्यान आदि देता है और परके उपकार करने आदि सुकार्य में प्रवृत्ति करनेवाला होता है, पर कालवर्षी વરસતા પણુ નથી અને ચમકતા પણ નથી. પહેલા એ ભાંગાને આધારે ત્રીજા અને ચેાથા ભાગાના ભાવાર્થ સમજી લેધે. દા " चत्तारि मेहा " हत्याहि-भेधना नीथे प्रभाबे यार अमर पशु उद्या છે-(૧) કોઇ મેઘ એવે! હોય છે કે જે કાલવી હોય છે પણ અકાલવી હોતા નથી. એટલે કે ચેગ્ય અવસરે વરસનારા હોય છે પણ અચેાગ્ય અવ સરે વરસતા નથી. એજ ક્રમે ખીજા ત્રણુ ભાંગા પણુ સમજી લેવા. શાળા એજ પ્રમાણે પુરુષ પણ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે-(૧) કોઈ એક પુરુષ એવેા હોય છે કે જે કાલવી મેઘની જેમ અવસર આવે ત્યારે દાન દે છે, અને પરોપકાર આદિ કરે છે, પણ તે અકાલવી હાતા નથી. એટલે કે ચેગ્ય અવસર આવ્યા વિના એવી પ્રવૃત્તિ કરતા નથી. (૨) કોઈ પુરુષ અકાલવર્ષી હોય છે પણ કાલવી હાતા નથી. એટલે કે ચેાગ્ય અવસર વિના પણુ દાનાદ્ધિ પ્રવૃત્તિએ કરનારા હોય છે પણુ ચેગ્ય અવસરે દાનાદિ સુર્કાય Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना __" चत्तारि मेहा " इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम्-एको मेघः क्षेत्रवीक्षेत्रेधान्याद्युत्पत्तिस्थाने वर्पतीत्येवं शीलः क्षेत्रवपी भवति किंतु नो अक्षेत्रवर्षी क्षेत्रभिन्नप्रदेशे वर्पणकारी न भवति इति प्रथमः १। तथा-एकः अक्षेत्रवर्षी न तु क्षेत्रवर्षी ति द्वितीयः २। तथा-एका क्षेत्राक्षेत्र वपीति तृतीयः ३, एको नो क्षेत्रवर्षी नो अक्षेत्रवर्षी ति चतुर्थः।४। (९) 'एवमेव ' इत्यादि-एवमेव पुरुपजातानि चवारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुपः क्षेत्रवर्षी -क्षेत्रे-पात्रे वर्पति-दानश्रुतादिनिक्षिपतीत्येवंशीलस्तथा भवति, नहीं होता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो काल अकाल दोनों अवसरों पर वरसनेवाला होता है ३ तथा कोई एक पुरुप ऐसा होता है जो न कालवर्षी होता है और न अकालवी होता है ४ (८) फिरभी--" चत्वारि मेहा" इत्यादि-मेघ चार प्रकारके होते हैं जैसा-कोई एक मेघ ऐसा होता है जो क्षेत्रमें-धान्यादि उत्पत्तिके स्थानभूत खेतमें वर्षी-बरसनेके स्वभाववाला होता है अक्षेत्रवर्षी नहीं होता है, क्षेत्रले भिन्न प्रदेशमें बरसनेके स्वभाववाला नहीं होता है ? तथा कोई एक मेघ ऐसा होता है जो अक्षेत्रवर्षी होता है. क्षेत्रवर्षी नहीं होता है २ तथा कोई एक मेघ ऐसा होता है जो क्षेत्र और अक्षेत्र इन दोनोंमें वरसनेके स्वभाववाला होता है ३। तथा कोई एक मेघ ऐसा होता है जो क्षेत्र और अक्षेत्र इन दोनों में भी वरसने के स्वभाव वाला नहीं होता है (४) ९ इसी प्रकारसे पुरुष भी चार प्रकारके कहे गये हैं-जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो क्षेत्रवर्षी होता है क्षेत्रमें-पात्रमें दान, श्रुत आदिका निक्षेपण करકરનારે હેત નથી. (૩) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે કાલવ પણ હોય છે અને અકાલવણ પણું હોય છે (૪) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે કલિવષી પણ હોતો નથી અને અકાલવવી પણ હેતે નથી. ૫૮ "चत्तारि मेहा" छत्याहि-मेघना नाय प्रमाणे यार । ५९ ४ह्या છે-કઈ મેઘ એવો હોય છે કે જે ક્ષેત્રમાં-ધાન્યાદિ ઉત્પન્ન કરનારાં ખેતરોમાં વરસનારે હોય છે, પણ અક્ષેત્રમાં–વેરાન-પ્રદેશમાં વરસનાર હોતો નથી. (૨) ઈ મેઘ અક્ષેત્રવષી હોય છે પણ ક્ષેત્રવષી હેત નથી. (૩) કઈ મેઘ ક્ષેત્રવષી પણ હોય છે અને અક્ષેત્રવર્ષ પણ હોય છે. (૪) કઈ મેઘ ક્ષેત્રવથી પણ હોતો નથી અને અત્રવથી પણ હોતો નથી એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) કઈ એક પુરુષ ક્ષેત્રવવી હોય છે પણ અક્ષેત્રવવી હોતો નથી. એટલે કે Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०३ सू०९ मेघदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३११ किं तु नो अक्षेत्रवर्षी - अपात्रे दानश्रुतादीनां निक्षेपी न भवतीति प्रथमः १| तथाएकोऽक्षेत्रवर्षी न तु क्षेत्रवर्षी भवति इति द्वितीयः २ तथा एको महौदार्यात् पात्रापात्र विचाररहिततया प्रवचनप्रभावनादिकरणाद्वा क्षेत्राक्षेत्रवर्षी - पात्रापात्रवर्षी भवति इति तृतीयः ३ तथा - एकः पात्रापात्रवर्षी - दानादानमवृत्तिकः कृपणः इति चतुर्थः (१०) " चत्तारि मेहा " इत्यादि - स्पष्टम्, नवरम् - एको मेघो जनयिता - धान्याकुत्पादयिता भवति किन्तु निर्मापयिता - सस्यादिसम्पादयिता न भवति अन्ते दृष्टिवर्जितत्वात् इति प्रथमः १ | नेके स्वभाववाला होता है अक्षेत्रवर्षी नहीं होता है-अक्षेत्र में अपादानश्रुतादिका निक्षेप करये वाला नहीं होता है १ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो अक्षेत्रवर्षी होता है, क्षेत्रवर्षी नहीं होता है २ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो महान् उदारतादि गुणवाला होने से या प्रवचनकी प्रभावनादि रूप कारणसे पात्र अपात्रका विचार किये विनाही क्षेत्राक्षेत्रवर्षी होता है पात्रापात्रवर्षी होता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो न पात्रवर्षी होता है और न अपात्रवर्षीही होता है ऐसा वह दानादान इन दोनोंमें अप्रवृत्तिबाला होता है-अर्थात् कृपण होता है ४ (१०) फिर भी - " चत्तारि मेहा " इत्यादि - मेघ चार प्रकार के होते हैं इनमें कोई एक मेघ ऐसा होता है जो जनयिता होता है- धान्यादि अङ्कुरोंका उत्पन्न करनेवाला होता है, किन्तु निर्मापयिता नहीं होता તે ચાગ્ય પાત્રમાં દાન, ત આદિના નિક્ષેપ કરનારા હાય છે પણુ અાગ્ય પાત્રમાં દાન, શ્રુત આદિના નિક્ષેપ કરનારા હૈાતેા નથી. (૨) ઢાઇ પુરુષ એવા હાય છે કે જે અક્ષેત્રવષી હોય છે, પણ ક્ષેત્રવી' હાતે નથી. (૩) કાઇ પુરુષ એવા હાય છે કે તે ક્ષેત્ર-અક્ષેત્રના વિચાર કર્યા વિના પાત્ર-અપાત્રને વિચાર કર્યાં વિના દાન દેનારા અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરનારા હાય છે એટલે કે તે ક્ષેત્રવી" પણુ હાય છે અને અક્ષેત્રવી પણ હેાય છે. (૪) કાઈ પુરુષ એવા હાય છે કે જે ક્ષેત્રવષી પણ હાતા નથી—યેાગ્ય વ્યક્તિને દાનાદિ દેનારા પણ હાતા નથી, અને અક્ષેત્રવષી યાગ્ય વ્યક્તિને દાનાદિ દેનારા પણ હાતા નથી. એવા પુરુષ કૃપશુ હોય છે. ૧૦ના " चत्तारि मेहा " त्याहि- भेधना नीचे प्रमाो यार प्रहार पशु पडे છે(૧) કાઇ મેઘ એવે! હાય છે કે જે જનિયતા ( ધાન્યાદિના અંકુરાને ઉત્પન્ન કરનારા હોય છે પણ નિર્માપયિતા (સ’પાદયિતા) હાતા નથી એટલે Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ स्थानागसूत्रे ___ तथा-एकोऽन्ते वर्षणेन निर्मापयिता-सस्यसम्पादयिता भवति किन्तु जनयिता-धान्याकुरादीनामुद्गमयिता न भवतीति, द्वितीयः २। तथा-एको जनयिताऽपि निर्मापयिताऽपि च भवतीति तृतीयः ३॥ तथा-एको नो जनयिना नापि च निर्मापयिता भवतीति चतुर्थः ४ (११) 'एचामेव ' चत्तारि अमापियरो” इत्यादि-एवमेव-पूर्वोक्तमेघवदेव मातापितरश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एको-प्रथमौ-मातापितरौ जनयितारौ-जन्मदातारौ भवतः, किन्तु निर्मापयितारौ-गुणसम्पन्नकर्तारौ न भवतः इति प्रथमभङ्गः १॥ तथा-एको-अन्यौ द्वितीयौ कौ चित् तौ निर्मापयितारी भवतः न तु जनयितारो, इति द्वितीयो भङ्गः २। एवं शेषावपि । एवं शिष्यं प्रतिप्राचार्योऽपि योजनीयः । ४ । (१२) है अन्नमें वृष्टिवर्जित होनेले उनका सम्पादयिता नहीं होता है १ तथा कोई मेघ ऐसा होता है जो अन्नमें वरसने से निर्मापयिता होता है सस्यादिका सम्पादयिता होता है, पर जनयिता नहीं होताहै-धान्याकुरादिकोंका उद्गमयिता-उगानेवाला नहीं होताहै २ तथा-कोई एक मेघ ऐसा होता है जो जनयिता भी होता है और निर्मापयिता भी होता है ३ तथा कोई एक मेघ ऐसा होता है जो न जनयिता होता है और न निर्मापयिताही होता है ४ (११) इसी प्रकारसे "चत्तारि अम्मापियरो" इत्यादि-मातापिता भी चार प्रकारके होते हैं-कोई ' एक मातापिता ऐसे होते हैं-जो जनयिता होते हैं-जन्मदाता होते हैं पर वे निर्मापयिता नहीं होते हैं-गुणों से युक्त करनेवाले नहीं होते हैं १ तथा कोई एक मातापिता ऐसे होते हैं-जो निर्मापयिता होते हैं કે પાછતર વૃષ્ટિને અભાવે ડાંગર આદિ ધાન્યને ઉત્પાદક. હોતો નથી. (૨) કેઈ એક મેઘ એવા હોય છે કે જે વર્ષાન્તકાળે વરસનારે હોવાથી ડાંગર આદિ ધાન્યના બીજેને સંપાદયિતા (ઉત્પાદક) હોય છે પણ ધાન્યકરોને જનયિતા (ઉગાડનાર) હોતો નથી. (૩) કેઈ એક મેઘ ધાન્યાંકુરોને જનયિતા પણ હોય છે અને બીજેને સંપાદયિતા પણ હોય છે અને (૪) કઈ મેઘ એવો હોય છે કે જે જનયિતા પણ હોતો નથી અને સંપાદયિતા પણ હોતા नयी. ॥११॥ " चत्तारि अम्मापियरो" त्याल-मे प्रभाधे मातापिताना પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર હોય છે કેઈ માતાપિતા જન્મદાતા હોય છે પણ બાળકમાં સારા ગુણોનું સિંચન કરનારા દેતા નથી (૨) કાઈ માતા પિતા નિમપયિતા (સારા સારા ગુણોનું સિંચન કરનારા) હોય છે પણ જનયિતા Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०४६०९ मेघदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ___ "चत्तारि मेहा" इत्यादि-स्पष्टम् , नवरम् चत्वारो भगा यथा-देशवर्षी नो सर्ववर्षी १ सर्वनी नो देशवर्षी २, देशवयपि सर्ववर्ण्यपि३, नो देशवो नौ सर्ववर्षी ४। तत्राचं भङ्गाद्वयं स्पष्टमेव यस्तृतीयो भङ्गः- देशवर्ण्यपि सर्ववर्ण्यपि इत्येवरूप तस्य क्षेत्रकालात्मशब्दानाश्रित्य नव विकल्पाः भवन्ति यथा-यो विवक्षितभरतादिक्षेत्रस्य वर्षादिकालस्य चैकदेशे आत्मनोऽप्येकदेशेन वर्षति स देशवर्षी १, क्षेत्रकालयोः सर्वयोः आत्मनोऽपि सर्वतो वर्पति स सर्ववर्षी २, क्षेत्रतो जनयिता नहीं होते हैं २ इसी प्रकारसे शेष दो भङ्गोके विषयमें लगा लेना चाहिये ४ इसी प्रकार से शिप्यके प्रति आचार्यको भी लगा लेना चाहिये (१२) फिरभी-" चत्तारि मेहा" इत्यादि-मेघ चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे- देशवर्षी नो सर्ववर्षी १, सर्ववर्षी नो देशवर्षी २, देशवयपि; सर्ववयपि ३ नो देशवर्षी नो सर्ववर्षी४ । उनमें प्रथम दो भांगे स्पष्टही है। देशवष्यपि सर्ववर्ण्यपि इस प्रकारका जो तीसरा भांगा है उनका क्षेत्र-काल-आत्म शब्दोंको आश्रित करके नव विकल्प होते हैं, जैसेकि जो विवक्षित भरतादि क्षेत्रके एवं वर्षादि कालके एकदेशमें और आत्माकेभी एकदेशसे वरसे वह देशवर्षी है १ क्षेत्र-काल-आत्मासे सर्वतः बरसे वह सर्ववर्षी है २ क्षेत्रसे देशमें कोलसे और आत्मासे सर्वतः ३ कालसे देशमें, क्षेत्र से और आत्मासे सवत्र और सर्वतः । હતા નથી. એ જ પ્રમાણે બાકીના બે ભાગા પણ સમજી લેવા. એજ પ્રમાણે આચાર્ય શિષ્ય સંબંધી ચાર ભાંગા પણ સમજી લેવા જોઈએ. ૧ર ___" चत्तारि मेहा" त्याह-मेघना नीय प्रमाणे या२ १२ पाछ જેમકે-દેશવર્ષો નો સર્વવપીર ૧, સર્વવર્ષિને દેશવર્ષ ૨, દેશવર્ષેપિ સર્વવષ્ય 3'नो देशवर्षी नो सर्ववी ४, ते पडताना में भी स्पष्ट , 'देशवयपि सर्ववष्यपि' से शतना २ श्री RL छ तेना क्षेत्रमा આત્મા એ શબ્દને આશ્રય કરીને નવ વિકલ્પ બને છે. જેમકે-જે વિક્ષિત ભરતાદિ ક્ષેત્રના અને વર્ષાદિકાળના એકદેશમાં અને આત્માને પણ એકદેશથી વરસે તે દેશવર્ષ છે. ૧, ક્ષેત્ર-કાલ આત્માથી સર્વતઃ વરસે તે સવ. વર્ષ છે ૨, ક્ષેત્રથી દેશમાં કાલથી અને આત્માથી સર્વતઃ ૩, કાલથી દેશમાં ક્ષેત્રથી અને આત્માથી સર્વત્ર અને સર્વતાર ૪ આત્માથી દેશમાં ક્ષેત્ર અને Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशास्त्र देशे कालतः आत्मनश्च सर्वतः ३, कालतो देशे क्षेत्रता:-आत्मनश्च सर्वत्र सर्वतः ४, आत्मनो देशेन क्षेत्रतः कालतश्च सर्वत्र ५, क्षेत्रकालतो देशेन आत्मनश्च सर्वतः ६, क्षेत्रत आत्मनन्ध देशेन कालतः सर्वत्र ७, कालतः क्षेत्रतो देशेन आत्मनश्च सर्वतः ८. कालत आत्मनश्च देशेन क्षेत्रतः सर्वत्र ९। इत्येवं नवनिर्विकल्पैर्वपति स देशवर्णी सर्ववर्षी चेति तृतीयो भङ्गः ३। चतुर्थरतु द्विधाऽपि देशतः सर्वतो निषेधरूपः सुगम एवेति । ____" एवामेव चत्तारि रामाणो" इत्यादि-एवमेव-उक्तमेघवदेव राजानश्चस्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एको राजा' देशाधिपतिः-विवक्षित देशम्य अधिपतिःतत्रैव योगक्षेमकरणे प्रभुदेशाधिपति भवति, किन्तु सर्वाधिपतिः-सर्वयोगक्षेमकरणप्रभुन भवति, स च पल्लीपत्यादिरिति प्रथमः ११ तथा-एकः सर्वाधिपतिः स्वदेशेऽन्यत्र वा सर्वत्र प्रभवति यः स भवति किन्तु न देशाधिपतिः-देशमात्रस्याधिपतिनं भवति, इति द्वितीयः २। तथा-एको देशाधिपतिरपि सर्वाधिपतिरपि आत्माले देशम, क्षेत्र और कालसे सर्वत्र ५, क्षेत्र और कालसे देशमें आस्लासे सर्वतः ६, क्षेत्र और आत्माले देशमें कालसे सर्वत्र ७, कालसे और क्षेत्रले देशमै आत्मासे सर्वत: ८, कालसे और आत्मासे देशमें क्षेत्र सर्वत्र ९, इस प्रकार नौ विकल्पोंसे बरसनेके स्वभाववाला होता है वह, देशवर्षी और सर्ववी है, इस प्रकार तीसरा भंगहै । और चौथा भंग देशसे और सर्वले निषेधरूपसे सुगमहीहै ४। (१३) -: " एवामेव चत्तारि रायाणो" इसी प्रकारसे राजा चार प्रकार के होते हैं, जैसे कोई एक राजा देशाधिपति होता है सर्वाधिपति नहीं होता है १ कोई एक राजा ऐला होता है जो सर्वाधिपति होता है કાળથી સર્વત્ર પ, ક્ષેત્ર અને કાળથી દેશમાં આત્માથી સર્વતઃ ૬, ક્ષેત્ર અને આત્માથી દેશમાં કાળથી સર્વત્ર, કાળથી અને ક્ષેત્રથી દેશમાં આત્માથી સર્વતઃ ૮, કાલથી અને આત્માથી દેશમાં, ક્ષેત્રથી સર્વત્ર ૯, આ રીતે નવ વિકલ્પથી વરસવાને સ્વભાવવાળો જે હોય તે દેશવષી અને સર્વવર્ષ છે. આ રીતે ત્રીજો ભંગ છે. ચોથે ભંગ દેશથી અને સર્વથી નિવેધ રૂપે સરળ જ છે.૧૩ . "एवमेव चत्तारि रायाणो त्याह-सका प्रभारी रातना पथ यार પ્રકારે કહ્યા છે–(૧) કઈ એક રાજા દેશાધિપતિ હોય છે પણ સર્વાધિપતિ હેતે નથી (૨) કોઈ એક રાજા એ હોય છે કે જે સર્વાધિપતિ હોય છે પણ દેશાધિપતિ હોતે નથી (૩) કેઈ એક રાજા એ હોય છે કે Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ0 ४ सू०१० मेघदृष्टान्तेन पुरुपंजातनिरूपणम् ३६५ च यद्वा-देशाधिपतिर्भूत्या सर्वाधिपतिभवति, वासुदेवादिवत् स देश-सर्वोभया. धिपतिरिति तृतीयः ३। तथा-एको नो देशाधिपतिनापि च सर्वाधिपति भवति स च राज्यपरिभ्रष्टः । इति चतुर्थः ।४। (१४) ॥ सु० ९॥ .. मूलम्-चत्तारि मेहा एपणता, तं जहा-पुक्खलसंवट्टए १ पज्जुले २ जीमूए ३ जिन्हे ४ पुक्खलवट्टए गं सहामेहे देशाधिपति नहीं होता है २ तथा कोई एक राजा ऐसा होता है, जो देशाधिपति भी होता है, और सर्वाधिपति भी होता है ३ और कोई राजा ऐसा होता है जो न देशाधिपति होता है और न सर्वाधिपति होता है ४ इनमें प्रथम प्रकारका राजा फिली एक विवक्षित देशका अधिपति होता है, वह वहीं पर योगक्षेम करनेमें समर्थ रहता है सर्वत्र योगक्षेम (अलब्ध लाभ - योग, लब्ध . का रक्षण' + क्षेम) करने में समर्थ नहीं होता है ऐला वह, पल्लीपति आदि रूप होता है हितीय प्रकारका जो राजा होता है वह स्वदेशमें भी और अन्यत्र भी सर्वत्र योगक्षेम करने में समर्थ होता है वह केवल देशमात्रका अधिपति नहीं होता है-तृतीय प्रकारका जो राजा होताहे वह वासुदेव आदिकी तरह देशोधिपति होकर सर्वाधिपति हो जाता ३ तथा चतुर्थ प्रकारका जो राजा होता है वह जब राज्य से परिभ्रष्ट हो जाता है तब वह कहींका भी अधिपति नहीं होता है (१४) सूत्र ९॥ દેશાધિપતિ પણ હોય છે અને સર્વાધિપતિ પણ હોય છે. (૪) કેઈ રાજા એવો હોય છે કે જે દેશાધિપતિ પણ હોતું નથી અને સર્વાધિપતિ પણ હેતે નથી આ ચાર વિકલ્પનુ સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે–પહેલા - પ્રકારને રાજા કેઈ અમુક દેશને અધિપતિ હોય છે અને એટલા જ દેશનું - યોગક્ષેમ કરવાને સમર્થ હોય છે, પણ સર્વત્ર ગક્ષેમ કરવાને સમર્થ હેતે નથી. એ તે રાજા પક્ષીપતિ આદિ રૂપ હોય છે. (૨) બીજા પ્રકારનો જે રાજા કહ્યો છે તે સ્વદેશમાં પણ ગક્ષેમ કરવાને સમર્થ હોય છે. અને અન્યત્ર પણ ગક્ષેમ કરવાને સમર્થ હોય છે તે કેવળ દેશ માત્રને જ અધિપતિ હોતું નથી. ત્રીજા પ્રકારનો રાજા વાસુદેવ આદિની જેમ દેશાધિપતિમાંથી સર્વાધિ પતિ બની ગયો હોય છે. ચેધા પ્રકારમાં પદભ્રષ્ટ રાજાને ગણાવી શકાય છે કારણ કે તે દેશાધિપતિ પણ હેત નથી અને સર્વાધિપતિ પણ હોતું નથી કે ૧૪વસૂલ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ स्थासूत्रे एगेणं वासेणं दसवास सहस्साइं भावेइ १, पज्जुन्नेर्ण महामेहे एगेणं वासेणं दसवाससयाई भावेइ २ जीमूए णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवासाईं भावेइ २, जिम्हेणं महामेहे बहुहिंवासेहिं एगं वासं भावेइ वाणवा भावेइ ४ (१५) ॥ सू० १०॥ छाया - चत्वारो मेघाः प्रज्ञताः, तद्यथा- पुष्करावर्तः १, पर्जन्यः २, जीमूतः ३ जिलः ४ | पुष्करावर्तः खलु महामेघः एकया वृष्टया दशवर्षसहस्राणि भावयति १, पर्जन्यः खलु महामेघः एकया वर्षया दशवर्षशतानि भावयति २, जीमूतः खलु महामेघः एकया वर्पया दशवर्षाणि भावयति ३, जिह्मः खलु महामेघो वहुभिर्वर्पाभिरेकं वर्षं भावयति वा न वा भावयति ४ (१५) ||०१० ॥ टीका - " चत्तारि मेहा " इत्यादि - मेघाथत्वारः मज्ञप्ताः, तद्यथा- पुष्कराव : १, पर्जन्यः २, जीमूतः ३, जिल्लव ४। तत्र पुष्करावर्ती नाम खलु -महामेघः एकया दृष्टया सकृद्वर्पणेन दशवर्षसहस्राणि दशसहस्रसंख्यक वर्षपर्यन्तम् पृथिवीं भावयति - जलादां करोति-धान्यादिनिष्पत्तिसमर्थ सम्पादयतीति भावः १। तथा - द्वितीयः पर्जन्यो महामेघ एकया वर्पया दशवर्षशतानि - एकसहस्रवर्प - "चत्तारि मेहा पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र १० ॥ मेघ चार प्रकारके कहे गये हैं- जैसे- पुष्करावर्त १, पर्जन्य २ जीमूत ३ और जिल्ल ४ इनमें पुष्करावर्त यह महामेव होता है और यह एकबारही बरसने पर दस हजार वर्ष तक भूमिको जलसे आर्द्र आदि कर देता है, उसे धान्यादि निष्पत्ति में समर्थ कर देता है द्वितीय प्रकारका जो मेघ होता है वह भी महामेघ रूप होता है यह भी एक बारकी वर्षा से पृथिवीको एक हजार वर्ष तक धान्यादि निष्पत्ति में समर्थ कर देता है " चत्तारि मेहा पण्णत्ता " इत्यादि - (सू. १०) भेधना नीचे प्रभाऐ यार अक्षर ह्या छे - (१) पुष्टुरावर्त, (२) यन्य, (૩) જીમૂત અને (૪) જિહ્મ- પુષ્કરાવત મહામેધ રૂપ હોય છે તે મેઘ એક જ વખત વરસવાથી ૧૦ હજાર વર્ષ સુધી ભૂમિમાં ભીનાશ રહે છે તે કારણે તે મેઘ ભૂમિને ધાન્યાદિ ઉત્પન્ન કરવાને સમર્થ કરી નાખે છે. બીજે ૨ પુજન્ય નામના મેઘ છે તે પણ મહા મેઘરૂપ છે. તે એક જ વખત પરસવાથી જમીનને એક હજાર વર્ષ સુધી ધાન્યાદિ ઉત્પ” કરવાને લાયક Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुधाटीका स्था०४ उ० ४ सू०१० मेघदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३१७ पर्यन्तं भूत्रं भावयति । तथा जीमूतो महामेघो दशवर्षाणि भुवं भावयति । तथा-जिह्मस्तु महामेघो बहुभिर्वर्षाभिरेकं वर्षम्-एकवर्ष पर्यन्तमेव भुवं भावयति, पा-यद्वा न भावयति रूक्षजलत्वात् , इति चतुर्थः । ४।। ___ अत्रान्तरे पुरुषाधिकारात् पुष्करावर्तादिवत् पुरुषाश्चत्वारः ऊहनीयाः । तत्र पुष्करावर्तसमानः पुरुषः सकृदुपदेशेन सकृद्दानेन वा बहुकालपर्यन्तं पाणिनं भावयति-शुभस्वभावसम्पन्नं करोति, यद्वा-समृद्धं करोति १, तथा-पर्जन्यसमानः पुरुषोऽल्पकालपर्यन्तमेव सकृदुपदेशेन सकृदानेन वा देहिनं भावयतिशुभस्वभावं धनिनं वा करोति २। तथा-जीमूततुल्यः पुरुषोऽल्पतरकालपर्यन्ततथा जीमूत नामका जो महामेघ होताहै,वह दस वर्ष तक पृथिवीको अपनी एकबारकी वर्षासे धान्यादिकी निष्पत्ति करने में समर्थ बना देता है और जो जिह्म नामका महामेघ होता है वह अपनी अनेक वर्षाओंसे एक वर्ष तकही पृथिवीको धान्यादिकी निष्पत्ति करने में समर्थ बनाता है अथवा नहीं भी बनाता है क्योंकि इसका जल रूक्ष होता है। ___इसी प्रकारसे पुरुषाधिकारको लेकर यहां ऐसा कथन कर लेना चाहिये कि पुरुष भी चार प्रकारके होते हैं पुष्करावर्त महामेघके समान वह पुरुष है जो एकबारके उपदेशसे या एक बारके दानसे प्राणियोंको बहत समय तक शुभ स्वभावसे युक्त कर देता है अथवा समृद्ध कर देता है १ पर्जन्य समान वह पुरुष है जो एक बारके उपदेशसे या एक बारके दोन अल्पकाल तकही प्राणियोंको या प्राणीको-शुभ स्वभावसे युक्त कर देता है २ जीमूतके समान वह पुरुष है जो अल्पतर काल બનાવી દે છે. ત્રીજો જીમૂત નામને જે મેઘ કહ્યો છે તે પણ મહામે રૂપ છે તે એક જ વખત વરસવાથી ભૂમિમાં ૧૦ વર્ષ સુધી ધાન્યાદિની ઉત્પત્તિ થઈ શકે છે. ચોથે જે જિલ્પ નામને મહામેળ છે, તે પિતાની અનેક વર્ષો ઓથી ભૂમિને એક વર્ષ સુધી જ ધાન્યાદિ ઉત્પન્ન કરવાને સમર્થ બનાવે છે ખરે અને નથી પણ બનાવતા, કારણ કે તેનું પાણી. રૂક્ષ હોય છે. એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પડે છે–(૧) પુષ્કરાવત મેઘસમાન પુરુષ–જે માણસ એક જ વાર ઉપદેશ આપીને જીવેને લાંબા સમય સુધી શુભ સ્વભાવવાળે કરી નાખે છે અથવા એક જ વાર દાન આપીને જીને લાંબા સમય સુધી સમૃદ્ધ કરી નાખે છે તે પુરુષને પુષ્કરાવર્ત મેઘ સમાન ગણવામાં આવે છે. (૨) પર્જન્ય સમાન પુરુષ–જે પણ એક જ વાર ઉપદેશ આપીને અથવા દાન આપીને જીવને અલ્પકાળ પર્યક્ત શુભ સ્વભાવ યુક્ત અથવા સમૃદ્ધ કરી નાખે છે, એવા પુરુષને પજન્ય સમાન Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ।' स्थानाक्षसूत्र मेव सकृदुपदेशेन सकृदानेन वा अविनं भावयति समृद्धिशालिन वा करोति ।। तथा-जिह्मसमानः पुरुषोऽसकृदुपदेशेनासदानेनापि चाऽल्पतमकालपर्यन्तं जन्तुं भावयति वा न मानयति, उपकरोति वा नोपकरोतीनि ४। (१५)॥सू०१०॥ मूलम् --चत्तारि करंडगा पणत्ता, लं जहा सोवागकरंडगा १, वेसियाकरंडए २, गाहावइकरंडए ३, रायकरंडए ४, (१६) । एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णता, तं जहा--सोवागकरंडगसमाणे १, बेलियाकरंडगससाणे २, माहावइकरंडगसमाणे ३, रायकरंडगलमाणे ४ (१७) ॥सू० ११ ॥ छाया-चत्वारः करण्डकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्वपाककरण्डकः १, वेश्याकर___ण्डकः २, गृहपतिकरण्डकः ३, राजकरण्डक: ४। (१६) एवमेव चत्वार आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यया-यपाककरण्डकसमान. १, वेश्याकरण्डकसमानः .२, गृहपतिकरण्डकसमान: ३, राजकारण्डकसमानः ४! (१७) ॥१० ११!! 'टीका- चत्तारि करंडगा। इत्यादि-करण्ड:-वंशशलामादिनिर्मितो भाजनविशेपः.करंडिया' इति भाषाप्रसिद्धः स एव करण्डकः, ते चत्वारः प्रज्ञताः, तकही एक बारके उपदेशले या 'एक चारके दानसे प्राणीको शुभ भावसे युक्त कर देता है या समृद्धिशाली बना देता है ३ तथा जिह्म मेघ समान वह पुरुष है जो चार २ के उपदेश या चार २ के दानसे ..भी अल्पतस काल तकही प्राणीको शुभ स्वभाववाला या पैसे वाला बना देता है अथवा नहीं भी बना देता है ऐसा मनुष्य किसीका . उपकार करता भी है नहीं भी करता है १५ स्तू. १० . "चत्तारि करंडगा पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र ११ ॥ वंशकी शालाकाओंसे निर्मित हुए पात्र विशेषका नाम करंडक है, जिसे भाषामें करंडिया कहते हैं ये करंडक चार प्रकार के होते हैंકહે છે (૩) જીમૂત સમાન પુરુષ–જે પુરુષ એક જ વાર ઉપદેશ આપીને અથવા દાન આપીને જીવને અલપતર કાળ સુધી શુભ સ્વભાવવાળા અથવા સમૃદ્ધ કરી નાખે છે તે પુરુષને જીમૂત સમાન કહે છે. (૪) જિહ્મ મેઘ સમાન પુરુષ–જે માણસ વારંવાર ઉપદેશ અથવા દાન દેવા છતાં પણ ને અલ્પતમ કાળ સુધી શુભ સ્વભાવવાળા અથવા સમૃદ્ધિશાળી બનાવી શકે છે અથવા બનાં પી શકતું નથી એવા પુરુષને જિહ્મસમાન કહે છે. (૧૫) સૂ. ૧૦ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ . ४ सू० ११ करंडकदृष्टान्तेन आचार्यनिरूपणम् ३१९सधथा-श्वपाककरण्डकः स च कचवच्छिष्टाशुचिप्रभृत्वसारस्त्वाश्रयतयाऽत्य तमपारो भवति १, तथा-वेश्याकरण्डकः स तु जनुपूरितसुवर्णनिर्मितालङ्काराधाश्रयत पा श्वपाककरण्डापेक्षया किञ्चित्वारोऽपि गृहपति-राजकरण्डापेक्षया लसार एव भाति २, तथा-गृहपति करण्डकः-गृहपतिः-सम्पत्तिशाली कौटुम्बिका तस्य काण्ड कस्तथा, स च विशिष्टमणिस्वर्णाभरणाधाश्रयतया पूर्वोक्तकरण्डद्वयात् सारतरो भवति ३, तथा-राजकरण्डका-स तु बहुमूल्यरत्नाद्याश्रयतया पूर्वोक्तकरण्डत्रयात्सारतमो भवति ।। . . . . . एक श्वपाककरण्डक १ दूसरा वेश्या करण्डक, तीसरा गृहपति करण्डक और चौथा राजकरण्डक इनमें जो श्वपाको चाण्डालका करण्डक होता है, वह कूडा वगैरह के रखे जाने के कारण या झठ वगैरहके रखे • जाने के कारण या अपवित्र हट्टी आदिके भरनेके कारण अत्यन्त असार होता है १ वेश्याका जो करण्डक होता है वह लाख से युक्त चपड़ी के युक्तं सोनेके बने गहनों अलंकारोंसे युक्त होने के कारण-वे उसमें घरे रहते हैं-इस कारणसे श्वपाकके करण्डककी अपेक्षा कुछ सारवाला होता है पर गृहपतिके या राजाके करण्डककी अपेक्षा तो असार होता है २ जो सम्पत्तिशाली कौटुस्धिक गृहपति होता है, उसका करण्डक विशिष्ट मणियोंके गहनोंसे या स्वर्णके गहनोखे भरा रहनेके कारण पूर्वोक्त करण्डक इयसे सारतर होता है ३ तथा राजाका - जो करण्डक होता है वह बहुमूल्यकाले रत्नादिकोले अरा रहने के कारण पूर्वोक्त तीन करण्डकोंकी अपेक्षा सारतम होता है ४ (१६) । " चत्तारि करडगा पण्णत्ता " याह-(सू. ११) । - ४२ डियाना यार ४.२ ४॥ छ-(१.) वा ४२32-यांना કરંડિયાને શ્વપાક કડક કહે છે. તેમા કચરો, સુંઠ, મળ આદિ અપવિત્ર ચીજો ભરવામાં આવે છે તે કારણે તે અસાર હોય છે (૨) વેશ્યા કરંડક – વેશ્યાના કરંડિયાને વેશ્યાકરંડક કહે છે. તેમાં લાખ આદિથી, યુક્ત સોનાનાં આભૂષણે ભરેલા હોવાને કારણે તે શ્વપાક કડક જે અસાર હેત નથી. તે શ્વપાક કરંડક કરતા સારયુક્ત હોય છે પણ ગૃહપતિકરંડક અને ૨ જકરંડક કરતાં તે અસાર હોય છે (૩) ગૃહપતિકરડક–સંપત્તિશાળી ગૃહ સ્થના કર ડિયાને ગૃહપતિકરંડક કહે છે. તે વિશિષ્ટ મણિઓના કે સુવર્ણના આભૂષણોથી ભરેલું હોય છે. તે કારણે પૂર્વોક્ત બે કરડિયા કરતાં તે વધારે સારયુક્ત હોય છે. (૪) રાજકર ડક–રાજાને કરંડિયે બહુ મૂલ્યવાન રત્નાદિકે થી ભરેલો હેવાને કારણે પૂર્વોક્ત ત્રણે કરંડિયા કરતા વધારે સારયુક્ત હોય છે.૧૬ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० स्थानानसूत्रे " एवमेव चत्वार आयरिया " इत्यादि - एवमेव - उक्त करण्डकचतुष्टयदेव आचार्यात्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा श्वपाककरण्डकसमानः-य आचार्य उस्तूत्रादिरूपत्वादुन्मार्गगामितया चारित्रपरिभ्रष्टो भवति सोऽत्यन्तासारयाश्राण्डालकरण्डकतुल्य उच्यते । १ । इति प्रथमः १ | तथा - वेश्या करण्डकसमानःयस्तु किञ्चिदेवश्रुतं यथा कथंचित्मठित्वा बागाडम्बरेण मुग्धजनमाकृष्टं करोति स परीक्षायामदक्षताऽसारत्वादेव वेश्या करण्डकतुल्यः । इति द्वितीयः २ तथागृहपतिकरण्डकसमानः- यस्तु स्व- परसिद्धान्तज्ञः क्रियादिगुणसम्पन्न भवति स सारसम्पन्नत्वाद् गृहपतिकरण्डकतुल्यः । इति तृतीयः ३ तथा - राजकरण्डकसमानः- यस्तु सर्वैरप्याचार्यगुणैरलङ्कृतवया तीर्थङ्करसदृशः स सारतमत्वाद् नृपति करण्डकतुल्यः सुर्मादिवत् इति चतुर्थः ४ (१७) || सू० ११ ॥ इसी प्रकार से आचार्यजन भी चार प्रकारके होते हैं - श्वपाक करण्डक तुल्य वह आचार्य है, जो उत्सूत्र शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करता हैं उन्मार्गगामी होता है अतः चारित्र से भ्रष्ट होता है १ वेश्या कर. ise तुल्य वह आचार्य है जो थोड़ासाही श्रुत यथाकथञ्चित् रूप से पढकर अपने वचन डम्बर से मुग्धजनको आकृष्ट करता है वह परीक्षा में अदक्ष अचतुर होने के कारण असार कहा गया है २ गृहपति करण्डकके समान वह आचार्य है जो स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तका जाननेवाला होता है, और क्रियादि गुणोंसे सम्पन्न होता है ऐसा वह सारसम्पन्न आचार्य गृहपति कण्डक जैसा कहा गया है ३ तथा राजाके करण्डक समान वह आचार्य है जो समस्त आचार्यों के गुणोंसे अलङ्कृत होने के कारण એજ પ્રમાણે આચા પણુ ચાર પ્રકારના होय छे--(१) શ્વપાક કરક સમાન આચાય —જે આચાય ઉત્સૂત્ર (શાસ્ત્ર વિરૂદ્ધની) પ્રરૂપશુ કરે છે, ઉન્માગગામી હોય છે અને તે કારણે ચારિત્રભ્રષ્ટ હોય છે એવા આચાર્ય ને શ્વપાક કર'ક સમાન કહે છે. (૨) વેશ્યાકરડક સમાન આચાય જે આચાય થાડા થૈડા શ્રુનના જ્ઞાતા હૈાય છે, અને પેાતાના વચનાર્ડ ભર દ્વારા મુગ્ધજનાને આકનારા હોય છે તેમે શ્રુતજ્ઞાનમાં પૂર્ણ ન હાંવાને કારણે શ્વપાકકરડક કરતા વધારે સારયુક્ત અને ત્રીજા અને ચેાથા પ્રકારનાં આચાર્યોની અપેક્ષાએ અસારયુક્ત ગણાય છે. (૩) ગૃહપતિ કરઠક સમાન આચાય —જે આચાય સ્થસિદ્ધાંત અને પરસિદ્ધાંતના જાણકાર હાય છે અને ક્રિયાદિ ગુણેાથી સ'પન્ન હાય છે, તેમને ગૃહપતિકરક સમાન કહે છે. (ર) રાજકરડક સમાન આચાય—જે Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०१२ वृक्षदृष्टान्तेन आचार्यस्वरूपनिरूपणम् ३२१ मूलम् — चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा - साले णाममेगे सालपरियाए १, साले णाममेगे एरंडपरियाए २, एरंडे णाममेगे सालपरियाए ३. एरंडे णाममेगे एरंडपरिया ४ ( १८ ) । एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा - साले णाममेगे सालपरियाए १, साले णास मेगे एरंडपरियाए २, एरंडे णाममेगे सालपरियाए ३, एरंडे णाममेगे एरंडपरियाए ४ ( १९ ) । चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा - साले णाममेगे सालपरिवारे ४ ( २० ) । एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहासाले णाममेगे सालपरिवारे ४ ( २१ ) । सालदुममज्झयारे जह साले णाम होइ दुमराया । इय सुंदर आरिए सुंदर सीसे मुणेयव्वे ॥ १ ॥ एरंडमज्झयारे जह साले णाम होइ दुमराया । इय सुंदर आयरिए मंगुल सीसे सुयव्वे ॥ २ ॥ सालदुममज्झयारे एरंडे णाम होइ दुमराया । इय मंगुल आयरिय सुंदरसीसे मुणेयव्वे ॥ ३ ॥ एरंडमज्झयारे एरंडे णाम होइ दुमराया । इय मंगुल आयरिए मंगुलसी से मुणेयव्वे |8| सू० १२ ॥ छाया - चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - सालो नामैकः सालपर्यायः १, सालो नामक एरण्डपर्यायः २, एरण्डो नामेकः सालपर्याय: ३, एरण्डो नामैक तीर्थंकर जैसा होता है, ऐसा वह सुधर्मास्वामीकी तरह सारतम होनेसे नृपतिकरण्डक जैसा कहा गया है ४ (१७) सून ११ ॥ માગાઈઁના સમસ્ત ગુ@ાથી વિભૂષિત હાવાને કારણે તીર્થંકર જેવાં હાય છેએવા સુધર્માસ્વામી જેવા સારતમ આચાર્યને નૃપતિકર’ડક સમાન કહે છે।૧૭ાસૂ ૧૧૫ स- ४१ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરર स्थानाशास्त्र एरण्डपर्यायः (१८)। एवमेव चत्वार आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सालो नामैकः सालपर्यायः १, सालो नामैक एरण्डपर्यायः २, एरण्डनामकः सालपर्यायः ३, एरण्डो नामैक एरण्डपर्यायः ४ (१९) चत्वारो वृक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सालो नामैका सालपरिवारः ४ (२०) एवमेव चत्वार आचार्या प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सालो नामकः सालपरिवारः ४ (२१)! सालद्रुममध्यकारे यथा सालो नाम भवति द्रुमराज । इति सुन्दर आचार्य सुन्दरः शिष्यो ज्ञातव्यः॥१॥ एरण्डमध्यकारे यथा सालो नाम भवति द्रुमराजः । इति सुन्दर आचायः मङ्गुलः (असुन्दरः) शिष्यो ज्ञातव्यः ।२॥ सालद्रुममध्यकारे एरण्डो नाम भवति द्रुमराजः । इति मङ्गुल आचार्यः सुन्दरः शिप्यो ज्ञातव्यः ॥ ३॥ एरण्ड मध्यकारे एरण्डो नाम भवति द्रुमराजः। इति.मङ्गुल आचार्यः मङ्गुलः शिष्यो ज्ञातव्यः ॥ ४ ॥ सू० १२ ॥ टीका- चत्तारि रुक्खा” इत्यादि-पुन क्षाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएको वृक्षः साल:-सालाख्यद्वक्षजातिमत्त्वात् सालो भवन् सालपर्यायः-सालगतनिविडच्छायत्वसंसेव्यत्वादि धर्मसम्पन्नो भवतीति प्रथमः । १।। तथा-एकः सालो सवन्नपि एरण्डपर्यायः-एरण्डगताल्पच्छायत्वासेव्यत्वादिधर्मवान् भवति । इति द्वितीयः । २। तथा-एक एरण्डः सन् घनच्छायत्वादि 'चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र १२ ॥ टीकार्थ-वृक्ष चार प्रकारके कहे गयेहैं जैसे-साल लाल पर्याय १ साल एरण्ड पर्याय २ एरण्ड साल पर्याय ३ और एरण्ड एरण्ड पर्याय ४ इनमें जो प्रथम प्रकारका वृक्षहै वह साल नामक वृक्षकी जोतिवाला होनेसे साल होता हुआ सालगत जो निबिड छाया आदि धर्म है तथा लोगोंके द्वारा आश्रय लेना आदि जो बाते हैं उनसे युक्त होता है ॥१॥ द्वितीय प्रकारका जो वृक्ष है वह साल होता हुआ भी एरण्डके जैसी पर्यायवाला होता है जैसे-एरण्ड अल्प छायावाला होता है अत "चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता" त्याहि-(सू १२) - वृक्ष या२ ४२ना ४ा छ-(१) सास-सासर्याय, (२) सास-२' पर्याय, (3) स-सासर्याय, (४) मे२- मे२४५र्याय. तमाथी पडसा ! ૨નું વૃક્ષ સાલ નામના વૃક્ષની જાતિનું હોય છે અને સાલવૃક્ષના ગુણોથી યુક્ત હોય છે એટલે કે ઘાડ છાયાથી યુક્ત હેવાને કારણે લોકે અને પ્રાણીઓને આશ્રય આપનારું હોય છે માટે તેને “સાલ–સાલપર્યાય, રૂપ કહ્યું છે. (૨) બીજા પ્રકારનું વૃક્ષ સાલ જાતિનું હોવા છતાં પણ એરંડાના Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघां टोका स्था०४ उ०४ सू०१२ वृक्षदृष्टान्तेन आचार्यस्वरूपनिरूपणम् ३२३ धर्मसम्पन्नत्वात् सालपर्यायो भवताति तृतीयः ३, तथा - एक एरण्डः सन् पुनरे-परतपर्यायः - एरण्डगतालपच्छायत्वादि धर्मोपेतो भवतीति चतुर्थः ४ (१८) " एवामेव चचारि आयरिया " इत्यादि - एवमेव सालवदेव आचार्यांश्चत्वारः मज्ञप्ताः, तद्यथा-एकः - कश्चिदाचार्यः साल:- सालसदृशः - सालो यथा सालजातीयो वृक्षो बहुच्छायस्तथाऽऽचार्योऽपि सत्कुलोत्पन्नः सद्गुरुकुलश्च साल एवोच्यमानः सालपर्यायः - सालधर्मा, यथा हि सालः सच्छायत्वादि धर्मयुक्तस्तथा शारीरिक मानसिकदुःखज्वालादह्यमानभविनां तपानां ज्ञानामृतेनापहारकतया स्वयं ज्ञानक्रियाजनितयशः - प्रभृति गुणसम्पन्न आचार्योऽपि साल एव व्यपदिएव असंख्य होता है ऐसेही धर्मवाला वह होता है तृतीय प्रकारका वृक्ष एरण्ड होता हुआ भी ऐसा होता है कि घनी छायावाला होता है अतएव जनों द्वारा संसेव्य होता है इत्यादि रूपसे सालवृक्ष गत धर्मों वाला होने से वह साल पर्यायवाला होता है । तथा चतुर्थ प्रकारका वृक्ष एरण्ड हुआ भी एरण्ड गत अल्प छायावाले धर्मसे असंसेव्यत्व आदि बातों से युक्त बना रहता है (१८) इसी प्रकार से चार आचार्य होते हैं इनमें साल सालपर्यायवाला वह आचार्य होता है जो सत्कुलमें उत्पन्न हुआ होता है, सत् गुरुकुलवाला होता है तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखरूप ज्वालासे अत्यन्त जलते हुए भव्य जनों के तापको जो अपने ज्ञानामृत के सिंचन से शान्त कर देता है और स्वयं ज्ञान क्रिया के निर्दोष (निरतिचार) रूप पालन से जनित यश आदि गुणों से सम्पन्न होता है । साल हुआ भी एरण्डपर्यायवाला वह જેવી પર્યાયવાળું હાય છે, એટલે કે એરંડાની જેમ અલ્પ છાયાયુક્ત હાય છે. તે કારણે પ્રાણીઓ દ્વારા મસસેન્ય હોય છે-તેમના આશ્રયસ્થાન રૂપ હાતુ' નથી. (૩) ત્રીજા પ્રકારનુ` વૃક્ષ એર'ડાની જાતિનુ હાવા છતાં ઘાડ છાયાયુક્ત હવાને કારણે સાત પર્યાયવાળું (સાલના ધર્મોથી સ`પન્ન) હાય છે અને તે કારણે પ્રાણીએ દ્વારા સસૈન્ય હાય છે. ચેાથા પ્રકારનું વૃક્ષ એરડાની જાતિનું હાય છે અને અલ્પ છાયાદિ એર'ડાના ધર્મોથી યુક્ત લેવાને કારણે પ્રાણીઓ દ્વારા અસસેન્ય હાય છે ૧૮ા मेन प्रमाणे मायार्य पशु यार अारना उद्या हे - ( १ ) साल - सासપર્યાયવાળા આચાય --જે આચાય સસ્કુલમાં ઉત્પન્ન થયા હાય છે—સત્ ગુરુ કુલવાળા હાય છે, તથા શારીરિક અને માનસિક દુખરૂપ જવાળાથી બળી રહેલા ભવ્યજનાના તાપને જેએ પાતાના જ્ઞાનામૃતના સિંચન દ્વારા શાન્ત કરી નાખે છે અને જેએ પાતે જ્ઞાનક્રિયાના નિર્દોષ પાલનથી જનિત યૂશ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ स्थानाशास्त्र श्यते, इति प्रथमः १। एकः सालो भवन्नपि एरण्डपर्यायः-एरण्डधर्मा-अल्पज्ञा नादिरूपच्छायत्वाद् भवतीति द्वितीयः । एवं शेषभङ्गद्वयमपि बोध्यम् ।४। (१९) ___ " चत्तारि रुक्खा " इत्यादि - वृक्षाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एको वृक्षः साल:-सालक्षजातीयः सन् सालपरिवार:-साल एवं परिवारो यस्य स तथा भवति इति प्रथमः । एवं शेपभगत्रयमपि ४। (२०) आचार्य है जो सत्कुलमें उत्पन्न हुआ भी सत् गुरुकुलबाला हुआ भी अल्प ज्ञानादि रूप छायावाला होता है २ इसी प्रकारसे शेष दो भङ्गका भी व्याख्यान कर लेना चाहिये ४ (१२)-" चत्तारि मयखा" वृक्ष चार प्रकारके कहे गये हैं-जैसे-साल साल परिवारवाला १ आदि ४ इसी तरहसे आचार्य भी चार कहे गये हैं साल साल परिवारवाला १ आदि ४ तात्पर्य इस कथनका ऐसा है कि जैसे कोई एक वृक्ष-सोलवृक्ष ऐसा होता है जो स्वयं सालवृक्ष होता हुआ भी सालवृक्षके परिवारवाला होता है १ कोई एक घृक्ष सालवृक्ष ऐसा होता है जो एरण्डके परिवार वाला होता है २ कोई एक वृक्ष ऐसा होता है जो एरण्ड हआ भी साल परिवारवाला होता है ३ और कोई एक वृक्ष ऐसा होता है, जा एरण्ड આદિ ગુણોથી સંપન્ન હોય છે એવા આચાર્યને સાલ-સાલપર્યાય રૂમ પહેલા ભાગમાં ગણાવી શકાય છે. । (२) सास-२ पर्याय समान मायाय--2 माया ससभा सत्पन्न થયેલા હોવા છતાં પણ અને સત્ ગુરુકુલવાળા હોવા છતાં પણ ઘણું ઓછાં જીને તેમના જ્ઞાનાદિ રૂપ છાયાને લાભ આપનારા હોય છે, એવા આચાર્યને “સાલ એરંડપર્યાય સમાન” કહી શકાય છે. (૩) એરંડ–સાલપર્યાય સમાન અને (૪) એરંડ-એરંડપર્યાય સમાન આ બન્ને ભાંગાને ભાવાર્થ જાતે જ સમજી લેવો. ૧૯ , “चत्तारि रुक्खा" त्याहि-वृक्ष यार अन हा छ -- । (१) सात-सात परिवारवाणु (२) सास-२४ परिवारवाणु, (3) એરંડ–સાલપરિવારવાળું અને (૪) એરંડ-એરંપરિવારવાળું એજ પ્રમાણે આચાર્ય પણ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે-(૧) સાલ-સાલપરિવારવાળા ઈત્યાદિ ચાર પ્રકાર સમજવા દેષ્ટાન્ત સૂત્રના ચારે ભાગાનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-કેઇ એક વૃક્ષ, જાતિની અપેક્ષાએ સાલવૃક્ષની જાતિનું હોય છે અને સાલવૃક્ષના પરિવારથી યુક્ત હોય છે. (૨) કોઈ એક વૃક્ષ, જાતિની અપેક્ષાએ સાલવૃક્ષની જાતિનું હોય છે પણ પરિવારની અપેક્ષાએ એરંડા જેવું હોય છે. (૩) કેઈ એક વૃક્ષ, એરંડાની જાતિનું હોવા છતાં સાલવૃક્ષ જેવાં પરિવારવાળું Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०४३०४ सू८१२ वृक्षदृष्टान्तेन आचार्यस्वरूपनिरूपणम् ३२५ । " एवामेवे " त्यादि-एवमेव चत्वार आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एक:साला-सालसमशः सद्गुरुकुलश्रुतादिमिरुत्तमत्वात् स पुनः सालपरिवारः-सालायमानमहानुभाव साधुपरिजनत्वात् भवति इति प्रथमः ११ तथा एकः-सालः सन्नेरण्डपरिवारः एरण्डायमाननिगुणसाधुपरिवारकत्वात्, इति द्वितीयः २। तथाएकः श्रुतादिहीनतया एरण्डः सन्नपि सालपरिवारो भवति । इति तृतीयः ३। तथा-एक एरण्डः सन पुनरेरण्ड परिवारो भवतीति चतुर्थः ४। (२१)। मागुक्तमथै द्रढयितुं गाथा उपन्यस्यति-" सालदुममज्झयारे" इत्यादिस्यष्टम् , नवरम्-सालगुममध्यकारे-सालद्रुममध्ये। मङ्गुलशब्दोऽसुन्दरार्थः।।।मु०१२।। हुआ भी एरण्ड परिवारवाला ही होता है । इसी प्रकारसे कोई एक आचार्य ऐसा होता है जो सालवृक्ष के जैसा होतो है-सद्गुरु कुलवाला होताहै श्रुताभ्यास आदि गुणोंसे उत्तम होता है और सालवृक्षके जैसे परिवारसे-तपस्वी आदि महानुभाववाले साधु परिजनोंसे युक्त होता है तथा कोई एक आचार्य ऐसा होता है जो स्वयं सालके जैसा होता हुआ भी एरण्ड के परिवार जैसे-निर्गुण साधु परिवारसे युक्त होता है कोई एक आचार्य ऐसा होता है जो एरण्डके जैसा हुआ भी श्रुतादिसे हीन हुआ भो-सालके परिवार जैसे महा प्रभावशाली साधु परिवारवाला होता है तथा कोई एक आचार्य ऐसा होता है कि जो स्वयं एरण्डके तुल्य होता है और एरण्डके जैले शिष्य परिवारवाला होता है ४ (२०) इस कथनको दृढ करनेके लिये सूत्रकारने इन गाथाओंको कहा हैહોય છે. (૪) કેઈ એક વૃક્ષ એરંડાની જાતિનું હોય છે અને એરંડાના જેવા પરિવારવાળું હોય છે. वे होटन्ति सूत्री मावार्थस्पाट ४२वामा माछ-(१) એક આચાર્ય સાલવૃક્ષ સમાન હોય છે-સદ્ ગુરુકુલવાળા હોય છે અને કૃતાભ્યાસ આદિ ગુણોથી સંપન્ન હોય છે, અને સાલવૃક્ષ જેવા પરિવારથી પણ યુક્ત હોય છે એટલે કે મહાનુભાવવાળા (પ્રભાવશાળી) સાધુઓને પરિવારથી યુક્ત હોય છે. (૨) કોઈ આચાર્ય એવા હોય છે કે જેઓ પિતે સાલવૃક્ષ સમાન હોય છે પણ નિર્ગુણ સાધુજને રૂપી એરડ પરિવારથી યુક્ત હોય છે. (૩) કેઈ આચાર્ય પિતે એરંડવૃક્ષ સમાન એટલે કે કૃતાદિથી રહિત હોય છે પણ સાલવૃક્ષ જેવા પરિવાર રૂપ મહા પ્રભાવશાળી સાધુઓના પરિવારથી યુક્ત હોય છે () કેઈ આચાર્ય પિતે એરાડવૃક્ષ સમાન હોય છે અને એરંડ સમાન પરિવારથી યુક્ત હોય છે પરવા આ કથનનું સમર્થન કરવા માટે Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्र मूलम्-चन्तारि अच्छा पण्णत्ता, तं जहा-अणुसोयचारी १, पडिसोयचारी २, अंतचारी ३, मज्झचारी ४। (२२) एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा-अणुसोयचारी १, पडि. सोयचारी २, अंतचारी ३, मज्झचारी ४ (२३) चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा-महुसित्थगोले १, जउगोले २, दारुगोले ३, सहियागोले ४ (२४) । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-महुसित्थगोलसमाणे ४ (२५)। " सालदुममज्झयारे" इत्यादि । इन गाथाओंका भावार्थ ऐसा है कि जैसे सालद्रुमौंके बीचमें कोई एक द्रुमराज होता है, उसी प्रकारसे कोई एक आचार्य ऐसा होता है जो स्वयं सुन्दर होता है और उनका शिष्य भी सुन्दर होते हैं । एरण्डद्मों के बीच में जैसे सालद्रुमराज होताहै उसी प्रकारसे आचार्य तो सुन्दर होता है, पर शिष्य सुन्दर नहीं होता है। जिस प्रकार सालद्रुमके वीचमें एरण्ड द्रुमराज होताहै, उसी प्रकार कोई एक आचार्य ऐसा होता है, जो स्वयं तो असुन्दर होताहै, और शिष्य (परिवार) सुन्दर होता है, तथा जैसे एरण्डोंके बीच में एरण्डही द्रुमराज होताहै, उसी प्रकार आचार्य भी असुन्दर होताहै और शिष्य भी असुन्दर होता है। यहां मध्यकार पद बीचका वाचक और मङ्गुल पद असु. न्दर अर्थका वाचक है । सूत्र १२ ॥ सूत्रमारे नायनी गाथा मापी छ-" सालदुममज्शयारे" याह. मा ગાથાઓને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–(૧) જેમ સાલદ્રમોની વચ્ચે રહેલું કેઈ એક સાલમરાજ (ઉત્તમ સાલવૃક્ષ) શોભે છે એજ પ્રમાણે ઉત્તમ શિની વચ્ચે રહેલા ઉત્તમ આચાર્ય પણ શોભતા હોય છે (૨) જેમ એરંડવૃક્ષોની વચ્ચે કેઈ એક ઉત્તમ સાલવૃક્ષ હોય છે, તેમ કઈ એક આચાર્ય તે સુંદર (ઉત્તમ) હોય છે પણ તેમના શિષે સુંદર હોતા નથી. (૩) જેમ સાલવૃક્ષની વચ્ચે કોઈ એક એરંડ દુમરાજ હોય છે, તેમ કેઈ સુંદર શિષ્ય સમુદાયથી યુક્ત એવા અસુંદર આચાર્ય હોય છે. (૪) જેમ એરંડવૃક્ષોની વચ્ચે કોઈ એરંડલૂમરાજ હોય છે તેમ કેઈ આચાર્ય પોતે પણ અસુંદર હોય છે અને તેમના શિષ્ય પણ અસુંદર હોય છે. અહીં “મધ્યકાર” પદ વચચેનું વાચક छ भने “ मजुल" ५४ असु४२ना गर्नु पाय४ छ, मेम सभा. ॥ १२॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ ६०४०१३ मत्स्यादिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३२७ चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा-अयगोले १, तउगोले २, तंबगोले ३, सोसगगोले ४ (२६) । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-अयगोलसमाणे, जाव सीसगगोलसमाणे ४, (२७)। चत्तारि गोला पण्णता, तं जहा-हिरण्णगोले १, सुवण्णगोले २, रयणगोले ३, क्यरगोले ४ (२०)। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पपणत्ता, तं जहा-हिरण्णगोलसमाणे जाव वइरगोलसमाणे ४। (२९)। चत्तारि पत्ता पण्णत्ता, तं जहा--असिपत्तेय १, करपत्ते २, खुरपत्ते ३, कलंबचीरियापत्ते ४ (३०)। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-असिपत्तनमाणे जाव कलंबचीरियापत्तसमाणे ४ (३१) ___ चत्तारि कडा पण्णत्ता, तं जहा--सुंबकडे १, विदलकडे २, चम्मकडे ३, कंबलकडे ४ (३२)। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--सुबकडसमाणे जाव कंबलकडसमाणे ४ । (३३) ॥ सू० १३॥ छाया-चत्वारो मत्स्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अनुस्रोतचारी १, प्रतीस्रोतवारी २, अन्तचारी ३, मध्यचारी ४। (२२) एवमेव चत्वारो भिक्षाकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अनुस्रोतवारी १, प्रतिस्रोतवारी २, अन्तचारी ३, मध्यचारी ४ (२३)। ' चत्वारो गोलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मधुसिक्थगोलः १, जतुगोलः २, दारुगोलः ३, मृत्तिकागोलः ४। ( २४ ) । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मधुसिक्थगोलसमानः ४ (२५)। ___ चत्वारो गोलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अयोगोलः १, त्रपुगोलः २, ताम्रगोल: ३, सीसकगोलः ४ (२६) । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाअयोगोलसमानः यावत् सीसकगोलसमानः ४ (२७) । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ स्थानाशस्त्र ___ चत्वारो गोठाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-हिरण्यगोल: १, सुवर्णगोलः २, रत्नगोल: ३, बनगोलः ४ (२८)। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाहिरण्यगोलसमानः यावत् वज्रगोल समानः ४ । (२९) । चत्वारि पत्राणि प्राप्तानि, तद्यथा-अमिपत्रं १, करपत्रं २, सुरपत्रं ३, कदम्बचीरिकापत्रम् ४। (३०) । एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाअसिपत्रसमानः यावत् कदम्बचीरिकापत्रसमानः ४ (३१)। ___ चत्वारः कटाः प्रजाताः, तद्यथा-मुम्बकटः १, विदलकटः २, चर्मकटः ३, कम्बलकटः ४ । (३२)। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रनप्तानि, तद्यथामुम्बकटसमानः यावत् कम्बलकटसमानः ४ ( ३३ ) ।। १० १३ ॥ टीका-" चत्तारि मच्छा" इत्यादि-चत्वारो मत्स्याः मनप्ताः , तद्यथाअनुस्रोतश्चारी-अनुस्रोतसा चरतीत्येवंशीलम्तथा-नद्यादि प्रवाहगामी १, तथा"प्रतिस्रोतवारी-नद्यादिपवाहाभिमुविगामी २, तथा-अन्तचारी-पाश्चचारी ३, तथा-मध्यचारी-मव्ये-अभ्यन्तरे चरतीत्येवंशीलस्तथा ४ (२२)। - 'एवामेवे ' त्यादि-एवमेव-मन्स्यवदेव भिक्षाका:-मिक्षाशीलाः साधवः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अनुस्रोतवारी-यो मिक्षाकोऽभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमी. चत्तारि मच्छा पण्णत्ता इत्यादि स्त्र १३ ।। ‘टीकार्थ-मत्स्य चार प्रकारके कहे गयेहैं जैसे-अनुस्रोतचारी१ प्रतिस्रोतचारी २ अन्तचारी ३ और मध्यचारी४ इनमें जो नदी आदिके प्रयाहके माथ चलता है वह अनुस्रोतश्चारी मत्स्य है, जो नदी आदिके प्रवाहके सामने जाता है वह प्रतिस्रोतचारी मत्स्यहै नदीके पासमें पार्श्वभागमें जो चलता है वह अन्तचारी मत्स्यहै । और जो नदीके भीतरमें मध्य भागमें नीचे चलता है वह मध्यचारी मत्स्य है इसी प्रकारसे भिक्षाक-भिक्षाशील साधु भी चार प्रकार के होते हैं जैसे-कोई एक भिक्षाक-ऐसा " चत्तारि मच्छा पण्णत्ता " त्या-(सू. १३) - मत्स्यना नीचे प्रमाणे यार प्रसार ४ छ-(१) मनुस्रोतयारी, (२) प्रतिलोतयारी, (3) मन्तयारी मने (४) मध्ययारी જે મત્સ્ય નદી આદિના પ્રવાહની દિશામાં ચાલે છે તેને અનુસ્રોતચારી કહે છે. જે મત્સ્ય પ્રવાહની સામેની દિશામાં ચાલે છે તેને પ્રતિસ્રોતચારી કહે છે. જે મત્સ્ય નદીના કિનારા પાસે જ સંચરણ કરે છે તેને અન્તચારી કહે છે. અને જે મત્સ્ય નદીના મધ્ય ભાગમાં પાણીની નીચે સંચરણ કરનારું હોય છે તેને મધ્યચારી કહે છે. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४ उ०४ सू०१३ मत्स्यादिदृष्टा तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३२९ पात् क्रमेण गृहेषु भिक्षते सोऽनुस्रोतश्चारीति प्रथमः ११ तथा प्रतिस्रोतश्चारीयस्तूत्क्रमेण-प्रथमं गृहेषु भिक्षते ततो निजस्थानसमीपस्थगृहमायाति भिक्षार्थ स तथा दूरादारभ्योपाश्रयसमीपचारीत्यर्थः२, तथा-अन्तचारी-यस्तु क्षेत्रस्यान्तेअवसाने भिक्षार्थं चरतीत्येवंशीलस्तथा ३, तथा-मध्यचारी-क्षेत्राभ्यन्तरे चरती. त्येवंशीलस्तथा ४। (२३)। " चत्तारि गोला" इत्यादि-गोलाः-वृत्तपिण्डाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथामधुसिक्थगोला-मधुसिक्थं-मदनं 'मोम' इति भापायां प्रसिद्ध द्रव्यं तस्य गोल: होता है जो अनुस्रोतचारी होता है, ऐसा वह भिक्षाक अभिग्रह विशेषके वश उपाश्रयके पाससे लगाकर क्रमशः गृहोंमें भिक्षा मांगता है। कोई एक भिक्षाक ऐसा होताहै, जो प्रतिस्रोतचारी होताहै-ऐसा बहसाधु उत्क्रमसे पहिले गृहोंमें भिक्षाकी याचना करता है बादमें उपाश्रय आदि अपने स्थानके समीपस्थ गृह पर आकर भिक्षा याचना करता है। यह भिक्षा याचना पहिले दूरसे प्रारम्भ करताहै और बादमें उपाश्रयके पास रहे हुए घरोंसे भिक्षा करताहै, कोई एक शिक्षाक ऐसा होता है जो अन्तचारी होता है ऐसा वह भिक्षाक क्षेत्रके अन्तमें भिक्षाके लिये पर्यटन करता है कोई एक साधु ऐसा होता है जो मध्यचारी होता हैऐसा वह भिक्षा क्षेत्रके भीतरही भिक्षाके लिये फिरता है ४ (२३) ___"चत्तारि गोला" इत्यादि-गोला-वृत्तपिण्ड-चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-मधुसिक्य गोल १ जतुगोल २ दारुगोल ३ और मृत्तिका गोल ४ मोमका मेणका जो गोला होताहै वह मधुसिक्थ गोलहै, लाखका એજ પ્રમાણે ભિક્ષાક (ભિક્ષાશીલ સાધુ) પણ ચાર પ્રકાર હોય છે(૧) અનુસોતચારી–કોઈ એક સાધુ એ હોય છે કે જે અભિગ્રહવિશેષને કારણે ઉપાશ્રયની સમીપના ઘરથી શરૂ કરીને ક્રમશઃ ભિક્ષા માગવા માટે ગમન કરે છે. (૨) પ્રતિસ્ત્રોતચારી ભિક્ષુક-કઈ એક ભિક્ષુક (સાધુ) એ હોય છે કે જે ઉત્ક્રમથી (ઉલ્ટા ક્રમથી) ભિક્ષા માગવી શરૂ કરે છે. એટલે કે ઉપાશ્રયથી દૂર આવેલા ઘરથી ભિક્ષા માગવાની શરૂ કરીને કમશઃ ઉપાશ્રયની સમીપના સ્થાન તરફ ભિક્ષા પ્રાપ્તિ માટે સંચરણ કરનારા હોય છે (૩) અન્તચારી ભિક્ષાક-તે ક્ષેત્રના અત ભાગમાં ભિક્ષા માગવા માટે ગમન કરતો હોય છે (૪) મધ્યચારી ભિક્ષાક – કઈ સાધુ એ હોય છે કે જે ક્ષેત્રના મધ્યભાગના સ્થળમાં ભિક્ષા માગવા માટે ફરતા હોય છે ૨૩ ' चत्तारि गोला" त्याटिन नीय प्रमाणे या२ २ द्या छ-(१) मधुसिथ गाणी-भान जाने भसिथ गाणी ४३ छे. (२) स०-४२ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा १, तथा-जतुगोला-जतु लाक्षा-'लाख' दनि मापायां पमिदं द्रव्यम्-तस्य गोलः २, दारुगोल:-काठगोलः ३, मृत्तिकागोला, पने क्रमेण मृदु-कठिनतरकठिनतमा भवन्ति । (२४)। " एचामेव चत्तारि पुरिसजाया" इस्लादि-एबमेव-उक्तगोलचतुष्टयवदेव पुरुपजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तहाथा-मधुसिक्थगोलसमानः-मदनगोलो यथाऽल्पतापेनापि द्रवितो भवति तथा-परीपहादिना यः पुरुषो मृदुमत्वो भाति स तत्पदव्यपदेश्यः १, तथा-जतुगोलसमानः-जतुगोलो यथाऽल्पतापेनाद्रवन्मदनगोलापेक्षया कठिनो माति तथा यः पुरुप परीपहादिपु दृढसत्यो भवति स तत्पदव्यपदेश्यः २, तथा-दारुगोलसमानः- यथा-दारुगोला-काप्टगोलः, स जो गोला होना है वह जतुगोल है २ काठका जो गोला होता है वह दारुगोल है ३ और मिट्टी का जो गोला होता है वह मृत्तिका गोल है ४ ये चारों गोले क्रमशः मृदु, काठिन, कठिनतर और कठिनतम होते हैं (२४) इसी तरहसे पुरुप भी चार प्रकार के होते हैं इनमें मधुसिक्ध गोल समान वह पुरुप है जो परीवह आदिसे कमजोर बलवाला बन जाता है, जैसे मोमका गोलो थोडेसे भी तापसे पिघल जाता है इसीलिये ऐसे पुरुपको मधुसिक्थ गोला जैसा कहा गया है १ । जैसे जतु गोला अल्प तापसे नहीं पिघलता है, क्योंकि वह मोमके गोलाकी अपेक्षा कठिन होता है उसी प्रकार जो परीपह आदिके आने पर चला. यमान नहीं होता है, वह पुरुष जतुगोलाके समान कहा गया है २ जैसे-काष्ठका गोला तापसे पिघलता नहीं है, क्योंकि वह कठिनतर જતોળ-લાખના ગોળાને જતુગોળે કહે છે (૩) દારુગોળ-લાકડાના ગોળાને દારુગોળે કહે છે (૪) મૃત્તિકાગળ-માટીના ગોળાને મૃત્તિકાગોળો કહે છે. તે. ચારે ગોળા અનુક્રમે મૃદુ, કઠિન, કઠિનતર અને કઠિનતમ હોય છે ૨૪ એજ પ્રમાણે પુરુષ પણ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે–(૧) મીણના ગોળા સમાન પુરુષ–જેમ મણને ગેળા થડા તાપથી પણ પીગળી જાય છે તેમ કોઈ કઈ પુરુષ એવા હોય છે કે જે પરીષહ આદિ વડે કમજોર બની જાય છે એવા પુરુષને મીણના ગેળા સમાન કાા છે. (૨) લાખના ગોળા સમાન પુરુષલાખને ગળે કઠણ હોય છે તેથી થેડા તાપથી પીગળી જતો નથી એજ પ્રમાણે જે પુરુષ પરીષહ આવી પડતાં અડગ રહે છે-બિલકુલ ચલાયમાન થતું નથી, એવા પુરુષને લાખના ગળા સમાન કહ્યો છે. (૩) લાકડાના શળ સમાન પુરુષ–જેમ લાકડાને ગળે અધિકમાં અધિક તાપથી પણ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टौ स्था ४ उ ४ सू १३ मत्स्यादिदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३३१ तापेनाद्रवणात्कठिनतरो भवति तथा यः पुरुषः परीषहादिषु दृढतरसत्त्वो भवति - सतत्पदव्यपदेश्यः ३, तथा मृत्तिकागोलकसमानः - यथा मृत्तिकागोलः प्रचुरता-पेनाप्यद्रवणात्कठिनतमो भवति तथा यः पुरुषः परीषदादिषु दृढतमसत्त्वो भवति स तत्पदव्यपदेशमा ४ | (२५) । चचारि गोला ' इत्यादि -- पुनर्गोलाश्चवारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अयोगोल: १, पुगोल: २, ताम्रगोल: २, सीसकगोल: ४। एते गुरु- गुरुतर - गुरुतमाSत्यन्तगुरवो भवन्ति ( २६ ) । (( एवमेव चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि - एवमेव - उक्त गोलवदेव - पुरुष - जातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - अयोगोलसमानः - अयोगोलो यथा गुरुवति तथा यः पुरुषो गुरु भूतारम्भादिविचित्रप्रवृत्युपार्जितकर्ममारः, यद्वा- पितृमातृ' होता है उसी प्रकार से जो पुरुष परीषह आदिकोंके आने पर दृढतर सत्ववाला होता है वह पुरुष दारुगोलाके जैसा कहा गया है ३ और मृत्तिका गोला के समान वह पुरुष कहा गया है जो पुरुष परीषह आदिकोंके आने पर दृढतम बलवाला बना रहता है, जैसे मिट्टीका गोला प्रचुर तापसे भी नहीं पिघलना है क्योंकि वह दृढतम होता है ४ (२५) पुनश्च - " चत्तारि गोला " इत्यादि-गोला चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे- अयोगोल १ नपुगोल २ तामुगोल ३ और सीसकगोल ४ ये क्रमशः गुरु, गुरुतर, गुरुतम और अत्यन्त गुरु होते हैं (२६) इसी तरहले पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं- इनमें अयोगोलके समान वह पुरुष है जिसने गुरुभूत आरम्भ आदिमें अपनी विचित्र प्रवृत्ति से પીગળતા નથી-પાતે મળી જાય છે પણ પીગળતા નથી, એજ પ્રમાણે આકરામાં આકરાં પરીષહે સામે પણ જે માજીસ અતિ દૃઢતાથી ટકી રહે છે— પ્રાણ જાય તા પણ ચલાયમાન થતા નથી એવા દૃઢતર સત્ત્વવાળા પુરુષને લાકડાના ગાળા સમાન કહ્યો છે (૪) માટીના ગાળા સમાન પુરુષ–જેમ માટીને ગાળેા પ્રશ્નડમાં પ્રચંડ તાપથી પણુ પીગળતા નથી એમ દૃઢતમ સત્ત્વવાળા પુરુષ ઉગ્રમાં ઉગ્ર પરીષહો સામે પણ અડગતાથી ટકી રહે છે. રપા " चत्तारि गोला " इत्यादि — गोजाना नीचे प्रभा यार प्रहार ४ह्या छे- (१) अयोगोस (सोढानेो गोणे, (२) त्रयुगोस (४थीरनो गोजी) (3) तागोस (ताना गोणी), भने (४) सीसम्गोस (सीसानो गोणी) गा गोजाओ। વજનની અપેક્ષાએ અનુક્રમે ગુરુ,ગુરુતર, ગુરુતમ અને અત્યન્ત ગુરુ હાય છે. ારદા એજ પ્રમાણે પુરુષાના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) લેાઢાના ગેાળ સમાન પુરુષ–જેણે ભારે ભારે આરંભ આદિમાં પ્રવૃત્ત થઈને કારને " Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ स्थानासो • पुत्रकलत्रादिपु गुरुस्नेहभाराक्रान्तो भवति स तथा १, तथा-त्रपुगोलसमानःताम्रगोलसमानः सीसगोलसमानः, एते त्रयः क्रमेण गुरुतर-गुरुतमा-ऽत्यन्तगुरुभूतारम्भादिविचित्रप्रवृत्युपार्जितकर्मभाराः, यद्वा-पित्रादिपु गुरुतरादिस्नेहभाराऽऽक्रान्ताः पुरुषा बोध्याः ४ (२७) । - 'चत्तारि गोला' इत्यादि-पुनश्चत्वारो गोलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-हिरण्यगोल: १, सुवर्णगोलः २ रत्नगोल: ३, वज्रगोलः ४॥ एते चाऽल्पगुणाऽधि :गुणा-ऽधिकतरगुणा-ऽधिकतमगुणा भवन्ति, (२८)। कर्मभारको उपार्जित किया है अर्थात् जिस प्रकार लोहेका गोला भारवाला वजनवाला होता है उसी प्रकारसे जो प्राणी आरम्भ आदि कार्यों में प्रवृत्ति करनेसे उपार्जित कर्मभारसे भारी घन जाता है ऐसा वह पुरुष अयोगोलके समान कहा गया है अथवा-पिता, माता, पुत्र, कलत्र आदिकोंमें बहुत अधिक ममता रूप स्नेहके भारसे जो आक्रान्त होता है, वह अयोगोलके सगान पुरुष है पुगोल समान, तामुगोल समान और सीसगोल समान पुरुषमें गुरुतर, गुरुतम और अत्यन्त गुरुभूत आरम्भादि कार्यों में अपनी विचित्र प्रवृत्तिसे उपार्जित कर्मभारसे आक्रान्त होते हैं अथवा-माता पिता आदिकोंमें गुरुतर आदि भेवाले स्नेहके भारसे वे रहते हैं-इसलिये वे क्रमशः पुगोलाके जैसे कहे गये हैं (२७) " चत्तारि गोला " पुनश्च--गोला चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-हिरण्य गोला १ सुवर्णगोला २ रत्नगोला ३ और ઉપાર્જિત કર્યો હોય છે-એટલે કે જેમ લોઢાને ગળે વજનદાર હોય છે તેમ જે જીવ આરંભ આદિમાં પ્રવૃત્ત થવાને કારણે ઉપાર્જિત કરેલા કર્મભારથી ભારે બનેલો છે એવા પુરુષને લેઢાના ગેળા સમાન કહે છે અથવા માતા, પિન, પુત્ર, પુત્રી, પત્ની આદિ પ્રત્યે અધિક મમતા રૂપ નેહના ભારથી જે માણસ જકડાયેલ હોય છે તેને લેઢાના ગોળ સમાન કહે છે. એજ પ્રમાણે ગુરુતર, ગુરૂતમ અને અત્યંત ગુરુભૂત આરંભાદિ કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત થઈને કમભારને ઉપાર્જિત કરનારા પુરુષને અથવા માતા, પિતા આદિ પ્રત્યેના ગુરુતર, ગુરુતમ અને અત્યન્ત ગુરુભૂત સ્નેહ ભાવથી જકડાયેલા પુરુષને અનુક્રમે ત્રપુગેળા સમાન, તાંબાના ગળા સમાન અને સીસાના ગોળા સમાન કહે છે. રિકા । “चत्तारि गोला" माना नीय प्रमाणे यार ४१२ ५५ धा छ(१) यही का, (२) साना गाणा, (3) २त्नन गण मन (४) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सुधा, टी. स्था. ४ उ. ४ सू १३ मत्स्यादिदृष्टान्तेन पुरुष ( तनिरूपम् ३३३ " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया ' इत्यादि - एवमेव - उक्त गोलवदेव पुरुष - जातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - हिरण्यगोलसमानः - रजत गोलतुल्यः- यावत्पदेन - ' सुवर्ण गोलकसमानः रत्नगोलकसमानः' इति पदद्वयं ग्राह्यम्, तथा-वज्रगोलसमानः । एतच्चतुष्टयसमानाः पुरुषाः क्रमेणाल्पादिसमृद्धिसम्पन्नत्वेन यद्वा- Seपादिज्ञानादिगुणसम्पन्नत्वेन वोध्याः | २९| 9 '_' " चत्तारि पत्ता " इत्यादि - पत्राणि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - असिपत्रम् - खङ्गरूपपत्रम् १: तथा - करपत्र - दारुच्छेदनं क्रकचम् ' आरा करवत ' इति भाषामसिद्धम् २, तथा क्षुरपत्र - क्षुररूपपत्रम् ३, तथा - कदम्बचीरिकापत्रम् - कदम्बचीरिकेति तन्नामकः शस्त्रविशेषः तदुपपत्रम् । ४ । (३०) । " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि - एवमेव पत्रवदेव पुरुषजावज्रगोला ४ ये चारोंही गोले क्रमशः अल्प गुणवाले अधिक गुणवाले, अधिकतर गुणवाले और अधिकतम गुणवाले होते हैं (२८) इसी तरहसे इनके समान जो पुरुष होते हैं, वे भी क्रमशः अल्प समृद्धिवाले, अधिक समृद्धिवाले, अधिकतर समृद्धिवाले और अधिकतम समृद्धिवाले होते हैं । अथवा अल्प ज्ञान गुणवाले, अधिक ज्ञान गुणवाले, अधिकतर ज्ञान गुणवाले और अधिकतम ज्ञान गुणवाले होते हैं (२९) " चत्तारि पत्ता " पत्र चार प्रकार के कहे गये हैं जैसे- असिपत्र १ खड्गरूप पत्र - करपत्र- करौंतरूप पत्र२ क्षुरपत्र- क्षुररूपपत्र३ और कदम्बचीरिका रूपपत्र ४८ कदम्बचीरिका इस नामका एक विशेष शस्त्र होता है " एवामेव" इत्यादिइसी प्रकार से पुरुष भी चार प्रकारके होते हैं, असिपत्रसमान १. करपत्रसવજીના ગાળા. આ ચારે ગાળા અનુક્રમે અલ્પ ગુણવાળા અધિક ગુણવાળા, અધિકતર ગુણુવાળા અને અધિકતમ ગુણવાળા હોય છે. ૧૨૮ા એજ પ્રમાણે પુરુષામા પણ ચાંદીણા ખેાળા સમાન આદિ ચાર પ્રકાર પડે છે. તેઓ અનુક્રમે અલ્પ સમૃદ્ધિવાળા, અધિક સમૃદ્ધિવાળા,અધિકતર સમૃદ્ધિવાળા અનેઅધિક તમ સમૃદ્ધિવાળા હોયછે, અથવા તેઓ અનુક્રમે અલ્પ જ્ઞાન ગુણવાળા, અધિક જ્ઞાનગુણવાળા,અધિકતર જ્ઞાનગુણવાળા અને અધિકતમ જ્ઞાનગુણવાળા હોયછે. ૨૯ . I " चत्तारि पत्ता " त्याहि पत्र (यान) यार अारनाउ छे - ( १ ) असिपत्र (तसवारना देवी धारवाणु पान), (२) ३५ पत्र - १२पत्र (पुरवत नेवु पान) (3) क्षुरपत्र (अस्खा नेवु यान) (४) अहम्अथीरि३य पत्र ( भ्ञ ચીરિકા નામના શસ્ત્ર જેવું પાન). Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ - स्थानास तानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-असिपत्रममानः-खगरूपपत्रं यथा रज्ज्यादि शीघ्र छिनत्ति तथा-यः पुरुषः स्नेहपाशं शीघ्रं छिनत्ति स शीघन्छेदकत्वधर्मणासिपत्रसमानो व्यवहियते, अवधारितदेववचनमनत्कुमारचक्रवर्निवत् । इति प्रथमः १। तथा-करपत्रसमानः-करपत्रं-क्रकचं तद् यथा दारु शनैः शनैच्छिनत्ति, तथा यः पुरुपः प्रतिबोधकेन वारंवारमुपदिश्यमानस्तदुपदिष्टभावनामभ्यसन् पुत्रकलत्रादिस्नेहं विलम्वेन छिनत्ति स विलम्बच्छेदकत्वेन तत्पदव्यपदेश्यः, तथाविध. श्रावकवत् । इति द्वितीयः २। तथा-क्षुरपत्रसमानः यथा- चररूपपत्रं केशमात्रं मान२ क्षुरपन्नसमान और चीरिकापत्र समान४ जिस तरह असिपत्र,रज्जु आदिको शीघ्र काट देता है, उसी प्रकारसे जो मनुष्य स्नेहपाशको शीघ्रतोसे काट देता है, वह मनुष्य असिपत्र समान कहा गया है । जिस प्रकार सनत्कुमार चक्रवर्तीन देवके वचन सुनकर जल्दीसे जल्दी लेहपाश काट डाला । उसी प्रकार ऐसा मनुष्य भी शास्त्रगुरु आदिकी वाणी सुननेले स्नेहपाश शीघ्र नष्ट कर आत्मकल्याणके मार्गका पथिक बन जाताहै । करोंत जैसे लकड़ीको धीरे २ चीरताहै, वलेही जो पुरुप प्रति. 'बोधकके वचनसे वार २ समझाया जाने से उसके उपदेशपूर्ण वचनोंका विचार करते २ पुत्र कलन आदिकोंके स्नेहपाशको धीरे २ छेदता है, और आत्माके हितके मार्गमें लगता है, ऐसा वह पुरुप विलम्बसे छेद कताके साधर्म्यको लेकर करपत्रके जैसा कहा गया है । क्षुरपत्रसमान, · - "एवामेव" त्याह-2 प्रभारी पुरुषोना ५ २ ४.२ ४ह्या • छ-(१) मसिपत्र समान, (२) ४२५त्र समान, (3) भुरपत्र समान भने r (૪) કદમ્બ ચીરિક પત્ર સમાન. હવે આ ચારે પ્રકારની સ્પષ્ટતા કરવામાં આવે છે–જેમ અસિપત્ર દેરડા આદિને તુરત કાપી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે જે માણસ નેહપાશને તુરતજ કાપી નાખે છે એવા માણસને અસિપત્ર સમાન કહ્યો છે. જેમ સનસ્કુમાર ચક્રવર્તીએ દેવનાં વચન શ્રવણ કરીને નેહપાશને જલદીમાં જલ્દી કાપી નાખ્યું હતું, એ જ પ્રમાણે અસિપત્ર સમાન મનુષ્ય પણ શાસ્ત્ર, ગુરુ આદિની વાણી સાંભળતાની સાથે જ નેહપાશને તેડી નાખીને આત્મકલ્યાણને માર્ગે આગળ વધવા માંડે છે, જેમ કરવત લાકડાને ધીરે ધીરે ચરે છે, તેમ ગુરુ આદિના ઉપદેશને વારંવાર સાંભળીને અને તેના પર વિચાર કરીને ધીરે ધીરે પુત્ર, પુત્રી આદિના નેહપાશને તોડતે તેને જે માણસ આત્મકલ્યાણને માર્ગે સંચરે છે તેને કરપત્ર સમાન કહ્યો છે. કરપત્ર અને કરપત્ર સમાન મનુષ્યમાં વિલમ્બથી છેદવાનું સાધર્યું હોવાથી વિલમ્બપૂર્વક નેહપાશ તેડનાર પુરુષને કરપત્ર સમાન કહ્યું છે, સુરપત્ર સમાન Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०४ सू०१३ मत्स्यादिदृष्टानेन पुरुषजातनिरूपणम् ३३५ छिनत्ति न तु काथदि तथा यः पुरुषो धर्ममार्ग श्रुन्वाऽपि सर्वथा स्नेहपाशच्छेदनेऽसमर्थों देशस्नेहमात्र छिनत्ति देशविरतिमेवाङ्गीकरोति न तु सर्वविरति सोऽ. ल्पच्छेदकत्वधर्मेण क्षुरपत्रतुल्य उच्यते ३। तथा- कदम्बचीरिकापत्रसमानः--यथा-- कदम्बचीरिकाख्योऽस्त्रविशेपो नामगोत्रेणास्त्रं न तु छेदनकार्येण तथा यः पुरुषः संकल्पमात्रेण स्नेहं छिनत्ति न तु क्रियया स छेदकत्वेन स्वरूपसद्धर्मेण तत्समान उच्यते स चाविरतसम्यग्दृष्टिः ४, यहा-एते चत्वारः पुरुपा एवम्-ये गुर्वादिषु क्रमेण शीघ्र-मन्द-मन्दतरमन्दतमतया स्नेहं छिन्दन्ति तेऽसिपत्रादिसमानाः४(३१) जैसे क्षुरा केशमात्रको काटता है काष्ठादिकोंको नहीं काटता है, उसी प्रकार जो पुरुष धर्ममार्गको सुनकर भी सर्वधा स्नेहपाशको नष्ट करनेमें असमर्थ होकर केवल देश स्नेहकोही नष्ट करता है-देशविरतिकोही धारण करता है सर्वविरतिको धारण नहीं करता है, ऐसा वह पुरुष स्नेहको अल्प मात्रामें छेदनेवाला होनेसे क्षुरपत्रके जैसा कहा गया है। अल्प रूपसे छेदक धर्मको समानता लेकरही उसे क्षुरपत्र तुल्य कहा गयाहै । कदम्बचीरिकापत्र समान जैसे-कदम्बचीरिका नामक शस्त्र, नाम मात्रसेही शस्त्र कहलाता है, वह किसीका छेदन नहीं कर सकता है उसी प्रकार जो पुरुष संकल्प मात्रसे स्नेहका छेदन किया करता है क्रियासे नहीं अर्थात् स्नेहको छेदनेके मनोरथही बनाया करता है उसे क्रियारूपमें परिणत नहीं करता है ऐसा वह अविरत लम्यग्दृष्टि जीव कदम्बचीरीकापत्र समान कहा गया है अथवा-जो पुरुष गुरु आदि. पुरुष-भ. क्षु२॥ (मत्रो) भान शान अपवान समर्थ डाय छ-31081દિકેને કાપવાને સમર્થ હેત નથી, એજ પ્રમાણે ધર્મમાર્ગનું શ્રવણ કરવા છતાં પણ જે પુરુષ નેહપાશને પૂરેપૂર તેડી શકતો નથી, અંશતઃ જ તેડી શકે છે, અથવા સર્વવિરતિને ધારણ કરવાને બદલે દેશવિરતિ જ ધારણ કરી શકે છે, એવા પુરુષને સુરપત્ર સમાન કહે છે. - એવો પુરુષ નેહનું અલ્પ માત્રમાં જ છેદન કરનારે હોય છે. તે બનેમાં અલ્પ રૂપે છેદક ધર્મની સમાનતા હોવાથી આ પ્રકારના પુરુષને કુંરપત્ર સમાન કહ્યો છે ' - કદમ્બચીરિક પત્ર સમાન પુરુષ–કદમ્બચીરિક નામનું શસ્ત્ર કેઈપણ વસ્તુનું છેદન કરવાને સમર્થ હોતું નથી. તેથી તેને નામનું જ શસ્ત્ર કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે જે માણસ નેહપાશ તેડવાને સંકલ્પ જ કર્યા કરે છે પણ તેને તોડવાને સમર્થ હોતે નથી–તેના વિચારોને ક્રિયારૂપે પરિણત કરી શકતે નથી, એવા અવિરત સમ્યગૃષ્ટિ જીવને કદમ્બ ચીરિકા પત્ર સમાન કહ્યો છે. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ स्थानागसूत्रे 'चत्तारि कडा' इत्यादि-कटाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - शुम्बकट:शुम्बः-तृणविशेषः, तनिर्मितः कटस्तथा १, विदलकटः-वंशखण्डनिर्मितकटः २, चर्मकटः-चर्मकृतकटः-चर्ममयरज्ज्जुव्यूतमञ्चकादिः ३, कम्बलकट:-कम्बल एक्कटः ४। (३२)। "एवामेव चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि-एवमेव-कटवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-गुम्बकटसमान:-शुम्बकटो यथा-ऽल्पबन्धो भवति तथा यः पुरुपो गुर्वादिष्वल्पप्रतिवन्धः स्वल्पप्रतिकूलव्यापारेणाविगमात् स शुम्बकटकोंके विषय में क्रमशः शीघ्ररूपसे मन्द रूपले मन्दतररूपसे और मन्दतम रूपते स्नेहका छेदन करनेवाले होते हैं वे असिपत्रादिके समान होते हैं ४।३१॥ "चत्तारि कडा" इत्यादि-कट चार प्रकारके कहे गये हैं जैसेशुम्बकट १ विदल कट २ चमकट ३ और कम्बलकट ४ तृण विशेषोंसे जो कट चटाई बनाया जाता है वह शुम्बकट है, वंशकी पंचोंसे जो कट बनाया जाता है वह विदलकट है, चमडेकी रज्जुसे या तांतोसे वुना गया जो मंचक आदि होता है वह चर्मकट है और जो कम्बल है वह कम्बल कटहै। इसी प्रकारसे पुरुष चार होते हैं, जिसका प्रतिबन्ध गुर्वादिकों में अल्प होता है, जैसा कि तृणविशेषोंसे धनी हुई चट्टाईका होता है, वह थोड़ीसी भी प्रतिकूलनामें शिथिल हो जाता है खुल जाता है ऐमा वह पुरुष शुम्भकर समान होता है शुम्बकट की अपेक्षा विदल. कटका वन्ध दृढ होता है यह थोड़ीसी प्रतिकूलतामें शिथिल ढीला नहीं અથવા જે માણસ ગુરુ આદિના ઉપદેશથી ક્રમશઃ શીધ્ર રૂપે, મન્દ રૂપે, મદતર રૂપે અને મન્દતમ રૂપે નેહપાશનું છેદન કરનારે હોય છે તેને અનુક્રમે અલિપત્ર, કરપત્ર, સુરપત્ર અને કદમ્બચીરિક પત્ર સમાન કહે છે. ૩૧ " चत्तारि कडा" या या२ १२नी ही -याने भाटे मही ४४' श५४ वाप छ ) (१) शुम४८-तृणविशेषानी माथी २ या मना. વવામાં આવે છે તેને “શુમ્બકટ” કહે છે (૨) વિદલકટ-વાંસની ચીપમાંથી બનાવેલી ચાઈને “વિદલકટ' કહે છે. (૩) ચમકટ–ચામડાની દેરીને ગૂંથીને બનાવેલી ચટ્ટાઈને “ચર્મકટ” કહે છે (૪) અને “કમ્બલકટ”—ઊન આદિની કામળને “કમ્બલ કટ” કહે છે એજ પ્રમાણે પુરુષના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) શુમ્બકટ સમાન પુરુષ–જેમ તૃણવિશેમાંથી બનાવેલી ચટ્ટાઈ ડી પ્રતિકૂળતામાં પણ શિથિલ થઈ જાય છે તેને તંતુઓ છૂટા પડી જાય છે એ જ પ્રમાણે ગુરુ આદિ પ્રત્યે Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०१४ चतुष्पद-पक्षी-क्षुद्रप्राणिनिरूपणम् ३३७ तुल्य उच्यते १, एवं क्रमेण बहु-बहुतर-बहुतमप्रतिवन्धवन्तो गुर्वादिषु त्रयः पुरुषा विभावनीयाः ४। (३३) ॥ सू० १३ ॥ मूलम्-चउबिहा चउप्पया पण्णत्ता, तं जहा. एगखुरा १, दुखुरा २, गंडीपया ३, सणफया ४, (३४)। चउबिहा पक्खी पण्णता, तं जहा चम्मपक्खी १, लोमपक्खी २, समुरगपक्खी ३, विततपक्खी ४,३५। होताहै। इसी प्रकारसे जिसका प्रतिबन्ध गुर्वादिकोंमें थोड़ीसी प्रतिकूलतामें शिथिल नहीं होताहै, वह विदल सम्बन्ध कटके जैसा पुरुषहै चर्मकटका बन्ध शुम्बकटकी अपेक्षा भी दृढ होताहै वह मुश्किलले ढीला होता है इसी प्रकारसे जिसका प्रतिबन्ध गुर्वादिकोंमें अधिक प्रतिकूलतामें भी शिथिल नहीं होता है वह चर्मकटके जैसा पुरुष है, कम्बलकटका बन्ध बहुत अधिक दृढ होताहै । उसी प्रकोरसे जिसका प्रतिबन्ध गुर्वादिकोंमें बहुत अधिक होता है ऐसा वह पुरुष कम्बल कटके जैसा कहा गयाहै । तात्पर्य इसका ऐसाहै कि जिस पुरूषोंका प्रतिबन्ध गुर्वादिकोंमें अल्प, बहु, बहुतर और बहुतम होता है वे पूर्वक्ति प्रकारसे चार प्रकारके कहे गये हैं (३३)॥ सूत्र १३ ॥ જેમને પ્રતિબંધ (અનુરાગ) અ૫ કાળમાં જ તૂટી જાય છે એવા પુરુષને શુમ્બકટ સમાન કહે છે શસ્મકટ કરતાં વિદલકટને બધે વધારે દૃઢ હોય છે, તેથી તે થોડી પ્રતિકૂળતામાં શિથિલ થઈ જતો નથી. એ જ પ્રમાણે ગુરુ આદિ પ્રત્યેને જેને પ્રતિબંધ છેડી પ્રતિકૂળતામાં શિથિલ થતું નથી એવા પુરુષને વિદલકટ સમાન કહે છે. ચર્મકટનો બન્ધ વિદલકટના બધ કરતાં પણ દઢતર હોય છે તેથી તે જલદીથી શિથિલ થતું નથી. તે એજ પ્રમાણે ગુરુ આદિ પ્રત્યેને જેને પ્રતિબન્ધ અધિક પ્રતિકૂળતામાં પણ શિથિલ થતું નથી એવા પુરુષને ચર્મકટ સમાન કહે છે. કલકટ (ઊન આદિની કામળીને બંધ ઘણો જ વધારે હોય છે એજ પ્રમાણે ગુરુ આદિમાં જેને પ્રતિબંધ ઘણું જ અધિક હોય છે એવા પુરુષને કમ્બલકટ સમાન કહેવામાં આવ્યો છે. આ સૂત્રમાં ગુર્નાદિક પ્રત્યેના અ૫. બહ, બહતર અને બહુતમ પ્રતિબંધની અપેક્ષાએ ચાર પુરુષ પ્રકાર બતાવવામાં આવ્યા છે, એમ સમજવું ૩રા એ સૂ. ૧૩ . स्था०-४३ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ स्थ । स्त्र चउचिहा खुड्डपाणा पण्णता, तं जहा--वेइंदिया १, तेईदिया २, चउरिदिया ३, संमुच्छिमपचिदियतिरिक्खजोणिया ४ ।३६ । सू० १४ ॥ छाया-चतुर्विधाश्चतुष्पदाः प्राप्ताः, तथधा-एकखुराः १, द्विखुराः २, गण्डीपदाः ३, सनखपदाः ४ (३४)। चतुविधा पक्षिणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-चर्मपक्षिणः १, लोमपक्षिणः २, समुद्गकपक्षिणः ३, वितताक्षिणः ४ (३५)। चतुर्विधाः क्षुद्रमाणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-द्वीन्द्रियाः १, त्रीन्द्रियाः २, चतुरिन्द्रियाः ३, संमूछिमपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः ४ (३६)। मू० १४ ॥ टीका-" चउचिहा चउप्पया " इत्यादि - चतुप्पदाः-चतुश्चरणाः चतु. विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकखुराः-प्रत्येकपदे एक खुरो येषां ते तथा-प्रश्वादयः १, तथा-द्विखुरा:-खुरद्वयवन्तो गवादयः २, गण्डीपदा:-गण्डीस्वर्णकारादीनामधिकरणी 'घन' इति भापा प्रसिद्धा गण्डिका, तद्वत् पदानि चेपां ते तथा इस्त्यादयः ३, सनखपदाः-नखयुक्तपादवन्तः सिंहादयः ४॥ इति (३४) । 'चउन्विहा चउप्पया पण्णत्ता' इत्यादि १४ ॥ टीकार्थ-चौपाये चार-प्रकारके कहे गयेहैं जैसे-एक खुरबाले १ दो खुरवाले २ शंडी पदवाले ३ और नखयुक्त पदाले ४ चार चरण जिनके होते हैं वे चतुष्पद कहे जाते हैं। प्रत्येक पदमें जिनके एक रखर होता है, ऐसे घोडे आदि जानवर एक खुरवाले जानवर हैं। प्रत्येक पदमें जिनके दो खुर होते हैं ऐसे वे गाय आदि जानवर दो खुरवाले जानवर हैं । घनका नाम गण्डी है घनके समान जिनको चरण होता है वे गण्डी पदवाले जानवर हैं, जैसे हाथी आदि, नखोंसे युक्त जिनके पैर होते हैं वे सनखपदवाले जानवर हैं जैसे-सिंह आदि (३४) " चउव्विहा चप्पया पण्णत्ता" त्या-(सू १४ ) या नवरीना या२ २ ४ छ--(१) मे Nani (२) બે ખરીવાળાં, (૩) ગંડી પદવાળા (૪) નખયુક્ત પગવાળાં., ચાર પગવાળાં જાનવરને ચતુષ્પદ કહે છે. જેને પગની ખરીમાં ફાટ હોતી નથી એવા પ્રાણીઓને એક ખરીવાળાં કહે છે જેમકે ઘોડે. જે પ્રાણીના પ્રત્યેક પગની ખરીમાં ફાટ હોય છે એવાં પ્રાણીઓને બે ખરીવાળાં કહે છે, જેમકે ગાય આદિ પ્રાણુઓ (૩) હાથીના જેવી ગોળાકારની ખરીવાળાં પ્રાણુઓને ગંડીપગવાળાં કહે છે. (૪) જે પ્રાણુઓના પગ નહોર (નખ)થી યુક્ત હોય છે તે પ્રાણીઓને નખયુક્ત પગવાળાં કહે છે, જેમકે વાઘ, સિંહ વગેરે ૩૪ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ १०४ सू०१४ चतुष्पद-पक्षी-डंद्रप्राणिनिरूपणम् ३३९ " चउबिहा एक्खी" इत्यादि-पक्षिणश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-चर्म पक्षिणः-चममयपक्षसहिताः-बल्गुलीप्रभृतयः १, तथा-लोमपक्षिणः-लोमयुक्तपक्षवन्तः-इंसादयः २, समुद्गकपक्षिणः-समुद्कौ-सम्पुटंको ताविव पक्षी येषां ते तथा-सम्पुटकयुक्तपक्षसहिताः, तथा-विततपक्षिणः-विस्तृतपक्षयुक्ताः, अन्तिमा उभयेऽपि समयक्षेत्रतो बहिरेव भवन्ति । (३५)। " चउचिहा खुड्डपाणा" इत्यादि-क्षुद्रप्राणाः-प्राणन्तीति प्राणाः क्षुद्राश्च ते पाणाः क्षुद्रप्राणाः अधमप्राणिना, अनन्तरभवे सिद्धिगमनाभावात्, चतुर्विधा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-द्वीन्द्रियाः-इन्द्रियद्वयवन्तः कम्यादयः १, तथा-त्रीन्द्रिया:इन्द्रियत्रयवन्तः-पिपीलिकादयः २, चतुरिन्द्रिया:-इन्द्रियचतुष्टयवत्तो भ्रमरादयः ३, सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः-सम्मूछेनं सम्मूछः, तेन नित्ताः पक्षी चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-चर्मपक्षी १ लोमपक्षी २ समु. द्वकपक्षी ३ और विततपक्षी ४ (३५) चर्ममय पक्ष (पंख) सहित जो पक्षी होते हैं, वे चर्मपक्षी हैं जैसे-चमगादड़ वगैरह । लोमयुक्त पांखोंवाले जो पक्षी होते हैं वे लोमपक्षी हैं जैसे-हंस आदि । सम्पुटके जैसे पंख जिनके होते हैं, वे समुद्रक पक्षी हैं और जो विस्तृत (फैले हुए) पांखोंवाले पक्षी होते हैं, वे विततपक्षी हैं । ये समुद्गकपक्षी और विततपक्षी ये दोनों अढाई द्वीपके बाहरही होते हैं (३५) __ " चउविवहा खुड्डपाणा" इत्यादि-अधम प्राणी जो चार प्रकारके कहे गयेहैं अनन्तर भवमें इन्हें सिद्धि प्राप्त नहीं होती है इसलिये इन्हें क्षुद्रप्राणी कहा गया है, इनके चार प्रकार ये हैं दीन्द्रिय जीव जैसे-कृमी आदि जीव१ तेइन्द्रिय जीव जैसे-पिपीलिका (कीडी) आदिजीवर चौइ. न्द्रियजीव जैसे भ्रमर आदि जीव ३ और संच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च ४ पक्षीना यार २ ४ा छ-(१) यमपक्षी, (२) बामपक्षी, (3) સમુદક પક્ષી અને (૪) વિતતપક્ષી. ચર્મમય પાંખવાળા પક્ષીને ચમ પક્ષી કહે છે, જેમકે ચામડચિડિયું, લેમથી યુક્ત પાંખવાળા પક્ષીને લેમપક્ષી કહે છે, જેમકે હંસ આદિ પક્ષી. સંપુટના જેવી પાંખેવાળા પક્ષીને વિતતપક્ષી કહે છે તે સમુગ્દકપક્ષી અને વિતતપક્ષી અઢી દ્વીપની બહારના પ્રદેશમાં જ હોય છે ૩યા "उन्विहा खुडुपाणा" त्या:-क्षुद्र छया२ ४२ xa छे. અનન્તર ભવમાં તેમને સિદ્ધિ ગતિની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તે કારણે તેમને ક્ષુદ્ર કહ્યા છે. તેમના ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે-(૧) કીન્દ્રિય જીવ-કૃમી આદિ જ, (૨) ત્રિીન્દ્રિય જી-જેમકે કીડી વેગેરે જી, (૩) ચતુરિન્દ્રિય - જે-જેમકે ભમરે (૪) સમૂછિમ પચેન્દ્રિય તિર્યચ. સંપૂર્ણન જન્મથી Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० स्थानाङ्गो संमूछिमाः-संमूर्छनजाः ते च ते पञ्चेन्द्रियाः इन्द्रियपञ्चकवन्तश्चते तिर्यग्योनिकाः-तिरश्वां योनिर्यपां ते तथा-भूताश्च ते इति सम्मूच्छिमपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, अत्र-पदत्रयकर्मधारयसमासो वोध्यः ४ (३६) ।। सू० १४॥ ___ अथ पुरुषविशेषानिरूपयितुं दृष्टान्तभूतान् पक्षिणो निरूपयति __मूलम्चत्तारि पक्खी पण्णत्ता, तं जहा--णिवइत्ता णाम. मेगे जो परिवइत्ता १ परिवइत्ता णाममेगे णो निवइत्ता २, एगे निवइत्ताऽवि वरिवइ. वि ३, ऐगे णो निवइत्ता णो परिवइत्ता ४ । ३७ । एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता,तं जहा-णिवइत्ता णाममेगे णो परिवइत्ता ४ । ३८। । सू० १५ ॥ छाया-चत्वारः पक्षिणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निपतिता नामैको नो परिव जितो १, परिव्रजिता नामैको नो निपत्तिता २, एको निपतिताऽपि परिव्रजिताऽपि ३, एको नो निपतिता नो परिव्रजिता ४,(३७) । एवमेव चत्वारो भिक्षाकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निपतिता नामैको नो परिव्रजिता ४ (३८) ।। मू० १५॥ टीका-' चत्तारि पक्खी" इत्यादि-पक्षिणश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएक: पक्षी निपतिता-नीडादवतरीता-अधः पतनशीलो भवति धृष्टत्वात् अज्ञत्वाद्वा, संमूर्च्छन जन्मसे जोउत्पन्न होते हैं वे संमृच्छिमहैं, ऐसे समूच्छिम पांच इन्द्रियोंवाले तिर्यञ्च जीवही यहां क्षुद्रप्राणियों में लिये गये हैं (३६)सूत्र १४ ____ 'चत्तारि पक्खी पण्णत्ता इत्यादि' सूत्र १५ ।। टीकार्थ-पक्षी चार प्रकारके कहे गयेहैं-जैसे-निपतितानो परिव्रजिता? परिव्रजिता नो निपतिता २ निपतिता भी और परिव्रजिता भी ३ और नो निपतिता नो परिव्रजिता ४ इनमें जो पक्षी धृष्ट होनेसे या अज्ञ होनेसे नीडसे अवतरणके स्वभाववाला होता है, अर्थात् नीचे जमीन पर गिर पडनेके स्वभाववाला होताहै, बालभाव होनेसे उड़नेके स्वभा. જે જી ઉત્પન્ન થાય છે તેમને સંમૂછિમ કહે છે એવા પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ જીને જ અહીં ક્ષુદ્ર જી રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. ૩િ૬ સૂ. ૧૪ टीर्थ-" चत्तारि पक्खी पण्णत्ता" त्या-(सू. १४) पक्षीन नये प्रमाणे या प्रा२ ५५ हा छ-(१) “निपतिता नो परिवजिता" २ ५क्षी पट डोपाथी मथवा भज्ञ डावाथी भाषामाथी नीय અવતરણ કરવાના સ્વભાવવાળું હોય છે એટલે કે નીચે પડી જવાના સ્વભાવવાળું હોય છે, પણ બાલ્યાવસ્થાને કારણે ઉડવાના સ્વભાવવાળું હોતું નથી Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टाकी स्था०४ उ०४ सू०१५ क्षदृष्टान्तेन भिक्षाकनिरूपणम् ३४१ किन्तु स नौ परिवजिता-उड्डयनशीलो न भवति वारभावात् , तथा-एकः परिबजिता भवति किन्तु नो निपतिता २, तथा-एकोनिपतिताऽपि परिव्रजिताऽपि च भवति ३। तथा-एको नो निपतिता नापि च परिव्रजिता भवतीति । (३७) । ___ 'एवामेवे ' त्यादि-एवमेव-उक्तपक्षिवदेव भिक्षाकाः-साधवश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एको भिक्षाको निपतिता-भिक्षाचर्यायामवतरीता भवति भोजनार्थित्वात् , किन्तु नो परिबजिता-परिभ्रमणशीलो न भवति ग्लानत्वादलसत्त्वाल्लज्जावत्चाद्वा इति प्रथमः।१। तथा-एकः परिव्रजिता-परिभ्रमणशील आश्रयान्निर्गतः सन् भवति, किन्तु नो निपत्तिता-भिक्षार्थभवतरीता न भवति सूत्रार्थाऽऽसक्तत्वात् इति द्वितीयः२॥ ववाला नहीं होता है, ऐसा वह पक्षी प्रथम भङ्गमें लिया गया है जो उड़नेके स्वभाववाला होता है पर गिरनेके स्वभाववाला नहीं होता है ऐसा वह पक्षी द्वितीय भंगमें लिया गयाहै। जो पक्षी परिव्रजनके स्वभा. ववाला और निपतनके स्वभाववाला होता है वह तृतीय भंगमें लिया गयाहै । तथा जो न निपतनके स्वभाववालो होताहै और न परित्रजनके स्वभाववाला होता है ऐसा वह पक्षी चतुर्थ भंगमें लिया गया है (३७) ___" एवामेव"-इसी प्रकारसे साधु भी चार प्रकारके कहे गये हैं उनमें कोई एक साधु ऐसा भी होता है, जो भोजनार्थी होनेसे भिक्षा चर्या में उतरतातो है, पर वह ग्लान होनेसे . या आलसी होने से या लज्जाशील होनेसे परिभ्रमण नहीं करता है १ कोई एक साधु ऐसा होता है जो परिभ्रमण शील होता है-आश्रयस्थानसे भिक्षाके निमित्त तन मा पi ain (41२wi) गावी शय छे. (२) " परिव्रजिता नो निपतिता" २ ५क्षी 5वाना लावणुडीय छ ५४ ५७वाना स्मा. qatण हानथी ते२ मा भी प्रारभ गावी शाय छे. (3) "निपतिताऽपि परिव्रजिताऽपि" २ पक्षी निगनना मन निपतनना स्वमाथी युत डाय छ तर मात्री १२भा भूडी शय छ (४) "नो निपतिता नो परिव्रजिता" २ पक्षी निपतनना स्वभावामु ५ लातुनथी मने परिधरનના સ્વભાવવાળું પણ હોતું નથી તેને આ ચોથા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. ક૭ "एवामेव " मे प्रमाणे साधु ५] या२ मारना ४६ छ-(OTS એક સાધુ એ હોય છે કે જે ભેજનાથી હેવાથી ભિક્ષાચર્યામાં ઉતરે છે તે ખરો, પિતાના આશ્રય સ્થાનમાંથી બહાર નીકળે છે તે ખરો, પણ બીમારી, माणस Hornने ४२] परिन (परिश्रम) ४२ नथी. (२) ४ मे સાધુ એ હોય છે કે જે પરિભ્રમણશીલ હોય છે-આશ્રયસ્થાનમાંથી ભિક્ષાને Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... ... स्थानास २४२ एको निपतिता परिपूजिताऽपि च भवतीति तृतीयः ३। तथा-एको नो निपतिता नापि च परिव्रजिता भवतीति चतुर्थः । (३८) मू० १५ ॥ . पुरुषाधिकारात् पुनः पुरुषविशेषानिरूपयितुमाह मूलम्-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-णिकटे णासमेगे णिकटे, णिकटे णाममेगे अणिकटे ४ (३९)। ... चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--णिकटे णाममेगे णिकट्टप्पा, णिकटे णाममेगे अणिकट्टप्पा ४ (४०.) . चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा:-बुहे णाममेगे बुहे १, बुहे णाममेगे अबुहे ४ (४१) चत्वारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--बुहे णाममेगे बुह हियए ४ (४२) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--आयाणुकंपए णाममेगे णो पराणुकंपए ४ (४३ ) ॥ सू० १६॥ छाया-चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-निष्कृष्टो नामैको निष्कृष्टः, निष्कृष्टो नामैकोऽनिष्कृष्टः ४ (३९)। । ___ चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-निष्कृष्टो नामको निष्कृष्टात्मा, निष्कृष्टो नामैकोऽनिष्कृष्टात्मा ४ (४०)। उठता तो है, पर वह भिक्षा लाने के लिये नहीं जाता है, क्योंकि वह सूत्रार्थमें आसक्त होता है। कोई एक साधु ऐसा होता है जो शिक्षाके निमित्त जाता भी है और परिश्रमण भी करता है ३ । और कोई एक साधु ऐसा होता है जो न निपतिता होता है और न परिव्रजिता होता है (३८) ।। सूत्र १५॥ નિમિત્તે ઉઠે તે ખરે પણ ભિક્ષા લેવાને માટે જતું નથી, કારણ કેતે સ્વાર્થ માં આસક્ત હોય છે. (૩) કોઈ એક સાધુ એ હોય છે કે જે ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે ઉપાશ્રયમાંથી નીકળે છે પણ ખરો અને પરિભ્રમણ પણ કરે છે. (૪) કોઈ એક સાધુ નિપતિતાં પણ હોતો નથી અને પરિજિતા પણ હોતું નથી–ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે ઉપાશ્રયમાંથી નીકળતે પણ નથી અને પરિભ્રમણ પણ કરતા નથી. ૩૮ : સૂ. ૧૫ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०४० १६ पुरुषजातनिरूपणम् ३४३ चत्वारि पुरुषजातानि यज्ञवानि, तद्यथा चुधो नामको बुधः, बुधो नामै - कोsar: ४, ( ४१ ) । चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - बुधो नामैको बुधहृदयः (४२) | चत्वारि पुरुरजातानि मज्ञप्तानि तद्यथा- आत्मानुकम्पको नामैको नो परानुकम्पकः ४, ( ४३ ) || सू० १६ ॥ मैं टीका - ' चत्तारि पुरिसजाया ' इत्यादि पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - एकः पुरुषो निष्कृष्ट : - दुर्बल: - तपसा कृशशरीरो भवति, पुनः स निष्कृष्टः-भावतः कृशीकृतकषायत्वादुपशान्तचित्तो भवतीति प्रथमः १, तथाrat निष्कुष्टः सन्नपि भावतोऽजित कषायत्वादनिष्कृष्टः- चञ्चल मनोवृर्त्तिभवतीति पुनः पुरुष विशेषोंका निरूपण करते हैं'चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि सूत्र १६ ॥ टीकार्थ- पुरुष जति चार कहे गये हैं- जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो निष्कृष्ट २ होता है । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो निष्कृष्ट अनिष्कृष्ट होता है । कोई एक ऐसा होता है जो अनिष्कृष्ट निष्कृष्ट होता है । और कोई एक ऐसा होता है जो अनिष्कृष्ट अनिष्कृष्ट होता है ४ । तपसे जिसका शरीर कृश हो गया है ऐसा वह पुरुष दुर्बल पदवाच्य हुआ है ऐसा हुआ भी वह वंश कषायको करलेनेसे उपशान्त चित्तंवाला होता है तो वह प्रथम भंग में लिया गया है १| तथा कोई एक पुरुष जो तपस्यासे कृश (दूवला) शरीरवाला होने पर भी यदि कषायों पर विजय नहीं पाता है तो वह चंचल मनोवृत्तिवाला द्वितीय भगमें પુરુષવિશેષાનું નિરૂપણું આગળ ચાલે છે— " चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्तां ” इत्याह-- (सूं' १६) टीअर्थ-पुरुषोना · नीचे प्रभाऐ यार प्रहार ह्या छे- (१) निष्ठुष्ठ-निष्पृष्ट, (२) निष्ठुष्ट्-अनिष्टृष्ट, (3) अनिष्कृष्ट - निष्कृष्ट भने (४) निष्पृष्ट-अनिष्ठुष्ट તપને લીધે જેનું શરીર કુશ અથવા દુખ`ળ થઈ ગયું હોય એવા पुरुषने निष्ठष्ट' हे પહેલાં ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણુ~તપને લીધે જેનુ શરીર કૃશ થઇ ગયેલુ હોય છે એવા સાધુ જે કાચા પર કાબૂ રાખીને ઉપશાન્ત ચિત્તવાળા થઇ જાય તેા તેને “ નિકૃષ્ટ-નિષ્કૃષ્ટ ” રૂપ પડેલા ભાંગામાં ગણાવી શકાય છે. (૨) જે સાધુનુ* શરીર તપને લીધે કૃશ થઇ ગયેલુ હોય છે, છતાં પશુ જે કષાયા પર વિજય મેળવી શકતા નથી એવા ચંચળ વૃત્તિવાળા સાધુને નિષ્કૃષ્ટ—અનિષ્કૃષ્ટ ” રૂપ ખીજા લાંગામાં મૂકી શકાય છે. (૩) જે પુરુષ "" " Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ स्थानाङ्गसूत्रे द्वितीयः २ तथा - एकोऽनिष्कृष्टः सन्नपि पुनर्निष्कृष्टो भवतीति तृतीयः ३, तथा - एकः पूर्वमपि अनिष्कृष्टः पचाद्यनिष्कृष्ट एव भवतीति चतुर्थः ४ ( ३९ ) । एतत्सूत्रोक्तार्थमेव द्रढयितुं परमेतत्सूत्रमुपन्यस्यति - ' चत्तारि पुरिसजाया ' इत्यादि - स्पष्टम्, नंवरम् - एको निष्कृष्ट :- कृश शरीरतया भवति, पुनः स कपायादिनिर्मूलनेन निष्कृष्टात्मा - निष्कृष्ट आत्मानो यस्य स तथाभूतो भवतीति प्रथमः १, एवं शेषभङ्गत्रयम् ४, यद्वा - निष्कृष्टः - पूर्व तपसा कृशीकृतदेहो भवति स एव पश्चादपि निष्कृष्टो भवति, इति शेषं यथोक्तमेव ( ४० ) । गिना गया है । तथा जो कोई पुरुष अनिष्कृष्ट होतो हुआ भी कपायों पर विजय नहीं पाता हुआ भी यदि बादमें कषायों पर विजय पा लेना है तो वह तृतीय भंग में लिया गया है। तथा जो न तप करता है और न कपार्यो पर ही विजय प्राप्त करता है वह चतुर्थ भंग में लिया गया है ४ (३९) इसी की दृढताके लिये सूत्रकार यह दूसरा सूत्र कहते हैं" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि पुरुष जात चार कहे गये हैं जैसे निष्कृष्ट निष्कृष्टात्मा १ निष्कृष्ट अनिकृष्टात्मा २-४ - (४०) जो कोई पुरुष तपस्या से शरीरको कृश (दुर्बल) कर देता है और कषायको बिलकुल निर्मूल कर देता है ऐसा वह प्रथम भंगमें कहा गया है। इसी प्रकार से जो पुरुष तपस्यासे कृश शरीरवाला हुआ भी कषायोंका निर्मूलन नहीं અનિષ્કૃષ્ટ (સખળ-શક્તિસ'પન્ન) હાવા છતાં પણ્ શરૂઆતમાં કષાયે પર વિજય પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી પણ પાછળથી કષાયા પર વિજય પ્રાપ્ત કરી લે છે એવા પુરુષને “ અનિષ્કૃષ્ટ-નિષ્કૃષ્ટ ' રૂપ ત્રીજા ભાંગામાં મૂકી શકાય છે. (૪) જે પુરુષ તપ પણ કરતા નથી અને કાચાને જીતતા પણ નથી તેને ચેાથા પ્રકારમા મૂકી શકાય છે. ૩૯ા या सूत्रनी पुष्टि निमित्ते सूत्रार मा भी सूत्र हे छे-" चत्तारि पुरिसजाया" त्याहि-नीये प्रभा पशु यार पुरुषप्रा ह्या छे- (१) निष्ठुष्ट - निष्ठुष्टात्मा, (२) निष्पृष्ठ - अनिष्टृष्टात्मा, (3) अनिष्ठुष्टात्मा - निष्ठुष्ट रमने (४) अनिष्टष्टात्मा-अनिष्ठुष्टात्मा. સ્પષ્ટીકરણ—(૧) કાઈ એક પુરુષ એવા હાય છે કે જે તપસ્યાથી શરીરને કૃશ કરી નાખે છે અને કષાયાને બિલકુલ નિર્મૂળ કરી નાખે છે (૨) કોઇ એક પુરુષ એવે. હાય છે કે જે તપસ્યાથી શરીરને કૃશ કરી નાખવા છતાં પણ કાચાને નિર્મૂળ કરી શકતા નથી. એજ પ્રમાણે ખાકીના એ ભાંગા પણ સમજી લેવા. ર૪ન Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था५३०४ सू०१६ पुरुषजातनिरूपणम् ३४५. 'चत्तारि पुरिसजापा" इत्यादि पुनः पुरुषजातानि चत्वारि प्राप्तानि, तद्यथा-एको घुधः-सत्क्रियापण्डितो भवति, उक्तं च- - करता है वह द्वितीय भंगमें लिया गयाहै । इसी प्रकारसे अवशिष्ट दो भंग भी समझ लेना चाहिये अथवा-निष्कृष्ट निष्कृष्ट ऐसा जो ३९ वां मूत्र कहा गया है उसका ऐसा भी अर्थ हो सकता है, कि कोई एक पुरुष ऐसा है जो पहिले भी तपस्यासे कृशीकृतदेहवाला होता है, और बादमें भी तपस्थासे कृशीकृत देहवाला बना रहता है, अर्थात् पहिले भी वह तपस्या करता है और तपस्या आगे भी करता जाता है जब तक जीवित रहता है तब तक तपस्या करना नहीं छोडता है, ऐसा अर्थ लेकर इस सूत्रकी व्याख्या करलेनी चाहिये और जो यह ४० वां सूत्र कहा गया है उसमें जैसी अभी व्याख्यांकी गई है वैलीही व्याख्या कर लेनी चाहिये ३९ वें सूत्र में " कृशीकृतकषायत्वात् उपशान्तचित्तो. भवतीति" ऐसी व्याख्या नहीं करनी चाहिये ऐसी व्याख्या तो यहां ४० वें सूत्रमें करनी चाहिये । फिरभी-"चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि, पुरुषजात चार कहे गयेहैं जैसे बुध. बुध १ वुध अवुध२ अयुध वुध३ और अधुध अवुध४ इनमें जो सत् क्रियामें पण्डित होता है और विवेक सम्पन्न मनवाला होता है, ऐसा वह बुध ૩૯ માં સૂત્રમાં નિકૃષ્ટ-નિષ્કૃષ્ટ” જે પહેલે ભાગે છે તેને નીચે ? પ્રમાણે અર્થ પણ થાય છે.—કેઈ એક પુરુષ એ ય છે કે જે પહેલાં પણ તપસ્યાથી કુશકૃત દેહવાળો હોય છે અને પછી પણ તપસ્યા ચાલુ રાખીને કૃશીકૃતદેહવાળો જ રહે છે. એટલે કે પહેલાં પણ તપસ્યા કરે છે અને પછી પણ તપસ્યા ચાલુ જ રાખે છે એટલે કે જીવે ત્યાં સુધી તપસ્યા કર્યા જ કરે છે. આ પ્રકારને અર્થે કરીને સૂત્રની વ્યાખ્યા કરવી જોઈએ અને આ જે ૪૦ મું સૂત્ર કહ્યું છે, તેમાં આગળ બતાવ્યા પ્રમાણે જ વ્યાખ્યા ४२वी ने मे. 36 सूत्रमा “ कृशीकुतकषायत्वात् उपशान्तचित्तो भवतीति " मा પ્રકારની વ્યાખ્યા કરવી જોઈએ નહીં,એવી વ્યાખ્યા તે ૪૦માં સૂત્રમાં કરવી જોઈએ. ___" चत्तारि पुरिसजाया" त्याह-पुरुषाना नाय प्रमाणे या२ १२ ५९५ ४ा छ-(१) अध, सुध, (२)- सुध-मसुध, (3) मसुध-बुध भने (૪) અબુધ-અબુધ હવે આ ચારે ભાંગને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છેજે પુરુષ સ&િયા સંપન્ન હોય છે અને વિવેકસંપન્ન મનવાળા હોય છે તેને “બુધ બુધ” રૂપ પહેલા ભાંગામાં મૂકી શકાય છે કહ્યું પણ છે કેस-४४ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . , स्थामारो ३४६ " पठक पाठकश्चैव ये चान्ये तत्वचिन्तकाः। " : सर्वे व्यसनिन' सन्ति । यः क्रियावान् स पण्हितः । १।" इति. स पुनर्बुधः-विवेकसम्पन्नमनस्त्वात् पण्डितो भवति,- इति मथमः १, तथा-एको बुधो भवन्नपि विवेकषिकलमनस्त्वादयुधो भवतीति द्वितीयः २, तथा--एकः सन्क्रियारहितत्वावुधः सन्नपि विवेकसम्पन्नमनस्त्वाद् वुधो भवतीति तृतीयः ३, तथा-एका सत्क्रियाविवेकैतदुभयरहितत्वादबुधः सन्मयुधो भवतीति चतुर्थः ।। (४१)। " चत्तारि पुरिसजाया ?" इत्यादि स्पष्टम् , नवरम्-एको बुधः-सक्रियत्वात् पण्डितो भवति स पुनर्बुधहृदयः-बुध-सदसद्बोधसम्पन्न हदयं मनो यस्य स तथा भवति विवेककारकमनस्त्वात् १, . . घुध इस प्रथम भंगमें लिया गया है उक्तंच--" पठकः पाठकश्चैव" इत्यादि-हे भव्य जो पढानेवाला है, पहलेवाला है, तथा जो तत्वोका चिन्तवन करनेवाले हैं, वे सब व्यसनीहैं। पपिडत तो वही है जो क्रियावाला है, दूसरा वह पुरुष जो बुध होता हुआ भी विवेक विकल मन. वाला होता है वह द्वितीय भंगमें लिया गया है। तीसरा पुरुष वह जो सक्रिया रहित होनेसे अवुध होता हुआ भी विवेक सम्पन्न मनवाला होले धुध होता है, ऐसा यह पुरुप तृतीय भंगमें लिया गया है। और जो सस्क्रिया और विवेक इन दोनोंसे रहित होता है वह अयुध अयुध ऐसे चतुर्थ भाग लिया गया है (४१) ।। फिरभी- चत्तारि पुरिहजाया" इत्यादि-पुरुषजात चार कहे गये हैं जैसे बुध बुध हृदय १ बुध अवुध हृदय २ अबुध बुध हृदय ३ एवं " पठक पाठकश्चैव " त्याहि-"3 २४ ! २ ५४न ४२ना। छ, ५४न કરાવનારા છે તથા તેનું ચિન્તન કરનારા છે, તેઓ તો વ્યસની છે. પંડિત તો તેને જ કહી શકાય છે કે જે ક્રિાસંપન્ન હોય છે. (૨) જે પુરુષ બુધ હેવા છતાં પણ વિવેકશૂન્ય મનવાળે હોય છે તેને “બુધ-અબુધ” રૂપ બીજા ભાંગામાં ગણાવી શકાય છે. (૩) જે પુરુષ સકિયા- રહિત હોવાથી અબુધું હોવા છતાં પણ વિકસંપન્ન મનવાળે હોવાથી બુધ હોય છે તેને MYध-सुध" ३५ श्रीan inwi भूठी शाय छे...(४)-२ १२५ सहिडયાથી પણ વિહીન હોય છે અને વિવેકથી પણ વિહીન હોય છે તેને “અબુધ मध" ३५ याथा Rinभा भूमी शय छे. १४१८ . . " चत्तारि पुरिसजाया " त्याहिनीय प्रभाये यार १२ना पुरा ५ -(१) सुध-बुध दृश्य, (२) भुय-अमुधहस्य, (3) अमुधधक्ष्य अने (४) समुध-मसुधाइय. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधां ठीका स्था० ४ ४०४ सू०१६ पुरुषजातनिरूपणम् ૪૭ -एको, बुधः - शास्त्रज्ञानसम्पन्नः सेनू क्रियायां बुधहृदयः - किंकर्तव्यताविमूढतारहितत्वालक्ष्यज्ञानसम्पन्नमना भवतीति - प्रथमः १। एवं शेषभङ्गत्रयमूहनीयम् । ४ । (४२) । " चत्तारि पुरिसजाया 17 इत्यादि स्पष्टम्, ., नवरस् - एकः पुरुष आत्मानुकम्पको - स्वात्मरक्षको भवति, किन्तु नो परानुकम्पकः - पररक्षको न भवति, स प्रत्येकबुद्धी जिनकल्पिको त्रा, परानपेक्षो निर्दयो चा १, तथा - एकः परानुअबुध अबुध हृदय ४ इनमें जो सक्रियावाला होनेसे पण्डित होना है और सत् और असत् के बोधले सम्पन्न हृदयवाला होता है, वह प्रथम भंग में लिया गया है ।, ऐसा यह पुरुष विवेककारक मानवाला होता है । अथवा जो पुरुष शास्त्रीय ज्ञान से सम्पन्न होता हुआ क्रियामें बुध , हृदयवाला होता है, किंकर्तव्यतामें विमूढता रहित होनेसे लक्ष्य ज्ञानसे सम्पन्न - मनवाला होता है, ऐसा वह पुरुष प्रथम भंगमें लिया गया है इसी तरह से शेष भंगत्रय भी समझ लेना चाहिये (४२) यद्वा Sys फिरभी - " सारि पुरिसजाया" इत्यादि - पुरुषजात चार कहे गये हैं-जैसे आत्मानुकम्पक नो परानुकम्पक १ परानुकम्पक नो आत्मानुकम्पक २ उभयानुकम्पक ३- और अनुभवानुकम्पक ४ इनमें प्रथम भंग में वह पुरुष लिया गया है जो स्वात्मरक्षकही होता है- पररक्षक नहीं होता है जैसे- प्रत्येक बुध अथवा जिनकल्पिक अथवा दूसरेकी પહેલા ભાંગાનુ સ્પષ્ટીકરણ—જે પુરુષ સક્રિયાવાળા હાવાથી પતિ હાય છે અને સત્ અને અસા ખેાધથી યુક્ત હૃદયવાળા હાય છે, તેને પહેલા ભાંગામાં લઈ શકાય છે. એવા પુરુષ વિવેકકારક મનવાળે જાય છે અથવા જે પુરુષ શાસ્ત્રય જ્ઞાનથી સ ́પન્ન પણ હોય છે, અને ક્રિયામાં પણ બુધ હૃદયવાળા હાય છે કર્તવ્ય વિમૂઢ હતેા નથી અને લક્ષ્યજ્ઞાનથી સપન્ન મનવાળેા હોય છે તેને પહેલા ભાંગામાં મૂકી શકાય છે એજ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ જાતે જ સમજી લેવા. ૫૪ર “ चत्तारि पुरिसजाया" इत्याहि- नीचे प्रमाये यार प्रहारना पुरुषो ह्या छे- (१) मात्भानुम् ना परानुप, (२) अनु४४ नो आत्मानु ४५४, (3) लयानुप सुने (४) अनुभवानु४५४. 1 પહેલા ભાંગામાં એવા પુરુષને લેવામાં આવ્યે છે કે જે સ્વાત્મરક્ષક જ હાય છે પણ પરરક્ષક હતેા નથી, જેમકે પ્રત્યેક બુધ, અથવા જિનકલ્પિક અથવા અન્યની પરવા ન કરનારા નિય પુરુષ, ખીજા ભાંગામાં એવે પુરુષ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ यांनाङ्गसूत्रे कम्पकः किन्तु नो आत्मानुकम्पक:-स्वात्मानुकम्पको न भवति, स च तीर्थङ्करः, आत्मानपेक्षो वा दयालुः मेघरथवत् , इति द्वितीयः २। तथा-एकः स्वपरानुकम्पको भवति, स च स्थविरकल्पिक-इति तृतीयः ३, तथा-एको नो आत्मानुः कम्पको नापि च परानुकम्पको भवति, स च पापात्मा कालसौकरिकादिवदिति चतुथैः ।। (४३) ॥ सू० १६ ॥ ___ पूर्व पुरुषविशेपा अभिहिताः, सम्पति देवादीनां वेदसंपाचं व्यापारविशेष निरूपयितुं सप्तसूत्रीमाह मूलम्-चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-दिव्वे १, आसुरे २, रक्खसे ३, माणुस्ले ४ (१) चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा--देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छइ १, देवे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छइ २, असुरे गाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छइ ३, असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छइ ४ (२)। . .चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहां--देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छइ १, देवे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं अपेक्षा नहीं करनेवाला निर्दय पुरुष १ द्वितीय भंगमें वह पुरुप लिया गया है, जो परानुकम्पक होता है आत्मानुकम्पक नहीं होता है। जैसे तीर्थंकर अथवा अपनी परवाह नहीं करनेवाला मेघरथके जैसा पुरुष । तृतीय भंगमें वह पुरुष लिया गयाहै, जो स्व और पर इन दोनोंके प्रति अनुकम्पावाला होता है, जैसा स्थविर काल्पिक मुनि । चतुर्थ भंगमें वह पुरुष लिया गया है जो स्वानुकम्पा और परानुकम्पा इन दोनोंसे रहित होताहै,जैसे कालसौकरिक कसाई आदि पुरुष ४३ सू.१६ લેવામાં આવ્યું છે કે જે પરની અનુકંપા રાખનારો હોય છે પણ પિતાની અનુકંપા રાખનારે હેતે નથી, જેમકે તીર્થકર અથવા પિતાની પરવા ન કરનાર મેઘરથ જેવ પુરુ. ત્રીજા ભાગમાં એ પુરુષને લેવામાં આવ્યું છે કે જે પિતાના અને પરના પ્રત્યે અનુકંપાવાળો હોય છે, જેમકે વિર કાલ્પિક મુનિ ચેથા ભાંગામાં એવા પુરુષને લેવામાં આવે છે કે જે સ્વ અને પરબને પ્રત્યે અનુકંપા વિનાને હોય છે. ૪૩ | સૂ. ૧૬ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४७0 ४ सू०१७ दियादि चतुर्विघसंवासनिरूपणम् गच्छइ २, रक्खसे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छइ ३, रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छइ ४ (३)। ___ चउठिवहे संवासे पण्णत्ते तं जहा-देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छइ १, देवे. णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छइ २, मणुस्से णाममेगे देवोहिं सद्धिं संवासं गच्छइ ३, मणुस्से णाममेगे माणुस्सोहिं सद्धिं संवासं गच्छइ ४ (४)। चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छइ, असुरे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छइ ४ (५)। चउविहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-असुरे गाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छइ, असुरे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छइ ४ (६) चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छइ रक्खसे णाममेगे माणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छइ ४, (७) ॥ सू० १७॥ छाया-चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-दिव्यः १, आयुरः २, राक्षसः ३, मनुषः ४ (१)। __चतुर्विधः सवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-देवो नामैको देव्या साई संवासं गच्छति १, देवो नामकः असुर्या साद्ध संवासं गच्छति २, असुरो नामैको देव्या साई संवास गच्छति ३, असुरो नामैक अमुर्या साई संवासं गच्छति ४, (२)। ____चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-देवो नामको देव्या साध संवासं गच्छति १, देवो नामैको राक्षस्या साई संवासं गच्छति २, राक्षसो नामैको देव्या साई संवासं गच्छति ३, राक्षसो नामैको राक्षस्या सार्दू संवासं गच्छति ४, (३)। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० -: ... .. . स्थानासत्रे चतुर्विधः संसः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-देवो नामको देव्या सद्ध संवासं गच्छति १, देवो नामको मानुष्याः सार्धं संवासं गच्छति. २, मनुष्यो नामैको देव्या साद्ध संवासं गच्छति ३, मनुष्यो नामको मानुष्यासाई संवासं गच्छति ४, (४)। चतुर्विधः संघासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-असुरो नामैकोऽसुर्या साद्धं संवासं गच्छति, असुरो नामैको राक्षस्या साई संवासं गच्छति ४, (५)। ___ चतुर्विधः संवासः मज्ञप्तः, तद्यथा-अनुरो नामैकोऽमुर्या साई संवास गच्छति, असुरो नामैको मानुष्या साद्ध संवास गच्छति ४, (६) चतुर्विधः संवासः प्रज्ञप्तः, तद्यया-राक्षसो नामैको राक्षस्या साई संवासं गच्छति, राक्षसो नामैको मानुष्या साढे संवासं गच्छति ४ (७) ॥सू० १८॥ टीका-''चउबिहे संवासे" इत्यादि-पष्टम् , नवरं-संवसन-संवास:स्त्रिया सह सङ्गमः, 'दिव्यः'-धौः-स्वर्गः, तहासी देवोऽपि उपचाराद् धौः, 'चउबिहे संवासे पण्णत्ते इत्यादि' स्त्र १७ ॥ टीकार्थ-संवास चार प्रकारका कहा गया है जैसे-दिव्य१ आसुर राक्षस ३ एवं मानुप४ स्त्रियोंके साथ जो संगम किया जाता है उसका नाम संवास है " दिवि भवः दिव्यः" इस व्युत्पत्तिके अनुसार देवलोक होनेवाला जो संचास है वह दिव्य संचासहै । परन्तु यहां वैमानिक देव सम्बन्धी संवास लिया गयाहै "छौ" नाम देवल.ककाहै, देवलोक में रहनेवाले देव भी उपचारसे " छौ" कह दिये गयेहैं । इन देवों में जो संवास होता है, वहीं दिव्य संवास है । इस प्रकार कहनेसे नववेयक आदि विमानों में भी संवास होने की आपत्ति आ सकतीहै, परन्तु वहां संवास देवलोगोंसे आगे नववेयक आदिकोंमें नहींहै, अतः यहां दिव्य संवा " चउविहे संवासे पण्णत्ते" त्या-(सू १७) ટીકાર્થી-પુરુષ અને સ્ત્રીના મિથુન સેવનને સંવાસ કહે છે. તેના નીચે પ્રમાણે या२ २ ४ा छ-(१) यि सवास, (२) मासु२ सास, (3) राक्षस सवास मन (४) भानुष सवास. “दिवि भवः दिव्यः " मा व्युत्पत्ति मनु:સાર સ્વર્ગમાં (દેવલોકમાં) જે સંવાસ થાય છે તેનું નામ દિવ્યસંવાસ છે माडी भानि ५ समधी सपास र ४२वाभां माया छे. “ धौ” मेटले स्व. स्वर्गमा २७।२। हेवाने ५५] मी मोपारि शत. “घो?" કહેવામાં આવેલ છે આ દેવેમાં જે મિથુન સેવન થાય છે તેને દિવ્ય સંવાસ કહે છે આ પ્રકારના કથનમાં નવઐવેચકવાસી દેવામાં પણ સંવાસ લેવાની વાત માનવાને પ્રસંગ ઉદ્દભવશે. પણ ત્યાં સંવાસને સદૂભાવ હોતે જ નથી, તેથી અહીં વૈમાનિક દેવ સંબંધી સંવાસ જ , દિવ્યસંવાસ”, ૫દ દ્વારા ગૃહીત Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४ ७०४ सू०१७ दिव्यादि चतुर्विधसवासनिरूपणम् ३५१ तत्र भवो दिव्या-वैमानिकदेवसम्बन्धी संवासः, आमुरः-अंग्छरस्य-भवनपतिविशेषस्यायम् आसुरः, राक्षसः-रक्षो राक्षसो वा व्यन्तरविशेषः, तस्यायं राक्षस: संवासः, एवं मानुष्यः-मनुष्यस्यायमित्यर्थः, इति प्रथमं सामान्यसूत्रम् । अतः ससे वैमानिकदेव सम्बन्धी संवास कहा गया है ऐसाही जालना चाहिये भवनपति विशेष सम्बन्धी जो संदास है वह आतुर संवास है अस्तु एका संचाल आसुर संवास है, असुर ये भवनपतिका एक भेद है व्यन्तरका भेद राक्षस है इस राक्षसका जो संवास है वह राक्षस संवास है और जो मनुष्यकृत. संवास है वह मानुष संवास है. फिरभी-संवास चार प्रकारका कहा गया है-जैसे-कोई एक देव देवीके साथ संवास करता है १ कोई एक देव अस्तुरीके साथ संवास करता है कोई एक असुर देवीके साथ संवास करता है कोई एक असुर असुरीके साथ संवाल करता है ४ (२) । फिरभी-संवात चार प्रकारका कहा गया है-जैसे-कोई एक देव देवीके साथ संवास करताहै, कोई एक देव राक्षसीके साथ संवास करता है २ कोई एक राक्षस देवीके साथ संवास करता है ३ कोई एक राक्षस राक्षसीके साथ संवास करता है ४.(३) થવો જોઈએ ત્યાંથી આગળ નવેયક આદિમાં સંડાસનો ભાવ જ હિતે નથી ભવનપતિ દેવ અને દેવીઓના સંવાસને આસુરસંવાસ કહે છે. અસુર એ ભવનપતિઓને એક ભેદ છે. તે અસુરકુમારના અસુરકુમારી સાથેના સંગને પણ આસુરસંવાસ કહે છે. વ્યન્તરનો રાક્ષસ નામને ભેદ છે. તે રાક્ષસના સંવાસને રાક્ષસ સંવાસ કહે છે. મનુષ્યકૃત સંવાસનેમનુષ્ય જાતિને પુરુષ અને સ્ત્રીમાં મિથુન સેવनन-भानुपास ४ छ. १५ સંવાસના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે—(૧) કેઈ એક દેવ દેવીની સાથે સંવાસ કરે છે. (૨) કેઈ એક દેવ અસુરી (અસુરકુમારી) સાથે સંવાસ કરે છે. (૩) કેઈ એક અસુર દેવીની સાથે સંવાસ કરે છે (૪) કોઈ એક અસુર અસુરી સાથે સંવાસ કરે છે. મારા ____जी सवासना नाय प्रमाणे यार प्रा२ प ४ा छ-(१) मे દેવ દેવીની સાથે સંવાસ કરે છે. (૨) કૈઈ એક દેવ રાક્ષસી સાથે સંવાસ ४२ छ. (3) ७ मे २राक्षस वानी साथे सपास ४२ छ भने (४) ४ એક રાક્ષસ રાક્ષસી સાથે સંવાસ કરે છે. ૩ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ स्थानानसूत्रे परं चतुर्भङ्गात्राणि देवासुरादि संयोगतः पठिति सामान्यसूत्रेण सह संकलनेन सप्तसूत्री । ७ । सू० १७॥ पुनश्च संवास इस प्रकार से भी चार प्रकारका कहा गया है जैसेकोई एक देव देवी के साथ संवास करता है ? कोई एक देव मानुषीके साथ संवास करता है २ कोई एक मनुष्य देवीके साथ संवास करता है ३ कोई एक मनुष्य मानुपीके साथ संवास करता है ४ (४) इस रीति से भी संवास चार प्रकारका कहा गया है जैसे- कोई एक असुर असुरी के साथ संवास करता है १ कोई एक असुर राक्षसीके साथ संवास करता है २ इत्यादि ४ - (५) इंस रूपसे भी संवास चार प्रकारका कहा गया है - जैसे- कोई एक असुर असुरी के साथ संवास करता है १ कोई एक असुर मनुष्य स्त्रीके साथ संवास करता है २ इत्यादि ४ - ( ६ ) इस पद्धति से भी संवास चार प्रकारका कहा गया जैसे - कोई एक राक्षस राक्षसी के साथ संवास करता है १ कोई एक राक्षस मनुष्य स्त्रीके साथ संवास करता है २ इत्यादि ४ (७) इनमें प्रथम सूत्र सामान्य सूत्र है बाकीके ६ सूत्र चतुर्भगके सूत्र વળી સવાસના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે—(૧) કાઇ એક દેવ દેવી સાથે સવાસ કરે છે. (૨) કૈાઇ એક ધ્રુવ માનુષી (મનુષ્ય જાતિની સ્ત્રી) સાથે સવાસ કરે છે. (૩) કોઇ એક મનુષ્ય દેવીની સાથે સંવાસ કરે છે અને (૪) કાઇ એક મનુષ્ય માનુષી સાથે સવાસ કરે છે. જા વળી સવાસના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પશુ ક ા છે—(૧) ક્રાઇ એક અસુર અસુરીની સાથે સવાસ કરે છે. (ર) કાઈ એક અસુર મનુષ્ય સ્ત્રી સાથે સવાસ કરે છે. (૩) કાઈ એક મનુષ્ય અસુરી સાથે સહવાસ કરે છે. (૪) કાઇ એક મનુષ્ય મનુષ્ય સ્ત્રી સાથે સહવાસ કરે છે. utu સવાસના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા છે—(૧) ફાઈ એક રાક્ષસ - રાક્ષસી સાથે સવાસ કરે છે. (૨) કાઈ એક રાક્ષસ મનુષ્ય સ્ત્રી સાથે સવાસ કરે છે. (૩) કાઈ એક મનુષ્ય રાક્ષસી સાથે સવાસ કરે છે. (૪) કેઇ એક મનુષ્ય મનુષ્યસ્રી સાથે સવાસ કરે છે. શાળા આ સાત સૂત્રેામાંનું પહેલું સૂત્ર સામાન્ય સૂત્ર છે. બાકીના જે છ こ સત્રે છે તેમાં દેવ અસુર, દેવ રાક્ષસ, દેવ મનુષ્ય, અસુર રાક્ષસ, અસુર મનુષ્ય અને રાક્ષસ મનુષ્યના સચેાગથી ચર્તુભ'ગીએ ખની છે. આ પ્રકારે Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . 'पण न सुधा टीका स्था०४ उ०४ मू०१८ आसुरादिचतुर्विधापध्वसनिरूपणम् ३५३ पुरुषाधिकारादेवापध्वंससूत्रमाह मूलम्-चउविहे अवद्धंसे पण्णत्ते तं जहा-आसुरे १, अभिओगे २, संमोहे ३, देवकिब्बिसे । . चउहिं ठाणेहिं जीवा असुरत्ताए कम्मं पगरेंति त जहा--, कोबसीलयाए १, पाहडसीलयाए २, संसत्ततबोकम्मेणं ३, निमित्ताजीवयाए ४, चउहिं ठाणेहि जीवा आमिओगत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा-अत्तुकोसेणं १ परपरिवाएणं २ भूइकम्मेणं ३ कोउयकरणेणं । चउहिं ठाणेहिं जीवा संमोहत्ताए कम्मे पगति, तं जहा-- उम्मग्गदेसणयाएं १ मरगंतराएणं २, कामासंसप्पओगेणं ३, भिजानियाणकरणेणं ४॥ चउहिं ठाणेहिं जीवा देवकिबिसियत्ताए कम्स पगरेंति, तं जहा-अरहंताणं अवन्नं वयमाणे १, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्त अवन्नं वयमाणे २, आयरिय उवज्झायाणमवन्नं वदमाणे ३, चाउवन्नस्स संघस्त आवन्नं वयमाणे ४ ॥ सू० १८ ॥ ___ छाया-चतुर्विधोऽपध्वंसः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आसुरः १, आभियोगः २, साम्मोहः ३ दैवकिल्विषः ४॥ ___ चतुर्भिः स्थानर्जीवा आसुरतायै कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-कोपशीलतया १ प्राभृतशीलतया २ संमक्ततपाकर्मणा ३, निमित्ताजीवतया । चतुर्भिः स्थानर्जीवा आभियोगतायै कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-आत्मोत्कर्षेण १, परपरिवादेन २, भूतिकर्मणा ३, कौतुककरणेन ४, हैं ये देव असुर आदिके संयोगसे हुए हैं। इस प्रकार ये ६ सूत्र और एक सामान्य सूत्र मिलकर कुल ७ ये सूत्र हैं। सूत्र १७ ॥ છ સૂત્ર અને એક સામાન્ય સૂત્ર મળીને કુલ સાત સૂત્રોનું પ્રતિપાદન અહી ४२वामां माव्यु छे. ॥ सू. १७ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशास्त्र ३५४ ____ चतुभिः स्थानर्जीवाः साम्मोहतायै कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-उन्मार्गदेशनतया१, मार्गान्तरायेण २, कामाऽऽशंसाप्रयोगेण ३, अभिध्यानिदानकरणेन ४, __चतुर्भिः स्थानर्जीवाः देवकिल्विपतायै कर्मप्रकुर्वन्ति, तद्यथा-अर्हतायवर्ण वदन अर्हत्प्रज्ञप्तरय धर्मरयावर्ण वदन् आचार्योपाध्यायानामवर्ण वदन् , चातुर्वर्ण्यस्य सङ्घस्यावण वदन ॥ म० १८ ॥ __टीका-'वउविहे अबद्धसे" इत्यादि-अपञ्चस:-चारित्रस्य-तत्फलस्य वा विनाशः, चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आसुर अमुरभावनाजनितः. यद्वायेण्यनुष्ठानेपु वर्तमानो जीवोऽसुरत्वमर्जयति तैरनुष्ठानैरात्मनो भावनमामुरः .१, तथा-आभियोगः-अभियोगभावनाजनितः आभियोगः आज्ञाकारी(वर्यः २ तथासाम्मोहः-संमुद्यन्तीति संमोहाः-मूढात्मानो मिथ्यादृष्टयो देवविशेषाः, तेपामयं 'चउचिहे अवदसे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र १८ ॥ टीकार्थ-चार प्रकारका अपध्वंस कहा गयाहै जैसे-आसुर १ अभियोग २ साम्मोह ३ और देवकिल्विष ४ चारित्र अथवा चारित्रके फलका विनाश होना, इसका नान अपध्वंस है । जो अपध्वंस.असुर भावनासे होता है, वह आखर अपध्वंस है अथवा-जिन अनुष्ठानों में वर्तमान जीद अलुरत्वका उपार्जन करता है उन अनुष्ठानोंसे आत्माको भावित फरना सो आलुरहै । जो अपचल अभियोग भावनासे जलित होता है, वह आभियोग अपध्वंस है २ जो अपध्वंस संसोह भावनासे उत्पन्न होता है, वह साम्मोह अपध्वंस है, मृढात्मायाले जो मिथ्यादृष्टि देवविशेष हैं वे यहां संमोह पदसे लिये गये हैं उनकी जो भावना है वह " चउव्विहे अपद्धंसे पण्णत्ते" त्याहि-(सू १८) ચારિત્ર અથવા ચારિત્રના ફળનો વિનાશ થવો તેનું નામ “અપર્વસ” છે તે અપવંસના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે– (१) मासु२, (२) मलिया, (3) सायाह अन (४) aslery અપભ્રંસ અસુર ભાવનાથી થાય છે તે અપવંસને આસુર અપવાસ કહે છે અથવા જે અનુષ્ઠામાં વર્તમાન (રહેલે) જીવ અસુરત્વનું ઉપાર્જન કરે છે એવા અનુષ્ઠાનોથી આત્માને ભાવિત (યુક્ત) કરે તેનું નામ આસુરભાવ છે. જે દવસ અભિગ ભાવનાને લીધે જનિત હોય છે તેને આભિગ અપવંસ કહે છે. બીજો અપવંસ સંમોહ ભાવનાને લીધે ઉત્પન્ન થયેલ હોય છે તેને સામેણં અપદHસ કહે છે. મૂઢાત્માવાળા જે મિથ્યાદષ્ટિ દેવવિશેષ છે તેમને અહીં સંમેહ પદથી ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે તેમની જે ભાવના છે તેનું નામ સંમોહ છે જે Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ घाटी स्था. ४ उं. ४ १८ आसुरादि चतुविधा पवसनिरूपणम् सांगोहः, सांमोहभावनाजनितः अज्ञानभावना जनित इत्यर्थ: ३, तथा - देवकिल्विषःदेवकिल्बिषभावनाजनितः, इति, इह कन्दर्पभावनाजनितपः कान्दर्षोऽपध्वंसः पञ्चम आगमोक्तोऽपि नोक्तचतुःस्थानकानुरोधात्, आग मे हि पश्च भावना आह" कंद १ देवकिव्विस २ अभियोगा ३ आसुरा ४ य संमोहा । एसा उ किलिडा पंचविहा भावणा भणिया ॥ १ ॥ छाया - कन्दर्प १ दैव किल्विषामयोग्या ३ आसुरी च साम्मोहा | एषा संक्लिष्टा पञ्चविधा भावना भणिता ॥ १ ॥ आसां भावनानां मध्ये यः संयतो यस्यां भावनायां वर्त्तते स तद्विधेषु देवेषु गच्छन्ति चारित्रलेशमभावात् । यद्येतद्भावनायुक्तश्चारित्रहीनो भवेत्तदा तस्य देवलोकगमने भजना भवति - देवेषुत्पद्यते न वेति स भजनीयो भवति । उक्तञ्चसांमोह है ३ तथा जो अपध्वंस देवकिल्विष भावनासे जनित होता है वह दैवकिल्विष अपध्वंस है ४ । कन्दर्पभावना से जनित भी 'अपध्वंस होता है पर वह यहाँ इसलिये नहीं लिया गया है कि यहां चतुस्थानका अनुरोध है | आगसमें पांच भावनाएँ इस प्रकार से कही गई है । कंद देवकिoि" इत्यादि । इन भावनाओंमेंसे जिस भावना में संयत जीव वर्तमान रहता है, वह उस प्रकार के देवों में जाता है, क्योंकि उसके पास चारित्रका लेश रहता है, अतः उसके प्रभावसे वह मरकर वहां जाता है यदि इन भावनाओंसे युक्त हुआ जीव चारित्रहीन हो जाता है तो ऐसे उस जीवकी देवलोक गमनमें भजना होती है, अर्थात् . वह देवलोक में उत्पन्न होता भी है, और नहीं भी होता है कहा भी हैઅપવસ દેવકિલ્વિષ ભાવનાથી જનત હોય છે તેને દૈવકિલ્પિણ પવ'સ કહે છે. ૪ કપ ભાવનાથી જનિત અપવંસ પણ હોય છે, પણ ચાર સ્થાનના અધિકાર ચાલતા હોવાથી તેને અહી ગણાવવામાં આવેલ નથી. 'मागभभ या अारती पांथ भावनाओ। उडी घे - "कंदप्प देवकिव्विस " ઈત્યાદિ. આ ભાવનાએમાંની જે ભાવનામાં સયત જીવ વર્તમાન રહે છેજે ભાવનાથી યુક્ત રહે છે-તે પ્રકારના દેવામાં તે ઉત્ત્પન્ન થઈ જાય છે, કારણ કે તે ચારિત્રના પ્રભાવથી મરીને દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. કદાચ આ ભાવનાઓથી યુક્ત થયેલા જીવ ચારિત્રહીન થઈ જાય તા આવે! જીવ દેવલાકમાં જાય પણ ખરા અને નથી પણ જતા. એટલે કે એવા જીવનું દેવલાકગમન અવશ્ય થાય છે જ એવું નથી, પણ ભજનાથી (વિકલ્પ) થાય छे, मेस संभवु अधु " सो संजओ षि सया सु" इत्याहि-भे - Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ स्थांनाङ्गसूत्रे __ " जो संजओवि एयासु अप्पसत्थासु बट्टइ कहंचि । सो तधिहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥ १॥" छाया-यः संयतोऽप्येतासु, अमशस्तासु वर्तते कथञ्चित् । स तद्विधेषु गच्छति, सुरेषु भजनीयश्चरणहीनः ॥ १॥ इति । पूर्वमासुरादिरपध्वंस उक्तः, स चाचरत्वादिनिवन्धन इत्यमुरादिभावनास्वरूपभूतान्यनुरादित्वसाधनकर्मणां कारणानि चतुर्भिः-सूत्रैराह-" चउहि ठाणेहिं " इत्यादि-जीवाभाभिः स्थानरामरतायै-असुर एव आसुरः, तद्भावस्तत्ता, तम्यै कर्म-असुरायुष्कादि प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-कोपशीलतया-क्रोधस्वभावतया १, " जो संजओ वि सया सु" इत्यादि । जो संयत जीव इन अप्रशस्त भावना रहता है वह मरकर उन देवोंमें जाता है और चरणहीनचारित्रहीन-जीवमें वहां जानेकी भजना है। आसुरादि रूप जो अपध्वंस कहा गया है वह असुरत्वादि है, कारण जिसका ऐसा होता है। इसलिये अब सूत्रकार अतुरादि भावनाके स्वरूपभूत जो कारण हैं अर्थात् असुरता आदिके साधनभूत कर्मों के जो कारण हैं उनका कथन चार सूत्रोंसे करते हैं-" चाहिं ठाणेहिं " इत्यादि-जीव इन वक्ष्यमाग. चार कारणोंसे असुरताके साधनभूत कर्मों का उपार्जन करते हैं-वे चार कारण ये हैं-कोपशीलता, क्रोध स्वभावता जरा जरासी बातमें क्रोधका आवेग आजाना चेहरे ऊपर सदा आखोंका चढा रहना इत्यादि रूपसे जो जीवका स्वभावहै वह कोपशीलता है । इसकोपशीસંયત જીવ આ અપ્રશસ્ત ભાવનાઓમાં રહે છે તે મરીને ઉપર્યુક્ત દેવામાં ઉત્પન્ન થાય છે, પણ ચરણહીન (ચારિત્રહીન) જીવનું ત્યાં વિકલ્પ ગમન થાય છે. એટલે કે એવો જીવ દેવલેકમાં જાય છે પણ ખરો અને નથી પણ જતો. અસુરાદિ રૂપ જે અપવંસ કહ્યા છે, તે અસુરવ આદિ રૂપ કારણવાળા હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર અસુરાદિ ભાવનાના સ્વરૂપભૂત જે કારણે છે એટલે કે અસુરતા આદિના સાધનભૂત કર્મોના જે કારણે છે તેમનું ચાર સૂત્ર द्वा२॥ ४थन ४२ छ-" चउहि ठाणेहिं" त्याह જીવ નીચેના ચાર કારણને લીધે અસુરતાના સાધનભૂત કર્મોનું ઉપાજંન કરે છે–(૧) કેપશીલતા અથવા ક્રોધ સ્વભાવતા-વાત વાતમાં ગુસ્સે , થવું, ફોધથી આંખ લાલ કરવી, ડોળા કાઢવા, ક્રોધને લીધે લાલચોળ મુખાકૃતિ કરવી, ઇત્યાદિ રૂપ જીવને જે સ્વભાવ હોય છે તેનું નામ કેપશીલતા છે તે પશીલતાને કારણે જીવ અસુરપર્યાયના કારણભૂત આયુષ્ક આદિ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाठीका स्था०४ उ०४ सू०१८ ओसुरादिचतुर्विधायध्वसनिरूपणम् ३५७ प्राभृतशीलतया कलहशीलतया २, संसक्ततपाकर्मगा-आहारोपधिशय्यादिप्रतिबद्धभावतपश्चरणेन ३, निमित्ताजीवतया-भूकम्पादिनिमित्तं कथयित्वा जीवननिर्वाहकतया ४, इति अयमर्थोऽन्यत्रैवमुक्तः । . " अणुबद्धविरगहोवि य, संसक्ततवो निमित्तमाएसी।। णिकिरणिराणुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ ॥ १॥" छाया-अनुबद्धविग्रहोऽपि च, संसक्ततपा निमित्तादेशी । निष्कृपो निरणुकम्पः, आयुरिकी भावनां करोति ॥ १ ॥ इति ॥ लताले जीव असुरपर्यायके कारणभूत आयुष्क आदि कर्मों का बन्ध करता है। दूसरा कारण है प्राभृतशीलता कलहशीलताका नाम प्राभूतशीलता है । जरासा भी निमित्त मिलाकि क्लेश करने के लिये तैयार हो जाना आगेपीछेका कुछ भी विचार न करके जो भी मनमें आवे, बकने लगना इत्यादि रूपले जो परिणति होती है वह कलहशीलता है, इस कलहशीलतोसे भी जीव असुरपर्यायके साधनभूत कर्मो का उपार्जन करताहै। तीसरा कारण है आहार उपधि शय्या आदिमें प्रतिबद्धभावसे तपश्चरण करना। तथा चौथा कारण है भूकम्पादिका कथन करके जीवनका निर्वाह करना ४ । यह कथन अन्यत्र इस प्रकारसे कहा हुआ है-" अनुबद्ध विग्गहो वि य" इत्यादि । जो व्यक्ति अनुबद्ध विग्रहवाला होता है रातदिन कलह-कजिया करनेके स्वभावसे बंधा रहता है । जो संसक्त तपस्या करता है, आहारादि में जिसकी लोलुपता रहती है, और કર્મોને અન્ય કરે છે, અને તેથી મરીને અસુરેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. (૨) પ્રાનશીલતા–વાત વાતમાં ઝગડો કરવાને તૈયાર થવું, આગળ ૫ છળને વિચાર કર્યા વિના ફાવે તે બકવાટ કરે ઈત્યાદિ રૂપ જે પરિણતિ થાય છે તેનું નામ કલહશીલતા અથવા પ્રાણતશીલતા છે. આ કલહશીલતાને કારણે પણ જીવ અસુરપર્યાયના સાધનભૂત કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે. (૩) આહાર, ઉપધિ, શય્યા આદિમાં લોલુપતાપૂર્વક તપશ્ચરણ કરવાથી પણ જીવ અસુરપર્યાયમાં જવા કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે (૪) ભૂકંપ આદિ થવાનું ભવિષ્ય ભાખીને લેકે પર પ્રભાવ પાડીને ખાવાપીવાની સારી સારી સામગ્રી એકત્ર કરનાર જીવ પણ અસુરપર્યાયમાં જવા ગ્ય કમેન બન્ધ કરે છે. सा विषय अनुसार अन्य अन्यमा २ प्रमाणे घुछ-" अनुबद्धविग्गहो विय" याति-२ १ मनुमद्ध विहाणे डाय छ, रातदिन सड કરવાના સ્વભાવવાળો હોય છે, ૧ સંસક્ત તપસ્યા કરે છે–તપસ્યા કરવા છતાં આહારાદિમાં જેની લોલુપતા ચાલુ જ રહે છે, ૨ જે લોકરંજનને માટે નિમિત્તા Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाजसो ___ तथा-चतुर्मिः स्थानर्जीवा आभियोग्यतायै अभियोगः - व्यापारणं, तधोग्या:-अभियोग्याः, त एवाभियोग्या-शिङ्करदेवविशेषाः, तद्भाव आभियोग्यता, तस्यै कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-आत्मोत्कर्षेण-स्वगुणगषेण १, परपरिवादेन-अन्यदीयदोपपरिकीर्तनेन २, भूतिकर्मणा-मूल्या-भस्मना, उपलक्षणत्वालतपस्या करता है, लोकरंजनके लिये जो निमित्तादेशी होकर अच्छे २ खाने पीने के साधनोंको जुटाता रहताहै३, जो दयाले और अनुकंपासे रहित होता है ४, ऐसी वह व्यक्ति आजुरी भावनावाला माना गया है। इन चार कारणों से जीव आभियोग्यला मृत्यपनेके योग्य काँका बन्ध करता है-ले-आत्मोत्कर्ष अपने गुणोंके गौरवका कथन झरना अर्थात् अपनी झूठी श्लाघा करना अपने भीतर रहे हुए मामूली गुणको असाधारण समझना, वृषा अहारसे काले हुए रहना यह सब यहाँ आत्मोत्कर्षसे लिया गया है । स्वोत्कर्ष स्वाभिमानमें और इसमें अन्तर है स्वोत्कर्ष भावनावाला व्यक्ति अपने द्वारा ऐसे कार्य करनेसे अपने आपको बचाता रहता है कि जिसमें उसकी आत्माका पतन होता हो गृहीत चारित्रमें बाधा आती हो सदाचारमें दृषण लगता हो, कषापादिकोंकी वृद्धि होती हो १ दूसरा कारण है-पर परिवाद-दूसरेके दोषोंको प्रकट करना अर्थात् दूसरोंके वास्तविक गुणोंको या निंदाके अभिप्रायसे દેશી ( ભવિષ્યવાણી ભાખનારે) થઈને સારી સારી ખાવાપીવાની સામગ્રી એકત્ર કરતે રહે છે, કે જે દયા અને અનુકંપા ભાવથી રહિત હોય જ છે, એવા જીવને આસુરી ભાવનાવાળો માનવામાં આવ્યો છે - નીચેના ચાર કારણોને લીધે જીવ અભિગતાને કમેન બન્ય કરે છે–(૧) આત્મશ્લાઘા-પિતાના ગુણોનું ગૌરવ કરવું, પિતાના સામાન્ય ગુણને પણ અસાધારણ સમજ, બેટી બડાઈ હાંકવી અને મિથ્યાભિમાનમાં જ લીન રહેવું તેનું નામ આમોત્કર્ષ (આત્મશ્લાઘ) છે. ત્કર્ષ, સ્વાભિમાન અને અમોત્કર્ષમાં ઘણો તફાવત છે સ્કર્ષ ભાવનાવાળો માણસ તે પિતાના આત્માનું પતન થાય, ગૃહીત ચારિત્રમાં દોષ લાગી જાય, સદાચારને લેપ થઈ જાય અને કષાયાદિકની વૃદ્ધિ થાય, એવી પ્રવૃત્તિથી દૂર જ રહે છે, ત્યારે આત્મકલાઘા કરનાર છે તે ઉપર્યુક્ત પ્રવૃત્તિમાં જ લીન રહે છે. जी ४१२६१-५२५रिवा-मन्यना होषाने ४८ ४२१८ तेनु नाम. ५२. પરિવાર છે પર૫રિવાદ કરનારે જીવ અન્યના વાસ્તવિક ગુણને જેવાને બદલે Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टी.. स्था. ४ उ. ४ सू १८ आसुरादिचतुर्विधापध्वसनिरूणपम् ३५२ , मृत्तिका सूत्रेण वा कर्म-रक्षार्थं वसत्यादिपरिवेष्टनं भूतिकर्म तेन ३, कौतुककरणेन सौभाग्यादिनिमित्तं स्नपनकादिकरणेनेति । इयं भावनाऽन्यत्रैवमुक्ता - " को भूकम्मे, परिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इड्डिरससायगुरुओ, अभिओगं भावणं कुणः ॥ १ ॥ छाया कौतुकभूतिकर्मा, प्रश्नापश्नः निमित्ताजीवी । "" (6 ऋद्धिरसशातगुरुकः, आभियोग्यां भावनां करोति ॥ १ ॥ इति । तथा - चतुर्भिः स्थाने जीवाः साम्मोहताये कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा - उन्मार्ग देशनतया - कुमार्गदेशनया १, मार्गान्तरायेण - मोक्षमार्गमवृत्त जनविघ्नकरणेन २, उसके दोष रूप में प्रकट करना २ मैं मन्त्रशास्त्र आदिका वेत्ता हूं, ऐसा प्रकट करनेके लिये मृत्तिकासे या सूत्र से अपनी वसतिका आदिको रक्षा करनेके अभिप्राय से परवेष्टित करना यह भूति कर्म है ३ चौथा कारण है- कौतुककरण सौभाग्य आदिके निमित्त दूसरोंको स्नान आदि कराना ये चार कारण अन्यत्र इस प्रकार से कहे गये हैं " कोउयभूईकम्मे " इत्यादि । कौतुक कर्म करनेसे भूतिकर्म करने से हाथ आदि देखकर किसीका शुभाशुभ कहने से ऋद्धिरस आदिमें गौरवशाली होने से जीव अभियोग्य भावनावाला माना जाता है, इस भावना के वशवर्ती हुआजीच आभियोग्य (भृत्य) जातिके देवों में उत्पन्न करानेवाले कर्मोका बन्ध करता है इन चार कारणों से जीव सांमोहता के लिये कर्मोका बन्ध करता है जैसे - कुमार्गका उपदेश देना १ मोक्षमार्गक साधनमें प्रवृत्त जनको તેના દોષા જ શેાધ્યા કરે છે, અને તેની નિદા કરવા નિમિત્તે તે કૈષાને પ્રકટ કર્યાં કરે છે. भीलु रशु – भूतिम्भ-" हु मंत्रशास्त्र माहिभां नियुष्य छ,' बु પ્રકટ કરવાને માટે વૃત્તિકા (મારી)થી અથવા સૂત્રથી (દેારાથી) પેાતાના રહે ઠાણુ આદિને રક્ષા કરવાના અભિપ્રાયથી પરિવેષ્ટિત કરવું તેનું નામ ભૂતિકમ છે, ચાક્ષુ' કારણ કૌતુકકરણ—સૌભાગ્ય આદિને નિમિત્ત અન્યને સ્નાનાદિ કરાવવુ તેનું નામ કૌતુકણું છે આ ચાર કારણેાને અન્યત્ર આ પ્રમાણે जतान्या छे - " कोउयभूई कम्मे " धत्याहि-तुम्म्म ४२वाथी, भूतिम्र्भ કરવાથી, હાથ આદિ જોઈને કાઇનુ શુભાશુભ કહેવાથી અને ઋદ્ધિ, રસ આદિમાં ગૌરવશાળી થવાથી, મિથ્યાભિમાન કરવાથી જીવ અભિયાગ્ય ભાવનાવાળો ગણાય છે તે ભાવનાથી યુક્ત થયેલેા જીવ અભિચેાગ્ય જાતિના દેવામાં ઉત્પન્ન કરાવનારા કર્મના અન્ય કરે છે. આ ચાર કારણેાને લીધે જીવ સાંમેહતાને ચાગ્ય કર્માનું ઉપાર્જન Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे कामाशंसाप्रयोगेण - शब्दादिकामाभिलापकरणेन ३. अभिध्या निदानकरणेनअभिध्या - लोभः - अभिकाङ्क्षा, तेन निदानकरणम् -' एतस्मात्तपः प्रभृते शक्रव त्योदिका ऋद्धि में भवतु इत्येवं परभवसंवन्धिचक्रवत्यदिपदमार्थनम्, तेन । इयमपि भावनाऽन्यत्रैवमुक्ता - ३६० विघ्न उपस्थित करना २ शब्दादि कामों की अभिलाषा करना ३ और लोभके वशवर्त्ती होकर निदान (नियाणा) करना ४ जीव कुमार्गकी देशनासे सुमार्गका एक प्रकारसे लोप करता है, ऐसा जीव स्वयं भी कुमार्गगामी होता है तथा दूसरोंका उस पर चलने से उसके द्वारा उपार्जित पाप कर्मो का भागी होता है, अतः वह साम्मोहना के लिये कर्मों का बन्धक होता है, मोक्षमार्गकी आराधनामें प्रवृत्तिशाली जीवके द्वारा सन्मार्गका प्रचार होता है, जीव उसके कहने से कुमार्गका त्याग कर सुमार्ग पर चलते हैं । अतः ऐसे जीवके लिये जो विघ्नभूत होता है उसकी आराधना में विघ्न उपस्थित करता है वह भी साम्मोहता के योग्य कर्मो का उपार्जन करता है । इसी प्रकार से कामाशंसाप्रयोग आदिमें भी समझ लेना चाहिये । तप करते हुए इस तपस्या आदि के फलसे चक्रवर्ती आदिकी विभूति मुझे मिले ऐसी चाहना करना इसका नाम निदान है। यह भावना भी अन्यत्र इस प्रकार से कही गई है - કરે છે—(૧) કુમાર્ગના ઉપદેશ દેવાથી, (૨) મેાક્ષમાર્ગના સાધનમાં પ્રવૃત્ત માણસની પ્રવૃત્તિમાં વિઘ્ન નાખવાથી, (૩) શબ્દાદિ કામલેગાની અભિલાષા કરવાથી અને (૪) લાભને આધીન થઈને નિદાન (નિયાણુ) કરવાથી કુમાની દેશના આપનાર જીવ સુમાના લેપ કરે છે એવા જીવ પાતે કુમાર્ગગામી હાય છે, તે કારણે અન્ય દ્વારા ઉપાર્જિત કર્મોના પણ ભાગીદાર ખને છે. તેથી એવા જીવ સ માહતાને ચાગ્ય કર્મીના અધક મને છે. માક્ષમાર્ગની આરાધનામાં પ્રવૃત્ત જીવ દ્વારા સન્માર્ગના પ્રચાર થાય છે તેની પ્રેરણાથી જીવ કુમાગના ત્યાગ કરીને સન્માર્ગે ચડી જાય છે એવા જીવની પ્રવૃત્તિમાં વિઘ્ન નાખનાર જીવ સાંમેાહતાને ચેાગ્ય કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે. એજ પ્રમાણે કામાશ`સા પ્રયાગ આદિમાં પશુ સમજી લેવુ. તપસ્યા કરતી વખતે એવી ભાવના સેવવી કે તપસ્યાના ફળરૂપ મને ચક્રવતી આદિની વિભૂતિ પ્રાપ્ત થાય, તે પ્રકારની ભાવનાનું નામ જ નિદાન અથવા નિયાણુ છે આ ભાવનાને પણ અન્યત્ર આ પ્રમાણે વર્ણવી Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०५ सू०१८ आसुरादिचतुर्विधापध्वसनिरूपणम् ३६१ " उम्मग्गदेसओ मग्गनासो मग्गविप्पडीवत्ती। मोहेणं मोहेत्ता, संमोहं भावणं कुणइ ।। १ ।।" छाया-उन्मार्गदेशको मोगनाशको मागविप्रतिपत्तिः । मोहेन च मोहयित्वा, सांमोही भावनां करोति ॥ १॥ इति । तथा-चतुर्भिः स्थानै जीवा देवकिल्बिपिकतायै चाण्डालस्थानीयदेवविशेपत्वाय कर्म प्रकुर्वन्ति तद्यथा-अर्हता-जिनानाम् अवर्ण वदन्-निन्दा कुर्वन् । अयमर्थोऽन्यत्रैवमुक्तः " उम्मग्ग देसओ" इत्यादि । इस कारिकाका अर्थ स्पष्ट है इन चार कारणोंसे जीव-संयत प्राणी-देवकिल्पिपिकताके लिये-चाण्डाल के जैसे स्थानापन्न देवविशेषत्वके लिये कर्मों का बन्ध करता है । जैसेअर्हन्तदेवका अवर्णवाद करना, १ अर्हत्प्रज्ञप्त धर्मका अवर्णवाद करना २ आचार्य उपाध्यायका अवर्णवाद करना ३ और चतुर्विधसंघका अवर्णवाद करना ४ जिसमें जो दोष नहीं हो उनका उनमें प्रकट करना इसका नाम अवर्णवादहै। अन्तदेवके विषयमें ऐसा कहनाकि ये केवली हुएही नहीं है, सर्वज्ञ यदि ये होते तो उन्होंने मोक्षका सरल उपाय क्यों नहीं कहा ? जिनका आचरण करना शक्य नहीं है ऐसे दुर्गम कठिन उपाय क्यों कहेहैं ? इसी प्रकारसे अहत्वज्ञप्त धर्मके विषयमें आचार्य उपाध्यायके विषयमें एवं साधु साध्वी श्रावक आविकारूप चतुर्विध संघके विषयमें भी अवर्णवाद समझ लेना चाहिये । उक्त " उम्मनगदेसओ" त्यादि-सा यार ४१२शन सीधे ७५ (सयत જીવ) દેવઝિબિષિકેમાં ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય કર્મોને બન્ધ કરે છે-( કિવષિક દે હલકી કેટિના દે ગણાય છે. દેવેમાં તેમનું સ્થાન ચાંડાલ જેવું છે.) (૧) જિનેન્દ્ર દેવને અવર્ણવાદ કરવાથી, અહંત પ્રજ્ઞસ ધમને અવર્ણવાદ ४२वाथी, (3) मायार्थ पाध्यायनी अपवाद ४२वाथी, मने (४) यतुर्विध સંઘને અવર્ણવાદ કરવાથી જે વ્યક્તિમાં જે દેષ ન હોય તે દોષનું આરોપણ કરવું તેનું નામ અવર્ણવાદ છે. જિનેન્દ્ર દેવના વિષયમાં કદાચ કે આ પ્રમાણે કહે કે “તેઓ કેવળજ્ઞાની હતા જ નહીં. જે તે સર્વજ્ઞ હોય તે મોક્ષપ્રાપ્તિને સરળ માર્ગ બતાવવાને બદલે જેનું આચરણે શકય જ ન હોય એવા દુર્ગમ કઠિન ઉપાય તેમણે શા કારણે બતાવ્યા હશે !” આ પ્રમાણે કહેનાર જિનેન્દ્ર દેવને અવર્ણવાદ કરનાર ગણાય છે. એ જ પ્રમાણે અહંત પ્રજ્ઞસ ધર્મના વિષયમાં, આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના વિષયમાં, તથા ચતુર્વિધ સંઘન, વિષ ચમાં પણ અવર્ણવાદ વિષેનું કથન સમજવું. કહ્યું પણ છે કે– स-४६ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ 45 नास केली धम्मायरियाणं संघसाहूणं । माई अनवाई किचिसियं भावणं कुणई ॥ १ ॥ १ छाया - ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्याणां सर्व-साधूनाम् । 1 Thanीं भावनां करोति ॥ १ ॥ " इति, तथा - अर्हस्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अव वदन् तथा - आचार्योपाध्यायानामवर्ण वदन् २, तथा चातुर्वर्ण्यस्य सङ्घस्यावर्णे वदन् ४ । इति । यद्यपी कन्दर्पभावना चतुःस्थानकानुरोधानोक्ता, तथाऽपि भावनामसङ्गात् सामदयते 66 कंदप्पे कुक्कु, वसीले यावि हासणकरें य । स्थानानसूत्रे " विम्हातोय परं, कंदष्पं भावणं कुणइ ॥ १ ॥ छया--कान्दर्पः कौकुचियतः द्रवशीलचापि दासनकरश्च । fare परं कन्दर्पी भावनां करोति ॥ १ ॥ इति । अयमर्थः कन्दर्पः कन्दर्पकथाकारकः, कौकुचियतः- भाण्डवच्चेष्टाकारी द्रवच-- atree केवलणं " इत्यादि । तात्पर्य इस गाथाका यही है, कि मायी अवर्णवादी अर्हन्तका अर्हन्त प्रज्ञप्त धर्म आदिका अवर्णवाद करता हुआ किल्बिषकी भावनावाला होता है । यद्यपि यहां चतुःस्थानक के अनुरोसे कन्दर्प भावना नहीं कही गई है, फिर भी भावना के प्रसङ्गसे वह ऐसी होती है यह प्रकट किया जाता है 6" कंदप्पे कुक्कुइ" इत्यादि -- जो कन्दर्पकी कथा करनेवाला होता है भाण्डकी तरह कायसे कुचेष्टा करता है अहङ्कार के वश होकर LL नाणस्स केवलीणं " इत्याहि 46 આ ગાથાના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે—માયી અવર્ણવાદી અદ્ભુત ભગવાનના, કેવલીપ્રજ્ઞાધના અને આચાય આદિના અવળુવાદ કરવાને લીધે કૈવિષિકી ભાવનાથી યુક્ત થાય છે. તેથી તે કિલ્ટિષિક દેવામાં ઉત્પન્ન થવા ચૈાગ્ય કર્મોના અન્ય કરે છે. જો કે અહીં ચાર સ્થાનાના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે તેથી પાંચમી કદપ ભાવનાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ નથી. છતાં ભાવનાઓનું પ્રતિપાદન ચાલતું હાવાથી અહીં પ્રસ’ગ સાથે અનુરૂપ હાવાથી ક'દ ભાવનાનું કેવું સ્વરૂપ હોય છે તે ટીકાકાર પ્રકટ કરે છે. << कंदापे कुक्कुइए " इत्यादि જે કંપની કથા કરનારા હાય છે, ભાંડની જેમ શરીર વડે કુચેષ્ટાઓ ફરનારા હાય છે, અહંકારને અધીન થઇને શીઘ્ર ગમનકારી હાય છે, ભાષ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधां टीका स्था०४०४ सू०१९ प्रत्रज्यास्वरूनिकपणम् ३६३ शील:- पर्वाच्छीघ्रगमनभाषणादिकारी, हासनकर - वेषवचनादिना स्वपरहासोत्पादकः परम्-अन्यं विस्मापयन् विस्मयमुत्पादयं कान्दप भावनां करोति ॥ सु. १८ ॥ पूर्वमपध्वंस उक्तः, स च प्रव्रज्यासम्पन्नस्य भवतीति प्रव्रज्यास्वरूपं निरूपयितुमष्टसूत्रीमाह ' मूलम् - विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा - इहलोगपडिबद्धा १, पर लोग डिबद्धा २, दुहओलोगपडिबद्धा ३, अप्पाड - बद्धा ४ । ( १ ) " विवहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहां, पुरओ पंडिबा १, मगओ पडिबा २, दुहओ पडिवद्धा ३, अप्पडिबद्धा ४, (२) । चडव्विा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा- ओवायपव्वज्जा १ अक्खाय पव्वज्जा२, संगरपव्वज्जा ३, विहगगइपव्वज्जा ४, ( ३ ) चउविवहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा- तुयावइत्ता १, पूयावइत्ता २, मोयावइत्ता ३, परिपूयावता ४ (४) । चउव्हिा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा - नडखइया १, भडखइया २, सोहखइया ३, सियालखइया ४ ( ५ ) । चउत्रिहा किसी पण्णत्ता, तं जहा - वाचिया १, परिवाविया २, निंदिया ३, परिनिंदिया ४, (६) एवामेव चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा - वाविया १, परिवाविया २, निंदिया ३, परिनिंदिया ४ (७)। जो शीघ्र गमनकारी एवं भाषणादिकारी होता है अपने वेष और वचन आदिले जो स्व और परको हास्यका उत्पादक होता है, तथा जो हरएक तरह से दूसरोंको विस्मय (आश्चर्य ) का उत्पन्न करनेवाला होता है वह कान्दर्पी भावना वाला होता है | सू० १८ ॥ ણાદિ કરનાર હાય છે, પાત ના વેષ અને વચનથી જે સ્વને અને અન્યને હસા વનારી ડાય છે, તથા જે અનેક પ્રકારે અન્ય લેામાં વિસ્મય ( આશ્ચય ) ઉત્પન્ન કરનારા હાય છે, એવા પુરુષને કાન્દી ભાવનાવાળા કહે છે. સૂ, ૧૮ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशास्त्र चउविहा पवज्जा पण्णत्ता, तं जहा-धन्नपुंजियसमाणा १, धनविरल्लियसमाणा २, धन्नविक्खित्तसमाणा ३, धन्नसंकड्डियसमाणा ४ ॥ सू० १९॥ ___ छाया-चतुर्विधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोकप्रतिबद्धा १, परलोकप्रतिवद्धा २, द्विधातो लोकप्रतिवद्धा ३, अप्रतिवद्धा ४ । (१) । ___चतुर्विधा प्रव्रज्या प्राप्ता, तद्यथा-पुरतः प्रतिवद्धा १, मार्गतः प्रतिवद्धा २ द्विधातः प्रतिवद्धा ३, अप्रतिवद्धा ४६ (२) चतुर्विधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अवपातप्रव्रज्या १, आख्यातपत्रज्या २, सङ्गारप्रव्रज्या 3, विहगगतिमव्रज्या ४। (३) चतुर्विधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तबधा-तोदयित्वा १, प्लावयित्वा २, मोच. यित्वा ३, परिप्लुतयित्वा ४। (४)। ___चतुर्विधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नटखादिता १, भटखादिता २, सिंहखादिता ३, गालखादिता ४। (५) ___चतुर्विधा कृषिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-उप्ता१, पर्युप्ता२, निन्दिता ३, परिनिन्दिता ४। (६)। एवमेव चतुर्विधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा-उप्ता १, पर्युप्ता २, निन्दिता ३, परिनिन्दिता ४। (७)। चतुर्विधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा-धान्यपुञ्जितसमाना १, धान्यविरेलितसमाना २, धान्यविक्षिप्तसमाना ३, धान्यसङ्कर्पितसमाना ४। (५) ॥ सू० १९ ॥ टीका-" चउबिहा पयजा" इत्यादि-प्रत्रज्या-पञ्चमहाव्रतग्रहणलक्षणा, सा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोकप्रतिवद्धा-इहलोके इहजन्मनि ये जीवननिर्वा यह अपध्वंस प्रव्रज्यालम्पन्न मनुष्यको होता है अतः अब सूत्रकार प्रवज्याका स्वरूप अष्ट मन्त्रीसे कहते है-- टोकार्थ-" चउब्धिहा पध्वजा-पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र १९ ॥ प्रव्रज्या चार प्रकारका कहा गया है जैसे-इहलोकप्रतिबद्धा १ परलोकप्रतिबद्धा २ उभयलोकप्रतिघद्धा ३ और अप्रतिबद्धा ४ पंच આ અપધ્વંસનો સદૂભાવ પ્રવજ્યા સંપન્ન મનુષ્યમા જ હોય છે. તેથી . હવે સૂત્રકાર પ્રવજ્યાના સ્વરૂપનું આઠ સૂત્રે દ્વારા નિરૂપણ કરે છે– सार्थ-" चउबिहा पव्वज्जा पण्णता" त्याह- . પ્રજ્યા ચાર પ્રકારની કહી છે–(૧) ઈહલોક પ્રતિબદ્ધા, (૨) પરલેક - अतिमद्धा, (3) GAud४ प्रतिमा, (४) मप्रतिभा Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०१२ प्रव्रज्यास्वरूपनिरूपणम् हादयस्तन्मात्रप्रयोजने प्रतिवद्धा-मनसि संकल्पिता या सा इहलोकप्रतिवद्धा प्रवज्या, सा च एतज्जन्मजीवननिर्वाहादिमात्रार्थिनां भवति १, तथा-परलोक प्रतिवद्धा-परलोके-जन्मान्तरे ये-कामादयस्तत्प्रयोजने प्रतिवद्धा या सा परलोकप्रतिबद्धा, सा च जन्मान्तरकामाद्यर्थिनां भवति २, तथा-द्विधातो लोकपतिवद्धा-द्विधातः-द्विप्रकारौ यो लोको-एतज्जन्म-जन्मान्तरे तत्र ये कामादयस्तन प्रतिवद्धा या भन्नज्या सा तथा, सा चैहलौकिकपारलौकिकसुखाद्यर्थिनां जनानां भवति ३, तथा-अप्रतिबद्धा-इहलोकपरलोकाशंसारहितलक्षणा, प्रव्रज्या, सा च विशिष्टसामायिकसम्पन्नानां मोक्षार्थिनां भवति ४ (१)। महाव्रतोंका ग्रहण करना इसका नाम प्रव्रज्याहै। जो प्रव्रज्या इस लोकमें जीवननिर्वाहादि रूप प्रयोजनसे प्रतिबद्ध होतीहै, वह इहलोक प्रतिवद्धप्रव्रज्या है १ अर्थात् जो मनमें संकल्पित होती है वह इहलोक प्रतियद्धप्रव्रज्या है ऐसी यह प्रव्रज्या इह जन्ममें जीवननिर्वाहादि मात्रके अभिलाषियोंकी होती है । जो प्रव्रज्या परलोक सम्बन्धी कामादिक भोगने रूप प्रयोजनसे प्रतिबद्ध होतीहै, वह परलोकप्रतिबद्धपत्रज्या है ऐसी यह प्रव्रज्या परलोकमें कामादिकोंके भोगनेके अभिलापियोंकी होती है।जो प्रव्रज्या इहलोक सम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी कामभोगादिक भोगनेकी अभिलाषासे प्रतिबद्ध होतीहै, वह उसयलोक प्रतिबद्ध प्रवज्या है ३। ऐसी यह प्रव्रज्या इहलोक और परलोकके सुखाभिलाषी पुरुषों की होतीहै। तथा जो प्रव्रज्या इहलोक और परकोक सम्बन्धी सुखोंको भोग પાંચ મહાવ્રતને ગ્રહણ કરવા તેનું નામ પ્રવજ્યા છે. જે પ્રવજ્યા આ લેકમાં જીવનનિર્વાહ આદિ રૂપ પ્રજનથી પ્રતિબદ્ધ હોય છે, એટલે કે આ લેકના સુખની આકાંક્ષાપૂર્વક લેવામાં આવી હોય છે, તે પ્રવ્રયાને ઈહલોક પ્રતિબદ્ધા કહે છે. જે પ્રવજ્યા પરલોક સંબંધી કામાદિક ભેગરૂપ પ્રજનથી પ્રતિબદ્ધ હોય છે, તે પ્રવજ્યાને પરલોકપ્રતિબદ્ધપ્રવ્રયા કહે છે. પરલોકમાં (દેવલેક આદિમાં) કામગ ભેગવવાની અભિલાષાવાળાની પ્રવ્રયા આ પ્રકારની હોય છે. જે પ્રવજ્યા આલેક સંબંધી અને પરલેકસંબંધી કામાદિક ભોગવવાની ઈચ્છાથી પ્રતિબદ્ધ હેય છે તે પ્રવજ્યાને ઉભયક પ્રતિબદ્ધા પ્રવજ્યા કહે છે. આલેક અને પરલોકના સુખની અભિ લાષાવાળા જીની પ્રવજ્યા આ પ્રકારની હોય છે. જે પ્રવજ્યા આલોક અને પરલોકના સુખને ભોગવવાની આશંસાથી રહિત હોય છે, તે પ્રજ્યાને Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे ३६६ " चउन्त्रिहा पन्त्रज्जा " इत्यादि - पुनः प्रव्रज्या चतुर्विधा प्रज्ञाता, तद्यथापुरतः प्रतित्र द्वा- पुरतः - अग्रतः प्राज्यापर्यायभाविषु शिष्याहाराssदिषु या पतिवेद्वा सा पुरतः प्रतिवद्धा १, तथा मार्गतः प्रतिवद्धा मार्गतः - पृष्ठतः स्वजनादिषु प्रतिवद्धा स्वजनायाशंसा सहितलक्षणा मार्गतः प्रतिवद्धा २ तथा द्विघातः प्रतिनेकी आशंसा से इच्छासे रहित होती है यह अप्रतिबद्ध प्रव्रज्याहै ऐसी चढ प्रव्रज्या विशिष्ट सामाधिकवाले मोक्षाभिलापी जीवों के होती है ४ (१) फिर भी -- प्रव्रज्या चार प्रकारकी कही गई है - जैसे पुरतः प्रतिबद्ध १ मार्गतः प्रतिबद्ध २ उभयतः प्रतिबद्ध ३ और अप्रतिवद्ध ४ इनमें जो प्रवज्या प्रव्रज्या पर्याय में आगे होनेवाली वस्तुओंकी प्राप्तिकी चाहना आकाङ्क्षासे प्रतिबद्ध होती है जैसे- मैं प्रवज्या लेकर अमुक २ प्रकार के आहार प्राप्त करूंगा ऐसे२ शिष्य बनाऊंगा आदि १| जो प्रव्रज्या पीछेकी वस्तुओं में प्रतिबद्ध होती है, वह मार्गतः प्रतिबद्ध व्रज्या है | जैसे दीक्षा लेकर भी अपने सगे सम्बन्धियोंकी चाहनासे बंधे रहना यह दीक्षा प्रव्रज्या मार्गतः प्रतिबद्ध इसलिये कही गई है कि प्रवज्या लेनेके बाद स्वजन संधियोंके मोहसे प्राणी सर्वथा रहित हो जाता है, वह समस्त जीवों में समभावी बन जाता है, परन्तु प्रव्रज्या लेकर भी अपने सगे અપ્રતિબદ્ધા પ્રવ્રજ્યા કહે છે એવી પ્રવ્રજ્યા વિશિષ્ટ સામાયિકવાળા માક્ષાભિલાષી જીવેાની હાય છે. । ૧ । " વળી પ્રર્નયાના નીચે પ્રમાણે ચર પ્રકાર પણુ કહ્યા છે—(૧) પુરતઃ अंतिमद्ध, (२) भार्गतः प्रतिमद्ध, ( 3 ) उलयतः प्रतिमद्ध, (४) अप्रतिमद्ध., જે પ્રવ્રજ્યા સાધુપર્યાયમાં પ્રાપ્ત થનારી વસ્તુએની આકાંક્ષાથી પ્રતિબદ્ધ હાય છે એવી પ્રત્રજ્યાનું નામ પુરતઃ પ્રતિશ્રદ્ધા પ્રવ્રજ્યા છે. જેમકે પ્રત્રજ્યા અગીકાર કરવાથી મને સારા સારા આહારની પ્રાપ્તિ થશે, શિષ્યાની પ્રાપ્તિ થશે આ રીતે આગામી ભૌતિક લાલુની આકાંક્ષાપૂર્વક જે પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરાય છે તેને પુરતઃ પ્રતિબદ્ધા પ્રવ્રજ્યા ’ કહે છે. ૧ જે પ્રત્રયા પાછળથી ( पूर्वअसिन ) वस्तुभां प्रतिभद्ध होय छे, ते वयाने "भोगतः अतिબુદ્ધા પ્રવ્રજ્યા ' કહે છે. જેમકે દીક્ષા અંગીકાર કર્યા બાદ પણ પેાતાના સાંસારિક સગાસબંધીએના સ્નેહપાશમાં બંધાયેલા રહેવું તેનું નામ માત પ્રતિદ્વા પ્રત્રયા છે. તે પ્રયાને માગતઃ પ્રતિબદ્ધા કહેવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે-પ્રત્રજયા લીધા પછી તે સગસ ખ'ધીએાના મેહથી રહિત થઈ જવું જોઈએ અને સમસ્ત જીવેા પ્રત્યે સમભાવ રાખવા જોઇએ. પણ પ્રયા ८८ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठोका स्था०४ उ०४ सू०१९ मन्नज्यास्वरूपनिरूपणम् ૩૬૭ वदा - पुरतो मार्ग प्रतिबद्धा ३, तथा - अप्रतिवद्धा - क्वचिदपि न प्रतिवद्धासकलाशंसवर्जिता ४ | ( २ ) | " चउव्विहा परज्जा ” इत्यादि -- पुनः माज्या चतुविधा मज्ञप्ता, तद्यथाअवपातप्रव्रज्या - अत्रपातात्सद्गुरुसेवनतः प्राप्ता या प्रवज्या सा अवपातप्रत्रज्या १, आख्यातत्रत्रज्या - आख्यातेन धर्मोपदेशेन या प्रवज्या सा, यद्वा- प्रवज्याशब्दश्रवणेन या प्रन्नज्या साऽख्यात ब्रज्या, आर्यरक्षितभ्रातुः फल्गुरक्षितस्त्र २ सम्बन्धियों मोहसे बँधा रहता है उसकी वह प्रव्रज्या इसी कारण मार्गतः प्रतिबन्ध कही गई है २ । जो प्रव्रज्या प्रव्रज्या, पर्यायके आगे समय में होनेवाली वस्तुओंकी चाहनासे और मार्गतः पीछे की व्यक्त वस्तुओं की चाहना से प्रतिबद्ध होती है, वह उभयतः प्रतिषद्ध प्रव्रज्या है ३ तथा जिस प्रव्रज्यामें सकल आशंसा इच्छासे रहितता रहती है वह प्रव्रज्या अप्रतिबद्ध है ४ (२) फिरभी -- प्रव्रज्या चार प्रकोर की कही गई है जैसे- अवपात प्रव्रज्या १ आख्यात प्रवज्या २ सङ्गरप्रव्रज्या ३ और विहगगतिप्रव्रज्या ४ इनमें जो प्रव्रज्या अवपात से - सद्गुरुकी सेवासे प्राप्त होती है, वह अवपात प्रव्रज्या है । जो प्रव्रज्या आख्यात-धर्मोपदेशसे प्राप्त होती है, वह आख्यात प्रव्रज्या है। जैसे आर्यरक्षित के भाई फल्गुरक्षितको प्राप्त हुई प्रव्रज्या आख्यातप्रव्रज्या कही गई है । जो प्रवज्या संकेतसे प्राप्तकी લઇને પણ જે માણસ પેતાના સગાંસંબધીએના માહમાં જકડાયેલા રહે છે તેવી પ્રત્રજ્યાને આ કારણે જ માગતઃ પ્રતિમદ્ધા કહી છે, કારણ કે માગતઃ ( પૂર્ણાંકાલિન ) મેહ આદિ 'ધને તેમાં ચાલુ જ રહે છે. ૨ જે પ્રવ્રજ્યા શ્રમણુ પર્યાયમાં પ્રાપ્ત થનારા ભાવી લાભેાની ચાહનાથી અને પૂર્વકાલિન ત્યક્ત વસ્તુઓની ચાહનાથી પ્રતિબદ્ધ હાય છે તે દીક્ષાને ઉભયતઃ પ્રતિખદ્ધા કહે છે. ૩ જે પ્રત્રજયા સકળ આશ’સામેથી (ઈચ્છાએથી) રહિત હાય છે. એટલે કે માત્ર માક્ષપ્રાપ્તિની અભિલાષાવાળી જે પ્રત્રજ્યા હાય છે તેને અપ્રતિબદ્ધા પ્રવ્રજ્યા કહે છે. ૪ । ૨ । પ્રત્રજ્યાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર પણ પડે છે—(૧) અવપાત પ્રમા स्याध्यात अवल्या, (3) संगर अवल्या, (४) विदुगगति अवल्या. हे પ્રવ્રજ્યા આવપાતને લીધે ( સદ્ગુરુની સેવાને લીધે ) પ્રાપ્ત થાય છે, તેને અવપાત પ્રવ્રજ્યા કહે છે જે પ્રવ્રજ્યા આખ્યાનથી-ધર્મપદેશના શ્રવણુથી પ્રાપ્ત થાય છે તેને અથવા--“ પ્રત્રજયા ’' શબ્દ સાભળવાથી પ્રાપ્ત થાય છેતેને આખ્યાત પ્રત્રજ્યા કહે છે. જેમકે આરક્ષિતના ભાઈ ફલ્ગુરક્ષિતને પ્રાપ્ત Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ स्थामाशास्त्र नथा-सङ्गापत्रज्या-सङ्गरात्-सङ्केतात् प्रवज्या सगरप्रवन्या, मेतार्यादीनामेव, यद्वा-' यदित्वं प्रव्रजसि तदाऽहमपि प्रत्रनिष्यामी ' त्येवं सङ्केतात् पत्रज्या सार प्रव्रज्या २, तथा-विहगगतिप्रवज्या-विहास्य-पक्षिणो गति:-प्रकारो न्यायो विहगगतिः तथा प्रवज्या विदगगतिमत्रज्या-परिवारादि वियोगेनैकाकिन:, तेपां देशान्तरगमनेन वा या प्रवज्या सा (३)। यद्वा-पित्रादीनां प्रत्रज्याग्रहणेन पुत्रादीनामपि क्रमेण या प्रत्रज्या सा ४(३)। " चउब्धिहा पयज्जा" इत्यादि-पुनः प्रवज्या चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथ-तोदयित्वा-व्यथामुत्पात्र या प्रत्रया दीयते, मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेजाती है जैसे-प्रेतार्य आदिकोंने प्राप्तकी है वह-अथवा-यदि तुम प्रत्र. जित होते हो, तो मैं भी प्रबजित होता है । इस प्रकारके सङ्केत से जो प्रत्रज्या प्राप्तकी जाती हैं वह सगर प्रव्रज्या है और जिस प्रव्रज्यामें परिवार आदि जनोंकी उपस्थिति न हो उनका वियोग हो ऐसी एकाकी अवस्थाकी जो प्रत्रज्या है, वह विहगगति प्रत्रज्याहै क्योंकि ऐसी प्रव्रज्या पक्षीकी जैसी गति होती है उस गतिसे ली गई होतीहै । अथवा घरको छोडकर देशान्तरमें जा करके जो प्रव्रज्यों ली जाति है, वह विहगगति प्रवज्या है (३) अथवा-पिता आदिके द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने पर जो पुत्रादिकों द्वारा बादमें दीक्षा लेली जातीहै वह विहगगति प्रव्रज्या है अर्थात् पिताके दीक्षित होने पर पुत्र भी दीक्षित हो जाता हैं । फिर भी--प्रव्रज्या चार प्रकारकी है जैसे-तोदयित्वा१ प्लावयित्वा २ मोचयित्वा ३ और परिप्लुनयित्वा ४ (४) व्यथाको उत्पन्न कराकर થયેલી પ્રવજ્યાને આખ્યાત પ્રવ્રજ્યા કહી છે. મેતાર્ય આદિની જેમ જે પ્રવજયા સંકેતથી પ્રાપ્ત થાય છે તેને સંગર પ્રāજ્યા કહે છે. અથવા તમે પ્રવજ્યા અંગીકાર કરે તે હું પણ પ્રવ્રજ્યા અંગીકાર કરીશ. આ પ્રકારના સંકેતપૂર્વક જે પ્રવજ્યા લેવામાં આવે છે તેને “સંગર પ્રવ્રયા' કહે છે. પરિવાર આદિની અનુપસ્થિતિમાં અથવા તેના વિગ રૂપ એકાકી અવસ્થામાં જે પ્રત્રજ્યા લેવામાં આવે છે તેને વિહગગતિ પ્રવજ્યા કહે છે, કારણ કે પક્ષીની જેવી ગતિ હોય છે એવી ગતિને કારણે એવી પ્રવ્રા લેવામાં આવી હોય છે. અથવા ઘર છોડીને પરદેશમાં જઈને જે પ્રવજ્યા લેવામાં આવે છે તેને વિહગગતિ પ્રવ્રજ્યા કહે છે. અથવા પિતા આદિ દ્વારા પ્રવ્રજ્યા લેવામાં આવી હોય અને ત્યારબાદ પુત્રાદિક દ્વારા જે પ્રવજ્યા લેવામાં આવે છે તેનું નામ વિહગગતિ પ્રજ્યા છે. ૩ ! વળી પ્રવજ્યાના નીચે પ્રમાણે ચાર પકાર પણ કહ્યા છે–(૧) તેદવિવા (२) सापयित्वा, (3) माययित्वा, (४) पतियित्वा. व्यथा उत्पन्न ४२१ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टोका स्था०४ २०४९०१९ प्रव्रज्यास्वरूपनिरूपणम् -- वसा तोदयितया प्रवज्योच्यते १ तथा प्लावयित्वा - गमयित्वाऽन्यत्रनीत्वेति यावत् या प्रव्रज्या दीयते स प्लावयित्वा मत्रज्या, आर्यरक्षितवत्, यद्वा - 'पुयावईता' इत्यस्य पूतयित्वेतिच्छाया, तत्पक्षे- प्रायश्चित्तादिना दोपमपहृत्य पूतं कृत्वा - पवित्रं कृत्वेत्यर्थः या मत्रज्या दीयते सा पूतयित्वा प्रव्रज्येत्युच्यते । 'बुवावइत्ता' इति पाठे तु उक्त्वा या प्रत्रज्या दीयते सा गौतमेन कर्षकवत्, यद्वा- पूर्वपक्षरूपं वचनं कारयित्वा या मत्रज्या दीयते सा यद्वा-निगृह्य प्रतिज्ञावचनं कारयित्वा या मवज्या सा उक्त्वा प्रव्रज्या २ तथा - मोचयित्वा - कस्माच्चिकार्याद्वियोज्य या जो प्रव्रज्या दी जाती है वह तोदयित्वा प्रव्रज्या है, जैसी प्रव्रज्या मुनिचन्द्र पुत्रको सागरचन्द्र ने दी है। जो प्रव्रज्या दूसरी जगह ले जाकर दी जाती है वह प्लावयवा प्रवज्या है, जैसे आर्यरक्षितको प्रव्रज्या दी गई है अथवा " यावता " की संस्कृत छाया पूतयित्वा " ऐसी भी होती है, सो इसके अनुसार ऐसा अर्थ होता है कि प्रायश्चित्त आदिसे दोषोंकी शुद्धि करके जो प्रव्रज्या दी जाती है, वह पूतयित्वा प्रवज्या है "बुता" इस प्रकार के पाठसें तो कह करके जो प्रत्रज्या दी जाती है वह " उक्तत्वा" प्रव्रज्या है जैसे गौतमने कर्षक (किसान) को दी है अथवा - पूर्वपक्षरूप५ वचन करवाकर जो प्रव्रज्या दी जाती है वह अथवा-निगृ हीत ( पराजित ) कर के प्रतिज्ञा वचन करवा करके जो प्रत्रज्या दी जाती है वह उक्तवा प्रव्रज्या है अथवा किसी कार्य से छुड़ाकर जो प्रव्रज्या दी जाती है (" ३६९ વીને જે પ્રત્રયા આપવામાં આવે છે તેનું નામ તેયિત્વા પ્રત્રજ્યા કહે છે. મુનિચન્દ્ર પુત્રને સાગરચન્દ્રે આ પ્રકારની પ્રવ્રજ્યા આપી હતી. દીક્ષાર્થીને ખીજી જગ્યાએ લઈ જઈને જે પ્રવ્રજ્યા આપવામાં આવે છે તે પ્રત્રજ્યાને પ્લાયિત્વા પ્રશ્નયા કહે છે આ પ્રકારની પ્રવ્રજ્યા આય રક્ષિતને દેવામાં આવી હતી. અથવા ८८ पुयावइत्ता ” આ પદની સંસ્કૃત છાયા " पुनयित्वा " થાય છે. તેના અર્થ એ પ્રમાણે થાય છે-પ્રાયશ્ચિત આદિ દ્વારા દોષાની શુદ્ધિ કરીને જે પ્રવ્રજ્યા આપવામાં આવે છે તેનું નામ ‘ પૂતયિા પ્રત્રજ્યા ’ છે. "" बुयावइत्ता આ પ્રકારના પાંઠે ગૃહીત કરવામાં આવે તે કડ઼ીને જે પ્રવ્રજ્યા આપવામાં આવે છે તેને उक्त्वा ઉકા પ્રત્રયા ’” કહે છે. આ પ્રકારની પ્રત્રજ્યા ગૌતમે ખેડુતને દીધી હતી અથવા-પૂર્વ પક્ષ રૂપ વચન કરાવીને જે પ્રવજ્યા અપાય છે તેનું નિગૃહીત કરીને પ્રતિનાબદ્ધ કરીને પાતે લઇને જે પ્રવ્રજ્યા અપાય છે તેને ઉત્લા પ્રવ્રજ્યા પ્રયા ’ કાઇને શુકામી, દાસત્વ આદિમાંથી મુક્ત "C નામ કત્લા પ્રવ્રજ્યા છે. અથવા स- ४७ १८८ દીક્ષા લેશે એવા વચનથી માંધી કહે છે. મેચિવા " કરાવીને જે પ્રત્રજ્યા Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ान प्रव्रज्या दीयते सा मोर्चाला पत्रज्या पथैकेन साधुना तैलार्थदासत्वमासभागिन्यै प्रवज्या दत्ता, परिप्लुतयित्वा - परिष्वतं कृत्वा = घृतादिभिः परिपूर्ण कृत्वा घृतादि योजयित्वेत्यर्थः या प्रवज्या दीयते सा परिष्तुतयित्वा प्रत्रज्योच्यते, हस्तिना रङ्कवत् । ४ । (४) । " चा पा" इत्यादि --- पुनः मया चतुविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाParatfar-cette वेगविकलधर्मकयाकरणोपार्जितभोजनादीनां खादितं= भक्षणं यस्यां सा नटवादिता, एवं भटवादित भटस्येव - वीरस्येव तथाविधवलोपदर्शनलब्धभोजनादीनां खादितं सक्षणं यरयां सा भटखादिता २ तथा सिंहखादिता सिंहस्येव खादित सौर्यातिशयादवज्ञयोपात्तरय भक्षणं वा यथामारब्धं भक्षणं वह मोत्या या है । जैसे एक साधुने तैलके निमित्त दासताको भास हुए भगिनीको छुडवाकर दीक्षा दी, घृतादिसे परिपूर्ण करके हृतादिका भोजन करवा करके जो प्रत्रज्या दी जाती है वह परिपतयित्वा प्रव्रज्या है जैसे सुहस्तीने रङ्गको दी ४ (४) -- फिर भी -- "वविहा पव्वज्जा" प्रव्रज्या चार प्रकारकी कही गई है जैसे- नटवादिता १ भटखादिता २ सिंहखादिता ३ और शृगालखादिना ४ जिस प्रव्रज्यामें नटकी तरह संवेग विकल वैराग्य रहित धर्मकथा के करने से उपार्जित भोजनादिकोंका सेवन होता है, वह नटखादिता प्रज्या है? जिस कथामें वीर की तरह तथाविध पलके दिखाने से लव्ध भोजनादिकों का सेवन होता है वह भटखादिता प्रव्रज्या है २ जिस भिक्षा सिंहकी तरह शौर्यातिशयसे अवज्ञापूर्वक प्राप्त भोजनका અપાય છે તેનું નામ માયિત્વા પ્રત્રજ્યા' છે. જેમકે તેલને બહાને દાસ બનેલી ભગિનીને અપાયેલી દીક્ષા, ઘી આદિથી પરિપૂર્ણ કરીને-ઘી આદિના ભાજન જમાડીને જે પ્રવ્રજ્યા આપવામાં આવે છે તેને " પરિવ્રુતયિા પ્રવ્રજ્યા ’ કહે છે. મા પ્રકારની પ્રવ્રજ્યા સુહસ્તીએ રકને ીધી હતી । ૪ । " " चव्विा पव्वज्जा પ્રજ્યાના નીચે પ્રમાશે ચાર પ્રકાર પણ કહ્યા - (१) नमजाहिता, (२) भटमाहिता, (3) सिंहमाहिता, (४) शृगालખાદિતા. જે પ્રત્રજ્યામાં નટની જેમ સ`વેગ રહિત વૈરાગ્ય રહિત ધમ કથા કરીને જે લેાજન પ્રાપ્ત થાય તેનું સેવન કરવામાં આવે છે, • નખખાદિતા પ્રવ્રજ્યા ' કહે છે જે કથામાં વીરની જેમ પ્રકારનું) ખલ દર્શાવીને પ્રાપ્ત થતાં ભેાજનાદિકનું સેવન થાય ભટખાદિતા પ્રવ્રજ્યા ' કહે છે, જે ભિક્ષામા સિંહની જેમ તે પ્રત્રજ્યાને તથાવિધ ( તે તે પ્રત્રજ્યાને શૌર્યાતિશયથી Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाटोका स्था०४ उ०४ ०१९ प्रारूपनिरूपणम् G यस्यां सा तथा ३ तथा - मृगालखादिता-शुपालस्येव नीचवृत्योपात्तस्य खादितं भक्षणं यस्यां वाऽन्यान्यस्थाने भक्षणं यस्यां सा तथा । ४ । "" " चव्विा किसी " इत्यादि - कृषिः - धान्यार्थं क्षेत्रकर्षणं, सा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - उप्ता - गोधूमादिधान्यवपनवती १, पर्युप्ता द्वित्रिर्वा उत्पाटय स्थानान्तराऽऽरोपणतः परिपनवती शालिवत् २ | निन्दिता - एकदा विजातीय तृणाद्यपनयनेन गोधिता, परिनिन्दिता-हित्रिर्वा वृणादिदूरीकरणेन शोधिता ४ | ( ६ ) सेवन होता है, वहसिंह खादिता प्रवज्या है ३ जिस भिक्षामें शृगालकी तरह नीचवृत्तिले प्राप्त भोजनका सेवन होता है अथवा अन्य अन्य स्थान में सेवन होता है वह शृगालवादिता प्रव्रज्या है ४ चच्चिदा किसी" इत्यादि - कृषि ( खेती चार प्रकारकी कही गई है धान्यके विभित क्षेत्र कर्षण (जोतना हल चलाना) करना इसका नाम कृषि (खेती) है यह कृषि उसा १ पर्युसा २ निन्दिता ३ और परनिन्दिता ४ इस रीति से चार प्रकार की है। गेहूं आदि की तरह जो बोई जाती है, वह उसा कृषि है १ । धान्य जिस प्रकार से दो बार अथवा तीन बार उखाड़कर अन्यत्र लगाया जाता है उसी प्रकार से जो एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान में रोपी जाती है, वह परिवप नवती - पर्युप्ता कृषि है २, जो कृषि विजातीय तृण घास वगैरह उखाड़कर शोधित की जाती है वह निन्दिताकृषि है ३ जिस कृषिले दो અવજ્ઞાપૂર્ણાંક પ્રાપ્ત થયેલા ભેજનનું સેવન થાય છે તે પ્રત્રવાને સિંહપ્પાદિતા પ્રવ્રજ્યા કહે છે. જે ભિક્ષામાં શિયાળની જેમ નીચ વૃત્તિથી પ્રાપ્ત થયેલા સેાજનનું સેવન કરાય છે, અથવા-અન્ય અન્ય સ્થાનમાં સેવન કરાય છે, તેનું नाम 'शृंगासमाहिता अवल्या' ! छे. ॥ ५ ॥ " 66 "चव्विा किसी " त्याहि-कृषि मेली यार प्रहारनी उही छे, ધાન્યાદિને નિમિત્તે ખેતરને જે ખેડવાની યા થાય છે તેને કૃશિ કહે છે. (1) उसा, (२) पर्युसा, (3) निन्दिता मने (४) परिनिन्दिता. < ઘઉં આદ્ધિની જેમ જેનું વાવેતર કરવામાં આવે છે તેનું નામ Gal षि' छे. (२) डांगरना छोडने ( धरुने ) उमाडीने भेभ इरीधी रोपवाभां આવે છે, તે પ્રમાણે ધાન્યના શાપને બે કે ત્રણવાર ઉખાડીને ખીજી જગ્યાએ રાપીને જે ખેતી કરવામાં આવે છે તેને “ પરિવપનવતીયુ મા કૃષિ કહે છે. વિજાતીય છેાડ, ઘાસ આદિને ઉખાડી નાખીને જે કૃશિ થાય છે તેને “ નિન્દિતા કૃષિ '' કહે છે. જે ખેતીમાં નકામા ઘાસ આદિને બે ત્રણવાર Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ स्थानाने "एवामेव चउब्धिहा पधज्जा" इत्यादि-एवमेव-कृपित्रदेव प्रव्रज्या चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-उप्ता-सामायिकाऽऽरोपणेन १, पर्युप्ता-महावताऽऽरोपणेन निरतिचारस्य सातिचारस्य वा मूलप्रायश्चित्तदानतः २, तथा-निन्दितासकृदतिचारालोचनेन ३, तथा-परिनिन्दिता-पुनः पुनरतिचारालोचनेन ४। (७)। " चउनिहा पन्चज्जा" इत्यादि -- धान्यपुञ्जितसमाना-पुजः - राशिः संजातोऽस्यामिति पुजितं, पुजितं च तद् धान्यं धान्यपुजितम्-अत्र प्राकृतत्वातीन चार घास वगैरह उखाडा जाताहै, और उसे शोधित किया जाता है ऐसी वह कृषि परिनिन्दिता कपि ४ (६) एचामेव चउन्धिहा बज्जा" इत्यादि-इन्ली प्रकारसे प्रव्रज्या भी चार प्रकार की होती है--जिन प्रवज्या सामाविकका आरोपण किया जाता है वह प्रव्रज्या उप्ताहै ? जिस प्रव्रज्यामें महानतोका आरोपण किया जाता है, वह पर्युप्ता पत्रज्या २ जिप्त प्रव्रज्या सानिधार अथवा निरतिचार हुए प्राणीमें मृल-प्रायश्चित्त देकर महावनोंका आरोपण किया जाता है, जिस प्रव्रज्यामें एकही बार अतिचारोंकी आलोचना की जाती है वह निन्दिता प्रव्रज्या है ३ और जिस प्रवज्यामें पुनः पुनः अतिचारोंकी आलोचनाकी जाती है वह परिनिन्दिता प्रवज्या है ४ (७) ___" चव्यिहाँ पन्चज्जा" पुनः-प्रत्रज्या चार प्रकारकी कही गई है जैसे धान्य पुश्चित समाल १ धान्य विरेल्लित समान २ धान्य विक्षिप्त ખેંચી કાઢીને ખેતરની શુદ્ધિ કરવામાં આવે છે, એવી ખેનીને “પરિનિનિદાતા कृषि ४ . । । " एवामेत्र चउव्यिहा पव्यज्जा" त्याह-वृशिना १४ प्रयाना પણ ચાર પ્રકાર પડે છે–(૧) જે પ્રત્રજ્યામાં સામાયિકનું આરોપણ કરવામાં આવે છે તેને “ઉતા-પ્રવજ્યા” કહે છે. (૨) જે પ્રવજ્યામાં મહાવ્રતનું આરોપણ કરવામાં આવે છે તે પ્રવજ્યાને પયુત પ્રવજ્યા કહે છે. (૩) જે પ્રજ્યામાં સાતિચાર અથવા નિરતિચાર જીવને મૂળ પ્રાયશ્ચિત્ત દઈને મહાવનું આરોપણ કરવામાં આવે છે, અથવા જે પ્રવજ્યામાં એક જ વાર અતિચારની આલોચના કરાય છે તે પ્રવજ્યાને “નિદિતા પ્રવજ્યા” કહે છે. તે પ્રમ્રજ્યામાં વારંવાર અતિચારોની આલેચના કરાય છે, તે પ્રવ્રયાને " परिनिहित अन्य ४ छ. । ७ ।, “चउविहा पव्वज्जा " प्रत्याना नाय प्रमाणे या२ ॥२ ५ ह्या --(१) धान्यनित समान, (२) धान्यविरसित समान, (3) धान्यविक्षित Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ४ सू १९ प्रव्रज्यास्वरूपनिरूपणम् ३७३ पुञ्जितपदस्य परप्रयोगः, पुञ्जितधान्यमित्यर्थः तेन समाना धान्यपूजितसमाना= लूनपूनविशुद्भपुञ्जीकृतधान्यतुल्या-सर्वातिचाररूपकचरविरहेण लब्धस्वभावत्वाद इति प्रथमा प्रव्रज्या १। तथा-धान्यविरेलितसमाना-विरेल्लितं-विस्तृतं च तद् धान्यं धान्यबिरेल्लितं यद् धान्यं विस्तृतं पवनेन शोधितमपुञ्जीकृतं तद्विरेल्लित. धान्यं तेन समाना-तुल्या धान्यविरेल्लितसमाना-प्रव्रज्यायां धान्यविरेल्लित. सदृिश्यं च स्वल्पेनाऽपि यत्नेन स्वभावलाभित्वेन, तथाहि-यथा-विस्तृतं बायुना समान ३ और धान्य कर्षित समान४ जो प्रव्रज्या राशिकृत धान्यके समान होतीहै अर्थात् काटकर कूड़ा (भूसा)पलाव वगैरह सब हटाकर और साफ कर जिस प्रकार धान्धकी राशि कर दी जाती है, इसी प्रकार जो प्रत्रज्या सर्वातिचार रूप कूड़ाकी सफाईसे बिलकुल शुद्ध स्वभावपाली होती है वह धान्यपुञ्जित समान प्रव्रज्या है १। जो धान्य विस्तृत हो पचनमें उडावनी करके जिले शुद्ध कर लिया गया हो, और जिसकी राशि नहीं की गई हो विखरा हुआ पड़ा हो ऐसा यह घिरेल्लित धान्य है इसके समान जो प्रव्रज्या है वह धान्य विरेल्लित समान प्रव्रज्याहै। प्रत्रज्यामें धान्य विरेल्लित सशताहै, वह थोडेसे भी प्रयत्मसे उसमें स्वभाव लाभवाली हो जानेले है। जिस तरह विस्तृत वायुसे पूत शुद्ध किये बिना राशि का धान्य अल्पसेमी प्रयत्नले राशिरूपमें होकर अपनी प्रकृतिमें ओजाता है उसी तरहले जो प्रव्रज्या अतिचारले क्षित होने पर भी थोडेल भी प्रायश्चित्त आदि द्वारा पुनः शुद्ध हो जाती है, ऐसी वह प्रत्रज्या धान्य સમાન, (૪) ધાન્યકર્ષિત સમાન. જે પ્રવ્રયા ધાન્યના ઢગલા જેવી હોય છે એટલે કે ધાન્યની કાપણી કરીને તેમાંથી નકામાં તણખલાં, કાંકરા વગેરે પદાર્થો દૂર કરીને તે ધાન્યને જેમ ઢગલે ઠરવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે સમસ્ત અતિચાર રૂ૫ કચરાની શુદ્ધિ થઈ જવાને કારણે બિલકુલ શુદ્ધ સ્વભાવવાની જે પ્રવજ્યાં હોય છે તેને ધાન્યપંજિત સમાન પ્રત્રજ્યા કહે છે. જે ધાન્યને પવનમાં ઉપણીને તેમાંથી ઘાસ, ફેતરા વગેરે દૂર કરી નાખીને જમીનપર ઢગલે કર્યા વિના વિસ્તૃત રૂપે પથરાયેલી સ્થિતિમાં પડયું રહેવા દેવામાં આવ્યું હોય એવા ધાન્યને વિરેલિયત ધાન્ય કહે છે. તેના સમાન છે પ્રમજ્યા હોય છે તેને ધાન્યવિલિત સમાન પ્રવ્રજ્યા કહે છે. આ સમાનતા કેવી રીતે ચગ્ય છે તે હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. જેમ તૃણાદિથી યુક્ત વિસ્તૃત ધાન્ય થડા પવનથી પણ શુદ્ધ થઈ જાય છે. તેમાંથી તૃણાદિ ઊડી જઈને ધાન્યને શુદ્ધ કરી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે જ પ્રવચ અતિચારથી દૂષિત હોવા છતાં પણ થોડા સરખા પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - BE स्थानाङ्गसूत्र पूतमपुञ्जीकृत धान्यमल्पेनापि प्रयत्नेन पुनः पृषीकुतं सन् स्वकृतिमापद्यते तथा-प्रव्रज्याऽपि याऽति वारपितासतो स्वल्पेनापि प्रायश्चित्तादिना पुनः शुद्धा भवति सा प्रव्रज्या धान्यविरेलितसमानाऽभिधीयते । २। तथा-धान्यविक्षिप्तसमाना-विक्षिप्तं बलीवईखुरक्षुदक्षुण्णतया विकिण च तद् धान्यं धान्यविक्षिप्तं, विकीर्णधान्यमित्यर्थः, तेन समाना धान्यविक्षिप्तसमाना-यथा-विकीर्णधान्यं सह. जकचवरयुक्तत्वात् शूदि सामग्र्यपेक्षिततया विलम्वेन स्वप्रकृतिमायाति, तथा या प्रवज्या स्वाभाविकाति वारयुक्तत्वात् प्रायश्चित्तादिसामग्र्यपेक्षिततया विलम्बन स्व स्वभावं लभते सा धान्यविक्षिप्तसमानोच्यते ३। तथा-धान्यसङ्कर्पितसमानासङ्कर्षित-क्षेत्रादाकर्पित-खलमानीतं च तत् धान्यं धान्यसङ्कर्पित-सङ्कपितधान्यविरेल्लित समान कही जाती है तथा जव धान्य बलीयों के बैलोंके खुगेसे क्षुण्ण (मर्दित)होताहै अर्थात् जय अनाजकी दाय होतीहै तब वह इधर उधर विकीर्ण हो जाताहै-विखर जाताहै-फैल जाता है । इस तरह इधर उधर फैल जानेसे वह धान्य अनाज कूड़ाकर कटवाला हो जाता है, और फिर सूप आदि द्वारा शुद्ध किया जाता है, इस तरह वह स्पादि सामग्रीकी अपेक्षावाला होने से विलम्बसे साफ होता है-अपनी प्रकृ. तिमें आता है, इसी तरह से जो प्रत्रज्या स्वाभाविक अतिचार युक्त होने से प्रायश्चित्त आदि सामग्रीकी अपेक्षाकाली होने के कारण विलम्बसे अपने स्वभावको पाती है, वह प्रवज्या धान्यविक्षिप्त समान कही जाती है ३१ जिस प्रकार खेतमेंसे खलिहानमें लाया गया अनाज बहुत अधिक દ્વારા પણ ફરીથી શુદ્ધ થઈ જાય છે, એવી પ્રવયાને “ધા વિલિત समान " अनन्या ही छे. જ્યારે અનાજની કાપણું કરીને તેના હૂંડાંઓ ઉપર બળદોને ચલાવવામાં આવે છે ત્યારે અનાજના ફેતરાં જુદા પડી જાય છે અને તે અનાજ એક રાશિ-ઢગલા રૂપે રહેવાને બદલે પથરાઈ જાય છે, તે વખતે તે ધાન્ય સાથે જે તણખલાં, ફેતર વગેરે ભળેલા હોય છે તેમને પવનમાં સૂપડા વગેરે વડે ઉપણીને અલગ કરવામાં આવે છે. આ રીતે તેને સાફ કરવામાં સૂપડા આદિ સામગ્રીની આવશ્યકતા રહે છે, તે કારણે તેની સાફસૂફીમાં વિલંબ થાય છે. એ જ પ્રમાણે જે પ્રવ્રજ્યા સ્વાભાવિક અતિચારથી યુક્ત હોવાથી પ્રાયશ્ચિત આદિ સામગ્રીની અપેક્ષાવાળી હોવાને કારણે પે તાના સ્વભાવને પ્રાપ્ત કરવામાં વિલંબ કરે છે, તે પ્રવજ્યાને ધાન્યવિક્ષિપ્ત સમાન કહી છે. જેમ ખેતરમાંથી ખળામાં લાવવામાં આવેલું ધાન્ય ઘણાં જ તણખલાં, કાંકરા આદિથી યુક્ત Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुवा टीका स्था०४ ४ सू०२० संज्ञास्वरूपनिरूपण मित्यर्थः, तत्समाना = धान्यसङ्कर्षितसमाना-सङ्कर्पितधान्यं यथा बहुतरऋचवपेतत्वादतिचिरकाललभ्यस्वस्वभावं भवति तथा या प्रव्रज्या बहुतरातिचारोपेतत्वाद्वहुतरकालमाप्तव्यस्यस्वभात्रा सा धान्यसङ्कर्पितमाना ४। (८) ०१९॥ पूर्व प्रयोक्ता, सावं विचित्रा संज्ञावशाद् भवतीति संज्ञा निरूपयितुं पश्चसूचीमाह -- ३७५ चत्तारि सन्नाओ पण्णताओ, तं जहा--आहारसना १, भयसन्ना, २, मेहुणसन्ना ३, परिग्गहसन्ना ४ । ( १ ) चउहिं ठाणेहिं आहारसन्ना समुप्पज्जह, तं जहा - ओमकोट्टयाए १, छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदयणं २, सईए ३, तयोवओगणं ४ ( २ ) चहिं ठाणेहिं भयसन्ना ससुप्पज्जइ, तं जहा - हीणसत्त ताए १, भयवेयणिज्जस्स कम्मरुल उदणं २, सईए ३, तयहोओगे ४ । (३) । उहिं ठाणेहिं मेहुणसन्ना समुप्पज्जइ, तं जहा - चियमंससोणियत्ताए १ मोहणिज्जस्त कम्मस्स उदए २ मईए ३ तयट्टोवओगेणं ४ ( ४ ) चहिं ठाणेहिं परिग्गहसन्ना समुपज्जइ, तं जहा - अविमुत्तयाए १, लोभवेयणिजस्स कम्मस्स उदपणं २ मईए ३ तयट्टोवओगेण ४ ( ५ ) ॥ सू० २० ॥ कूडा करकटवाला होने से बहुत समयके (पीछे) अपने स्वभावमें आना है उसी प्रकार जो प्रव्रज्या बहुतर अतिचारोंसे युक्त होनेके कारण बहुतर काल में प्राप्तव्य ( प्राप्त होने योग्य) स्वभाववाली होती है वह प्रव्रज्या धान्यसंकर्षित समान होती है ४ (८) है, सूत्र १९ ॥ હાવાને કારણે ઘણા સમય સુધી સાફસૂફી કર્યાં બાદ પેાતાની મૂળ પ્રકૃતિમાં આવી જાય છે, એ જ પ્રમાણૢ જે પ્રવ્રજ્યા ઘણુા જ અતિચારેથી યુક્ત હાવાને કારણે દીર્ઘ કાળે પેાતાના સ્વભાવને પ્રાપ્ત કરનારી હાય છે તે પ્રયાને ધન્ય સકર્ષિત સમાન કહી છે. ! ૮ ૫ | સૂ૦ ૧૯ ! Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग छाया-चतस्रः संज्ञाः प्रज्ञताः, तद्यथा-आहारसंज्ञा १, भयसंज्ञा २, मैथुन संज्ञा ३, परिग्रहसंज्ञा ४। (१) चतुभिः स्थानराहारसंज्ञा रामुत्पद्यते, तद्यथा-अवमकोष्ठकतया १, सुधावेद नीयस्य कर्मण उदयेन २, मत्या ३, तदर्थोपयोगेन ४, (२) चतुर्भिः स्यानर्भयसंज्ञा समुत्पद्यते, तद्यथा-हीनसत्त्वतया १ भयवेदनीयस्य फर्मण उदयन २ मत्या ३ तदर्थोपयोगेन ४ (३)। चतुर्भिः स्थानमथुनसंज्ञा समुत्पद्यते, तद्यथा-चितमांसनोणिततया १, मोहनीयस्य कर्मण उदयेन २ मत्या ३ तथर्थोपयोगेन ४ (४)। चतुभि स्यानैः परिग्रहसंज्ञा समुत्पद्यते, तद्यथा-अविमुक्ततया १, लोभवेदनीयस्य वार्मण उदयेन २ मत्ला ३ तदर्थोपयोगेन ४ ।। मू० २० ॥ टीका-' चत्तारि सन्नाभो" इत्यादि-संज्ञानानि संनाः-चेष्टा:-अभिलापा इति यावत् , ता असातवेदनीयमोहनीयकर्मोद गजन्यविकारयुक्ताः सत्य आहारादि संज्ञात्वं लभन्ते, इति ताश्चतस्त्रः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आहारसंज्ञा-आहारा. मिलापः १, भयसंज्ञा-मयमोहनीयजन्यो जीवपरिणामः२, मैथुनसंज्ञा-वेदोदयजनितो मैथुनाभिलापः३, परिग्रहसंज्ञा-चारित्रमोहोदयजनितःपरिग्रहाभिलापः४!इति(१) उक्त प्रव्रज्या संज्ञाके वासे इस प्रकार विचित्रतादाली होती है इसलिये अघ सूत्रकार संज्ञाका निरूपण करनेके लिये पंचसूत्री कहते हैं 'चत्तारि सन्नाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि मूत्र २० ॥ टीकार्थ-संज्ञाएँ चार प्रकारको कही गईहें जैसे-आहार संज्ञा१ भय संज्ञा २ मैथुन संज्ञा ३ और परिग्रह संज्ञा ४ चेष्टा अभिलापा-इसका नाम संज्ञा है, यह जब असानावेदनीय मोहनीय कर्मके उद्यसे जन्य विकार युक्त हो जाती है तय आहारादि संज्ञापनेको प्राप्त करती है, इनमें आहारकी अभिलापारूप आहार संज्ञा होतीहै । भय मोहनीय जन्य जो ઉપર્યુક્ત પ્રવજ્યા સંજ્ઞાને અધીન થઈને આ પ્રકારની વિચિત્રતાવાળી થાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર સંજ્ઞાનું નિરૂપણ કરવા નિમિત્ત પંચસૂત્રીનું કથન ४रेछ " चत्तारि सन्नाओ पण्णत्ताओ" त्यादि संज्ञाना नीय प्रमाणे या२ २ ४६ छ-(१) माडा२ संज्ञा, (२) ભય સત્તા, (૩) મૈથુન સંજ્ઞા અને (૪) પરિગ્રહ સંજ્ઞા ચેક અથવા અભિ લાષાને સંજ્ઞા કહે છે. તે જ્યારે અસાતા વેદનીય મે હનીય કર્મના ઉદયથી જન્ય વિકાર યુક્ત થઈ જાય છે, ત્યારે આહારાદિ સંજ્ઞા રૂપતાને પ્રાપ્ત કરે છે. આહારની અભિલાષા રૂપ સંજ્ઞાને આહાર સંજ્ઞા કહે છે. ભયમહનીય Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ सुंधा टीका स्था०४३०४ सू०३० संज्ञास्वरूपनिरूपणम ___ " चउहि ठाणेहि " इत्यादि-चतुर्विक्ष्यमाणैः स्थानै कारणैः, आहारसंज्ञा समुत्पद्यते-जायते, तद्यथा - अबमकोष्ठतया-रिक्तोदरतयाऽऽहाराभिलापो जायते १, तथा-क्षुद्वेदनीयस्य कर्मण उदयेन २, तथा-मत्या-आहारकथाश्रवणादिजनितया बुद्धया ३, तथा-तदर्थोपयोगेन सदाऽऽहारार्थचिन्तनेन । (२) "चउहि ठाणेहि भयसन्ना" इत्यादि-चतुभिवक्ष्यमाणैः स्थानर्भयसंज्ञा समुत्पद्यते, तद्यथा-हीनसत्वतया-हीनं-न्यून सत्त्व-वलं यस्य स हीनसत्त्वस्तस्य. भावो हीनसत्त्वता तया=निर्बलतया १, तथा-भयवेदनीयस्य कर्मण उदयेन २, जीव परिणाम है वह भयसंज्ञाहै । वेदके उदयसे जनित जो मैथुनाभिलापारूप परिणामहै, वह मैथुनसंज्ञा है और चारित्र मोहनीयके उद्यसे जनित जो परिग्रहाभिलाषा है वह परिग्रह संज्ञा है ४ (१) ___ " चउहिं ठाणेहिं " इत्यादि चार कारणों से आहार संज्ञा उत्पन्न होती है वे चार कारण ये हैं-पेट जब खाली हो जाताहै, तब आहारा. भिलाषा होती है १ क्षुधावेदनीय कर्मका जब उदय होता है तय आहा. राभिलाषा होती है २ आहारकथाके श्रवणसे जनित वुद्धिसे आहारा. भिलाषा उत्पन्न होती है ३ और सदा आहारार्थके चिन्त्वनसे आहारा. भिलाषा उत्पन्न होती है ४ (२) इसी तरहसे चार कारणों द्वारा भय. संज्ञा उत्पन्न होती है १ भय वेदनीय कर्मके उदयसे अपसंज्ञा होती है २ भयकी यात सुननेसे तथा भयङ्कर पदार्थों आदिके देखनेसे जनितं જન્ય જે જીવપરિણામ છે તેનું નામ ભય સંજ્ઞા છે. વેદના ઉદ્દેશ્યથી જન્ય જે મૈથુનાભિલાષા રૂપ પરિણામ છે તેનું નામ મૈથુન સંજ્ઞા છે, અને ચારિત્ર મેહનીયના ઉદયથી જે પરિગ્રહાભિલાષા છે તેને પરિગ્રહ સંજ્ઞા કહે છે. ૧ " चहि ठाणेहि" त्यादि-नयना यार ४१२शन दीधे मार सज्ञा ઉત્પન્ન થાય છે-(૧) જ્યારે પેટ ખાલી થઈ જાય છે ત્યારે આહારાભિલાષા ઉત્પન્ન થાય છે. (૨) ક્ષુધા વેદનીય કર્મને જ્યારે ઉદય થાય છે ત્યારે આહાર ભિલાષા થાય છે. (૩) આહાર કથાનું શ્રવણ કરવાથી આહારાભિલાષા ઉત્પન્ન થાય છે. (૪) સદા આહાર વિષયક વિચાર કર્યા કરવાથી આહારાભિલાષા उत्पन्न थाय छे. । २ । નીચેના ચાર કારણેથી ભયસંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે– (૧) બલાહીન હોવાથી ભયસંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે (૨) ભયવેદનીય કર્મના ઉદયથી ભયસત્તા ઉત્પન્ન થાય છે. (૩) ભય લાગે એટ્વવાત સાંભળવાથી અને ભયંકર પદાર્થ આદિ स्था-४८ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ स्थानाङ्गसचे तथा--मत्या-भयवात श्रवण-भयङ्करदर्शनादिजनितया बुद्धया ३, तथा-तदर्थोपयोगेन-इहलोकादिभयरूपार्थविचारेण ४, इति (३) । . " चउहि ठाणेहि मेहुणसना" इत्यादि--चतुर्भिक्ष्यमाणैः स्थानमधुनसंज्ञा समुत्पद्य ने, तत्रया-चितमांसशोणिततया-चिते-उपचि ते वृद्धि प्राप्ते मांस. शोणिते यस्य स चितमांसगोणितस्तस्य भावश्चितमांसशोणितता तया १, तथामोहनीयस्य कर्मण उदयेन २, तथा-मन्या पैथुनकथाश्रवणादिजनितबुद्धथा ३, तथा-तदर्थोपयोगेन-मैथुनरूपार्थचिन्तनेन ४, (४)। ___ " चउहि ठाणेहिं परिग्गहसन्ना" इत्यादि-चतुर्विक्ष्यमाणैः स्थान परिग्रहसंज्ञा समुत्पद्यते, तद्यथा-अविमुक्ततया-पदार्थसङ्ग्रहादवियुकानया परिग्रहितेत्यर्थः १, तथा-लोभवेदनीयस्य कर्मण उदयेन २, तथा-मत्या-मचेतनादि परिग्रहदर्शनादिजनितबुद्धया ३, तथा तदर्थोपयोगेन-परिग्रह रूपार्थानुचिन्तनेन ४ इति (५) ।। सू० २० ॥ बुद्धिसे भयसंज्ञा उत्पन्न होती है ३ और इहलोकादि सम्बन्धी भयरूप अथके विचारसे भयसंज्ञा उत्पन्न होती है ४ (३) मैथुन संज्ञा इन चार कारणोंसे उत्पन्न होती है-शरीर में मांस और शोणित खूनकी वृद्धि होनेसे मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है १ मोहनीयकर्मके उदयसे मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है २। मैथुनकी कथा श्रवण से जनित बुद्धि से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है । और मैथुनरूप अर्थके चिन्तवनसे मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है ४ (४) । तथा-इन चार कारणोंसे परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है जैसे पदार्थो के संग्रह करनेसे तत्पर रहने से रातदिन पदार्थों का संग्रह करते रहनेसे १ लोभ वेदनीय कर्मके उदयसे सचेतन परिग्रहके देखने आदिसे जनित દેખવાથી ભયસ જ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. (૪) આલેક આદિ વિષયક ભયરૂપ અર્થને વિચાર કરવાથી ભયસંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. | ૩ | નીચેના ચાર કારથી મિથુન સંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે–(૧) શરીરમાં भांस भने २४तनी वृद्धि थवाथी, (२) मोहनीय भन। यथी, (3) भैथुन વિષયક કથા શ્રવણ કરવાથી અને (૪) મિથુન રૂપ અર્થનું ચિત્તવન કર્યા કરવાથી મિથુન સંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. | ૪ | આ ચાર કારણોને લીધે પરિડ સંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે–(૧) પદાર્થોને સંગ્રહ કરવામાં લીન રહેવાથી, રાતદિન પદાર્થોને સંગ્રહ કર્યા કરવાથી, (૨) લભ વેદનીય કર્મના ઉદયથી, (૩) સચેતન પરિગ્રહને દેખવાને લીધે જનિત Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०२१ स्क्रामवरूपनिरूपणम् ३७९ • पूर्व संज्ञा प्रोक्ता, सा च शब्दादिकामविषया भवन्तीति कामान् निरूपयितुमाह मूलम्-घउबिहा कामा पण्णत्ता, तं जहा-सिंगारा १, कल्लुणों २ बीभच्छा ३, रोद्दा ४ सिंगारा कामा देवाणं, कलुणा कामा मणुयाणं, बीभच्छा कामा तिरिक्खजोणियाणं, रोदा कामां णेरइयाणं ॥ सू० २१ ॥ ' छाया-चतुर्विधाः कामाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-शृङ्गाराः १, करुणाः २, चीभत्साः ३, रौद्राः ४। शृङ्गाराः कामा देवानाम् १, करुणाः कामा मनुनानाम्२, . वीमत्साः कामास्तिर्यग्योनिकानाम् ३, रौद्राः कामा नैरयिकाणाम् ४ ॥ २१ ॥ टीका--" चउबिहा कामा" इत्यादि--कामा:-काम्यन्तेऽभिलष्यन्त इति कामा:-शब्दादयश्चतुर्विधाः-चतुष्पकाराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा शृङ्गाराः १, करुणाः २, वीभत्साः ३, रौद्राः ४ इति, तत्र-शङ्गाराः कामा देवानां भवन्ति, ऐकान्तिका. ऽत्यन्तमनोज्ञत्वेन प्रकृष्टरतिरसाश्रयत्वादिति, यतः शङ्गारो रतिरूपो भवति, यदाहघुद्धिसे और परिग्रहरूप अर्थक बार २ चिन्तवनसे परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है ४ (५) ।। सू० २०॥ कथित ये संज्ञाएँ शब्दादिरूप काम विषयवाली होती हैं, अत: अब सूत्रकार कामोंका निरूपण करते हैं-" चविहा कामा पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र २१ ॥ टीकार्थ-काम चार प्रकार के कहे गयेहै-जैसे शृङ्गार १ करुणार बीभत्स ३ और रौद्र ४ जो चाहना अभिलाषाके विषय होते हैं वे काम हैं। वे काम शब्दादिरूप होते हैं। ये शब्दादिरूप काम-जो शृभार आदिके सेदसे चार प्रकारके कहे गये हैं, सो शृङ्गाररूप काम, देवोंको होते हैं, क्योंकि મતિથી અને (૪) પરિચડ રૂ૫ અર્થનું વારંવાર ચિન્તવન કર્યા કરવાથી परियड सज्ञा उत्पन्न थाय छे. ॥ सू. २० ॥ ઉપર્યુક્ત સંજ્ઞાઓ શબ્દાદિ રૂપ કામ વિષયવાળી હોય છે, તેથી હવે सू३२ आमा (विषये) तुं नि३५९ ४२ छे. "चउबिहा कामा पण्णत्ता" त्याह साथ-म या२ प्रश्न छ-(१) श्रृं॥२, (२) ४२११, (3) भीमस અને (૪) રૌદ્ર ચાહના (અભિલાષા) ના વિષય રૂપ જે હોય છે તેમને “કામ” કહે છે. તે કામ શબ્દાદિ રૂપ હોય છે તેને શૃંગાર આદિ જે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-ગાર રૂપ કામને સદ્ભાવ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D स्थाना ___" व्यवहारः पुं-नारिन्योऽन्यं रक्तयोरतिप्रकृतिः शशारः" इति १, तथाकरुणाः कामा मनुजानां मनुष्याणां भवन्ति, यतस्ते तादृशमनोज्ञा न भवन्तीति तथा क्षणेन दृष्टाः सन्तो नपन्तीति तथा-शुक्रशोणितप्रभृतिशरीराश्रविणो भवन्तीति शोचनरूपा अवन्तीति करुणो हि रसः शोकस्वभावो भवति. उक्तं च"करुणः शोकप्रकृति-रिति २, तथा-बीभत्साः कामास्तिर्यगयोनिकानातिर्यग्योनिजातानां माणिनां पक्षिप्रभृतीनां भवन्ति, वीभत्सकामानां निन्दनीयत्वात् , वीभत्सरसो हि जुगासात्मको भवति, यदाह--" भवति जुगुप्साप्रकृति. वीभत्सः " इति ३, तथा-रौद्राः-दारुणा अत्यन्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात् , शृंगार रतिरूप होताहै, और देव ऐकान्तिकरूपसे अत्यन्त मनोज्ञ होते हैं। इसलिये वे प्रकृष्ट रतिरसके आश्रयभूत होते हैं। सो ही कहा है व्यवहारः पुं-नारिन्योन्यं रक्तयोरतिप्रकृतिः गंडारः" परस्परमें रक्त स्त्री पुरुषोंका जो व्यवहारहै वह रति है, कारण जिसका ऐसा होता है वह रतिही शृङ्गारहै। करुणारूप जो कामहैं वे मनुष्योंको होते हैं, क्योंकि वे देवों के जैसे मनोज्ञ नहीं होते हैं। देखते २ वे एक क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं शुक्र शोणितके सम्बन्धसे जनित शरीरवाले होते हैं और ज्ञाचनरूप होते हैं करुणरस शोक स्वभाववाला होता है कहा भी है" करुणः शोकप्रकृतिरिति” २१ बीभत्सकाम तिर्यश्च योनिमें उत्पन्न हुए पक्षि आदि प्राणियोंके होते हैं । वीभत्सकाम निंदनीय होते हैं क्योंकि बीभत्सरस जुगुप्सात्मक होताहै। कहा भीहै-" भवति जुगुप्सी प्रकृतिः वीभत्सरसः " जुगुप्सा प्रकृतिवाला वीभत्सरस होता है रौद्रદેવમાં હોય છે, કારણ કે શૃંગાર રતિરૂપ હોય છે અને દેવો એકાતિક રૂપે पूर्णतः) भनाश डाय छ, तथी तो अट २तिरसथी सपन्न डाय . ४४ छ -" व्यवहारः पु-नारिन्योन्यं रक्तयोरतिप्रकृतिःश्रृंगारः" પિરસ્પરમાં રક્ત (આસક્ત) સ્ત્રી પુરુષને જે વ્યવહાર છે તેનું નામ રતિ છે, અને તે રતિ જ મૃગાર રૂપ છે. કરુણરૂપ કામને સદૂભાવ મનુષ્યમાં હોય છે, કારણ કે તેઓ દેવના જેવા મણ હોતા નથી, તેઓ જોતજોતામાં એક ક્ષણ માત્રમાં જ નષ્ટ થઈ જાય છે, અને શોચનરૂપ હોય છે -:.४५ २८ ४ मावाणी डाय छे. मधु ५५ छ है-" करुणा शीप्रकृतिरिति " भील भिना समाप तिय य योनिभा उत्पन्न येai પક્ષીઓ પ્રાણીઓ આદિમાં કાય છે બીભત્સ કામ નિંદનીય હોય છે, કારણ यास)शुसासन डाय छे. ४यु ५ छ है-" भवति जुगुप्ता प्रकृति बीभत्सरसः" शुसा प्रतिवाणी भीमसरस डाय छे. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उषा टीको स्था०४३०४ सू०२२ उदकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३८१ ते कामा नैरयिकाणां-नरकोत्पन्नानां जीवानां भवन्ति, रौद्रसो हि क्रोधरूपो भवति, “ रौद्रः क्रोधप्रकृति "-रित्युक्ते रिति । ४ । ॥ सू० २१ ॥ पूर्व कामा उक्ताः, ते चं तुच्छ-गंभीरयो धकावाधका भवन्तीति तौ प्रतिपादयितुं सदृष्टान्तामष्टसूत्रीमाह-- मूलम्-चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए १, उत्ताणे गाममेगे गंभीरोदए २, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए ३, गंभीरे णाममेगे गंभीरोदए । (१.) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरहियए ४, (२)। चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४ (३) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४, (४) __चत्तारि उदही पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदही ४, (५) एवामेव चत्तारि पुरिसजायापण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणेणाममेगे उत्ताणाहियए ४(६)। चत्तारि उदही पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणो. दारुण होता है वह अत्यन्त अनिष्ट होनेसे क्रोधोत्पादक होता है, इसलिये दारुण काम नैरथिकोंके नारकोत्पन्न जीवोंके होतेहैं रौद्ररस क्रोधरूप होताहै, क्योंकि रौद्राः क्रोधप्रकृतिः " ऐसा कथन है । स्नू० २१ ।। રૌદ્ર અત્યંત દારુણ હોય છે. તે અત્યંત અનિષ્ટ હોવાથી કોપાદક હોય છે. તેથી નારક માં રી કામને સદભાવ હોય છે. રશદ્ર રસ ક્રોધ ३५ डाय 2. युं पर छे ..." रौद्राः क्रोधप्रकृतिः ॥ ॥ सू० २१ ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे ૩૮૨ भासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४ ( ७ ) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -- उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी ४ ( ८ ) ॥ सू० २२ ॥ ' छाया - चत्वारि उदकानि प्रजप्तानि तद्यथा- उत्तानं नामैकमुत्तानोदकम् उत्तानं नामैकं गम्भीरोदकं २, गम्भीरं नामैकमुत्तानोदकं ३ गम्भीरं नामंक गम्भीरोदकम् ४ ( १ ) । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रप्तानि तद्यथा - उत्तानो नामै उत्तानहृदयः, उत्तानो नामैको गम्भीरहृदयः ४, ( २ ) । चत्वारि उदकानि प्रज्ञप्तानि तथा उत्तानं नामैकमुतानामासि, उत्तानं नामैकं गम्भीरावभासि ४ ( ३ ) एवमेव चलारि पुरुषजातानि मतानि, तद्यथाउत्तानो नामै उत्तानावभासी, उत्तानो नामैको गम्भीरावभासी ४ ( 2 ) । चत्वार उदधयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा - उत्तानो नामक उत्तानोदधिः, उत्तानो नको गम्भीरोदधि. ४, (५) एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाउत्तानो नामैक उत्तानहृदय ४, (३) । चत्वार उदधयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - उत्तानो नामेक उत्तानावभासी, उत्तानो नको गम्भीराभासी ४ (७) । एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि तद्यथाउत्तानो नामै उत्तानावभासी ४ (८) ॥ सू० २२ ॥ टीका -- --" चत्तारि उदगा " इत्यादि - उदकानि = जलानि चत्वारि प्र सानि तद्यथा - एकमुदकमुत्तानं तुच्छत्वात् प्रतलं भवति, तदेव पुनरुत्तानोदकं भवति, स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वात् । 3 उक्त ये काम तुच्छ और गम्भीरके बाघक और अबाधक होते हैं इसलिये इनको प्रतिपादन करनेके लिये सूत्रकार दृष्टान्त सहित अष्ट सूत्री कहते हैं - चत्तारि उदगा पण्णा इत्यादि सूत्र २२ ॥ टीकार्य - जल चार प्रकार के कहे गये हैं, इनमें कोई उदक ऐसा होता है जो उत्तान तुच्छ होने से प्रतल पतला होता है हल्का होता है और स्वच्छ होनेसे उपलब्धिके योग्य है, मध्य स्वरूप जिसका ऐसा होता है। तथा ઉપર્યુક્ત કામ તુચ્છ અને ગંભીરના ભાષક અને અબાધક હોય છે, તેથી તેમનું પ્રતિપાદન કરવા નિમિત્તે સૂત્રકાર દૃષ્ટાન્ત સહિતની અષ્ટસૂત્રી हे छे. " चत्तारि उद्गा पण्णत्ता " इत्यादि ટીકા-જળના ચાર પ્રકાર કહ્યાં છે—(૧) કાઈ જળ એવું હાય છે કે જે ઉત્તાન-તુચ્છ હાવાથી પ્રતલ ( પાતળું) હાય છે અને સ્વચ્છ હાવાથી જેનું મધ્ય સ્વરૂપ ઉપલબ્ધ થઈ શકે એવું હાય છે. (૨) ઢાઈ જળ એવુ હોય છે Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषाका स्था०४ ७०४ सू०२२ उदकष्टान्तेन पुरुषजातनिळपणम् ३८३ । तथा-एकमुदकमुत्तानं सद् गम्भीरोदकम् अगाधत्वादनुपलभ्यमानस्वरूपं भवति २, तथा एकमुदकं गम्भीरम्-अगाधं प्रचुरत्वात् सत्पुनरुत्तानोदकम्स्वच्छतयोपलभ्यस्वरूपत्वात् ३, तथा एकमुदकं-गम्भीरमगाधत्वात् पुनर्गम्भी रोदकं भवति अगाधत्वादिति ।। " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-एवमेव-उदकवदेव पुरुषजा तानि चवारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एका पुरुषः उत्तानः-गाम्भीर्यरहितो भवति वहि दर्शितमददैन्यादिजन्यविकृतकायवाक्चेष्टत्वात् स एव पुनरुत्तानहृदयो भवतिदैन्यादि युक्त गोपनीयधारणाशक्तेरसमर्थचित्तत्वादिति प्रथमः १॥ एक उदक ऐसा होता है, जो उत्तान होता हुआ गंभीरोदक होता हैअगाध (ऊंडा) होनेसे जिसका स्वरूप उपलभ्यमान नहीं होताहै, ऐसा होताहै। एक उदक ऐसा होताहै जो प्रचुर होनेसे अगाध होताहै, और स्वच्छ होनेसे जिसका मध्य उपलब्धिके योग्य स्वरूपवाला होता है । तथा एक उदक ऐसा होता है जो गंभीर-गंभीरोदक होता है । अगाध होनेसे जिसका स्वरूप उपलब्धिके योग्य नहीं होता है, और स्वच्छ होने पर भी जिसका मध्यभाग नहीं दिखाता है ४ " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-जैसे ये जलके चार प्रकार प्रकट किये गये हैं वैसेही पुरुष प्रकार चार होतेहैं-इनमें कोई एक पुरुष प्रकार ऐसा होताहै जो उत्तान होताहै गंभीरतासे रहित होताहै और बाहरमें मद एवं दैन्य आदिसे जन्य विकृत कायकी और वचनकी चेष्टा दिखलानेवाला होनेसे उत्तान हृदयवाला होताहै दैन्यादि युक्त अपनी गोपनीय स्थितिको छिपा કે જે ઉત્તાન હોવા છતા ગંભીર હોય છે–અગાધ હોવાથી જેનું મધ્ય સ્વરૂપ ઉપલબ્ધ ન થઈ શકે એવું હોય છે. (૩) કેઈ ઉદક ખૂબ ગંભીર હોવાથી અગાધ હોય છે, અને સ્વચ્છ હોવાને કારણે જેનું મધ્ય સ્વરૂપ ઉપલબ્ધ થઈ શકે એવું હોય છે (૪) કેઈ ઉદક એવું હોય છે કે ગભીર-ગ ભીરોદક વાળું હોય છે, અગાધ હોવાથી તેનું સ્વરૂપ જાણી શકાતું નથી અને સ્વચ્છ હોવા છતાં પણ તેને મધ્યભાગ દેખાતું નથી. " एवामेव चत्वारि पुरिसजायो " त्याहि જેવાં જળના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે એવા જ મનુષ્યના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) કોઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે ઉત્તાન હોય છે ગંભી. રતાથી રહિત હોય છે અને મદ અને દૈન્ય આદિ જન્ય કાય અને વચનની વિકૃત ચેષ્ટા બતાવનાર હોવાથી બહારથી ઉત્તાન હૃદયવાળા હોય છે–દેન્યા Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाने तथा-एकः पुरुष उत्तानो भवति, कारणवशाद्दर्शितविकृतचेप्टत्वात् , स एत्र पुनर्गम्भीरहृदयो भवति प्रकृत्या गांभीर्यगुणसम्पन्नचित्तत्वात् इति द्वितीयः २। तथा-एको गम्भीरः-दैन्यादियुक्तोऽपि गाम्भीर्यगुणसम्पन्नो भवति, स एव पुनः कारणवशात् सशोपिताकारतया उत्तानहदयो भवति, इति तृतीयः ३, तथाएको गम्भीरो भवन् गम्भीरहृदयो भवतीति चतुर्थः । ४ । (२)। " चत्तारि उदगा" इत्यादि--पुनरुदकानि चत्वारि प्रजातानि, तद्यथाएकमदमत्तानं भवति प्रतलत्वात् , तदेव पुनरुत्तानावभासि-उत्तानमवभासत इत्येवं शीलमुत्तानावभासि भवति, स्थानविशेषात् इति प्रथमो भगः । १ । तयाने में सर्वथा असमर्थ चित्तवाला होता है (१) कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो उत्तान और गंभीर हृदयवाला होता है-कारणवश दर्शित चेष्टावाला होनेसे उत्तान होता है और स्वभावसे गांभीर्य गुणसंपन्न चित्तवाला होनेसे गंभीर हृदयवाला होता है २ तीसरा पुरुष ऐसा होता जो दैन्यादिसे युक्त होने पर भी गांभीर्यगुणसे युक्त होता है और कारणवश वही अपने आकारको छिपालेनेवाला होनेसे उत्तान हृदयवाला होता है ३ तथा चौथा पुरुष प्रकार ऐसा होता है जो गंभीर होता हुआ गंभीर हृदयवाला होता है ४ (२) फिरभी-"चत्तारि उद्गा' इत्यादि उदक चार प्रकारके कहे गये -जैसे उत्तान-उत्तानावभासी१ उत्तान गंभीरावभासी२ गंभीर उत्सानावभासी३ और गंभीर गंभीरावभासी४ इनमें जो उदक प्रतल(पतला) દિથી યુક્ત પિતાની ગેપનીય (છુપાવવા લાયક) સ્થિતિને છુપાવવાને બિલ કુલ અસમર્થ હોય છે. (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ઉત્તાન અને ગંભીર હૃદયવાળો હોય છે-કારણવશ દર્શિત ચેષ્ટાવાળો હોવાથી ઉત્તાન હોય છે અને સ્વભાવે ગાંભીર્ય ગુણસંપન્ન ચિત્તવાળે હેવાથી ગંભીર હદય. વાળો હોય છે. કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે જે દૈન્યાદિથી યુક્ત હોવા છતાં ગાંભીર્ય ગુણથી યુક્ત હોય છે અને કારણવશ એ જ પિતાની ચેષ્ટાઓને છુપાવી શકનારો હોવાથી ઉત્તાન હૃદયવાળે હોય છે. (૪) કોઈ પુરુષ ગંભીર પણ હોય છે અને ગંભીર હૃદયવાળા પણ હોય છે ! ૨ वजी " चत्तारि उदगा" त्या6ि-6६४ (पी) नीचे प्रमाणे यार नु पाय छ-(१) उत्तान-उत्तानामासी, (२) उत्तान-मीरामासी (3) ॥२-उत्तानावासी भने (४) मीर-भीमासी (1)२ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०२२ उदकदृष्टान्तेनपुरुषजातनिरूपणम् ३८५. एकमुदकमुत्तान-प्राग्वत् ,-भवति, पुनस्तन् गम्भीरावभासि-अगाधावभासिसङ्कीर्णस्थानाश्रितत्वादिनेतिद्वितीयः २। तथा-एकमुदकं गम्भीरम्-अगा, सदुत्तानावभासि-विस्तीर्णस्थानाश्रयत्वादिनेति तृतीयः ३। तथा-एकमुदकं गम्भीरम्-अगाधं सद् गम्भीरावभासि-अगाधावभासि भवति गम्भीरस्थानाश्रितस्वादिनैवेति चतुर्थः ४ (३)। ___ "एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-एवमेव-उदकवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुष उत्तानः-तुच्छो भवति स एव पुनरुत्तानावभासी-उत्तान एवावभासत इत्येवंशीलउत्तानावभासी भवति, प्रदर्शिततुच्छत्वविकारत्वात्, इति प्रथमः । १। तथा-एक-उत्तानो गम्भीरावभासी होता है परन्तु स्थान विशेषसे उत्तान जैसा प्रतीत होता है वह प्रथम भंगमें परिगणित हुआ है ११ जो उदक प्रतल-पतला होताहै वह संकीर्ण स्थानमें रहनेसे अगाध जैसा प्रतीत होता है वह द्वितीय भेगमें गिना गया है । जो उदक गंभीर अगाध होता हुआ भी विस्तीर्ण स्थानमें रहनेसे उत्तान जैसा प्रतीत होता है वह तृतीय भंगमें लिया गया है ३ और जो उदक अगाध होता हुआ भी गंभीर स्थानके आश्रयसे अगाध जैसा प्रतीत होता है वह चतुर्थ भंगमें लिया गया है ४ (३) ___"एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-जैसे ये उदकके प्रकार कहे गये हैं, वैसेही पुरुषके भी चार प्रकार होते हैं-इनमें एक पुरुप ऐसा होता है जो उत्तान तुच्छ होता है और अपनी तुच्छतारूप विकारके दिखानेसे उत्तानावभासी होता है । दूसरा पुरुष प्रकार ऐसा છાછરું હોય અને સ્થાન વિશેષમાં રહેવાને કારણે ઉત્તાન (છાછરું) દેખાતું હોય તે ઉદકને પહેલા ભાગમાં મૂકી શકાય છે. (૧) જે ઉદક પ્રતલ હૈયા પણ સંકીર્ણ સ્થાનમાં રહેવાને કારણે અગાધ જેવું લાગતું હોય તેને બીજા પ્રકારનું ગણી શકાય (૨) જે ઉદક ગંભીર. (અગાધી હોવા છતાં પણ વિસ્તીર્ણ સ્થાનમાં રહેલું હોવાથી ઉત્તાન જેવું લાગતું હોય તેને ત્રીજા પ્રકા૨માં મૂકી શકાય છે. (૩) જે ઉદક અગાધ હોય અને સંકીર્ણ સ્થાન વિશેષમાં રહેલું હોવાને કારણે અગાધ લાગતું હોય તેને ચેથા પ્રકારમાં મૂકી शाय छे. (४) । 3 ।। "एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" त्याहि-पुरुषाना ५Y मेवा यार પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) કેઈ પુરુષ ઉત્તાન (તુ) હોય છે અને પિતાની સ્વચ્છતાને ચેષ્ટાઓ દ્વારા પ્રકટ કરતે હેવાથી ઉત્તાનાભાસી પણ હોય છે. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा संतत्वात् इति द्वितीयः २। तथा-एको गम्भीर उत्तानावभासी भवति कारणवशात् मदर्शितविकारत्वादिति तृतीयः ३। तथा-एको गम्भीरो भवति स पुनर्गम्भीरावभासी भवतीति चतुर्थः ४। (४)। ___" चत्तारि उदही " इत्यादि-उधयः-समुद्राथत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएक उदधिः उत्तान:-तुच्छत्वात्मतलोभवतीयाधुदकमुत्रवद्विवरणं बोध्यम् । यदाएक उदधिः-पूर्वमुत्तानः-प्रतलो भवति स एव पश्चादपि उत्तानोदधिः-उत्तानोदधिप्रदेशो भवति, तरङ्गस्य समुद्रावहिरसत्वात् इति प्रथमः । १ । तथा-एकः पूर्वमुहोता है जो-उत्तान होता हुआ भी अपने आकारको छुपा लेनेवाला होने के कारण गंभीर प्रतीत होताहै । तीसरा पुरुप प्रकार ऐसा होता. है जो गंभीर होता हुआ भी कारणवश विकारके दिखानेसे उत्तानके जैसा प्रतीत होता है । और चतुर्थ पुरूपप्रकार ऐसा होता है जो गंभीर होता हुआ भी गंभीर ही जैसा प्रतीत होना है ४ (१) ____ " चत्तारि उदही " इत्यादि । समुद्र चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-उत्तान उत्तानोदधि १ उत्तान गंभीरोदधि २ इत्यादि ४ यह सब भंग कधन, उदक मृनकी तरह कर लेना चाहिये। यहा-एक उदधि ऐसा होता है जो पहिले भी उत्तान होता है प्रतल होता है और यादमें भी वह तरङ्गीका सनसे याहर असत्व होनेसे उत्तानोदधि प्रदेशवाला होता है । १ तथा-एक उदधि ऐसा होता है जो पहिले उत्तान होता है और पीछे भी तरङ्गोंके आगमनसे वह अगाध होने के कारण गंभीरो दधि प्रदेशवाला हो जाता है । २ एक उदधि ऐसा होता जो गम्भीर (૨) કોઈ પુરુષ ઉત્તાન (તુચ્છ) તે હોય છે, પણ પિતાની છતાને છુપાવનારો હેવાથી ગંભીર લાગે છે. (૩) કઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ગંભીર હોવા છતાં પણ કોઈ કારણે પિતાના મનભાવને છુપાવી શકતો નથી તેથી ઉત્તાન જેવો લાગે છે. (૪) કેઈ પુરુષ ગંભીર હોય છે અને પિતાના મનેભાને મુખપર પ્રકટ નહીં થવા દેવાને કારણે ગભીર જ લાગે છે. ૧૪ पचारि उदही" त्या6ि-अभुद्र यार ४२ ४ह्यो छे-(1) उत्तान ઉત્તાનેદધિ, (૨) ઉત્તાન-ગંભીરદધિ, ઈત્યાદિ ચારે પ્રકાર ઉંદક સૂત્રમાં કશા પ્રમાણે રામજવા. અથવા-કઈ એક ઉદધિ (સમુદ્ર) એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ ઉત્તાન (તુચ્છ) હોય છે અને પછી પણ મજાંઓનું સમુ ની બહાર અસ્તિત્વ નહીં લેવાથી ઉત્તાનેદધિ પ્રદેશવાળા હોય છે. (૨) કેઈ એક સમુદ્ર એ હોય છે કે જે પહેલાં ઉત્તાન હોય છે અને પાછળથી ५ तगार्नु मागभन वाथी जलधि प्रदेशवाणी य तय छ. () Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीको स्था०४ उ०४ सू०२३ तरकस्वरूपनिरूपणम् त्तानः पश्चाद् गम्भीरोदधिः-गम्भीरोदधिप्रदेशो भवति तरङ्गागमनेनागाधत्वात, इति द्वितीयः । २। ___तथा-एकः पूर्वं गम्भीरः पश्चात् तरङ्गापसरणेन उत्तानोदधिः-उत्तानोदधि प्रदेशो भवतीति तृतीयः । तथा-एकः, पूर्व गम्भीरः पश्चाद् गम्भीरोदधिःगम्भीरोदधिप्रदेशः सदाऽगाधत्वादिति चतुर्थः ४ । ५। एवं पुरुषदान्तिकोऽपि योजनीयः।६। दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकमूत्रद्वयं सुगमम् । ८। ॥ सू० २२ ॥ . पूर्वमुदधय उक्ताः, सम्प्रति तत्तरकान्निरूपयितुं सूत्रचतुष्टयमाह- . मूलम् चत्तारि तरगा पण्णत्ता, तं जहा-समुदं तरामीतेगे समुदं तरइ १, समुइंतरामीतेगे गोप्पयं तरइ २, गोप्पयं तरामीतेगे समुदं तरइ ३, गोप्पयं तरामीतेगे गोप्पयं तरइ ४॥ (१) एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तं जहा-समुदं तरामीतेगे समुदं तरइ ४। (२)। - चत्तारि तरगा पण्णत्ता, तं जहा--समुदं तरित्ता णाममेगे समुद्दे विसीयइ १ समुदं त्तरित्ता णाममेगे गोप्पए विसीयइ २, गोप्पयं तरित्ता णाममेगे समुद्दे विसीयइ ३, गोप्पयंतरित्ता होता है और पीछे से वह तरझोंके अपसरणसे उत्तानोदधि प्रदेशवाला होता है । और एक उदधि ऐसा होता है जो पहिले गम्भीर होता है और पीछे भी अगाध होनेसे गम्भीरोदधि प्रदेशवाला होता है । इसी तरहसे पुरुष दार्टान्तिक सूत्र भी समझ लेना चाहिये ये दृष्टान्त दाटी. न्तिक सूत्रद्वय सुगम है । सू०२२॥ એક સમુદ્ર એ હોય છે કે જે ગંભીર હોય છે પણ ત્યારબાદ તેમાંથી તરોનું અપસરણ થવાને કારણે ઉત્તાનેદધિ પ્રદેશવાળ બની જાય છે. (ઈ. કેઈ સમુદ્ર એ હોય છે કે જે પહેલાં પણ ગંભીર હોય છે અને પછી પણ અગાધ જ રહેવાને કારણે ગભીરેદધિ પ્રદેશવાળા રહે છે. એ જ પ્રમાણે દાસ્કૃતિક પુરુષના ચાર પ્રકારે પણ સમજી લેવા. આ બને સૂત્ર સુગમ હેવાથી વધુ સ્પષ્ટીકરણ કર્યું નથી. આ સૂ૦ ૨૨ , Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३८८ स्थानाले णाममेगे गोप्पए विसीयइ ४। (३)। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--समुदं तरित्ता णाममेगे समुद्दे विसीयइ ४(४) ॥ सू० २३ ॥ छाया-चत्वारस्तरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समुद्र तरामीत्येकः समुद्र तरति १, समुद्रं तरामीत्येको गोष्पदं तरति २, गोप्पदं नरामीत्येकः समुद्र तरति ३ गोष्पदं तरामीन्येको गोष्पदं तरनि ४। (१) । एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-समुद्रं तरामीत्येकः समुद्रं तरति ४। (२)। चत्वारस्तरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समुद्रं तरीत्वा नामकः समुद्र विपीदति १, समुद्रं तरीत्वा नामैको गोष्पदे विपीदति २. गोष्पदं तरीत्वा नामकः समुद्रे विपीदति ३, गोपदं तरीत्वा नामैको गोपदे विपीदति । (३)। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-समुद्रं तरीत्वा नामैकः समुद्रे विपीदति ४ (४) ॥ मू० २३ ॥ ____टीका-चत्तारि तरगा" इत्यादि-तरका:-तरन्तीति तरास्त एव तरकाः ते चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एक:-कश्चित् तरकः तरणशीलः समुद्र तरामीति कृत्वा समुद्रं तरति १, एकः कश्चित्तरकः समुद्रं तरामीति कृत्वा तत्तरणासमों गोष्पदं-गोखुरपरिमितजलयुक्तं जलाशयं तरति २, एकः कश्चित्तरकः गोप्पदं तरामीति निश्चित्य सामर्थ्यवाहुल्यात् पश्चात् समुद्रं तरति ३, एकः कश्चिद् अघ सूत्रकार इनके तरणशीलोंका निरूपण करनेके लिये सूत्र चतुष्टयका कथन करते हैं'-चत्तारि तरगा पण्णत्ता इत्यादि सूत्र २३ ॥ टीकार्थ-तरक-तैरनेवाले चार प्रकारके होते हैं-जैसे-एक तरक ऐसा होता है जो " मैं समुद्र में तैरूं" ऐसा विचार करके समुद्रमें तैरता है ? एक तरक ऐसा होता है जो-"में समुद्र में तैरूं" इस प्रकार विचार करके गोब्पदा तैरता है २ एक तरक ऐसा होता है जो " में गोष्पदमें तैरूं" ऐसा विचार करके समुद्रमें तैरता है ३ एक तरक ऐसा होता है जो “ मैं गोष्पदमें तैरूं" ऐसा विचार करके गोष्पदमेंही तैरता है ४ હવે સૂત્રકાર તે સમુદ્રને તરી જવને પ્રયત્ન કરનાર તરવૈયાઓનું - यार सूत्र द्वारा नि३५य ४२ छ. " चत्तारि तरगा पण्णत्ता " त्याहટીકાતરકના (તરવૈયાઓના) નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે– (૧) કોઈ '४ त२४ " ई समुद्रभा तरीश," मे विया२ ४ीने समुद्रमा तरे छे. “કોઈ એક તરક એ વિચાર કરે છે કે “હું સમુદ્રમાં તરીશ, ધારે છે” પણ તે ગોષ્પદમાં તરે છે. (૩) કઈ તરવૈયે “હું ગેપદમાં તરીશ” આ પ્રકા Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કૈટર सुधा .टी. स्था. ४ उ. ४ सू २२ उदकदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूणपम् गोori aरामीति निश्चित्याऽल्पशक्तिकत्वाद गोष्पदमेव तरति ४ (१) । समुद्रसमुद्रवद दुस्तरं सर्वविरत्यादिकं कार्यं तरामि- धातुनामनेकार्थत्वात् करोमीत्येवं निश्चित्य तत्र समर्थलात् समुद्र - समुद्रवद् दुस्तरं सर्वविरत्यादिकं कार्यमेव तरति - तत्र समर्थो भवतीति प्रथमः १| तथा — एकस्तरक: समुद्र - समुद्रवत् दुस्तरं तरामीति निश्चित्य तत्रासामर्थ्याद् गोष्पदं-गोष्पदवत् सुतर देशविरत्यादिकमल्पतमंतरति - निर्वाहयतीति द्वितीयः २ तथा-एको गोष्पदं-गोष्पदवत् सुतरं तरामीति कृत्वा सामर्थ्यातिशयात् समुद्रसमुद्रवद्दुस्तरं कार्यं तरति साधयति, धातूनाम- एक तरक जो प्रथम भंग में प्रकट किया गया है, वह जैसा विचार करता है वैसा नहीं करता है । तृतीय भंगमें जो तरक प्रकट किया गया है वह भी ऐसा ही है। और चतुर्थ भंगगत पुरुष जैसा विचार करता है वैसा ही काम करता है । गोखुर परिमित जलसे युक्त जो जलाशय है, वह यहां गोष्पदसे गृहीत हुआ है । जो जिसमें तरनेका विचार करता है वह उसमें इसलिये नहीं तरता है कि यो तो उसमें तैरनेकी उसमें अशक्ति है या उसमें तैरनेकी शक्तिकी बहुलता है - जैसे- जो इस प्रका रका विचार करता है कि मैं समुद्र में तैरू और वह तैरता है गोखुर - परिमित जलयुक्त जलाशय में तो इसका कारण यही है कि उसमें उसको तैरनेकी शक्ति नहीं है । तथा जो ऐसा विचार करता है कि मैं तैरू गोखुरपरिमित जलवाले जलाशय में, और वह तैरता है समुद्र में, રના વિચાર કરીને સમુદ્રમાં તરે છે. અને (૪) કાઈ પુરુષ ગાષ્પકમાં તરીશ” આ પ્રકારના વિચાર કરીને ગાષ્પદ્રુમાં જ તરે છે 66 ગે ખુર્ પરિમિત જળથી યુક્ત જળાશયને ગોષ્પદ કહે છે. પહેલા અને ચોથા પ્રકારના પુરુષા જેવા વિચાર કરે છે એવું જ કાર્યો કરી બતાવે છે ખીજા અને ત્રીજા પ્રકારના પુરુષ જેવા વિચાર કરે છે એવું કરી શકતા નથી. સમુદ્રમાં તરવાના વિચાર કરીને તેમાં નહીં તરનાર માણસમાં તેની શક્તિને અભાવ સમજવે. ગેપદમાં તરવાના વિચાર કરીને તેમાં નહીં તરનારમાં તરવાની શક્તિની અધિકતા સમજવી જે માણસ એવા વિચાર કરે છે કે 'હું સમુદ્રમાં તરું, ” પણ સમુદ્રમાં તરવાને બદલે ગાપુર િ મિત જલયુક્ત જળાશયમાં તરે છે—નાનકડા જળાશયમાં તરે છે, તેનું કારણુ એ છે કે સમુદ્રમાં તરવાને તે અસમથ છે. કાઈ માણસ એવા વિચાર કરે " हुं गोपुर परिमित भाशयमा त, પરન્તુ એવા જળાશયમાં તરવાને બદલે તે સમુદ્રમાં તરે છે, તેનું કારણ એ છે કે તેનામાં તરવાની " Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० स्थानागने तो इसका कारण यही है कि उसमें शक्तिका बाहुल्यहै । तथा जो" समुद्र में तैरूं " ऐसा विचार करता है और फिर समुद्रमें ही तैरता है, तो इसका भी कारण शक्तिकी बाहुल्यताहै,और मैं गोष्पदमें तेरूं, ऐसा विचार कर वह गोष्पदमें तैरताहै। यहां पर भी उसमें उसके तैरनेकी शक्तिका अभाव कारण है, अर्थात् उसमें अल्प शक्ति है इसी तरहसे पुरुषजात भी चार हैं, जैसे जो इस बातको सोचता है कि " समुद्रं तराभिः" मैं समुद्र की तरह दुस्तर सर्वविरति आदिरूप कार्य करूं, ऐसा निश्चित करके भी जो उसेही करता है अर्थात् सर्वविरतिरूप चारित्रको पालता है वह प्रथम भंगमें लिया गया है । इस पक्षमें “तरामि "का अर्थ "करोमि" ऐसा जो किया गया है वह धातुकी अनेकार्थताको लेकर किया गया है। संकल्पानुसार जो कार्य करता है वह उसके करने में समर्थ है इसलिये करता है । दूसरा पुरुष ऐसा विचार करताहै मैं समु. द्रकी तरह दुस्तर सर्वविरतिरूप चारित्रको धारण करूं, परन्तु उसके धारण करने में उसकी अशक्ति होने से वह गोष्पदकी तरह सुतर ( सुखपूर्वक तैरने योग्य ) देशविरति आदिरूप अल्पतम चारित्रका निर्वाह करता है । तीसरा पुरुष जो ऐसा विचार करता है कि मैं गोष्पदकी समान सुतर जो देशविरति શક્તિ અપાર છે સમુદ્રમાં તરવાને વિચાર કરીને સમુદ્રમાં જ તરનાર માણસમાં પણ શક્તિનું બાહુલ્ય સમજવું. ગો૫દમાં તરવાને વિચાર કરીને ગોપદમાં જ તરનાર માણસમાં તરવાની શક્તિનો અભાવ અથવા તેની શક્તિની અલ્પતા છે એમ સમજવું. હવે સૂત્રકાર આ ચાર પુરુષ પ્રકારનું બીજી રીતે સ્પષ્ટીકરણ કરે છે– (૧) કેઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સમુદ્રના જેવી દુતર સર્વવિરતિ ધારણ કરવાને નિશ્ચય કરે છે અને સાર્વવિરતિ રૂપ ચારિત્રની આરાધના કરે छ. मा आरन पुरुष " समुद्रं तरामि" छत्यादि ५सा मामा की शाय छ “तरामि" मा पहना अर्थ " करोमि" वामां माया छ તે ધાતુની અનેકાર્થતાની અપેક્ષાએ લેવામાં આવ્યું છે સંક૯૫ અનુસાર જે માણસ કામ કરે છે તે માણસ તે કામ કરવાને સમર્થ હેવાને કારણે તે કામ કરી શકે છે. (૨) કેઈ એક પુરુષ એ વિચાર કરે છે કે “હું સમુદ્રના જેવું દુસ્તર એવું સર્વવિરતિ રૂપ ચારિત્ર ધારણ કરું,” પણ સર્વ વિરતિ રૂપ ચાગ્નિને ધારણ કરવામાં પિતાને અસમર્થ સમજીને તે ગેસ્પદ સમાન સરળ એવા દેશવિરતિ રૂપ અ૫તમ ચરિત્રનું પાલન કરે છે. (૩). (૩) કેઈ પુરુષ એ વિચાર કરે છે કે “હું ગષ્પદના સમાન સરળ એવા Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०२२ उदकशान्तनपुरुषजातनिरूपणम् नेकार्थत्वात् इति तृतीयः ३। तथा-एकस्तरको गोष्पद-गोष्पदचत् मृतर-मुसा, कार्य तरामि-करोमीति निश्चित्य गोष्पदं-गोष्पदवत् सुतर-सुसाध तरतिसाधयति । इति चतुर्थः ४ (१)। - " चत्तारि तरगा” इत्यादि-चत्वारस्तरकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकः कश्चित्तरकः पूर्वं समुद्रं तरीत्या पश्चात् शक्तिहासात्समुद्रे विषीदति न तरीतु समर्थों भवति १, एकः कश्चित्समुद्रं तरीत्वा गोष्पदे विपीदति, शक्तेरत्यन्तहासात् २, एकः कश्चिद् गोष्पदं तरीत्वा पश्चात् प्रचुरशक्तिमभावात्समुद्रमपि तरति ३, आदि है उनका पालन करूं, परन्तु वह सामर्थ्यकी अधिकताले समु. द्रकी तरह दुस्तर सर्वविरति आदिरूप चारित्रका धारण कर लेना है यह तृतीय भंगमें गिना गया है ३ तथा जो पुरुष ऐसा विचार करताहै कि मैं गोष्पदतुल्य सुसाध्य देशविरति आदि रूप चारित्रका पालन करू और वह उसेही पालताहै तो ऐसा वह पुरुष चतुर्थ अंगमें लिया गयाहै ४(२) ___ "चत्तारि तरगा" इत्यादि-तरक चार कहे गये हैं-इनमें कोई एक तरफ ऐसा होता है, जो पूर्वमें समुद्रको तिर करके पश्चात् शक्तिके हाससे समुद्रमें दुःखी हो जाता है, उसे फिर तरनेमें समर्थ नहीं होता है १ कोई एक तरक ऐसा होता है, जो गोष्पदको तिर करके गोष्पद ही शक्तिके अत्यन्त हास हो जानेसे दुःखी हो जाता है २ कोई एक तरक ऐसा होता है, जो गोष्पदको तिर करके पश्चात् प्रचुर शक्तिके प्रभावसेદેશવિરતિ રૂપ ચારિત્રનું પાલન કરૂં, ” પરંતુ તેને એમ લાગે છે કે સર્વ વિરતિ આદિ રૂપ ચારિત્રનું પાલન કરવાને પણ પિતે સમર્થ છે, તેથી તે સમુદ્રના જેવા દસ્તર સર્વવિરતિ આદિ રૂપ ચારિત્રને ધારણ કરી લે છે (૪) કેઈ એક પુરુષ એ વિચાર કરે છે કે “ગેાષ્પદ સમાન સુસાધ્ય દેશ વિરતિ આદિ રૂ૫ ચારિત્રનું હું પાલન કરુ,” આ પ્રમાણે તે વિચાર કરીને તે દેશવિરતિ રૂપે ચારિત્રને જ ધારણ કરે છે, કારણ કે તે પિતે એમ માને છે કે સર્વવિરતિ રૂપે ચારિત્રનું પાલન કરવાને પિતે સમર્થ નથી - "पत्तारि तरगा" त्याहि-यार प्र.१२ना तश्या ४ा छ---(१) छ એક તરકે એ હોય છે કે જે પહેલાં તે સમુદ્રને તરી જાય છે, પણ પાછળથી તેની શક્તિને હાસ થઈ જવાથી તે સમુદ્રમાં દુખી થઈ જાય છે તેને ફરી તરીને પાર કરવાને અસમર્થ બની જાય છે. (૨) કેઈ એક તરવૈયે ગેખર પરિમિત જળયુક્ત જળાશયને તરવાનો પ્રયત્ન કરે છે પણ એમ કરતાં કરતાં તેની શકિતને હાસ થઈ જવાથી તે જળાશયને પાર કરતાં કરતાં દુઃખી થાય છે. (૩) કેઈ એક તરવૈ ગષ્પદને તર્યા બાદ પ્રચુર શકિતના પ્રભાવથી સમુદ્રને Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ स्थानानयत्रे एकः कश्चित् गोष्पदं तरीत्वा गोष्पदेऽपि विपीदति-अल्पशक्तिमत्वात् ४ (३) । एवमेव तरकवदेव चत्वारि पुरुषजातानि, प्रज्ञप्तानि तद्यथा-एकः कश्चित् तरकः कार्य करणसमर्थः पुरुषः समुद्र-समुद्रमिव दुस्तरं-दुःसाधं काय तरीत्वा पारयित्वा समुदेसमुद्रसदृशे दुःसाधे कार्यान्तरे विपीदति-क्षयोपशमलक्षण्यात्कार्यान्तरं न पार. यति १ एवं भङ्गात्रयमूहनीयम् । २ ।। सु० २३ ।। पूर्व तरका उक्ताः, ते च पुरुषविशेषा एव भान्तीति पुरुषविशेषानेव कुम्भ दृष्टान्तप्रदर्शनपूर्वकं निरूपयितुमाह मूलम्-चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा-पुण्णे णाममेगे पुण्णे १, पुण्णे णाममेगे तुच्छे २, तुच्छे णाममेगे पुण्णे ३, तुच्छे णाममेगे तुच्छे ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-पुण्णे णाममेगे पुणे ४।। चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा-पुणे णाममेगे पुण्णोभासी १, पुण्णेणाममेगे तुच्छोभासी २, तुच्छे णाममेगे पुण्णो. भासी ३, तुच्छे णाममेगे तुच्छोभासी । एवं चत्तारि पुरिस. जाया पण्णता, तं जहा-पुण्णे णाममेगे पुण्णोभासी ४॥ समुद्र में भी तैर जाता है ३ और कोई एक तरक ऐसा होता है जो अल्प शक्तिवाला होनेसे गोपदको तैर करके भी गोष्पद में ही दुःखी हो जाता है ४ (३) इसी प्रकारले पुरुष जात भी चार कहे गये हैं-इनमें कोई एकतरक कार्य करने में समर्थ हुआ पुरुष समुद्र की तरह दु स्तर दु साध्य कार्यको समाप्त करके समुद्र जैसे दुःसाध्य कार्यान्तरमें क्षयोपशमकी विलक्षणतासे नहीं लगताहै १ इसी प्रकारसे तीन भंग समझ लेना चाहिये।मु.२३॥ પણ તરી જાય છે. (૪) કેઈ એક તરવૈયો એ હોય છે કે જે આપ શક્તિવાળે હેવાથી ગષ્પદને તરીને ગેમ્પમાં જ દુઃખી દુઃખી થઈ જાય છે. તરવૈયાની જેમ પુરુના પણ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે-કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે સમુદ્રને તરવા જેવું દુસ્તર-દુઃસાધ્ય કાર્ય પૂર્ણ કરે છે, પણ ક્ષપશમની વિલક્ષણતાને લીધે એવાં જ કે બીજા સાધ્ય કાર્યમાં પડતે નથી. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ સમજી લેવા. એ સૂત્ર ૨૩ છે Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४ उ०४ सू०२४ कुम्भदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३९३ चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा-पुण्णे णाममेगे पुण्णरूवे पुण्णे णाममेगे तुच्छरूवे ४॥ एवासेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--पुणे णाममेगे पुण्णरूवे ४॥ वत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा--पुण्णेऽवि एगे पियठे १, पुण्णेऽवि एगे अवदले २, तुच्छेऽवि एगे पियट्टे ३, तुच्छेऽवि एगे अवदले ४॥ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-- पुण्णेऽवि एगे पियढे ४, . तहेव चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा--पुण्णेऽवि एगे विस्संदइ १, पुण्णेऽवि एगे णो विस्संदइ २, तुच्छेऽवि एगे विस्संदइ ३, तुच्छेऽवि एगे णो विस्संदइ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--पुण्णेऽवि एगे विस्संदइ ४॥ तहेव चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा--भिन्ने १, जजरिए २, परिस्साई ३, अपरिस्साई ४, एवामेव चउबिहे चरिते पण्णत्ते, तं जहा--भिन्ने जाव अपरिस्ताई ॥ पत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा--सहकुंभे णाममेगे महुप्पिहाणे १, महकुंभे णाममेंगे विसपिहाणे २, विसकुंभे णाममेगे महुपिहाणे ३, विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा--महुकुंभे णाममेगे महीपहाणे ४॥ हिययमपावमकलुसं जीहाऽवि य महुरभासिणी निच्च ।। जमि पुरिसंमि विजइ से महुकुंभे महुपिहाणे ॥१॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिययमपावमकलुसं जीहाऽवि य कडुयभासिणी निच्छ । जंलि पुरिसंमि विज्जइ से महकुंभे विसपिहाणे ॥२॥ जं हिययं कलुसमयं जोहाऽविय महुरभासिणी निच्छ ।. जमि पुरिसमि विजइ से विसकुंभे सहुपिहाणे ॥३॥ जं हिययं कलुलमयं जाहाऽवि व कडुयभासिणी निच्छ। जाम पुरिसंमि विजइ से विमुकुंभे विसपिहाणे ॥४॥ सू०२४॥ छाया-चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञसाः. तद्यथा-पूर्णो नामैकः पूर्णः १, पूणों नामैकरतुन्छः २, तुच्छो नाकः पूर्णः ३, तुच्छो नामरस्तुच्छ। ४। एवमेवचत्वारि पुरुषजातानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्णों नामकः पूर्णः ४। . : चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पूणों नामैकः पूर्णावभासी १, पूगों नामैकस्तुच्छायभासी २, तुच्छो नामकः पूर्णावभासी ३, तुच्छो नामकस्तुच्छावभासी ४। एवं चत्वारि पुरुपजातानि प्रजप्नानि, तद्यथा-पूर्णो नामैकः पूर्णावभासी ४॥ चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पूर्णो नामैकः पूर्णरूपः १, पूर्णा नामकः स्तुच्छरूपः । एवमेव चत्वारि पुरपजातानि प्राप्तानि, तद्यथा-पूर्णा नामक: पूर्णरूपः ४। - चत्वारः कुम्माः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पूर्णोऽप्येकः प्रियार्थः १, पूर्णोऽप्येकोऽप (च)दकः २, तुच्छोऽध्येकः प्रियार्थः ३, तुच्छोऽध्येकोऽप(व)दलः ४। एनमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्णोऽप्येकः प्रियार्थः ।। तथैव चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पूर्णोऽप्येको विष्यन्दते १, पूर्णोऽऽप्येको नो विष्यन्दते २, तुच्छोऽप्येको विष्यन्दते ३, तुच्छोऽप्येको न विष्यदते ४। एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्णोऽप्येको विप्यन्दते४, । तथैव चत्वारः कृम्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भिन्नः १, जर्जरितः २, परिसावी ३, अपरिखावी ४। एवमेव चतुर्विधं चारित्रं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-भिन्नं याना अपरिस्रावि ४। - चत्वारः कुम्भाः प्रज्ञप्ताः, मधुकुम्भो नामैको मघुपिधानः १, मधुकुम्भो नामको विपपिधानः,२ विषकुम्भो नामैको मधुपिधानः ३, विपकुम्भो नामैको विपपिधानः ४। एवमेव चत्वारि पुरुपजातानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मधुकुम्मो नामको मधुपिधानः ४ ।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टी. - स्था. ४ उ. ४ सू २४ कुस्तष्टष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् हृदयमपापमकलुषं जिवाऽपि च मधुरभाषिणी नित्यम् । यस्मिन् पुरुषे विद्यते स मधुकुम्भों मधुपिधानः ॥ १॥ हृदयमपाप कलुषं जिह्वाऽपि च कटुकभापिणी नित्यम् । स्मिन् पुरुषे विद्यते स मधुकुम्भो विपपिधानः ॥ २ ॥ rai aani जिह्वाऽपि च मधुरभाषिणी नित्यम् । यस्मिन् पुरुषे विद्यते स विषकुम्भो मधुविधानः ॥ ३ ॥ यहृदयं कलुषमयं जिह्वाऽपि च कटुकभाषिणी नित्यम् । यस्मिन् पुरुषे विद्यते स विषकुम्भो विषपिधानः ॥ ४ ॥ २४ ॥ 'टीका - ' चत्तारि कुंभा ' इत्यादि - कुम्भाः - घटाः, चत्वारः प्रशताः, एको घटः पूर्णः सर्वाङ्ग सम्पन्नः, यद्वा - प्रमाणसम्पन्नो भवति स एव पुनः पूर्ण:- मधुघृतादिभृतो भवतीति प्रथमः १, नायशब्दो वाक्यालङ्कारे, एवमग्रेऽपि, तथा - एकः कुम्भः पूर्णः समस्तावयवयुक्तोऽपि तुच्छ - मध्वादिवस्तुरिक्तो भवतीति : द्वितीय: २, तथा - एकस्तुच्छ. अपूर्णाङ्गो, यद्वा-लघुः सन्नपि पूर्णः - मध्वादि भृतो भवतीति तृतीयः ३ तथा एकस्तुच्छसंतुच्छ एव भवतीति चतुर्थः ४ । ; ३१५ f. तरक जो चार कहे गये है वे विशेष पुरुषरूपही होते हैं, इसलिये अब सूत्रकार उन पुरुषविशेषोंका कुम्भ दृष्टान्तको लेकर निरूपण करते हैं 'चत्तारि कुंभा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र २४ ॥ टीकार्य - कुम्भ चार प्रकारके कहे गये हैं-जैसे कोई एक कुम्भ घट ऐसा होता है, जो पूर्ण सर्वांसे युक्त होता है अथवा प्रमाण संपन्न होता है, वही पुनः पूर्ण-मधु घुतादिसे भरा हुआ रहता है | कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो पूर्ण होता है - समस्त अवयवोंसे युक्त होता है, तब भी तुच्छ मध्वादि (शहद आदि) वस्तुओं से रिक्त होता है तथा कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो तुच्छ अपूर्ण अङ्गवाला होता यहा छोटा होता - 135 है 2 3 अडी ?, तरहै। ( तपैंया ) तु उथन भ्यु, तेथे विशिष्ट, पुरुषो રૂપજ હાય છે, આ સ'ખધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર કુંભના દૃષ્ટાન્ત દ્વારા पुरुष विशेषोनु नि३५णु उरे छे. “ चत्तारि कुभा पण्णत्ता "Salle + {' ટીકોર્ય-કુંભના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) કાઈ એક કુંભ એવા હોય છે કે પૂર્ણ ( સર્વાંગ સપૂર્વ अथवा प्रभाव सौंपन्न ) डाय छे, भने धा, મધ આદિથી ભરેલા હોય છે. ‘(૨) કોઈ એક કુંભ પૂર્ણ, ( સમસ્ત અવયવેથી 'युक्त) डाय 'छे,' यर'तु 'भधे, धी आहि द्रव्यों तेमां लरेक्षां न डावाने, ठारशे ખાલી હોય છે. (૩) કાઈ એક કુંભ એવા હોય છે કે જે અપૂર્ણ (અપૂર્ણ f Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थांनाङ्गले यद्वा-एकः कुम्भः पूर्व पूर्णः-मध्वादि भृतो भवति, स पुनः पश्चादपि पूर्ण इत्येवं चत्वारोऽपि भङ्गा विवरणीयाः ।४। " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-एवमेव-कुम्भवदेव-पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एकः पुरुषो जात्यादि गुणैः पूर्णः सन् पुन नादिगुणैः पूर्णा भवतीति प्रथमः १ । यद्वा-एकः पुरुपो धनेन गुण वा पूर्ण सन् पधादपि स धनेन गुणे वा पूर्णा भवति, एवं शेपास्त्रयोऽपि भङ्गाः बोध्याः । ४ । " चत्तारि-कुंभा" इत्यादि-पुनः कुम्भाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एका कुम्भोऽखिलावयवैर्दध्यादिना वा पूर्णः सन पूर्णावभासी-पूर्ण एव दर्शकदृष्टोऽत्रहुआ भी पूर्ण मध्वादिसे भरा होता है ३ तथा कोई एक घट ऐसा होता है, जो तुच्छ होला हुआ भी तुच्छही रहता है ४ ___यदा-एक कुम्भ पहिले पूर्ण मधुआदिसे भरा होता है और पीछे भी वह पूर्ण होता है । इसी प्रकारसे शेष अंग भी समझ लेना चाहिये ? " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-इसी प्रकारसे पुरुष जात भी चार कहे गये हैं-जैसे-कोई एक पुरुषजात ऐसा होता है जो जात्यादि गुणों से पूर्ण होता हुआ भी पुनः ज्ञानादि गुणोंसे पूर्ण होता है १ यहा–पहिले धनसे या गुणोंसे पूर्ण होता हुआ भी पीछे भी वह धनसे या गुणोंसे पूर्ण बना रहता है इसी प्रकार शेष तीन भंग भी समझ लेना चाहिये। અંગોવાળે અથવા નાને) હોવા છતાં પણ મધ, ઘી આદિથી પૂર્ણ હાર્ય છે. (૪) કેઈ એક કુંભ એ હોય છે કે જે અપૂર્ણ અંગવાળો અથેવા તુચ્છ) હેય છે અને તેમાં ઘી, મધ આદિ દ્રવ્ય ભરેલાં નહીં હોવાને કારણે પણ અપૂર્ણ જ હોય છે. અથવા આ રીતે પણ ચાર ભાંગા બને છે–(૧) કઈ એક કુંભ પહેલાં પણ મધ આદિથી ભરેલું હોવાને કારણે પૂર્ણ હોય છે અને પછી પણ તે દ્રવ્યથી ભરેલો હોવાને કારણે પૂર્ણ જ હોય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાંગા પણ સમજી લેવા. " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया " त्याह- १ प्रभारी पुरुषांना ५५ ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે જાત્યાદિ ગુણેથી પૂર્ણ હોય છે અને જ્ઞાનાદિ ગુણોથી પણ પૂર્ણ હોય છે. અથવા તે પહેલાં ધન અથવા ગુણોથી પૂર્ણ હોય છે, અને પછી પણ તેનાથી પૂર્ણ જ રહે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણ ભાગ પણ સમજી લેવા, , , Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधा दीको स्था०४३०४ सू०२४ कुभम्दृष्टाम्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३९७ भासत इप्येवं शीलो भवतीति प्रथमः १ । तथा-एकः कुम्भः पूर्णोऽपि केनापि कारणेनाभिप्रेतार्थसाधकत्वाभावात् तुच्छावभासो-तुच्छ इवावभासत इत्येवं शीलो भवतीति द्वितीयः २ । एवं शेषभङ्गद्वयमपि बोध्यम् । ४ । "एवं चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-एवं-कुम्भवत्, पुरुषजातानि चत्वारि प्राप्तानि, नद्यथा-एकः पुरुषो धनश्रुतादिभिः पूर्णःसन् धनश्रुतादिविनि योगात् पूर्णावभासी-पूर्ण एवावभासत इत्येवं शीलो भवतीति प्रथमः १ । तथाएकः पुरुषः पूर्णः सन्नपि धनश्रुतादिसहितत्वात् , तुच्छावभासी-धनश्रुतादिहीन बदवभासनशीलो भवतीति द्वितीयः २ ॥ तथा-एक स्तुच्छोऽपि-धनश्रतादि रहि पुनश्च-" चत्तारि कुंभा"इत्यादि-कुम्भ चार प्रकारके कहे गये है-जैसे-एक कुम्भ ऐसा होता है जो सम्पूर्ण अवयवोंसे अथवा दही आदिसे पूर्ण होता हुआ-पूर्णावभासी दर्शकजनोंकी दृष्टिमें पूर्णही है ऐसा प्रतीत होता है । एक कुम्न ऐसा होता है जो पूर्ण होने पर भी 'किसी कारणवश उसमें अभिप्रेत-इष्टं अर्थकी सोधकता नहीं होनेसे तुच्छावभासी वह तुच्छकी तरह प्रतीत होता है २ इसी तरहसे शेष दो भंग भी समझ लेना चाहिये ४ " एवं चत्तारि पुरिसजाया" इसी प्रकारसे पुरुषजात चार कहे गये हैं, जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो धन श्रुत आदिसे पूर्ण होता हुआ धन श्रुत आदिके विनियोगसे-व्ययसे पूर्णाव"भासी पूर्णहीहै ऐसा प्रतीत होता रहताहै ११कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो पूर्ण होता हुआ भी धनश्रुत आदिसे सहित होता हुआ भी धनश्रुत "चत्तारि कुंभा " त्याहि-जुलना नीये प्रमाणे या२ ४२ ५५ ५ છે. (૧) કોઈ એક કુંભ એ હોય છે કે જે સમસ્ત અવયથી સંપન્ન હોય છે અથવા દહીં આદિથી પૂર્ણ હોય છે અને પૂર્ણાભાસી પણ હોય છે એટલે કે દર્શકની દૃષ્ટિએ પણ તે પૂર્ણ જ લાગે છે. (૨) કેઈ એક કુંભ પૂર્ણ હોવા છતાં પણ તુચ્છાવભાસી હોય છે, એટલે કે તેમાં ભરેલું દ્રવ્ય કેઈ કારણે નજરે નહીં પડતું હોવાથી તે કુંભ ખાલી જ હેવાને ભાસ થાય છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના બે ભાંગ પણે સમજી લેવા. . "एवं चत्तारि पुरिसजाया " त्याह- १ प्रमाणे या२ - हारना પુરુષો કહ્યા છે–(૧) કઈ પુરુષ એવા પ્રકારના હોય છે કે તેઓ ધનશ્રત આદિથી પૂર્ણ(સંપન્ન) હોય છે અને ધનશ્રત આદિના વિનિયેગથી પૂર્ણ વભાસી–પૂર્ણ જ છે એવું દર્શકોને લાગે છે (૨) કેઈ એક પુરુષ એ હેય છે કે જે ધનક્ષત આદિથી પૂર્ણ હોવા છતાં પણ તુરછાવભાસી-ધનકૃત આદિથી Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ स्थानासूत्र तोऽपि केनापि प्रकारेण प्रसङ्गोचितमवृत्तेः पूर्णावभासी - पूर्ण इवावभासत इत्येवं शीलो भवतीति तृतीयः ३ तथा एकर तुच्छो धनश्रुतादिसहितो भवतीति धनश्रुतादिसहितत्वात् तुच्छावभासी तुच्छ एवावभासत इत्येवं शोको भवेafa चतुर्थः ४ । “ चत्तारि कुंभा " इत्यादि - पुनः कुम्भावत्वारः मज्ञप्ताः, तद्यथा - एकः कुम्भः पूर्णः - जलादिना भृतो भवति स पुनः पूर्णरूपं - पूर्ण रूपं यस्य स तथाअविकलसंस्थानकः, यद्वा- पुण्यरूपः शोभनसंस्थानको भवतीति प्रथमः १, तथाएक: पूर्णेऽपि सन तुच्छरूपः - हीनाऽऽकारो भवतीति द्वितीयः २ एवं शेषभङ्गद्वयं बोध्यम् ||४| + आदि से हीन की तरह प्रतीत होता है २ कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो तुच्छ होने पर भी धनथुन आदिसे रहित होने पर भी किसी प्रकार से प्रसगोचित प्रवृत्ति से पूर्णावभासी पूर्णकी तरह प्रतीत होता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो तुच्छ धन श्रुतादिसे रहित होता है और तुच्छावभासी तुच्छकी तरहही प्रतीत होता है ४ फिरभी - " चत्तारि कुंभ" इत्यादि-कुम्भ चार प्रकार के कहे गये है - जैसे- एक कुम्भ ऐसा होता है जो जलादिसे भरा हुआ होता है और पूर्ण रूपवाला - अविकल संस्थानवाला होता है यहा-पुण्य रूपवाला शोभन-संस्थानवाला होता है १। एक कुम्भ ऐसा होता है- पूर्ण होता हुआ भी तुच्छरूपवाला होन आकारवाला होता है २ इसी प्रकारते शेष दो भंग भी समझ लेना चाहिये ४ રહિત જ હાય એવા લાગે છે. (૩) કાઇ એક પુરુષ ધનશ્રત આદિથી રહિત હાવાને કારણે તુચ્છ હાય છે, પરન્તુ પ્રસ ંગેાચિત પ્રવૃત્તિને કારણે પૂર્ણાંવભોમી લાગે છે એટલે કે ધનશ્રુત આદિથી સપન્ન લાગે છે. (૪) કાઇ એક પુરુષ । તુચ્છ ( ધનશ્રુત સ્માદિથી રહિત ) હોય છે અને તુચ્છાવભાસી જ લાગે છે એટલે કે લેાકા પણ તેને ધનશ્ચંત આદિથી રહિત જ લાગે છે. “ चत्तारि कुमा” मुलनी श्री अमाप और अक्षर पडें छे-- (i) કોઇ એક કુ લ જલાદિથી પર્ણ પૂર્ણ હાય છે અને પૂર્ણ રૂપવાળા સંપૂર્ણ ( अविस - अय् उितं ), सौंस्थानवाणी होय छे અથવા 'પુણ્ય રૂપવાળા સુદર આકારવાળા હોય છે. (૨) કોઈ એક કુંભ દહીં દિથી પૂર્ણ' હાવા છતાં પણ તુચ્છ રૂપવાળા અસુંદર આકારવાળા હોય છે, એ જે પ્રમાણે બાકીના मेलांगी या सर्मक सेवा. ' Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा, टीका स्था०४७०४ सू०६४ कुम्मदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ३९९ 4 " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि - एवमेव - कुम्भवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - एकः पुरुषो ज्ञानादिना पूर्णः सन् पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा भवति विशिष्टर जोहरणादिद्रव्यलिङ्गसम्पन्नत्वात्, स च सुसाधुरिति प्रथमः १ | तथा - एकः पूर्णः सन् राजादिकारणवशात् तुच्छरूपःभवति सच साधुरेवेति द्वितीयः ३ । तथा एकस्तुच्छो- ज्ञानादि विरहितोऽपि सन् पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा भवति, साधुलिङ्गसम्पन्नत्वात् स च शिवादिरिति तृतीयः ३ । तथा - एरुस्तुच्छः - ज्ञानादि रहितः सन् तुच्छरूप:द्रव्यलिङ्गरहितो भवति स च गृहस्थादिरिति चतुर्थः । ४ । " एवमेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि इसी प्रकार से पुरुषजात चार कहे गये हैं- इनमें कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो ज्ञानादिखे पूर्ण होता है और पूर्ण रूपवाला या पुण्यरूपवाला होता है, अर्थात् विशिष्ट रजोहरणादि रूप द्रव्यलिङ्गसे सम्पन्न होनेके कारण पुण्यरूपवाला होता है ऐसा वह पुरुष साधु होता है १। तथा काई एक पुरुष ऐसा होता है जो पूर्ण होता है पर राजा आदिरूप कारणके वशसे तुच्छ रूप त्यक्त लिङ्ग छोड़ दिया है लिङ्ग-देष जिसने ऐसा हो जाता है जो तुच्छ-ज्ञानादिसे रहित हुआ भी पूर्णरूप या साधुलिङ्ग से युक्त होने से पुण्यरूप होता है, ऐसा वह निहवादि होता है ३ तथा - कोई एक ऐसा होता है जो तुच्छ-ज्ञानादिसे रहित होता है और तुच्छरूप- द्रव्यलिङ्ग से भी रहित होता है ऐसा वह गृहस्थ आदि होता है ४ I पवामेव चत्तारि पुरिसजाया " त्याहि — मे ४ प्रमाणे यार अमरना પુરુષા કહ્યા છે—(૧) કાઇ પુરુષ એવા હાય છે - કે જે જ્ઞાનાદિથી સ’પન્ન પણ હોય છે અને પૂર્ણ રૂપવાળા અથવા પુણ્ય રૂપવાળા હાય છે, એટલે કે રન્નુહર, મુખસ્ત્રિકા આદિ રૂપ દ્રવ્યલિંગથી પણ સ`પન્ન હેાવાને કારણે પુણ્ય રૂપવાળા હાય છે, એવા પુરુષમાં સાધુને ગર્ણાવી શકાય છે (૨) કોઈ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે જ્ઞાનાદિથી પૂર્ણ તે હોય છે પણ પુણ્યરૂપ खाती 'नथी- तुछ ३५ हाय छे भेटते हैं रामहिना भयने र પાંતાના સાધુ વેષના પરિત્યાગ કર્યો છે એવા પુરુષને અહીં તુચ્છ રૂપવાળા કહ્યો છે. (૩) કાઇ એક પુરુષ એવા 'હેય છે કે જે જ્ઞાનાદિથી રહિત હાવા છતાં પણ પૂર્ણરૂપ હાય છે અથવા સાધુના વેષથી યુક્ત હોવાને કારણે પુણ્ય રૂપ હાય છે નિઃવાદિને આ પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે (૪) કાઈ - એક પુરુષ તુચ્છ અને તુચ્છરૂપ `હાય છે, એટલે કે જ્ઞાનાદિથી રહિત હાવાને કારણે તુચ્છ હોય છે અને દ્રવ્યલિંગ ( રજોહરણુ આદિ, સાધુની ઉપધિ) થી રહિત होवाथी, तुम्छइप होय छे. गृहस्थने या अरमां भूडी शाय छे. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाने 'चत्तारि कुंभा इत्यादि-पुनः कुम्माश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकः कश्चित् कुम्भः पू“जलादिना भृत सन् पियार्थः-पियशब्दस्य भावधाननिर्देशत्वाप्रियत्वमर्थः, तेन मियत्वार्थः-प्रीत्यर्थो भवति स्वर्णादिमयत्वपूर्णत्वसारसम्पन्न त्वादिति प्रथमः । १ । तथा-एकः पूर्णाऽपिम्पूर्णः सन्नपदल:-कुत्सितमृत्ति कादिद्रव्यनिर्मितः, यद्वा-अवदल. अबदल्यते-विर्दीर्यत इत्यवदल:-स्वल्प पक्वतया सोऽसारो भवतीति द्वितीयः २ । तथा-एकस्तुच्छः कुम्भः प्रियार्थ:प्रीत्यर्थो भवति कनकादिमयत्वेन सारस्वादिति तृतीयः ।३। तथा-एक स्तुच्छोऽपि अपदलो भवतीति चतुर्थः । ४ । " एवामेव चत्तारिपुरिसजाया " इत्यादि-एवमेव-कुम्भवदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तयथा-एक:-कश्चित् पुरुषो धनश्रुतादिभिः पूर्णः सन् पुनश्च-" बत्तारि कुंभा" इत्यादि-कुंभ चार प्रकार के होते हैं जैसे-कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो पूर्ण होता है जलादिसे भरा होता है और प्रियार्थ होता है यहां प्रिय शब्द भावप्रधान निर्देशवाला है इसलिये वह प्रियत्वार्थ स्वर्णादिमय होनेसे और सारसंपन्न होनेसे प्रीति के लिये होता है १ कोई एक कुंभ ऐसा होता है जो पूर्ण हुआ भी अपदल होता है-खराध मिट्टी आदिका बना हुआ होता है यहाअबदल होता है-स्वल्प पका हुआ होनेसे असार होता है २ कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो तुच्छ होता हुआ भी प्रियार्थ प्रीत्यर्थ होता है क्योंकि ऐसा घट सुवर्ण आदिका बना होनेसे सारवाला होता है ३ तथा कोई एक घट ऐसा होताहै जो तुच्छ होताहै और अबदल होता है। __" एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-इसी तरहसे पुरुषजात ___चत्तारि कुभा " त्याह-मना ! प्रभारे यार ४५२ ५५ ५ છે–(૧) કોઈ એક કુંભ પૂર્ણ (જલાદિથી ભરેલો) હોય છે અને પ્રિયાઈ (પ્રીતિજનક) હોય છે, એટલે કે સુવર્ણ આદિથી નિર્મિત લેવાથી અને સારસંપન્ન હોવાથી પ્રિય લાગે તે હોય છે. અહીં “પ્રિય” શબ્દ ભાવપ્રધાન નિદેશવાળો છે. (૨) કેઈ એક કુંભ પૂર્ણ હોવા છતાં પણ અ૫દલ હોય છે–ખરાબ માટી આદિમાંથી બનેલું હોય છે, અથવા અવદલ હોય છે એટલે કે પૂરેપૂરે પાકેલ નહીં હોવાથી અસાર હોય છે (૩) કેઈ એક કુંભ પૂર્ણ નહીં હોવાને કારણે તુચ્છ હોય છે, પણ સુવર્ણ આદિને બનાવેલ હેવાને કારણે સારયુક્ત હોવાથી પ્રીતિજનક હેય છે. (૪) કેઈ એક કુંભ તુચ્છ પણ હોય છે અને અપહલ અથવા અવદલ પણ હેય છે. " एषामेव पत्तारि पुरिमजाया " याह- प्रभारी पुरुषोना ५५ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपारीका स्था०४ उ०४ सू०२४ कुंभदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणमा ४०१ प्रियार्थः प्रियेवचनदानादिभिः पीतिजनको भवतीति प्रथमः । १। तथा-एकः , पुरुपः पूर्णोऽपि अपदलः परोपकारं प्रत्ययोग्यो भवतीति द्वितीयः । २। तथाएकस्तच्छोऽपि-ज्ञानादिविहीनोऽपि पियार्थ:-भीत्यर्थी भवति परोपकारपरा. यणत्वादिति तृतीयः ।३। तथा-एकस्तुच्छोऽपि अपदलो भवतीति चतुर्थः ।४। 'तहेव चत्तारि कुंभा" इत्यादि-तथैव-पूर्दवदेव कुम्भाश्चत्वारःप्रज्ञप्ताः, तयथा-एका-कश्चित् कुम्भः पूर्णोऽपि-जलादिना भृतः विष्यादते स्रवति सच्छिद्रत्वादिति प्रथमः ।११ तथा-एकः पूपि नो विष्यन्दते-न स्रवति निश्छिद्रत्वात् इति द्वितीयः ।। तथा-एकस्तुच्छ:-तुच्छ:-तुच्छजलादियुक्तो भवति, भी चार-होते हैं जैसे-कोई एक पुरुष ऐसा है जो धनश्रुत आदिसे पूर्ण होता है और प्रियार्थ प्रियवचन आदिसे प्रीतिजनक होता है ? कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पूर्ण होता है पर वह परोपकारके प्रति अयोग्य होता है २ कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो तुच्छ होता है ज्ञानादिसे हीन होता है फिर भी प्रीत्यर्थ परोपकारपरायण होता है.३ और कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो तुच्छ भी होता है और अपंदल भी होता है परोपकारके प्रति अयोग होता है ४ ..."तहेव चत्तारि कुंभा" इत्यादि-पहिलेकी तरहसेही कुम्भ चार प्रकारके होते हैं-इनमें कोई एक कुम्भ ऐसा होता है पूर्ण-जलादिसे भरा होता है.पर वह छिद्रसहित होनेसे चूनाहै १ कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो जलादिसे भरा होताहै पर वह निश्छिद्र रहित होनेसे चूता नहीं है २ कोई एक घट ऐसा होता है जो तुच्छ थोडेसे जलादिसे भरा ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) કઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે ધનશ્રત આદિથી પૂર્ણ હોય છે અને પ્રિયાઈ પણ હોય છે એટલે કે પ્રિયવચન આદિને લીધે પ્રીતિજનક પણ હોય છે. (૨) કેઈ એક પુરુષ ધનકૃત આદિથી ५ डाय छ ५ ५२५४ारी नही पाथी प्रिया डात नथी. (3) ४ એક પુરુષ ધન આદિથી પૂર્ણ હોતું નથી પણ પ્રીત્યર્થ–પરોપકાર પરાયણ હોય છે. (૪) કેઈ એક પુરુષ તુચ્છ (જ્ઞાનાદિથી રહિત) પણ હોય છે અને અપદલ (પપકારી વૃત્તિથી રહિત) પણ હોય છે. ' “ तहेव चत्तारि कुभा " ध्याह-मना मा प्रभारी या२ ४२ પણ પડે છે–(૧) કોઈ એક કુંભ જલાદિથી પૂર્ણ હોય છે પણ તેમાં છિદ્ર પડેલું હોવાથી તેમાંથી પાણી જલાદિ ઝમતું હોય છે. (૨) કેઈ એક કુંભ જલા દિથી પૂર્ણ હોય છે અને છિદ્રરહિત હોય છે તેથી તેમાંથી પાણી ટપકતું નથી. (૩) કોઈ એક કુંભ તુચ્છ-છેડા જલાદિથી ભરેલું હોય છે, છતાં યુક્ત स्था०-५१ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास स एव विष्यन्दते-सवतीति तृतीयः ।३। तथा-एकस्तुच्छ। न विष्यन्दते-न स्त्रवतीति चतुर्थः ।४। "एवामेव चत्तारि पुरिनजाया" इत्यादि-एवमेव-कुम्भवदेव पुरुषजा. तानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तथथा-एकः पुरुषः पूर्णः सन् विष्यन्दते-धनं यद्वाश्रुतं ददातीति प्रथमः १ तथा-एकः पूणेऽपि-धनश्रुत-सम्पन्नोऽपि नो विष्यन्दते-धनं श्रुतं वा न ददातीति द्वितीयः ।२। तथा-एकस्तुच्छोऽपि अल्पधनश्रुतोऽपि विष्यन्दते- धनं श्रुरी बा ददातीति तृतीयः।३। तया-एकस्तुच्छः सन् धनं श्रुतं वा न विज्यन्दते न ददातीति चतुर्थः ।४।। हुआ होता है फिर भी वह चूना है ३ और कोई घट ऐसा होता है जो तुच्छ-धोडेसे जलादिसे भरे होने पर चूता नहीं है ४ ____ " एकामेव चत्तारि पुरिलजाया" इत्यादि-इसी तरहसे पुरुष जात भी चार कहे गये हैं-जैसे-कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो पूर्ण होता है और धनको या शुलको दूसरोंके लिये होता है-धनश्रुत आदिसे संपन्न होता है फिर भी दूसरों के लिये धन या श्रुत नहीं होता है २ कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो तुच्छ-अल्प धन तथा श्रुतवाला होता है फिर भी दूसरोंकी भलाई के लिये धन या श्रुतको देता है ३ तथा कोई एक पुरुष ऐसा है जो तुच्छ होता है और अपने धन या श्रुतको दूसरोंके लिये नहीं देता है ४ હેવાથી તેમાંથી પાણી ટપકતું હોય છે. (૪) કેઈ એક કુંભ એ હોય છે કે જે થોડા પાણીથી ભરેલું હોય છે પણ છેદ વિનાને હોય છે, તેથી તેમાંથી પાણી ટપકતું નથી. __ " एवामेव चत्तारि पुरिखजाया " त्याह- प्रमाणे पुरुषान पर ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) કેઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ધનશ્રત આદિથી પૂર્ણ હોય છે અને તેના ધન, જ્ઞાન આદિને અન્યના હિત માટે ઉપયોગ કરે છે. (૨) કોઈ એક પુરુષ ધનાદિથી પૂર્ણ હોય છે પણ અન્યના હિતને માટે તેના તે ધન આદિને ઉપગ કરતા નથી. (૩) કેઈ એક પુરુષ એવો હોય છે કે જે તુચ્છ હોય છે. અ૫ ધન કે શ્રુતવાળ હોય છે, પણ અન્યના કિતને માટે તેને ઉપગ કરે છે. (૪) કોઈ એક પુરુષ અલ્પ ધન, શ્રત આદિથી સંપન્ન હેવાને કારણે તુચ્છ હોય છે અને તે પનાદિને અન્યને હિતને માટે ઉપગ કરનારે હેત નથી. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी का स्था० ४ उ०४ सू०२४ कुभदृष्टान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ४०३ " तहेव चत्तारि कुंभा " इत्यादि-तथैव-कुम्भाः पुनश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः तद्यया-भिन्नः-स्फुटितः १, तथा-जर्जरितः-राजीयुक्तः २, तथा-परिस्रावीक्षरणशीलोऽसम्यक्पक्वत्वात् ३, तथा-अपरिसावी-अक्षरणशील: मुपक्वत्वेन दृढत्वादिति ॥ ___ " एवामेव चउबिहे चरित्ते" इत्यादि- एवमेव-कुम्भवदेव चारित्रं चतुर्विधं प्राप्तम् , तपथा-भिन्न-खण्डितं मूलप्रायश्चित्ताऽऽपत्या १, यावत्पदेन 'जर्जरितं, परिस्रावि ' इत्युभयं ग्राह्यम् , तत्र जर्जरितं-छेदादि प्राप्त्या २, ___"तहेव चत्तारि कुम्भा " इत्यादि-पहिलेकी तरहसेही कुम्भ चार प्रकारके कहे गये हैं-जैसे-कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो भिन्न फूटा होता है १ कोई एक ऐसा होता है जो जर्जरित राजीयुक्त ( लाख आदि ) चिपकाकर ठीक होता है, बहुत पुराना होता है २ कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो परिस्रावी होता है, अच्छी तरहसे पका हुआ न होनेसे क्षरणशील होता है ३ तथा कोई एक घट ऐसा होता है जो अपरित्रावी-अच्छी तरहसे पका हुआ होनेसे मजबूतीके कारण क्षरणशील नहीं होता है ४ . ____ "एवामेव चउन्विहे चरित्ते" इत्यादि-इसी तरहले चारित्र भी चार प्रकारका होता है-इनमें कोई एक चारित्र ऐसा होताहै, भिन्न होता है मूल प्रायश्चित्तकी प्राप्सिसे खण्डित होताहै । यहां यावत्पदले-"ज. जेरित और परिस्रावी" इन दो पदोंका ग्रहण हुआ है। तथा कोई एक चारित्र ऐसा होता है जो छेदादि प्राप्तिसे जर्जरित होता है । कोई एक " तहेव चत्तारि कुभा" त्याहि- प्रमाणे असना मा या २ પણું કહ્યા છે–(૧) કેઈ એક કુંભ એ હોય છે કે ફૂટેલો હોય છે (૨) કેઈ એક કુંભ એ જર્જરિત અને પુરાણે થઈ ગયો હોય છે કે તેને સ્થળે સ્થળે લાપી, લાખ આદિ વડે સાંધીને ઉપયોગમાં લેવા ગ્ય કર્યો હોય છે. (૩) કેઈ એક કુંભ પરિસ્ત્રાવી હોય છે એટલે કે બરાબર પકવેલ ન હોવાથી તેમાંથી પાણી ઝમતું હોય છે. (૪) કોઈ એક કુંભ અપરિસાવી હોય છે એટલે કે સારી રીતે પકવેલ અને રીઢ હોવાથી તેમાંથી પાણી ઝમતું નથી. " एवामेव चउबिहे चरित्ते" याह-2. ०८ प्रमाणे यात्रि. पण यार પ્રકારનું હોય છે. (૧) ભગ્ન ઘડા જેવું-કઈ ચારિત્ર એવું હોય છે કે જે ભિન્ન કાય છે-મૂવી પ્રાયશ્ચિત્તની પ્રાપ્તિથી ખંડિત થાય છે. (૨) કેઈ એક ચારિત્ર Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे परिस्रावि-सूक्ष्मातिचारत्वेन ३ तथा अपरिस्रावि-क्षरणरहितं निरतिचारतयेति ४ । इह पुरुषाधिकारेऽपि पुरुषस्य चारित्ररूपधर्मप्रतिपादनं धर्म - धर्मिणोः कथञ्चिदभेदाभ्युपगमात् । " चत्तारि कुंभा " इत्यादि - पुनः कुम्माश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाएको कुम्भो मधुकुम्भःमधुन आधारभूतः कुम्भो मधुकुम्भः - मधुपूर्ण सन् मधुपिधानः मध्ये विधानमाच्छादनं यस्य स तथा मधुभृतपात्रपिधानो वा भवतीति प्रथमः । १ । तथा-एकः कुम्भो मधुकुम्भः सन् विपपिहितो भवतीति द्वितीयः | २ | तथा-एको विपकुम्भो मधुपिधानो भवतीति तृतीयः ३ । तथा-एको विपकुम्भः सन् विपपिधानो भवतीति चतुर्थः ४ । ४०४ - चारित्र ऐसा होता है सूक्ष्म अतिचारसे परिस्रावी होता है ३। और कोई एक चारित्र ऐसा होता है जो अपरिस्रावी निरतिचारवाला होने से परिस्रावी नहीं होता है ४। यहां पुरुषाधिकारमें भी पुरुषके चारित्ररूप धर्मका जो प्रतिपादन किया गया है वह धर्म और धर्ममें कथंचित् अभेद है इस मान्यताको लेकर किया गया है " चत्तारि कुंभा " इत्यादि - पुनश्च - कुम्भ चार प्रकारके कहे गये हैं- जैसे - कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो मधुका आधारभूत होने से मधुकुम्भ हो जाता है और उसका ढक्कन भी मधुका - शहद ही होता है अथवा मधु से भरा हुआ पात्र उसका ढक्कन होता है। कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो मधुकुम्भ होता हुआ भी विषके ढक्कन से ढका हुआ होता है २। कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो विषसे भरा हुआ એવું હાય છે કે જે છેદ્યાદિની પ્રાપ્તિથી જર્જરિત થાય છે. (૩) કોઇ એક ચારિત્ર એવું હાય છે કે જે સૂક્ષ્મ અતિચાર વડે પરિસાવી હેાય છે. (૪) કોઇ એક ચારિત્ર અપરિસાવી હોય છે એટલે કે નિરતિચારવાળું હાવાથી પરિસાવી હાતું નથી. અહીં પુરુષના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, છતાં પણ અહીં ચારિત્ર રૂપ ધર્મનું જે પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે તે ધર્મ અને ધર્મમાં અભેદ્ય માનીને કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું. " चत्तारि कुंभा " त्यिाहि — कुंलना नीचे प्रमाणे यर प्रअर पशु पडे છે—(૧) કાઈ એક કુંભ એવા હોય છે કે જેમાં મ ભરવામાં આવતું હોવાથી તેને મધુકુભ કહેવામાં આવે છે, અને તેનું ઢાંકણુ પણ્ મધુરું જ હાય છે એટલે કે મધથી ભરેલુ પાત્ર તેના ઢાંકણા રૂપ હોય છે (ર) કાઈ એક કુંભમાં મધ ભરેલું હાય છે પણ તેના ઢાંકણા રૂપે વિષથી ભરેલું પાત્ર મૂકેલુ હાય છે. (૩) કાઈ એક કુંભ એવા હાય છે કે જે વિષથી પૂર્ણ હોય Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०२४ कुंभटान्तेन पुरुषजातनिरूपणम् ક " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि - एवमेत्र - उक्तकुम्भनदेव पुरुषजातानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- मधुकुम्भो नामैको मधुपिधानः १, मधु कुम्भो नामैको विपपिधानः २, विषकुम्भो नामैको मधुपिधानः ३, विपकुम्भो नामैको विषपिधानः ४ । एतद्भङ्गचतुष्टयस्यार्थ गाथाचतुष्टयेन विशदयति" हिययमपाव " मित्यादि, आसां मूलोक्तानां चतसृणां गाथानां व्याख्या सुगम ||२४|| होता है, और मधुके विधान-ढक्कन वाला होता है ३ । तथा कोई एक कुम्भ ऐसा होता है जो विषसेही भरा रहता है और विषकेही ढक्कनवाला 'होता है ४ है " एवामेव चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि इसी तरहसे पुरुषजात -भी चार कहे गये हैं- जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो लधुकुम्भ के जैसा होता है, और मधुपिधान - ढकनवाला होता है १ । कोई एक पुरुष ऐसा होना है - जो मधुकुम्भ जैसा होता हुआ भी विष विधान वाला होता है २ । कोई एक पुरुष ऐसा होता है जो विषकुम्भ जैसा होता हुआ भी मधुपिधान वाला होता है ३। और कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो विषकुम्भ जैसा होता है और विषपिधानवाला होता है इन चार भङ्गोका 'अर्थ' 'हिययमपाचमकलुस' इन गाथाओं द्वारा इस प्रकार से विशद किया गया है - जिस पुरुषका हृदय पापरहीत और कलुषताहीन होता है, और जिहा जिसकी मधुर भाषिणी होती है वह पुरुष मधु पिधानवाले मधुकुम्भके जैसा कहा गया हे १ हिययमपावमकलु जीहावि इत्यादि जिसका हृदय पापविहीन और कलुषताहीन होता है परन्तु जिह्वा जिसकी कटुकभाषिणी होती है वह विषपिधानवाले मधुकुम्भके जैसा कहा C ९ છે, પણ મધથી ભરેલુ' પાત્ર તેના પર ઢાંકણા રૂપે રહેલુ હોય છે. (૪) કાઈ એક કુંભ વિષથી ભરેલા હાય છે, અને તેનું ઢાંકણું પણુ વિષપૂર્ણ પાત્ર જ હાય છે. " एवमेव चत्तारि पुरिसजाया " त्याहि-- मे ४ प्रमाणे पुरुषाना पशु ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. (૧) કાઇ એક પુરુષ મધુકુંભ સમાન હોય છે અને મધુપિધાન ( મયુક્ત ઢાંકણાવાળા ) વાળા હાય છે. જે પુરુષનું હૃદય પાપહીન અને કલુષતાહીન હોય છે અને જેની જીભ મધુરભાષિણી હાય છે એવા પુરુષને મધુપિધાનયુક્ત મધુકુલ સમાન ગણવામાં આવે છે (૨) કાઇ એક પુરુષ એવા હોય છે કે જે મધુકુલ સમાન હોવા છતાં પણ વિશ્વવિધાનવાળા હાય છે. જે માણસનું હૃદય પાપહીન અને કલુષતાહીન હાય છે, પણ જેની વાણી કડવી અથવા અપ્રિય લાગે છે એવા પુરુષને વિષપ ધાનવાળા મધુકુંભ સમાન કહ્યો છે. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ स्थानासूत्रे पूर्व विपकुम्भो विपपिधानः पुरुष उक्तः सचोपसर्गकारीति उपसर्गानिरूपयितुमाह मूलम् -चउबिहा उवसग्गा पण्णत्ता, तं जहा--दिवा १, माणुसा २, तिरिक्खजोणिया ३, आयसंचेयणिज्जा ४॥ दिवा उवसग्गा चउबिहा पणत्ता, तं जहा--हासा १ पाओसा २, वसिंसा ३, पुढोवेमाया | माणुस्सा उवसरगो चउबिहा पण्णत्ता, तं जहा-हासा १, पाओसा २, वीमंसा ३, कुलीलपडिसेवणया ४॥ तिरिक्खजोणिया उवलगा चउबिहा पण्णत्ता, तं जहासाया १, पाओसा ३,आहारहेउया ३, अवच्चलेणसारक्खणया| आयसंचणिज्जा उवसरमा चउठिवहा पण्णत्ता, तं जहाघट्टणया, १, पवडणया २, थंभणया ३, लेलणया | ॥सू० २५॥ चतुर्विधा उपसर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिव्याः १, मानुपाः २, तैयग्योनिका ३, आत्मसंचेतनीयाः ४। (१) दिव्या उपसर्गाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा हासाः१, प्राद्वेपाः २, वैमाः ३, पृथरिचमानाः ४। (२)। गया है । जं हिययं इत्यादि, जिसका हृदय कलुषतासे भरा होता है, परन्तु जो मीठा बोलता है ऐसा वह पुरुष विषकुम्भके जैसा मधुपिधानवाला कहा गयाहै। ज हिययकल समय इ. तथा-जिसका हृदय फलुपतासे भरा होताहै, और जीभ भी जिसकी कटुकभाषिणी होतीहै ऐसा, वह पुरुष विष पिधानवाले विषकुम्भके जैसा कहा गयाहै ४॥०२४॥ - (૩) કેઈ એક પુરુષ વિષકુંભ સમાન હોય છે, પણ મધુપિધાનવાળો હોય છે. જે માસનું હૃદય કલુષતાથી પૂર્ણ હોય છે પણ જેની વાણે મીઠી હોય છે એવા પુરુષને મધુપિધાનવાળા વિષકુંભ સમાન કહ્યો છે. (૪) કોઈ એક પુરુષ વિષકુભ સમાન હોય છે અને વિષપિધાનવાળે હોય છે. એટલે કે જેનું હૃદય પણ કલુષતાથી ભરેલું હોય છે અને જેની જીભ પણ કડવી વાણું બોલનારી હોય છે એવા પુરુષને વિષપિધાનવાળા વિષકુંભ સમાન કહેવામાં આવ્યે છે કે સૂઇ ૨૪ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०४ उ०४ सू०२५ उपसर्गस्वरूपनिरूपणम् fo७ मानुषा उपसर्गाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा हासाः १, प्राद्वेषाः २, वैमर्शाः ३, कुशीलप्रतिसेवनका ४॥ तिर्यग्योनिका उपसर्गाचतुर्विधाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-मायाः १, प्रांद्वेषाः २, आहारहेतुकाः ३, अपत्यलयनसंरक्षणकाः ४। ___आत्मसंचेतनीया उपसर्गाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पट्टनकाः १, प्रपतनकाः २, स्तम्भनकाः ३, श्लेषणकाः ४॥ सू० २५ ॥ ____टीका-" चउबिहा उवसग्गा" इत्यादि--उपसर्जनानि-उपसगाःयद्वा-उपसृज्यते-धर्मात् प्रच्याव्यते जीव एभिरित्युपसर्गाः=उपद्रवविशेपाः, ते चं कर्तृभेदाचतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, आह च" उसज्जणसुत्रसग्गो जेग जो य उर्वसिज्जए जम्हा । सो दिनमणुय-तेरिच्छ आयसंवेयणाभेभो ॥१॥ छाया-उपसर्जनमुपसर्गः येन यतश्वोपसृज्यते यस्मात् । स दिव्य-मानुज-तैरश्वा-ऽऽत्म संवेदनाभेद ॥ १ ॥ इति, तद्यथा-दिव्याः-देवसम्बन्धिनः १, तथा-मानुषा:-मनुष्यसम्बन्धिनः २, __ 'चउविहां उवसग्गा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र २५ ॥ टीकार्थ-उपसर्ग चार प्रकारके कहे गयेहैं जैसे-दिव्य १ मानुष २ तिर्यग्योनिक ३ और आत्मसंचेतनीय ४ जीव जिनके द्वारा श्रुतचारित्ररूप धर्मसे चलायमान कर दिया जाताहै, वे उपसर्ग हैं। ये उपसर्ग उपद्रवविशेषरूप होते हैं, यहां कर्त्ताके भेदसे इन्हें चार प्रकारका कहा गया है उक्तं च-"उवसज्जणमुवसग्गो" इत्यादि-इसका अर्थ स्पेष्ट है। जो उपसर्ग देवों द्वारा किया जाता है वह दिव्य उपसर्ग है १ मनुष्यों द्वारा जो उपसर्ग किया जाता है वह मानुष उपसर्ग है २ जो उपसर्ग तिर्यञ्च जीवों द्वारा किया जाता है वह तिर्यश्च संबन्धी उपसर्ग " चउम्विहा उवसग्गा पण्णत्ता" त्यादि। साथ-५ना यार २ छ-(१) हिय- हेत, (२) भानुषी-मनुष्यकृत, (३) तिय व्यानिश (तियय कृत) (४) मात्भ संयतनीय (१कृत) જીવ જેના દ્વારા શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મમાંથી ચલાયમાન કરાય છે તેને ઉપસગ ઉપદ્રવ વિશેષ રૂપ હોય છે. અહીં ર્તાના ભેદની અપેક્ષાએ તેમના ચાર १२ ४ा छ. उधु पय छ है-" " उत्रसज्जणमुत्रसगो" त्याहि तना અર્થ સ્પષ્ટ છે. જે ઉપસર્ગ દેવના દ્વારા કરવામાં આવે છે, તેને દિવ્ય ઉપ સગ કહે છે. જે ઉપસર્ગ મનુષ્યો દ્વારા કરવામાં આવે છે તેને માનુષી Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे १०८ तधा-तैर्यग्योनिका:-तिर्यसम्बन्धिनः३, तथा-आत्मसचेतनीयाः-आत्मना स्वेन संचेत्यन्ते-क्रियन्त इत्यात्मसंचेतनीयाः आत्मसम्बन्धिनः ४।। तत्र--'दिव्वा उवसग्गा' इत्यादि-दिव्या उपसर्गाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-हासाः-हासेन-हास्येन निर्वता हासाः, यद्वा-हासाद्भवा हामाः १, तथा-प्राद्वेपा:-प्रद्वेषो-विप्रियम् , तस्माद्भवाः २, तथा-चैमर्शाः-विमर्शी विचारः धैर्यपरीक्षारूपः, तस्माद्भवाः-चैमर्शाः३, तथा-पृथग्विमात्राः-पृथग्-भिन्ना मात्रा हासादिवस्तुलक्षणा येपूपसर्गेषु ते पृथग्विमात्राः ४ । तत्र-हासा उपसर्गाः प्रसिद्धाः १, पाद्वेपा-यथा-सङ्गमको देवो भगवतो महावीरस्योपसर्गानकापीन् २, वैमर्शा यथा-क्वचिद् व्यन्तरायतने स्वकर्मनिर्ज है ३ और जो उप पर्ग स्वयं से किया जाता है वह आत्मसंचेतनीय उपसर्ग है। इनमें जो दिव्य उपसर्ग है वे चार प्रकारके कहे गये हैं जैसेहास १ प्रादेष २ वैमर्श ३ और पृथग्विमात्र ४ जो उपसर्ग हास्यसे निर्वर्तित होते हैं-वे अथवा जो हास्य के द्वारा उत्पन्न होते हैं वे उपसर्ग हास हैं १। जो उपसर्ग प्रद्वेषसे - उत्पन्न होते हैं वे प्राद्वेष उपसर्ग हैं २। जो उपसर्ग धैर्य परीक्षा करनेरूप विचारसे उत्पन्न होते हैं-किये जाते हैं-वे चैमर्श उपसर्गहैं। तथा-जिन उपसर्गों में हासादि रूप मात्रा अलग २ रहती है वे पृथग्विमात्रा उपसर्ग हैं ४ इनमें जो हास उपसर्ग है वह तो प्रसिद्धही है। प्रादेष उपसर्ग ऐसे होते है कि जैसे-उपमर्ग संगमदेवने भगवान महावीर पर किये थे वैमर्श उपसर्ग ऐसे होते हैं कि जैसे-कोई मुनि किसी व्यन्तरके स्थान पर ઉપદ્રવ—ઉપસર્ગ કહે છે જે ઉપસર્ગ તિર્યંચ છ દ્વારા કરવામાં આવે છે તેને તિર્યંચ સંબંધી ઉપસર્ગ કહે છે. જે ઉપસર્ગ પિતાના દ્વારા જ કરવામાં આવે છે તેને આત્મસંતનીય ઉપસર્ગ કહે છે हव्य साना नाय प्रभारे यार २ ४ा छ-(१) डास, (२) પ્રાદેષ, (૩) વૈમર્શ અને (૪) પૃથષ્યિમાત્ર, જે ઉપસર્ગ હાસ્ય વડે નિર્વર્તિત હોય છે તેમને અથવા હાસ્ય દ્વારા જે ઉપસર્ગ ઉત્પન્ન થાય છે તેમને હાસસર્ગ કહે છે. જે ઉપસર્ગ પ્રષ દ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે તેમને પ્રાધેષ ઉપસર્ગ કહે છે. જે ઉપસર્ગ ધર્યની કસોટી કરવા માટે કરાય છે તે ઉપસર્ગને વિમર્શ ઉપસર્ગ કહે છે. જે ઉપસર્ગમાં ઉપહાસ આદિ રૂપ માત્રા અલગ અલગ રહે છે તેને પૃથષ્યિમાત્રા ઉપસર્ગ કહે છે. “હાસ ઉપસર્ગ” તે જાણતા હોવાથી તેનું વધુ સ્પષ્ટીકરણ અહીં કર્યું નથી. સંગમ દેવે ભગવાન મહાવીર પર જે ઉપસર્ગો કર્યા હતા તેમને પ્રાદેષ ઉપસર્ગો કહી શકાય. વૈમર્શ ઉપસર્ગનું સ્વરૂપ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघा टीका स्था० ५ उ०४० २५ उपसर्गस्वरूपनिरूपणम् राथै कश्चिन्मुनिः कायोत्सर्ग कृत्वा स्थितः, तदनन्तरं व्यन्तरो देवस्तस्य देवता कीशोऽयमिति विचारादुपसर्गानकरोदिति ३॥ पृथग्विमात्रा यथा-सङ्गमक एव देवो हासेनोपसर्गान् कृत्वा प्रद्वेषेण चकार, पुनर्विमर्षेण कृत्वा प्रद्वेषेण कृतवानिति ।४। इत्युपसर्गचतुष्टयोदाहरणानि ॥ "माणुस्सा उघसग्गा" इत्यादि-स्पष्टम् , भवरं-मानुपा डासा उपसर्गा यथा-वेश्यापुत्री क्षुल्लकरयोपसर्ग कृतवती, ततः क्षुल्लको वेश्यादुहितरं दण्डेन ताडयामास, विवादे प्रवृत्ते च राज्ञः पार्श्व श्रीगृहप्टान्तोऽऽमुना साधुना निवेदित इति १ अपने कर्मों की निर्जराके लिये कायोत्सर्ग करके बैठ गया, और उसके बाद वहाँका व्यन्तरदेव "यह कैसा धैर्यशाली है" इस बातकी परीक्षाके विचारसे उस पर उपसर्ग करें, तो ऐसे उपसर्ग वैमर्श उपसर्ग कहलाते हैं। पृथग्यिमात्रा उपसर्ग ऐसे होते हैं जैसे संगमदेवहीने पहिले हाससे उपलों को किया, फिर उन्हे प्रवेषसे करना शुरू कर दिया, पुनः विमर्शसे उपसर्गों करके फिर उसने उन्हे प्रद्वेषसे करना शुरू कर दिया। इस प्रकारसे किये गये ये उपसर्ग पृथग्विमात्र उपसर्ग हैं ये चार उपसर्ग के दृष्टान्त हैं। ममुय सम्बन्धी उपसर्ग भी इसी तरहले चार प्रकारले है-हास, प्रादेष, चैमर्श और अशीलप्रतिसेवनक। इनमें जो मालुष सम्बन्धी हास उपसर्ग हैं वे इस प्रकार के होतेहैं, जैसे वेश्याकी पुत्रीने किसी क्षुल्लकके આ પ્રકારનું છે. ધારો કે કોઈ મુનિ પિતાના કર્મોની નિજ કરવા માટે કોઈ વ્યન્તરના સ્થાનમાં કયે ત્સર્ગ કરીને બેસી જાય છે ત્યારબાદ તેના ઘેર્યની કસોટી કરવા માટે વ્યન્તર દેવ જુદી જુદી રીતે હેરાન કરીને ચલાયમાન કરવાને પ્રયત્ન કરે છે આ પ્રકારે તે મુનિને જે ઉપસર્ગો સહન કરવા પડે છે, તે ઉપસર્ગોને વૈમશ ઉપસર્ગો કહે છે. પૃથગ્નિમાત્રા ઉપસર્ગનું સ્વરૂપ આ ५४२तुंडाय छ સંગમ દેવે પહેલાં હાસ દ્વારા મહાવીર પ્રભુને પરેશાન કર્યા, ત્યારબાદ પ્રÀષથી ઉપસર્ગ કર્યો, ત્યારબાદ વિમર્શથી ઉપસર્ગો કર્યા વળી પહેપથી કરવા શરૂ કર્યા. આ પ્રકારે જે ઉપસર્ગો કરવામાં આવે છે તેમને પૃથષ્યિમાત્ર ઉપસગ કહે છે. આ પ્રકારના ચાર પ્રકારના દૈવી ઉપસર્ગોના દેખાતે અહીં આપવામાં આવ્યા છે मनुष्यत पनि ५ याप्रमाणे यार २ छ-(१) खास, (२) प्राद्वेष, (3) वैभA मन (४) ४शीर प्रतिसेवन હાસ ઉપસર્ગનું દષ્ટાન્ત–કેઈ વેશ્યાની પુત્રીએ કઈ ક્ષુલ્લક ઉપર ઉપस-५२ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यामात्रे तथा -प्रापा उपसर्गा यथा-सोमिलाख्यत्राह्मणेन गजकुमारो व्यपरोपित इति २ | तथा-वैम ४१० यथा-चाणक्यतिन्द्रगुप्पो धर्म परीक्षितुं सर्वमतानुयायिसाधून अन्तःपुरे प्रवेश्य तद्द्वारा धर्ममाख्यापयामास अन्य क्षोमयामास परन्तु जैनमुनीन क्षोभयितुं नाशक्नोत् इति । ३ । उपम तथा -कुशीलमतिसेवनता--कुशीलस्य प्रतिसेवनं येषु ते कुशलप्रति सेवनका उपसर्गाः - व्यधिकरण बहुव्रीहिः, यथा कथित्साधुः साराळे प्रवासगतस्य कस्यचिदीर्ष्यालोनरस्य गृहे वार्थः तत्रेयखीचनुष्टयेन समर्पिताऽवासोऽसौ साधुर्निशि प्रत्येकं चतुरोऽपि महरानुपसर्गितो न च क्षोमं नाप्तइति, | उपर उपसर्ग किया, तब शुल्लकने उसे दण्डे से ताडित किया। विवाद यह जाने पर राजाके बालक श्रीगृहका दृष्टान्त कहा | मा इस प्रकार-सोमिल ब्राह्मणने गज सुकुमारको मार दिया २। बैसरी उपकार जैसे कसे प्रेरित हुए चन्द्र राजाने धर्मी परीक्षा करनेके लिये सर्व मतके अनुयायी साधुओंको अन्तःपुर प्रदेश कराया-बुलाया और प्रवेश कराकर फिर उनसे धर्मका उपदेश कहलवाया तथा वाद कितने ओंको उसने क्षुभित कराया। परन्तु जैन साधुओंको क्षुभित करने में समर्थ नहीं हो सका । जिनमें कुशीलका प्रतिसेवन होता है ये तीलमतिसेवनक उपसर्ग हैं। ये इस प्रकार के होते हैं जैसे- कोई साधु सायंकाल के समय किली प्रवासगत ईर्ष्यालु व्यक्तिके घर पर ठहरने के अभिप्राय से घुस गया --त्रा સ કર્યો. ત્યારે તે ક્ષુલ્લકે તેને લાકડી વડે મારી, તેથી મેટા ઝગડા થયે અને રાજા પાસે ફરિયાદ કરાઈ. ત્યારે ક્ષુલ્લકે રાજાની સમક્ષ શ્રીગ્રેડનું દૃષ્ટાન્ત કહ્યું. પ્રાદ્વેષ ઉપાગ’—સેામિલ બ્રાહ્મણે જે પ્રકારના ઉપસર્ગ વધુ ગજસુકુ મારને મારી નાખ્યું, ને પ્રકારના ઉપસને પ્રાદ્વેષ ઉપસર્ગ કહે છે. વૈમર્શ ઉપસર્ગનું દૃષ્ટાન્ત——ચાણાકયની પ્રેરણાથી એક વખત ચન્દ્રગુપ્તે સČમતના અનુયાયીની સેટી કરી. તેણે તેમને પેાતાના અતઃપુરમાં એલાવ્યા. ત્યારષાદ તેમની પાસે ધર્મોપદેશ અપાવ્યેા. ત્યારબાદ તેણે કેટલાક સાધુએને ક્ષુભિત કરાવ્યા. પણ જૈન સાધુઓને ક્ષુભિત કરાવવાને તે સમ થયા નહીં, જે ઉપસી દ્વારા સંયમી આત્માને કુશીલ પ્રતિસેત્રી બનાવવાના પ્રયત્ન કરાય છે, તે ઉપર્માને કુશીલ પ્રતિસેવનક ઉપસર્ગા કહે છે જેમકેક્રાઈ એક સાધુ સાય કાળે કાઇ એક ગામમાં આવી પહેાંચ્ચા અને કાઈ એક બહારગામ ગયેલા ઇર્ષ્યાળુ પુરુષના ઘરમાં તેમણે આશ્રય લીધેા, તે ઘર માલિકને ચાર સ્ત્રીએ હતી. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४४०४०२५ उपसर्गस्वरूपनिरूपणम् o तथा- -" तिरिक्खजोणिया उवसग्गा" इत्यादि -- स्पष्टम्, नवरं भायाःभयाज्जाता भाया उपसर्गाः, ते चोपसर्गाः श्वादिदशनभयजन्याः १ तथाप्राद्वेषा यथा चण्डकौशिकाख्यसर्पकृतो महावीरमभोर्दशनोपसर्गः इत्यादिरूपाः २। तथा आहारहेतुकाः- आहारो - भक्षणमेव हेतुः कारणं यत्र ते आहारहेतुका उप सर्गाः ते च सिंहादिस्रिजन्तुकृताः ३, तथा - अपत्यकयन संरक्षणकाः- अपत्यस्य - oright चार स्त्रियां थी, सो उन्होंने उसे ठहरनेके लिये जगह दे दी सो वह वहाँ ठहर गया । परन्तु उक चारों स्त्रियोंने उस पर रात भर उपसर्ग किये परन्तु यह क्षोभको प्राप्त नहीं हुआ । " तिरिक्खजोणिया उवसग्गा " तिर्यश्चों द्वारा कृत उपसर्ग चार प्रकार के होते हैं जैसे भाय १ प्राद्वेष २ आहारहेतुक ३ और अपत्यल यनसंरक्षणक ४ जो उपसर्ग भयसे उत्पन्न होते हैं वे भाव उपसर्ग हैं | ऐसे ये उपसर्ग कुत्ता आदिके द्वारा काट खानेके भय से उत्पन्न होते हैं १ । प्राद्वेष उपसर्ग वे हैं जो मद्वेषसे उत्पन्न होते हैं जैसे- चण्डकौशिक सर्पने महावीर प्रभुको कारखानेसे किये हैं इत्यादि । जिन उपसगोंके होने में आहारही हेतु होता है, ऐसे वे उपसर्ग आहार हेतुक होते हैं जैसे - आहारके निमित्त सिंहादि हिंसक जन्तु करते हैं। जिन उपसर्गो में अपत्य - संतानका और लयन-स्थानका संरक्षण करना कारण होना है તેમણે તેને ઘરનેા અમુક ભાગ ઉતરવા માટે આપ્યું। તે સાધુ તે ભાગમા ઉતર્યાં તે ચારે અમે તે સાધુને ચારિત્રભ્રષ્ટ કરવા માટે આખી રાત ઉપ સગ કરતી રહી. છતાં તે સાધુ ચલાયમાન થયા નહીં આ પ્રકારના ઉપ સને કુશીલ પ્રતિસેવનક ઉપસર્ગા કહે છે. तिरिक्खजोणिया उवसग्गा " तिर्यथा द्वारा ने उपसर्गो राय छे तेभना यार प्रहार छे - ( १ ) लाय उपसर्ग, (२) प्राद्वेष उपसर्ग, (3) महार હેતુક ઉપસર્ગ અને (૪) અપત્યલયન સરક્ષણુક ઉપસ, જે ઉપસર્ગો ભયને લીધે ઉત્પન્ન થાય છે, તેમને ભાય ઉપસગ કહે છે જેમકે કૂતરા આદિ કરઢવાના ભયથી જે ઉપસર્ગ ઉત્પન્ન થાય છે તેમને ભાય ઉપસર્ગ કહે છે પ્રાદ્વેષ ઉપસગરે ઉપસર્ગ પ્રદ્વેષથી ઉત્પન થાય છે તેને પ્રાદ્વેષ ઉપસગ કહે છે. જેમકે ચંડકૌશિક નાગે મહાવીર પ્રભુને ડંસ દેવા રૂપ જે ઉપરાગ કર્યાં હતા તેને પ્રાદ્વેષ ઉપસર્ગ કહી શકાય. જે ઉપસર્ગોમાં આહાર જ કારણ રૂપ હોય છે-એટલે કે આહારને નિમિત્તે સિંહાર્દિક હિંસક પશુઓ જે ઉપદ્રવ કરે છે તેને આહારહતુક ઉપસર્ગ કહે છે. જે ઉપસ કરવા પાછળ સત્તા 66 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ४१२ सन्तानस्य लयनस्य=स्थानस्य संरक्षणं येषु ते तथा, काक्योदयो हि स्वसन्ता - नलयनसंरक्षणार्थमुपसर्गान् कुर्वन्तीति । " आयसंवेयणिज्जा उवसग्गा " - इत्यादि - स्पष्टम्, नवरं - बहन का - इति संघ संघर्षितं तद विद्यते येषु ते यथा यथा-नेत्रे रजकणे पतिते सति तन्नयनं हरतेन मर्दितं सत् दुःखमुत्पादयति तथा-मपतनकाः - प्रपतन संभवाः, यय: सावधानतया संचरतो जनस्य प्रपतनं भवतीति ततो दुःखं भवति २, तथा - स्वम्मनकाः - स्तम्भन - स्तब्धता, यथा- सुप्तः - मुसएव, उपविष्ट एव विष्ठति, तत्र वातादिप्रकोपेण पादादीनां स्तम्भनं भवतीत्युपसर्गाः वे उपसर्ग अपत्यलयन संरक्षणक होते हैं जैसे - कागली आदि पक्षी अपनी संतान और लयन घोंसला के संरक्षण के लिये उपद्रवों को करती है। " आयसंवेयणिज्जा उवसग्गा " इत्यादि - आत्मसंचेतनीय उपसर्ग भी चार प्रकार के होते हैं जैसे घट्टनक १ प्रपतनक २ स्तम्भनक ३ और श्लेषणक ४ | जिन उपसर्गों का कारण संघटन होता है जैसे आंख में पतित रजःकण संघटित किये जाने पर उसे दूर करने के लिये हाथसे मर्दित किये जाने पर नेत्रमें दुःखका जनक होता है वे उपसर्ग घटनक होते हैं | जिन उपसर्गोका कारण प्रपतन होता है वे उपसर्ग प्रपत नक उपसर्ग होते हैं जैसे- असावधान होकर चलनेवाले मनुष्य के गिर पडने से उसे दुःख होता है, ऐसा उपसर्ग प्रपतनक उपसर्ग कहलाते નાનું રક્ષણ અથવા માળા આદ્ધિ રહેઠાણુનું સ રક્ષનુ કારણભૂત હોય છે, તે ઉપસને અપત્યલયન સ ́રક્ષણુક ઉપસ` કહે છે. જેમકે ચીબરી, કાગડી આદિ પક્ષીએ તેમનાં બચ્ચાએ અને માળાઓના રક્ષણને માટે આ પ્રકારના ઉપસર્ગ કરે છે. " आयसंवेय णिज्जा उवसग्गा " त्याहि- आत्मसंयेतनीय उपसर्ग शु यार प्रहारना ह्या छे – (१) घट्टन, (२) प्रपतन, (3) स्तलत भने ( ४ ) શ્લેષણુક. જે ઉપસગેનું કારણુ સંઘટ્ટન હાય છે, તે ઉપયગોને ઘટ્ટનક કહે છે. જેમકે આંખમાં પડેલ ણુને સ`ઘટ્ટત કરવાથી-એટલે કે તેને કાઢવા માટે હાથ વડે આંખ ચેાળવાથી નેત્રમાં પીડા થાય છે. આ પ્રકારના ઉપસને ઘટ્ટનક ઉપસગ કહે છે. જે ઉપસર્ગ પ્રપતનને કારણે થાય છે. જેમકે એરકારીથી ચાલતાં ચાલતાં પડી જવાથી હાથ પગ ભાંગે છે કે મકેાડાય છે, આ પ્રકારનાં ઉપને પ્રપતનક ઉપસગ કહે છે. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था० ४ उ०४ सू०२६ कर्मविशेषनिरूपणम् स्तम्भनाख्याः ३, तथा-श्लेषणका:-यत्र-यथा प्रादं संकोच्य स्थितो भवति, वातादिना तथैव पादः संश्लिष्टो भवति ते ४ ॥ मू० २५॥ पूर्वमुपसर्गा उक्ताः, तत्सहनात कर्माणि क्षीयन्त इति कर्मविशेषान्निरूपयितुमाह____ मूलम्-चउबिहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-सुभे णाममेगे सुभे १, सुभे णाममेगे असुभे २, असुभे णाममेगे सुभे ३, असुभे णाममेगे असुभे ४। (१) चउबिहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-सुभे णाममेगे सुभविहैं। जिन उपसगों का हेतु स्तम्भन शरीरादि अवयवोंका रह जाना होता है वे उपलर्ग स्तम्भनक उपसर्ग होते हैं जैसे-कोई सोता है तो सोताही रहता है वह अपने आप नहीं उठ सकताहै । बैठता है तो बैठा ही रहताहै अपने आप खड़ा नहीं हो पाताहै । इस कारण वात आदिके प्रकोपले चरणादिकोंका स्तम्भन हो जाना होताहै, ऐसे जो उपसर्ग होते हैं वे स्तम्भनक उपसर्ग होते हैं । श्लेषणक उपसर्ग वे जो किसी निमि त्तसे चरण आदिके जुड जानेसे होते हैं जैसे-कोई जहां जिस तरहसे पैरोंको संकोच करके बैठ जावे और उसके पैर वहां वैसेही वान आ. दिसे संकुचित बन जावें उठा नहीं जावे तो ऐसे उपसर्ग संश्लेषणक उपसर्ग कहे जाते हैं ४ ॥ सूत्र २५ ॥ જે ઉપસર્ગોને કારણે શરીરના અવયવો કામ કરતાં અટકી જાય છે, તે ઉપસર્ગોને સ્તંભનક ઉપસર્ગો કહે છે જેમકે વાતાદિકને કારણે હાથ પગ અકડાઈ જવાં, પક્ષઘાતને કારણે અધું અંગ છેટું પડી જવું. આ પ્રકારના ઉપસર્ગોને સ્તંભનક ઉપસર્ગો કહે છે. આવા ઉપસર્ગોને કારણે માણસ જાતે હલનચલન કરી શકતું નથી. શ્લેષણક ઉપસર્ગ કેઈ વખત હાથ, પગ આદિ અને અમુક સ્થિતિમાં ગોઠવ્યા બાદ એ જ સ્થિતિમાં રહે છે, દા. ત. પગને સંકેચીને બેસી ગયા બાદ પણ એ જ સ્થિતિમાં રહે, ત્યાંથી ખસેડી શકાય નહીં કે લાંબે ટ્રેક કરી શકાય નહીં, આ પ્રકારના ઉપદ્રવને શ્લેષણુક ઉપસર્ગ કહે છે. આ ઉપસર્ગમાં એક અંગ સાથે જાણે કે બીજુ અંગ જોડાઈ ગયું હોય એવું લાગે છે. તે સૂ. ૨૫ છે Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे वागे,१, सुभे णाममेगे असुभविवागे २, असुभे णाममेगे सुभचित्रागे ३, असुभे णाममेगे असुभविवागे ४ (२) चउविहे कम्मे पण्णते, तं जहा-पगडिकम्मे १, ठिइकम्से २, अणुभावकम्मे ३, पएलकल्मे ४। (३)॥ सू० २६ ॥ छाया-चतुर्विधं कम प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-शुभं नामैकं शुभं १, शुभं नामैकमशुभम् २, अशुभं नाम शुभम् ३, अशुभं नामैकमशुभम् ४। (१) चतुर्विध कर्म प्राप्तम् , तद्यथा-शुभं नामैकं शुभविपाकं १, शुभं नामैकमशुभविपाकम् २, अशुभं नासैकं शुभविपाकम् ३, अशुभ नामैक्रमशुभविपाकम् ४(२) चतुर्विधं कर्म प्रज्ञसम् , तद्यथा-प्रकृतिकर्म १, स्थितिकर्म २, अनुभात्रकर्म ३, प्रदेशकर्म ४। (३) ।। सू० २७ ॥ टीका-" चउबिहे कम्मे " इत्यादि-क्रियते-अनुष्ठीयते आत्मना इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि, तच्चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-एक-किश्चित् कर्म शुभ-पुण्य प्रकृतिस्पं भवति तदेव पुनः शुभ-कल्याणकारक भवति शुआनुवन्धित्वात् , इन कहे गये उपलगौंको सहनेले काँका विनाश होता है। अब सूत्रकार कर्म विशेषोंकी निरूपणा करते हैं 'चउबिहे कम्मे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र २६ ॥ टीकार्य-कर्म चार प्रकारके कहे गयेह जैसे-शुभ शुभ१ शुभ अशुभ२ अशुभ शुभ ३ और अशुभ अशुभ ४ आत्माके द्वारा जो किया जाता है बह कर्म है ऐसा वह कर्म ज्ञानाबरणीयादि रूप होताहै । इस ज्ञानावरणीयादिमें कोई कर्म ऐला होताहै जो पुण्य प्रकृतिरूप होता है, और शुभ कल्याणका करानेवाला होता है १। ऐसा पह कर्म शुभानुवन्धी होता है और इसीसे वह जीवोंके कल्याणका कारक होता है जैसे ઉપર્યુંકત ઉપસર્ગોને સહન કરવાથી કમેને ક્ષય થાય છે, તેથી હવે सूत्रा२ ४ विशेषानु नि३५ ४२ छ-"चउबिहे कम्मे पण्णत्ते "त्याह A - या२ रन हi छ-(१) शुभ-शुम, (२) शुभ-अशुभ, (3) ખશુભ-શુભ, અને (૪) અશુભ-અશુભ. આત્મા દ્વારા જે કરવામાં આવે છે તેનું નામ કમ છે. એવાં તે કર્મ જ્ઞાનાવરણીય આદિ રૂપ હોય છે. તે જ્ઞાનાવરણીય આદિમાં કઈ કર્મ એવું હોય છે કે જે પુણ્ય પ્રકૃતિરૂપ હોય છે અને શુભ (કલ્યાણકારક) હોય છે. એવું તે કર્મ શુભાનુબન્ધી હોય છે, અને તેથી જ તે છોના કલ્યાણનું કારણ બને છે. જેમકે ભરતાદિનું કર્મ તેમના Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपा टीका स्था० उ० ४ सू०२६ कर्मविशेषनिरूपणम् यथा-भरतादीनाम्, इति प्रथमो भङ्गः १। तथा-एक कर्स शुभं-पुण्यात्मकं सदपि अशुभम्-अकल्याणकरं भवति अशुभानुबन्धित्वात् यथा-ब्रह्मदत्तादीनाम् इति द्वितीयो भः २। तथा-एक कम अशुभ यापप्रकृतिरूपं भवति, तत्पुनः शुभ-शुभानुवन्धितात् यथा-कष्टप्राप्तानां विनाऽपि कर्मनिर्जरेच्छां स्वयंजायमानकर्म निर्मराणां गवादीनाम् इति तृतीयो भङ्गः ३, तथा-एकं कर्म-अशुभं-पापप्रकृतिरूपं भवति तत्पुनरशुभम् भवति,अशुभानुबन्धित्वात् यथा धीवरादीनामिति चतुर्थः ४।(१) ___ " चउबिहे कम्मे " इत्यादि-कर्म पुनश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-एकं कर्म भरतादिकोंका कर्म उनके कल्याणका कारक हुआ है । कोई एक कार्य ऐसा होता है जो पुण्यप्रकृतिरूप हुआ भी अशुनानुबन्धी होनेसे कल्या. णका कारक नहीं होताहै। जैसे ब्रह्मदत्तादिकोंका कर्म उलके कल्याणका कारक नहीं हुआ है २ कोई एक कर ऐसा होता है जो अशुभ प्रकृतिरूप होने पर भी शुभआनुवत्धी होनेले शुभ कल्याणकारक होता है जैसे-कष्टमें पतित गाय आदि जानवरोंका कर्म अशुभ होता हुआ भी वह उनके कल्याणका कारक होताहै क्योंकि वे उस समय कर्मों की निर्जरा करनेके अभिलाषी तो होले नहीं हैं, स्वयंही उनके कर्मों की निर्जरा होती रहती है ३ तथा-कोई एक कर्म ऐसा होता है जो अशुभ पाप प्रकृतिरूप होता है और अशुभानुवन्धी होनेले अशुभ अकल्याणकारक होता है जैसे धीवरोंका कर्म अशुभ होता हुमा उनके अशुभा. तुबन्धी होनेसे अशुभकारकही होता है ४ । पुनश्च-" चउबिहे कम्ने" इत्यादि-कर्म चार प्रकार का कहा કલ્યાણનું કારક બન્યું હતું કેઈ એક કર્મ એવું હોય છે કે જે પુણ્ય પ્રકૃતિરૂપ હોવા છતાં પણ અશુભાનુબંધી હોવાથી કલ્યાણકારક હોતું નથી જેમકે બ્રહ્મદત્ત ચક્રવર્તી આદિકનું કર્મ તેમના કલ્યાણનું કારક બન્યું હતું. કોઈ એક કર્મ એવું હોય છે કે જે અશુભ પ્રકૃતિરૂપ હોવા છતાં પણ શુભાનુબન્ધી હોવાથી શુભ કલ્યાણકારક હોય છે જેમકે કષ્ટપતિત (કષ્ટ સહન કરતી) ગાય આદિ જાનવરનું કર્મ અશુભ હોવા છતાં પણ તે તેમના કલ્યાણનું કારક બને છે, કારણ કે તે સમયે તે જ કમની નિજ કરવાની અભિલાષાવાળાં હતાં નથી, છતાં પણ આપોઆપ તેમનાં કર્મોની નિર્જરા થતી રહે છે. કઈ એક કમ એવું હોય છે કે જે અશુમ પાપપ્રકૃતિ રૂપ હોય છે અને અશુભાનુબન્ધી હેવાથી અશુભ–અકલ્યાણકારક હોય છે. જેમકે માછી મારોનું કર્મ અશુભ હોય છે, અશુભાનુબન્ધી હોય છે અને અશુભકારકજ હોય છે. " चलबिहे कम्मे " भनी म प्रमाणे या२ ५२ ५५ ४ा छ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्थामाङ्गसूत्रे शुभं-सातवेदनीयादि भवति, तदेव पुनः शुभविपा-शुभपरिणामं शुमतयैव सातवेदनीयादिरूपतयैव बद्धं सत् सातवेदनीयादिरूपतयैवोदितं भवतीति प्रथमः १, तया-एक कर्म शुभ-शुभत्वेन वद्धं सद् अशुभविपार्क-संक्रमनामकरणशाद. शुभत्वेनोदितं भाति, तत्र संक्रमणं-एकस्मिन् कर्मण्यपरस्य कमणोऽनुपदेशः, सच संक्रमाख्यारणवशाद्भवति, उक्तश्च"मूलप्रकृत्यभिन्नाः संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः । नन्नात्माऽमूर्तत्वादध्यवसानमयोगेग ॥ १ ॥ इति, तथा मतान्तरम्-" मोत्तण आउयं खल, दसणमोहं चरित्तमोहंच । सेवाणं पयडीणं, उत्तरविहिसंक्रमो मणिो ॥ १॥" छाया- मुक्ता आयुः खलु दर्शनमोहं चारित्रमोहं च । शेवगा प्रकृतीनागुत्तरविधिसंक्रमो भणितः।।१।। इति द्वितीयो भङ्गः। गया है, जैसे शुभ शुभ विपाकवाला १ शुभ अशुभ विपाकवाला २ अशुभ शुभ विपाकवाला ३ और अशुभ अशुभ विपाकवाला ४ इनमें जो कर्म शुभ होता है सातवेदनीयादिरूप होता है और वहीं सातवेदनीयादिरूपसे बद्ध होता हुआ सातवेदनीयादि रूपसे ही उदित होता है। ऐसा कर्म शुभ शुभ विपाकवाला कहा गया है । जो कर्म शुभ रूपस्ने घद्ध हुआ भी अशुभ विपाकवाला होता है-संक्रमण नामक करणके वशसे अशुभ रूपसे उदित होनाहै, वह ऐसा कर्म शुभ अशुभ विपाकवाला कहा गया है २। एक कर्ममें दूसरे कर्मका प्रवेश हो जाना अर्थात् एक कर्मका दूसरे कमरूपमें बदल जाना इसका नाम संक्रमण है ऐसा परिवर्तन कमे में संक्रमण करणके वशसे होता है। उक्तं च (१) शुभ-शुम (१५३पाणु, (२) शुभ-अशुभ विवाणु', (3) पशु-शुम विमन (४) अशुभ-अशुभ विवाणु જે કર્મ શુભ હેય છે, તે સાતવેદનીય રૂપ હોય છે, અને સાતવેદનીય રૂપે બદ્ધ થઈને સાતાદનીય રૂપે જ ઉદયમાં આવે છે તે કર્મને શુભશુભ વિપાકવાળું કહે છે જે કર્મ શુભ રૂપે બદ્ધ થવા છતાં પણ અશુભ વિપાકવાળું હોય છે. સંક્રમણ નામના કરણને લીધે અશુભ રૂપે ઉદયમાં આવે છે––એવા કર્મને શુભ-અશુભ વિપાકવાળું કહ્યું છે. એક કર્મમાં બીજા કર્મને પ્રવેશ થઈ જ અથવા એક કર્મનું બીજ કર્મ રૂપે પરિવર્તન થઈ જવું તેનું નામ સંક્રમણ છે. સંક્રમણ કરણને લીધે કર્મોમાં એવું પરિવર્તન થાય છે. કશુ પણ છે કે Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ. ४ सू० २६ फर्मविशेषनिरूपणम् ..... ४१७ "मूलप्रकृत्यभिन्ना" इत्यादि । इस श्लोकका भाव ऐसा है कि ऐसा नियम है कि आठ मूलप्रकृतियोंका परस्परमें संक्रमण नहीं होता है, अर्थात् एक मूलप्रकृति दूसरी मूलप्रकृतिरूप नहीं बदलती, वह स्वमुखसेही निर्जराको प्राप्त होती है, किन्तु उत्तरप्रेकृतियोंमें यह नियम नहीं है, उनमें समानजातीय प्रकृतियोंका अपनी समानजातीय दूसरी प्रकृतियों में भी संक्रमण देखा जाता है अर्थात् एक प्रकृति बदलकर दसरी प्रक्रतिरूप हो जाती है जैसे-मतिज्ञानावरण बदलकर अतज्ञानावरणरूप हो जाता है, तब उदयकालमें वह अपना फल उस श्रुतज्ञानरूप रूपसे देताहै, इसी प्रकारसे सब उत्तरप्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिये, फिर भी कुछ ऐसी उत्तरप्रकृतियां हैं, जिनका परस्परमें संक्रमण नहीं होताहै जैसे-दर्शन मोहनीयका चारित्रमोहनीयरूपमें,और चारित्रमोहनीयका दर्शन मोहनीयके रूपमें संक्रमण नहीं होता है। हां दर्शनमोहनीयके अवान्तर भेदोव्हा परस्पर में और चारित्र मोहनीयके अवान्तर भेदोंका परस्पर में संक्रमण होना अवश्य संभव है। इसी प्रकारले नारकीय देव तिर्यग मनुष्य रूप चारों आयुओका परस्पर में संक्रमण नहीं होता, अर्थात् एक आयुके परमाणु बदलकर दूसरी आयुरूप कभी नहीं होते, किन्तु प्रत्येक आयु स्वमुखसेही फल “मूल प्रकृत्यभिन्ना" त्याह. ॥ २३ लावाय नाथे प्रभारी છે–આઠ મૂળ કર્મ પ્રકૃતિઓનું પરસ્પરમાં સંક્રમણ થતું નથી, એટલે કે એક મૂળ પ્રકૃતિ બીજી મૂળ પ્રકૃતિ રૂપે બદલાતી નથી–તે સ્વમુખે જ નિર્જર પામતી રહે છે પરતુ ઉત્તરપ્રકૃતિઓમાં આ પ્રકારને નિયમ નથી. જાતીય ઉત્તર પ્રવૃતિઓનું પરસ્પરમાં સંક્રમણ થાય છે ખરૂં એટલે કે એક પ્રકૃતિનું બીજી પ્રકૃતિ રૂપે પરિવર્તન થતું જોવામાં આવે છે પણ ખરું. જેમકે મતિજ્ઞાનાવરણ બદલાઈને શ્રુતજ્ઞાનાવરણ રૂપ થઈ જાય છે, અને આવું પરિવર્તન થાય ત્યારે ઉદયકાળે તે તેનું ફળ તે રૂપે આપે છે. આ પ્રમાણે સઘળી ઉત્તર પ્રવૃતિઓ વિષે પણ સમજવું. કઈ કઈ એવી ઉત્તર પ્રકૃતિએ પણ છે કે જેમનું પરસ્પરમાં સંક્રમણ થતું નથી. જેમકે દર્શન મોહનીયનું ચારિત્ર મેહનીય રૂપે અને ચારિત્રમોહનીયનું દર્શન મેહનીય રૂપે સંક્રમણ થતું નથી. હા, દર્શન મોહનીયના અવાન્તર ભેદનું પરસ્પરમાં સંક્રમણ અવશ્ય થઈ શકે છે, અને ચારિત્રમેહનીયના અવાન્તર ભેદનું પણ પરસ્પરમાં સંક્રમણ સંભવી શકે છે. એ જ પ્રમાણે ચારે આયુએનું પણ પરસ્પરમાં સંક્રમણ થતું નથી. એટલે કે એક આયુના પરમાણુઓ બદલાઈ જઈને બીજા આયુના પરમાણુઓ રૂપે કદી પણ પરિમિત થતાં નથી, પરંતુ પ્રત્યેક આયુ સ્વમુખે જ ફળ स्था०-५३ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ स्थानासूत्रे तथा - एकं कर्म अशुभम् - अशुभतया बद्धं सदपि शुभविपाकं = शुभतयोदितं भवतीति तृतीयः ३ तथा एकमशुभमशुभविपाकं भवतीति चतुर्थः ४ । (२) । "चन्हे कम्मे " इत्यादि - तृतीयमिदं कर्मसूत्रमस्यैव चतुर्थस्थानस्य द्वितीयो देशकोक्तवन्ध सूत्रमनुसृत्य बोध्यम् ।। सू० २६ ॥ पूर्व चतुर्विधं कर्मनिरूपितं तच्च सङ्घ एव ज्ञातुमईतीति सङ्घ निरूपयितु माह यलम् - चउवि संघे पण्णत्ते, तं जहा - समणा १, समपीओ २, सावगा, ३, सावियाओ ४ ॥ सू० २७ ॥ देकर निर्जराको प्राह होती है यह सब आत्मा के अध्यवसायसे होता है यही विषय इस गाथा द्वारा प्रकट किया है " भोत्तूण आउयं खलु " यादि । सा ह तीय संग है जो कर्म अशुभ रूपले पद्ध हुआ भी शुभ रूपसे उदित होता है वह तृतीय मंगवाला कर्म है ३ | तथा जो कर्म अशुभसे बद्ध होता हुआ अशुभरूपसेही विपाकवाला होता है यह चतुर्थ भंग में लिया गया है : पुनञ्च - " उवि सम्मे " इत्यादि कर्म वार प्रकारका कहा गया है। प्रकृतिकर्म १ स्थितिकर्म २ अनुभावकर्म ३ और प्रदेशकर्म ४ इस तृतीय कर्मका व्याख्यान चतुर्थ स्थानके द्वितीय उदेशक में कहे गये बन्धसूत्र के अनुसार कर लेना चाहिये || लू २६ ॥ દઈને નિર્જરા પામતું રહે છે. માત્માના અધ્યવસાય દ્વારા જ આવું અન્યા अरे हो ये ४ विषयने सूत्रमरे " भोत्तूण आउयं खलु " इत्यादि गाथा द्वारा પ્રકટ કર્યો છે. આ રીતે ખીજા ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે સૂત્રકાર ખાકીના સાંગાનુ સ્પષ્ટીકરણ કરે છે— જે ક્રમ અશુભ રૂપે બદ્ધ થવા છતાં પણ શુભ રૂપે ઉયમાં આવીને શુભવિપાક આપે છે તેને અશુભ-શુભ વિપાકવાળું કહે છે. જે કમ અશુભ રૂપે જ ખદ્ધ થઈને અશુભ વિપાક આપનારુ હાય છે, તે કમને અશુભઅશુભ વિપાકવાળું કહે છે, षि कम्मे " इत्यादि - उभंना भा प्रभार प्रार छे- (१) अमृति उभ, (२) स्थिति भ, (3) अनुभाव उभ भने (४) अहेश ક્રમ ચેાથા સ્થાનના ખીજા ઉદ્દેશામાં જે અન્યસૂત્ર આપવામાં આવ્યું છે તેને આધારે આ ચારે પ્રકારના કર્મોની વ્યાખ્યા સમજી લેવી ॥ સૂ ૨૬૫ ८८ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०४ उ०४ सू०२७ चतुर्विधसङ्घ स्वरूपनिरूपणम् छाया-चतुर्विधः सङ्घः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रमणाः १, श्रमण्यः २, श्रावकाः ३, श्राविकाः ४।। मू० २७ ॥ ____टीका-" चउबिहे संघे " इत्यादि- सङ्घा गुणरत्नपात्रभूतजीवसमूहः, चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रमणाः-श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रमणाः, यहा-- 'समणा' इत्यस्य ' समनस' इतिच्छाया, तदर्थश्चायम्-सह मनसा-शोभनेन निदानपरिणामलक्षणपापरहितेन च चेतसा वर्तन्त इति समनसः, यद्वा-समानंसर्वेषु स्वपरजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते समनसः । अथवा सं-समतया शत्रुमित्रादिषु अणन्ति-प्रवर्तन्त इति समणाः । एवं ' समणीओ' श्रमण्यः २, तथाश्रावकाः-शण्वन्ति जिनवचनमिति श्रावक :, उक्तं च चतुर्विध निरूपित इस कर्मका स्वरूप सामेही ज्ञात हो सकता है अतः अब सूप्रकार सङ्घको निरूपणा करते हैं___ 'चविहे संघे पण्णत्ते' इत्यादि मूत्र २७ ॥ टीकार्थ-संघ चार प्रकार का कहा गयाहै जैसे-श्रमण१ श्रमशीर श्रावक ३ और श्राविका ४ गुणरूपका पात्रभूत जो जीवका समूह है वह सच है, इनमें "श्राम्यन्ति इति श्रमणाः "जो विविध प्रकार के तपोंका आचरण करते हैं वे श्रमण हैं अथवा-"समणा" इसकी संस्कृत छाया " समनसः" ऐसी जब होती है तब इसका अर्थ ऐसा होता है शोभन मनसे निदानपरिणामरूप पापले रहित चिन्ताले जो युक्त होते हैं, वे "समनसः" हैं अथवा-स्वपर जनादिरूप समस्त जनों जिनका मन तुल्य होता है, वे "समनसः" हैं अथवा-"सं अणन्ति इति समभा" शत्रु मित्र आदिकोंमें जो समान रूपसे प्रवृत्ति करते हैं वे लमण हैं। આ ચારે પ્રકારના કર્મોનું સ્વરૂપ સંઘમાં જ જાણી શકાય છે. તેથી હવે सूत्रा२ सपना स्व३५नु नि३५] ४२ छ." चउबिहे सधे पण्णते "त्याह Aथ-स या प्रश्न हो छ-(१) श्रम (साधु), (२) श्रम (सावी) (૩) શ્રાવક અને (૪) શ્રાવિકા ગુણને પાત્ર એવા છે જે સમૂહ છે તેનું नाम स छ. श्रमान। म नीय प्रभारी छे-“श्राम्यन्ति इति श्रमणाः" । જેમાં વિવિધ પ્રકારની તપશ્ચર્યા કરે છે તેમને શ્રમણ કહે છે. અથવા " समणा" मा पहनी स२४1 छाया " समनसः " मा म.ने, तो तेना અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-શોભન મનથી-નિદાન પરિણામ રૂ૫ પાપથી રહિત ચિત્તવાળા જીવને “સમસ” કહે છે–અથવા સ્વજને અને અન્ય લેકે प्रत्ये समा१ रामना२ भासन समनस ४ छे. मथा “सं अणन्ति Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० 46 अवाप्त दृष्ट्यादि विशुद्धसम्पत् परं समाचारमनुप्रभातम् । 1 शृणोति यः साधुजनादतन्द्र-स्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥ १॥ इति, यद्वा-श्रान्ति = तत्वार्थ श्रद्धानं पचन्ति = परिपार्क - निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा - वपन्ति चतुर्विधसंघे धनवीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति हिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः, ततः श्राव ते वाथ ते काचेति श्रावकाः, पृषोदरादित्वादयं साधुः । यथाह ་ས་་་་་་ --- इसी प्रकार से " श्रमणी " इनके संबन्ध में भी ऐसाही कथन जानना चाहिये २ जो जिन वचनको सुनते हैं वे श्रावक है ३ कहा भी है " अवासदृष्ट्यादि विशुद्धसम्पत् " इन्यादि । इस लोकका तात्पर्य ऐसा है कि सम्यग्दर्शनादिरूपविशुद्ध सम्पत्तिशाली जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल आलस्यरहित होकर साधुजनसे धर्मोपदेशका श्रवण करता है, जिनेन्द्रदेवने उसे श्रावककी कोटि में रखा है। अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्यका जो पूर्णरूपसे निर्दोष रूप से पालन करते हैं तथा चतुर्विध संघरूप खेत में जो अपने धनरूप बजको बोते हैं, और क्लिष्ट कर्मरूप रजको जो हटाते हैं वे श्रावक है, पाकार्थक श्री धातुसे, वपनार्थक वपू धातुसे और विक्षेपार्थक कृ धातुसे इस श्रावक शब्द की निष्पत्ति हुई है। इसकी व्युत्पत्ति"" श्रच ते वाचते काश्च ते श्रावकाः" ऐसी है । यह कर्मधारय समास है इति समणाः શત્રુ અને મિત્ર પ્રત્યે સમાન વર્તાવ રાખનારને શ્રમણ કહે છે. એ જ પ્રમાણે શ્રમણીના અર્થ પણ સમજવા જેએ જિતવચનાનું શ્રમણુ કરે છે તેમને શ્રાવક કહે છે. કહ્યુ પણ छे - " अवाप्तय (दिविशुद्ध सम्पत् ” छत्याहि-मा उनी लावार्थ नीचे प्रमाणे — "" " " , , 'श्री' धातु, वचनार्थ' ' षप्' धातु શ્રાવક' પદની ઉત્પત્તિ થઇ છે તેની " સમ્યગ્દર્શન આદિ રૂપ વિશુદ્ધ સ'પત્તિશાળી જે મનુષ્ય હ ંમેશા પ્રમા દના ત્યાગ કરીને પ્રાતઃકાળે સાધુએ પાસે ધર્મોપદેશનું શ્રવણ કરે છે એવા પુરુષને જ જિતેન્દ્ર ભગવાને શ્રાવકની કોટિમાં મૂકયા છે. અથવા તત્ત્વા શ્રદ્ધાન રૂપ સમ્યક્ત્વનું જે પૂર્ણ રૂપે નિર્દોષ રૂપે પાલન કરે છે તથા ચતુર્વિધ સઘ રૂપ જે ક્ષેત્રમાં જે પેાતાના ધનરૂપ બીજનુ વાવેતર કરે છે, વાપરે છે, અને કિલષ્ટ ક`રૂપ રજને દૂર કરે છે એવા પુરુષાને શ્રાવક કહે છે. પાકા ક भने विक्षेपार्थ' ' 'कृ' धातुमांथी भा વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છે, “ भाग्य Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०४ ७०४ सू० २८ धनुर्विधवुद्धिस्वरूपनिरूपणम् ४२१ " श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद् धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि मुसाधुसेवना - दथापि तं श्रावकमाहु रञ्जसा ॥ १॥” इति, ३, एवं श्राविका अपि ४। ॥ सु० २७ ॥ पूर्व सञ्चः उक्तः, स च सर्वज्ञवचनसंस्कृतया बुद्धया युज्यत इति बुद्धिं विवेक्तुमाह मूलम्-चउव्विहा बुद्धी पण्णत्ता, तं जहा-उप्पत्तिया १, वेणयिया २, कम्मिया ३, पारिणामिया ४॥ चउन्विहा मई पण्णत्ता, तं जहा-उग्गहराई १, ईहामई २, अवायमई ३, धारणामई । अहवा-चउठिवहा लई पण्णत्ता, तं जहा--अरंजरोदगसमाणा १, वियरोदगलमाणा २, सरोदगलमाणा ३, सागरोदशः समाणा ४। ॥ सू० २८ ॥ लो ही कहा है-"श्रद्धालुतांश्राति पदार्थचिन्ननात्" इत्यादि जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये जीवादिरूप तत्त्वोंका चिन्तवन करनेसे जो अपने में उनके स्वरूपके प्रति श्रद्धालुको पचता है-अर्थात् जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित तत्वोंका जो श्रद्धान करता है, उन पर दृढ आस्था-विश्वास रखता है पात्रोंमें निरन्तर धनका सदुपयोग करता है, निष्परिग्रही साधु की सेवाले जो पाप प्रकृतियोंको विखेरता है उसे श्रावक कहा गया है। इसी तरहका कथन " श्राविका" के संघन्धमें भी जानना चाहिये ।। सूत्र २७ ॥ ते वाश्च ते काश्च ते श्रावका." 20 ५६ ४मधारय समास ३५ छ. २१ पात नीयता सूत्र५४ द्वारा प्र४८ रीछ-" श्रद्धालुना श्राति पदार्थचिन्तनात् "त्यादि. જિનેન્દ્ર દેવ દ્વારા પ્રતિપાદિત જીવાદિ રૂપ તત્તનું જેઓ ગિન્તન કરે છે અને તેમના વચને પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખે છે તેના પર દઢ આસ્થા ( વિશ્વાસ) રાખે છે અને સુપાત્રને દાન આપીને પિતાના ધનને નિરંતર સદુપયોગ કરે છે, અને નિષ્પરિગ્રહી સાધુઓની સેવા દ્વારા જેઓ પોતાની પાપપ્રકૃતિઓને વિખેરતા રહે છે, તેમને શ્રાવક કહે છે. આ પ્રકારનું કથન શ્રાવિકા (वर्ष पर सभा. ॥ सू. २७ ।। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খালাম छाया-चतुर्विधा बुद्धिः प्रज्ञप्ताः, तद्यया-औत्पत्तिकी१, वैनयिकी२, कामिका३, पारिणामिकी । चतुर्विधा मतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अवग्रहमतिः १, ईहामतिः २, अवायमतिः ३, धारणामतिः ४॥ ___अधवा-चतुर्विधा मतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अरञ्जरोदकसमाना १, विदरोदकसमाना २, सरउदकसमाना ३, सागरोदकसमाना ४। ॥ २८॥ टीका-" च उबिहा बुद्धी” इत्यादि-बुद्धिश्चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाऔत्पत्तिकी-उत्पत्तिरेव प्रयोजनमस्या इत्यौत्पत्तिकी, ननु क्षयोपशमो बुद्धयुत्पत्ति प्रति कारणं भवतीति स हेतुरस्या इति क्षयोपशमिक्यपि वक्तुमुचिता, कथं न सोक्तेति चेच्छृणु नहि औत्पत्तिकीमेवबुद्धि प्रति क्षयोपशमो हेतुः, अपि तु सर्वबुद्धिः प्रत्ययं प्रधानो हेतुरिति क्षयोपशमकारणाविवक्षयोत्पत्तिमात्रप्रयोजनं विव कहा गया यह संघ सर्वज्ञके वचनसे भेजी (स्फीत-निर्मल) हुई बुद्धिवाला होता है। अतः अब सूत्रकार बुद्धि की विवेचना करते हैं 'चउविवहा बुद्धी पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र २८ ॥ टीकार्थ-बुद्धि चार प्रकार की होती है जैसी-औत्पत्तिकी वैनयिकी कामिक्ता ३ और पारिणामिकी ४ इनमें जिस बुद्धिका प्रयोजन उत्पत्तिही होती है, वह औलत्तिकी बुद्धि है, इस औत्पत्ति की बुद्धि में ज्ञाना वरणीय कार्यका विशिष्ट क्षयोपशम होता है। शका-क्षयोपशम बुद्धिकी उत्पत्तिके प्रति कारण होता है, तो फिर यही क्षयोपशम है हेतु जिससा, ऐसी क्षायोपशमिकी बुद्धि उसे चमों महीं कही है ? ઉપર્યુક્ત સંઘ સર્વજ્ઞના વચનથી વિશુદ્ધ બુદ્ધિવાળે થાય છે. તેથી वे सूत्रा२ मुद्धिनु नि३५९ ४२ छ. " चउबिहा बुद्धी पण्णत्ता" त्याह Atथ-मुद्धिन नीये प्रमाणे या२ ५४२ ४ छ-(१) मोत्पातिी , (२) वैतविधी, (3) भि, भने (४) पारिभि. २ मुद्धिन प्रयो। यत्तिर હોય છે, તે બુદ્ધિને ઔત્પાતિકી બુદ્ધિ કહે છે. આ ઔત્પાતિકી બુદ્ધિમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મને વિશિષ્ટ ક્ષપશમ થતું હોય છે. શંકા–જે ઔત્પત્તિકી બુદ્ધિની ઉત્પત્તિનું કારણ પશમ હેય, તે તેને ક્ષાપશમિકી બુદ્ધિ કેમ કહી નથી ? જેનું કારણ શોપશમ હોય એવી બુદ્ધિને ઔત્પત્તિકી શા માટે કહી છે? Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ सुधा टीका स्था०४७४ स २८ चतुर्विधवुद्धिस्वरूपनिरूपणम् क्षित्वा औत्पत्तिकीमेवबुद्धिं तद्भेदतयाऽऽह । औत्पत्तिकीवुद्धिहि यथा क्षयोपशममपेक्षते तथा तदन्यच्छास्त्रं वा कर्मवाऽभ्यासादिकं नापेक्षत इति, ____ यद्वा-औत्पत्तिकी बुद्धिः लोकद्वयाऽविरुद्धैकान्तिकफलशालिनी सा यथा बुद्धया बुद्धयुत्पत्तितः पूर्व स्वयमदृष्टोऽपरमुखादनाकर्णितो मनसाऽप्यचिन्तितोऽर्थी यथावत् सद्योऽवबुध्यते, यदाह " पुन्बमदिममुया वेइयत्तक्लणविमुद्धगहियहा। अबाहयफलजोगा बुद्धी उप्पत्तिया नाम ॥ १॥" छाया-" पूर्वमदृष्टाश्रुताविदित तत्क्षणविशुद्धष्टहीतार्था । अव्याहतफलयोगा बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम ॥ १ ॥” इति । उ०-केयल औत्पत्तिकी बुद्धि के प्रति ही क्षायोपशम कारण होता हो ऐसी बात तो नहीं है वह तो समस्त बुद्धियों के प्रति प्रधान कारण होता है, परन्तु यहां जो उसकी विवक्षा नहीं की है उसका कारण उसमें उत्पत्ति मात्र प्रयोजनकी विवक्षा है, यह औत्पत्तिकी बुद्धि क्षायोपशमिक बुद्धिकाही एक भेद है। औत्पत्तिकी बुद्धि जिस प्रकारले क्षार्योपशमकी अपेक्षा रखती है, उस प्रकार से वह अन्य शास्त्रको या अभ्यासादिरूप कर्मकी अपेक्षा नहीं रखती है। यहा-यह औत्पत्तिकी बुद्धि दोनों लोकोमें अविरूद्ध ऐकान्तिक फलवाली होती है। यह अपनी उत्पत्तिके पहिलेही स्वयं अष्ट परके मुखसे अश्रुत और मनसे अचिन्तित ऐसे विषयको यथावत् जान लेती है सोही कहा है-" पुच्चमदिनसुया" इत्यादि । यह बुद्धि पूर्वमें कभी ઉત્તર–કેવળ ઔત્પત્તિકી બુદ્ધિની જ ઉત્પત્તિમાં પશમ કારણભૂત બને છે, એવી કેઈ વાત નથી. પરંતુ તે તે સમસ્ત બુદ્ધિઓની ઉત્પત્તિમાં મુખ્ય કારણરૂપ બને છે. પરંતુ અહીં જે તેનું વૈર્ણન કરવામાં આવ્યું નથી તેનું કારણ એ છે કે તેમાં ઉત્પત્તિ માત્ર રૂપ પ્રજનની જ વિવક્ષા થઈ છે. તે પરિકી બુદ્ધિ ક્ષાપશમિકી બુદ્ધિના જ એક ભેદ રૂપ છે. ઔત્પત્તિકી બુદ્ધિ જેટલા પ્રમાણમાં પશમની અપેક્ષા રાખે છે એટલા જ પ્રમાણમાં અન્ય શાની કે અધ્યાય આદિ રૂપ કમની અપેક્ષા રાખતી નથી. અથવા આ ઔત્પત્તિકી બુદ્ધિ અને લેકમાં ( આલોક અને પરલોકમાં) અવિરૂદ્ધ અને એકાતિક ફલ આપનારી હોય છે. આ બુદ્ધિ અષ્ટ, અદ્ભુત અને અગ્નિતિત વિષયોને પણ યથાર્થ રૂપે જાણી લે છે. કહે છે કે– " पुब्वमदिट्ठमसुया " त्या-पूर्व ४६ी नही देणे, नयी नहीं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे यथा-नटपुत्ररोहकादीनामिति । १ तथा-चैनयिकी-विनयो-गुरुशुश्रुपा, तेन निता वैनयिकी विनयरूपकारणजन्या, यद्वा-विनय एव वैनयिका, विन यादिलाहक, स प्रधानो यस्याः सा वैयिकप्रधाना, सैव वैनयिकी अत्र 'विनाऽपि प्रत्ययं । पूर्वोत्तरपदयो वा लोपो वाच्यः' इति वार्तिकेन प्रधानपदलोपे स्त्रियां ठगन्तत्वाडीपि साधुता वोध्या। ____ यद्वा-कार्यमात्रसाधनसमर्था धर्मार्थकामशासम्मुत्रार्थसारग्रहणवती लोकद्वयफलसम्पन्ना बुद्धि वैनयिकी, यदाहनहीं देखे हुए हानसे कभी नहीं सुने, और मनसे भी कभी नहीं विचारे हुए पदार्थका उसी क्षणमें विशुद्ध रूपले ग्रहण कर लेती है, यह अव्या. हत (सफल) फलबाली होती है, लटपुत्र गोहक आदिकोंके यह बुद्धि हुई है ऐला शास्त्रों का लेख है। गुरुकी शुश्रूषा करना यह विनय है, इस विनयसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह वैनयिकी बुद्धि है अतः यह विलयरूप कारणसे जन्य होती है अथवा-विनयही वैनयिक है विनयसे ठक प्रत्यय करने पर यह " वैनयिक" शब्द बन जाता है यह बिनयही जिसमें प्रधान होता है वहीं बैनयिकी है-बैनयिक प्रधान बुद्धि वैनयिकी है पहा-कार्य मात्रके साधन करने में समर्थ और धर्मशान, अर्थशास्त्र एवं कामशास्त्र इनके नूनोंके अर्थरूप सारको ग्रहण करनेवाली जो लोकलयके फलले सम्पन्न बुद्धि होती है, वह बैनयिकी घुद्धि है। સાંભળેલા અને મનથી કદી નહીં વિચારેલા પદાર્થને પણ આ બુદ્ધિ વિશુદ્ધ રૂપે ગ્રહણ કરી લે છે અને અવ્યાહત (સફલ) ફલવાળી હોય છે. નટપુત્ર રેહકમાં આ પ્રકારની બુદ્ધિને સદૂભાવ હતું. તે હકની ઔત્પત્તિકી બુદ્ધિના કેટલાક દેખાતેં નન્દીસૂત્રમાં આપવામાં આવ્યાં છે. ગુરુની શુશ્રુષા કરવી તેનું નામ વિનય છે. તે વિનયને લીધે જે બુદ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે તે બુદ્ધિને વૈનચિકી બુદ્ધિ કહે છે. તે બુદ્ધિ વિનય કારણથી ઉત્પન થતી હોય છે અથવા વિનય જ નયિક छ विनय इक" प्रत्यय गावाथी " वैनयि" १७४ सने छे. ते વિનય જ જેમાં મુખ્ય રૂપે હોય છે તેને વૈનચિકી બુદ્ધિ કહે છે. એટલે કે વિનયિક પ્રધાન બુદ્ધિ જ વિનવિકી છે. અથવા કાર્યમાત્રને સાધવામાં સમર્થ એવી અને ધર્મશાસ્ત્ર, અર્થશાસ્ત્ર અને કામ શાસ્ત્રનાં સૂત્રોના અર્થ રૂપ સારને ગ્રહણ કરનારી અને બન્ને લેકમાં ફલદાયી એવી જે બુદ્ધિ હોય છે તેને વૈનાયિકી બુદ્ધિ કહે છે. કહ્યું પણ છે કે – Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ सुधा टीका स्था० ४७४ सू०२८ चतुर्विधवुद्धिनिरूपणम् " भरनित्थरणसमत्था त्रिवग्गमुत्तत्थगहियपेयाला । उभओलोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी ।। १॥" छाया-" भरनिस्तरणसमर्था त्रिवर्गमूत्रार्थगृहीतसारा । ___ उभयलोसफलवती विनयसमुत्था भवति बुद्धिः ॥ १ ॥" इति । यथा-नैमित्तिकसिद्धपुत्रशिष्यादीनामिति । २ तथा-कामिका-कर्मणो जाता कार्मिका कर्मजा, तत्र - कर्म अनाचार्य कादाचित्कं वा, शिल्प-साचार्य नित्यव्यापारो वा भवति, कर्मणो जाता बुद्धिः। यद्वा-सा कर्माऽऽग्रहप्राप्तकर्मतत्त्वा कर्माभ्यासपर्यालोचनाम्यां विस्तारमासा प्रशंसाफलशालिनी च, यदाह " उवयोगदिट्ठसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । ___ साहुक्कारफलबई, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ।। १ ।।" सोही कहा है-" भरनित्थरणसमत्थो" इत्यादि । इस गाथा का अर्थ स्पष्ट है यह बुद्धि नैमित्तिकके सिद्धपुत्र और उसके शिष्य आदिकोंके हुई कही गई है जो धुद्धि कमसे उत्पन्न होती है वह कार्मिका घुद्धि है, यहां अना. चार्यक (विना आचार्य) अथवा कादाचित्क या साचार्यक (आचार्य सहित) अथवा नित्यव्यापार ये कर्मशब्दसे लिये गयेहैं, जैसे शिल्प यह साचार्यक है, क्योंकि यह विना गुरूके नहीं आताहै, यहा यह बुद्धि कर्मको सीखनेके आग्रहसे प्राप्त कार्य के सारवाली हो जाती है, और अभ्यास करते २ या उसका विचार करते २ भी यह प्राप्त हो जाती है, हर जगह इस बुद्धिवालेको प्रशंसा प्राप्त होती है । सो ही कहा है-" उवओगदिसारा" इत्यादि। " भरनित्थरणसमत्था " त्या-! प्रानी मुद्धिमत्तना સિદ્ધિપુત્ર અને તેના શિષ્ય વગેરેમાં હતી, એવું શાસ્ત્રોમાં કહેવામાં આવ્યું છે. જે બુદ્ધિ કર્મ દ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે, તે બુદ્ધિને કામિકા બુદ્ધિ કહે છે. અહીં અનાચાર્ય, (વિના આચાર્યના) અથવા કયારેક સાચાયક (આચાર્ય યુક્તતા) અથવા નિત્યવ્યાપાર આપને કર્મ શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. જેમકે શિલ્પકળા એ સાચાર્ય, કમ ગણાય છે, કારણ કે ગુરુની સહાયતા વિના તે કળા શીખી શકાતી નથી. અથવા આ કાર્મિકા બુદ્ધિ એવી હોય છે કે કંઈ કર્મને શીખવાને માટે આગ્રહવાળી હોય છે તેથી સ્વપ્રયત્નથી પણ તે પ્રાપ્ત થઈ જાય છે એટલે કે ગુરુની સહાયતા વિના જાતે જ અભ્યાસ કર્યા કરવાથી અને તે વિષે વિચાર કરવાથી પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ પ્રકારની બુદ્ધિથી સંપન્ન વ્યક્તિની બધે પ્રશંસા થાય છે. કહ્યું પણ છે કે स०-५४ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशा छाया-उपयोगदृष्टसारा कर्मप्रसङ्गपरिघोलन (विचार) विशाला । साधुकारफलवती कर्यसमुत्था भवति बुद्धिः ॥ १ ॥” इति । पया-सुवर्णकार-कृषीवलादीनामिति ३।। तथा-पारिणामिकी-परिणामः-सुचिरकालपूर्वापरार्थदर्शनादि भवआत्मधर्मविशेपः, स प्रयोजनमस्या, यद्वा-परिणामपधाना बुद्धिः पारिणामिकी, यद्वा-अनुमानहेतुदृष्टान्तः साध्यसाधिका वयोविपाके च प्राप्तपरिपुष्टिरभ्युदयनिःश्रेयसफल. शालिनीबुद्धिः पारिणामिकी, यदाह तात्पर्य इसका केवल यही है कि कार्मिका वुद्धिवाला मनुष्य हरएक कार्यमें विशेष पटु होता है, चाहे वह उस कार्यको गुरु आदिकी सहायतासे सीखे, चा विना गुरुकी सहायतासे भी सीखे उस कार्यमें उपयोग लगाने से निरन्तर उसका अभ्यास करते रहने से वह कार्य उसके हाथमें आ जाता है। यह बुद्धि सुवर्णकारोंमें या किसान आदिमें होती है। . जो बुद्धि बहुत दिनों तक पूर्वापर पदार्थों के देखने आदिसे प्राप्त अनुभवरूप आत्मधर्मविशेषसे होती है अथवा-वध आदिके यदने के कारण विशेष अनुभवरूप परिणाम प्रधानतावाली होती है, वह परिणामिकी बुद्धि है, अथवा-अनुमान हेतु दृष्टान्त इनसे साध्यको साधनेवाली एवं चयके परिपक्वमें प्राप्त पुष्टिवाली जो बुद्धि होती है, वह “उवओगविनारा" त्याह--- नो मापा से , કાર્મિક બુદ્ધિવાળે મનુષ્ય દરેક કાર્યમાં વિશેષ પટુ (પ્રવિણ) હેય છે તે તે ગુરુની સહાયતાથી પુણ શીખી શકે છે અને કયારેક ગુરુની સહાયતા વિના પણ શીખી લે છે. તે કાર્યમાં સદા ઉપયુક્ત રહેવાથી તેને જ સદા વિચાર કર્યા કરવાથી, અને તેને અભ્યાસ કરતા રહેવાથી તે કાર્ય કરવાની તેને ફાવટ આવી જાય છે. આ પ્રકારની બુદ્ધિને સદ્દભાત સુવર્ણકારે, ખેડૂતો આદિ કારીગરમાં હોય છે. જે બુદ્ધિ ઘણા દિન સુધી પૂર્વાપર પદાર્થોને દેખવા આદિથી પ્રાપ્ત અનુભવ રૂપ આત્મધર્મ વિશેષથી ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા ઉમર આદિની વૃદ્ધિ થવાને કારણે વિશેષ અનુભવરૂપ પરિમ-પ્રધાનતાવાળી હોય છે, તે બુદ્ધિને પરિણામિકી બુદ્ધિ કહે છે. અથવા–અનુમાન, હેતુ અને દષ્ટાન્ત દ્વારા સાધ્યને સાધનારી અને પરિપકવ ઉમરને કારણે પુષ્ટિયુક્ત બનેલી જે બુદ્ધિ હેય છે Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंबा टीका स्था०४३०४०२८ चतुविधबुद्धिनिरूपणम् अणुमा उदित साहिया वयविवागपरिणामा | यिनिस्सेय सफलवई बुद्धी पारिणामिया नाम । ४॥ छाया - " अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका क्योविपाकपरिणामा । हितनिःश्रेयसफलवती बुद्धिः पारिणामिकी नाम ॥ १ ॥ इति । यथा-अभयकुमारादीनामिति १ | 3 ४२७ ॥ इति बुद्धिसूत्रम् ॥ पूर्व बुद्धिरुक्ता सा च मतिविशेष इति मर्ति निरूपयितुमाह" चा मई " इत्यादि -- मतिः - मननं, सा चतुविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाअवग्रहमतिः- अवग्रहः = सामान्यार्थस्याशेष विशेष निरपेक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपमभृतेः पारिणामिकी बुद्धि है । यह बुद्धि अभ्युदयरूप या निःश्रेयस (मोक्ष) रूप फल से सुशोभित होती है, सोही कहा है- "अणुमा उदित" इत्यादि । अनुमानसे हेतु से एवं दृष्टान्त से अपने अभीष्ट अर्थको सिद्ध करलेनेवाली और धीरे २ जैसे २ वय बढती जाती है, उसके अनुसार प्राप्त विशेष अनुभववाली एवं आत्महितकी साधना में जोड़नेवाली जो बुद्धि होती है वह पारिणामिकी बुद्धि है । यह अभयकुमार आदिकोंके थी उक्त यह वुद्धि मतिविशेषरूप होती है इसलिये अब सूत्रकार उस मतिका निरूपण करते हैं-" चउव्हिा सई " इत्यादि - मनन करनेका नाम मति है, यह मति चार प्रकारकी होती है जैसे- अवग्रहमति १ ईहामति २ अवाघमति ३ और धारणामति ४ जिस ज्ञानसे समस्त તેને પરિણામિકી બુદ્ધિ કહે છે. તે ખુદ્ધિ અભ્યુદય રૂપ અથવા નિઃશ્રેયચ (मोक्ष) ३५ इसथी विभूषित होय छेउ छे - "C अणुमाण छेउ ति " त्याहि--अनुमान द्वारा, हेतु द्वारा, मने દેષ્ટાન્ત દ્વારા અભીષ્ટ અને સિદ્ધ કરનારી અને ધીરે ધીરે ઉમરની વૃદ્ધિ સાથે પિરપકવ અનુભવથી પુષ્ટ થયેલી એવી, આમહિતના સાધનામાં પ્રવૃત્ત કરનારી જે બુદ્ધિ હોય છે, તેને પરિણામિકી બુદ્ધિ કહે છે. આ પ્રકારની બુદ્ધિના સદ્ભાવ અભયકુમાર વગેરેમાં હતા. ઉપર્યુક્ત બુદ્ધિ મતવિશેષ રૂપ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર મતિનુ निपथ रे छे. " चउत्रिहा मई ” त्याहि " ✓ મનન કરવું તેનું નામ મતિ છે. તે મતિના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રાર उद्या ४– (१) अवथड भति, (२) धडा भर्ति, (3) अवाय भति भने (४) ધારણા તિ. જે જ્ઞાન વડે સમસ્ત પ્રકારના વિશેષાની અપેક્ષાથી રહિત એટલે 14 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ स्थानासूत्रे अवेति - प्रथमतो ग्रहणं = परिच्छेदनम् अवग्रहः, स एव मतिरवग्रहमतिः, एवमग्रेऽपि । तथा ईहा मतिः तत्र - ईहाक्षयोपशमतस्तदर्थविशेषपर्यालोचनम् सैत्रमतिरीहामतिः२, तथा अवायमतिः- अवायः क्षयोपशमतः प्रक्रान्तार्थविशेपनिश्चयः स एत्र मतिस्वायमतिः ३, तथा - धारणामतिः- धारणा - क्षयोपशमतो ज्ञातार्थविशेषधरणं सैत्रमविर्घारणामतिः ४ | " 31 उक्तंच—“ सामन्नत्थावगहणमोग्गहो भेयमग्गणमिहेढा । तस्सागोST अविच्चुई धारणा तस्स ॥ १ ॥ छाया - सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहो भेदमार्गणमिदेहा । तस्यावगमोsवायोsविच्युति र्धारणा तस्य ॥ १ ॥ इति एतदबुद्धिमतिसूत्रद्वयस्य विशेषतो विवरणं मत्कृतायां नन्दीमुत्रस्य ज्ञानचन्द्रिकायां टीकायां विलोकनीयम् । ( २ ) । प्रकार के विशेषोंसे निरपेक्ष अतएव शब्दादि द्वारा अनिर्देश्य ऐसे सामान्य रूप से रूपादिकोंका सर्व प्रथम ग्रहण ज्ञान होता है वह अव ग्रहरूपमति है । अवग्रह मति से जाने हुए पदार्थको क्षयोपशमकी विशेपताके अनुसार जो विशेष रूपसे जानती है वह ईहारूपमति है, ईहामति से जाने हुए पदार्थको क्षयोपशमकी विशेषता के अनुसार जो विशेष रूप से निश्चय रूपसे जाननेवाली मति है, वह अवाय रूप मति है ३ | एवं अवायमति से जाने हुए पदार्थको क्षयोपशमके अनुसार अविस्मरणरूप से धारण करनेवाली जो मति है वह धारणामति है ४ | कहा भी है "सामत्यागहण 'इत्यादि इस गाथाका अर्थ स्पष्ट इन वुद्धि और मति विषयक सूत्रोंका विशेष रूप से कथन नन्दीसूत्रकी टीका ज्ञानકે શબ્દાદિ દ્વારા અનિર્દેશ્ય એવા સામાન્ય રૂપે રૂપાદિકાનુ સર્વ પ્રથમ ગ્રહણુ ( ज्ञान ) थाय छे, ते भतिनु नाम आवद्ध भति छे, अत्रग्रह भति द्वारा જે પદાર્થને જાણવામાં આવ્યે હાય તેને ક્ષયેાપશમની વિશેષતા અનુસાર વિશેષ રૂપે જાણનારી જે મતિ છે, તેને ઈહામતિ કહે છે. ઈહામતિ દ્વારા જાળેલા પદાર્થીને ક્ષયૈાપશમની વિશેષતા અનુસાર વિશેષ રૂપે નિશ્ચય રૂપે જાણનારી જે મતિ છે તેને અવાયરૂપ મતિ કહે છે. અવાય માત વડે જાણેલા પદાર્થ ને ક્ષયાપશમની વિશેષતા અનુસાર અવિસ્મરણ રૂપે ધારણ કરનારી જે મતિ છે તેને ધારણા મતિ કહે છે. કહ્યું પણુ છે << सामन्नत्था "त्याहि या गाथाना अर्थ स्पष्ट छे, मामुद्धि અને મતિવિષયક સૂત્રાનું વિશેષ કથન નન્દીસૂત્રની ટીકા જ્ઞાનચન્દ્રિકોમાં કરવામાં આવ્યું છે, તા ત્યાંથી વાંચી લેવું Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०४ सू० २८ चतुर्विधबुद्धिनिरूपणम् પ્રથ " अहवा चउहि मई " इत्यादि - अयत्रा - मतिश्चतुर्विधा प्रज्ञता, तद्यथाअरञ्जरोदकसमाना- अरञ्जरम् - जलघटः, तदलिञ्जरमित्यपि प्रसिद्धम्, तस्मिन् यदुदकं तत्समाना तत्तुल्या मतिः, तत्सादृश्यं च वह्नर्थग्रहणोत्प्रेक्षणधरणाशक्तत्वा दल्पत्वेनाऽस्थिरत्वेन च बोध्यम्, अयं भावः - यथा - अरञ्जरोदकं - स्वल्पपरिमाणं सच्छीघ्रं व्ययमेति तथा-मतिरपि स्वल्पमेवार्थे गृह्णाति उत्प्रेक्षते धरति च शीघ्रमेव चापैतीति तत्सदृशी व्यपदिश्यते इति प्रथमा मतिः १ | तथा-विदरोदकसमानाचन्द्रिकामें किया गया है - अतः वहांसे देख लेना चाहिये " अहवा व्हिा मई" इत्यादि अथवा मति चार प्रकारकी कही गई है । जैसे- अरञ्जरोदक समान १ विदरोदक समान २ सर उदक समान ३ और सागरोदक समान १ अरञ्जर नाम घटका है इसे अलिञ्जर भी कहा जाता है, इसके पानी के जैसी जो बुद्धि होती है वह अरञ्जरोदक समान बुद्धि है, वुद्धि में जो यह अरञ्जरोदक समानता प्रकट की गई है, वह अल्पना और अस्थिरताकी अपेक्षासे प्रकट की गई है, क्योंकि ऐसी बुद्धि ह अर्थ ग्रहण नहीं करती है उसका उत्प्रेक्षण एवं उसकी धारणा भी नहीं करता है, भाव यह है कि जिस प्रकार से अरव्जोदक स्वल्पपरिमाणवाला होता है, और शीघ्रही खर्च हो जाता है उसी प्रकार से ऐसी मति भी स्वल्पही अर्थको ग्रहण करती है उतनेही अर्थका वह विचार करती है और उतनेही अर्धकी वह धारणा करती है एवं शीघ्रता मे नष्ट हो जाती है। इस प्रकार से यह अरब्जोदक जैसी बुद्धिके विषयका Eat at मई " इत्याहि--अथवा भतिना नीचे प्रमाणे यार अकार यागु ह्या छे- (१) सरह समान, (२) विहरोह समान (3) સરક સમાન અને (૪) સાગર।દક સમાન, r · અરજર ' એટલે ડા—તેને અલિંજર પણ કહે છે તેના પાણીના જેવી જે બુદ્ધિ હાય છે, તેને અરજાઇક સમાન બુદ્ધિ કહે છે. ઘડાના પાણીમાં જેવી અલ્પતા અને અસ્થિરતા ડાય છે એવી અલપતા અને અસ્થિરતાવાળી બુદ્ધિને અર’જરાક- સમાન કહે છે. આ પ્રકારની બુદ્ધિ બહુ અને ગ્રહણુ કરતી નથી, તેનુ ઉત્પ્રેક્ષણ અને તેની ધારણા પણુ કરતી નથી. જેમ ઘડાનું પાણી સ્વલ્પ પ્રમાણુવાળું હાય છે અને જલ્દી વપરાઈ જાય એવુ' હાય છે, એ જ પ્રમાણે એવી મતિ પણ સૂત્ર૫ અને જ ગ્રહણ કરે છે, એટલા જ અર્થાંના તે વિચાર કરે છે અને એટલા જ અની તે ધારણા કરે છે, અને શીવ્રતાથી નષ્ટ થઇ જાય છે. આ પ્રકારનુ` અરજોદક સમાન બુદ્ધિતુ' અહીં સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે, 66 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ४३० वरी नदी नदी जलार्थो गर्तः कूषिकादिः जनस्थानविशेषः तस्मिन् यदुदकं समाना यथा-विदरोदकं नद्यादि स्रोतः सम्बन्धे पुनः पुनर्जलमिळितंसदल्पमपि शीघ्रं न व्ययमेति तथा या मतिः स्वल्पाप्यन्यान्यार्यतर्कमात्रकुशला झटिति नापैतीन न्यान्यार्थोहनमात्रदक्षत्वाज्यदित्यव्ययत्वाच्च तत्समाना व्यवहियत इति द्वितीया मवि २ तथा-सर उदकंसमाना- यथा - सरोगतजलं पुष्कळत्वाद्वहु स्वीकरण है। तथा बिदरोदक समान जो बुद्धि होती है वह ऐसी होनी है-विदर नाम उसका है जो नदी के तट आदि पर जलके खड्डा होना है, या कूप आदि जलका स्थान विशेष होता है उसके उदकके जैसी जो बुद्धि होती है वह विदोदक समान वृद्धि है। विदरोदक जिस तरह नदी आदि के स्रोतके सम्बन्धसे पार २ मिल जाने पर स्वल्प होना हुआ भी शीघ्र पयको नाशप्राप्त नहीं होता है, उसी प्रकार जो मस्विप होती हुई भी अन्य अन्य अर्थके तर्क मात्र से कुशल हो जाती है और जल्दी नष्ट नहीं होती है वह विदरोदक समान बुद्धि है । यह विरोदक समान वृद्धि भी यद्यपि मात्रामें अल्प होती है परन्तु अन्य अन्य अर्थ सम्बन्धी कहापोह से तर्क से यह दक्ष हो जाती है, उन २ विषय तर्कणा गवेषणा आदि करते रहने से वह थोड़ी होती ई भी विस्तृत विशाल जैसी ज्ञात होती है, और यह शीघ्र नष्ट भी नहीं होती है इसलिये इसे विदर के उदक जैसा कहा गया है। तालाबका , હવે વિશદક ગમાન બુદ્ધિનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે- વિદુર એટલે નદીના પટમાં ગાળેàા વિરડા ( ખાટા ) અથવા કૂવે. જેમ નદીમાં અચા નીના કિનારે ગાળેલુ ખાટા નદીની સાથે ઘસડાઈ આવતી રેતીને લીધે પૂરાઈ પૂરાઇને નાના અનતે જાય છે પણુ તેમાં પાણીની આય તે ચાલુ જ રહે છે, અને તે શીઘ્ર નષ્ટ થઇ જતેા નથી, એ જ પ્રમાણે જે મતિ સ્વલ્પ હોવા છતાં પણું અન્ય અન્ય અના ( વિષયના ) તા માત્રથી પુષ્ટ ઘની જાય છે, પશુ જલ્દી ના પામતી નથી, એવી મતિને વિદરાદક સમાન કરી છે. આ વિશદક સમાન બુદ્ધિ પણ જો કે અલ્પ માત્રાવાળી હોય છે, પરન્તુ અન્ય અન્ય અર્થ ષયક ઉડાપા (તર્ક) થી દક્ષ થઇ જાય છે. તે વિષયમાં તર્ક, ગવેષભુ! આદિ કરતા રહેવાથી અલ્પ હોવા છતાં પશુ વિસ્તૃત રાય એવી લાગે છે અને શીઘ્ર નાશ પામતી નથી. તેથી તેને વરના પાણી જેવી કર્યું છે. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ.४ सू०२८ चतुर्विधबुद्धि निरूपणम् ४३९ जनानुपकरोति न च शीघ्रं व्ययमेति तथा या मति र्विपुला बहुजनोपकारिणी न शीघ्रमपैति सा प्रचुरत्वाद्बहुजनोपकारित्वाच्छीघ्रव्ययरहितत्वाच्च तत्समानोच्यत इति तृतीया ३ | तथा - सागरोदक समाना - समुद्रगतजलतुल्या- तज्जलं यथा - समस्तरत्नमिलितं पुष्कतमं क्षयरहितमगाधं च भवति तथा या मतिः सर्वपदार्थावगाहिनी जल जिस प्रकार से पुष्कल होता है, और अनेक जनोंका उपकारक होता है एवं शीघ्रता से उसका नाश नहीं होता है, उसी प्रकार जो मति विपुल होती है ज्ञानावरणीय कर्मके अधिकतर क्षयोपशम से युक्त होती है अनेक जनोंका उपकार करती है और शीघ्र नष्ट नहीं होती है ऐसी वह प्रचुर प्रमाणवाली बहुजनोपकारिणी एवं शीघ्रतासे नष्ट नहीं होनेवाली बुद्धि सर उदक समान कही गई है, अरजोदक समान बुद्धि में ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम अल्प मात्रामें रहता है विदरोदक समान बुद्धिमें इसका क्षयोपशम अधिक मात्रामें रहता है, सर उदक समान बुद्धिमें इसका क्षयोपशम अधिकतर रहता है, और जो बुद्धि सागरोदक समान होती है, उसमें ज्ञानावरणीयकर्मका सर्वथा एकान्तिक अत्यन्त विनाश रहता है अतः वह समुद्रोदक समान कही गई है जैसे समुद्रका जल समस्त रश्नोंसे मिलित होता है पुष्कलतम होता है क्षरहित होता है और अगाध होता है । उसी प्रकारसे जो સરઉત્તક સમાન બુદ્ધિ--સરાવર અથવા તળાવ જેમ ખૂખ પાશુીથી યુક્ત ડાય છે, અને તેનુ પાણી અનેક જીવાને ઉપકારક થઇ પડે છે અને તેને જલ્દી નાશ પણ થતા નથી, એ જ પ્રમાણે જે મતિ વિપુલ હાય છે–જ્ઞાના વરણીય ક્રમ ના અધિકતર ક્ષયેાપશમથી યુક્ત હાય છે, અનેક જનને માટે ઉપકારક હાય અને શીઘ્ર નષ્ટ પણ થતી નથી, એવી વિપુલ પ્રમાણુવાળી, બહુજનાપારિણી અને શીવ્રતાથી નષ્ટ નહીં થનારી બુદ્ધિને સરઉદક સમાન કહી છે. અરજોદક સમાન બુદ્ધિમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મોના ક્ષયાપશમ અપ પ્રમાણમાં થયેલા હાચ છે. વિદ્યાક સમાન મતિમાં જ્ઞાનાવરણીય ક્રમના ક્ષર્ચાપશમ અધિક પ્રમાણમાં થયા હાય છે. સરઉદક સમાન મતિમાં તેને ક્ષચેાપશમ અધિકતર માત્રામાં થયે। હાય છે, અને જે સાગરશદક સમાન મતિ હાય છે તેમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મીના અધિકતમ અથવા સપૂર્ણતઃ વિનાશ થયેલા હાય છે. જેમ સમુદ્રનુ' જળ વિપુલ, અગાધ, ક્ષયરહિત અને સમસ્ત રહ્નાથી યુક્ત હાય છે, એ જ પ્રમાણે જે મતિ સમસ્ત પદાર્થીમાં અવગાહિની ડાય Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे विपुलतमाऽक्षीणानाधा च भवति साऽखिलपदार्थविपयतयाऽतिशयितवहुस्वादक्षयत्वादगाधत्वाच सागरोदकसमाना कथ्यत इति चतुर्थी ।४। ॥ मू० २८ ॥ पूर्व मतिरुक्ता, तद्वन्तो जीवा एव भवन्तीति जीवान्निरूपयितुमाह मूलम्-चडबिहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-णेरइया १, तिरिक्खजोणिया २, मणुस्सा ३, देवा ४॥ चउचिहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा मणजोगी १, वइजोगी २, कायजोगी ३, अजोगी । अहवा--बउबिहा सघजीवा पण्णत्ता, तं जहा- इत्थिवेयगा १, पुरिसवेयगा २, णपुंसगवेषगा ३, अवेयगा । ___ अहवा--चउबिहा सबजीवा पण्णत्ता, तं जहा- चक्खुदंसणी १, अचखुदंसणी २, ओहिदंसणी ३, केवलदसणी ४॥ अहवा--चउब्विहा सव्वजीवा एण्णत्ता, तं जहा--संजया १, असंजया २, संजयासंजया ३, णो संजया णो असंजया ४॥ ॥ सू० २९ ॥ छाया-चतुर्विधाः संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैरयिकाः १, तिर्यग्योनिकाः २, मनुष्याः ३, देवाः ।। चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यया-मनोयोगिनः १, वाग्योगिनः २, काययोगिनः ३, अयोगिनः ।। ऐसी मति होती है यह समस्त पदार्थों में अवगाहिनी होती है, उन्हे जाननेवाली होती है । अक्षीण और अगाध होती है इस तरह अखिल पदार्थों को विषय करनेवाली होनेसे अनेक अतिशयोंवाली होनेसे अक्षय एवं अगाध होने से ऐसी बुद्धि को लागरोदक समान कहा गयाहै।सूत्र२८॥ છે, તેમને જણનારી હોય છે, વિપુલતી હોય છે, અક્ષણ અને અગાધ હેય છે, આ રીતે અનેક પદાર્થોને બંધ કરાવનારી તે બુદ્ધિ અનેક અતિશવાળી, અક્ષય અને અગાધ હોવાથી એવી બુદ્ધિને સાગરોદક સમાન કહી છે. એ સૃ. ૨૮ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०२९ जीवस्वरूपनिरूपणम् ४३३ अथवा - चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - स्त्रीवेदकाः १, पुरुषवेदकाः २, नपुंसकवेदकाः ३, अवेदकाः ४ | अथवा - चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा चक्षुर्दर्शनिनः १, अचक्षुर्द - शनिः २, अवधिदर्शनिनः ३, केवलदर्शननः ४ | अथवा - चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - संयताः १, असंयताः २, संयतासंयताः ३, नो संयता नो असंयताः ४ ॥ सू० २९ ॥ टीका - " चउव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा " इत्यादि संसारसमापन्नकाः - संसरणं संसारः - भवाद्भवान्तरगमनं चतुर्विधगतिभ्रमणमित्यर्थः, तं समापन्नाः= प्राप्ताः संसारसमापन्नास्ता एव तथा, जीवाः चतुर्विधाः मज्ञप्ताः, तद्यथा - नैरविका:- नारकाः १, तिर्यग्योनिका :- तिर्यग्योनिभवाः २, मनुष्याः ३, तथा देवाः ४ | इमे चत्वारः स्व स्वकर्मचक्र परिवर्तिता निरयादि भ्रमणसमापन्ना भवन्ति । " सजीवा " इत्यादि - सर्वजीवाः सर्वे च ते जीवाः सर्वजीवाः = सकलपाणिनः चतुर्विधा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - मनोयोगिनः - मनो योगसम्पन्नाः सम उक्त चतुर्विध मतिवाले जीवही होते हैं अतः अब सूत्रकार जीवों की निरूपणा करते हैं-' चव्विहा संसारमावनगा ' इत्यादि सूत्र २९ ॥ टीकार्थ - एक भवसेद्वितीय भवमें गमन करना-नरक तिर्यञ्च आदि प्वार प्रकारको गतियों में भ्रमण करना इसका नाम संसार है । इस संसाररूप स्थानको प्राप्त हुए जो जीव हैं वे संसारसमापनक जीव हैं, ये संसार समापनक जीव संसारी जीव चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-तैरयिक १ तिर्यग्योनिक २ मनुष्य ३ और देव ४ ये सब संसारी जीव अपने २ कर्मरूपी चक्रसे घुमाये गये नरकादि भवको प्राप्त करते हैं " चविवहा सव्वजीवा " इत्यादि - समस्त जीव चार प्रकारके ઉપર્યુક્ત ચાર મતિના સદ્ભાવ છવામાં જ હાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર वन अपारेछे " चउव्हिा संसारसमावन्नग । " त्याहिટીકાથ–એક ભવમાંથી ખીજા ભવમાં ગમન કરવું-નરક, તિર્યંચ આદિ ચાર પ્રકારની ગતિએમાં ભ્રમણુ કરવું તેનુ' નામ સ'સાર છે. તે સ’સાર રૂપ સ્થાનને જે જીવે એ પ્રાપ્ત કર્યુ છે તે જીવાને સસાર સમાપન્નક જીવા અથવા સ‘સારી लवडे छे. ते ससारी कोनां यार प्रहार छे - (१) नैरयि४, (२) तिर्यग्योनिः (3) मनुष्य, अने (४) देव या समस्त सौंसारी को चोतપેાતાના કર્માં રૂપી ચક્ર વડે ભમાવતાં ભમાવતાં નિરયાદિ ભવેામાં ઉત્પન્ન થાય છે " चउन्विद्दा सव्वजीवा " त्याहि- समस्त कवना नीचे प्रमाये यार अठार पडे छे—(१) मनोयोगी मनोयोगवाणा समनस् अवो, (२) बाज्योगी ल - ५५ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ४३४ नस्का: १, एवं वाग्योगिनो-द्वीन्द्रियादयः २, काययोगिन एकेन्द्रियाः ३, अयो गिनः - निरुद्धयोगाः सिद्धाय ४ इति । 'अहदा चउन्निहा सन्चजीवा' इत्यादि - अथवा सर्वजीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञताः, तद्यथा - स्त्रीवेदका १, - पुरुषवेदकाः २, नपुंसकवेदकाः- ये न स्त्रीवेदका न पुरुपवेदारते नपुंसकाः३, तथा - अवेदका :- स्त्री पुंनपुंसकवेदरहिताः सिद्धादयः | ४ | कहे गये हैं जैसे- मनोरोगी मनोयोगवाले समनस्क ? वाग्योगवालेद्वीन्द्रियादिक जीव २ काययोगी - काययोगवाले एकेन्द्रिय जीव ३, और अयोगी-निरूद्ध योगवाले सिद्ध जीव ४, तात्पर्य इस कथनका ऐसा है कि जो जीव मनोयोगवाले होते हैं, वे काय और वचन इन दो योगोंवाले भी होते हैं, अर्थात् जो समनस्क पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवहै, वे तीनों योगवाले होते है तथा जो अमनस्क असंज्ञी जीव हैं उनमें एकेन्द्रियके तो केवल एकही काययोग होता है और जो छीन्द्रिय इन्द्रिय चौइन्द्रिय और अजी पश्चेन्द्रिय जीव हैं, वे वचनयोगी और काययोगी होते है मनोयोगी नहीं होते हैं । तथा योगों से रहित जो जीव होते हैं, वे सिद्ध जीवही होते हैं । इस प्रकार से ये जीवके चार भेद कहे गये हैं ४ अछया चउव्हिा लवजीवा " अथवा सर्व जीव इस तरहसे भी चार प्रकार के होते हैं जैसे- श्रीवेदवाले १ पुरुष वेदवाले २ नपुंसक teers ३ और अवेदक जीव-तीनों वेदसे रहित सिद्ध आदि जीव ४ વાગ્યાવાળા દ્વીન્દ્રિયાક્રિક જીવા, (૩) કાયયેાગી–કાયયેગવાળા એકેન્દ્રિય જીવે અને (૪) અયાગી જીવ-નિરુદ્ધ ચૈાગવાળા સિદ્ધ જીવે. 44 જે જીવા મનાયેાગવાળા હૈાય છે, તેએ વાગ્યેાગ અને કાયયેાગવાળા પથ્રુ હાય છે. એટલે કે જે સમનસ્ક પચેન્દ્રિય પર્યાસ જીવે છે, તે ત્રણે ચેાગવાળા હાય છે, અને જે અમનસ્ક-અસંગી જીવે છે તેમાંના એકેન્દ્રિયાને તે માત્ર કાયાને જ સદ્ભાવ હાવાથી તેએ કાયયેાગી જાય છે, અને શ્રીન્દ્રિયા, ત્રીન્દ્રિયા, ચતુરિન્દ્રિય અને અન્નની પચેન્દ્રિય જીવે કાયયેગી અને વચનયેાગી ઢાય છે, પશુ મનચેગી હાતા નથી. સિદ્ધ જીવામાં ચેાગાના સદ્દભાવ હૈ।। નથી. આ રીતે ચેગને આધારે જીવેાના ચાર પ્રકાર પડે છે. अहवा - चउन्विदा सव्यजीवा " अथवा समस्त लवोना भी प्रभा यार प्रहार पशु परे छे – (१) श्री बेहवाजा, (२) पुरुष देहवाजा, (3) नथुસક વેઢવાળા અને વેદક સિદ્ધ જીવે ત્રણે વેદોથી રહિત હાય છે. "L - · Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ सुंघाटीका स्था०४ उ०४ सू०२९ जीवस्वरूपनिरूपणम् " अहवा चउनिहा सजीवा ” इत्यादि--अथवा सर्वजीवाश्चतुर्विधाः प्राप्ताः, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनिनः-चतुरिन्द्रियादयः १, तथा-अचक्षुर्दर्शनिनः-स्पर्शनादिदर्शनवन्तः एफेन्द्रियादयः २, तथा-अवधिदर्श निनः-शकेन्द्रादयः ३, तथाकेवलदर्शनिनः-ऋषभादयः ।। ____ अहवा चउन्विहा सन्मजीवा ' इत्यादि-स्पष्टम् , नवर-समताः-पञ्चमहाव्रतधारिण:-सर्वविरताः १, तथा-असंयता:-अविरताः २, तथा-संयतासंयता:संयतायतेऽसंयतास्तथा देशविरताः ३, तथा-नो संयता नो असंयताः सर्वविरताविरत-देशविरतभिन्नाः सिद्धाः ४॥ मू० २९ ।। 'पूर्व जीवाः उक्ताः तदधिकाराज्जीवान्तर्गतपुरुषविशेषानिरूपयितुंचतुःसूत्री माह। मूलम्---वत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--नित्ते णाममेगे मित्ते १, भिन्ते णासंमेगे आमित्ते २, अमिते णामलेगे मिले ३, असित्ते णाममेगे अमिते ४। (१) ____ " अहवा चउबिहा सव्वजीवा " अश्या इस तरहसे भी सर्व जीव चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-चक्षुर्दर्शनवाले-चौहन्द्रियादिक जीव १ तथा अचक्षुर्दर्शनवाले जीव-स्पर्शन आदि दर्शनवाले एकेन्द्रियादिक जीव २ अवधि दर्शनचाले शक्रेन्द्रादि जीव ३ और केवल दर्शनवाले ऋषभ भगवान आदि ४ । __ " अहवा चउविवहा सधजीवा" इत्यादि अथवा सर्व जीव चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-संयन-पश्च महाप्रतधारी-सर्व विरतिघाले जीव १ तथा-असंयन जीव-अविरतजीव २ संयतासंयत जीव-देशविरतिवाले जीव ३ और नो संयत नो असंयत जीव सर्वविरत अविरत देशविरत इनले भिन्न सिद्ध जीव ॥ खू० २९ ।। “अहवा च उबिहा सव्वजीवा" अथवा समस्त वाना मा प्रभारी पर या२ प्र४२ ५४ छ-(१) यक्षुश नव-यतुरिन्द्रिय माwिal. (२) અચક્ષુદર્શનવાળા જી-સ્પર્શેન્દ્રિય આદિથી યુક્ત પણ ચક્ષુદર્શનથી રહિત એવા એકેન્દ્રિયાદિક . (૩) અવધિદર્શનવાળા શબ્દ આદિ છે અને કેવલદર્શનવાળા ઋષભ ભગવાન આદિ " अहवा चउबिहा सव्वजीवा" अथ समस्त जवान। म प्रभारी ચાર પ્રકાર પણ પડે છે–સંત-પંચ મહાવ્રતધારી સર્વ વિરતિવાળા જ (૨) અસંયત છે એટલે કે અવિરત જી, (૩) સંયતાસંયત છે એટલે કે ઉપરના ત્રણ પ્રકારોથી ભિન્ન એવા સિદ્ધ છે. જે સૂ. ૨૯ છે Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे वारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -- मित्ते णाममेगे मित्त १, उमंगो ४ । ( २ ) चारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा -मुत्ते गासमेगे मुत्ते १, मुत्ते णाममेगे अशुत्ते ४, ( ३ ) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--मुत्ते णाममेगे मुतरू ४|| ४ || सू० ३० ॥ छाया - चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मित्रं नामैको मित्रं १, मित्रं नामैकोsमित्रम् २, अमित्रं नामैको मित्रम् ३, अमित्रं नामैकोऽमित्रम् १ | ( १ ) चारि पुरुषजातानि प्रज्ञतानि तद्यथा - मित्रं नामैको मित्ररूपः चतुर्भङ्गी ४/२) चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तथा-मुक्तो नामैको मुक्तः मुक्तो नामै - कोमुक्तः ४ । (३) 9 ४३६ चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मुक्तो नामैको मुक्तरूपः ४ (४) ।। सू० ३० ॥ टीका - " चत्तारि पुरिसजाया " इत्यादि -- स्पष्टेयं चतुःसूत्री, नवरम्एकः पुरुषः पूर्वमिदलोकोपकारित्वान्मित्रं भवति, स एव पुनः परलोकोपकारित्वादमित्रं भवति, यथा सद्गुरुः । इति प्रथमः १ । इन कथित जीवोंके अन्तर्गत जो पुरुष विशेष हैं, उनका अब चार सूत्रों द्वारा सूत्रकार कथन करते हैं 'चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ३० ॥ टीकार्य - पुरुषजात चार कहे गये हैं जैसे- मित्र मित्र मित्र अमिश्र २ अमित्र मित्र ३ और अमित्र अमित्र ४ इनमें प्रथम भंगके मनुष्य वे हैं जो जीवोंका इस लोक सम्बन्धी कल्याण करते हैं, और परलोक सम्बन्धी भी कल्याण करते हैं । अर्थात् इस लोक में तुम्हारी भलाई ઉપર્યુક્ત જીવામાં જેમના સમાવેશ થાય છે એવા પુરુષ વિશેષાનુ હવે सूत्रभर प्यार सूत्रों द्वारा निश्ययु ४रे छे. "चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता" इत्याहिटीडार्थ-पुरुषाना नीथे प्रभा यार प्रहार उद्या - (1) मित्र-भित्र, (२) मित्र-अभित्र, (3) अभित्र-भित्र अने (४) अभित्र अमित्र. પહેલા પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ—જે જીવે આ લેાકમાં પણ આપણું કલ્યાણુ કરે છે અને પરલેાકમાં પણ આપણું કલ્યાણ કરે છે, એટલે કે પેાતાના સદ્ગુ પુદેશ દ્વારા આલેાકમાં આપણું કલ્યાણુ કેવી રીતે થઈ શકે છે એ પણ મતાવે Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्राटी स्था. ४ उ. ४.३० जीवान्तर्गत पुरुषविशेषनिरूपणम् ૪૭ तथा - एकः पुरुषः पूर्वं स्नेहवत्त्वान्मित्रं भवति, किन्तु पश्चात् स परलोकसाधनविघातकत्वादमित्रं भवति, यथा पुत्रकळत्रादिः । इति द्वितीयः |२| तथा-एकः पुरुषः प्राक् प्रतिकूलत्वादमित्रं भवति, स एव पथाद्वैराग्यभाग्यभाजनीकरणेन परलोकसाधन सहायकत्वान्मित्रं भवति यथाऽविनीतकलत्रादिरिति तृतीयः ३ | तथा - एकः पुरुषः प्रतिकूलत्वात् पूर्वमप्यमित्रं संक्लेशहेतुत्वेन दुर्गतिनिमित्तत्त्रात् पश्चादप्यमित्रमेत्र भवति, यथा - अविनीतपुत्रकलत्रप्रभृतिरिति चतुर्थः ४ (१) कैसे हो सकती है । यह बात अपनी देशनासे प्रकट कर उपकारी होते हैं और परलोक में भी तुम्हारी भलाई कैसे हो सकती है । यह करकर परलोकके निमित्त भी उपकारी होते हैं, ऐसे वे जीव सद्गुरु होते हैं । द्वितीय अंगके मनुष्य वे हैं, जो पहिले तो इस लोक स्नेही होकर 'मित्र होते हैं, पर वेही परलोक सम्बन्धी हितकारी साधनोंके विघातक होने के कारण अमित्र शत्रु हो जाते हैं, जैसे पुत्र स्त्री आदि जन । तृतीय भंग के मनुष्य वे हैं जो पहिले प्रतिकूल होनेसे अमित्र होते हैं और बेही फिर द वैराग्य योग्य बना देनेके कारण परलोक सुधारने में सहायक बन जाने से मित्र बन जाते हैं, जैसे- अविनीत केल आदि जन । और चतुर्थ भंग मनुष्य वे हैं जो प्रतिकूल होने से पहिले છે, અને પરલેાકમાં પણ આપણું કલ્યાણુ કેવી રીતે થાય તે બતાવે છે, તેવા જીવાને આ પહેલા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. સદ્ગુરુ જ આ પ્રકારના હાય છે. ખીજા પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણુજે જીવે આલેકમાં તે આપણે નેડી બનીને આપણું હિત કરનારા હાય છે, પણ પરલેાકના હિતના વિઘાતક હાય એવાં જીવાને મિત્ર અમિત્ર રૂપ ખીજા પ્રકારમાં ગણાવી શકાય છે. જેમકે પુત્ર, શ્રી આદિને આ ભાંગામાં મૂકી શકાય. भी अमित्र रहता ત્રીજા પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ—જે જીવા પહેલાં પ્રતિકૂળ હાવાને કારણે અમિત્ર રૂપ હોય છે, પણ તેમને કારણે જ આપણને સૌંસાર પ્રત્યે વૈરાગ્યભાવ ઉત્પન્ન થતા હોવાને કારણે, આપણા પરભવ સુધારવામાં જેએ કારણુભૂત અને છે, એવા જીવાને ત્રીજા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. જેમકે અવિનીત પત્ની, પુત્ર દિને આ પ્રકારના જીવા ગણી શકાય છે. ચાથા ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણુ—જે જીવે પહેલાં પણ પ્રતિકૂળ હાવાથી અમિત્ર રૂપ હોય છે, અને પાછળથી પણ સ’કલેશ પરિણામેાના ઉત્પાદક Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ स्थानास्त्र तथा- चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि-एको मित्रम्-अन्तःस्नेहकृत्त्या मुहसवति स पुनर्वायोपचारकरणात् मित्ररूप-मुहदाकारी भवति १, तथाएको मित्रमन्तच्या, किन्तूपरिण्टान्मित्रोपचाराकरणादमित्ररूपः-शत्रुरूपो भवतीति द्वितीयः । तथा-एकोऽमित्रम्-गात्रुःस्नेहरहितत्वात्सपुनर्मित्ररूपः-मुह दाकारो भवतीति तृती? ३, तधा-एकोऽमित्रममित्ररूपश्च भवतीति चतुर्थः।४।(२) है और संक्लेश परिणामोंका हेतु होकर बादमें भी दुर्गतिका निमित्त हो जानेसे अमित्र होता है । जैसे अविनीत पुत्र कलन आदिजन ४ ___ पुनश्च-" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुरूपजात चार कहे गये हैं -जैसे-मित्र मित्ररूप १ मित्र अमित्र रूप २ अनित्र मित्र रूप ३ और अभिन्न अमित्र रूप ४। इनमें कोई एक मनुष्य ऐसा होता है, जो भीतरमें भी स्नेह वृत्तिवाला होता है, एवं बाह्य में भी प्रेम रूप प्रवृत्ति या व्यवहार आदि करनेकी प्रवृत्ति उत्तम रखता है। वह मित्र मित्ररूप मनुष्य है ११ कोई एक मनुष्य ऐसा होता है, जो अन्तरङ्गकी वृत्तिले तो मित्र होता है, पर घायमें ऊपरसे वह मित्रके योग्य उपचार करनेकी वृत्तिले रहित होताहै, अतः वह शनुरूप प्रतीत होताहै । कोई एक मनुष्य ऐसा होताहै जो वास्तव में अन्तरङ्गमें रहसे तो शून्य होना है पर ऊपरी व्यवहार से सुलत होनेका ढोंग करताहै। હેવાને કારણે દુર્ગતિના નિમિત્ત રૂપ હોવાને કારણે અમિત્ર રૂપ જ રહે છે, એવાં અવિનીત પુત્ર, પત્ની આદિને આ ચેથા પ્રકારમાં મૂકી શકાય છે. " चत्तारि पुरिसजाया" त्यादि-मा प्रमाणे पाय या२ पु२५ प्र! छे-भत्र-भित्र३५, (२) मित्र-मभित्र३५, (3) ममत्र-भित्र३५ भने (४) मभित्र-भित्र३५. હવે આ ચારે ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–(૧) કોઈ એક મનુષ્ય એ હેાય છે કે જેના હૃદયમાં આપણા પ્રત્યે સારો પ્રેમ હોય છે અને તેને બાહ્ય વ્યવહાર, હાવભાવ આદિ પ્રવૃત્તિ પણ નેહપૂર્ણ જ હોય છે એવા મનુષ્યને મિત્ર-મિત્રરૂપ કહી શકાય છે. (૨) કઈ માણસ એ હોય છે કે જેના હૃદયમાં તે આપણા પ્રત્યે સનેહ હોય છે, પણ તેનું બાહ્ય વર્તન મિત્રને ગ્ય નહીં હોવાથી તે અમિત્રરૂપ લાગે છે. (૩) કેઈ એક મનુષ્ય એવો હોય છે કે જેનું હૃદય વાસ્તવિક સ્નેહ વિનાનું હોય છે, પણ તેના બાહા વર્તનને કારણે–નેહના દંભને કારણે તે આપણને મિત્રરૂપ લાગે છે. (૪) કેઈ એક મનુષ્ય આન્તરિક અને બાહ્ય બને રૂપે સનેહ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीकास्था०४३०४ सू०३० जीवान्तर्गतपुरुषविशेषनिरूपण तथा-' चत्तारि पुरिसजाया ' इत्यादि-स्पष्टम् नवरम्-एकः पुरुषः मुक्तः= द्रव्यतः परिवर्जितसङ्गो भवति, स पुनर्मुक्त:-भावतः सङ्गरहितत्वात् त्यक्ताऽऽ. सक्ति भगति, यथा-सुसाधुरिति प्रथमः ।। ___ तथा-एकः पुरुषो मुक्तो-द्रव्यतस्त्यक्तराङ्गो भवनपि साऽऽसक्तिकत्वादमुक्तो भगति यथा रखः । इति द्वितीयः । तथा-एको द्रव्यतोऽमुक्तो भवन्नपि मारतन्तु सुक्तः त्यक्ताऽऽसक्तिभवति, यवा-राज्यावस्थोत्पत्रके वलज्ञानसम्पन्नो भरतचकपीति तृतीयः ३। तथा-एकोऽमुक्तोसवन पुनरमुक्त एव तिष्ठतीति यथा और कोई एक मनुष्य ऐसा होता है, जो दोनों भी रूपसे-अन्तरङ्ग रूपले और यहिरंग रूपसे अमित्रही बना रहताहै ४। यह सब कथन आपेक्षिका है। पुनश्च-" चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुरुषजात चार कहे गयेहैं जैसे-कोई एक पुरुष ऐसा होता है, जो द्रव्य और भाव दोनों रूपसे परिग्रहका त्यागी होताहै जैसे-सुसाधु-चारित्रसंपन्न मुनि ऐसा वह पुरुष मुक्त मुक्त कहा गया है, क्योंकि ऐसा पुरुष द्रव्यकी अपेक्षा भी सङ्गका त्यागी होता है, और भावकी अपेक्षा भी आसक्ति रूप-लमेदं रूपं (यह रूप मेराहै) सूच्छाभावका स्थागी होताहै ११, कोई एक पुरुष ऐला होताहै जो केवल द्रव्यकी अपेक्षासेही त्यागी होता है, भावकी अपे. क्षाले त्यागी नहीं होता है जखे-रजन २। कोई एक मनुष्य ऐसा होता है, जो द्रव्यकी अपेक्षाले त्यक्त लगवाला नहीं होता है, पर વિહીન જ હોવાને કારણે અમિત્ર-અમિત્ર રૂપ લાગે છે. આ સમસ્ત ४थन मापेक्षित छ. । “पत्तारि पुरिसजाया " त्या प्रमाणे ५ या२ पुरुष प्र४३॥ કહા –(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે બને રૂપે દ્રવ્યની અને ભાવની અપેક્ષાએ પરિગ્રહનો ત્યાગી હોય છે. જેમકે સુસાધુ ચારિત્રસંપન્ન મુનિ આ પ્રકારના હોય છે. એવા પુરુષને અહીં મુક્ત-મુક્ત કહ્યો છે, કારણ કે એ પુરુષ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ સંગને (પરિગ્રહને) ત્યાગી હોય છે અને ભાવની અપેક્ષાએ પણ આસક્તિ રૂપ મૂરછભાવથી રહિત હોય છે “આ મારૂ છે ” એ ભાવ તે જીવમાં હોતો નથી. ' (૨) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પરિગ્રહને ત્યાગી હોય છે, પરું ભાવની અપેક્ષાએ પરિગ્રહને ત્યાગી હોતું નથી. જેમકે ગરીબ માસ. (૩) કોઈ એક પુરુષ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પરિગ્રહને ત્યાગી હોતું નથી, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ % D स्थानास्त्रे रङ्कः । इति चतुर्थः ४। यद्वा-पूर्वापरकालमपेक्ष्येदं सूत्रं विवरणीयम् । यथाएका पूर्व द्रव्यतो मुक्तः पश्चाद्भावतोऽपि मुक्तो भवतीत्यादिरीत्या ।(३)। ___ वथा-चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि-पुन: पुरुपजातानि चत्वारि यथाएकः पुरुप आसक्तिरहिततया मुक्तो भवन्नपि वैराग्यपिशुनाकारतया युक्तरूपःमुक्तरयेव रूपं यस्य स तथा भवति नतु वास्तविकमुक्तः, यथा-यति:-स हि पुत्रा. दिसारहितोऽपि वैराग्यसूचकसाधुरूपमात्रधारको नतु युक्तो मुक्तवद्रप. धारकः इति प्रथमः । भावकी अपेक्षासे त्यक्त सङ्गवाला होता है, जैसे राज्यावस्थामें उत्पन्न हुए केवल ज्ञानवाले भरत चक्रवर्ती ३॥ कोई एक मनुष्य ऐसा होता है जो द्रव्य और भाव इन दोनों की अपेक्षाओले त्यक्त सङ्गवाला नहीं होता है, जैसे रङ्कजन । अथवा-इस सूत्रका व्याख्यान पूर्व अपर कालकी अपेक्षासे भी व्याख्या शुक्त कर लेना चाहिये, जैसे कोई एक पुरुष ऐसा होताहै, जो पहिले समय में भी द्रव्धकी अपेक्षा मुक्त रहता है, और बाद में भी वह द्रव्यकी अपेक्षा मुक्त रहता है इत्यादि - - फिरभी "चत्तारि पुरिसजाया" इत्यादि-पुरुष जात इस प्रकारसे भी चार कहे गये हैं जैसे-कोई एक मनुष्य ऐसा होता है, जो आसक्तिसे रहित होनेसे मुक्त होता हुआ भी वैराग्यसूचक आकारसे मुक्तके जैसे रूपवाला होताहै, वास्तविक वह मुक्त नहीं होता है। जैले यतिजन પણ ભાવની અપેક્ષાએ પરિગ્રહને ત્યાગી હોય છે. જેમકે જેમને રાજ્યમાળ દરમિયાન કેવળજ્ઞાન થયું હતું એ ભરત ચક્રવતી (૪) કેઈ એક પુરુષ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ પરિગ્રહને ત્યાગી હોતું નથી અને ભાવની અપેક્ષાએ પણ પરિગ્રહને ત્યાગી હોતું નથી. જેમકે રંકજન આ સૂત્રને પૂર્વાપર કાળની અપેક્ષાએ પણ આ પ્રમાણે સમજાવી શકાય. (૧) કેઈ એક પુરુષ પહેલાં પણ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ મુક્ત (અપરિગ્રહીમચ્છમાવ રહિત) રહે છે, અને પછી પણ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સુક્ત જ રહી છે બાકીના ત્રણ પ્રકારે પણ એ જ પ્રમાણે સમજી લેવા. ____चत्तारि पुरिसजाया " त्यादि-मा प्रमाणे या पुरुष ५४.२ ४al --(૧) કોઈ એક પુરુષ એ હોય છે કે જે આસક્તિથી રહિત હોવાને કારણે મુક્ત હોય છે, અને વૈરાગ્ય સૂચક આકાર, વેષ આદિને કારણે મુક્તના જેવા રૂપવાળે (લક્ષણવાળા) હોય છે, પણ વાસ્તવિક રીતે તે મુક્ત હોતે Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीपा स्था०४३०४ सू०१० जीवात्तर्गतपुरुषविशेषनिरूपणम् ४४१ .. तथा-एको मुक्का-त्यक्तसङ्गो भवन्नपि अमुक्तरूपः अमुक्ताऽऽकारः वरतु तस्तु मुक्त एव भवति यथा-गृहस्थावस्थायां श्री महावीरः । इति द्वितीयः। तथा-एकोऽमुक्तासाऽऽसक्तित्वान्न मुक्तो भवति किन्तु स मुक्तरूपः-मुक्ता ऽऽकारो भाति, यथा कपटीसाधुरिति तृतीयः ३ । तथा-एकोऽमुक्तोऽमुक्तरूपश्च भवति, यथा गृहस्थ इति चतुर्थः ४। (४) मू० ३०॥ जीवाधिकारात् पञ्चेन्द्रियसिर्यग्मनुष्यान्निरूपयि सूत्रद्वयमाह मूलम् - पंचिदिय .. तिरिक्खजोणिया चउगईया घउआगईया पण्णता, तं जहा-पंचिंदियतिरिक्खजोणिया पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उक्वजमाणा गैरइएहिंतो वा तिरिक्ख. जोणिएहिंतो वा अणुस्सेहिंतो वा देवेहिंतो वा उववजेजा, से चेवणं से पंचिंदियतिरिक्व जोणिए पंचिदियतिरिक्खजोणियत्तं ये यतिजन पुत्रादिरूपसे रहित होते हुए भी केवल ऊपरसेही साधु. रूपमात्रके धारक होते हैं, मुक्त हुएकी तरह रूपके धारक नहीं होते हैं । कोई एक पुरुष ऐसा होता है, त्यक्त सङ्गवाला होता हुआ भी अमुक्त रूपवाला होना । अमुक्तके जैसे आकारवाला होता है, जैसेगृहस्थावस्थामें श्री महावीरस्वामी थे २।। कोई एक मनुष्य ऐसा होताहै,जो आसक्तिवाला हो वह मुक्त तो होता नहीं है, किन्तु मुक्तके आकारवाला होताहै जैसे कोई कपटयुक्त यति । और कोई एक मनुष्य ऐसा होताहै, जो अमुक्त हुआ ही अमुक्तके जैसे रूपदाला होता है, जैसे गृहस्थजल ४॥ सू० ३०॥ નથી. જેમકે યતિજન તેઓ પુત્રાદિ રૂપ સંગથી રહિત હોવાને કારણે માત્ર બાહા દષ્ટિએ જ સાદુરૂપના ધારક હોય છે પણ વાસ્તવિક રીતે મુક્તરૂપ હોતા નથી. (૨) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે ત્યક્ત સંગવાળા હોવા છતાં પ અમુક્ત રૂપવાળે-મુક્તન જેવા આકારવાળો હોય છે. જેમકે ગૃહસ્થાવસ્થામાં મહાવીર સ્વામી આ પ્રકારના પુરુષ હતા. (૩) કોઈ પુરુષ એ હોય છે કે જે આસક્તિવાળો હેવાથી મુક્ત તે હોતો નથી, પણ મુક્ત જે દેખાતો હોય છે જેમકે કઈ કપટી યતિ (૪) કેઈ એક મનુષ્ય એ હોય છે કે જે અમુક્ત હોય છે અને અમુક્ત જે જ દેખાય છે જેમકે ગૃહસ્થજન. | સૂ. ૩૦ છે Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બર स्थानाने विप्पजहसाणे णेरइयत्ताए वा जाव देवत्ताए वा उवागच्छज्जा, मणुल्ला चउगईया चउआगईया, एवं चेव मणुस्सावि ॥सू०३१॥ छाया-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि काश्चतुर्गतिकाश्चतुरागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु उपपद्यमाना नैरयिकेभ्यो वा तिर्यग्योनिकेभ्यो वा मनुष्येभ्यो वा देवेभ्यो वा उपपधेरन् , तेषामेव खल सपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पञ्चन्द्रियतियग्योनिकत्वं विप्रनहत् नैरयिकतया पायावत् देवतयायोपागच्छेत् , मनुष्याश्चतुर्गतिकाश्चतुरागतिकाः एवमेव मनुष्याअपिासू०३२॥ टीका-पंचिदियतिरिक्खजोणिया' इत्यादि-सूत्रद्वय स्पष्टम् , नवरपश्चेन्द्रियाश्च ते तिर्यग्योनिकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, नैरयिकतया वा यावत्' इत्यत्र यावत्पदेन ' तिर्यग्योनिकतया, मनुष्यतये '-ति सङ्ग्राह्यम् ॥ मू० ३१॥ जीवाधिकाराद द्वीन्द्रियान् असमारभमाणस्य समारभमाणस्य च संयमा. संयमान् निरूपयितुं सूत्रद्वयमाह मूलम्-वेइंदियाणं जीवा असमारभमाणस्स चउविहे संजमे कज्जइ, तं जहा-जिब्भामयाओ सोक्खाओ अववरोवित्ताभवइ१, जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवइ २, फासमयाओ सोक्खाओ अवरोवेत्ता भवइ ३, फासमएणं दुक्खेणं असंजो जीवके अधिकारको लेकर ही अप स्सूत्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्योका निरूपण करने के लिये दो सूत्र कहते हैं टीकार्थ-पंचिदिय तिरिक्खजोणिया इत्यादि' सूत्र ३१ ॥ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च-चारों गतिमें आनेवाले और चारों गतियोंसे आकर पञ्चेन्द्रियतिर्यश्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले होते हैं-इत्यादि रूपसे इस दूधकी व्याख्या सुगम है ।। सू० ३१ ॥ જીવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર પંચેન્દ્રિય તિયા અને મનુષ્યનું નિરૂપણું કરવા નિમિત્ત બે સૂત્રો કહે છે. “पंचिंदियतिरिक्स्यजोणिया" त्या:ટીકાર્થ–પંચેન્દ્રિય તિર્યંચે ચારે ગતિમાં ગમન કરનારા હોય છે અને ચારે ગતિઓમાંથી આવીને પતિય તિર્યંચામાં ઉત્પન્ન થનારા હોય છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ હોવાથી અહીં વધુ વિવેચન કરવાની જરૂર નથી. છે સૂ. ૩૧ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधास्था.उ.४५ ३२द्वीन्द्रियान् असमारम-लमारभमाणस्यलयमासंनि ४४३ गेत्ता भवइ ४, वेइंदियार्ण जीवा समारममाणस घडविहे असंजमे कज्जइ, तं जहा--जिभामयाओ सोरखाओ बवरोवित्ता भवइ, १, जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगिता भवइ २, फालमयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ ३, फालमएणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवइ ४ ॥ सू० ३२॥ छाया-द्वीन्द्रियान् खलु जीवान असमारभमाणस्य चतुर्विधः संयमः क्रियते, तद्यया-जिहामयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता भवति ? जिहामयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति २, स्पर्शमयात् सौख्यात् अव्यपरोपयिता भवति ३, स्पर्शमयेऽन दुःखेन असंयोजयिता भवति । द्वीन्द्रियान् खलु जीवान् समारभमाणस्य चतुर्विधोऽसंयमः क्रियते, तद्यथा-जिहामयात् सौख्यात् व्यपरोपयिता भवति १, जिह्वामयेन दुःखेन संयोजयिता भवति २, स्पर्शमयात् सौख्यात् व्यपरोप. यिता भवति ३, स्पर्शमयेन दुःखेन संयोजयिता भवति ४ ॥ सू० ३२ ॥ टीका-' वेइंदियाणं इत्यादि-स्पष्टम् , नवर-द्वीन्द्रियान् जीवगन् असमारभमाणस्य-अविराधयतश्चतुर्विधः-चतुष्पकारः सयमः क्रियते-विधीयते, तद्यथा-जिहामयात्-सौख्यात्-रसास्वादनजन्यमुखात् अव्यपरोपयिता-द्वीन्द्रि___जीवके अधिकारको लेकरही अब सूत्रकार द्वीन्द्रिय जीवोंकी विराधना नहीं करनेवाले जीरके और उनकी विराधना करनेवाले जीवके संयम असंयमकी निरूपणा दो सूत्रसे करते हैं___ 'बेइंदियाणं जीवा असमारभमाणस्स' इत्यादि सूत्र ३२॥ टीकार्थ-दो इन्द्रिय जीवोंकी विराधना नहीं करनेवाला जीव चार प्रकारका संयम करताहै । जैसे-वह उनका जिहा सम्बन्धी सुखका अवियोग करनेवाला होता है, अर्थात्-जो जीव द्वीन्द्रिय जीवकी विराधना नहीं करता है वह उन्हें रसना इन्द्रिय जन्य सुखसे रसास्वादनसे जायमान सुखसे જીવને અધિકાર ચાલુ છે તેથી હવે સૂત્રકાર હીન્દ્રિય જીવોની વિરાધના નહીં કરનારા સંયમી જીવના સંયમનું અને તેમની વિરાધના કરનારા અસંયમી જીના અસંયમનું બે સત્ર દ્વારા નિરૂપણ કરે છે "वे इंदियार्ण जीवा असमारभमाणस्स" त्याहટીકાર્થ-દ્વીન્દ્રિય જીવોની વિરાધના નહીં કરનારે જીર ચાર પ્રકારનો સંયમ કરે છે–(૧) તે તેમના જિહુવા સંબંધી સુખનો વિયોગ કરનારે હોતે નથી એટલે કે જીવ દ્વીન્દ્રિય જીવોની વિરાધના કરતો નથી, તે તેમને રસનેન્દ્રિય જન્ય સુખથી (રસાસ્વાદથી પ્રાપ્ત થતાં સુખથી) વંચિત કરતું નથી, Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ গ্রানাই यान जीयान् अविनाशयिता-अवियोजयिता भाति १, जिह्वामयेन दुःखेन असंयोजयिता भवतीत्यर्थः ।२। स्पर्शमयात् सौख्यादव्यपरोपयिता भवति ३, स्पर्शमयेन दुःखेनासंयोजयिता भवति ४ इनि चतुर्विधः संयमः। द्वीन्द्रियान् जीवान् समारभमाणस्य चतुर्विधोऽसंयमो यथा-जिहामयात् सौख्याद् व्यपरोपयिता भवति १ जिहामयेन दुःखेन संयोजयिता भवति , स्पर्शमयात् सौख्याद् व्यपरोपयिता भवति ३, स्पर्शमयेन दुःखेन संयोजगिता भनति ४ । ।स० ३२।। वंचित नहीं करताहै। यदि वह ऐसा करता है, तो बह-उनकी चिराधना करता है । तथा-जिहांमय दुःख से वह उनका असंयोजयिता होताहै । इमी तरहले वह उनके स्पशन इन्द्रि के सुखका अवियोग करनेवाला होता है ३ और स्पर्शन इन्द्रियके दुरवसे वह उनके संयुक्त करानेवाला नहीं होता है । इस प्रकार वह उनके स्पर्शन और रसना इन्द्रियके सुखका अविध्वंसक होने से इनके दुःखका संयोजक नहीं होनेसे संघमका पात्र बनताहै, और जब वह द्वीन्द्रिय जीवोंकी विराधना करता है, तब वह चतुर्विध असंयमका पात्र होता है-वह जय उनकी जिहाके सुखका व्यपरोपण करनेवाला होताहै, १ जिहाके दुःखसे उन्हें संयोजित करता है, २ स्पर्शके सुखसे उन्हे व्यपरोपित करता है एवं स्पर्शनेन्द्रियको दुःख पहुचे ऐसा कार्य जब वह करता है, तो इस प्रकारकी उनके प्रति की गई प्रवृत्तिप्से यह उनका विराधक होनेसे चार એથી ઊલટું તેમને આ પ્રકારના સુખથી વંચિત કરનાર જીવ તેમને વિરાધક ગણાય છે. (૨) તે જિહુવાના દુખથી તેમને સોજીત કરતો નથી એટલે કે તેમને જિહવાથી રહિત કરીને દુખી કરતા નથી. (૩) તે તેમના સ્પર્શેન્દ્રિયના સુખને અવિયેગ કરનારે હોય છે એટલે કે તેમને સ્પર્શેન્દ્રિયજન્ય સુખથી વંચિત કરનારો હેતે નથી (૪) તે તેમને સ્પર્શેન્દ્રિયના દુઃખથી યુક્ત કરનારે પણ હોતો નથી આ પ્રકારે તે તેમના સ્પર્શેન્દ્રિય અને રસનેન્દ્રિયજન્ય સુખને અવિધ્વંસક હોવાથી તેમના દુખનો સોજક નહીં હેવાથી સંયમી ગણવાને ચગ્ય બને છે. કીન્દ્રિય જીવોની વિરાધના કરનારે જીવ ચાર પ્રકારનો અસંયમ સેવે છે–(૧) તે તેમની જિહવા સંબંધી સુખથી તેમને વંચિત કરનાર હોય छ, (२) ते तभने सिवाना हुथी सात (युत) ४२ छ. (3) ते તેમને સ્પર્શ સંબંધી સુખથી વંચિત કરનારો હોય છે. (૪) અને તેમને પન્દ્રિય સંબંધી દુઃખથી સંયેજીત કરનારે હોય છે આ ચાર પ્રકારે તેમની વિરાધ કરનારે જીવ ચાર પ્રકારના અસંયમથી યુક્ત થવાને કારણે Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४५०४ सु०३३ नैरविकादिजीवानां क्रियानिरूपणम् ४४५ जीवाधिकारादेव सम्यग्दृष्टीनां नैरयिकादीनां जीवानां क्रिया निरूपयितुमाह मूलम् - सम्मद्दिट्टियार्ण रइयाणं चत्तारि किरियाओ, पण्णत्ताओ, लं जहा- आरंभिया १, परिग्गहिया २, मायावत्तिया ३. अपञ्चकखाणाकिरिया ४ | सम्मद्दिष्ट्रियाणमसुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओं पण्णत्ताओ, तं जहा एवं चेत्र, एवं विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं ॥सू०३३॥ छाया - संम्यग्दृष्टीनां नैरयिकाणां चतस्रः क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - आरमिकी १, पारिग्रहिकी २, मायाप्रत्ययिकी ३, अप्रत्याख्यानक्रियाः ४ | 3 सम्यग्दृष्टीनामसुर कुमाराणां चतस्रः क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- एवमेव एवं विकलेन्द्रियवर्ज यावत् वैमानिकानाम् ॥ ०३३ ॥ टीका - " सम्मद्दिट्टिया णं " - सम्यग्दृष्टीनां नैरयिकाणां नारकाणां जीवानां चतस्रोऽनुपदं वक्ष्यमाणाः क्रियाः प्रज्ञप्ताः, मिध्यात्वक्रियाया विरहात्, तद्यथाआरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानक्रिया ४: । प्रकार के असंयमका पात्र होता है । इस कथनका सारांश ऐसा है कि दो इन्द्रिय जीवके स्पर्शन और रसना ये दोहो इन्द्रियां होती हैं - उनकी इन दो इन्द्रियोंको किसी भी तरहसे कष्ट न पहुँचे ऐसी प्रवृत्ति करनेवाला और उन दो इन्द्रियोंको आरामही पहुंचे ऐसी प्रवृत्ति करनेवाला जीव चार प्रकार के संयमका और उनके प्रतिकूल प्रवृत्ति करनेवाला जीव चार प्रकार के असंयमका पात्र होता है । सू० ३२ ।। } arah अधिकारको लेकरही अब सूत्रकार सम्यग्दृष्टि नैरचिक जीवों की क्रियाका निरूपण करते हैं - અસયમી ગણાય છે. આ કથનના ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-ટ્વીન્દ્રિય જીવાને જીલ અને સ્પર્શે ન્દ્રિય, આ છે ઇન્દ્રિયા જ હાય છે. તેમની આ એ ઇન્દ્રિયાને કાઈ પણ પ્રકારે કષ્ટ ન પહેાંચે અને તેમને આરામ જ મળે એવી પ્રવૃત્તિ કરનાર જીવને ચાર પ્રકારના સયમને પાત્ર ‘ ગણ્યા છે અને એમને પ્રતિકૂળ થઈ પડે એવી પ્રવૃત્તિ કરનાર જીવને ચાર પ્રકારના અસયને પાત્ર કહ્યો છે. સૂ, ૩૨ જીવતા અધિકાર ચાલુ હાવાથી હવે સૂત્રકાર સમ્યગ્દૃષ્ટિ નૈરયિક જીવૅાની छियानुं निश्चयु अरे छे. " सम्मदिट्ठियाणं नेरइयाणं " त्याह Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ যালাই "सम्मधिष्ठियाणमसुरकुमाराणं " इत्यादि-स्पष्टम् , नवरय्-एवम् नरयिकाणामित्र, विकलेन्द्रियवर्ज-विकलेन्द्रियाः-एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजीवाः, तान् वर्जित्वा-विहाय अनुरकुमारेभ्य आरभ्य वैमानिकपर्यन्तानामारम्भिक्या दयश्चतस्रः क्रियाः किन्तु मिथ्यादर्शनमत्ययिकी क्रियामाश्रित्व पश्चापि क्रिया भवन्ति ।। सू० ३३ ।। पूर्व क्रिया उक्ताः तद्वान् जीवः विद्यमानान् गुणान्नाशयति असतःगुणान् प्रकटयति चेति प्रदर्शयितुं सूत्रद्वयमाह मूलम् -चउहिं ठाणेहिः संते गुणे नासेज्जा, तं जहा-- कोहेणं१,पडिनिवेसेण२, अकयण्णुयाए३,मिच्छत्ताभिनिवेसेण४,१) चउहि ठाणेहिं असंतेगुणे दीवेज्जा, तं जहा-अभासवत्तियं परच्छन्दाणुवत्तियं २, कजहेउं३,कयपडिकइयेइ ४वा (२)सू०३४॥ टीकार्थ-सम्मद्दिष्टियाणं नेरहयाण' इत्यादि सूत्र ३३॥ जो सम्यग्दृष्टि नैरयिक हैं, उनके चार क्रियाएँ होती है-वे इस प्रकारसे हैं-जैसे-आरम्भिकी १ पारिग्रहिकी २ माया प्रत्ययिकी ३ और अप्रत्यख्यान क्रिया यहां मिथ्यात्व क्रिया नहीं होती है। सम्यग्दृष्टि असुरकुमारोंके भी येही पूर्वोक्त चार क्रियाएँ होती हैं। यहां पर भी मिथ्यात्व क्रिया नहीं होतीहै। तथा येही चार क्रियाएँ एकेन्द्रिय दोइन्द्रिय. तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवोंको छोडकर चाकीके वैमानिक पर्यन्त जीवोंको होती हैं ऐसा जानना चाहिये विकलेन्द्रिय जीवोंको मिथ्याष्टि होनेसे चार क्रियाएँ नहीं होती हैं किन्तु मिथ्या. दर्शन प्रत्ययिकी क्रियाको आश्रित करके पांचों भी क्रियाएँ होती हैं।मु.३३॥ ટીકાઈ-સમ્યગુદષ્ટિ નારકમાં ચાર પ્રકારની ક્રિયાઓને સદૂભાવ હેય છે, તે यार ४३। नीये प्रमाण छे-(१) भारम्मिश्री, (२) पारिश्र, (3) माया પ્રત્યકિ અને અપ્રત્યાખ્યાન ક્રિયા, તેમનામાં મિથ્યાત્વ ક્રિયાને સદુભાવ હેતું નથી. સમ્યગ્દષ્ટિ અસુરકુમારમાં પણ ઉપર્યુક્ત ચાર ક્રિયાઓને જ સદ્દભાવ હોય છે. તેમનામાં પણ મિથ્યાત્વ ક્રિયાને અભાવ હોય છે તથા આ ક્રિયાઓનો સટ્ટભાવ એકેન્દ્રિય, હીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય સિવાયના વિમાનિક પર્યાના છમાં પણ હોય છે. વિકલેન્દ્રિય જી મિથ્યાદષ્ટિ જ હોય છે, તે કારણે તેમનામાં પૂર્વોક્ત ચાર ક્રિયાઓને તે સદૂભાવ હોય છે જ, પણ તે ઉપરાંત भिध्याशन प्रत्याय लियाना ५ सदमा डाय छे. ॥ सू. ३३ ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०३३ नैरयिकादिजीवानां क्रियानिरूपणम् ४४७ छाया-चतुर्भिः स्थानः सतो गुणान् नाशयति, तद्यथा-क्रोधेन १, प्रति. निवेशेन २, अकृतज्ञतया ३, मिथ्यात्वाभिनिवेशेन च। (१) चतुर्भिः स्थानैरसतो गुणान् दीपयति, तद्यथा-अभ्यासप्रत्ययं १, परच्छन्दानुत्तिकं २, कार्यहेतोः ३, कृतप्रतिकृतितेति ४ (२) ॥३४॥ टीका-' चउहि ठाणेहिं ' इत्यादि चतुर्भिः-वक्ष्यमाणैः स्थान:-कारणैः जीवः सतो-विद्यमानान् गुणान् नाशयति, तद्यथा-क्रोधेन १, तथा-प्रतिनिवेशेन अहङ्कारेण ' अयं पूज्यतेऽहे. तुने ' त्येवं परसत्काराऽसहनरूपेण २, तथा-अकृतज्ञतया परकृतोपकारविस्म. उक्त क्रियाशाली जीव विद्यमान गुणोंको नष्ट कर देता है और दूसरोंमें अविद्यमान गुणोंको प्रगट करता है यही घात अब सूत्रकार प्रकट करते हैं-'चउहि ठाणेहि संते गुणे नालेज्जा' इत्यादि सूत्र३४ ॥ टीकार्थ-चार कारणोंसे जीव विद्यमान गुणोंका नाश करताहै जैसे क्रोधले १ प्रतिनिवेशसे २ अकृतज्ञनासे ३ और मिथ्यात्वाभिनिवेशसे ४ इनमें क्रोध यह कषायहै, क्षमाके विपरीत जितनी भी आत्माकी विकृ. तिरूप परिणति है वह क्रोधहै १ प्रतिनिवेश नाम अहङ्कारका है " यह विनाही कारणके माननीय हो रहा है " इस प्रकारकी जो परके सत्का. रको असहन करनेरूप जो वृत्ति है वह अहङ्कारहै ।२ दूसरेके किये हुए उपकारको भूल जाना इसका नाम अकृतज्ञता है ३ और मिथ्यादर्शनके પૂર્વોક્ત ક્રિયાશાલી જી વિદ્યમાન ગુણોને નાશ કરી નાખે છે અને અન્ય જીવોમાં જે ગુણો વિદ્યમાન ન હોય તેનું તેમનામાં આરોપણ કરે છે. એ જ વાત સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે " चउहिं ठाणेहि संते गुणे नासेज्जा" त्याल ટીકાઈ–નીચેના ચાર ગુણને લીધે જીવ વિદ્યમાન ગુણેને નાશ કરે છે– (१) धन १२, प्रतिनिवेशने ॥२0, (3) तज्ञताने १२, (४) મિથ્યાત્વ અભિનિવેશને કારણે ફોધ કષાયરૂપ છે, ક્ષમાથી વિપરીત એવી આત્માની જે વિકૃતિરૂપ પરિણતિ છે તેને કોઈ કહે છે. પ્રતિનિવેશ એટલે અહંકાર. કોઈને માન મળતું જોઈને મનમાં આ પ્રકારની વૃત્તિ ઉત્પન્ન થવી કે “આ માણસ વિના કારણું માનનીય બની રહ્યો છે, તેનું નામ અહંકાર છે. આ અહંકારને લીધે અન્યને સત્કાર આદિ સહન થતું નથી. અન્ય દ્વારા કરવામાં આવેલા ઉપકારને ભૂલી જવાં, તેનું નામ અકૃતજ્ઞતા છે. મિથ્યાદર્શનના ઉદયથી જે Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ स्थानामसूत्र रणेन ३, तथा-मिथ्यात्वाभिनिवेशेन-मिथ्यात्वात्-मिथ्यादर्शनोदयाद योऽभिनिवेश आग्रहस्तेन बोधविपर्यासेन, उक्तश्च-" रोसेण पडि निवेसेण तहय अकयण्णुमिच्छमावेण । ___ संतगुणे नासित्ता भासइ अगुणे असते वा ॥१॥ छाया-रोषेण प्रतिनिवेशेन तथैवाऽकृतज्ञमिथ्याभावेन । सद्गुणान् नाशयित्वा भापतेऽगुणानसतः ॥१।। इति । (१) " चउहि ठाणेहिं असंते " इत्यादि-चतुर्भिः स्थानः परस्यासतो गुणान् दीपयति, तद्यथा-अभ्यासमत्ययम्-अभ्यासः-गुणवर्णनकरणस्वभावः स प्रत्ययोनिमित्तं यत्र गुणदीपने तदभ्यासमत्ययं, यतोऽभ्यासान्निविपयाऽपि निष्प्रयोजनाऽपिच प्रवृत्तिर्भवतीति लोके दृश्यते १, तथा-परच्छन्दानुवृनिक-परच्छन्दस्य अन्यजनाभिप्रायस्पानुत्तिः-अनुगमनं यत्र दीपने तत् परच्छन्दानुत्तिक दीपनम् २ उदयसे जो अभिनिवेश आग्रह होता है उसका नाम मिथ्यात्वाभि निवेशहै ४ यह मिथ्यात्वाभिनिवेश बोधसे उल्टा होता है कहा भी है"रोलेणं पडिनिवेसेण" इत्यादि। जीव रोप-क्रोधसे प्रतिनिवेशसे अकृतज्ञतासे और मिथ्यात्वभावसे विद्यमान गुणों को नष्ट करके दूसरोके अविद्यमान दुर्गुणोंको प्रकट करता है ॥ १ ॥ जीव चार कारणोंसे परके असत् गुणोंको प्रकाशित करता है, और उन्हे चढा बढाकर कहता है-वे चार कारण ये हैं-अभ्यासप्रत्यय १ परच्छन्दानुवृत्तिक २ कार्य हेतु ३ और कृतप्रतिकृतिता ४ (२) जिस गुणवर्णनमें गुणवर्णन करनेका स्वभाव कारण होताहै,वह गुणदीपन अभ्यास प्रत्ययहै क्योंकि अभ्याससे विना विषयके भी और विना प्रयोजनके भी लोकमें प्रवृत्ति होती देखी जाती है । तात्पर्य यह है कि આભિનિવેશ-દુરાગ્રહ ઉત્પન્ન થાય છે તેને મિથ્યાત્વાભિનિવેશ કહે છે. આ મિથ્યાત્વાભિનિવેશ બોધથી ઉટે હોય છે કહ્યું પણ છે કે – "रोसेणं पडिनिवेसेण" त्यादि "७१ धथी, म रथी, अकृतज्ञતાથી અને મિથ્યાત્વભાવથી વિદ્યમાન ગુણને નષ્ટ કરીને અન્યના અવિદ્યમાન દશાને પ્રકટ કરે છે. જીવ ચાર કારણેથી અન્યના અવિદ્યમાન ગુણેને પ્રકટ કરે છે અથવા તેમને વધારી વધારીને કહ્યા કરે છે. तयार ४।२२। नीय प्रमाणे ४i छ-(१) अश्यास प्रत्यय, (२) ५२२७न्हानुवृत्ति:, (3) आयतु भने (४) ततितिता જે ગુણવર્ણનમાં ગુણવર્ણન કરવાને સ્વભાવ કારણભૂત હોય છે, તે ગુણપ્રકાશનને અભ્યાસ પ્રત્યય (અભ્યાસ રૂપ કારણથી યુક્ત) ગુણપ્રકાશન કહે છે, કાર કે ટેવને કારણે પ્રજન વિના પણ ક્યાં આવી પ્રવૃત્તિ થતી Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ सू०३४ विद्यमानगुणनाशाविधमानगुणप्रकटम् ४४९ तथा-कार्यहेतोः- कार्यमेव हेतुः कार्यहेतुस्तस्मात्-स्वाभिलपित-कार्यसाधनाय परमनुकूलयितुं परस्यासतो गुणान् दीपयतीत्यर्थः ३, तथा-कृतपतिकृतेति-केनचिज्जनेन कस्यचिदुपकृतं स तस्योपकर्तुरसतोऽपि गुणान् प्रत्युपकाराथउत्कीर्तयतीति कृतप्रतिकृतिः तस्याभाव कृतमतिकृतितेति हेतोः ॥४॥३४॥ जिनमें जो गुण नहीं हैं, उनका वहां पर कथन करना यह बात अभ्या. ससे भी होती है । जैसे चारण आदिकोंमें यह बात पाई जाती हैं उनका स्वभावही कुछ ऐसा होता है कि जिससे वे असत् गुणोंका अतिशय रूपसे वर्णन किया करते हैं। तथा जिस असत्-गुणकथन में दूसरे जनके अभिप्रायका अनुगमन (पीछे चलना) कारण होता है, वह परच्छन्दानुवृत्तिक दीपन है २ । इस परच्छन्दानुवर्तनमें गुणदीपन कर्ताका ऐसा भाव रहता है कि दूसरोंने इनके गुणों का वर्णन कियाहै, अतः हमें भी इसके गुणोंका वर्णन करना चाहिये । तथा एक गुणदीपन ऐसा होता है जो अपने अभिलषित कार्यको सिद्ध करनेके लिये किया जाता है, इससे वह अपने अनुकूल हो जाता है। और फिर अभिलषित कार्य सिद्ध करा लिया जाता है, और असत् एक गुणदीपन ऐसा होता है, जो अपने उपकारीजनके प्रत्युपकारके निमित्त किया जाता है, इसीका नाम प्रतिकृतिता है । मू० ३४ ॥ જોવામાં આવે છે. એટલે કે જે લોકોમાં જે ગુણોને સદૂભાવ ન હોય તે ગુણોનું આરોપણ કરવાનું કાર્ય અભ્યાસથી પણ થઈ શકે છે. ચારણ વગેરેમાં આ પ્રકારને અભ્યાસ લેવામાં આવે છે. તેમને સ્વભાવ જ એ હોય છે કે અવિદ્યમાન ગુણાનું વ્યક્તિ માં આરોપણ કરીને તેની અતિશક્તિ ભરી પ્રશંસા કરવાની તેમને ફાવટ આવી ગઈ હોય છે જે ગુણકથનમાં અન્યના અભિપ્રાયને જ અનુસરવામાં આવે છે એવા ગુણકથનને પરછાનુવૃત્તિક કહે છે. આ પ્રકારે અન્યના ગુણેને પ્રકટ કરનારની વૃત્તિ એવી હોય છે કે બીજા લેકે તેના ગુણોની પ્રશંસા કરે છે, તે મારે પણ એમ જ કરવું જોઈએ. (૩) કોઈ વખત પિતાના ઈચ્છિત કાર્યને પાર પાડવા માટે પણ અન્યના અવિદ્યમાન ગુણેને પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે તે વ્યકિતને પિતાને અનુકૂળ બનાવી દઈને ધાર્યું કાર્ય તેની પાસે કરાવી લેવાય છે. (૪) પિતાનો. ઉપકાર કરનાર પ્રત્યે કૃતજ્ઞતાને ભાવ પ્રકટ કરવા માટે પણ તેના અવિદ્યમાન शाने प्र४८ ४२पामा मावे छे. तेतुं नाम १ प्रतितिता छे. ॥ सू. ३४ ॥ स्था-५७ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाक सूत्रे पूर्वं सद्गुणनाशता सद्गुणदीपने उक्ते, ते च जीवस्य शरीरोत्पत्तिनिर्वृत्ती विना न सम्भव इति शरीरोत्पनिनि चिकारणानि निरूपयितुमाहमूलग्रइयाणं चउहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्तीसिया, तं जहा- कोहेणं १, माणेणं २, मयाए ३, लोभेणं ४, एवं जाव माणियाणं । रयाणं चउहिं ठाणेहिं निवत्तिए सरीरे पण्णत्ते, तं जहाकोहनिव्वत्तिए जात्र लोभनिव्वत्तिए, एवं जाव वैमाणियाण सू. ३५। छाया - नैरयिकाणां चतुर्भिः स्थानैः शरीरोत्पत्तिः स्यात् तयथा - क्रोधेन १, मानेन २, मायया ३, लोभेन ४ । एवं यात्रत् वैमानिकानाम् । नैरयिकाणां चतुर्भिः स्थानेः निर्वर्तितं शरीर मज्ञप्तम्, तद्यथा-क्रोधा निर्वर्तित यावत् लोभनिर्वर्तितम् एवं यावद वैमानिकानाम् ॥ ३५ ॥ टीका -- चउहि ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती' इत्यादि - चतुर्भिः अनुपदं वक्ष्यमाणैः क्रोधादिभिः चतुभिः स्थानेः - कारणैः शरीरोत्पत्तिः स्यात्, तद्यथा- क्रोधेन १, मानेन २, मायया ३, लोभेन ४ चेति, इह क्रोधादयः कर्म ४५०. सद्गुणों का नाश और असद्गुणों का दीपन ये दो बातें जीवको जब तक शरीर की उत्पत्ति या उसकी निवृत्ति नहीं हो जाय, तब तक नहीं होती हैं, अतः अब सूत्रकार शरीरकी उत्पत्ति और निर्वृत्तिके जो कारण उनका निरूपण करते हैं- 'णेरयाणं चउहिं ठाणेहिं' इत्यादि नैरथिकोंके चार कारणोंसे शरीरकी उत्पत्ति होती है, जैसे-क्रोध से १ मानसे २ मायासे ३ और लोभसे ४ इसी तरहका कथन यावत् वैमानिक जीवोंके भी जानना चाहिये । यहां जो क्रोधादिकोंको शरीरोत्पत्तिका हेतु कहा गया है, उसका कारण ऐसा है कि क्रोधादिक कर्म સદ્ગુણુાના નાશ અને અસદ્ગુણ્ણાનું (અવિદ્યમાન ગુણ્ણાનું) પ્રકાશન, આ છે વાત જ્યાં સુધી જીવના શરીરની ઉત્પત્તિ અથવા તેની નિવૃત્તિ થઈ ન જાય ત્યાં સુધી સ‘ભવતી નથી. તેથી હવે સૂત્રકાર શરીરની ઉત્પત્તિ અને નિવૃત્તિના જે કારણેા છે તેનું નિરૂપણ કરે છે. (( 'रइयाण चउहि ठाणेहि " इत्यादि નારકાને ચાર કારાને લીધે શરીરની ઉત્પત્તિ થાય છે. (૧) ક્રોધથી, (२) भानथी, (3) भायाथी भने (४) सोलथी. મા પ્રકારનું કથન વૈમાનિક પર્યન્તના જીવેા વિષે પણ સમજવું, અહીં જે કોષ આદિને શરીરશત્પત્તિમાં કારણરૂપ ગણ્યા છે, તેનું કારણ એ છે કે Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०४४०४५०३४ विद्यमानगुणनाशाविद्यमानगुणप्रकटम् ४५१ वन्धनहेतवः, कर्म च शरीरोत्पत्तिनिमित्तमिति शरीरोत्पत्तिकारणी-भूतकर्मणः कार्यस्य कारणीभूतेषु क्रोधादिषु चतुर्दा शरीरोत्पत्तिकरणत्वमुपचर्य शरीरोत्पत्ति कारणतया क्रोधाधुपादानमिति । "चउहिं ठाणेहिं निमात्तिए " इत्यादि-स्पष्टम्-नवरम्-निर्वतितं-निष्पादितं, कैस्तदित्यपेक्षायामाह-चतुर्भिः क्रोधादिभिरिति यद्यपि क्रोधादिनिर्वतितं कर्मतनिर्वतितं शरीरं तथाऽपि शरीरनिर्वतनकारणकारणे शरीरनिर्वर्तनकारणत्वमुपचय शरीरनिर्वर्तनकारणतया क्रोधाधुपादानम् इत्याशयेनाह- क्रोध पन्धनके हेतु होते हैं और कर्म शरीरोत्पत्तिमें निमित्त होताहै, इसलिये शरीरकी उत्पत्तिका कारणभूत जो कर्म है, उस कार्यभूत कर्मके कारण क्रोधादिक चारोंमें शरीरोत्पत्तिके कारणत्वका उपचार करके उन्हें शरीरोत्पत्तिका कारण कहा गया है। ____“च उहि ठाणेहिं निव्वत्तिए " इत्यादि--चार कारणोंले निर्वर्तित शरीर कहा गया है वे चार कारण ये हैं-जैसे क्रोधसे निर्मिती यावत् लोभसे निर्तित । इसी तरहका कथन यावत् वैवानिकोंके जानना चाहिये । यद्यपि क्रोधादिकोंसे निर्वर्तित कर्म होता है, और कर्म से नि तित शरीर होता है, फिर भी जो यहां क्रोधादिकसे निर्तित निष्पा. दित शरीरको कहा गया है, यह शरीर निर्वतनके कारण जो कर्म हैं उन कर्मों के कारण जो क्रोधादिक हैं, उनमें शरीर निवननके प्रति कारणताका उपचार करके उन मोधोदिकोंका कारणरूपसे उपादान ક્રોધાદિક કર્મબન્ધનના હેતુરૂપ હોય છે અને કર્મ શરીરત્પત્તિમાં નિમિત્ત રૂપ હોય છે. તેથી શરીરની ઉત્પત્તિના કારણભૂત જે કર્મ છે તે કાર્યભૂત કર્મના કારણરૂપ ક્રોધાદિક ચારેમાં શરીરોત્પત્તિના કારણત્વને ઉપચાર કરીને તેમને જ (ક્રોધ, માન, માયા અને લેભને) જ શરીરત્પત્તિનાં કારરૂપ अपामा मावस छ. " च उहि ठाणेहि निव्वत्तिए " त्याह શરીરને ચાર કારથી નિર્વર્તિત (નિષ્પાદિત) કહ્યું છે તે ચાર કાગશે नीचे प्रमाणे छ-(१) अषयी नि1ि , (२) भानथी नितित, (3) भायाथी નિર્વર્તિત અને (૪) લેભથી નિર્વર્તિત. આ પ્રકારનું કથન વિમાનિકે પર્યન્તના સમસ્ત જી વિષે પણ સમજવું છે કે કોધાદિ કે વડે નિર્વર્તિત કર્મ હોય છે અને કર્મ વડે નિર્વર્તિત શરીર હોય છે, છતાં પણ અહી શરીરને કોધાદિકથી નિર્વર્તિત (નિષ્પાદિત) કહેવાનું કારણ એ છે કે શરીર નિર્વતનને કારણભૂત જે કર્યો છે તે કર્મોના કારણભૂત જે ક્રોધાદિકે છે, તેમાં શરીર Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ 'स्थांना सूत्रे 7 निति इत्यादि यावत्पदेन माननिर्वर्तितं मायानिर्वर्तितं इति पदद्वयं ग्राह्यं तथा-लोभनिर्वर्तितम् (ननु पूर्व मुत्पत्तिरुक्तेन तत्रैवास्यापि गतार्थतास्पादेव पृथनिरृत्ति कथनं किमर्थमिति चेच्छ्रयताम् तत्रोत्पत्तिशब्देनाऽऽरम्भोगृह्यतेऽत्र निवृत्तिशब्देन तु निष्पत्तिर्गृह्यत इति तयोर्भेदो बोध्यः ||३५|| पूर्व क्रोधादयः शरीरहेतव उक्ताः क्रोधादिनिग्रहास्तु ध प हेतवः इति धर्म' द्वाराणि निरूपयितुमाह つ मूलम् - चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं जहा खंती १, मुत्ती अजवे ३, मदवे ४ ॥ सू० ३६ ॥ २, छाया - चत्वारि धर्मद्वाराणि मज्ञप्तानि तयया - क्षान्तिः १, मुक्ति: २, आज ३, मार्दवम् ४ ॥ भ्रू० ३६ ॥ - किया गया है, यहां यावत्पदसे मान निर्वर्तिन और माया निर्वर्तित इन पदोंका ग्रहण हुआ है । शंका -- पहिले जो उत्पत्ति कही गई है, सो उसके ही कहने से क्रोध निर्वर्तित आदि शरीरका कथन हो ही जाता है, फिर इसे स्वतन्त्र रूपसे कहने की क्या आवश्यक्ता हुई ? उ०- - पहिले जो उत्पत्तिका कथन किया गया है सो वहां उत्पत्ति शब्दसे आरम्भ मात्र गृहीत हुआ है, और यहां निर्वर्तित शब्दसे निष्पत्ति गृहीत हुई है इसलिये दोनोंका पृथक् रूपसे कथन किया गया है || सू० ३५ ॥ क्रोधादिकों में शरीर हेतुताका कथन करके अब सूत्रकार क्रोधादिकोका निग्रह धर्मका हेतु है, इस अभिप्राय से धर्मद्वारोंका निरूपणकरते हैं નિવૃતન પ્રત્યે કારણુતાના ઉપચાર કરીને તે ધાદિકાને કારણ રૂપે ગ્રહણુ કરવામાં આવેલ છે. શકા—પહેલાં જે શરીરેાત્પત્તિનું કથન કર્યુ છે, તે કથન દ્વારા જ ક્રોધ નિવર્તિત આદિ શરીરનું કથન તેા થઇજ ગયું છે, છતાં અહી' તેનું સ્વતંત્ર રૂપે કથન કરવાની શી આવશ્યકતા છે ? ઉત્તર—પહેલાં જે ઉત્પત્તિનું કથન કર્યુ છે, તથા ઉત્પત્તિ શરીર વડે માત્ર આરભ જ ગૃહીત થયેા છે, અને અહી નિતિન શબ્દ વડે નિષ્પત્તિ ગૃહીત થઈ છે તેથી બન્નેનું અલગ અલગ રૂપે કથન કરવામાં આવ્યું છે. સૂ. ૩૫ ક્રોધાદિકાને જ શરીરાત્પત્તિના કારણભૂત ખતાવીને હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરવા માગે છે કે ક્રોધાદિકેશને નિગ્રહ જ ધર્મના હેતુ રૂપ છે. તેથી Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सुंधा टीका स्वा० ४ ९०४ ०३६ धर्मद्वारनिरूपणम् છું કે " टीका – “ चत्तारि धम्मदारा " इत्यादि - धर्मस्य - श्रुतचारित्रलक्षणस्य द्वाराणि - द्वाराणीव द्वाराणि-द्वारसशानि- उपायभूतानि चत्वारि वस्तूनि प्रज्ञप्तानि तानि कानि ? इत्यपेक्षायामाह - तद्यथेत्यादि - क्षान्तिः - क्षमा आक्रोशादिश्रवणेऽपि क्रोधत्यागः - क्रोधोदय निरोधः १, तथा - मुक्ति : - मोचनं मुक्तिःवाह्याभ्यन्तरवस्तुषु तृष्णाविच्छेदः २, तथा - आर्जवम् - ऋजुता = सरलता - माया राहित्यम् ३, तथा-मार्दत्रं - मृदुता - मानपरिहारः ४ ॥ सू० ३६ ॥ पूर्व क्षान्त्यादीनि धर्मद्वाराणीत्युक्तानि, साम्प्रतमारम्भादीनि नारकत्वादिसाधनकर्मद्वाराणि निरूपयितुमाह मूलम् - चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - महारंभयाए १, महापरिग्गहयाए २, पंचिदियवणं ३, कुणिमाहारेणं ४ (१) 'चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ३६ ॥ टीकार्थ - धर्मके द्वार चार कहे गये हैं- जैसे- क्षान्ति १ मुक्तिर आर्जव ३ और मार्दव । तचारित्र रूप धर्म है, यह प्रकट किया जा चुका है, ऐसे धर्म के द्वारके जैसे-द्वार ये क्षान्ति आदि हैं । आक्रोश आदिके सुनने पर भी क्रोध का त्याग होना क्रोधकी उत्पत्ति नहीं होना इसका नाम क्षान्ति है, बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं में तृष्णाका विच्छेद होना इसका नाम मुक्ति है । माघापूर्ण व्यवहार करनेका त्याग होना अर्थात् आत्मामें ऋजुना या सरलता आना, इसका नाम आर्जव है, और मानका परिहार करना मृदुताका आना इसका नाम सार्दव है | स्व० ३६ ॥ हवे सूत्रपरधर्मं द्वारानुं नि३५ ४रे छे. ' चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता' त्या टीअर्थ-धर्मना यार द्वार' ह्या छे - (१) क्षान्ति, (२) भुक्ति, (3) आव અને માવ શ્રુતચ રિત્રરૂપ ધર્મ છે, એ વાત તેા આગળ પ્રકટ થઈ ચુકી છે. તે ધનાં દ્વાર સમાન ક્ષાન્તિ આદિને બતાવ્યાં છે આક્રોશ આદિ સાંભળવા પડે ત્યારે ક્રોધ ન કરવા પણ શાન્ત રહેવું તેનું નામ ક્ષાન્તિ છે. બાહ્ય અને આભ્યન્તર વસ્તુઓની તૃષ્ણાને ત્યાગ કરવા, તૃષ્ણાના વિચ્છેદ કરવા તેનું નામ મુક્તિ છે. માયાપૂર્ણ વ્યવહારના કપયુક્ત વ્યવહારના ત્યાગ કરવા એટલે કે આત્મા ઋજુતા ( સરળતા ) ના ગુણુથી યુક્ત થવા તેનું નામ આવ છે, માનને પરિત્યાગ કરીને મૃદુતા ધારણ ४२वी तेनुं नाम भाई छे. सू. ३६ ॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ स्थानानो चउहि ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पकरेंति तं जहा-माइल्याए १ णियडिल्लयाए २, अलियवयणेणं ३, कुडतुलकुडमाणेणं ४ (२)। चउहि ठाणेहिं जोवा मणुस्सत्ताए कम्मं पगति, तं जहा-- पगइभदयाए १, पगइविणीययाए २, साणुकोसयाए ३, अम. च्छरिययाए ४, (३) चउहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए पगरोति, तं जहासरागसंजमेणं १, संजमासंजमणं २, बालतवोकम्मेणं ३, अकामणिजराए ४ ॥ सू० ३७ ॥ छाया-चतुर्भिः स्थानर्जीवा नैरयिकतया कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-महाऽऽरम्भतया १, महापरिग्रहतया २, पञ्चन्द्रियवधेन ३, कुणिमा ( मांसा )ऽऽहारेण तथा ४। (१) चतुर्मि : स्थानर्जीवा स्तिर्यग्योनिकतया कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-मायितया १, निकृतिमत्तया २, अलीकवचनेन ३, कूटतुलाकूटमानेन ४ (२) चतुर्भिः स्थान वा मनुष्यतया कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-प्रकृति मदतया १, प्रकृतिविनीततया २, सानुक्रोशतया ३, अमत्सरिकतया ४ (३)। चतुर्भिः स्थानींवा देवायुष्यतया कर्म प्रकुर्वन्ति, तयथा-सरागसंयमेन १, संयमासंयमेन २, बालतपाकर्मणा ३, अकाम निर्जरया ४ (४) ॥३७॥ टीका- चउहि ठाणेहिं जीवा' इत्यादि-चतुर्भिः स्थानः जीवाः नरयिकतया-नारकत्वेन कर्म आयुष्कादि, प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-महाऽऽरम्भतया-महान् जिस प्रकार से ये क्षान्ति आदि धर्मके द्वार हैं, उसी प्रकारसे आ. रम्म आदि कारकत्वके साधन चूत कर्मों के द्वार हैं-यही बान अय सूत्रकार निरूपित करते हैं-'च उहिँ ठाणेहिं जीवाणेरइयत्ताए'इत्यादिमत्र३७१ टीकार्थ-जीब चार कारणोंसे नारकायुका बन्द करते हैं जैसे महारम्भनाले જેમ ફાતિ આદિ ધર્મના દ્વાર છે, એ જ પ્રમાણે આરંભ આદિ નારકત્વના સાધનભૂત કર્મોનાં દ્વાર છે એ જ વાતનું હવે સૂત્રકારે નીચેના सूत्र । ४८ ४२ छ-" चाहि ठाणेहि जीवा परइयत्ताए " त्या:ટીકાઈ–વે ચાર કારણોને લીધે નારકાયુને બન્ધ કરે છે. તે કારણે નીચે Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्थान ४ उ० ४ ०३७ नारकत्वादि साधनकर्मद्वारनिरूपणम् ४५५ इच्छा परिमाणेनाविहितमर्यादत्वेन वृहत् आरम्भः - पृथिव्याद्युपमर्द्दनलक्षणो य॒स्य स महाऽऽरम्भः = चक्रवर्त्त्यादिः, तस्य भावो महाऽऽरम्भता, तया महाऽऽरम्भतया १, एवं परिग्रहतया = परिगृह्यत इति परिग्रह - हिरण्यवर्णद्विपदचतुपदमभृतिः पदार्थः, स महान् यस्य स महापरिग्रहस्तत्तया, तथा - पञ्चेन्द्रियवधेन ३, तथा - कूणिमाऽऽहारेण - मांसभक्षणेन ४ (१) " चउहि ठाणेहिं जीवा तिरिनखजोगियत्ताए " इत्यादि चतुर्भिः स्थानैर्जीवस्तिर्यग्योनिकतया कर्म प्रकुर्वन्ति, तपथा- मायितया - माया मनः कौटिल्यं, साऽस्त्यस्येति मायी, तस्य भावो मायिता तया मायि - ' १ महापरिग्रहता से २ पंचेन्द्रिय वध से ३ और कुणिमाहार से मांसाहार से ४ | जिसने परिग्रहका प्रमाण- इच्छापरिमाण नहीं किया है और इसी कारण जिसका आरम्भ पृथिव्यादि जीवोंका वध- वृहत् है वढा हुआ है, ऐसा चक्रवर्ती आदिजन यहां महारम्भसे लिया गया है । इस महारम्भका जो भाव है, वह महारम्भता है । इसी प्रकार से हिरण्य, सुवर्ण द्विपद चतुष्पद आदि पदार्थ जिसको अधिक मात्रा में है, ऐसा मनुष्य महापरिग्रह से लिया गया है, इसका जो भाव है वह महापरिग्रहता है, तथा पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी जो हिंसा है वह पञ्चेन्द्रिय वध है, और माँसका आहार करना वह कुणिमाहार है। इनसे जीव नरकायुका बन्ध करता है- " चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए " इत्यादि जीवचार कारणोंसे तिर्यगायुका बन्ध करता है, जैसे - मायावी होनेले १ प्रभाषे छे—(१) भड्डा सरलता, (२) भडा परिश्रडता, ( 3 ) यथेन्द्रिय वधथी, भने (४) शिभाडारथी ( मांसाहार ) જેણે પરિગ્રહનું પ્રમાણ ઇચ્છા પરિમાણુ કર્યુ” નથી અને એજ કારણે જેના આરંભ ( પૃથ્વીકાય આદિ જીવાના વધરૂપ આરંભ ) વિશેષ પ્રમાણવાળા છે એવા ચક્રવર્તી આદિને મહા આરભ કરનારા, સમજવા તે મહા રંભના જે ભાવ છે તેને મહાર'ભતા કહે છે. એ જ પ્રમાણે જેની પાસે સાનું, ચાંદી, દ્વીપદ, ચતુષ્પદ આદિ પદા અધિક પ્રમાણમાં હોય છે એવા મનુષ્યને મહાપરિગ્રહવાળા કહ્યો છે. મહાપરિગ્રહના જે ભાવ છે તેને મહા પરિગ્રહતા કહે છે પચેન્દ્રિય જીવાની હત્યા કરવી તેનું નામ પંચેન્દ્રિય વધ છે અને માંસાહારને કુર્ણિમાહાર કહે છે આ ચારે કારણેાને લીધે જીવ નરકાયુના અન્ય કરે છે. “ चउहि ठाणेहिं तिरिक्खजोणियत्ताए " त्याहि છત્ર નીચેના ચાર કારણેાને લીધે તિયચાયુના અન્ય કરે છે. (૧) भायावी होवाथी, (२) नितिवाणी होवाथी, ( 3 ) असत्य वयनथी भने (४) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्र तया १, तथा-निकृतिमत्तया-निकृति:-वश्वनाथ शरीरचेप्टादि अन्यथाकरणरूपा साऽस्त्यस्येति निकृतिमान् तम्य भावो निकृतिमत्ता, तया निकृतिमत्तयागृहमायितया २, तथा-अलीकवचनेन-असत्यभापणन ३, तथा-कूटतुलाकूटमानेन-छलयुक्ततुलया कपटमानेन ४। (२) 'चउहि ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताए " इत्यादि चतुर्भिः स्थानींवा मनुष्यतया कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-प्रकृतिभद्रतयाप्रकृत्या स्वभावेन भद्रता-परपीडाऽनुत्पादकता प्रकृतिभद्रता तया१, एवं प्रकृति विनीवतया-स्वभावेन सुशीलतया विनयसम्पन्नतया २, तथा-सानुक्रोशतयादयालुतया ३, अमत्सरिकतया-मत्सरिकता=परगुणासहिष्णुता न मस्सरिकता अमत्सरिकता तया परगुणसहिष्णुतया ४। (३) निकृतिवाला होनेसे २ अलीकवचनसे ३ और कूटतुला कूटमानसे | मनकी कुटिलताका नाम मायाहै, यह माया जिसको होती है वह मायी है, इस माथीका जो भाव है वह मायिताहै । दूसरों को ठगने के लिये शरीर चेष्टा आदिका अन्यथा करना इसका नाम निकृति है, यह निकृति जिसको होती है वह निकृतिमान है, इस निकृतिमान्का जो भाव है वह निकृतिमत्ता है २ मिथ्याभापण करना इसका नाम अली. कवचन है, नांपने तौलने के बांटों आदिकोंको कमती वढती रखना इसका नाम कूटतुला कूटमान है, इनसे जीव तियंगायुका बन्ध करता है (२) " च उहि ठाणेहिं जीया मणुस्लत्ताए" इत्यादि---चोर कारणोंसे जीव मनुष्यायुका यन्ध करता है-जैसे-प्रकृतिभद्रतासे १ प्रकृतिविनीततासे२ सानुक्रोशतासे ३ और असत्सरिकताले ४) स्वलावले ही दूसरे બોટાં તોલમાપ કરવાથી મનની કુટિલતાને માયા કહે છે. તે માયાથી યુક્ત જીવને માયી કહે છે. તે માયીનો જે ભાવ છે તેને માયિતા કહે છે. અન્યને ઠગવાને માટે જે વિકૃત શરીર ચેષ્ટા આદિ કરવામાં આવે છે તેને નિકૃતિ કહે છે. તે નિકૃતિ જેમાં હોય છે તેને નિકૃતિમાન કહે છે. આ નિકૃતિમાનને જે ભાવ છે તેને નિકૃતિમત્તા કહે છે. મિથ્યા ભાષણ કરવું અથવા અસત્ય વચન બલવા તેનું નામ અલીકવચન છે. તેલવા અને માપવા માટે ખાટાં ત્રાજવા, કાટલાં કે ગજ, આદિ વાપરવા તેનું નામ “ફૂટ તુલા ફૂટ માન” છે. આ પ્રકારના ચાર કારણોને લીધે જીવ તિર્યગાયુને બન્ધ કરે છે. ___" चउहि ठाणेहि जीवा मणुस्सत्ताए" त्याह--या२ ॥२२ने सीधे ७ मनुष्यायुने। मन्५४२ छ-(१) प्रकृति मनायी, (२) प्रकृति विनीत. ताथी, (3) सानुशताथी भने (४) ममत्स२ि४ताथी. Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ010 ३७ नारकत्वादिसाधनकर्मद्वारनिरूपणम् ४५७ " चउहि ठाणेहि जीवा देवाउयत्ताए" इत्यादि चतुर्भिः स्थानर्जीवाः देवाऽऽयुष्कतया फर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-सरागसंयमेन=सकषायचारित्रेण-रागरहितसंयमवतामायुषो बन्धाभावात् १, तथा-संयमासंयमेन-द्विस्वभावत्वाद्देशसंयमेन २ तथा-बालतपःकर्मणा वाला इव बाला:मिथ्यादृष्टयस्तेषां तपाकर्म-तपश्चर्या वालतपःकर्म तेन बालतपःकर्मणा ३ । तथा-अामनिर्जरया-अकामेन-निर्जरां प्रत्यनिच्छया निर्जरा-कर्म निर्जरण हेतुका बुभुक्षादि सहनरूपा अकामनिर्जरा तया ४।।सू० ३७॥ जीवोंको पीडा उत्पन्न करने की परिणतिका नहीं होना इसका नाम प्रकृतिभद्रता है, स्वभावतः सुशीलताका होना अर्थात् विनय संपन्नताका सद्भाव इसका नाम प्रकृति विनीतता है, यासे युक्त परिणतिका होना इसका नाम सानुक्रोशतो है, एव दूसरोंके गुणोंको सहन करनेकी क्षमताका नहीं होना इसका नाम मत्सरिकताहै, और इससे विपरीत धृत्तिका होना दूसरोंके गुणोंको सहन करनेकी क्षमताका होना इसका नाम अमत्सरिकताहै इन चार बातोसे जीव मनुष्यायुका वन्ध करताहै(३) " चाहिं ठाणेहिं जीया देवाउयत्ताए" इत्यादि-चार कारणोंसे जीव देवायुका बन्ध करते हैं-जैसे-सरागलंयमके पालनले १ संयमासंयमके पालनले २ यालतपके करनेसे३ और अकामनिर्जरासे४ रागरहित संयमकी आराधनाले आयुका बन्ध नहीं होता है, परन्तु रागसहित कषायसहित संयमके पालनसे देवायुका बन्ध होता है, देशसंयमके पालनसे भी देवायुका पन्ध होताहै, सरागसंयम१० वे दस गुण અન્ય અને પીડા ઉત્પન્ન કરવાની પરિકૃતિને સ્વભાવઃ જ અભાવ હે તેનું નામ પ્રકૃતિ ભદ્રતા છે સ્વભાવતઃ વિનય, શીલતા અથવા સુશીલ તાને સદ્ભાવ છે તેનું નામ પ્રકૃતિવિનીતતા છે દયાથી યુક્ત પરિવ્રુતિ હાવી તેનું નામ સાનુકાશતા છે. અન્યના ગુણેને સહન કરવાની ક્ષમતા નહીં હેવી તેનું નામ મત્સરિકતા છે અને તેના કરતાં વિપરીત વૃત્તિને સદ્દભાવ હ, અન્યના ગુણને સહન કરવાની ક્ષમતા છેવી તેનું નામ અમત્સરિકતા છે. ઉપર્યુક્ત ચાર કારણોને લીધે જીવ મનુષ્પાયુને બન્ધ કરે છે. __ "चउहि ठाणेहिं जीवा देवाउताए" त्याहि-माया२ ॥२॥ने दीधे वायुन। બધુ કરે છે. રાગસંયમના પાલનથી (૧) સંયમાસ યમના પાલનથી, (૨) બાલ તાપની આરાધનાથી, (૩) અકામ નિર્જરાથી અને (૪) રાગ સહિત સંયમની આરાધના કરવાથી, (રાગ રહિત સંયમની આરાધનાથી દેવાયુને બન્ધ થત નથી, પણ રાગસહિત, કષાય સહિત સંયમના પાલનથી દેવાયુને બન્ધ થાય स्था०-५८ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना#सूत्रे ४५८ स्थान तक और संयमासंयम ५ पांच वे गुणस्थान में ( देशविरति श्रावक ) होता है । बाल शब्द से यहां मिथ्यादृष्टियोंका ग्रहण हुआ है, इनका जो तप है वह वालता है, निर्जरा करनेकी इच्छा नहीं होने से जो निर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा है, जैसे वुभुक्षा ( भूख ) आदि जन्य कष्टोंका सहन करना, बालतपसे और अकामनिर्जरासे भी देवायुका बन्ध होता हैं, इस सूत्र का आशय ऐसा है कि सरागसंयम और संयमासंयम ये सम्यग्दर्शनके होने परही हो सकते हैं। इसलिये ये तो वैमानिक देवोंकीही आयुके कारण हैं अन्य आयुके कारण नहीं हैं । बालतप आयु अकामनिर्जरा ये भवTera तर और ज्योतिषी इनकी आयुबन्धके कारण हैं। यहां ऐसी शंका हो सकती है कि देव और नारकी सम्यग्दर्शनके सद्भावमें मनुष्यायुकाही बन्ध करते हैं, और मनुष्य एवं तिर्यञ्च देवायुकाही बन्ध करते हैं, तो इसका अभिप्राय क्या है ? इसका अभिप्राय ऐसा है कि सम्यग्दर्शन आत्माका एक निर्मल परिणाम है, इसलिये वह तो कर्मबन्धका कारण होता नहीं है, परन्तु उसके सद्भावमें यदि आयुका होता है तो वह नियमसे वैमानिक देवायुकाही बन्ध होता है। છે. ) દેશમયમના પાલનથી પણ જીવ દેવાયુને અન્ય કરે છે. સરાગસંયમના સભા ૧૦ દસમાં ગુણુસ્થાન સુધી અને સયમાસયમના સદ્ભભાવ પાંચમાં ગુરુસ્થાન સુધી હાય છે.‘ ખાલ ' શબ્દ અહીં મિથ્યાષ્ટિએ માટે વપરાયે છે તેમના તપને પાલતપ કહે છે. નિર્જરા કરવાની ઈચ્છા કર્યા વિના જે નિર્જરા થાય છે તેને અકામ નિર્જરા કહે છે. જેમકે ભૂખ આદિ જન્ય કષ્ટાને સહન કરવાથી અકામનેિજશ થાય છે. ખાલતપ અને કામનિર્જરા વડે પશુ દેવાયુના અન્ય થાય છે. આ સૂત્રના લાવા નીચે પ્રમાણે છે –સરાગસંયમ અને સયસાસંયમ આ ષને સમ્યગ્દર્શનના સદભાવમાં જ સભવી શકે છે, તેથી તે બન્ને તે વૈમાનિક દેવામાં જ ઉત્પત્તિ કરાવે છે, અન્ય દેવાયુઓના કારણભૂત બનતાં નથી. પરન્તુ ખાલતપ અને અકામનિર્જરા આદિને લીધે જીવ ભવનવાસી, વ્યન્તર, અને ચેતિષી દેવાના આયુના મન્ત્ર કરે છે. અહી કદાચ એવી શકા કરવામાં આવે કે દેવ અને નારકી સમ્યગૢઇનના સદ્ભાવમાં મનુષ્યાસુને જ અન્ય કરે છે અને મનુષ્ય અને તિયંચ દેવાયુના જ અન્ય કરે છે, તે આ કથનનું કારણ શું છે ? તે શંકાનુ' સમાધાન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે-સમ્યગદર્શીન આત્માનુ એક નિમ`ળ પરિણામ છે. તેથી તે તે ક્રમ બન્ધનું કારણુ ખનતું નથી, પરન્તુ તેના સદ્ભાવમાં પણ જે આયુના અન્ય થતા હાય તેા નિયમથી જ વૈમાનિક દેવાયુના જ અન્ય થાય છે. Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ उ०४ सू०३८ वाद्यादिमेदनिरूपणम् पूर्व देवोत्पत्तिकारणान्यभिहितानि, देवाश्च वायनाट्यादि रतिमन्सो भवन्तीति वायादि भेदान्निरूपयितुं षट् सूत्रीमार मूलम्-चउविहे वज्जे पण्णत्ते, तं जहा-तते १, वितते २, घणे ३, झुसिरे ४। (१) घउबिहे गट्टे पण्णत्ते, तं जहा-अंघिए र, रिलिए ३, आरभडे ३, भसोले ४। (२) चउबिहे गए पण्णते, तं जहा-उरिखत्तए १, पत्तए २, मंदए ३, रोविंदए । (३) घउविहे मल्ले पण्णते, तं जहा-गंथिको १, रढिमे २, पूरिसे ३, संघाइभे ४ (४) चउबिहे अलंकारे पाते, तंजबासालंकारे १, वत्थालंकारे २, मल्लालंकारे ३, आभरणालंकारे ४(५) चउठिवहे अभिणए पपणत्ते, तं जहा-दिवतिए १, पंड्सुए २, सामंतोवणिवाइए ३, लोगमज्झावसिए । (६) सू० ३८ ॥ यदि इस पर फिरसे ऐसा पूछा जावे कि यदि सम्पदर्शनले सद्भावमें वैमानिक देवायुकाही बन्ध होता है। तो फिर देवनारकियोंके जो अभी मनुष्यायुकाही उसके सद्भावमें बन्ध कहा गया है, सो उसका निर्वाह कैसे होगा ? तो इसका समाधान ऐसा है कि यहां जो ऐसा कहा गयो है, कि जो प्राणी मरकर चारों गतियों में जन्म ले सकते हैं उनकी अपेक्षासे कहा गया है, ऐसे जन्मवाले मनुष्य और तियञ्चही हैं देवनारकी नहीं ॥ मू० ३७ ॥ શકા–જે સમ્યગદર્શનના સદૂભાવમાં વૈમાનિક દેવાયુને જ બન્ધ થત હોય, તે તેના સદૂભાવમાં (સમ્યગદર્શનના સદૂભાવમાં) દેવ અને નારકીયાને મનુષ્પાયુને બન્ધ થવાની જે વાત આપે હમણાં જ કહી છે તે કેવી રીતે ટકી શકે છે? - ઉત્તર– અહીં જે એવું કહેવામાં આવ્યું છે, તેને મરીને ચાર ગતિઓમાં જન્મ લઈ શકનારા ની અપેક્ષાએ કહ્યું છે. એવા જન્મવાળા તે મનુષ્ય અને તિર્યંચ હોય છે. દેવનારકી એવાં જન્મવાળાં હોતા નથી. સૂ. ૩છા Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० स्थान छया-चतुर्विधं वाद्य प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-ततं १, विततं २, धनं ३, शुपि. रम् ४। (१) चतुर्विध नाटयं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-अश्चितं १, रिभितम् २, आरमट ३, भसोलम् ४ । (२) चतुर्विधं गेयं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-उत्क्षिप्तकं १, पत्रकं २, मन्दकं ३, रोविन्दकम् ४। (३) चतुर्विधं माल्यं प्राप्तम्-तथथा-ग्रन्थिमं १, वेप्टिमं २, पूरिमं ३, सङ्घातिमम् । (४) चतुर्विधोऽलङ्कारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-केशालङ्कारः १, वस्त्रालङ्कारः २, माल्यालङ्कारः ३ आभरणालङ्कारः ४। (५) चतुर्विधोऽभिनयः प्रज्ञप्त', तथथा-दान्तिकः १, पाण्डुमृतः २, सामन्तोपनि रातिकः ३, लोकमध्यावसितः ४ ॥३८॥ ____टीका-" चउबिहे वज्जे " इत्यादि-याचं-वाचते-ध्वन्यत इति वाचं तचतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-ततं-तन्यते-विस्तीर्यत इति ततं वीणादिकम् १, विततं-पटहादिकम् २, धनं-इन्यत इति घनं-फ्रांस्यतालघण्टादिकम् ३, शुपिरशुपिश्छिद्रमस्याति शुपिरं-वंशादि ४। ३८(१) ___ इस प्रकार देवों में उत्पत्तिके कारणोंका कथन करके अब सूत्रकार देववाद्य नाट्य आदिमें रति आनन्द वाले होते हैं, इस अभिप्रायसे वाद्य आदिके भेदोका ६ छह सूत्रों द्वारा निरूपण करते हैं-- 'चउब्धिहे वज्जे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र ३८॥ टीकार्थ-बाय चार प्रकारके कहे गये हैं जैसे-तत १ वित्तत२ धन३ और शुशिर ४ चमडे मढे हुए ढोल वीणा आदि तत वाद्य हैं। पदह आदि विलतहैं, झालर घंटा आदि घन हैं, और छिद्रवाले शंख बालुरी आदि આ પ્રકારે દેવગતિમાં ઉત્પત્તિના કારણોનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર વાઘોના ભેદનું નિરૂપણ કરે છે. દેવે વાઘ અને નાટક આદિમાં રતિવાળા હેય છે, તે સંબંધને લીધે હવે છ સૂત્રો દ્વારા નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. " चव्धिहे वज्जे पण्णत्ते" त्याहि____ थ-वायना नाय प्रमाणे या२ प्र.२ ४ छ-(१) तत, (२) वितत, (3) धन माने (४) शुषिर. यामाथी भdai. दस, पीARE तत पायो છે. પટ આદિ વિતત છે. ઝાલર ઘંટ આદિ ઘનવાદ્યો છે. અને છિદ્રોવાળાં શંખ વાંસળી આદિ શુષિર વાદ્યો છે. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ०४ २०३८ वाद्यादिमेदनिरूपणम् ४६१ ___ " चउबिहे नट्टे" इत्यादि-नाट्य-नटस्येदं नाटयं नृत्यगीत-वाद्यं, करचरणादिविशिष्टपरिस्पन्दविशेषः, तच्चतुर्विध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अञ्चितं १, रिभितम् २, आरभटं ३, भसोलम् ४ एते भरतादि नाटयग्रन्थेभ्योऽवसेयाः। ___“चउबिहे गेए" इत्यादि-गेयं-गातुं योग्यं गेयं-स्वरसञ्चारेण गीति पायं निबद्धम् स्वरकरणस्वरसंचारो वा गेयं, तच्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-उत्क्षि. प्तकं १, पत्रकं २, मन्दकं ३, रोविन्दयम् ४ तत्र रोविन्दयेति देशीयशब्दः । गेयस्याष्टौ गुणानाह-- " पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तंच तद्देव मविघुटं । महुरं समं सुललिअं अट्ठगुणाहौति गेयस्स ॥१॥ - उरकंठसिरविसुद्धं च, गीयए मउअरिभिअपयबद्धं । सयतालपच्चुखे सत्तरसरसीभरं गेयं ॥ २ ॥ शुषिर हैं । (१) " च उबिहे नट्टे " नाटय चार प्रकारका कहा गया हैनटसे सम्बन्धित नृत्य, गीत, वाद्य, एवं कर चरण आदिकी विशिष्ट चेष्टाएँ थे सब यहां नाटय शब्दले गृहित हुए हैं। अश्चित १ रिभित २ आरभट ३ और भलोल ४ इन भेदोले नाटय चार प्रकारका होना है। इन सपका वर्णन भरतादि नाट्यग्रन्थों जान लेना चाहिये। ____" चउबिहे गेए इत्यादि-गेय-गानेके योग्य जो होता है वह गेय है गेयने-गाने में स्वरका सञ्चार आदि होताहै, वह गेय उरिक्ष सक १ पत्रक २ मन्दक ३ और रोविन्दयके भेदले चार प्रकारका है इनमें रोविन्दय यह देशीय शब्द है गेयके आठ गुण ये हैं--- " चउबिहे नदे" नाट्य या२ २ना छ नटनी साथै सध ધરાવનારાં નૃત્ય, ગીત, વાઘ અને કર ચરણ આદિની વિશિષ્ટ ચેષ્ટાઓને અહીં નાટયપદથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે તે નાટયના ચાર પ્રકારે નીચે प्रभारी छ-(१) भयित, (२) मित, (3) - मारमट भने ससास. मा ચારે ભેદેનું વર્ણન ભરતાદિ નાટયગ્રન્થમાંથી વાંચી લેવું. " चउबिहे गेए " त्याहि-04 (गीत) या२ रन डायथे. ગાવાને ચેતવ્ય જે હોય છે તેને ગેય કહે છે. ગેયમાં-ગીત ગાવામાં સ્વરને સંચાર આદિ થાય છે. તેને નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) ઉદ્ભિસક, (२) ५४, (3) भन्६४ भने (४) विन्हय. तभा ‘शविन्य' मा आमही. श५४ छे. गेयना मा8 शुक्ष्य नीय प्रमाणे ४i छे. " पुण्णं रत्तं च अलंकिअंच" ઈત્યાદિ. આ કોને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ - - स्थानाङ्गसूत्रे अक्खरसमं पदसमं तालसमलयसमगहसम वावि । नीसासि ओससिअसमं संचारसमं सरा सत्त ॥ ३ ॥ छाया-पूर्ण रक्तं चालकृतं च व्यक्तं च तथैवमविघुटम् । मधुरं समं मूललितम् अष्ट गुणा भवन्ति गेवस्य ॥ १ ॥ उरः कण्ठशिरोविशुद्वं च, गीयते मृदुकरिमितपदबद्धम् । समतालपत्युत्क्षेपं सप्तस्वरसीसरं गेयम् ।। २ ॥ अक्षरसमं पदसम तालसमलयसमग्रहसमम् ।। निःश्वसितोच्छ्वसितसमं सञ्चारसमं स्वराः सप्त ॥ ३॥" इति । अयमर्थ:-पूर्ण गेयरयाङ्गं सकलस्वरकलाभियुक्तम् १, रक्त-गेयरागेण भावि. तस्य गेयस्याङ्गं रक्तमित्युच्यते २, अलङ्कृतम्-अन्यान्यस्फुटस्वरविशेपशोभितम् ३, व्यक्तम्-अक्षरस्करप्रकटनसंयुतम् ४, तथा-एवम्-अविजुष्टं-विक्रोशनमिय यद् विस्वर न भवति तत् ५, मधुरं-गधुमत्तकोकिलारुतवन्मधुरस्वरम् ६, समंतालशस्वरादिसाम्योपेतम् ७, सुललितं-स्वरघोलनाप्रकारेणं शुद्धातिशयेन कल. ___ " पुण्णं रत्तं च अलंकिअं च" इत्यादि । इन श्लोकोंका ऐला भाव है, जो गेय समता स्त्रर एवं कलाओंसे युक्त होता है वह गेय पूर्ण कहलाता है १। गेय रागसे युक्त जो पेय होताहै, वह रक्त कहलाता है । अन्य अन्य स्फुट स्वर विशेषों से जो शोभित होताहै, वह व्यक्त कहलाता है ३। जो अक्षर स्वर इनकी स्पष्टतासे युक्त होताहै, वह व्यक्त कहलाता है । चिल्लाने की तरह से जो गेय विस्वर लहीं होताहै, वह गेय अविघुष्ट कहलाताहै ५। मधुकालमें वसन्त मत्त कोकिलाके स्वरकी तरह जो मधुर स्वरवाला होताहै, वह गेय मधुर कहलाताहै। जिसमें स्वरोंका संचार खेलता सा प्रतीत होता हो, वह गेय सुकुमार कहलाताहै ७ और जिसमें तालकी एवं वांसुरी आदि के स्वरोंकी समानता हो वह (૧) જે ગેય સમસ્ત સ્વરો અને કલાઓથી યુક્ત હોય છે, તે ગેયને પૂર્ણ કહેવાય છે. (૨) ગેય રાગથી યુક્ત જે ગેય હોય છે તેને રક્ત કહે છે (૩) અન્ય અન્ય સ્કુટ સ્વર વિશેષેથી શોભાયમાન જે ગેય હોય છે તેને વ્યક્ત કહે છે (૪) જે ગેય અક્ષર અને વરની સ્પષ્ટત થી યુક્ત હોય છે તેને વ્યક્ત કહે છે. (૫) જે ગેયમાં સ્વર તૂટતા નથી–સૂર ફાટી જતો નથી તે ગેયને અવિઘુણ કહે છે. (૬) વર્ષાકાળે મત્ત એવી કોયલના સ્વરના જેવો જે મધુર સ્વર હોય છે તે ગેયને મધુર કહે છે. (૭) જેમાં સ્વરોને (સૂ ) સંચાર રમત રમાતી હાય-સૂરોની રમત જામી હોય એવી પ્રતીતિ થાય છે તે ગેયને સુકુમાર કહે છે. (૮) જે ગેયમાં તાલની અને વાંસળી Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटोका स्था०४ उ०४ सू०३. वाद्यादिमेदनिरूपण ४६३ तीव यत् , सुकुमालं तत् ८। एतेऽष्टौ गुणा गेयस्य-गीतस्य भवन्ति । एतद्विरहितं तु विडम्बनमात्रं तदिति । किञ्चोपलगत्वादन्येऽपि गीतगुणा भवन्ति, तानाह'चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । " उरकंठसिरविमुद्धं " इत्यादि-उरकण्ठशिरोविशुद्धं - विशुद्धशब्दस्य द्वन्द्वान्ते यमाणतया प्रत्येक योगः, तथाहि उरो विशुदं-कण्ठविशुद्धं शिरोविशुद्ध च तत्रोरोविशुद्ध-स्वरो यथुरसि विशालो भवति-तदोरोविशुद्धम् , कण्ठ विशुद्धं च-कण्ठे वर्तितोऽतिस्फुटः स्वरः, शिरोविशुद्ध तु-शिरसि पाप्तो यदिनाऽनुनासिकः स्वरस्तदाशिरोविशुद्धम् ।। यद्वा-उद्गेयमुरः कण्ठशिरोविशुद्धं गीयते यच्च श्लेष्मणाऽऽव्याकुलेपूरःकाठशिरस्सु विशुद्धेषु गीयते, कि विशिष्टमित्याह-मृदुकरिभितपदवद्ध-तत्र-मृदुकंगेय साम्य कहलाता है । इस प्रकार के ये आठ गुण गीतके होते हैं। इनसे विरहित गीत केवल विडम्बना मात्र होता है। उपलक्षणसे अन्य भी गीतके गुण होते हैं जो इस प्रकारले " उरकंठलिरोविसुद्धं" इत्यादि द्वारा प्रकट किये गये हैं द्वन्द्व के अन्तमें प्रयुक्त विशुद्ध शब्दका सम्बन्ध प्रत्येक शब्दके साथ यहां लगा लेना चाहिये-तथाच-जो स्वर छाती में विशाल होता है वह उरोविशुद्ध स्वर है । जो स्वर कंठ में बत्तित हुआ अति स्फुट होता है वह कंठ विशुद्ध स्वर है और जो स्वर शिर में प्राप्त हो, और पह अनुनासिक न हो वह स्वर शिरो विशुद्ध स्वर है । ____ यहा-उरोविशुद्ध कंठ विशुद्ध एवं शिरो विशुद्ध गेय वह होता है जो श्लेष्मा कफसे रहित हुए उरोभागके कण्ठके एवं शिरके विशुद्ध આદિ વાદ્યોના સૂરની સમાનતા હોય છે તે ગેયને સામ્ય કહે છે. ગીતમાં આ પ્રકારના આઠ ગુણ હોય છે, તે આઠ ગુણોથી રહિત જે ગીત હોય તે વિડમ્બના રૂપ જ હોય છે. ઉપલક્ષણથી ગીતના અન્ય ગુણે પણ કહ્યા છે, २ नाय प्रभारी छ. “ उरकंठखिरो विसुद्ध" त्या- આ કમાંના પ્રત્યેક પદની સાથે વિશુદ્ધ શબ્દને લગાડીને આ પ્રમાણે કથન થવું જોઈએ—જે સ્વર છાતીના ઊંડાણમાંથી નીકળતો હોય છે તેને ઉરવિશદ્ધ સ્વર કહે છે. જે સ્વર કંઠમાંથી ફુટ રૂપ ઉચ્ચાસ્તિ થતું હોય છે તેને કઠવિશુદ્ધ સ્વર કહે છે. જે સ્વર શિરમાંથી પ્રાપ્ત થતું હોય છે એવા અનુનાસિક સ્વરને શિરવિશુદ્ધ સ્વર કહે છે. અથવા ઉરે વિશુદ્ધ, કંઠવિશુદ્ધ અને શિવિશુદ્ધ ગેય તેને કહે છે કે જે શ્લેષ્માથી રહિત એવા ઉરોભાગ, કંઠ અને શિરોભાગ વિશુદ્ધ થઈ જતાં ગવાય છે. જે ગીત ગાવામાં આવે Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्थानाङ्गसूत्रे कठोरता हीनस्वरेण गीयमानं कोमलम्, रिमितम् - यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन स्वरो भवति घोलनाबहुलम्, पदबद्धं गेयपदेद्धं विशिष्टरचनया योजितं ततथ मृदुकं रिमितं च तत् पदवद्धं चेति मृदुकरिमितपदवद्धमिति कर्मधारयः । समतालप्रत्युत्क्षेपं - तालो हस्तसमुत्पन्नः शब्दः उपलक्षणत्वाद् प्रत्युत्क्षेपःमितोषकारकाणां मुरजकांस्यादीनां शब्दः, यद्वा-नर्तकी पदप्रक्षेपः तौ समौ = गीतस्वरेण समानौ यत्र तत् समतालप्रत्युत्क्षेपम् सप्तस्वरसीमरं - अक्षरादिभिः समं यत्र गीते तङ्गीतम्, अक्षरसमम् - अक्षरैर्वणैः समं यत्र दीर्घेऽक्षरे दीर्घः स्वरो गीयते, हस्के, हवः प्लुते प्लुतः स्वरः सानुनासिके सानुनामिकस्तदक्षरसमं गीतं, पद , " हो जाने पर गाया जाता है। जो गीत गाया जावे वह मृदुक विभित और पदबद्ध होना चाहिये । जो गाना कठोरता से रहित स्वरसे गाया जाता है, वह मृदुक है। जहां अक्षरों पर घोलना से स्वरका संचार होता है वह घोलनाबद्दल रिभित है, और गेय पदोंकी विशिष्ट रचनासे योजित जो गाना है वह पदवद्ध गाना है । हाथ से उत्पन्न हुआ जो शब्द है, उसका नाम ताल है मृदंग कांस्य आदि गीतोपकारक वाद्योंका जो शब्द है वह प्रत्युक्षेप है यहा - नर्तकी के पदका जो प्रक्षेप है वह प्रत्युत्क्षेप है । ताल और प्रत्युक्षेप ये दोनों जहां गीत स्वरके साथर चल रहे हों, ऐसा वह गाना समताल प्रत्युत्क्षेपवाला है । अक्षरादिकों के साथ जो गीत सात स्वरोंसे युक्त हो वह गाना सप्तस्त्ररसीभर है । दीर्घ अक्षर के साथ जिस गाने में दीर्घ स्वर गाया जाता हो ह्रस्व अक्षर पर ह्रस्व स्वर गाया जाता हो प्लुत अक्षर पर जहां प्लुत स्वर गाया जाता हो और सानुनासिक તે મૃદુક, રિભિત અને પદબદ્ધ હૈાવું જોઇએ. જે ગીત કંઠારતાથી રહિત એટલે કે મૃદું સ્વરથી ગવાય છે તેને મૃદુક કહે છે. જ્યાં અક્ષરાને ઘુટવાથી સ્વરને સચાર થાય એવી તે અક્ષરાને છુ'ટવાની ક્રિયાને રિભિત કહે છે, ગેય પદાની વિશિષ્ટ રચનાથી ચાજિત જે ગાવાની ક્રિયા છે તેને પદમહુ ગીત કહે છે. હાથ વડે ઉત્પન્ન થયેલા અવાજને તાલ કહે છે. મૃગ, મછરા આદિ ગીતાપકારક વાદ્યોના જે અવાજ છે તેને પ્રત્યુત્સેપ કહે છે. અથવા નતકીના પગના જે પ્રક્ષેપ થાય છે તેને પ્રત્યુત્શેષ કહે છે. તાલ અને પ્રત્યેક્ષેપ જ્યારે ગીતના સૂરની સાથે સુમેળપૂČક ચાલી રહ્યાં હાય, ત્યારે તે ગીતને સમતાલ પ્રત્યુત્લેપવાળુ કહેવાય છે. અક્ષરાદિકની સાથે જે ગીત સાત સ્વરાથી યુક્ત હાય છે તેને સસ્યરસીભર કહે છે. જે ગીતમાં દ્વીધ અક્ષરની સાથે દીવ્ર સ્વર ગવાતા હાય, હસ્વ અક્ષર આવે ત્યારે હસ્ત્ર સ્વર અવાતા હાય, શ્રુત અક્ષર આવે ત્યારે દ્યુત સ્વર ગવાતા હાય અને સાતુ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ सुधा ठीका स्था० ४ उ०४ ०३८ वाद्यादिमेदनिरूपणम् समम्-यद्गीतपदं यत्र स्त्ररेऽनुपाति भवति तत्रैव गीते तत्पदसमम्, तालसमलय समग्रहसमं - तंत्र - तालसमं - परस्पराभिहतहस्ततालस्वरानुसारेण गीयमानम्, लयसमं - तत्रयः-दाद्यन्यतरवस्तुमयेनाङ्गुलिकोशेन समादततन्त्रीस्वरप्रकारः तदनुसारिणा सरेण यद्गीयते तल्लयसमम्, ग्रहसमम् - प्रथमतो वंशतन्त्र्यादिभि र्यः स्वरोगृहीतस्तत्समानेन स्वरेण गीयमानं निःश्वसितोच्छ्वसितसमं - निःश्वसितोच्छ्वसितमानमनुलध्य गेयम्, सञ्चारसमम् -वशतन्त्र्यादिष्वङ्गुलिसञ्चारसमं गीयमानम्, ३९ (२) चउवि मल्ले " इत्यादि - माल्य - पुष्पं, तद्ररचनाऽपि माल्यं, तच्चतुर्विध प्रज्ञम्, तद्यथा - ग्रन्थिमं- ग्रन्थ:-सूत्रेण ग्रन्थनं, तेन निरृत्तं माल्य ग्रन्थिसं १, 44 अक्षर पर सानुनासिक स्वर गाया जाता हो वह अक्षरसमगीत है । जिस स्वर में जो गीतपद चलता है उसी स्वर से उस गीतपदका गाना पदम गीत है परस्पर में अभिहत हस्तके तालके स्वर के अनुसार जो गीत गाया जाता है, वह लालसम गीत है । गृङ्गके तथा दारु लकड़ी के बने हुए अंगुलिकोश से समाहत तन्त्रीके स्वर के अनुसार चलते हुए स्वर से जो गाना गाया जाता है, वह लयसम गान है, जिस गाने में पहिले स्वर वंशतन्त्र आदि के स्वर के साथ मिलाया जाये फिर बाद में उसके स्वर से साथ ही जो गाना गाया जाता है वह गाना निःश्वसितोच्छ्वसितसम गान है । जो गाना सारंगी आदिपर अंगुलियों के संचारके साथ साथ गाया जाता है वह संचार समगान है (२) નાસિક અક્ષર આવે ત્યારે સાનુનાસિક સ્વર ગવાતા હોય તે ગીતને અક્ષર સમગીત કહે છે, જે સ્વરમાં જે ગીતપન્ન ચાલતું હાય એજ સ્વરથી તે ગીતપદને ગાવું તેનું નામ પદસમ ગીત છે. પરસ્પરમાં અભિહત હાથના તાલના સ્તરને અનુ સરીને જે ગીત ગવાય છે તેને તાલસમ ગીત કહે છે. શૃંગ અથવા લાકડીમાંથી ૫નાવેલી અને અંગુલિકેાશથી સમાહત તંત્રીના સ્વરના અનુસાર નીકળતા સ્વરથી જે ગીત ગાવામાં આવે છે તેને લયસમગાન કહે છે. જે ગીતમાં પહેલાં મસરી આદિના સ્વરની સાથે સૂરના મેળ મેળવવામાં આવે અને ત્યારખાદ તેના સ્વરની સાથે જ જે ગીત ગાવામાં આવે છે તેને નિશ્વાસિતાશ્ર્વસિતસમ ગીત કહે છે. જે ગીત સારંગી આદિ પર આંગળીએને સચાર કરીને સારગી આદિના અવાજની સાથે સાથે ગાવામાં આવે છે તે ગીતને સચાર સમગાન કહે છે. स्था०-५९ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ४६६ तथा - वेष्टिम-वेष्टननिरृत मुकुटादि २, तथा पूरिम- पूरणनितं मृन्मयादिकमनेन्द्रं पुष्पैः पूर्यमाणम् ३ तथा संङ्घातिमं - परस्परं पुष्पमालादिसङ्घाते. नोपजन्यमानम् ४ इति (३) । " चउबिहे अलंकारे " हत्यादि - अलङ्कारः - अलङ क्रियते भूप्यतेऽनेनेत्यलङ्कारः, स चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - केशालङ्कारः - केशा एव अलङ्कारः १, एव वस्त्रालङ्कारः २, माल्यालङ्कारः ३, आभरणालङ्कारः ४ । saut मल्ले " इत्यादि । फूलों से रची गई मालाका नाम माल्य है | यह माला चार प्रकारकी कही गई है जैसे-ग्रन्थिम १, वेष्टिम २ परि ३ और संघातिम ४ जो माला सूत्र से - डोरा से गूंथकर बनाई जाती है वह ग्रन्थिम माला है १| जो माला वेष्टन से निवृत्त होती है जैसे सुकुट वह वेष्टित माला है २। जो माला मिट्टी आदि से बनाई जाती है, जिसमें अनेक छिद्र होते हैं, और उन छिद्रो में जो फूलोंसे भरी हुई होती है वह पूरित साला ३। और जो पुष्पोंके नाल आदिके पारस्परिक संघात से बनाई जाती है वह संघातिम माला है (४) " चजबिहे अलकारे " इत्यादि । -- जिससे शरीर शोभित किया जाना है वह अलङ्कार है, यह अलङ्कार घार प्रकारका कहा गया है, जैसे - कोशालङ्कार, १, वस्त्रालङ्कार २, माल्यालङ्कार ३, और आभरणालार ४ | केश ही जहाँ अलङ्कार रूप हो वह केशालङ्कार है, वस्त्र ही चउनि मल्के " त्याहि- समांथी मनावेली भाजाने भास्य मु છે તે માલ્યના ચાર अक्षर ४ह्या छे--(१) अन्थिम, (२) पेष्टिम, (3) પૂરિમ અને (૪) સ`ઘાતિમ 1 જે માળા સૂત્રથી ( દેારાથી ) ગૂંથીને મનાવવામાં આવે છે, તે માળાને ગ્રન્થિમ માલ્ય કહે છે. જે માળા વેબ્ઝનથી નિવૃત હાય છે તેને વેષ્ટિમ भास्य, भट्ठे भुट 46 ८८ જે માળા માટી આદિ વડે મનાવવામાં આવે છે તે માટીમાં અનેક છિદ્રો હાય છે અને તે છિદ્રોને ફૂલાથી ભરી દેવામાં આવ્યાં હૈાય છે, એવી માળાને પૂમિ માલ્ય કહે છે. જે માળાને નાલ આઢિના પારસ્પરિક સચેાજનથી બનાવવામાં આવે છે તે માળાને સદ્યાતિમ માલ્ય કહે છે, sort अलंकारे " इत्यादि - भेना वडे शरीरने विभूषित करवामां આવે છે તેનુ નામ અલંકાર છે. તે અલંકાર ચાર પ્રકારના કહ્યાં છે— (१) देशासा२, (२) वस्त्रात २, (3) भाट्यात ४२ मते (४) मलरयात ४२. કેશ જ જ્યાં અલ`કાર રૂપ હાય તે અલકારને કેશાલંકાર કહે છે. વસ્ત્રો જ 66 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोकां स्था०४ उ०४ सू०३८ वाद्यादिभेदनिरूपणम् " 9 उच्च अभिणए " इत्यादि - अभिनयः - अभिनयति- व्यजयत्यर्थमित्यभिनय: = मनोगत भावाभिव्यञ्जकः हस्तादिव्यापारः स चतुर्विधः प्रशसः, तद्यथा - दाष्टन्तिकः - इह दृष्टान्तः सधर्मवस्तुप्रतिविम्बनं तत्र कुशलो नियुक्तो वादान्तिकः, तथा-पाण्डुसुतः - पाण्डुसुता अभिनेयत्वेन यत्र स पाण्डुसुतः, यद्वापरि' इति पाठः, तत्पक्षे प्रातिश्रुतिक इति च्छाया, तदर्थश्व-प्रतिश्रुतंप्रतिज्ञातं तत्र नियुक्तः प्रातिश्रुतिक इति २ तथा सामन्तोपनिपातिकःसमन्तानां राजप्रधानपुरुषाणामुपनिपातः उपस्थितिः - सामन्तोपनिपातरतत्र कुशलो नियुक्तो वा तथा, यद्वा-' समंतोवणिवाइए ' इत्यस्य समन्तादुपनिपातिक इति च्छाया, तत्पक्षे- समन्तात् सर्वत उपनिपातोऽस्त्यत्रेति तथा यद्वा-'समंतोषणिवाइए' इत्यस्य सामान्यत उपनिपातिकः - सामान्यतः निर्विशेषत्वादुपनिपातोऽस्त्यत्रेति तथा ३ तथा - लोकमध्यावसितः - लोकमध्ये - लोकान्तराले अवसितःसमाप्तस्तथा, एते अभिनय भेदा भरतादिनाट्यशास्त्रज्ञेभ्यो विज्ञेयाः ||८० ३८ ॥ देवाधिकाराद्देवविशेष सनत्कुमारादीनां विमाननर्णादी निरूपयितु द्विमुत्रीयाह " ' ४६७ मूलम् - रुणकुमारमा हिंदेसु णं कप्पेसु बिमाणा चउवण्णा पण्णत्ता, तं जहा--पीला १, लोहिया २, हालिद्दा ३, सुकिला४ (१) जहां अलङ्कार रूप हो वह वखालङ्कार है, इसी प्रकार से माल्यालङ्कार और आभरणालङ्कार भी जानना चाहिये । “चउच्चिहे अभिगए" इत्यादि अभिनय चार प्रकारका कहा गया है, मनोगत भावका अभिव्यञ्जक जो हस्तादि व्यार है वह अभिनय है, यह अभिनय दान्तिक १, पाण्डुगुन २, सामन्तोपनिपातिक ३ और लोकमध्यावसित ४ के भेद से चार प्रकारका है, ये अभिनय के भेद भरतादि नाट्य शास्त्रज्ञों से समझ लेना चाहिये || सू० ३८ ॥ જ્યાં અલકાર રૂપ હાય તે અલ કારને વસ્ત્રાલંકાર કહે છે. એ જ પ્રમાણે માલ્યાલ'કાર અને આભરણાલ’કાર વિષે પણ સમજી લેવું. 1 4 " चउव्विद्दे अभिणए " અભિનય ચાર પ્રકારના 'કહ્યો છે. મનેાગત ભાવાને વ્યક્ત કરવા માટે હસ્તાહિની જે ચેષ્ટાઓ કરવામાં આવે છે તેને અભિનય ईखे छे. तेना यार प्रहारो नीचे प्रमाणे छे – (१) हाष्टन्ति, (२) पांडुसुत, (3) सामन्तोपनिपातिक, भने (४) सोमध्यावसित आ लेहे। विषे भरताहि નાટય શાસ્ત્રજ્ઞો પાસેથી વિશેષ માહિતી મેળવી લેવી. ॥ સૂ. ૩૮ u Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागपत्र ४६८ महासुक्कसहस्सारेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधाराणज्जा सरीरगा उक्कोसेणं चत्तारिरयणीओ उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ता (२) सू.॥३९॥ छाया-सनत्कुमारमाहेन्द्रेपु खलु कल्पेषु विमानानि चतुर्वर्णानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-नोलानि १, लोहितानि २, हारिद्राणि ३, शुक्लानि ४ (१)। ___ महाशुक्रसहस्रारेषु खलु कल्पेषु देवानां भवधारणीयानि शरीरकाणि उत्क पेण चतस्रो रत्नय ऊर्ध्वमु चत्वेन प्रज्ञप्तानि ॥३९॥ ____टीका- सणंकुमारमादिदेसु " इत्यादि-स्पष्टम् , नवरं-सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्पर्णानि, नीलादीनि कल्पान्तरेषु तु अन्यप्रकारेण विमानानि भवन्ति । उक्तञ्च-" सोहम्मे पंचवण्णा एकगहाणी उ जा सहस्सारे । दो दो तुल्ला कप्पा तेणपर पुंडरीयाओ ॥१॥ छाया-सौधर्मे पञ्चवर्णानि एकैकहानिस्तु यावत्सहस्रारम् । द्वयोईयोस्तुल्यानि कल्पयो. तेन परं पुण्डरीकाणि ॥१॥" अयमर्थ-सौधर्मे प्रथमे देवलोके पञ्चवर्णानि विमानानि भवन्ति, यायत् सहस्रारम्-सहस्रारविमानपर्यन्ते तु वर्णानां मध्ये क्रमशः एकैकवर्णहानि भवति देवों के अधिकारसे अघ सूत्रकार सनत्कुमार आदि देवविशेषोंके विमानों का निरूपण दो सूत्रों द्वारा करते हैं-- टीकार्थ-" सणेकुमारमोहिंदेलु" इत्यादि । सनत्कुमार एवं माहेन्द्र इन दो कल्पो में विमान चार वर्णवाले कहे गये हैं, वे चार वर्ण इस प्रकार से हैं। नील १, लोहित २, हारिद्र ३, और शुक्ल ४ । अवशिष्ट कल्पो में अन्य प्रकार से विमान हैं। कहा भीहै-"सोहम्मे पंचवण्णा" इत्यादि-इस गाथा का अर्थ ऐसा है सौधर्म देवलोकमें पांचो ही वर्णों वाले विमान है, ईशानकल्पमें भी દેવનો અધિકાર ચાલુ છે. તેથી સૂત્રકાર હવે સનકુમાર આદિ દેવ વિશેનાં વિમાનનાં વર્ણ આદિનું નિરૂપણ કરે છે. साथ-" सणंकुमार माहि देसु" त्या સનસ્કુમાર અને માહે, આ બેંકમાં ચાર વર્ણવાળાં વિમાન હોય छ-ते या२ नाय प्रभाये छ-(१) नास, (२) साडित ( ala), (3) डारिद्र (पानी) मन (४) शुद. माडीन योमा गन्य प्रश्न विभाना छे. ४ ५ छ ? “ सोहम्मे पच वण्णा " त्याह Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०४३०४ सू०३९ सनत्कुमारादीनां विमाननिरूपणम् ४६९ तेषु सौधर्मादि सहस्त्रारपर्यन्तेषु द्वयोद्वयोः कल्पयोः विमानानि तुल्यवर्णानि भवन्ति, ततःपरं-सहस्रारदेवलोकात्परतः स्थितेषु देवलोकेषु विमानानि पुण्डरीकाणि-श्वेतवर्णानि भवन्तीति । __अयं भाव:-सौधर्मेशानयोः कल्पयोः विमानानि पञ्चवर्णानि काल-नीललोहित-हारिद्र-(पीत) शुक्लवर्ण युक्तानि भवन्ति, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोविमानानि चतुर्वर्णानि नीलादि चतुर्वर्णयुक्तानि भवन्ति, ब्रह्मलान्तकयोः विमानानि त्रिवर्गानि लौहित्यादित्रिवर्णयुक्तानि भवन्ति, शुक्रसहस्त्रारयोः विमानानि द्विवर्णानि हारिद्र-शुक्लवर्णयुक्तानि भवन्ति, आनत-प्राणतारणाच्युतेषु विमानानि श्वेतवर्णानि भवन्तीति । "महामुक्सपहस्सारेसु णं " इत्यादि-स्पष्टम् , नवर-भवधारणीयानिभवे धार्यन्त इति भवधारणीयानि, यद्वा-भवं धारयन्तीति भवधारणीयानि जन्मत आरभ्य मरणपर्यन्तं शरीराणि तिष्ठन्ति, तानि कियत्परिमाणानि ? इति प्रदर्शयति-'उकोसेणं इत्यादि-उत्कर्षण चतस्रः रत्नयः-चतुहस्त-प्रमाणानि । यद्यपि रनिर्वद्धमुष्टिको हस्तोऽन्यत्र, अत्र रत्निस्तु प्रसारिताबगुलिको हस्त उच्यते, पांचो ही वर्णों वाले विमान हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो देवलोको में चार वर्णों वाले विमान हैं । ब्रह्म और लान्तक में तीन वर्णो - वाले विमान हैं। शुक्र और सहस्रार में दो वर्णों वाले विमान हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन कल्पों में केवल श्वेत वर्णवाले विमान हैं। __"महालुक्कसहस्लारेलु णं" इत्यादि--महाशुक्र और सहस्रार इन दो कल्पों में देवोंके भवधारणीय शरीर उकृष्ट से चार रत्निप्रमाण ऊंचाईवाले कहे गये हैं। जो शरीर जन्म से लेकर भरण पर्यन्त रहता है, वह भवधारणीय शरीरहै । इनके शरीरकी ऊंचाई का प्रमाण चार रत्नि-चार हाथ हैं । यद्यपि बद्ध मुष्टिवाले हाथ को अन्यत्र एक रत्नि આ ગાથાને અર્થ નીચે પ્રમાણે છે—સૌધર્મ અને ઇશાને દેવલોકમાં પાંચે વર્ણનાં વિમાને છે સનકુમાર અને મહેન્દ્ર કપમાં ચાર વર્ણવાળાં વિમાને છે બ્રહ્મલે ક અને લાન્તકમાં ત્રણ વર્ણવાળાં વિમાને છે શુક્ર અને સહસ્ત્રારમાં બે વર્સોવાળા વિમાને છે. આનત, પ્રાણત, આરણ અને અમૃત આ કલ્પમાં કેવળ શુકલ વર્ણવાળાં વિમાને છે. “महासुक्क सहस्सारेसु णं " त्याहि-माशु भने सन्नार ४८पाना દેવેનું ભવધારણીય શરીર અધિકમાં અધિક ચાર રનિપ્રમ ણ ઉચાઈવાળ હોય છે જે શરીર જન્મથી લઈને મરણ પર્યન્ત રહે છે, તે શરીરને ભવધારણીય શરીર કહે છે ચારે પત્નિપ્રમાણુ ઉંચાઈ એટલે ચાર હાથની ઊંચાઈ સમજવી. જો કે કેટલાક શાસ્ત્રોમાં મુઠ્ઠી વાળેલા હાથ જેટલા પ્રમાણને એક Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० स्थानासूत्रे तथाप्यत्र रत्नशब्देन हस्तमात्रं गृह्यते, ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि शुक्रसहस्रारयोः कल्पयोर्देवाचतुर्हस्ता भवन्ति, अन्येषु तु अन्यथा, यत उक्तम् - भवण १० वणज्जो ५ सोहमीसाणे सत्त होंति रयणीओ | एकेकहाणि से से दुदुगे य दुगे चउके य ॥ १॥" गेविज्जेतुं दोनी एका रयणी अणुत्तरेसु । छाया - भवनवानज्योतिष्क सौधर्मेशाने सप्त भवन्ति रत्नयः । एकैकानिः शेषेषु द्विके द्विके च द्वि- चतुरके च ॥१॥ ग्रैवेयके द्वे रत्नी एका रत्निरनुत्तरेषु । अयमर्थः - भवनपति - व्यन्तर- ज्योतिष्क- सौधर्मे-शान देवानां शरीराणि सप्तरत्नयो भवन्ति । ततःपरं शेषेषु सनत्कुमारादिषु दशकल्पेषु द्विके= सनत्कुमारसाहेन्द्र द्वये, द्विके ब्रह्मलान्तकद्वये, हिके = शुक्रसहस्रारद्वये च चतुष्के - आनतप्राणतारणाच्युतचतुष्टये च क्रमशः एकैरत्नि हानिर्भवति । अयं भावःसनत्कुमार माहेन्द्रयोर्देवानां शरीराणि पत्नि प्रमाणानि भवन्ति, ब्रह्मलान्तयो देवानां शरीराणि पञ्चरत्नि प्रमाणानि भवन्ति, शुक्रसहस्त्रारयोर्देवानां शरीराणि कहा गया है | परन्तु यहां पर पसारी हुई अंगुलियोंवाला हाथ रनि शब्द से कहा गया है । इसलिये यहां रत्नि शब्द से हस्नमात्र लिया गया है । इसी तरह ऐसा जानना चाहिये कि शुक्र और सहचारकल्प के देव चार हाथवाले ऊंबे होते हैं, अन्य देवों में ऐसा नियम नही है । कहा भी है- " भवणवण जोइस " इत्यादि - - इनका अर्थ ऐसा है भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान देवों के शरीर सात रत्नप्रमाणचाले होते हैं अर्थात् सात हाथकी ऊंचाईवाले होते हैं सनत्कुमार और माहेन्द्र के देवों के शरीर ६ रत्नि ऊचे होते हैं। ब्रह्मन् देवों के शरीर ५ रत्निप्रमाण ऊचे होते हैं । शुक्र सहस्त्रार રતિપ્રમાણુ કહ્યું છે, પણ અહીં ખુલ્લી મુઠ્ઠીવાળા હ થ પ્રમાણુ માપને એક રભિપ્રમાણુ કહ્યુ છે આ પ્રકારે અહીં એવું સમજવાનુ` છે કે શુક્ર અને સહસ્રાર કલ્પના દેવાના ભવધારણીય શરીરની ઉચાઈ ચાર હાથપ્રમાણુ હાય છે, અન્ય કલ્પાના દેવેાની ઉંચાઇ એટલી હાતી નથી. કહ્યુ પણ છે કે~~ भवणवणजोइस ” इत्याहि- लवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्ड, सौधर्म કલ્પવાસી અને ઇશાન કલ્પવાસી દેવાતા શરીરની ઉંચાઇ ( સાત હાથ ) ડાય છે. સતકુમાર અને માહેન્દ્ર કલ્પના હનીપ્રમાણ હોય છે. બ્રહ્મલેાક અને લાન્તક કલ્પના દેવેની ઉંચાઈ પાંચ "" સ.ત રÉિપ્રમાણુ ઢવાની ઉંચાઈ છ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ सुधा टीका स्था०४ ४०४ सू०३९ सनत्कुमारादीनां विमाननिरूपणम् चतुररिन प्रमाणानि भवन्ति, आनतप्राणतारणाच्युतेषु चतुर्षु देवलोकेषु देवानां शरीराणित्रिरत्नप्रमाणानि भवन्तीति । तथा ग्रैवेयकेषु देवानां शरीराणि द्विरत्नप्रमाणानि भवन्ति तथा चतुर्व्वनुत्तरविमानेषु देवानां शरीराणि एकरत्निप्रमाणानि भवन्ति । सर्वार्थसिद्धविमाने तु देवानां शरीराणि बद्धमुष्टिरनि प्रमाणानि भवन्तीति । . एवं धारणीयानि शरीराणि भवन्ति, उत्तरवैक्रियाणि तु उत्कृष्टत्वेन लक्षयोजन परिमितान्यपि सम्भवन्ति, जघन्यतस्तु उपपादकालेऽङ्गुला संख्येमभागप्रमाणानि भवधारणीयानि भवन्ति, उत्तरवैक्रियाणितु अङ्गुला संख्येयभागप्रमाणानि भवन्तीति ॥ सु० ३९ ॥ के देवों के शरीर ४ रत्निप्रमाण ऊंचे होते हैं । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार देवलोकों में देवों के शरीर तीन रत्निप्रमाण ऊचे होते हैं। तथा चैवेधकवासी देवों के शरीर द्वीरत्निप्रमाण ऊंचे होते हैं। चार अनुत्तर विमानों में रहे हुए देवों के शरीर एक रत्निप्रमाण ऊंचे होते हैं । परन्तु सर्वार्थसिद्ध विमान में देवों के शरीर बद्धमुष्टिवाले एक हाथ प्रमाण ऊंचे होते हैं । यह भवधारणीय शरीरों की ऊंचाई कही गई है । उत्तरवैक्रिय शरीरों की ऊंचाई तो एक लाख योजनतक की भी हो सकती है । तथा जघन्य की अपेक्षा उपपाद कालमें अगुल के असंख्य भाग प्रमाण ऊंचाई होती है । और उसर वैक्रिय शरीरों की ऊंचाई भी जघन्य की अपेक्षा अंगुल के असंख्यानवें भाग प्रमाण है || सू० ३९ ॥ રદ્ઘિપ્રમાણ હોય છે, શુક્ર અને સહસ્રાર કલ્પના દેવાના શરીરની ઉંચાઈ ચાર रत्नप्रभाणु होय छे. ज्ञानत, आशुत, खाइए भने अभ्युत, भा यार देवલેાકના દેવાનાં શરીરની 'ચાઈ ત્રણ રદ્ધિપ્રમાણ હોય છે. ત્રૈવેયકનિવાસી દેવાની ઉંચાઈ એ રત્નિપ્રમાણુ હાય છે. સર્વાં་સિદ્ધ સિવાયના ચાર અનુત્તર વિમાનાના દેવેની ઉચાઇ એક રત્નિપ્રમાણુ હાય છે, પરન્તુ સર્વાસિદ્ધ વિમાનના દેવેની ઉંચાઈ મુઠ્ઠી વાળેલા એક હાથપ્રમાણુ હાય છે. અહી જે ઉચાઇ કહી છે તે ભવધારણીય શરીરની જ 'ચાઇ સમજવી. ઉત્તર વૈક્રિય શરીરાની ઉંચાઈ તે વધારેમાં વધારે એક લાખ ચેાજન સુખીની હાઇ શકે છે, અને એછામાં ઓછી ઉચાઇ ઉપપાદ કાળે અંગુલના અસ ખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ હોઈ શકે છે, અને ઉત્તર વૈક્રિય શરીરની જઘન્ય ઉંચાઇ પણ અશુલના અસખ્યાતમાં ભ ગપ્રમાણુ હાય છે. ! સૂ, ૩૯ ૫ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानातसूत्रे पूर्व देववक्तव्यताऽभिहिता, देवाश्थाकायतयाऽप्युत्पयन्त इति जलगभीन् निरूपयितुं द्विसूत्रीमाह मूलम्च त्तारि उदगगम्भा पण्णता, तं जहा--उस्सा १, महिया २, सीया ३, उसिणा ४। चत्तारि उद्गगम्भा पण्णत्ता, तं जहा-हेमगा १, अब्भसंथडा २, सीयोसिणा ३, पंचरूविया। माहे उ हेमगा गब्मा, फग्गुणे अन्मसंथडा । लोयोखिणा उचिन्ते, वइसाहे पंचरूविया ॥१॥ ॥ सू० ४० ॥ छाया-चत्वार उदकगर्माः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अवश्यायः १, मिहिकाः २, शीताः ३ उष्णाः ४। चत्वार उदकगर्भाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-हमकाः १ अभ्रसंस्तृताः २, शीतोष्णाः ३ पञ्चपिकाः ।। " माधे तु हैमका गर्भाः, फाल्गुने असंस्थिताः । शीतोष्णास्तु चैत्रे, वैशाखे पञ्चरूपिकाः ॥११॥ सू० ४०॥ टीका--' चत्तारि उदगगम्भा' इत्यादि-उदकस्य-जलस्य गर्भाः गी इब गर्भाः-गर्भा थया जन्तृत्पत्तिहेतवो भवन्ति, तथा-कालान्तरे जलवपणनिमित्तरूपाः चत्वारोऽनुपदं वक्ष्यमाणाः प्रज्ञप्ताः, ते के ? इत्याह-' तंजहे ' त्यादितद्यथा-अवश्यायाः-रात्रिपतितजल कणरूपाः, तथा-मिहिका-धूमिका २ तथा देव अपशायरूप से भी उत्पन्न हो जाते हैं । अनः सूत्रकार जलगभॊ की निरूपणा दो सूत्रों द्वारा करते हैं-" चत्तारि उद्गगम्भा पणत्ता" इत्यादि। टीकाथ-उदक गर्भ चार प्रकारके कहे गयेहैं जैसे अवश्याय१, मिहिका २, शीतो ३, और उष्णा ४ । जिस प्रकार गर्भ जन्तु की उत्पत्ति का कारण होता है, उसी प्रकार जो कालान्तर में जलवर्षण का निमित्त होता है वह जलगर्भ है । जो रात्रि में गिरे हुए जलकण के रूप होता है, वह अवश्यायरूप जलगर्भ है । धूमिकारूप जो जलकण होते हैं, वे દેવ અપૂકાય રૂપે પણ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તેથી સૂત્રકારે બે સૂત્રે द्वारा ranानु नि३५ ४रे छे. “ चत्तारि उद्गगम्भा पण्णत्ता " त्याहि ટીકાઈ–ઉદક ગર્ભ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે, તે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે– (१) म१श्याय, (२) भिडि२, (3) ता, (४) SY२ रे गन्तुनी ઉત્પત્તિનું કારણ હોય છે, એ જ પ્રમાણે જે ગર્ભ કાલાન્તરે જલવર્ષણનું નિમિત્ત બને છે તેનું નામ જલગ છે. જે રાત્રે પડેલાં જલકરણરૂપ હોય છે Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबा डोका स्वा०४ उ०४ सू०४० जलगर्भनिरूपणम् ४ | शीताः - आत्यन्तिकहिमकणरूपाः ३ तथा - उष्णाः - आत्यन्तिकोष्णरूपाः यद्येतेऽवश्यायादयश्वत्वारो यस्मिन् दिवसे भवन्ति, न च विच्छिन्ना भवन्ति तदा तस्माद्दिनादारभ्य सार्धषमिमसरुडकवृष्टि जनयन्ति । ૨૭૩ .4 पुनः चत्तारि उदगगमा " इत्यादि, स्पष्टम्, नवरम् हैमकाः हिम-तु पारः, हिममेव हिमकं, हिमकस्येसे हमका : हिमनिपातरूपा : १, तथा - अभ्रसंस्तृताः - मेघाडम्बररूपाः २ तथा - शीतोष्णाः शीतोष्णरूपाः ३, तथा-पश्चरूपिका- गर्जितविद्युज्जलनात मेघरूपाणां पञ्चानां रूपाणां समाहारः पञ्चरूपं तदस्त्येषामिति पञ्चरूपिका उदकगर्भाः ४ | 4 मिहिका रूप जलगर्भ है । अत्यन्त हिमकण रूप जो जलकण होते हैं, वे शीतरूप जलगर्भ हैं । एवं अत्यन्त उष्णरूप जो होते हैं, वे उष्णगर्भ हैं। यदि ये अवश्वापादिक जिस दिन होते हैं और विच्छिन नहीं होते हैं, तब उस दिन से लेकर साढे छ मास बीतने पर उदकवृष्टि करते हैं । फिरभी -- -- " चत्तारि उद्गगभा" उदक गर्भ चर प्रकार के कहे गये हैं- जैसे हैमक १, अभ्रसंस्तृत २, शीतोष्ण ३, और पञ्चरूपिक ४ । जो हैमक जलगर्भ हैं में तुषार पढ़ने के रूप में होते हैं १ । अभ्रसंस्तृत जलगर्भ मेघों के आडम्बर के रूप में होते हैं २ । शीतोष्ण जलगर्भ शीत उष्ण दोनों रूपमें होते हैं । जो पञ्चरूपिक जलगर्भ है वे गर्जना, विद्युत्, जल, वात, और मेघ इन पांचों रूपवाले होते हैं । તેને અવશ્યાય રૂપ જલગલ કહે છે ભૂમિકા રૂપ જે જલકરણ ઢાય છે તેને મિહિકા રૂપ ( ધુમસ રૂપ) જલગમ કહે છે અત્યન્ત હિમકણુ રૂપ જે જલકણા હોય છે તેમને શીત રૂપ જલગ કહે છે અત્યંત ઉષ્ણુ રૂપ જે. જલકણા હાય છે તેમને ઉષ્ણુગ કહે છે. આ અવસ્થાક્રિક ચાર જે દિવસે ડાય છે તે દિવસે જો તેએ વિચ્છિન્ન ન થાય તેા તે દિવસથી શરૂ કરીને ॥ भास सुधी दृष्टि अरे छे. " चत्तारि उद्गगन्भो " ઉદક ગર્ભના આ प्रभाशे यार प्रहार पशु उह्या छे – (१) ईमङ, (२) अब्रसंस्तृत, (3) શીતષ્ણુ અને (૪) પચરૂપિક હેમક જલગ તુષાર ( ઝુ કળ ) પડવા રૂપ હોય છે. અબ્રસ સ્મૃત જલગભ* મેઘાના આ બર રૂપ હોય છે. શીવૈષ્ણુ જલગભ' શીત અને ઉષ્ણુ બન્ને રૂપે હૈાય છે. જે પાંચરૂપિક જલગમ છે તે ગર્જના વિદ્યુત, જલ, વાતું અને મેઘ આ પાંચ રૂપાળા હાય છે, Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ - - स्थानाङ्गसूत्र । तानेबोदकगीन मासभेदेन प्रदर्शयति--'माहे उ हेमगा' इत्यादि माघमासे हिमपातरूपा गर्मा यान्ति १, एवं फालनमासे अभ्रसंम्तृता मेघाडम्मररूपा गर्भाः २, चैत्रमासे शीतरूपा उष्णरूपा वा गा भवन्ति ३, चैशाखमासे च पञ्चरूपिका:-गणित-विधु-जलयात-मेघरूपाः पञ्चविधा अपि गर्मा भवन्तीति ॥ २ ॥ इह मतान्तरमेवम् - " पौपे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । । नात्यर्थं मार्गशिरे शोतं पौपेऽति हिमपातः॥१॥ माघे प्रवलो वायुस्तुपारकलुप धुती रवि-शशाङ्कौं । अति शीतं सघनस्य च भानोरस्तोदयौ धन्यौ ।।२।। फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्डः पवनोऽभ्रसम्प्लवाः रिनग्धाः । परिवेपाश्चाऽसकलाः कपिलस्ताम्रो रविश्च शुभः । ३॥ पवनधनदृष्टियुक्ताश्चत्रे गर्भाः शुभाः सपरिवेपाः । धनपवनसलिल विद्युत्स्तनितेश्च हिताय वैशाखे ।।४।। इति ॥ ४ ॥ पूर्वमुदगी उक्ताः, सम्पति गर्भाधिकारान्मानुपीगर्भाग्निरूपयितुमाह मूलम्-चत्तारि माणुस्सी गम्भा पण्णत्ता, तं जहा--इस्थिताए १, पुरिसत्ताए २, णपुंसगत्ताए ३, विवत्ताए । अप्पं सुकं बहुं ओयं इत्थी तत्थ पजायई । अप्पं ओयं बहुं सुझं पुरिसो तत्थ पजायई ॥१॥ . "माहे उ हेमगा', इस श्लोक द्वारा सूत्रकारने हैमक आदि जलगों को मासभेद से प्रकट किये हैं। हैमक जलगर्भ माघ मासमें होते हैं। फाल्गुन में अभ्रसंस्थित-अभ्रसंस्तृत जलग होते हैं। चैत्र के महीनामें शीतोष्ण जलगर्भ होते हैं, और वैशाख में पञ्चरूपिक जल गर्भ होते हैं इस विषयमें मतान्तर ऐसा है-" पौषे समार्गशीर्षे " इत्यादि- ॥० ४० ॥ ___“ मा उ हेमगा" मा ४ द्वा२१ सूत्र इभ मान માસભેદની અપેક્ષાએ પ્રકટ કર્યા છે-હેમક જલગભરનું અસ્તિત્વ મા (મહા) માસમાં હોય છે, ફાગણ માસમાં અશ્વસંતૃત જલગર્ભનું, ચિત્રમાં શીતેણ જલગર્ભનું અને વૈશાખમાં પંચરૂપિક જલગર્ભનું અસ્તિત્વ હોય છે આ વિષया अन्य मान्यता 241 प्रभारी छ. “ पौधे समर्गशीये . याहि-सू.४० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४७४ सू०४१ मानुषीगर्भनिरूपणम् दोपि रत्तसुक्काणं तुलभावे णपुंसओ । इत्थी ओयसमाओगे बिंबं तत्थ पजायई ||२|| सू० ४१ ॥ छाया - चत्वारो मानुषीगर्भाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - स्त्रीतया १, पुरुषतया २, नपुंसकतया ३, विम्बतया ४ | अल्पं शुक्रं बहु भोजः स्त्री तत्र प्रजायते । अल्पमोजो बहुशुक्रं पुरुषस्तत्र मजायते |१| द्वयोरपि रक्त-शुक्रयोस्तुल्यभावे नपुंसकः । स्त्रयोजः समायोगे विम्बं तत्र प्रजायते ||२|| सु० ४१ ॥ टीका - " चत्तारि माणुस्सीगन्भा " इत्यादि - ४७५ मनुष्याः - नार्या, गर्भाः चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - स्त्रीतया - स्त्रीने को गर्भः १, पुरुषतया २, नपुंसकतया २, एवं विस्तया-विम्बं - गर्भप्रतिविम्बं - गर्भाकृतिरार्तवपरिणामः, न तु गर्भ एव तस्य भात्रो विस्वता तया की निरूपणा गर्भ के अधिकारको लेकर अब सूत्रकार मानुषी करते हैं । " वारि माणुस्ती भा" इत्यादि टी कार्थ- मानुषी गर्भ चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे- स्त्रीवाला गर्भ १, पुरुषवाला गर्भ २, नपुंसकवाला गर्भ ३ और रिपवाला गर्भ ४ । जिस गर्भ से कन्याकी उत्पत्ति होती है, वह स्त्रीवाला गर्भ है, जिस गर्भसे पुत्र की उत्पत्ति होती है वह पुरुषवाला गर्भ है । जिस गर्भ से नपुंसक की उत्पत्ति होती है वह नपुंसकवाला गर्भ है । और जो गर्भ की आकृति जैसा आर्तव परिणाम होता है, वह विम्बयाला गर्भ है, यह वास्तव में गर्भ नहीं होता है, खून ही इस प्रकार के पिण्डरूप में ગર્ભની પ્રરૂપણા ચાલી રહી છે, તેથી હવે સૂત્રકાર માનુષી ગૉની ३परे छे " चत्तारि माणुस्सी गन्भा " छत्याहि ટીકા –માનુષી ગર્ભના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) સ્રીવાળા ગભ, (२) पुरुषवाणी गर्भ, (3) नथु सम्वाणो गर्भ भने (४) मिभ्यवाणी गर्भ, જે ગભ માંથી કન્યાની ઉત્પત્તિ થાય છે, તે ગર્ભને સ્ત્રીવાળા ગભ કહે છે, જે ગર્ભમાંથી પુત્રની ઉત્પત્તિ થાય છે, તે ગર્ભને પુરુષવાળે ગર્ભ કહે છે જે ગર્ભમાંથી નપુ ́સકની ઉત્પત્તિ થાય છે તે ગર્ભને નપુ ંસકવાળા ગમ કહે છે. જ્યારે આ પરિણામ ગર્ભના જેવા આકાર માત્રજ ધારણ કરે છે, ત્યારે તે ગાને બિમ્બવાળા ગભ કહે છે. ખરી રીતે તે તે ગર્ભ જ હાતા નથી, પણ રુધિર જ આ પ્રકારના પિંડરૂપે એકઠું થઇ જાય છે, Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খালা उक्तञ्च अवस्थितं लोहितमानाया, वातेन गर्भ ब्रुवतेऽनभिज्ञाः । गर्भाऽऽकृतित्वात् कटुकोणतीक्ष्णः, खुते पुनः केवल एव रक्ते ॥१॥ गर्भ जडा भूतहृतं वदन्ती"-त्यादि । अयमर्थः- अनमिज्ञाः जना अनाया उदरे वातेन वातवशात् पिण्डरूपेण अवस्थितं शोणितं गर्भाकृतित्वात् गर्भसमानाकारत्वाद् गर्भ त्रुवते कथयन्ति । पुनः-कटुकोष्णतीक्ष्णैः कष्णतीक्ष्णपदार्थ सेवनेन रक्त एव केवले सुते-निर्गते जडाः अज्ञ पुरुषा गर्भ भूतहृतं वदन्तीति ।। गर्भस्य कारणभेदेन वैलक्षण्यं भवति, तत्पद्यद्वयेन प्रकटयति " अप्पं मुकं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजायई । अप्पं ओयं वहुं सुकं, पुरिसो तत्थ पजायई ॥ १ ॥ दोहं पि रत्तमुक्काणं तुल्लभावेणपुंसओ। इत्थीभोयसमाओगे विवं तत्थ पजायई ॥२॥ इकट्ठा हो जाता है। कहा भी है " अवस्थितं लोहितमङ्गनाया " इत्यादि तात्पर्य ऐसा है कि गर्भशास्त्र को नहीं जाननेवाले मूढजन स्त्रीके पेट में जो वायुके वश से शोणित गर्भ के आकारमें अवस्थित हो जाता है, ऐसे गर्भ के जैसा आकारवाला होने के कारण गर्भ कहते हैं । जब वह रक्त कटु उष्ण तीक्ष्ण पदार्थ के लेवनसे बाहर निकलताहै, तोअज्ञानी लोग ऐसा कहने लगते हैं कि गर्भ का हरण भूतने कर लिया है। गर्भ में कारण के भेद से विलक्षणता होतीहै, इस पातको सूत्रकार " अप्प सुक्कं " इत्यादि श्लोक द्वारा प्रकट करते हैं-- ४ ५ छ । “ अवस्थित लोहितमगनाया" त्याह આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–સ્ત્રીના પેટમાં વાયુના કારણે શેણિત જ્યારે ગર્ભના આકારમાં–પિંડના આકારમાં આવી જાય છે, ત્યારે તેને ગર્ભના જે આકાર લેવાથી અબુધ કે તેને ગર્ભ માની લે છે. જયારે તે રક્ત ગરમ, કડવા આદિ પદાર્થોના સેવનને લીધે બહાર નીકળે છે ત્યારે મૂઢ જો એવું કહે છે કે કેઈ ભૂત પ્રેતાદિએ ગર્ભનું હરણ કણ છે. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७' सुधा टीका स्था० ४ १०४ सू० ४१ मानुषीगर्भनिरुपण शुक्र-पुरुषसम्बन्धिरेतः, तदनं, तथा ओनलीसम्बन्धि रजो यदि पहु-शुक्रापेक्षयाऽधिकं भवति, तदा तत्र-गर्भाशये स्त्री-कन्या प्रजायते-उत्पधते । तथा-ओजोऽल्पं शुक्रं च बहु यदि भवति तत्र पुरुषः प्रजायते । तथा-द्वयोरपि रक्त-शुक्रयोस्तुत्यभावे-समानपरिमाणत्वे नपुंसकः मजायते, तथा-योज: समायोगे-स्त्रिया ओज योजस्तेन सह समायोगः-घायुप्रकोपवशेन ओजसः स्थिरीभवनलक्षणः योजः समायोगस्तस्मिन् सति तत्र-गर्भाशये विम्बमांसपिण्डरूप प्रजायते ।२। इहाऽपरैरुक्तम् "अत एवच शुक्रस्य वाहुल्याज्जायते पुमान् । रक्तस्य स्त्री, तयोः सारये क्लीवः शुक्रातवे पुनः॥१॥ वायुना वहशो मिन्ने यथास्वं बहपत्यता। वियोनि विकृताकारा जायन्ते विकृतैर्मलैः ॥२॥” इति । " अप्पं सुक्कं बहुं ओयं " इनका भावर्थ ऐसा है--जय पुरुष का वीर्य अल्प होता है, और स्त्री का रज शुक की अपेक्षा अधिक होताहै, तब गर्भाशय में कन्या उत्पन्न होती है । जब इससे विपरीत वान होती है अर्थात् पुरुषका शुक्र-वीर्य अधिक होता है और स्त्री का रज शुक्र की अपेक्षा अल्प होता है, तब गर्भाशयों पुत्र उत्पन्न होता है । जब शुक्र और रज ये दोनों परिमाण में समान होते हैं, तब गर्भाशयमें नपुंसक उत्पन्न होता है । और जब स्त्री का ओज वायु के प्रकोष के वश से स्थिर हो जाता है तब गर्भाशय में मौलपिण्डरूप बिम्ब उत्पन्न होता है। इस विषय में अन्यजनों का ऐसा कथन है-- ___"अतएव च शुक्रस्य " इत्यादि--इनका भावपूर्वोक्त जैसा ही है, जय शुक्र और आतंत्र गायु के वश से अनेक रूपमें भिन्न २ हो ગર્ભમા કારણના ભેદને લીધે જે વિલક્ષણતા હોય છે તે હવે સૂત્રકાર ५४८ ४२ छ-" अप्प सुकं बहुं ओयं" જ્યારે પુરુષષનું વીર્ય અ૫ હેય છે અને સ્ત્રીનું જ વીર્ય કરતાં અધિક પ્રમાણમાં હોય છે, ત્યારે ગર્ભાશયમાં કન્યા ઉત્પન્ન થાય છે. જ્યારે આના કરતાં વિપરીત વાત બને છે–એટલે કે જ્યારે પુરુષનું વીર્ય સ્ત્રીના રજ કરતાં અધિક પ્રમાણમાં હોય છે, ત્યારે ગર્ભાશયમાં પુત્ર ઉતપન્ન થાય છે. જ્યારે શુક્ર અને રજ અને સપ્રમાણુ હોય છે, ત્યારે ગર્ભાશયમાં નપુંસક પેદા થાય છે. જ્યારે સ્ત્રીનું એજ વાયુના પ્રકેપને કારણે સ્થિર થઈ જાય છે, ત્યારે ગર્ભાશયમાં માંસપિંડ રૂપ બિસ્મ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને અન્યને એવું કહે છે કે Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ स्थानाशास्त्र वत्र रक्तस्य वाहुल्यात् स्त्रीजायत इत्यर्थः, शुक्ररजसि समे सति क्लीन इत्यर्थः ।। ।० ४१॥ पूर्व गर्भ उक्तः, सच प्राणिनामुत्पाद उच्यते, सचोत्पादाख्यपूर्वे विस्तरेण प्रतिपादित इति तत्स्वरूाविशेष निरूपयितुमाह-- मूलम्-उपायपुवस्सणं चत्तारि चूलिया वत्थू पण्णत्ता ।सू.४२ छाया--उत्पादपूर्वस्य खल्ल चत्वारि चूलिकावस्तूनि प्रज्ञप्ताति ॥५० ४२॥ टीका--' उप्पायपुवस्स' इत्यादि-उत्पादपूर्वस्य - उत्पादमतिपादकं पूर्वमुत्पादपूर्व तच पूर्वाणां मध्ये प्रयमं पूर्वम्, तस्य खलु चूलिकावस्तूनिचूलिकाः अग्राणि तद्वत् आचारस्य प्रधानानि, तद्रूपाणि वस्तूनि-परिच्छेदविशेषाः अध्ययनवत्-चूलिका वस्तूनि चत्वारि प्रज्ञप्तानि ।। सू० ४२ ॥ जाते हैं, तब विकृत हुए मलों द्वारा गडबड योनि और आकारवाली अनेक सन्तान उत्पन्न होती है। यहां पर भी रक्त की अधिकता में कन्या उत्पन्न होती है और शुक्र रज की समानतामें नपुलक सन्तान होता है, ऐसा ही प्रकट किया गया है ।। सू० ४१ ।। . कथित यह गर्भ प्राणियों का उत्पाद रूप होता है-इलका कथन उत्पाद पूर्व में विस्तार से किया गया है, इसलिये अब सूत्रकार उस उत्पादपूर्वका स्वरूप कहते हैं । " उपपायपुरसण" इत्यादि-- टोकार्थ-उत्पाद पूर्व फ्री चार चूलिका रूप वस्तुएँ कही गईह, उस्माद का प्रतिपादक जो पूर्व है वह उत्पाद पूर्व है, यह पूर्वो के बीच में प्रथम पूर्व " अतएव च शुक्रस्य ” मा ४थनना मावार्थ 10 sol मा . જ્યારે શુક (વીર્ય) અને આર્તવ (૨૪) વાયુને કારણે અનેક રૂપે ભિન્ન ભિન્ન થઈ જાય છે, ત્યારે વિકૃત થયેલા મળો દ્વારા વિચિત્ર ની અને આકારવાળા અનેક સંતાને ઉત્પન્ન થાય છે, અહીં પણ વીર્યની અધિકતા હોય તે પુત્ર ઉત્પન્ન થાય છે, રજની અધિકતા હોય તે કન્યા ઉત્પન્ન થાય થાય છે અને શુક અને રજની સમાનતા હોય ત્યારે નપુંસક સંતાન પેદા થાય છે, એવું જ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. | સૂ. ૪૧ ૧ પૂર્વોક્ત ગર્ભ જ છોની ઉત્પત્તિમાં કારણભૂત બને છે. આ વિષયનું કથન “ઉત્પાદપૂર્વમાં” વિસ્તારપૂર્વક કરવામાં આવ્યું છે તેથી હવે સૂત્રકાર તે ઉત્પાદપર્વના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે " उपायपुवस्स णं चत्तारि" त्याટીકાઈ–ઉત્પાદ પૂર્વની ચાર ચૂલિકા કહી છે. ઉત્પાદનું પ્રતિપાદન કરનારૂં જે પૂર્વ છે તેનું નામ ઉત્પાદપૂર્વ છે. બધાં પૂમાં તે પ્રથમ પૂર્વ છે. જેમ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबा ठीका स्था० ४ उ ४ सू०४३ चतुर्विध काव्य स्वरूपनिरूपणम् उत्पाद पूर्वे काव्यस्य समावेश इति तद्विभागानाह-मूलम् - चउहि कडे पण्णत्ते, तं जहा गजे १, पज्जे २, करथे ३, गेए ४ ॥ सू० ४३ ॥ छाया -- चतर्विधं काव्यं मज्ञप्तम्, तद्यथा - गद्यं १, पद्यं २, कथ्यं ३ गेयम् ४ ॥ ४३ ॥ 1 टीका - - ' चउनि कव्वे " इत्यादि - - काव्यं - कवयति-वर्णयतीति कविः, तस्य भावः कर्म वा काव्यं - ग्रन्थः, तव्वतुर्विधं प्रज्ञप्तं तद्यथा - गद्यम् - छन्दोबन्धरहितं वाक्यम्, शस्त्रपरिज्ञाध्ययनं यथा १, तथा-पद्यं - छन्दोबद्धं वाक्यं, यथाविमुक्तयध्ययनम् २, तथा-कथ्यं - कथायां साधु कथ्यं यथा - ज्ञाताध्ययनम् , है, अध्ययन की तरह इसकी चूलिकारूप वस्तुएँ - परिच्छेद विशेष चार हैं || सू० ४२ । उत्पाद पूर्व में काव्य का समावेश होता है, इसलिये सूत्रकार काव्य के विभागों को कहते हैं । " चउव्विहे कव्वे पण्णत्ते " इत्यादिटीकार्थ-काव्य चार प्रकारका कहा गया है, जैसे-गद्य१, पचर, कथ्य ३ और गेय ४ । जो वर्णन करता है वह कवि है, कविका जो भाव या कर्म है वह काव्य ग्रन्थहै, इनमें जो काव्य छन्दोभद्ध से रहित होता है वह गद्यकाव्य है । जैसे - शस्त्रपरिज्ञाध्ययन १, जो वाक्य-काव्य छन्दोबद्ध होता है वह onion है । जैसे-भाचारांग सूत्र का आठमा विमुक्ति नामका अध्ययन २, जो कथा में साधु होता है अर्थात् जिसमें कथाए २ 11 ૪૭૨ કોઈ પશુ ગ્રન્થના પ્રકરણ ( અધ્યયન ) હાય છે તેમ ઉત્પાદપૂર્વના પશુ જે અયયન જેવાં પરિચ્છેદે ( પ્રકરણા, વિભાગે ) છે તેમને ચૂલિકા કહે છે उत्याहपूर्वनी मेवी यूसिअ यार है ॥ सू: ४२ ॥ ઉત્પાદ પૂમાં કાવ્યને પણ સમાવેશ થાય છે તેથી હવે સૂત્રકાર કાવ્યના વિભાગે નું કથન કરે છે. “ चवि कव्वे पणते " त्याहि टीडअर्थ - - अव्ययार प्रहारन ह्यांछे – (१) गद्य, (२) यद्य, (3) पृथ्य ने (૪) ગેય. જે વર્ષોંન કરે છે તેને કવિ કહે છે. કિવતા જે ભાવ અથવા તેનુ જે કમ તે કાવ્યગ્રંથ છે. જે કાવ્યે છન્દોબદ્ધથી રહિત હાય છે તે ગદ્યકાવ્ય કહે છે, જેમકે શસ્ત્રપરિજ્ઞાધ્યયન. જે વાકય હાય છે, તેને પદ્યકાવ્ય કહે છે, જેમકે આચારાંગ સૂત્રનું આઠમું વિમુર્ત્ય ધ્યયન જે કાવ્યમાં ( સાહિત્યમાં) કથાએને સદ્ભાવ હોય છે, તેને કથ્થ કાવ્ય કહે છે, જેમકે જ્ઞાતાયન, જે કાવ્ય ગાઇ શકાય એવું હોય છે તેને અથવા કા૫ છન્દોબદ્ધ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० स्थानानसूत्रे तथा-गेयं-गातुं योग्यं गेयम्-' अधुवे आसमयम्मि '' इति पदरागप्रतिर कापिलीयाध्यनम् । यद्यपि गद्यपधयोद्वयोरेव कथ्य-गेययोरप्यन्तर्भावस्तथापि पृथक् तदुभयो. पादानं कथागानधर्मविशिष्टतया विशेष सूचनाय ॥० ४३ ॥ पूर्व गेयमुक्त, तच मापास्वभावत्वाद्दण्डमन्धादिक्रमेण लोकैकदेशादि पूरयति, तेन समुद्घातो भवतीति समुद्घातं निरूपयितुमाह-- मूलम्--णेरइयाणं चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-- वेयणासमुग्याए १, कसायसमुग्घाए २, मारणतियसमुग्घाए ३, वेउब्वियसमुग्घाए । एवं बाउकाइयाणवि ।। सू० ४४ ।। छाया-औरयिकाणां चत्वारः समुद्घानाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमु. द्घातः १, कपायसमुद्घातः २, मारणान्ति ससमुद्घातः ३, वैक्रियसमुद्घातः ५॥ एव वायुमारिकानामपिं ।४४॥ रहती हैं वह कथ्यकाव्य है, जैसे-जाताध्ययन ३, जो गाने के योग्य होता है यह गेप काव्य है, जैसे-" अधुये अलावयम्मि" ऐसे ध्रुव पदरागले प्रतिबद्ध कापिलीय उत्तराध्ययन का आठमा अध्ययन है । । यद्यपि गथ और पद्य काव्यो में ही कथ्य और गेय काव्यों का भी अन्तर्भाव हो जाता है । फिर भी पृथकरूपसे जो इनका कथन किया गया है, वह कथा और गानधर्म विशिष्ट ये दोनों से रहित हैं, ऐसी विशेष सूचना के लिये कहा गया है। स्कू० ४३ ।। गेय महा यह गेय मापाका स्वभाव होने से दण्ड, मन्धान आदि क्रम से लोक के एकदेश आदिको पूरित करता है, इससे समुद्रात होता है, अतः अब सूत्रकार समुदघात का निरूपण करते हैं-- गया०५ ४३ छ, म " अधुवे असासयम्मि" मा ६१५४ साथी प्रति. બદ્ધ કપિલીય ઉત્તરાધ્યયનનું આઠમું અધ્યયન. જો કે ગદ્ય અને પદ્ય કાવ્યમાં જ કશ્ય અને ગેય કાવ્યને પણ સમાવેશ થઈ જાય છે, છતાં પણ અહીં તેમનું અલગ અલગ રૂપે પ્રતિપાદન કરવાનું કારણ એ છે કે કથા અને ગાનધર્મથી રહિત હોય તે તે બન્ને હીન બની જાય છે, એવું સૂચન કરવા નિમિત્ત સૂત્રકારે તેમને અલગ અલગ विमा ३३ प्र४८ ४ा छ. । सू. ४३ ॥ ગેયનું નિરૂપણ કર્યું. તે ગેય ભાષાસ્વભાવ હોવાથી દંડ, મન્થાન આદિ ક્રમે લેકના એકદેશ આદિને પૂરિત કરે છે, તેના દ્વારા સમુહૂવાત થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર સમુદ્રઘાતનું નિરૂપણ કરે છે. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४३०४सू०४४ समुद्घातस्वरूपनिरूपणम् ___टीका-णेरइयाणं चत्तारि' इत्यादि-नैरयिकाणां-नारकाणां समुद्घाताः यथास्वभावस्थितानामात्मप्रदेशानां वेदनादिमिः सप्तभिः कारणैः सस्-सम्यग् उद्घातनानि-स्वभावादन्यभावेन परिणयनानि समुद्घाताः शरीरादहिर्जीवप्रदेश प्रक्षेपरूपाः,चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घातः-वेदनया समुद्घातः१, तथाकपायसमुद्घातः कपायैः समुद्घाता२, तथा-मारणान्तिक समुद्घात:-मरणमेवान्तो मरणान्तः, तत्र भवो मारणान्तिकः स एव समुद्घातस्तथा ३, तथा-चैकियसमु. द्घातः-वैक्रियाय समुद्घातो वैक्रियसमुद्घातः ४ ॥४४॥ वैक्रियसमुद्घातो हि लब्धिरूप इति लब्धिप्रस्तावाद्विशिष्टश्रुतलब्धिसम्प "गैरइयाणं चत्तारि समुग्घाया" इत्यादि । टीकार्थ-नैरयिकों में चार समुद्घात कहे गयेहैं, जैसे-वेदना समुदघात? कषाय समुद्घात २, मारणान्तिकसमुद्घात ३ और वैक्रियममुद्घात ४ । यथा स्वभाव से स्थित आत्मपदेशों का वेदना आदि सात कारणों से जो अन्य स्वभावसे परिणमन होता है वह समुद्घान है । इसका तात्पर्य ऐसाहै कि शरीरसे बाहर जीव प्रदेशों का जो प्रक्षेप (निकालना) होताहै वह समुद्घान है, इसमें वेदना से जो समुद्घात होता है वह वेदना समुदघात है १, कषायों से जो समुदघात होता है वह कषाय समु-द घात है २, मरणरूप अन्त समय में जो समुद्घात होता है वह मारणानितक समुद्घात है ३, एवं विक्रिया ( अनेक आकार बनाना) के लिये जो समुद्घात होता है वह वैफियसमुद्घातहै ।। सू० ४४ ॥ यह वैक्रियसमुद्घात लधिरूप होता है, अतः लब्धि के सम्बन्ध ___"णेरइयाण चत्तारि समुग्घाया " त्याટીકાર્ય–નારકમાં ચોર સમુદઘાતને સદ્ભાવ હોય છે– (૧) વેદના સમુદ્દઘાત, (२) ४पाय समुद्धात, (3) भारान्ति समुद्धात अने (४) वैठिय समुद्धात યથા સ્વભાવે રહેલા આત્મપ્રદેશનું વેદના આદિ સાત કારણોથી જે અન્ય વભાવ રૂપે પરિણમન થાય છે તેનું નામ સમુદ્રઘાત છે. એટલે કે શરીરની બહાર જીવપ્રદેશનો જે પ્રક્ષેપ થાય છે તેનું નામ સમુદ્રઘાત છે તેમાં વેદનાથી જે સમુદ્રઘાત થાય છે તેને વેદના સમુદ્રઘાત કહે છે કષાથી જે સમુદ્રઘાત થાય છે તેને કષાય સમુદુઘાત કહે છે મરણ રૂપ અત સમયમાં જે સમુદ્દઘાત થાય છે તેને મારણાતિકસમુઘાત કહે છે વિક્રિયાને માટે જે સમુદ્દઘાત થાય છે તેને વિક્રિય સમુઘાત કહે છે કે સુ ૪૪ આ વૈકિય સમઘાત લબ્ધિરૂપ હોય છે, આ લબ્ધિના સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર વિશિષ્ટ કૃતલબ્ધિથી યુક્ત જીવનું નિરૂપણ કરે છે. स्था०-६१ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - ४८२ स्थानाजसो मान् निरूपयितुंद्विमत्रीमाह मूलम्-अरिहओ णं अरिटुनेमिस्स चत्तारि लया चौदसपुवीणमजिणाणं जिणसंकालाणं सबक्खरसन्निवाईणं जिणो इव अवितहवागरमाणाणं उकोसिया उद्दसपुविसंपया होत्था॥सू०४५ ॥ छाया-अर्हतः खलु अरिष्टनेयेः चत्वारिंशनानि चतुर्दशपूर्षिणामजिनानो जिनसकाशानां सर्वाक्षरसन्निपातिनां गिनानामिन अविनयं व्याकुर्वता मुत्कष्टा चतुर्दशपूर्विसंपद् वभूघुः ।। ४५ ।। ___टीका-" अरिहओ णं " इत्यादि-अर्हतोऽरिष्टनेमेः चतुर्दशपूर्विणाचतुर्दशपूर्वधराणाम् अजिनानाम् असर्वज्ञस्वाजिनभिन्नानां पुनर्जिनसंकाशानाजिनतुल्यानाम् अविसंवादिवचनवाद यथा पृष्टनिर्वक्तृत्वाच सर्वाक्षरसन्निपातिनां-सर्वाक्षरसंयोगवेदिनां जिनानां-सर्वज्ञानामिच-अस्तिथ-पथार्थ व्याकुवता-मरूपयतां चत्वारि शतानि, बभूवुः तानि उन्कष्टा चतुर्दशपूर्वि संपत्चतुर्दशपूर्विरूप-सम्पद्रूपेण बभूवुः ॥४० ४५।। को लेकर अप सूत्रकार विशिष्ट श्रुतलब्धि से युक्त जीवों का निरूपण करते हैं - " अरिहओ णं अरिहनेमिस्स" इत्यादिटीकार्थ-अहन्त अरिष्टनेमिके ४०० चारसौ चतुर्दश पूर्वधर थे, ये चतुर्दश पूर्वधर अजिन थे-असर्वज़ होने से जिन से भिन्न थे, जिनरूप नहीं थे,किन्तु अविसंवादी वचनवाले होने से और प्रश्न के अनुसार उत्तर देनेवाले होने से जिनके जैसे थे । तथा सर्वाक्षर संघोगोंके वेत्ता थे, अर्थात् किस अर्थके मिलाने से कौन अर्थ होता है इसका वेत्ताथे, जिन सर्वज्ञ की तरह यथार्थ प्ररूपणा करनेवाले थे। ये उनके चतुर्दशपूर्विरूप सम्पत् रूप से थे ।। सू० ४५ ॥ " अरिहओ णं अरिद्वनेमिस्स" त्या ટીકાર્ય–અહંત અરિષ્ટનેમિના ૪૦૦ચારસો ચૌદ પૂર્વ ધર હતા તે ચીક પૂર્વધર શિ અજિન હતા, એટલે કે તેઓ સર્વજ્ઞ નહિં હોવાને લીધે જિનથી ભિન્ન હતા એટલે કે તેઓ જિનરૂપ ન હતા પરંતુ તેઓ અસંવાદી વચવાળા હોવાને લીધે તથા પ્રશ્નને અનુરૂપ ઉત્તર દેનારા હોવાને લીધે જિનના જેવા હતા તેઓ સર્વક્ષર સોના વેત્તા હતા અને સર્વજ્ઞ જિનના જેવી યથાર્થ પ્રરૂપણા કરનારા હતા. તેમના તે શિષ્ય ચૌદ પૂર્વરૂપ સંપથી યુક્ત હતા | સૂ ૪૫ . Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०४ ४० ४ ०४६ भगवतो महावीरस्य पूर्वधरनिरूपणम् ४८३. पूर्वमरिष्टनेमे चतुर्दशपूर्वराः परिगणिता उक्ताः सम्प्रति भगवतो महावीरस्य तान् प्रतिपादयितुमाह मूलम् - समणस्स णं भगवओ महावीरस्त वत्तारि सयावाणं सदेवमणुयासुराए परिसाए अपराजियाणं उक्कोसियावाहसंपया होत्था || सू० ४६ ॥ छाया - श्रमणस्य खलु भगवतो महावीरस्य चत्वारि शतानि वादिनां सदेवमनुजासुराणां परिषदि अपराजितानामुत्कृष्टा वादिसम्पद् वभूवुः || ४६ ॥ टीका - समणस्स णं भगवओ ' इत्यादि -- स्पष्टम्, नवरं सदेवमनुजासुराणं- देवाच मनुजावासुराचैवामितरेतरयोगे देवमनुजासुरास्तैः सह देवमनुजासुराः, तस्यां तथाभूतायां परिषदि अपराजितानां वादिनां चत्वारि शतानि बभूवुः तान्येव उत्कृष्टा वादिसम्पन् बभूवुः | | ० ४६ ॥ पूर्वं चतुर्दशपूर्विण उक्ताः, तेच कल्पेषु सम्भवन्तीति कल्पान्निरूपयितुमाहमूलम् - हेटिल्ला चन्तारि कप्पा अद्धबंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा- सोहम्मे १, ईसाणे २, लणंकूमारे ३, माहिदे ४ मझिला बत्तारि कप्पा पडिपुण्णचंद संठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा -- बभलोगे १, लंतए २, महासुक्के ३, सहस्सारे ४| इस तरह अरिष्टनेमिके- चतुर्दश पूर्वधारियों की संख्या प्रकट कर अथ सूत्रकार भगवान महावीर के चतुर्दशपूर्वधारियों की संख्या प्रकट करते हैं - समणस्स णं भगवओ महावीरस्स " इत्यादि -- टीकार्थ श्रमण भगवान महावार की देव मनुष्य एवं असुरोंसे युक्त सभामें ४०० चारसो अपराजित वादियों की उत्कृष्टवादि सम्पत्ति थीं । ० ४६ । (6 આ રીતે અરિષ્ટનેમિના ચૌદ પૂર્વાધારીએની સખ્યા પ્રકટ કરીને હુંવે સૂત્રકાર મહાવીર પ્રભુના ચૌદ પૂર્વધારીએાની સખ્યા પ્રકટ કરે છે समणस्स णं भगवओ महावीरस्स " इत्यादि - ટીકા શ્રમજી ભગવાન મહાવીરની દેવ, અસુર અને મનુષ્યાથી યુક્ત સભામાં અપરાજિત વારીઓની ઉત્કૃષ્ટ સ'પત્તિ ૪૦૦ ચારસેાની હતી એટલે કે તેમના ૪૦૦ચારસે। શિષ્યા એવી શ્રુતલબ્ધિ સ‘પન્ન હતા કે તેમને વાદવિવાદમાં પરાજિત देवाने अर्थ समर्थ न तु ॥ सू. ४६ ॥ 66 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ - स्थानाङ्गसूत्रे उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणंठिया पण्णत्ता, तं जहा-आणए १, पाणए २, आरणे ३, अच्चुए ४ ।। सू०४७॥ छाया–अधस्तनाश्चत्वारः कल्पा अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञताः, तद्यथा-सौधर्मः १, ईशानः २, सनत्कुमारः ३. माहेन्द्रः ।। मध्यमाश्चत्वारः कल्पाः परिपूर्णचन्द्र संस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः, तपथाब्रह्मलोकः १, लान्तकः २, महाशुक्रः ३, सहस्रारः ।। उपरितनाश्चत्वार. कल्पा अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आनतः १, माणतः २, आरणः ३, अच्युतः ४ ॥१० ४७|| ____टीका--" हेहिला" इत्यादि--कल्पसूत्रचतुष्टयं सुगमम् , नवरम्अर्दचन्द्रसंस्थानसंस्थिताः-अर्द्धचन्द्राकारस्थिताः सौधर्मादयश्चत्वारः कल्पाः सन्ति पूर्वपश्चिमतो मध्यभागे सीमा सत्वादिति । सू० ४७॥ चतुर्दश पूर्वधारी कहे ये कल्पों में उत्पन्न होते हैं । अतः अप सूत्रकार कल्पों की प्ररूपणा करते हैं-" हेहिल्ला चत्तारि कप्पा" इत्यादिटीकार्थ-नीचेके ये चार कल्प सौधर्म १, ईशान २, सनत्कुमार ३ और माहेन्द्र ४ । अर्द्धचन्द्र के आकार जैसे-आकारवाले हैं, क्योंकि इनकी सीमाका सद्भाव पूर्वसे पश्चिम तक मध्यभाग में है, इस तरह से इनको आकार अर्द्धचन्द्रमा के आकार जैसा हो जाता है। ___"मझिल्ला चसारि " इत्यादि-मध्य चार कल्प परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार जैसे-आकारवाले हैं, उनके नाम इस प्रकारसे हैं । ब्रह्म लोक १, लान्तक २, महाशुक्र ३, और सहस्रार ४। . " उपरिल्ला चत्तारि" इत्यादि-नुपरितन चार कल्प अर्ध चन्द्र ચૌદ પૂર્વ ધારિએ કલ્પમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર કોની ३३५५। ४रे छे. " हेडिल्ला चत्तारि कप्पा" त्याટીકાર્થ–સૌધર્મ, ઇશાન, સનકુમાર અને માદ્ર, આ નીચેના ચાર કલ્પ અર્ધ ચન્દ્રાકારના છે, કારણ કે તેમની સીમાને સદૂભાવ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી મધ્યભાગમાં છે. આ રીતે તેમને આકાર અર્ધચન્દ્રમાના આકાર જેવું છે. “ ममिल्ला चत्तारि' त्याहि-मध्यना या२ ४८ पूर्ण यन्द्रभाना જેવા આકારવાળાં છે તે ચાર કલ્પનાં નામ આ પ્રમાણે છે. બ્રહ્મલોક, aldz, भाशु, भने सहसा२. " उपरिल्ला चत्तारि" त्याहि-सीथी 6५२ना या२ ४८ अ अन्द्र Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधा टीका स्था०४ उ० सू० ४८ समुद्रसपक्षेत्रनिरूपणम् ४८५ ___ पूर्व कल्पा उक्ताः, तेच देवलोकाः क्षेत्रभूता इति क्षेत्रपस्तावात्समुद्ररूपक्षेत्रं निरूपयितुमाइ-- मूलम्-बत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, तं जहा-लव. णोदे १, वरुणोदे २, खीरोदे ३, धंयोदे ४ ॥ सू० ४८ ।। छाया--चत्वारः समुद्राः प्रत्येकरसाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-लवणोदः १, वारुणोदः २, क्षीरोदः ३, घृतोदः ४ ॥४८॥ टीका--" चत्तारि समुद्दा” इत्यादि--चत्वारः समुद्राः प्रत्येकरसा:भिन्नरससम्पन्नाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-लवणोदः-लवणं-क्षारमुदकं-जलं यस्मिन् यस्य वा स लवणोदः, लवणरसोदकत्वात् १, तथा-वारुणोदः-वारुणी मदिराविशेष-, तद्वदुदकं यत्र स तथा २, क्षीरोदः-क्षीरमित्रोदकं यत्र स तथा ३, माके आकार जैसे आकारवाले हैं, उनके नाम ये हैं-आनत १, प्राणत, २ आरण ३ और अच्युत ४॥ ४० ४७॥ उक्त ये कल्प देवलोक रूप होते हैं और देवलोक क्षेत्र भूत हैं। अतः क्षेत्रके सन्धसे अब सूत्रकार समुद्ररूप क्षेत्रका निरूपण करते हैं टीकार्थ-" चत्तारि सनुदा पत्तेपरसा" इत्यादि-- चार समुद्र भिन्न भिन्न रसवाले कहे गये हैं, उनके नाम ये हैं-- लवणोद १, थारूगोद २, क्षीरोद ३, और धृतोद ४ । लवण सद्रका जल जसे रूषण का रस होता है वैसा है। वारुणोदका जल मदिराका जैसा रस होता है वैला है। अर्थात् मदिरा तुल्य जलवाला है। क्षीरोद का जल क्षीरके जैसा रसवाला है-अर्थात् क्षीरके जैसा पानीवाला है માના જેવા આકારવાળા છે તેમના નામ આ પ્રમાણે છે–આનત, પ્રાકૃત, भा२भने भयुत, ॥ सू. ४७ ॥ પૂર્વોક્ત કલ્પ દેવલેક રૂપ હોય છે અને દેવલોક ક્ષેત્રભૂત હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રના સંબંધને લીધે સમુદ્રરૂપ ક્ષેત્રનું નિરૂપણ કરે છે टी-" चत्तारि समुद्दा पण्णत्ता " त्या ચાર સમુદ્ર જુદા જુદા રસવાળા કહ્યા છે, તે ચાર સમુદ્રોનાં નામ નીચે प्रभार छ-(1) Aqt, (२) पारा, (3) क्षीरो मन (४) ता. લવણ સમુદ્રના જળને સ્વાદ લવણ-મીઠાના સ્વાદ જે હેાય છે. વારુણેદના જળને સ્વાદ મદિરાના સ્વાદ જેવો હોય છે. એટલે કે તે મદિરા સમાન જળવાળે સમુદ્ર છે. ક્ષીરાદનું જળ ક્ષીરના (દૂધના) જેવું હોય છે, અને Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ४८६ तथा - घृतोदः - घृत मित्रोदकं यत्र स तथा ४ कालोद - पुष्करोद - स्वयम्भू रमणाख्यास्त्रयः समुद्रा उद्करलाः, शेषास्तु इक्षुरला इति, उक्तञ्च -- " वारुणिवरतीरवरो घयवरलवणीय होति पत्तेया । कालो पुनरउदही सयंरमणो य उदगरसा ॥१॥" छाया -" वारुणीवर- क्षीरवरी घृतवर-कणौ च भवन्ति प्रत्येकम् । कालः पुष्करउदधिः स्वयम्भूरमणथ उदकरसाः || १॥ ४८ ॥ पूर्व समुद्रा उक्ताः, ते च साऽऽवर्त्ता भवन्तीत्यावर्तान् दष्टान्तान् प्रदर्शयस्त दान्तिक पायानिरूपयितुं द्विसूत्रीमाह- मूलम् - चन्तारि आवत्ता पण्णत्ता, तं जहा खराव १, उन्नयावत् २, गूढावते ३, आमिसा ४। एवमेव वारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा - खरावतसमाणे कोहे १, उन्नयावन्तमाणे माणे २, गूढाचमाणा माया ३, आमिसान्तमा लोहे ४, खरावन्तमाणे कोहं अणुष्पविट्टे जीवे कालं करेइ णेरइएस उववज्जइ, उन्नयावत्ततमाणं माणं एवं व गूढावन्तमाणं मायं, एवं चेव आभिसावत्समाणं लोहमणुप्पविट्टे जीवे कालं करेइ नेरइएसु उववजेइ ॥ सू० ४९ ॥ छाया -- चत्वार आवतीः शप्ताः, तद्यथा-खरावर्तः १, उन्नताssवर्तः २, गृहावर्तः ३, आभिपावर्तः । एवमेव चत्वारः कपायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाऔर छतोद समुद्रका जल घृत के जैसे रखवाला है अर्थात् घृत जैसे पानीबाला है ' कालोद, पुष्करोद और स्वयंसूरमण ये तीन समुद्र पानीफा जैसा रस होता है वैसे रसयुक्त पानवाले हैं और फीके सब समुद्र इक्षु के जैसे रससे युक्त पानीवाले है | कहानी है "वारुणिवर वीरवरो " इत्यादि । सू० ४८ ॥ ઘીના જેવા આ ગ્રુ ખાકીના કહ્યું પણ ઘૂનેદ સમુદ્રતુ' જળ ઘીના જેવા રસવાળુ હાય છે-એટલે કે પાણીથી તે સમુદ્ર ભરપૂર છે. કાલેાદ, પુષ્કરાદ અને સ્વયંભૂરણ, સમુદ્રો જે પાણીને રસ હોય છે એવા રસયુક્ત પાણીવાળા છે બધા સમુદ્રો ઇતુ (શેરડી ) ના જેવા રસથી યુક્ત પાણીવાળા છે छे" वारुणिवरवीरवरो " इत्यादि ॥ सू. ४८ ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०४ उ४ सू४१ कषायस्वरूपनिरूपणम् ४.७ खराऽऽवसमानः क्रोधः १, उन्नताऽऽवर्तसमानो मानः २, गृहावर्त समाना माया ३, आमिषाऽऽवर्तसमानो लोभः ।। ___ खराऽऽस्तसमान क्रोधमनुप्रविष्टो जीवकालं करोति नैरयिकेषु उपपद्यते १, उन्नताऽऽवतंसमान मानम् २, एवमेव गृहाऽऽवसिमानां मागास् ३, एवमेवा. मिपाऽऽवर्तसमानं लोभमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति नैरयिकेपूपपद्यते ४॥४९।। टीका--' चत्तारि आवत्ता' इत्यादि--आवर्ता-जलश्रमाश्चत्वारः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-खरावर्तः-वरः-प्रयलवेगयुक्ततया निष्ठुरः, स चासावावर्तः-आवर्तनं कहे गये ये लषुद्र आवर्त सहित होते हैं, अतः सुन्नकार दृष्टान्तभूत भावनों को दिखलाते हुए दान्तिक रूप कषायों की निरूपगा करते हैं । " चत्तारि आवता पण्णत्ता" इत्यादिसूत्रार्थ-आवत चार प्रकारके कहे गयेहैं । जैसे-खरावर्त१, उन्नतावतर, गूढावर्त ३ और मामिषावर्त ४ । इसी प्रकार से चार कपायें कही गई हैं, जैसे-खरावर्तसमान क्रोध १, उन्नतावतलमान मान २, गूढावर्तसमान माया ३ और आमिषावर्तसमान लोभ ४ ।। ___ खरावर्तसमान क्रोध में अनुप्रविष्ट हुभा जीव यदि कालगन होता है, तो वह नैरपिकों में उत्पन्न होना है। इसी तरहले उन्ननावर्तसमान मान में गडावर्तसमान मायामें और आमिषावर्तसमान लोममें अनुपविष्ट हुआ जीव यदि कालगन होताहै, तो वह भी नैरयिकोंमें उत्पन्न होताहै। ઉપર્યુક્ત સમુદ્ર આવત સહિત હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર દષ્ટાન્તભૂત આવતીને પ્રકટ કરીને દ ર્કાન્તિક રૂપ કષાયોનું નિરૂપણ કરે છે. सूत्राथ-" चत्तारि आवत्ता पण्णत्ता" त्या मारत या२ ५४४२ ह्या छ--(१) रावत, (२) उन्नतावत, (3) ગૂઢાવત, અને (૪) આમિષાવર્ત. એ જ પ્રમાણે કષાના પણ ચાર પ્રકાર ह्या छ-(१) भापत समान आध, (२) भन्नता समान मान, (3) गुढाવર્તમાન માયા અને (૪) આમિષાવર્તસમાન લેભ. ખરાવર્ત સમાન ક્રોધથી યુક્ત બનેલે જીવ જે મરણ પામે છે, તે નર ચિકેમાં ઉત્પન્ન થાય છે એ જ પ્રમાણે ઉજ્ઞાતાવર્તસમાન માનમાં, ગૂઢાવર્તસમાન માયામાં અને આમિષાવર્ત સમાન લોભમાં અનુપ્રવિષ્ટ થયેલો જીવ જે કાળધર્મ પામી જાય છે, તે તે પણ નરયિકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ स्यामानयत्रे खराऽऽवतः, आवत्रि समुद्रनद्यादेवक्रविशेपाणां वा योध्यः १, तथाउन्नताऽऽवतः-उन्नतः-उच्चः स चासावायतें उन्नताऽऽवतः, स च गिरिशिखराऽऽरोहणमार्गस्य, यद्वा-वात्यया भवतीति ज्ञेयम् २, तथा-गृदाऽऽवती-गृह:प्रच्छन्नः, स चालावावतश्च गृढावतः, सच कन्दुकडोरकस्य वा दारुग्रन्ध्यादेवोध्यः ३, तथा-आमिपाऽऽवतः-आमिपं-मांस तदर्थमावर्त आमिपावत', सच श्येनादि पक्षिणां भवति । टीकार्थ-जल में जो भंवरं पड़तीहै उनका नाम आवर्त है, ये आवर्त जो खरावर्त आदि के भेदसे चार प्रकार की कही गई है, उनका भाव ऐसा है कि जल जब प्रबलवेग से युक्त होता है, तब उसमें जो परत घरा आवर्त पड़ता है कि जीसमें कैसा ही चतुर तैरनेवाला भी क्यों न हो, यदि फस जाता है तो उसकी भी कुशलता बाहर आने के लिये समर्थ नहीं होती है, ऐसा वह आवर्न निष्ठुर होता है । यह आवर्त समुद्र नदी आदिके चक्रविशेपोंका होता है तथा-जो उन्नतावर्त होता है, वह गिरिके शिखरके ओरोहणवाले मार्गका होता है, अथवा-जब वायु चलता है तय धूल वगैरह की गोलाकार रूपमें जो ऊचे को उडान होती है, जिसे चक्रवात या भभूला कहा जाता है वह उन्नतावर्त है । जो आवर्त प्रच्छन्न होता है, वह गूढावत है, यह गूढावत या तो गेंद के डोरा का होता है या दारु लकड़ी की गांठ आदि के होता है। मांस प्राप्त करनेके लिये जो आवर्त होता है वह आमिषावत है, यह मांसावर्त श्येन पाज आदि पक्षियों के होता है । ટીકાર્થ–પાણીમાં જે ભમરીઓ (વમળ) પેદા થાય છે તેને આવતે કહે છે હવે ખરાવર્ત આદિ ચાર ભેદને ભાવાર્થ સમજાવવામાં આવે છે જયારે પાણીને વેગ અતિ પ્રબળ હોય છે ત્યારે પાણીમાં વમળે ઉઠે છે જ્યાં આ પ્રકારની વમળો ઉઠે ત્યાં પાણી પ્રબળ વેગથી ચક્કર ચકકર કરે છે. તે જગ્યાએ ચતુરમાં ચતર તરો પણ તરી શકતા નથી. આ પ્રકારના વમળમાં ફસાયેલે માણસ કે હેડી બહાર નીકળી શકતા નથી, એ તે આવર્ત નિષ્ઠુર હોય છે. આ ખરાવત સમુદ્ર નદીઆદિના જળમાં થાય છે ગિરિના શિખરને આરેહણવાળા માર્ગ પર ઉન્નતાવર્તને સદૂભાવ હોય છે અથવા જ્યારે ખૂબ પવન થાય છે ત્યારે ધૂળ, પર્ણ–પાન આદિ ચક્કર ચક્કર ફરતાં ફરતાં આગળ વધે છે તેને ચક્રવાત, વંટેળીઓ અથવા ડમરી કહે છે, આ પ્રકારના આવતન ઉન્નતાવત કહે છે. જે આવર્ત પ્રચ્છન્ન હોય છે તેને ગૂઢાવતું કહે છે તે આવર્ત દડાના દેરને અથવા લાકડાની ગાંઠ આદિને હોય છે માંસ પ્રાપ્ત કરવાને માટે જે આવતા હોય છે તેને આમિષાવર્ત કહે છે. આ પ્રકારને આવર્ત બાજ, સમડી આદિ શિકારી પક્ષીઓની ચાંચને હોય છે Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ४ ४ ० ४१ कषायस्वरूपनिरूपणम् કરું f - एवामेव चत्तारि कसाया ' इत्यादि - एवमेव - उक्ताऽऽवर्तत्रदेव क्रोधा दयः कपायाश्चत्वारः प्रज्ञताः- तत्तुल्यत्वेनोक्ताः, तद्यथा - क्रोधः कपापः खराऽऽवर्तमानः क्रोधे खराssसाभ्यं च परापकारकरणकठोरत्वेन बोध्यम् १, तथामान उन्नताssवर्त समानः-माने तत्साम्यं । पत्रतृणादि वस्तुन इव मनस उन्नतत्वस्थापकत्वेन २, तथा माया गृहावर्तसमाना- मायायां तत्साम्यं च परम दुर्लक्ष्यत्वेन २, तथा - लोभ आमिपावर्तसमानः, तत्साम्यं च अनर्थ परम्परापातसमाक्रान्तेऽपि जने पुनः पुनः पतनकारणत्वेन । खराssवर्तादिसाम्यं क्रोधादीनां मोक्त नतु सामान्यानामिति, " एवमेव चत्तारि कसाया " इसी प्रकार से क्रोधादिक चार कषायें कही गई हैं । कषाय करावर्तसमान होती है, क्रोधकबाग में खरावर्त की समानता परके अपकार करने से और कठोर होनेसे कही गई जाननी चाहिये। मान म्ननावर्त के समान होता है, सो मानमें उन्नतावर्त की समानता पत्र तृणादि वस्तु की तरह सनको उन्नरूपसे स्थापक होनेके कारण कही गई है । मायामें जो गूढावर्त समानता कही है वह उसे परमदुर्लक्ष्य होने के कारण कही गई है, और जो लोभ में आमिषावर्त समानता कही है वह अनर्थकी परम्परा के आने पर भी पुनः पुनः उसीमें गिरानेके कारण से कही गई है, यह सामान्य क्रोधादिकाँ में नहीं कही है, किन्तु जो उत्कृष्ट कोधादिक हैं उनमें ही कही गई है ऐसा समझना चाहिये । " एवामेत्र चत्तारि कसाया એ જ પ્રક રના ક્રોધાદિક ચાર કષ ચેને બતાવ્યા છે. ક્રોધકષાય ખરાવત સમાન હોય છે. ક્રોધકષાયને ખરાવત સમાન કહેવાનુ કારણ એ છે કે તે ખરાવત સમાન કઠોર અને અપકાર કરનારા હોય છે. માનકષાયને ઉન્નતાવત સમાન કહેવાનુ કારણ એ છે કે જેમ ઉન્નતાથત પત્ર, તૃણાદિને ઉન્નત સ્થાને ચડાડે છે, તેમ આ કષાય પશુ મનનું ઉન્નત રૂપે સ્થાપક હાવથી તેને ઉન્નતાવૃત સમાન કહ્યુ છે માનથી યુક્ત ખનેલે જીવ અભિમાનથી યુક્ત મનવાળા મને છે સાચા કષયને ગૂઢાવ સમાન કહેવાનું કારણ એ છે કે માયા એ પરમ દુર્લક્ષ્ય હાય છે માયાયુક્ત માણુ-સના મનેાભાવને પારખવાનું કાર્ય દુષ્કર હોય છે. લેાભને આમિષાવત સમાન કહેવાનુ કારણ એ છે કે અન”ની પરમ્પરા આવવા છના પશુ જીવ ફરી. ફરીને લેાભકષયમાં પડયા જ કરે છે, તેને છેડવાને સમ બની શકતા નથી ધાદિકામાં જે ખરાવત આદિ સાથે સમાનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તે સામાન્ય કાધાક્રિકમા ગ્રડણુ કરવાની નથી, પરન્તુ ઉત્કૃષ્ટ ધાર્દિકામાં જ આ સમાનતા સમજવી જોઇએ. स्था०-१२ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे परिणाममाह क्रमेण खराद्याप समानक्रोधादिरुपायानुप्रविष्ट जीवस्य 'खरावत्तसमाणं इत्यादि - खरायावर्तसमान- क्रोधादिचतुष्टयमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति चेत्तदा नैरयिकेपूपपद्यते अशुभ परिणामस्याशुभकर्मवन्धनिमित्ततया दुर्गतिहेतुत्वादिति |४| ० ४९ ॥ पूर्वं नारका उक्ताः तेथ वैक्रियादिना सधर्माणो देवा भरतीति देवविशेषभूतनक्षत्रदेवानां परिचयार्थं चतुःस्थानकमाह- मूलम् - अणुराहानकखत्ते चउत्तारे पण्णत्तं पुत्रासाठे एवं वेव, उत्तरासादे एवं चेव ॥ सू० ५० ॥ छाया -- अनुराधा नक्षत्र चतुस्तार मज्ञप्तम्, पूर्वाषाढा एवमेव. उत्तरापाढा एकमेव ||० ||५० || टीका - - ' अणुरादा नक्खते' इत्यादि -- अनुराधा पूर्वापाढोत्तरापादाख्यनक्षत्रवयं चतुस्तारकमित्यर्थः ॥ ५० ॥ क्रमसे खरादिआवर्त समान क्रोधादिक कपायों से युक्त हुए जीवकी यदि उस अवस्थामै मृत्यु हो जाती है, तो वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है। क्योंकि जो अशुभ परिणाम होता है, वह अशुभ कर्मबन्धनका कारण होता है और इससे वह दुर्गतिका हेतु होता है || सृ० ४९ ॥ नारक कहे अब सूत्रकार वैक्रिय आदि द्वारा इनके समान धर्मवाले होनेके कारण देवविशेष नक्षत्र देवोंके परिचय के लिये चार स्थान कहते हैं अणुहा नक्खते उत्तारे " इत्यादि "( टीकार्थ - अनुराधा नक्षत्र पूर्वाषाढा नक्षत्र और उत्तराषाढा नक्षत्र ये तीन नक्षत्र चार २ ताराओंवाले होते हैं ।। ० ५० ।। ખરાવત આદિ સમાન ક્રોધાદિક કાચેાથી યુક્ત થયેલે જીવો એજ અવસ્થામાં કાળધર્મ પામી જાય છે, તે નેરિયકામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે, કારતુ કે તેનું જે અશુભ પરિણામ હોય છે. તે અશુસબન્ધનું કારણ બને છે અને અશુભખન્ય દુર્ગતિનું કારણુ બને છે ! સૂ. ૪૯ ૫ નારકાનું કથન કર્યું. તેમના જેવા જ વૈક્રિય આદિ ધમેર્મવાળા દેવવિશેપાનું-નક્ષત્ર દેવાનુ હવે સૂત્રકાર ચાર સ્થાનાની અપેક્ષાએ નિરૂપણું કરે છે. agugi apað szar" deuile— 46 ટીકા –અનુરાધા નક્ષત્ર, પૂર્વાષાઢા નક્ષત્ર અને ઉત્તર ષાઢા નક્ષત્ર, આ ત્રણ નક્ષત્રા ચાર ચાર તારાવાળાં હાય છે ! સૂ ૫૦ ૫ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था०४७०४ सू० ११ कर्मपुत्रलचयनकारणनिरूपणम् पूर्व देवविशेश उक्ताः, देवविशेषत्वं च जीवानां कर्मपुद्गलचयनादिवशाद्भतीति कर्मपुल यनादि निमित्तानि प्रदर्शयितुमाह मूलम् - जीवा णं चउठाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मयाए चिणिसु वा चिति वा चिणिस्संति वा णेरइयणिव्वत्तिए तिरिक्खजोणियणिव्वत्तिए, मणुस्सणिवत्तिए, देवणिव्वत्तिए, एवं उवचिर्णिसु वा उवाविति वा उवचिणिस्तति वा०, एवं चिण उवचिण बंध उदीरय तह णिज्जरे क्षेत्र ॥ सू० ५१ ॥ ૨૨ छाया - जीवान् खलु चतुःस्थाननिर्वर्तितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अचिन्वन् वचिन्वन्ति यति वा, नैरयिकनिर्वर्तितान्, तिर्यग्योनिकनिर्वर्तितान् मनुष्य निर्वर्तितान् देवनिर्वर्तितान् एवमुपाचिन्यन वा उपचिन्वन्ति वा उमचेव्यन्ति वा, एवं चय, उपचय, बन्ध, उदीर, वेद तथा निजरा चैत्र ।। सू० ५१ ॥ टीका - " जीवाणं चउठाण " इत्यादि - सूत्रपट्कं सुगमम् नवरं जीवाः खलु चतुःस्थाननिर्वर्तितान् वतुर्भिनरकस्थादिभिः स्थानेः पर्यायैः कारणैः निर्वर्तिताः - कर्मपरिणामं प्रापिताः - तथाविधाशुमपरिणामवशाद् बद्धाः चतुःस्थाननिर्वर्त्तिताः, तान् चतुःस्थान निर्वर्त्तिवान् पुद्गलान् पापकर्मतया = अशुभरूपज्ञा -- देवविशेष कहे देवविशेषता जीवों के पुद्गलों के चयन आदिके वश से होती है, इसलिये अब सूत्रकार कर्मवृद्गल के चयनादि के निमित्तों को दिखाने के लीये सूत्र कहते हैं। "जीवाणं चउद्वाणं णिवसिए" इत्यादि टीकार्थ-जीवने चतुःस्थान निवर्तित चार नारक आदि पर्यायरूप कारणोंसे कर्मरूप परिणाम को प्राप्त कराये गये तथाविश्व अशुभ परिणाम के से बांधे गये पुलोंका पापकर्षरूप से अशुभ ज्ञानावरणीपादि रूपसे चयन किया है, अर्थात् भूतकाल में तथाविध अपर पुलोंसे अल्प प्रदे દેવિવશેષાનું કથન કર્યુ. દેવવિશેષતા જીવાના કર્માંપુદ્ગલાના ચયન આદિને કારણે પેઢા થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ક પુદ્ગલેાના ચયનાઢિ નિમિત્તોને મતાવવાને માટે નીચેનુ' સૂત્ર કહે છે "faoi aggroi fosfag" Sculle ટીકા-જીવાને ચાર સ્થાન નિવસ્તૃિત-નારકાદિ ચાર પર્યાય રૂપ કારણેાથી ક્રમરૂપ પરિણામને પ્રાપ્ત કરાવવામા આવેલ તથાવિધ ( તે પ્રકારના ) અશુભ પરિણામને કારણે ખાધેલા પુત્લાનુ પાપકમ રૂપે અશુભ જ્ઞાનાવરણીય આફ્રિ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ धानाशस्त्र नावरणीयादिरूपतया, अचिन्यत् भूतकाले तथाविधापरकर्मपुद्गलैश्वितयन्तः पापप्रकृतीरल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः, वर्तमानकाळे चिन्वन्ति, एवं भविष्यत्काले चेष्यन्ति वा । इति चयनमूत्रम् १॥ एवं चयनमूत्रवत् उपचिन्धन उपचिन्वन्ति उपचेष्यन्ति वा तत्रोपचयनम् पौनः पुन्येन पुद्गलसग्रहणम् २, एवं 'चिय उपचिय' इत्यादि-एचयोपचयवत् अवघ्नन् वध्नन्ति भन्स्यन्ति-उन्धविपयीकरिष्यन्ति वा ३, एवमुदीरयन्-उदीरयन्ति उदीरयिष्य न्ति वा ४, एवमवेदयन् वेदयन्ति वेदयिष्यन्ति वा ५, तथा-निरजरयन् निर्जरयन्ति निनरयिष्यन्ति वा इति चयमभृतिघटितमुत्रपञ्चकं बोध्यम् ।६।।।०५१॥ शवाली पापप्रकृतियों को बहुप्रदेशवाली बनाया है। वर्तमानकाल में वे इसी प्रकार से उन्हें बनाते हैं, और भविष्यकाल में भी वे उन्हें इसी प्रकार से बनावेगे। यह चयन मूत्र है, इसी चयन सूत्रकी तरह उप चयन सूत्र का भी व्याख्यान कर लेना। अर्थात् जिस प्रकार से जीवोंने पूर्वोक्तरूप से अशुभ कर्म प्रकृतियों का त्रिकाल में चयन किया है, उसी प्रकारसे उन्होंने अशुभकर्म प्रकृतियों का त्रिकाल में उपचय किया है। बारम्बार पुगलों का ग्रहण करना इसका नाम उपचय है, इसी प्रकारसे जीवोंने भूतकाल में कर्मपुतलोंका बन्ध किया है, वर्तमानमें वे उन कर्मः पुद्गलों का बन्ध करते हैं, और आगे भी वे उन कर्मपुद्गलों का वध करेंगे। इसी प्रकार का त्रिकालसम्बन्धी कथन उदीरणा वेदन और निर्जरा करने के सम्बन्ध में ली कर लेना चाहिये ॥ सू० ५१ ।। રૂપે ચયન કર્યું છે એટલે કે ભૂતકાળમાં તથાવિધ અપાર પુલથી અ૫ પ્રદેશવાળી પાપકૃતિને બહુપ્રદેશવાળી બનાવી છે, વર્તમાનકાળમાં પણ તેઓ તેમને આ પ્રકારની જ બનાવી રહ્યા છે, અને ભવિષ્યમાં પશુ તેઓ તેમને એ જ પ્રકારની બનાવશે આ ચયનસૂત્રનું જે પ્રકારે કથન કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે ઉપચયન સૂવનું પણ કથન સમજી લેવું જોઈએ એટલે કે જે પ્રમાણે જીવેએ પૂર્વોક્ત રૂપે અશુછ કમ પ્રકૃતિનું ત્રિકાળમાં ચયન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે તેમણે અશુભ કર્મપ્રકૃતિને ત્રિકાળમાં ઉપચય કર્યો છે. વારંવાર પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરવા તેનું નામ ઉપરાય છે. એ જ પ્રમાણે જીએ ભૂતકાળમાં કર્મપુલેને બલ્પ કર્યો છે, વર્તમાનકાળમાં પણ તેઓ તે કર્મપુતલેન બન્ધ કરે છે, અને ભવિષ્યમાં પણ તેઓ તે કર્મ પુદ્ગલેને બન્ચ કરશે એ જ પ્રકારનું ત્રણે કાળ સંબંધી કથન ઉદીરણા, વેદના અને નિર્જ કરવા વિષે પણ સમજી લેવું જોઈએ. સૂ. ૫૧ છે Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधी टोका स्था०४ ४ ४ सू ५२ द्रव्यक्षेत्रादिना पुननिरूपणम् पुनलाधिकारात् पुद्गलानेव द्रव्यादिभिनिरूपयितुमाह मूलम्-वउपएसिया खंधा अणंता, चउपएसोगाढा पोरगला अणंता, उसमयहिइया पोग्गला अणंता, चउगुणकालगा पोग्गला अणंता, जाव चउगुणलक्खा पोग्गला अणंता पण्णता ॥ सू० ५२ ॥ छाया--चतुष्पदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः चतुष्प्रदेशावगाडा पुनला अनन्ताः चतुःसमयस्थितिकाः पुद्गला अनन्ताः, चतुर्गुणकालकाः पुद्गला अनन्ताः, यावत् चतुर्गुणरूक्षाः पुद्गलाः अनन्ताः पज्ञप्ताः ॥ ५२ ॥ टीका--' चउपएसिया' इत्यादि-मुगमम् ।। सु. ५२ ॥ चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ।। चउत्थं ठाणं समत्तं ॥ ४ ॥ चतुर्थ उद्देशः समाप्तः, ॥ चतुर्थ स्थानं समाप्तम् ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक - श्रीशाहूछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री -- घासीलालव्रतिविरचितायां ' स्थानासूत्रस्य ' सुधाख्यायां व्याख्यया चतुर्थ स्थानं सम्पूर्णम् ॥ ४-४ ॥ पुद्गल के अधिकारको लेकर अब सूत्रकार द्रव्य क्षेत्र आदिसे पुद्गलों की ही प्ररूपणा करते हैं । " चउपएसिया खंधा अणंता" इत्यादि-- टीकार्थ-चार प्रदेशोंवाले स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। चार प्रदेशों में अव. गाढ हुए पुगलस्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। चार समयकी स्थितिवाले પુલનું કથન ચાલી રહ્યું છે, તેથી હવે સૂત્રકાર દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર આદિની અપેક્ષાએ પુલની જ પ્રરૂપણ કરે છે. “ घरपएसिया खंघा अणता" त्याટીકાથે–ચાર પ્રદેશવાળા કન્ધ અનંત કહ્યા છે. ચાર પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલા (રહેલા) કપ અન ત કહ્યા છે. ચાર સમયની સ્થિતિવાળા સ્ક અનંત કહ્યા છે. ચતુર્ગુણ (ચાર ગણા) કૃષ્ણ ગુણવાળાં પુદ્ગલ અનંત કહ્યાં છે, યાવત્ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानने पुद्गल स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं, चतुर्गुण कृष्णवाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं, यावत् चतुर्गुण रूक्ष गुणवाले पुगल अनन्त कहे गये हैं। सू० ५२।। श्री जैनाचार्य श्री घासीलालजी महाराज रचिन " स्थानाङ्गमन्त्र" की सुधा नामकी व्याख्याके चौथे स्थानका चौथा उद्देशा समाप्त ।। ४-४ ।। ॥चौथा स्थान सपूर्ण ॥ ચતુર્ગધુ રુક્ષગુણવાળા પુતલે અનંત કહ્યા છે અહી (યાયત) પદથી બધાં વર્ણ, પશે આદિ ગ્રહણ કરવા જોઈએ છે સૂ. પર છે શ્રી જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે રચેલા “સ્થાનાંગસૂત્ર ની સુધા નામની વ્યાખ્યાના ચોથા સ્થાનને ચેશે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૪-૪ ચોથું સ્થાન સંપૂર્ણ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पंञ्चमं स्थानकं प्रारभ्यतेउक्तं चतुर्थ स्थानकम् । सम्पति संख्याक्रममनुसृत्य पञ्चमस्थानकमुच्यते । अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् स्थानके हि जीवा अजीवास्तद्धर्माश्च पदार्थाश्चतु स्थानकत्वेनोक्ताः, अत्रापि त एव पञ्चस्थानकस्वेनोच्यन्ते, इत्यनेन संबन्धेनायर्यातस्य अस्य स्थानकस्येदमादिमं सूत्रम् मूळम्-पंच महत्वया पण्णता, तं जहा--सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं १ जाव सबाओ परिग्गहाओ देरमणं ५। पंचा- . णुव्वया पण्ण्णता, तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं १, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं २, थूलाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं ३, सदारसंतोसे ४, इच्छापरिमाणे ५॥ सू० १॥ छाया--पञ्च महाव्रतानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा -सर्वस्मात् माणातिपाताद् विरमणं १ यावत् सर्वस्मात् परिग्रहाद विरमणम् ५। पञ्चाणुव्रतानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथास्थूलात् माणातिपाताद् विरमणम् १, स्थूलात् मृपावादाद् विरमणं २, स्थूलात् अदत्तादानाद् विरमणम् ३, स्वदारसन्तोषः ४, इच्छापरिमाणम् ५॥सू० १ ॥ ॥ पांचवे स्थानके पहला उद्देशेका प्रारंभ ॥ चतुर्थ स्थान कहा अब संख्याफसको लेकर पंचम स्थान कहा जाता है। इसका पूर्व स्थानके साथ ऐसो सम्बन्ध है कि पूर्वस्थानमें जीव अजीव इनके धर्म और पदार्थ ये सब चतु:स्थान रूपसे कहे गये हैंसो वेही यहां पञ्चस्थान रूपसे कहे जावेंगे, इसी सम्बन्धसे आया हुआ इस पंचम स्थानका यह प्रथम सूत्र है-पंच महन्धया पण्णत्ता પાંચમા સ્થાનનો પહેલે ઉદ્દેશ ચાર સ્થાનનું કથન પરૂ થયું. હવે પાંચ સ્થાનનું કથન શરૂ થાય છે તેને પૂર્વથાન સાથે આ પ્રકારને સંબધ છે–ચતુર્થ સ્થાનમાં જીવ અને અજીવના ધર્મ ઈત્યાદિની પ્રરૂપણ ચાર સ્થાન રૂપે કરી છે. હવે અહિં પાંચ સ્થાન રૂપે તેમની પ્રરૂપણ કરશે આ પંચમ સ્થાનના પહેલા ઉદ્દેશાનું प्रय सूत्र मा प्रभारी छ-"पंच महव्वया पण्णता" त्याहि Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ स्थानागसत्रे टीका---'पंच महव्यया' इत्यादि-- _ महाव्रतानि-महान्ति च तानि व्रतानि चेति महावतानि, अणुव्रतापेक्षया सर्वजीवरक्षणादिविषयत्वेन चैषां महत् बोध्यम् । यद्वा-पहबतानीतिच्छाया । महतः-देशविरतापेक्षया बृहतो गुणिनो व्रतानि महद्व्रतानि । एतानि पञ्चसंख्य. कानि प्रज्ञाप्तानि=प्ररूपिनानि भगवता पभेण महावीरेण च तनाविध शिष्यानपेक्ष्य, न त तदितर्राविंशतिमिनैः तच्छिष्याणाम् ऋजुप्रान्वेन चतुर्महाव्रतसभवादिति, तद्यथा-सर्वस्मात् त्रसस्थावरसूक्ष्मवादरभेदभिन्नात् कृतकारितानुमतिभेदभिन्नाच समस्तात् , यद्वा-द्रव्यतः पइजीवनिकायविपयात , क्षेत्रतः त्रिलोकसंभवात् , व्रतोंमें महा और अणुका कथन विषयक विचार इस प्रकारसे है" महान्ति व्रतानि महाव्रतानि ” इस व्युत्पत्तिकी अपेक्षा जो व्रत महान हैं-अणुवनों की अपेक्षासे सर्व जीव रक्षण आदिके विषयवाले होने से बड़े हैं वे महावत है, अधवा-" महतः व्रतानि महावतानि" इस व्युत्पत्तिके अनुसार देशविरतकी अपेक्षा बडे शुणिजनोंके जो व्रतहैं वे महावत हैं. प्राणातिपात बस स्थावर जीवों का होता है, और सूक्ष्म बादर जीवोंका होता हैं, यह प्राणातिपात जीव स्वयं करता है, दसरोंसे भी करवाता है, और करनेवाले की अनुमोदना करता है, इस तरह कृम कारित और अनुमोदनावाले इस स्थावर जीशेके पादर सूक्ष्म जीवों के प्राणातिपातसे जो विरक्त होना होताहै वह-" सर्वस्मात् प्राणातिपातात् विग्मणं" कहलाता है, अथवा-द्रव्यकी अपेक्षा-षट् जीवनिकायरूप द्रव्य प्राणानिपानसे क्षेत्रकी अपेक्षा-त्रिलोकमें संभवित વ્રતમાં મહા અને આણુના કથન વિષયક વિચાર આ પ્રમાણે છે– “ महान्ति बनानि महाव्रताति" ! व्युत्पत्ति भनुमा२ रे बने महान छ, સર્વજીવ રક્ષણ આદિના વિષયવાળાં હોવાથી અણુવ્રતો કરતાં મહાન છે, તે नसान महावत 4441-" महतः व्रतानि महाव्रतानि ” मा व्युत्पत्ति અનુસાર દેશવિરતની અપેક્ષાએ મહાગુણીજનના સાધુઓનાં જે વ્રત છે તેમને મહાવ્રત કહે છે. ત્રણ સ્થાવર જીને પ્રાણાતિપાત થાય છે, અને સૂક્ષ્મબાદર જીવોનો પ્રાણાતિપાત પણ થાય છે તે પ્રાણાતિપાત જીવ પિતે કરે છે, બીજા પાસે કરાવે છે અને કરનારની અનુમોદના કરે છે આ ત્રણ પ્રકારે-કૃત, કારિત અને અનમેદના રૂપ ત્રણ પ્રકારે ત્રસ, સ્થાવર, સૂક્ષ્મ અને બાદર છવાના प्रायातिपातथी (तथी) २ वि२४त वार्नु मन छ तेतुं नाम " सर्वस्मात् प्राणातिपानात् विरमणं " 'सभर लियातयी विरम' छ अथवा द्रव्यनी અપેક્ષાએ છકાયના જીવોની હિંસાને સર્વથા ત્યાગ કરે, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ५ उ० १ सू०१ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् ४२.७ काळत अनीतादेराज्यादि प्रभवाद्वा भावतो रागद्वेपसमुत्थाच्च समग्रात् प्राणातिपातात् प्रागानाम् - इन्द्रियोच्यसारादीनाम् अतिपातः प्राणिनः सकाशाद् वियोजनं प्राणातिपातः - माणिप्राणवियोजनव्यापार इत्यर्थः तस्माद विरमण = सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्विका विरतिः निवृत्तिरिति यावत्, न तु परिरधूलादेव विरति । इदं प्रथमं महाव्रतम् १ | 'जाव' शब्दाद् द्वितीयतृतीयचतुर्थानां महाव्रतानां सग्रहो प्राणातिपातसे, कालकी अपेक्षा अतीतादिकालमें हुए प्राणातिपातसे अथवा रात्रि आदि जायमान प्राणातिपात से और भावकी अपेक्षा रागद्वेषादि उत्पन्न होनेरूप प्राणातिपात से जो विरमण है, वह "सर्चस्मान प्राणातिपातात् विरमणम् " है, प्राण व्यवहार नयकी अपेक्षा पांच इन्द्रिय ३, पल आयु और श्वासोच्छ्वासके भेद से १० होते हैं, एकेन्द्रिय दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पश्च न्द्रिय इन जीवों में अपनी २ योग्यता के अनुसार ४ आदिसे लेकर १० प्राणत कहे गये हैं, अर्थात् एकेन्द्रियमें चार प्राण स्पर्शेन्द्रियबल प्राण, फायबल माण, श्वासोच्छ्वासबल प्राण, आयुष्यबल प्राण घाणेन्द्रियमें छ प्राण पहिलेके चार रसनेन्द्रियबल प्राण - वचनबल प्राण तेइन्द्रियमें सात प्राण घाणेन्द्रियबल प्राण बढा, चौदन्द्रियमें आठ चक्षुरिन्द्रियल प्राण बढ़ा, असंज्ञी पञ्चेन्द्रियमें नौ श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण बढ़ा, संज्ञी · ત્રિલેાકમાં સ‘ભવિત પ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરવા, કાળની અપેક્ષાએ અતીતાદિ કાળમાં થઇ ગયેલા પ્રાણાતિપાતથી અથવા રાત્રિ આદિ કાળે થઈ જતા પ્રાણાતિપાતથી વિરમણુ થવું, અને ભાવની અપેક્ષાએ રાગ દ્વેષ આદિ ઉત્પન્ન થવા; ३५ प्रातिपातने। त्याग ४२वा, तेनुं नाम " सर्वस्मात् प्राणातिपातात् विरमणम्”.. છે વ્યવહાર નયની દૃષ્ટિએ નીચે પ્રમાણે ૧૦ દસ પ્રાણ કહ્યાં છે-પાંચ ઇન્દ્રિય રૂપ - પાંચ પ્રાણુ, ત્રણુ ખલ રૂપ ત્રણ પ્રાર્થુ, આયુ રૂપ એક પ્રાણ અને શ્વોચ્છ્વાસ રૂપ એક પ્રાણ, એકેન્દ્રિય, ીન્દ્રિય, શ્રીન્દ્રિય ચતુરિન્દ્રિય, અસજ્ઞિ પ`ચેન્દ્રિય અને સન્નિ પચેન્દ્રિય જીવેામાં પાતપાતાની ચેાન્યતા અનુસાર ચારથી લઈને ૧૦ પ્રાણ સુધીના સદ્ભાવ હાય છે જેમકે એકેન્દ્રિયમાં સ્પર્શેન્દ્રિયબલ પ્રાણુ, કાયબલ પ્રાણુ, શ્વાસેાષ્ટ્રવાસખલ પ્રાણુ અને આયુષ્યમä પ્રાણના, આ રીતે, ચાર પ્રાણુના સદ્ભાવ હાય છે દ્વીન્દ્રિયેમાં નીચેનાં છ પ્રાણેાને સદ્ભાવ હોય છે—ચાર પ્રાણુ એકેન્દ્રિયા પ્રમાણે, રસનેન્દ્રિયલ ત્રાણુ અને વચનખલ પ્રાણુ, શ્રીન્દ્રિયામાં ઘ્રાણેન્દ્રિય પ્રાણ અને ઉપયુક્ત છ પ્રાથ, ચતુરિન્દ્રિયામાં આઠ પ્રાણુના સદ્નભાવ હોય છે ઉપયુક્ત સાત પ્રાણુ અને ચક્ષુરિન્દ્રિયખલ પ્રાણુ, Tuto Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो बोध्यः। यथा-सर्वस्मात् मृपावादात्-सद्भाव प्रतिषेवासद्भावोद्भावनार्थानारोक्तिगही भेदात् कृतादि मेदाच समग्रात् असत्यभापणात् , अथवा-द्रव्यतः सर्वधर्मास्तिकायादि द्रव्यविपयात् , क्षेत्रतः सर्वलोकालोकविषयात्, कालतः अतीतादे. राज्यादिवर्तिनो वा, भावतः कपाय नोकपायादि समुद्भवाच्च समग्रात् असत्यमापणात विरमणं-विनिवृत्तिरिति द्वितीय महावतम् ।। तया-सर्वस्मात् कृतादि पञ्चन्द्रियमें दश-सनबल प्राण बढ़ा मो इन प्राणों का वियोग करना जिस क्रियाके द्वारा होता है, वह प्राणातिपात है, सम्यग्जान् और अद्वान पूर्वक जो इस प्राणातिपातले सर्वधानिवृत्त होताहै,वह समस्त प्राणातिपात विरमण है। यह प्रथम महावत है शयहां यावत् शब्द से द्वितीय महाव्रतका तृतीय महाव्रतका और चतुर्थ महाव्रतका ग्रहण हुआ है । जैसेसमस्त मृषावादसे सद्भावके प्रतिषेधले असद्भाबके उद्भावनसे अर्थान्त. रके कश्चनसे और गर्दा के करनेसे और कृतादिके भेदसे इस तरहके समग्र असत्य भापणसे अथवा द्रव्य की अपेक्षा समस्त धर्मास्तिकायादि द्रव्य विषयक असत्य भाषणसे क्षेत्रकी अपेक्षा-समस्त लोकालोक विषयक असत्य भापणसे कालकी अपेक्षा अतीतादि कालविषयक असत्य भापणसे या रात्री आदि संबन्धी असत्य भाषणसे तथा भावकी अपेक्षा-कषाय नो कषाय आदिसे उद्भूत असत्य भाषणसे અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયમાં નવ પ્રાણને સદ્ભાવ હોય છે. ઉપર્યુક્ત આઠ પ્રણ અને શ્રેન્દ્રિયબલ પ્રાણ, સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયમાં દસ પ્રાણને સદ્ભાવ હેથ છે, અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જેવા નવ પ્રાણુ અને મનબલ પ્રાણ - આ પ્રાણેને અતિપાત (નાશ) કરે તેનું નામ પ્રાણાતિપાત છે સમ્યજ્ઞાન અને શ્રદ્ધાપૂર્વક આ પ્રાણુતિપાતથી સર્વથા નિવૃત્ત થવું તેનું નામ જ સમસ્ત પ્રાણાતિપાત વિરમણ છે. આ પ્રથમ મહાવત છે. સમસ્ત મૃષાવાદથી સર્વથા નિવૃત્ત થવું તેનું નામ સમસ્ત મૃષાવાદ વિરમણ છે. આ બીજું મહાવ્રત છે, તેનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે–સદ્ભાવના પ્રતિષેધથી (જેને સદ્ભાવ હોય તેને સદભાવ નથી એમ કહેવાથી) અભાવ હોય તેને સદ્દભાવ પ્રકટ કરવાથી, વિપરીત અર્થનું કથન કરવાથી, અસત્ય ભાષણથી, અથવા દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સમસ્ત ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યવિષયક અસત્ય ભાષાથી, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ સમસ્ત કલેક વિષયક અસત્ય ભાષણથી, કાળની અપેક્ષાએ અતીત આદિ કાળવિક અસત્ય ભાષણથી, અથવા રાત્રી આદિ સંબંધી અસત્ય ભાષણથી, ભાવની અપેક્ષાએ કષાય, ને કષાય આદિ વડે જાયમાન અસત્ય ભાષણથી–આ પ્રકારે સમસ્ત Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०१ सू०१ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् भेदाद् , अथवा द्रव्यतः सचेतनाचेतनद्रव्यविषयात् , क्षेत्रतो ग्रामनगरारण्यादिसमुद्भवात् , कालत:-अतीतादेः राज्यादिनभवाद् वा, भावतो रागद्वेषमोहोद्भवाच्च समग्रात अदत्तादानात्-अदत्तस्य-स्वामिना अवितीणस्य वस्तुन आदानं ग्रहणम्-अदत्तादानं तस्माद् विरमणमिति वतीयं महाव्रतम् ।३। तथा-सर्वस्मात्= कृतादिभेदेन त्रिविधात्, यद्वा-द्रव्यतो दिव्यमानुपतैरश्वभेदात् रूप रूपसहगत-भेदाद् वा, तत्र-रूपाणि-पष्टिकादौ चित्रादिरूपेण परिकल्पितानि निर्जीइस प्रकारके असत्य भाषणसे-जो विनिवृत्ति है वह द्वितीय महाव्रत है २॥ तथा समस्त अदत्तादानसे कृनादिके भेद्से अदत्तादानसे अथवाद्रव्यकी अपेक्षा सचेतन अचेतन द्रव्यसम्बन्धी अदत्तादानसे क्षेत्रकी अपेक्षा-ग्राम नगर अरण्य आदिसे उदभूत अदत्तादान से कालकी अपेक्षा अतीतादि काल सम्बन्धी अदत्तादानसे अथवा-रात्रि आदिसे उद्भुत अदत्तादानसे या भावकी अपेक्षा रागद्वेष और मोह इनसे उद्भूत अदत्तादानसे इस प्रकारके समस्त अदत्तादानसे जो विरमण है, वह तृतीय महावत है ३ । तथा कृतकारित आदिके भेदसे त्रिविध रूप मैथुनसे अथवा द्रव्यकी अपेक्षा-देव सम्बन्धी मैथुनसे, मानुष सम्बन्धी मैथुनसे और तिर्यश्च सम्बन्धी मैथुनले अथवा रूप रूपसहगत सम्बन्धी मैयुनसे-पट्टिकादिके ऊपर चित्रकादि रूपले परिकल्पित किये गये અસત્ય ભ ષણથી જે સર્વથા નિવૃત થવાય છે તેનું નામ જ સમસ્ત મૃષાવાદ વિરમણ મહાવ્રત છે. આ બીજુ મહાવ્રત છે સમસ્ત અદત્તાદાનથી નિવૃત થવું તેનું નામ સમસ્ત અદત્તાદાન વિરમણ છે આ ત્રીજું મહાવ્રત છે, તેનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સચેતન અચેતન દ્રવ્ય સંબંધી અદત્તાદાનથી નિવૃત થવું, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ ગ્રામ, નગર, અરણ્ય આદિ વડે ઉદ્દભૂત અદત્તાદાનથી વિરમણ થવું, કાળની અપેક્ષાએ અતીતાદિ કાળ સંબંધી અથવા રાત્રિદિવસ સંબંધી અદત્તાદાનથી વિરમણ થવું, ભાવની અપેક્ષાએ રાગ, દ્વેષ અને મેહ વડે ઉદ્દભૂત અદત્તાદાનથી વિરમણ થવું, ત્રણે કારણ દ્વારા (કૃત, કારિત અને અનુમોદના) અદત્તાદાનથી વિરમણ થવું તેનું નામ જ સમસ્ત અદત્તાદાન વિરમણ રૂ૫ ત્રીજું મહાવ્રત છે. કુત, કારિત આદિ ભેદની અપેક્ષાએ ત્રિવિધ રૂપે મિથુનને પરિત્યાગ કરે તેનું નામ સમસ્ત મૈથુન વિરમણ વ્રત છે. એટલે કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ મનુષ્ય, તિર્થં ચ અને દેવસ બંધી મિથુનને પરિત્યાગ કરો, અથવા રૂપ રૂપસીંગત સંબંધી મિથુનને–વસ્ત્ર, પાટિયા આદિ પર ચિત્રાદિ રૂપે પરિકલ્પિત કરાયેલ નિજીવ ચિત્રાદિકે સાથે અબ્રહ્મના સેવનને પરિત્યાગ કરો, અથવા રૂપ સહગત સજીની સાથે મૈથુનને પરિત્યાગ કરે, ભૂષણ વિહીન રૂપની Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० स्थानागार वानि, रूपसहगतानि तु सजीवानि, अथवा-निर्भू पणानि रूपाणि, सभूपणानि रुपसहगतानीति, क्षेत्रतो लोकत्रयसंभवाद्, कालतोऽनीतादे राज्यादि संभ. वाद् वा, भावतो रागद्वेपसमुत्थाच्च समग्राद् मैथुनात् विरमणमिति चतुर्थ महाव्रतम् ।४। तथा-सर्वस्मात् कृतादिभेदेन त्रिविधात्-अथवा-द्रव्यतः “सर्वद्रव्यविषयात् , क्षेत्रतो लोकसं भवात् , कालतोऽतीतादे रात्र्यादिभवाद् वा, भावतो रागद्वेषविपयाच समग्रान् परिग्रहात्-परिगृह्यने आदीयते इति परिग्रहः परिग्रहणं वा परिग्रहः-धनधान्यादिर्नवविधः तस्मात् विरमणमिति पञ्चम महाव्रतमिति ।५। इत्थं पञ्च महाब्रतानि निरूप्य सम्प्रति व्रतप्रस्तावात् पञ्चाणुनिर्जीव चित्रादिकोंके साथ कृत मैथुनसे और रूप सहगत सजीवोंके साथ कृत मैथुनसे-अथवा भूषण विहीन रूपोंके साथ और भूषण सहित रूपसहमतोंके साथ कृत मैथुनसे क्षेत्रकी अपेक्षा लोकत्रय सम्बन्धी मैथुनसे कालकी अपेक्षा अतीत मैथुनसे अथवा-राज्यादि संभव मैथुनसे भावकी अपेक्षा-रागद्वेष समुत्थ मैथुनसे इस प्रकारके मैथुनले जो विरमण है, वह चतुर्थ महावत है ४। तथा समस्त परिग्रहसे कृतकारित आदिके भेदसे विविध परिग्रहसे अथवा-द्रव्यकी अपेक्षा सर्वद्रव्य सम्बन्धी परिग्रहसे क्षेत्रकी अपेक्षा लोक सम्बन्धी परिग्रहसे कालको अपेक्षा अतीनादि काल सम्बन्धी परिग्रहसे राज्यादिमें होनेवाले परिग्रहले भावकी अपेक्षा-रागद्वेष सम्बन्धी परिग्रहसे इस प्रकारके समस्त परिग्रहसे जो विरमण है वह पांचवां महाव्रत है, સાથે અને ભૂષણ સહિત રૂપની સાથે મિથુનનો ત્યાગ કરવો ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ ત્રણે લે. સંબંધી મૈથુનને પરિત્યાગ કરે, કાળની અપેક્ષાએ અતીત મિથુનને અથવા રાત્રી આદિ સંબંધી મૈથુનને પરિત્યાગ કર, ભાવની અપેક્ષાએ રાગદ્વેષથી ઉદ્ભૂત મૈથુનને પરિત્યાગ કરે-આ પ્રકારે સમત પ્રકારના મથુનથી નિવૃત્ત થવું તેનું નામ સમસ્ત મૈથુન વિરમણમહાવ્રત છે. હવે પાંચમાં મહાવ્રતનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–કૃત, કારિત અને અનુમાદિત રૂપ ત્રણે પ્રકારના પરિગ્રહને, દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સર્વ ધન, ધાન્ય આદિના પરિગ્રહને, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ લેક સંબંધી પરિગ્રહને, કાળની અપેક્ષાએ અતી. તાદિ કાળ સંબંધી પરિગ્રહને અથવા રાત્રી આદિમાં સંભવિત પરિબ્રહને, ભાવની અપેક્ષાએ રાગદ્વેષ સંબંધી પરિગ્રહને, આ રીતે સમસ્ત પ્રકારના પરિગ્રહને પરિત્યાગ કરે તેનું નામ સમસ્ત પરિગ્રહ વિરમણ મહાવ્રત છે. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा डीका स्था०५ ०१ ०१ पश्चात निरूपणम् ५०१ 1 तान्याद - ' पंचाणुव्वया' इत्यादिना । अणुव्रतानि - अणूनि लघूनि च तानि व्रतानि, अणुत्वं च महाव्रतापेक्षया अल्पविषयत्वादिना बोध्यम् । यद्वा-अणोः= लघोर्गुणिनो व्रतानि - अणुव्रतानि । अथवा अनुव्रतानीतिच्छाया । अनु महावतकथनानन्तर' तद्ग्रहणाशक्तानुद्दिश्य पुनर्यानि व्रतानि कथ्यन्ते तानि अनुव्रतानि । तानि च पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-स्थूलात् - द्वीन्द्रियादयो जीवाः स्थूलाउच्यन्ते । स्थूलत्वं चैषां सकललौकिकानां जीवत्वमसिध्या बोध्यम् । स्थूलजो ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, अथवा ग्रहण करना इसका नाम परिग्रह है, ऐसा यह परिग्रह धनधान्यादिके भेद से नौ प्रकारका है । इस परिग्रहसे विरमण होना यह परिग्रह विरमण महाव्रत है । इस प्रकार से पांच महाव्रतों का निरूपण करके अब सूत्रकार व्रतके प्रकरणको लेकर पांच अणुव्रतोंका कथन करते हैं पंचाणुब्वया " इत्यादि - लघु जो व्रत हैं - महाव्रतोंकी अपेक्षा अल्पविषयवाले होने से जो अणु हैं, वे ऐसे व्रत अणुव्रत हैं महाव्रतोंका विषय इनकी अपेक्षा महान् है, और इनकी अपेक्षा अणुव्रतोंका विषय अल्प थोड़ासा है - इसलिये इन्हें अणुव्रत कहा गया है, अथवा लघु जीवके थोड़े से गुणवाले जीवके जो व्रत हैं वे अणुव्रत हैं । अथवा(6 अनुव्रत " ऐसी छाया पक्ष में ऐसा अर्थ होता है कि महाव्रत कथन के अन्तरही महाव्रतोंके ग्रहण करने में अशक्त हुए मनुष्यादिको लक्ष्य " જે ગ્રહસ્તે કરાય છે-અથવા જેના સગ્રહ ધરાય છે તેવુ' નામ પરિગ્રડ છે તે પરિગ્રહના ધન, ધાન્ય આદિના ભેદથી નવ પ્રકાર કહ્યા છે. તે પરિગ્રહથી વિરમણ થવું-નિવૃત થવું, તેનું નામ પરિગ્રહ વિરમણુ મહાવ્રત છે. આ રીતે પાંચ મહાવ્રતાનું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર પાંચ અણુવ્રતાનું નિરૂપણ કરે છે "" पंचाणुव्वया" इत्याहि व्रत सधु छे-यांथ भडाव्रतानी अपेक्षा જે ત્રતા અલ્પ વિષયવાળા હોવાને કારણે અણુરૂપ છે, તે તેને અણુવ્રતે કહે છે. તેમના કરતાં મહાવ્રતાના વિષય મહાન છે, મહાવ્રતો કરતાં અણુ તેના વિષય અલ્પ છે. તેથી તે તેને અણુવ્રત કહ્યાં છે. "C અથવા—લઘુ જીવના શૈાડ સરખા ગુણુસ'પન્ન છત્રનના જે વ્રતો છે तेमने वन डे छे. अथवा " अणुव्रत" या पहनी संस्कृत छाया अनुव्रत" લેવામાં આવે, તે તેને અથ આ પ્રમાણે થાય છે. મહાવ્રતાના પાલનના Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ स्थानाङ्गो जीवविषयः प्राणातिपातोऽपि स्थूलः, तस्मात्-प्राणातिपाताद् विरमणमिति प्रथममणुव्रतम् । तथा-स्थूलात् मृपावादात-विरमणम्-परिस्थल विपयो महानर्थ हेतुभूतो यो स्मृपावादः स स्थूलो मृपावादः, तस्मान्निवृत्तिरित्यर्थः । इति करके फिर जो व्रत कहे जाते हैं वे अनुव्रत हैं। ताहार्य इस कथनका ऐसा है कि सर्व प्रथम जीवको मुनि धर्मकाही उपदेश देना चाहिये ऐसी जिनप्रवचनकी आज्ञा है, इससे विपरीत उपदेष्टा निग्रहके योग्य कहा गया है। यदि वह मुनित्रन ग्रहण करने में असमर्थ है, तो फिर उसके लिये अणुव्रतोंका उपदेश है। इसो अपेक्षा अणुव्रतोंको अनुव्रत ऐसा कहा गया है । ये अणुव्रत पांच प्रकार के कहे गये हैं द्वीन्द्रियादिक जीव स्थूल कहे गये हैं, इन्हें स्थूल कहनेका कारण यह है कि-सकल लौकिक जन इन्हें जीव मानते हैं, स्थूल जीव विषयक जो प्राणातिपात होता है, वह भी स्थूल होता है, उस स्थूल प्राणातिपातसे जो विरमण है वह प्रथम अणुव्रत है। स्थूल मृषावादसे जो विरमण है, वह स्थूल मृषावादविरमण है, यह स्थूल मृषावाद महान अनर्थका हेतु होता है, जिस वचनसे यह झूठा है, ઉપદેશ કરવામાં આવે, પણ તેમનું પાલન કરવાને અસમર્થ એવા મનુષ્યોને જોઈને તેમને લક્ષ્ય કરીને જે વ્રત પાળવાને ઉપદેશ આપવામાં આવે છે, તે વ્રતને અનુત્રને (અણુવ્રત) કહે છે. આ કથનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે—સૌથી પહેલા જીવોને મુનિધને જ ઉપદેશ આપ જોઈએ, એવી જિપ્રવચનની આજ્ઞા છે આ ઉપદેશથી વિપરીત ઉપદેશ કરે જોઈએ નહીં પણ જે ઉપદેટાને એમ લાગે કે શ્રોતા મહાવ્ર ગ્રહણ કરવાને સમર્થ નથી, તે તેણે તેમને અણુવ્રતોને ઉપદેશ આપ જોઈએ આ રીતે મહાવ્રતોને ઉપદેશ આપ્યા બાદ જેને ઉપદેશ અ૫ ય છે, એવાં વ્રતોને અણુવ્રત કહે છે તેમનાં નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર છે–(૧) સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત વિરમણ ઢીદ્રિયાદિક જીવોને સ્થૂલ કહ્યાં છે, તેમને સ્થૂલ કહેવાતું કારણ એ છે કે સકળ લૌકિકજન તેમને જીવરૂપ માને છે સ્કૂલ જીવ વિષયક જે પ્રાણાતિપાત, થાય છે તે પણ સ્થૂલ હોય છે. આ સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતથી જે વિરમણ થાય છે જીવ હિંસાને જે ત્યાગ થાય છે તેને સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રત કહે છે. આ પહેલું અણુવ્રત સમજવું (૨) સ્થૂલ મૃષાવાદ વિરમણ વ્રત-શૂલ મૃષાવાદ (વધુ પડતું જૂઠું બોલવું તે) મા અનર્થનું કારણ બને છે જે વચનથી બેલનાર જૂઠા માણસ તરીકે ખ્યાતિ પામે, જે વચનને કારણે Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ सुधाटीका स्था०५उ०१सू०१ पञ्चमहाव्रतनिरूपणम् द्वितीयमणुव्रतम् ।२। तथा-स्थूलात् अदत्तादानाद् विरमणम्-स्थूल अदत्तादाने हि परिस्थूलवस्तुविपयं चौर्यारोपण हेतुत्वेन प्रसिद्धम् , अतिदुष्टाध्यवसायात्मकं भवति, ततो यन्निवर्तन तत्तृतीयमणुव्रतमिति मात्रः ३। तथा-स्वदारसन्तोपः-स्वदारेभ्यो ऽन्यत्र मैथुननिवृत्तिः । अनेन सनथा परदारनिवृत्तिः सचिता । इदं चतुर्थमणुन. तम् । तथा-इच्छापरिमाणम्-इच्छाया-धनादिविषयाभिलापस्य परिमाण = नियमनम्-देशतः परिग्रहविरतिरित्यर्थः ॥ सू० १ ॥ ऐसी अपनी ख्याति हो जावे, लोक अपने वचनका विश्वास नहीं करें दूसरों पर आपत्ति आ जावे, ऐसे जितने भी वचन हैं वे सब स्थूल मृषावाद रूप हैं। इस स्थूल स्वृषावादसे जो विरमण है वह द्वितीय अणुव्रत है २ । स्थूल अदत्तादानसे विरमण होना बह स्थूल अदत्तादान विरमण है, यह स्थूल अदत्तादान स्थूल वस्तुकी चोरी करनेके कारण स्थूल माना गया है। यह अतिदुष्ट अध्यवसाय रूप होता है, लोकमें जो " चोरी" इस नामसे प्रसिद्ध है, जिसके करनेसे राजदण्ड आदि मिलता है ऐसी चोरी करने का त्याग करना वह स्थूल अदत्तादान विरमण है, और यह तृतीय अणुव्रत है । अपनी स्त्रीके सिवाय अन्यत्र मैथुनका त्याग करना यह चतुर्थ स्वदार संतोष नामका अणुव्रत है, इस अणुव्रतमें परस्त्री सेवनका सर्वथा परित्याग हो जाता બીજાને વિશ્વાસ તે ગુમાવી બેસે, જે વચનને કારણે અન્ય જીવો મુશ્કેલીમાં મૂકાઈ જાય, એવાં વચનેને સ્થૂલ મૃષાવાદ રૂપ ગણવામાં આવે છે આ પ્રકારના સ્થૂલ મૃષાવાદને ત્યાગ કરે તેનું નામ સ્થૂલ મૃષાવાદ વિરમણ છે આ પ્રકારનું બીજુ અણુવ્રત કહ્યું છે (૩) સ્થૂલ અદત્તાદાનને ગ્રહણ ન કરવું તેનું નામ સ્થૂલ અદત્તાદાન વિરમણ છે સ્કૂલ (મોટી) વસ્તુની ચેરી કરવાને કારણે તે સ્થૂલ અદત્તાદાન રૂપ માનવામાં આવેલ છે તે અતિ દુe અધ્ય વસાય રૂપ હોય છે તેને લેકે “ચોરી” ને નામે ઓળખે છે તે ચોરી કરવાને કારણે અપરાધી કરીને રાજદંડને પાત્ર થવું પડે છે એવી ચેરી કરવાનો ત્યાગ કરે તેનું નામ સ્થૂલ અદત્ત દાન વિરમણે છે. તેને ત્રીજુ અણુવન કહ્યું છે. (૪) પિોતાની પત્ની સિવાય અન્ય કોઈ પણ સ્ત્રી સાથે મૈથુનનું સેવન કરવાને ત્યાગ કરે તેને બ્રહ્મચર્ય વ્રત કહે છે. આ વ્રત લેનારે સહારામાં જ સતે ષ માનીને પરસ્ત્રી સેવનને સર્વથા ત્યાગ કરવો પડે છે, આ પ્રકારનું શું અણુવ્રત કહ્યું છે (૫) ધન, ધાન્ય આકિના સંગ્રહ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ५०४ इच्छापरिमाणम् इन्द्रियागोचरं श्रेयो मयतीति इन्द्रियार्थवक्तव्यताध पंच. वन्ना' इत्यादीनि त्रयोदश अवान्तरसूत्राणि माह मूलम्-पंच वन्ना पाणत्ता, तं जहा-किण्हा १ नीला २, लोहिया ३ हालिद्दा ४ सुकिल्ला ५ ॥१॥ पंच रसा पण्णत्ता, तं जहा--तित्ता जाव महुरा ॥२॥ पंच कासगुणा पणत्ता, तं जहा--सदा १, रूवा २, गंधा ३, रसा ४ फाला ५॥३॥ पंचहिं ठाणेहिं जीवासत्ति,तं जहा--सदेहि जाव फासहि॥४॥एवं रजति ५, सुच्छति ६, गिझंति ७, अज्झोववति ॥८॥ पंचहि ठाणेहिं जीवा विणिघायमावति, तं जहा--सदेहिं जाव फासेहिं ॥९॥ पंच ठाणा अपरिणगाया जीवाणं अहियाए १०, असुहाए २, अखमाए ३. अणिस्तेयसाए ४ अणाणुगामियत्ताए ५ है, इच्छापरिमाग-धन वान्यादि विषयक अभिलापाका परिमाणनियमन करना अर्थात् एकदेश परिग्रह का त्याग करना-यह पांचवां अगुवन है, इस समस्त कयन का सारांश यही है कि मनव वन कायसे कनकारित अनुमोदनासे द्रव्यक्षेत्र काल और मात्र संबंधी हिंसादिक पांचों पापोंका जो त्याग है, वह महावत है या महावन सर्वविरति रूप होता है और हिमादिक पांच पापोंका एकदेशसे त्याग करना यह अणुवरहै। महावत ५ और अणुवसर होते हैं, इच्छापरिमाण इन्द्रियोंके अर्थ विषय में होता है, और यह कल्याण के लिये होता है।५० १॥ કરવા વિષે મર્યાદા નક્કી કરવી, અમુક પ્રમાણુ કરતાં વધારે પરિગ્રહ ન રાખ. એટલે કે પરિગ્રહને અંશત: ત્યાગ કરવો તેનું નામ પરિગ્રહ વિરમણ અથવા ઈચ્છા પરિમાણ વ્રત છે. આ પાંચમું અણુવ્રત સમજવું. આ સમસ્ત કથનને સારાંશ નીચે પ્રમાણે છે મન, વચન અને કાયથી, કૃત, કારિત અને અનુમેદના રૂ૫ ત્રણ કરથી, દ્રવ્યક્ષેત્રકાળ અને ભાવસંબંધી હિંસાદિક પાંચ પાપને જે પરિત્યાગ છે તેને મહાવત કહે છે તે મહાવ્રત સર્વવિરતિ રૂપ હોય છે. હિંસાદિક પાંચ પાપને એક દેશની અપેક્ષાએ (અંશતઃ) ત્યાગ કરો તે અણુવ્રત છે તે દેશવિરતિ રૂપ હોય છે. માત્ર પાંચ છે અને અણુત્રને પણ પાંચ છે. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०१ सू०२ वर्णादिनिरूपणम् भवंति, तं जहा सहाजाव फासा ॥ १० ॥ पंच ठाणा सुपरिनाया जीवाणं हियाए सुहाए जाव आणुगामियत्ताए भवति, तं जहा - सहा जाव फासा ॥ ११ ॥ पंच ठाणा अपरिण्णाया जीवाणं दुग्गइगमणाए भवंति तं जहा -- सहा जाव फासा ॥ १२ ॥ पंच ठाणा परिवणाया जीवाणं सुग्गइगमणाए भवति, तं जहा -सद्दा जाव फासा ॥ १३ ॥ सू० २ ॥ छाया - पञ्च वर्णाः प्रज्ञताः, तथथा - कृष्णाः १, नीला: २, लोहिताः ३, दारिद्राः ४, शुक्ला: ५ ॥ १ ॥ पञ्च रसाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- तिक्ता यावद् मधुराः ॥ २ ॥ पश्च कामागुणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - शब्दाः १, रूपाणि २, गन्धाः ३, रसाः ४, स्पर्शाः ५ ।। ॥ पञ्च स्थानेषु जीवाः सजन्ति तथथा - शब्देषु यात्रत् स्पर्शेषु ॥ ४ ॥ एवं रज्यन्ति ५, मूर्च्छन्ति २, गृध्यन्ति ७, अध्युपपद्यन्ते टा पञ्चसु स्थानेषु जीवा विनियामापद्यन्ते, तद्यथा - शब्देषु यावत् स्पर्शेषु ॥ ९ ॥ पञ्च स्थानानि अपरिज्ञातानि जीवानाम् अहिताय १, अनुखाय २, अक्षमाय ३, अनिःश्रेयसाय : अनानुगामिकतायै भवन्ति तद्यथा - शब्दा यावत् स्पर्शाः ॥१०॥ पञ्च स्यानानि सुपरिज्ञातानि जीवानां हिताय सुखाय यावत् आनुगामिकतायै भवन्ति तूचथा - शब्दा यावत् स्पर्शाः ॥ ११ ॥ पञ्च स्थानानि अपरिज्ञातानि जीवानां दुर्गतिगमनाय भवन्ति, तद्यथा - शब्दा यावत् स्पर्शाः ॥ १२ ॥ पञ्च स्थानानि परिज्ञातानि जीवानां सुगतिगमनाय भवन्ति तद्यथा - शब्दा यावत् स्पर्शाः १३ ॥ ० २॥ 1 टीका--' पंचवन्ना' इत्यादि - -- कृष्णादि शुक्लान्ताः पञ्चवर्णा भवन्ति ॥ १ ॥ तिक्तकटुकषायाम्लमथुरा' पेश्वरसा भवन्ति । रसानां पञ्चसंख्यकरवमिहान्येषां संयोगिकत्वेनाविवक्षणाद पत्रकार इन्द्रियार्थो की वक्तव्यता के निमित्त १३ अवान्तर सूत्रोंको कहते हैं- 'पंच वण्णा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र २ ।। टीकार्थ- वर्ण ५ होते हैं जैसे- कृष्ण१ नीलर लोहित ३ हारिद्र४ और शुक्ल ५। रस ५ होते हैं, जैसे- तिक्त १ यावत् मधुर ५, कामगुण पांच वे सूत्रार छन्द्रियार्थोनी वक्तव्यताने निमित्ते " पंचवन्ना" इत्यादि १३ भवान्तर सूत्रे तु उथन उरे छे पंचवण्णो पण्णत्ता " त्याहिटीअर्थ - वायुपाय हाय है– (१) ३ष्ट्य, (२) नीस, (3) सोहित (सास), (४) हारिद्र ( चीजो) मने (4) शुउस રસ પણ પાંચ કહ્યાં છે—તિક્ત स्था०-६४ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ स्थानाङ्गसूत्रे योध्यम् ॥ २॥ तथा-कामगुणा:-काम्यन्ते इति कामाः, ते घ ते गुणाति । यद्वा-कामस्य मदनाभिलापत्य अभिलापमात्रस्य वा उत्पादका गुणा: पुद्गलधर्माः कामगुणाः, ते च शब्दावात्मकाः पञ्चसंख्यका बोध्या: ॥३॥ तथा-जीवाः होते हैं-जैसे-शब्द १ रूप २ गन्ध ३ रम ४ और स्पर्श ५ जीव पांच स्थानों में आसक्त होते हैं, जसे-ठायमें यावत् स्पर्शमें इसी तरहसे जीव शब्दादिक पांच स्थानों में राग करते हैं, उनमें मोहित होते हैं, उनमें गृद्ध होते हैं, उनमें एकचित्त होते हैं, और इन्हीं पांच स्थानों में ये विनिघातको प्राप्त होते हैं, यहां तकके कथन का तात्पर्य ऐसा है-यद्यपि वर्गों में एवं रसोंमें संयोगजन वर्णों की अपेक्षा और संयोगी रसोकी अपेक्षा पांच संख्यासे भी अधिकता आती है परन्तु यहां उनकी विवक्षा नहीं हुई है, इसलिये उन्हें ५-५ कहा गया है “काम्यन्ते इति कामाः ते च ते गुणाश्च इति कामगुणाः" इति कर्मधारय समासके अनुसार जो गुण कामनाके विषयभूत घनते हैं वे कामगुण हैं, अथवामदनाभिलाषके या अभिलाप मात्रके जो उत्पादक होते हैं, ऐसे पुदगल धर्म कामगुण हैं, वे कामगुण शब्दादि स्वरूप होते हैं, और संख्यामें (તીખા) થી લઈને મધુર પર્યન્તના પાંચ રસ અહીં શહણું કરવા કામગs पाय डेय छ-(१) ०७४, (२) ३५, (3) ५, (४) २५ मने (५) २१'. જ પાંચ સ્થાનમાં આસક્ત થાય છે–શબઇથી લઈને સ્પર્શ પર્વતના પાંચ સ્થાનો અહીં સમજી લેવા. જીવ શબ્દાદિક પંચ સ્થાને પ્રત્યે રાગ કરે છે, તેમના પ્રત્યે મોહિત થાય છે, તેમના પ્રત્યે ગૃદ્ધ (લેલુપ) થાય છે, અને તે પાંચમાં જ જીવ એકચિત્ત થાય છે. આ પાંચ સ્થાનોની તરફ આકર્ષિત - રહેલા જીવ અને વિનિઘાત (મૃત્યુ) પ્રાપ્ત કરે છે. આ સમસ્ત કથનને - ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે કે વર્ષોમાં અને રમોમાં સંગજન્ય વર્ણોની અપેક્ષાએ અને સંયોગી રસની અપેક્ષાએ પાંચ કરતાં પણ અધિક પ્રકારે સંભવી શકે છે, પરંતુ અહીં પાંચ સ્થાનનું કથન ચાલતું રહેવાથી પાંચ મુખ્ય વ અને પાંચ મુખ્ય રસેનું જ કથન કર્યું છે. . "काम्यसे इति कामाः ते पते गुणाश्व इति, कामगुणाः" AL मधारय સમાસ અનુસાર જે ગુણ કામનાના વિષયભૂત બને છે, તેમને કામગુગ કહે છે. અથવા મદનાભિલાષાના અગર અભિલાષા માત્રના જે ઉત્પાદક હોય છે, એવાં પુદગલમ કામથણ છે, તે શબ્દાદિ સ્વરૂપ હોય છે, અને તેમની સંખ્યા Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टी. स्था. ५ उ १ सू.२ वर्णादिनिरूपणम् ५०७ शब्दादि स्पर्शान्तेषु पञ्चसु स्थानेषु-रागाथाश्रयेषु सनन्ति आसक्ता भवन्तिसङ्गं कुर्वन्तीति । 'पंचहिं ठाणेहि ' इत्यादिषु सर्वत्र सप्तम्यर्ये तृतीया वोध्या। यद्वा-'पंचहिं ' इत्यत्र तृतीया स्वार्थ एव बोध्या। 'ठाणेहि ' इत्यादिषु तु सप्तम्यर्थे वोध्या । अत्र पक्षे-पञ्चभिरिन्द्रियैर्जीवाः रागाधाश्रयभूतेषु शब्दादिषु सङ्गं कुर्वन्तीत्यर्थो बोध्यः ॥ ४ ॥ एवम् अमुना प्रकारेणैत्र जीवाः शब्दादिषु पञ्चसु स्थानेषु रज्यन्ते साकारणं रागं कुर्वन्ति । ५। मूर्च्छन्ति शब्दादिदोपदर्शनेऽशक्त्या तेषु मोहम् अचेतनत्त्रमित्र यान्ति, संरक्षणानुबन्धवन्तो वा भवन्तीत्यर्थः ॥६॥ गृध्यन्ति प्राप्तवस्तुष्वसन्तोषादप्राप्तेषु प्रभूनाकाङ्क्षावन्तो भवन्ति ॥७॥ तथा अध्युपपद्यन्ते तदेकचित्ता भवन्ति, तदुपार्जनाय वाऽधिकं चेष्टमाना भवन्तीति पांच होते हैं । जीव शब्दादि स्पर्शान्तों में पांच स्थानोंमें आसक्त होते हैं, इस पक्षमें ऐसा अर्थ होता है कि पांच इन्द्रियोंसे जीव रागादिकोंके आश्रयभूत शब्दादिकों में आसक्त होते हैं ४। इसी तरहसे जीव शन्दादिक पांच स्थानों में आसक्तिके कारणभूत रागको करते हैं ५। उन शब्दादिक रूप विषयोंमें अनेकविध दोषोंको देखते हुए भी जीव अपनी अशक्तिके वश उनमें मूच्छित होते हैं, अचेतनकी जैसी अवस्थाको प्राप्त करतेहैं अथवा-उनके संरक्षण करने के लिये आग्रहवाले होते । “गृध्यन्ति" प्राप्त वस्तुओंमें असन्तोषसे और अप्राप्त वस्तुओंमें अधिकसे अधिक आकाङ्क्षासे बंधे रहते हैं ७. " अध्युपपद्यन्ते" उनमें एकचित्तवाले होते हैं अथवा उनके उपार्जनके लिये अधिकसे अधिक चेष्टामें लगे रहते हैं ८ जिस प्रकार मृगादिक शब्दादिक विषयों में आकृष्ट પાંચની છે જે શબ્દથી લઈને સ્પર્શ પર્યન્તના પાંચ સ્થાનમાં આસક્ત થાય છે. આ પક્ષે અહીં એ અર્થ થાય છે કે પાંચ ઈન્દ્રિય વડે જીવ રાગાદિ કેના કારણરૂપ શબ્દાદિ કેમાં આસક્ત થાય છે. (૪) આ રીતે જીવ શબ્દાદિક પાંચ સ્થાનમાં આસક્તિના કારણભૂત રાગથી યુક્ત બને છે તે દાદિક રૂપ વિષયમાં અનેક દે જેવા છતાં પણ જીવ પોતાની અશક્તિને કારણે તેમાંથી છૂટવાને બદલે તેમાં વધારેને વધારે મૂછિત (આસક્ત) થતા રહે છે. અચેતન જેવી અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે અથવા તેમનું રક્ષણ ४२वाने भाटे माया मने छ (6) "गृध्यन्ति" तसा पास पस्तुमाथी સંતોષ પામતાં નથી અને અપ્રાપ્ત વસ્તુઓની અધિકમાં અધિક લાલસાથી माया २७ . (७) " अध्युपपद्यन्ते" तो तेमा मेयित्त पनी गया હેય છે, અથવા તેની પ્રાપ્તિ માટે અધિકમાં અધિક પ્રયત્નશીલ રહે છે. (૮) જેવી રીતે મૃગાદિ છે શાદિક વિષયમાં લુબ્ધ થઈને પિતાના પ્રિય Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग सूत्रे ५०८ | ८ | तथा - जीवाः पञ्चभिरिन्द्रियै गन्दादिस्पर्शान्तेषु पञ्चसु रागायाश्रयेषु विनिः घातं = मृगादीनामिव मरणं संसारं वा आपद्यन्ते = प्राप्नुवन्ति । उक्तं चरक्तः शब्दे हरिणः, स्पर्शे नागो रसे च वारिचरः । कृपण पतङ्गो रूपे, भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ॥ १ ॥ पञ्च रक्ताः पञ्च विनिष्टा यत्रागृहीत परमार्थाः । 51 एकः पञ्चसु रक्तः, प्रयाति भस्मान्ततां मूढः ॥ २ ॥ किंच-" कुरङ्गमातङ्गपतङ्गभृङ्ग मीना हताः पञ्चभिरेव पञ्च । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च ||१|| " इति ॥ ९॥ होकर अपने प्रिय जीवनसे रहित बन जाते हैं, उसी प्रकार रागादिकके आश्रयभूत शब्दादि स्पर्शान्ति तक के पांच विषयोंमें पांच अपनी इन्द्रियों द्वारा खींचे जाकर अन्तमें उन्होंमें मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं, या उनके वशवर्ती बनकर पुनः पुनः इसी संसारमें जन्म मरण आदि करते रहते हैं । कहा भी है- " रक्तः शब्दे हरिणः " इत्यादि । हरिण शब्द में जो कर्ण इन्द्रियका विषय है, अनुरागी बनकर अपने प्राणोंको नष्ट कर देता है, हाथी स्पर्शन इन्द्रियके विषयभूत स्पर्शमें अधिक अनुरागी बनकर अपने जीवनको नष्ट कर देता है, वारिचरमछली रस्में जो कि जिहा इन्द्रियका विषय है, अनुरागी हुआ अपने जीवनको समाप्त कर देती है, तथा रूपमें जो कि चक्षुइन्द्रियका विषय है, अनुरागी हुआ विचारा पतंग अपने जीवनको नष्ट कर देता है, भुजग-सर्पगन्ध में - जो कि घ्राण इन्द्रियका विषय है, अधिक अनुरागी પ્રાણેાથી પણ રહિત થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે રાગાદ્દિકના આશ્રયભૂત શબ્દથી લઈને સ્પર્શે પન્તના પાંચ વિષયેામાં પેાતાની પાંચ ઇન્દ્રિયા દ્વારા આકર્ષિત થયેલા જીવેા પણ અન્તે મૃત્યુ પામે છે એટલુ જ નહી પણ તેમને અધીન બનેલા જીવા આ સંસારમાં વારંવાર જન્મ-મરણુ રૂપ આવાગમન छेउ छे -' रक्त शब्दे हरिणः " इत्यादि. શબ્દ કે જે કન્દ્રિયને વિષય છે તેમાં અનુરાગી બનીને હરણું પેાતાના પ્રાણેાને ગુમાવી દે છે. સ્પર્શેન્દ્રિયના વિષયભૂત સ્પર્શીમાં અધિક અનુરાગયુક્ત ખનીને હાથી પેાતાનાં પ્રણાને ગુમાવી બેસે છે, પ્રાણી, કે જે સ્વાદેન્દ્રિયના વિષય છે, તેમાં આસક્ત ખનીને માછલી પેાતાનાં પ્રણેાને ગુમાવે છે તથા ચક્ષુઇન્દ્રિયના વિષયરૂપ રૂપમાં આસક્ત થત્રાથી પતંગિયું પાતાના જાન ગુમાવી બેસે છે પ્રાણેન્દ્રિયના વિષયભૂત ગન્ધમાં અધિક અનુ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपा टीका स्था० ५ उ० स०२ वर्णादिनिरूपणम् ५०६ तथा-शब्दादिस्पर्शान्तानि पञ्च स्थानानि अपरिज्ञातानि-अपरिज्ञया स्वरूपतोऽज्ञातानि अपत्याख्यानपरिज्ञया वाऽप्रत्याख्यातानि अहिताय अनुपकाराय असुखाय दुःखाय अक्षमाय=असामांय अनिःश्रेयसाय अकल्याणाय अमो क्षाय वा, अनानुगामिकतायै-आ-समन्ताद् अनुगच्छति-कालान्तरमुफ्कारित्वेन अनुपाति यत्तदानुगामिकम् , न आनुगामिकम्-अनानुगामिकं, तस्य भावस्तत्ता तस्यै, जन्मान्तरेऽसहगामित्वाय च भवति ॥ १० ॥ एतानि पञ्च स्थानानि सुपरिझातानि जीवानां हितसुखादिभ्यो भवन्ति ॥ ११ ॥ तथा-एतान्येव पञ्च हुआ अपने जीवनको नष्ट कर देता है, इस प्रकारसे एक इन्द्रियके विषयमें फंसे जीव जब अपना जीवन खो बैठते हैं, तो फिर जो प्राणी पांचों इन्द्रियोंके विषयों में आसक्त बना हुआ है, उसकी दुर्दशाके विषयमें क्या कहा जावे ? तथा शब्दसे लेकर स्पर्श तकके ये पांच स्थान स्वरूपसे अज्ञात हुए अथवा-अप्रत्याख्यान प्रतिज्ञासे अप्रत्याख्यात हुए जीवोंके अहितके लिये अनुपकारके लिये अलुख-दुःखके लिये अक्षमअसामर्थ्य के लिये अनिःश्रेयस-अकल्याणके लिये अथवा अमोक्षके लिये होते हैं, एवं अनानुगामिकताके लिये परभवमें साथ जानेके लिये नहीं होते हैं १० ये शब्दादि स्पर्शान्त तकके पांच स्थान जब सुपरिज्ञात होते हैं, तब वे जीवोंके हित आदि वातोंके लिये होतेहैं ११। तथा રોગયુક્ત બનીને સર્ષ પિતાનાં પ્રાણ ગુમાવે છે. આ રીતે એક જ ઈન્દ્રિયના વિષષમાં આસક્ત થયેલા જીવ જે પિતાનું જીવન ગુમાવી બેસે છે, તો પાંચે ઇન્દ્રિયના વિષયના ગુલામ બનેલા જે જીવે છે, તેમની દુર્દશાની તે વાત જ શી કરવી ! શબ્દથી લઈને પશે પર્યન્તના આ પાચ સ્થાનના સ્વરૂપથી અજ્ઞાત હોય એવા અથવા અપ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી અપ્રત્યાખ્યાત હોય એવાં જીવોને भाटे ते पाय स्थान मलित, मनु५४२, मसुम (4), सक्षम (मसामर्थ्य) અનિશ્રેયસ (અકલ્યાણ) અથવા અમોક્ષને માટે કારણરૂપ બને છે, અને અનુગામિતા-પરભવમાં સાથે જવાને માટે કારણભૂત બનતાં નથી (૧૦). આ શબઇથી લઈને સ્પર્શ પર્યન્તના પાંચ સ્થાન જ્યારે સુપરિજ્ઞાત થઈ જાય છે, ત્યારે તે જીના હિત, ઉપકાર આદિ કરવામાં કારણભૂત બને છે (૧૧). Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे स्थानानि अपरिज्ञातानि जीवानां दुर्गतिगमनाय नारकादिमत्रप्राप्तये भवन्ति, परिज्ञातानि तु एतानि मुगतिगमनाय-सिद्धयादिमाप्तये भवन्तीति ।।१२।१३मू०२।। दुर्गतिमृगती च कारणान्तरेणापि भवत इति प्रतिपादयितुमाह- मूलम्-पंचहिं ठाणेहिं जीवा दोग्गइं गच्छति, तं जहा-- पाणाइवाएणं जाव परिगहणं । पंचहिं ठाणेहिं जीवा सोग्गइं गच्छंति, तं जहा -पाणावायवेरमणेणं जाव परिगहवेरमणेणासू.३। . छाया-पञ्चभिः स्थाने या दुर्गतिं गच्छन्ति, तद्यथा-प्राणातिपातेन यावत् परिग्रहेण । पञ्चभिः स्थानीवाः सुगति गच्छन्ति, तथथा-प्राणातिपातविरमणेन यावत् परिग्रहविरमणेन ।। सू० ३ ॥ टीका-'पंचहि ठाणेहि ' इत्यादि-व्याख्या सुगमा ।। सु० ३ ॥ येही पांच स्थान अपरिज्ञात होने पर जीयों को दुर्गतिगमनके लिये होते हैं, अर्थात् नारकादि भवोंकी मासिके लिये होते हैं, तथा जम ये परिज्ञात होते हैं, अर्थात् ज्ञपरिज्ञासे अनर्थका सूल जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञानसे शब्दादिक कामभोगों का त्याग कर देते हैं। तब ये सुगतिकी प्राप्तिके लिये-सिद्धि आदिकी प्राप्तिके लिये होतेहैं १२-१३।०२।। दुर्गति और सुगति ये दूसरे कारणले भी होती है, इस पातको प्रतिपादन करने के लिये अब सूत्रकार कहते हैं 'पंचहि ठाणेहिँ जीवा' इत्यादि स्त्र ३ ॥ टीकार्थ-पांच कारणों से जीन दुर्गतिमें जाते हैं, जैसे-माणातिपातसे यावत् परिंग्रहसे तथा पाँच कारणों से जीव लुगतिको प्राप्त करते हैं, जैसेप्राणातिपात विरमणसे यावत् परिग्रह विरमणले ।। सू० ३ ।। એ જ પાંચ સ્થાને અપરિજ્ઞાત જ રહે છે અને દુર્ગતિમાં જવાના કારણભૂત બને છે એટલે કે નારકાદ ભની પ્રાપ્તિ કરાવે છે, તથા જ્યારે તે પાંચે સ્થાન સુપરિજ્ઞાત થઈ જાય છે, અર્થાત્ જ્ઞપરિજ્ઞાથી તેને અનર્થના કારણરૂપ જાણી પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી શબ્દાદિક કામભેગેને ત્યાગ કરી દે છે. ત્યારે જીવને સુગતિનીસિદ્ધિ આદિની પ્રાપ્તિ કરાવે છે. (૧૨-૧૩) સૂરા બીજા કારણેને લીધે પણ જીવ દુર્ગતિ અને સુગતિની પ્રાપ્તિ કરે છે. એ જ વાતનું હવે સૂત્રકાર નીચેના સૂત્ર દ્વારા પ્રતિપાદન કરે છે. " पंचहि ठाणेहि जीवा " त्याहટીકાથ–પ્રાણાતિપાતથી લઈને પરિગ્રહ પર્યન્તના પાંચ કારણેને લીધે જીવ ગતિમાં જાય છે પ્રાણાતિપાત વિરમણથી લઈને પરિગ્રડ વિરમણ પર્યન્તના પાચ કારણેને લીધે જીવ સુગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. સૂ. ૩ ! Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०५ उ०१ सू०२ पर्णादिनिरूपणम् ५११ संवरतपसोर्मोक्षसाधनत्यं प्रसिद्धम् । तत्रानन्तरसामनिरोधलक्षणः संवर उक्तः । अधुना प्रतिमारूपान् तपोमेदाना___मूलम्--पंच पडिमाओ पण्णत्ताओ तं जहा--महा १ सुभदा २ महाभद्दा ३ सवओ भद्दा ४ अदुत्तरपडिमा ५ ॥ सू० ४॥ छाया-पञ्चप्रतिमाः प्रज्ञप्ता', तद्यथा-भद्रा १ सुभद्रा २ महाभद्रा ३ सर्वतोभद्रा ४ भद्रोत्तरप्रतिमा ५ ॥ ० ४ ।। टीका-पंच पडिमाओ' इत्यादिभद्रादयः पञ्चप्रतिमा विज्ञेयाः । आसां व्याख्या ग्रन्थान्तरादबसेया॥सू०४॥ इत्थं कर्मनिर्जरणहेतु तपोविशेषमभिधाय सम्पति. कर्मानुपादानहेतुभूतस्य संयमस्य विषयभूतान् एकेन्द्रियजीवानाह मूलम्--पंच थावरकाया एण्णता, तं जहा-इंदे थावरकाए १ बंभे थावरकाएं २ सिप्पे थावरकाए ३, संमती थावरकाए ४ पाजावच्चे थावरकाए ५। पंच थावरकायाहिबई पण्णत्ता, तं जहा-इंदे थावरकायाहिवई १ जाव पाजावच्चे थावरकायाहिबई ५॥ सू० ५॥ संवर और तप ये मोक्षके साधन हैं, यह बात प्रसिद्ध है, इनमें आस्रवका निरोध होना यह लंबर है, यह बात तो कही जा चुकी है, अतः अब पत्रकार प्रतिमारूप तपोंके भेदोंका कथन करते हैं 'पंच पडिमाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि सूत्र ४ || टीकार्थ-प्रतिमाएँ पांच कही गई है-जैले-भद्रा१ सुभद्रार महाभद्रा ३ और सर्वतोभद्रा ४ और भद्रोत्तर प्रतिमा ५ इन प्रतिमाओंकी व्याख्या अन्य ग्रन्थोंसे जान लेनी चाहिये । सू० ४॥ | સંવર અને તપને મોક્ષના સાધનરૂપ કહ્યાં છે આસવને નિરાધ કરે તેનું નામ સંવર છે, એ વાતનું તે આગળ પ્રતિપાદન થઈ ગયું છે. તેથી હવે સૂત્રકાર તપના ભેદ રૂપ પ્રતિમાનું કથન કરે છે. “पंच पदिमाओ पण्णत्ताओ" त्याह1 टी -प्रतिभामा नीय प्रभा पांय ही छ-(1) मी, (२) सुभद्रा, (a) મહા ભદ્રા, (૪) સર્વતે ભદ્રા અને (૫) ભદ્રોતર પ્રતિમા. આ પ્રતિમાઓનું વરૂપ અન્ય અગ્રંથોમાંથી જાણું લેવું. એ સૂ. ૪ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे ५१२ । छाया-पञ्च स्थावरकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-इन्द्रः स्थावर कायः १, ब्रह्मा स्थावरकायः २, शिल्पः स्थावरकायः ३, सम्मतिः रथावरकायः ४ माजापत्यः स्थावरकायः ५। पञ्च स्थावरकायाधिपतयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-इन्द्रः स्थावरकाया धिपतिः १ यावत् प्राजापत्यः स्थावरकायाधिपतिः ५॥ सू० ५॥ टीका--'पंच थावरकाया' इत्यादि स्थावरकायाः-स्थावरनामकर्मीदयात् स्थावरा:-पृथिव्यादयः, तेपा काया राशयः यद्वा-स्थावर स्थावरनामकर्मोदय जनितः काया शरीरं येपां ते तथा । इस प्रकारसे काम निर्जरणका हेतु तपो विशेषको कहकर अय सुत्रकार को के क्षयका हेतुभूत जो संयम है, उस संयमके विषय भूत जो एकेन्द्रिय जीव हैं उन्हें कहते हैं___ 'पंच थावर काया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ५ ॥ मुत्रार्थ-पांच स्थावरकाय कहे गये हैं, जैसे-इन्द्र स्थावर काय १ ब्रह्मा स्थावर काय २ शिल्प स्थावरकाय ३ सम्मति स्थावरकाय ४ और प्राजापत्य स्थावरकाय ५। पांच स्थावर कायाधिपति कहे गये हैं-जैसे-इन्द्र स्थायर कायाधिपति १ यावत् प्राजापत्य स्थावरकायाधिपति ५।। टीकार्य-स्थावर नामकर्म के उदयसे स्थावर जीव होतेहैं, ये जीव पृथिवी आदिरूप होते हैं, इनकी जो राशि है, वह स्थावरकाय है, अथवा स्थावर नामकर्मके उदयसे जनित है, काय-शरीर जिन्होंका वे स्थावरને આ પ્રકારે કર્મનિરણના હેતુરૂપ વિશેષનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર કર્મોને અનુત્પાદના હેતુભૂત જે સંયમ છે, તે સંયમને વિષયભૂત જે એકેન્દ્રિય જીવે છે તેમનું કથન કરે છે. सूत्राथ-"पंच थावरकाया पण्णत्ता" त्याहસૂત્રાર્થ-સ્થાવરકાયનાનીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) ઈન્દ્ર સ્થાવરકાય (२) प्रक्षा याव२५य, (3) शि६५ स्था१२४१य, (४) समति स्या५२४५य, અને (૫) પ્રાજાપત્ય સ્થાવરકાય પાંચ સ્થાવર કાયાધિપતિ કહ્યાા છે–(૧) ઈદ્ર સ્થાવર કાયાધિપતિ થી લઈને પ્રાજાપત્ય સ્થાવરકાયાધિપતિ પર્વતના પાંચ સ્થાવર કાયાધિપતિ સમજવા. ટીકાઈ-સ્થાવર નામકર્મના ઉદયથી સ્થાવર ની ઉત્પત્તિ થાય છે. તે છે પ્રવી આદિ રૂપ હોય છે. તેમની જે રાશિ છે તેને સ્થાવરકાય કહે છે. અથવા સ્થાવર નામકર્મના ઉદયથી જનિત જેમની કાયા (શરીર) છે, તે Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . संधाटीका स्था०५उ०१सू० । संयमस्य विषयभूत पकेन्द्रियजीवनिरूपणम् । ५१३ ते च पञ्चसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-इन्द्रः स्थावरकाय इत्यादि । तत्र-इन्द्र स्थावरकायः पृथिवीकायः । अयम् इन्द्रसंम्बन्धित्वादिन्द्र इत्युच्यते ॥१॥ तथाब्रह्मा स्थावरकाया अप्कायः । ब्रह्मदेवसंबन्धित्वादयं ब्रह्मेत्युच्यते ॥२॥ शिल्पः स्थावरकाया-तैजसकायः । शिल्पदेवसम्बन्धित्वादयं शिल्प इत्युच्यते ॥ ३ ॥ सम्मतिः स्थावरकाया-वायुकायः । अयं सम्मतिदेवसम्वन्धित्वात् सम्मतिरित्युच्यते ॥४॥ तथा-प्राजापत्यः स्थावरकाया वनस्पतिकायः। प्रजापतिदेवसंवन्धित्वादयं प्राजापत्य इत्युच्यते ॥ ५ ॥ इति । एषां पश्चानां स्थावरकायानामिन्द्रादयः पञ्च अधिपतयः स्वामिनः क्रमेण विज्ञेयाः । अमुमेवार्थ सूचयितुमाह'पंच थावरकायाहिबई पण्णत्ता' इत्यादि । अत्रेदं बोध्यम्-यथा दिशामिन्द्रान्याकाय हैं, ये स्थावरकाय पांच कहे गये हैं, इनमें इन्द्र स्थावरकाय पृथिवीकाय है इसका इन्द्र अधिपति होने से इन्द्र ऐसा कहा गया है । ब्रह्मा स्थावरकाय अप्काय है २। इसका ब्रह्माअधिपति होनेसे ब्रह्मा ऐसा कहा गया है । शिल्प स्थावरकाय तेजस्काय है ३। इसका शिल्पदेव अधिपति होनेसे शिल्प सो कहा गया है, सम्मति स्थावरकाय वायुकाय है, इसका सम्मतिदेव अधिपति होनेसे सम्मति ऐसा कहा गया है। और प्राजापत्य स्थावर काय वनस्पतिकाय है, इसका प्रजापतिदेव अधिपति होनेसे प्राजापत्य ऐसा कहा गया है ५। इन पांच स्थावरकायोंके इन्द्रादिक पांच अधिपति स्वामी क्रमसे हैं। यही घात-"पंच थावरकायाहिवई पण्णत्ता " इस सूत्र से प्रकट की गई है यहां ऐसा समझना चाहिये-जिस प्रकारसे स्वामी इन्द्र आदि नक्षत्रोंके अधिपति अश्वि यम आदि हैं, दक्षिणोत्तर लोका| के अधिपति शक्र और ७वाने या१२४॥ ४९ छ. तना उपयुत पाय ५४.२ ४ा -(१) -द्र સ્થાવરકાય પ્રકિાયને કહ્યાં છે, કારણ કે તેને અધિપતિ ઈન્દ્ર છે. (૨) અપકાયને બ્રહ્મ સ્થાવરકાય કહે છે, કારણ કે તેના અધિપતિ બ્રહ્મા છે. (૩) તેજસ્કાયને શિલ્પ સ્થાવરકાય કહેલ છે, કારણ કે તેને અધિપતિ શિલ્પદેવ છે. (૪) વાયુકાયને સમ્મતિ સ્થાવરકાય કહેલ છે, કારણ કે તેને અધિપતિ સમ્મતિદેવ છે, (૫) વનસ્પતિકાયને પ્રાજાપત્ય સ્થાવરકાય કહેવામાં આવે છે, કારણ કે તેને અધિપતિ પ્રજાપતિ દેવ છે ઉપર્યુક્ત પાંચ સ્થાવરકાના અધિપતિ ઈન્દ્ર આદિ દે છે એ જ पात सूत्ररे “पच थावरकायाहिवई पण्णत्ता " त्या सूत्री मा प्रस्ट કરી છે. અહીં એમ સમજવું જોઈએ કે જેમ નક્ષત્રના અધિપતિ અશ્વિ स्था०-६५ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ स्थानाङ्गसूत्रे दयो, नक्षत्राणामश्विमादयो, दक्षिणोत्तर लोकार्धयोः शक्रेशानौ, तथैन इन्द्रब्रह्मादयः पृथिव्यादीनां स्थावर कायानामधिपतयो भवन्ति, अत एव इन्द्राद्रयः पञ्च स्थावरकायाधिपतित्वेनोक्ता इति ॥ मु० ५ ॥ एते च अवधिमन्तो भवन्ति, परमेषां कदाचिदधिदर्शनोभोऽपि भवती त्याह मूलम् - पंचहि ठाणेहिं ओहिदंसणे समुप्पजिउका मेवि तप्पढमयाए खंभाएजा तं जहा - अप्पभूयंचा पुढत्रिं पासिता तप्पढमयाए खंभा एज्जा १, कुंथुरासिं वा पुढवि पालित्ता तप्पढमयाए खंभा एज्जा २, महामहालयं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा ३, देवं वा महिड्डियंजाव महासोक्खं तप्पढमयाए खंभाएज्जा ४, पुरेसु वा पोराणाई महइमहालयाई महानिहाणाई पहीणसामियाई पहीणसेउयाई पहीणगुत्तागाराई उच्छिन्नसासियाई उच्छिन्नसेउयाई उच्छिन्नगुत्तागाराई जाई इमाई गामागर नगरखेडकव्त्रडदोणमुपट्टणासमसंवाहसन्निवे सेसु सिंघाडगतिगचउक्क वच्चरच उम्मुह महापहप हेसु नगरगिद्धमणेसु सुखाणसुन्नागारगिरिकंदर संति सेलोवडावणभवणगिहेसु संनिक्खित्ताइं चिति ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा ५। इच्चेएहिं पंचहिं ठाणेहिं ओहिदंसणे समुपज्जिउ कामेवि तप्पढमयाए खंभाएजा ॥ सू० ६ ॥ ईशान हैं, उसी प्रकार से इन्द्र ब्रह्मा आदि पृथिवी आदि स्थावर कार्यों के हैं। इसीलिये इन्द्रादिक पांच स्थावरकायोंके अधिपतिरूपसे कहे गये हैंसू०५ ॥ ચમ આદિ હાય છે, લેાકના દક્ષિણ અને ઉત્તરાના અધિપતિ શુક્ર અને ઇશાન નામના ઇન્દ્રો હોય છે, એ જ પ્રમાણે પૃથ્વી આદિ સ્થાવરકાયાના અધિપતિ પ્રશ્ના આદિ પાંચ છે તેથી ઇન્દ્રાદિક પાંચ દેવેને સ્થાવરકાચાના અધિપતિ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે, સૂપ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ सुधा टीका स्था० ५ उ०१० ६ अवधिदर्शनक्षोभकारणनिरूपणम् छाया - पञ्चभिः स्थानैः अवधिदर्शनं समुत्पत्तुकाममपि तत्प्रथमतायां स्कनीयात् तद्यथा - अल्पभूतां वा पृथिवीं दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां स्कनीयात् १, कुन्थुराशि वा पृथिवीं दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां स्कनीयात् २ महातिमहत् वा महोरगशरीरं दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां स्कम्नीयात् ३, देवं वा महर्दिक यावत् -महासौख्यं दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां स्कनीयात् ४, पुरेषु वा पुराणानि महातिमहान्ति महानिधानानि महीणस्वामिकानि प्रहीण सेक्तृकानि प्रहीणगोत्रागाराणि उच्छिन्नस्वामिकानि उच्छिन्नसेवकानि उच्छिन्नगोत्रागाराणि यानि इमानि ग्रामाकरनगर खेटकट द्रोणमुखपनाश्रम संवादसन्निवेशेषु शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरचतुमुखमहापथपथेषु नगर निर्द्धपनेषु श्मशानशून्यागार गिरिकन्दरशान्तिशैलोपस्थापनभवनगृहेषु सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति तानि वा दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां स्कन्नीयात् । इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः अवधिदर्शनं समुत्पत्तुकामं तत्प्रथमतायां स्कस्नीयात् ।। ०६ ।। टीका--' पंचहि ठाणेहिं इत्यादि. पञ्चभिः स्थानैः अवधिदर्शनम् = अवधिरेव दर्शनं रूपिसामान्यग्रहणम् अत्रधिदर्शनम् तत् समुत्पत्तुकाममपि भवितुकाममपि तत्वथमतायाम् = अवधिदर्शनो समये कनीयात् क्षुभ्येत्-चलेदित्यर्थः । यद्वा-अवधिदर्शगे समुत्पतुकामे सति तत्प्रथमतायाम् = अवधिदर्शनोत्पादमथमसमये अवधिमान् स्कम्नीये अवधि वाले होते हैं, परन्तु इनके कदाचित् अवधिदर्शनका क्षोभ भी होता है - यही बात सूत्रकार कहते हैं टीकार्थ- पंचहि ठाणेहि ओहिदंसणे' इत्यादि सूत्र ६ ॥ उत्पन्न होने की इच्छावाला हुआ भी अवधिदर्शन अपने उत्पन्न होने के प्रथम समय में चलायमान हो सकता है, इसमें ये पांच कारण हैं - अवधिज्ञान से पहिले रूपी पदार्थको सामान्य रूप से ग्रहण करनेवाला जो उसका दर्शन है वह अवधिदर्शन है, यह अवधिदर्शन उत्पन्न होनेके તેઓ અવધિવાળા હોય છે, પણ કયારેક તેમના અવધિદર્શનના ક્ષાભ પણ થતા હેાય છે. એ જ વાત હવે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે, टीअर्थ - "पंच हिं' ठाणेहि ओहिदंसणे " इत्यादि ઉત્પન્ન થવાની ઈચ્છાવાળુ હાવા છતાં પણ પેાતાની ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં નીચેના પાંચ કારણેાને લીધે અધિદશન ચલાયમાન થઇ શકે છે. અવધિજ્ઞાન થયા પહેલાં રૂપી પદાર્થને સામાન્ય રૂપે ગ્રહણ કરનારુ જે તેનુ દન છે તેને અવિધન કહે છે. તે અવધિદર્શીન ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય હોવાથી Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो यात्=क्षुभ्येत् । अवधिमानिति गम्यत्वेनाक्षिप्तम् । क्षोभमकारमेवाह-तं जहा' इत्यादिना । तथया-अल्पभूताम्-अल्पानि=स्तोकानि भूतानि-प्राणिनो यस्यां सा ताम्-अल्पसंख्यकमाणिसहितां भूमिं दृष्ट्वा अवधिज्ञानवतोऽवधिदर्शन तत्प्रथमतायाम् अवधिदर्शनप्रथमोत्पादसमये स्कभ्नीयात्-नुभ्येत् । अयं भावःबहुसंख्यकसत्वसमाकुला भूरियमिति संभावना समन्वितोऽस्मादल्पसत्त्व सहितो भूमिम् अवधिदर्शनोत्पादमथमसमये दृष्ट्वा " आः किमेतदेवम् " इत्येवं संक्षुब्धावधिदर्शनो भवति, अक्षीणमोहनीयत्वादिति १। वा अथवा कुन्धुयोग्य होने से उत्पन्न हुआ भी जो वह अपनी आपत्तिके प्रथम समयमें क्षुभित हो जाता है, अथवा अवधिदर्शन उत्पत्तिके योग्य होनेसे उत्पन्न होता भी जो उसकी उत्पत्तिके प्रथम समयमें अवधिज्ञान बाला जीव क्षुभित हो जाताहै, तो उसके क्षुभित होनेके कारण येहैं-जव अवधिज्ञानी अल्पसंख्यक प्राणियोंसे सहित भूमिको देखनाहै, तब उसका अवधिदर्शन उसके देखनेसे अपनी उत्पत्तिके प्रथम समयमें श्चभित हो जाता है-चलायमान हो जाताहै । इसको भाव ऐसा है, यह भूमि अनेक संख्यावाले प्राणियोंसे समाकुल-व्याप्त है, ऐसी संभावनासे समन्वित अवधिज्ञानी अकस्मात अल्पसत्त्व सहित भूमिको अवधिदर्शनके उत्पादके प्रथम लमयमें जब देखता है, तो देखकर " ओह क्या यह ऐसा है " इस प्रकार से वह अवधिदर्शनवाला संक्षुब्ध हो जाता है, ઉત્પન્ન થાય છે પણ ખરું, પરંતુ જે તે પિતાની ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં ક્ષભિત થઈ જાય છે અથવા જે જીવ અવધિદર્શનની પ્રાપ્તિને પાત્ર હોય છે તેને અવધિદર્શન ઉત્પન્ન થઈ પણ જાય છે, પરંતુ કયારેક તેની ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં અવધિજ્ઞાનવાળો જીવ કુંભિત થઈ જાય છે, તે મુભિત થવાના કારણો નીચે પ્રમાણે હોય છે–(અહીં અવધિજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાનીમાં ધમ અને ધર્મીની અપેક્ષાએ અભેદ માનવામાં આવ્યો છે ) (૧) ત્યારે અવધિજ્ઞાની અલ્પસંખ્યક પ્રાણીઓવાળી ભૂમિને દેખે છે, ત્યારે તેમને જેવાથી તેનું અવધિજ્ઞાન ઉત્પત્તિના પ્રથમ મયે મુભિત થઈ જાય છે-ચલાયમાન થઈ જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે આ ભૂમિ અનેક સંખ્યાવાળા પ્રાણીઓથી વ્યાપ્ત છે એવી સંભાવનામાં માનનારે તે અવધિજ્ઞાની અકસ્માત્ અલ્પ સંખ્યક પ્રાણીઓવાળી ભૂમિને અવધિદર્શનની ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયે જ્યારે દેખે છે, ત્યારે તેને એવું આશ્ચર્ય થાય છે કે “શું આ ભૂમિ આટલા જ પ્રાણીઓવાળી છે ! ” આ પ્રકારે તે અવધિનાની સંક્ષુબ્ધ થઈ જાય છે, કારણ કે તે અક્ષીણ મોહવાળે Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारीका स्था०५३०१ सू०६ भवधिद नक्षोभकारणनिरूपणम ५१७ राशिभूताम्-कुन्थुराशिमयों कुन्थुभिाप्तां पृथिवीं दृष्ट्वाऽत्यन्त विस्मयदयाभ्यां स्कन्नीयात ॥ २॥ वा अथवा-महातिमहालयम्-महतोऽप्यतिमहत महोरगशरीरं महासर्पकायं वायद्वीपवर्ति योजनसहस्रपमाणं दृष्ट्वा विस्मयभयाभ्यां स्कभ्नी. - यातू ।। ३॥ वा अथवा महद्धिकं यावच्छन्दग्राह्य-महाद्युतिक महानुभागं महावलं तथा महासौख्यं देवं दृष्ट्वा विस्मयात् स्कन्नीयात् ॥ ४॥ वा अथवा पुरेप= नगरेषु पुराणानि-प्राचीनानि महातिमहालयानि-विशालातिविशालानि महानिधानानि-महामूल्यरत्नादीनां निधानस्थानानि भवन्ति, कीदृशानि तानि भवन्ति ? क्योंकि वह अक्षीण मोहवाला होता है १। अथवा कुन्थुराशिभून कुन्थुराशिसे व्याप्त पृथिबीको देखकर वह अत्यन्त विस्मय एवं दया इनसे संक्षुब्ध अवधिदर्शनवाला हो जाता है २। अथवा-जब वह अपने अवधिदर्शनसे महासर्पकायको बाह्यद्रीपवर्ति योजन सहस्र प्रमाणवाले बहु तही अधिक विशालकायवाले सर्पकायको देखता है, तो देखकर विस्मय और भय इन दोनोंसे संक्षुब्ध अवधिदर्शकवाला हो जाताहै ३। अथवाजष यह अपने अवधिदर्शनले महर्द्धिक यावत्-महायुतिक महाप्रभावयुक्त महाघल संपन्न तथा महासौख्ययुक्त किसी देवको देखता है, तो देखकरके वह अवधिज्ञानी जीव विस्मयसे संक्षुब्ध अबधिदर्शनवाला अवधिदर्शनकी उत्पत्तिके प्रथम समयमें बन जाता है, अथवा नगरों में इस प्रकारके महातिमहान् प्राचीनतम गढे हुए या रखे हुए निधानोंको देखता है, तो देखकर वह अवधिदर्शन अपने प्रथम समयमें संक्षुब्ध हो जाता है ५ । निधानके इन-विशेषणोंका अर्थ इस प्रकार से है जैसेહોય છે (૨) અથવા કુન્થ રાશિ રૂપ અથવા કુન્થ રાશિ વડે વ્યાપ્ત પૃથ્વીને જેઈને અત્યંત વિસ્મય અને દયાથી તે સ ક્ષુબ્ધ અવધિદર્શનવાળો થઈ જાય છે (૩) અથવા જયારે તે બાહ્ય દ્વિીપમાં જન સહસ્ત્ર પ્રમાણવાળા મહાસર્પકાયને જોવે છે, ત્યારે તેને જોઈને વિસ્મય અને ભય, આ બને કારણે સંક્ષુબ્ધ અવધિદર્શનવાળ થઈ જાય છે. (૪) અથવા જ્યારે તે અવધિદર્શનથી મહદ્ધિક, મહાદ્યુતિક, મહા પ્રભાવયુક્ત, મહા બલયુક્ત, મહા સુખસંપન્ન એવાં દેવને દેખે છે, ત્યારે તે અવધિદર્શનવાળો જીવ અવધિદર્શનની ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં વિમયને લીધે સંક્ષુબ્ધ અવધિદર્શનવળ બની જાય છે. (૫) અથવા નગરાદિમાં મહાતિમહાન પ્રાચીનતમ જમીનમાં દાટી રાખેલા કે ભૂગર્ભમાં ખનીજ રૂપે રહેલા ભંડારોને જયારે તે અવધિદર્શનના પ્રથમ સમયે જોવે છે, ત્યારે વિસ્મયને કારણે તેનું અવધિદર્શન સંક્ષુબ્ધ થઈ જાય છે. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ स्थानास्त्रे इत्याह-प्रहोणपामिकानि-पहीणाः परिक्षीणाः नष्टप्रायाः स्वामिनो येषां तानि तथोक्तानि, तथापहीण सेक्त्त कानि-पहीणाः सेक्तार:-सेचकास्तेप्वत्र उपयुपरिधनप्रक्षेकाः पुनादयो येपा तानि तथोक्तानि । अयत्रा-' महीणसेतुकानि' इतिच्छाया । प्रहीणाः सेतवा तदभिज्ञानभूताः पाल यस्तन्मार्गी या अतिपुराणत्वेन प्रति नागरकाभावेन च येषां तानि तथोक्तानि, तथा-महीणगोत्रागाराणिप्रहागानि गोत्रागाराणि-निधायकानां कुलानि गृहाणि च येषां तानि तथोक्तानि । उक्तमेवार्थ विशदयति-' उच्छिन्नसामियाई' इत्यादि, उच्छिन्नम्यामिकानिउच्छिन्नाः उन्यूलिताः स्त्रागिनो येषां तानि तथोक्तानि । अन्यत् पूर्ववद् बोध्यम् । एवं विधानि पुरवर्तीनि पुराणानि निधानानि दृष्ट्वा, चा=अथवा-ग्रामाकरनगरखेटकर्यटद्रोणमुखपट्टनाश्रमवाहसन्निवेशेपु-तत्र-ग्रामः-गत करादिह्यते, जो निधान पुराने हों, बहुत पहिलेके हों, प्राचीन हों, महाति-महालय हों-बहुतही अधिक विशाल हों जिनकी द्रव्य राशिका कोई प्रमाण न हो, और जिनके स्वामी नष्ट प्राय हो चुके हों, तथा जो प्रहीणोतक हों, जिनकी वृद्धि करनेवाले उनके स्वामियों के भी कोई पुत्र पौत्रादि न रहे हों-सबके सब (मर) हो चुके हों अथवा जो प्रहीण लेतुक हों-उन निधानोंके जाननेवाले तक भी कोई न बचे हों तथा जो प्रहीण गोत्रागारवाले हों-जिनके अधिकारियों के गोत्रके घर तक भी नष्ट हो गये हों ऐसे उच्छिन्न (नष्ट) स्वामी आदि विशेषणोंवाले महामृत्यवाले रत्नादिकोंके विधानोंको-खजानोंको देखकर अथवा-ग्राममें-करादि टेक्स आदि અહીં જે નિધાન (ધન ભંડાર ) ૫૦ વપરાય છે, તેના વિશેષણોને અર્થ આ પ્રમાણે છે–તે નિધાને પ્રાચીનકાળથી જમીનમાં રહેલા હોવાથી તેમને પુરાણુ કહ્યા છે તે નિધાન ઘણુ જ વિશાળ હોવાથી તેને મહાતિ મહાન કહ્યા છે તે ભંડારમાં અપાર દ્રવ્યરાશિ રહેલી છે તે ભંડારોના માલિકે નષ્ટ થઈ ચુક્યા છે, એટલું જ નહીં પણ તે ધનભંડારોની વૃદ્ધિ કરનાર પુરુષના પુત્ર, પૌત્ર આદિ કોઈ બચ્યું નથી તેના એકે એક વારસ કાલધર્મ પામી ચુક્યા છે. આ કારણે તેમને “પ્રહણ સેકતૃક” કહ્યા છે. અથવા તે નિધાને “પ્રહણ સેતુક છે-એટલે કે તે નિધાનના અસ્તિત્વને જાણનાર પણ કઈ વિદ્યમાન નથી, તથા જે પ્રહણ ગાત્રાગારવાળા છે, એટલે તે ભંડારોના સ્વામીના ગોત્ર (કુળ) ની કઈ પણ વ્યક્તિના ઘર પણ મેજૂદ નથી, એવાં ઉછિન્ન સ્વામી આદિ વિશેષણોથી યુક્ત મહામૂલ્યવાન રત્નાદિ કેથી યુક્ત ખજાનાઓને ગ્રામ, નગર આદિના ભૂગર્ભમાં રહેલા અને તેનું અવધિદર્શન ક્ષુબ્ધ થઈ જાય છે. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ५ उ०१ सू०६ अवधिदशनक्षोभकारणनिरूपणम् १९ आकारालादीनामुत्पत्तिस्थानम् , नकरम् नास्तिकरो यस्मिस्तत् , यद्वा नगरंप्रसिद्धम् , खेटम्-धूलिपाकारपरिवेष्टितम् कटर-कुत्सितं नगरम् , मडम्बम् - सर्वतोऽर्धत्तीययोजनं यावद् वसतिरहिनम् , द्रोणमुखम् जलस्थलोभयपथयुक्तम् , पट्टनम-जलस्थलपथयोरन्यतरेण निर्गमप्रवेशौ यत्र तत् आश्रमः-तापसजननिवासस्थानम् , संवाहः परचक्रभयेन रक्षार्थ यत्र पर्वतनितरवादिदुर्गे धान्यादीनि जनाः संवहन्ति सः, संनिवेश:-यत्र प्रभूतानां भाण्डाला सनिवेशः सः, एपामितरेतरयोग द्वन्द्वः, तेषु तथोक्तेषु, तथा-शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुग्वमहापथपथेषु-तत्र-शृङ्गाटकम्-त्रिकोणमार्गः, त्रिक-त्रिएथम्-यत्र त्रयो मार्गा मिलन्ति तत्स्थानम् , चतुष्कम् चतुष्पथम्-यत्र चत्वारोमार्गा मिलन्ति तत्स्थानम् , चत्वजिनमें से वसूल किया जाता है, ऐसे स्थान में आकर में-रत्नादिककी उत्पत्तिके स्थानभूत खानों में नगरमें खेटमें-धूलिप्राकारसे परिवेष्टित स्थानमें, कर्षटमें-कुत्सित नगरमें मडम्बमें चारों ओर अढाई २ योजनतक वसती रहित स्थान द्रोणाखमें-जलपक्ष एवं रथलपथ इन दोनों मार्गों वाले स्थान में पहनमें-जलपथ एवं स्थलपथ इनमें से कोई एकपथसे होकर जिनमें आनाजाना होता हो, ऐले स्थान में आश्रम में तपस्विजनोंके स्थानमें संवाहमें-परचक्रके भयले मनुष्य रक्षाके लिये जिन पर्वतादिके मध्यभागों में धान्यादि छिपाकर रखते हैं ऐसे स्थान में, संनिवेशमें जो अनेक भाण्डादि वस्तुओंके रखने के आश्रयस्थान होते हैं, ऐसे स्थानमेंतथा श्रृद्धाटकमें-त्रिकोणवाले मार्ग, त्रिकमें-तीन रास्ते जहां पर आकर मिलते हों ऐखे रास्ते में, चत्वर में अनेक मार्गों के संगम स्थानमें महा અહીં જે પ્રામાદિ સ્થાન બતાવ્યાં છે, તેમને અર્થ હવે સ્પષ્ટ કરવામાં भाव छ જ્યાં આવતા જતા માલ પર કર વસૂલ કરાય છે એવા સ્થળને ગામ કહે છે, રત્નાદિકની ઉત્પત્તિ જ્યાં થાય છે એવી ખાણેને આકર” કહે છે માટીના કિલ્લાથી રક્ષિત ગામને ખેટ કહે છે, કુત્સિત નગરને કMટ કહે છે, જેની ચારે તરફ અર્ધા એજનના વિસ્તારમાં વસ્તી ન હોય એવા સ્થાનને મડઓ” કહે છે જ્યાં જળમાર્ગ અને જમીન માર્ગે જઈ શકાય છે, એવા સ્થળને દ્રોણમુખ” કહે છે જ્યાં માત્ર જળમાર્ગે જ અથવા માત્ર જમીન માગે જ જઈ શકાતું હોય એવા સ્થળને “પટ્ટન” કહે છે તપસ્વી જનના સ્થાનને આશ્રમ કહે છે, પરચકના ભયથી મનુષ્ય પોતાના ધનધાન્યને પર્વતાદિની વચ્ચે આવેલા જે સુરક્ષિત સ્થાનમાં રાખે છે તે સ્થાનને સંનિવેશ કહે છે. ત્રણ ખૂણાવાળા માર્ગને શ્રગાટક (શિગડાના આકારને માર્ગ) કહે છે, ત્રણ રસ્તા જ્યાં મળતા હોય તે જગ્યાને ત્રિક કહે છે. જ્યાં ચાર માર્ગો Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० स्थानानपत्रे रम्=अनेकमार्गमगमस्थानम् , महापथः राजमागः, पन्थाः मागः, एषां इन्दः, तेपु तथोक्तेपु, तथा-नगरनि मनेपु-नगरजलनिर्गमनस्थानेषु, नगरनालिकास्वित्यर्थः ।, तथा - श्मशानशून्यागारगिरिकन्दरशान्तिशैलोपस्थापनभवनगृहेषुतत्र-श्मशानम् शवपरिष्ठापनस्थानम् , शून्यागारम्=शुन्यगृहम् , गिरिकन्दरा पर्वताहा, शान्तिगृहम् यत्रराज्ञामनिष्टगान्तये शान्तिकमहोमादि क्रियते तत् , शैलगृहम्-पर्वतप्मुत्कीर्य गृहरूपेण यन्निर्मीयते तत्, उपस्थापनगृहम् आस्थानमण्डपः, अथवा-शैलोपस्थापनगृहम् शैलनिर्मितास्थानमण्डपः, भवनगृहम्-यत्र कुटु बिनो निवसन्ति तत , एतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेषु । एतेषु ग्रामादिपु यानि इमानि महीणस्वामिकादिविशेषणविशिष्टानि पुराणानि महातिमहाकयानि महा निधानानि सन्निक्षिप्तानि संस्थापिनानि तिष्ठन्ति तानि दृष्ट्वा अदृष्टपूर्वतया पथमें राजमार्ग में पथमें-सामान्य मार्गमें तथा नगर निर्द्धमनों में-नगरके जलको निकलने के लिये बनाये गये मार्गों में-नगरके तालाओंमें-तथा श्मशानोंमें शून्यागारों में, गिरिकी कन्दराओंमें, शान्तिगृहों में, जहां पर राजाभों के अनिष्टको शान्त करने के लिये शान्तिकमरूप होमादिक किये जाते हैं ऐसे स्थानमें, शैलगृहों में-पर्वतको तोडकर जो गृहरूपसे बनाये जाते हैं ऐसे स्थानोंमें उपस्थानगृहमें-भास्थान मंडपमें-अथवा-शैलोपस्थान गृहमें, शैलनिर्मित आस्थान मंडपमें, याहर बैठने के मण्डपोंमें, अवनगृहमें जहां कुटुम्पीजन निवास करते हों ऐसे स्थानमें ऐसे इन ग्रासादिकोंमें, रखे हुए गढे हुए प्रहीणस्वामिक (स्वामी रहित ) आदि विशेषणोंवाले पुराने महातिमहालय ऐसे निधानोंको देखकर अदष्ट पूर्व होने के कारण उनके जायमान विस्मભેગાં થતાં હોય તે સ્થાનને ચતુષ્ક (એક) કહે છે, અનેક માર્ગોના સંગમ સ્થાનોને ચત્વર કહે છે. રાજમાર્ગને મહાપથ કહે છે સામાન્ય માર્ગને પથ કહે છે. નગરમાંથી પાણી બહાર કાઢવાની ગટરને નિદ્ધમન કહે છે. આ પ્રકારનાં સ્થાનમાં તથા સ્મશાનમાં, ન્યાગારમાં (નિર્જન સ્થળોમાં), ગિરિકંદરાઓમાં આવેલાં શાનિતગૃહમાં ( ત્યાં રાજાઓના અનિષ્ટને શાન્ત કરવાને માટે શાન્તિકમ રૂ૫ હોમ હવન આદિ જ્યાં કરવામાં આવે છે એવા સ્થાને માં), પર્વતેને કેતરીને બનાવેલાં શૈલગૃહમાં, ઉપપ્પાનગૃહમાં, આસ્થાનમંડપમાં અથવા શૈલેપસ્થાન ગૃહમાં–શૈવનિર્મિત આસ્થાન મંડપમાં અને શાનગૃહમાં (કુટુંબીઓ જ્યાં નિવાસ કરે છે એવા ભવનોમાં ) દાટેલા પ્રહીશસ્વામિક આદિ પૂર્વોક્ત વિશેષણોવાળા, પુરાણું મહાતિમહાલય નિધા નેને જોઈને અવધિદર્શનની ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં અવધિદર્શનવાળો જીવ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०१ २०७ केवलज्ञान दर्शनविषयामक्षोभतानिरूपणम् ५२१ विस्मयाद लोभाद् वा अधि दर्शनोत्पादप्रयमसमयेऽवधिमान् संक्षुब्धावधिदर्शनो भवतीति ॥ ५ ॥ इत्येतैः पूर्वोक्तः पञ्चभिः स्यानैः अवधिदर्शनं समुत्पत्तुकामम् तत्पथमतायाम् अवधिदर्शनोत्पादप्रथमसमये स्कम्नीयात् क्षुभ्येदिति ॥ सू०६ ।। सम्पति केवलज्ञानदर्शनविपयामक्षोभतामाह मूलम्--पंचहि ठाणेहिं केवलवरनाणदसणे समुप्पजिउकामे तप्पढमयाए नो खंभाएज्जा, तं जहा- अप्पभू तं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभेज्जा, सेसं तहेब जाव भवणगि. हेसु संनिक्खिताई चिटुंति ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा, इच्चेएहिं पंचहि ठाणेहिं जाव नो खंभाएज्जासू०७। ___ छाया-पञ्चभिः स्थानः केवलंवरज्ञानदर्शनं समुत्पत्तुकामम् तत्पथमतागां नो कम्नीथात् , तद्यथा-अल्पभूतां वा पृथिवीं दृष्ट्वा तत्प्रथमतायां नो स्कन्नी. यात् , शेपं तथैव यावद् भवनगृहेषु सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति तानि वा दृष्ट्वा तत्मथमतायांनो स्कम्नीयात् , इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः यावत् नो स्कभ्नीयात्॥स.७॥ यसे अथवा उनके लोभले अवधिदर्शनकी उत्पत्तिके प्रथम समयमें अवधिज्ञानवाला जीव संक्षुब्ध अवधिदर्शनवाला हो जाता है, इस प्रकारके इन पूक्ति पांच कारणोंसे उत्पत्तिके योग्य हुआ अवधिदर्शन अपनी उत्पत्तिके प्रथम समयमें क्षुभित हो जाता है, या क्षुभित हो सकता है, ६। तात्पर्य इस कथनका ऐसाहै, कि अवधिज्ञानीको अवधि दर्शन होता है, पर वह इन निर्दिष्ट पांच कारणोंसे अपने उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें क्षुभित भी हो सकता है, इसी तरहले अवधिज्ञान भी क्षुभित हो सकता है । सू० ६॥ સંક્ષુબ્ધ અવધિજ્ઞાનવાળા થઈ જાય છે-તે પ્રકારના ભડારો તે પહેલાં કરી પણ જયાં નથી, તેથી વિસ્મયને લીધે અથવા તે પ્રાપ્ત કરવાના લોભને લીધે તે સંક્ષુબ્ધ અવધિદર્શનવાળો થઈ જાય છે. આ પ્રકારના ઉપર્યુક્ત પાંચ કારણોને લીધે ઉત્પત્તિને એવું અવધિદર્શન પણ ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં સુભિત (ચલાયમાન) થઈ જાય છે અથવા ચલાયમાન થઈ શકે છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે અવધિજ્ઞાનીને અવધિદર્શન થાય છે ખરૂ, પણ ઉપર્યુક્ત પાંચ કારણોને લીધે ઉત્પન્ન થયા બાદ પ્રથમ સમયમાં જ તેનું અવધિદર્શન મુકિત પણ થઈ શકે છે, અને એજ રીતે અવધિજ્ઞાન પણ મુભિત થઈ શકે છે. સૂત્ર ૬ છે स्था०-६६ - Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे टीका - पंचहि ठाणेहि ' इत्यादि । समुत्पत्तुकामं केवलवरज्ञानदर्शनं केवली वा पश्चभिः स्थानै र्नो कम्नीयाद, याथात्म्येन वस्तुदर्शनात् क्षीण. मोहनीयत्वेन भयविस्मयलोभाद्यभावेन अतिगम्भीरत्वाच्चेति । शेषं व्याख्यातप्रायमिदं सूत्रम् ॥ ७॥ तथा - केवलज्ञानदर्शनं नारकादीनां बीभत्सादिशरीराणि दृष्ट्वाऽपि न क्षुभ्य तीति शरीररूपणा माह मूलम् - रइयाणं सरोरगा पंचवन्ना पंचरसा पण्णत्ता, तं जहा - किन्हा जाव सुकिल्ला, तित्ता जाव महुरा । एवं निरंतरं जाब वैमाणियाणं । पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए १ उवि २ आहारए ३ तेयए ४ कम्मए । ओरालिय सरीरे 1 ५२२ अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं, कि केवलज्ञान और केवलदर्श नमें क्षोभ नहीं होता है- पंचहि ठाणेहि केवलवर नाणदंसणे' इत्यादि टीकार्थ - केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होने के योग्य होने पर इन पूर्वोक्त पांच कारणोंसे अपने प्रथम समय में क्षुभित नहीं होते हैं, और न केवली क्षुभित होता है। क्योंकि उनके द्वारा वस्तुको यथार्थरूप जान लिया जाता है, तथा मोल्नीय सर्वथा क्षय हो जाने से उनमें भय, विस्मय, लोभ आदिका सर्वथा अभाव हो जाता है, इससे वे अत्यन्त गंभीर होते हैं। इस सूत्र में जो पद आये हैं, उन सबका स्पष्ठीकरण छट्ठे सूत्र में किया जा चुका है | सू० ७ ॥ હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે કેવળજ્ઞાન અને કેવળદેશ ન क्षुमित ( यसायभान ) थतां नथी. अर्थ - " पंचहि ठाणेदि केवलवरनाणदंसणे " छत्यहि ત્યારે ઉત્પન્ન થાય ઉત્પત્તિના પ્રથમ કૈવલજ્ઞાન અને કેવલદેશન ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય હૈાય છે. પશુ અધિદર્શનની જેમ પૂર્વોક્ત પાંચ કારણેાને લીધે સમયમાં તે ક્ષુભિત થતાં નથી અને કેવલી પણ ક્ષુભિત થતા તેમના દ્વારા વસ્તુનું યથાર્થ સ્વરૂપ જાણી લેવામાં આવે છે ક'ના સર્વથા ક્ષય થઈ જવાથી સર્વથા અભાવ રહે છે, તેથી તેએ નથી, કારણ કે અને મેાહનીય તેમનામાં ભય, વિસ્મય, લેાભ આદિના અત્યંત ગંભીર હાય છે. આ સૂત્રમાં જે પાંચ કારણેાના ઉલ્લેખ કર્યો છે, તેનું છઠ્ઠા સૂત્રમાં સ્પષ્ટીકરણ થઈ ગયું છે.સૂ, છા Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटीका स्था०५ ७० १ सू०८ नरयिकादीनां शरीरानरूपणम् ५२३ पंचवन्ने पंचरसे पण्णत्ते, तं तहा - किण्हे जाव सुकिल्ले, तित्ते जाव महुरे, एवं जात्र कम्मयसरीरे । सोचि णं बादरखोंदिधरो कलेवरा पंचवन्ना पंचरसा दुग्गंधा अट्ठ फासा ॥ सू० ८ ॥ छाया - नैरयिकाणां शरीरकाणि पञ्चवर्णानि पञ्चरसानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाकृष्णानि यावत् शुक्लानि, विक्तानि यावत् मधुराणि, एवं निरन्तर यावद् वैमा-निकानाम् । पञ्च शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - औदारिकम् १, वैक्रियम् २, आहारकम् ३, तैजसम् ४, कर्मजम् ५ । औरारिकशरीरं पञ्चवर्ण पञ्चरसं प्रप्तं, तद्यथा–कृष्णं यावत् शुक्लम्, तिक्तं यावद् मधुरम्, एवं यावत् कर्मशरीरम् | सर्वाण्यपि खलु बादररूपधराणि कलेवराणि पञ्चवर्णानि पञ्चरसानि द्वि गन्धानि अष्टस्पर्णानि ॥ सू० ८ ॥ , टीका -' रहाणं ' इत्यादि - नैरयिकाणाम् = नारकाणां शरीरकाणि कृष्णादिशुक्लान्त पञ्चवर्णमयानि, तिकादि मधुरान्तपश्चरसमयानि च विज्ञेयानि । एवं चतुर्विंशतिदण्डकोक्तानां वैमानिकान्तानां सर्वेषामपि शरीराणि पञ्चवर्णमयानि पञ्चरसमयानि च विज्ञे अब सूत्रकार शरीरकी प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन नारकादिकोंके वीभत्स आदिरूप शरीरों को देखकर भी क्षुभित नहीं होते हैं, अतः इस प्रकरणको लेकर यह प्ररूपणा की गई है 'रइयाणं सरीरगा पंचवन्ना' इत्यादि सूत्र ८ ॥ टीकार्थ-नैरयिक जीवके शरीर पाँच वर्णवाले एवं पांच रसवाले कहे गये हैं, कृष्णवर्ण से लेकर शुक्लवर्ण तक ५ वर्ण होते हैं, और तिक्त रस से लेकर मधुर रस तक ५ रस होते हैं । इन पांचों वर्णों वाले और पांचों रसवाले नैरयिकों के शरीर होते हैं, ऐसा भगवान् ने कहा है । इसी प्रकार से २४ दण्डकोंमें उक्त वैमानिक तक के समस्त जीवोंके કૈવલજ્ઞાન અને કેવલદેન નાકાદિના ખીભત્સ આદિ રૂપ શરીરને જોઈને પણુ ક્ષુભિત થતાં નથી. આ પ્રકારના પૂર્વસૂત્ર સાથેના સબધને લઈને હવે સૂત્રકાર શરીરાની પ્રરૂપણા કરે છે. टीअर्थ'-" णेरइयाणं सरीरगा पचवन्नी " छत्याहि નારકાનાં શરીર કૃષ્ણાથી લઇને શુકલ પન્તના પાંચ વષુવાળાં અને તિક્ત ( તીખા ) થી લઈને મધુર પર્યન્તના પાંચ રસવાળાં કહ્યાં છે, એ જ પ્રમાણે વૈમાનિક પર્યંતના ૨૪ દૂકાના જીવેાના શરીરા વિષે પણૢ સમજવું. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ स्थानाङ्गो यानि । नारकादिवैमानिकान्तानां पञ्चवर्णत्वं यदभिहितं तत् निश्चयनयमाश्रित्य, व्यवहारनये तु एतेषां प्रत्येकमेकवर्ण माचुर्यात् कृष्णादिप्रतिनियत वर्णता बोद्धव्येति। शरीराणि चैषां कतिविधानि ? इत्याह-'पंच सरीरगा ' इत्यादि । शरीरकाणि पञ्चविधानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-औदारिकम्-उदारं प्रधानम् , तदेवौदारिकम् । माधान्यं चास्य तीर्थकरादिशरीरापेक्षया । यद्वा-" औरालिकम्" इत्येवच्छाया । उरालम्-विशालम् , तदेव औरालिकम् । उरालत्वं चास्य सातिरेकयोजना सहस्रममाणत्वात् । अन्यस्7 चैवंविधस्य शरीरस्यावस्थितेरसम्भवात् ।। शारीर भी पांच वर्णों वाले एवं पांच रमोंवाले होते हैं, ऐसा जानना चाहिये । यहाँ जो नारकसे लेकर वैमानिक तकके समस्त जीवोंके शरीरका पांच वर्णों वाला और पांच रसोंवाला कहा गया है, वह निश्चयनयको आश्रित करके कहा गया है, क्योंकि व्यवहार नयकी अपेक्षासे तो हन जीवोंके प्रत्येकके शरीरमें एक वर्णकी प्रचुरता होनेसे कृष्णादि प्रतिनियत वर्णवाला है, ऐसा जानना चाहिये। जीवोंके शरीर पांच होते हैं, जैसे-औदारिक १-प्रधान शरीरका नाम औदारिक शरीर है, औदारिक शरीर में जो प्रधानता कही गई है, वह तीर्थ कर आदिके शरीरकी अपेक्षासे कही गई है, यहा-" ओरालिए"की छाया औरालिक ऐसी सी होती है, उराल नाम विशालका है, ऐसा जो विशाल शरीर है, वह औरालिक शरीर है, कुछ अधिक एक हजार योजनकी એટલે કે ૨૪ દકેના સમસ્ત જીવોના શરીર પણ પાંચ વર્ણવાળાં અને પાંચ રસવાળાં કહ્યાં છે, એમ સમજવું અડી નરયિકોથી લઈને વિમાનિક પર્યન્તના સમસ્ત જીવોનાં શરીરને જે પાંચ વર્ણોવાળાં અને પાંચ રસવાળાં કહ્યાં છે, તે નિશ્ચયનયને આધારે કહેવામાં આવેલ છે, તેમ સમજવું, વ્યવ હારનયની માન્યતા અનુસાર તે આ ૨૪ દ ડકના જીવોમાંના પ્રત્યેક દંડકના - જેના શરીરમાં એક વર્ણની પ્રચુરતા હોય છે, તે કારણે તેમને કૃષ્ણાદિ - प्रतिनियत वाणा उपामा मावे छे. वन शरीर पांय ४२ri य छ-(१) सौहार. (२) वैश्य, (3) मा.२४, (४) भएर मन (५) तेस. .. પ્રધાન (મુખ્ય) શરીરને ઔદારિક શરીર કહે છે. ઔદારિક શરીરમાં જે પ્રધાનતા કહી છે તે તિર્થ કર આદિના શરીરની અપેક્ષાએ કહી છે. मथ-" ओरालिए " नी संस्कृत छाया "मोरासि" ५ .थाय છે. “ઉરાલ” એટલે વિશાળ, જે શરીર વિશાળ હોય છે તેને દારિક Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटोका स्था०५ उ०१ सू०८ नैरयिकादीनां शरीरनिरूपणम् उक्तंच-जोयणसहस्समहियं, ओहे एगिदिए तरुगणे सु । मच्छजुयले सहस्सं, उरगेसु य गम्भजाएसु" ॥१॥ छाया-योजनसहस्रमधिकम् ओधे एकेन्द्रिये तरुगणेषु । ____ मत्स्ययुगले सहस्रमुरगेपु च गर्भजातेषु ॥१॥ इति ।। वैक्रियशरीरस्य लक्षयोजनप्रमाणत्वेऽपि सर्वदाऽवस्थानाभावादिति ॥२॥ अथवा-उरलम्=अल्पप्रदेशोपचितत्वाद् बृहत्वाच्च भिण्डवनिति, तदेव औरालिकम् । प्रयोगसिद्धिस्तु निपातनाद् योध्या। यद्वा-ओरालं-मांसास्थिस्नायबादिमिरवनद्धं, तदेव औरालिकमिति ॥३॥ अवगाहना इसकी उत्कृष्ट कही गई है, अतः इस अपेक्षासे यह औरालिक कहा गया है, और किसी शरीरकी स्थिति ऐसी नहीं है। कहा भी है-" जोयणलहस्समाहियं " इत्यादि । यद्यपि वैशिष शारीर एक लाख योजन प्रमाणवाला हो सकता है, परन्तु इस स्थिति में वह सदा अवस्थित नहीं रहताहै, इसलिये उसका प्रहां प्रहमा नहीं हुआ है अथवा-' उसलमेक औरालिकम् ।” इस व्युत्पत्तिके अनुसार अल्प प्रदेशोंसे उपचित होनेसे और वृहत् होने से भिण्डकी तरह इसे औरालिक कहा गया है " ओरालिक" इस पदकी सिद्धि निपातनले हुई है। अथवा-" औरालमेव औरालिकम्" इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो शरीर ओराल होता है, मांस, अस्थि, स्नायु आदिसे बद्ध होना है, वह औरालिक कहा जाता है, पाँच शरीरों में केवल औदारिक शरीरही मांस, अस्थि आदिसे युक्त कहा गयाहै शेष शरीर नहीं । कहा भी हैકહે છે. તેની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના એક હજાર યોજન કરતાં પણ અધિક કહી છે. આ રીતે આ શરીર બીજા શરીરે કરતાં અધિક અવગાહનોવાળું હોવાથી -तेर मौलि छ { ५ छ 3-" जोयणसहस्समहिय ""त्यादि-' જો કે વિક્રિય શરીર એક લાખ યોજનાની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાવાળું હોઈ શકે છે, પરંતુ એવી સ્થિતિમાં તે સદા અવસ્થિત રહેતું નથી, તેથી તેને मडी ए ४२वामा माव्यु नथी-424॥ “ उरालमेव औरालिकम् " सा વ્યુત્પત્તિ અનુસાર અહ૫ પ્રદેશથી ઉચિત હોવાથી અને વિશાળ હોવાથી सिंनी २५ तालिवामा आयुछ " औरालिक " भी पहनी सिद्धि निपातनथी । छ. मथा-औरालमेव औरालिकम् " मा व्युत्पत्ति અનુસાર જે શરીર ઓરલ હેય છે, માંસ, અસ્થિ, સ્નાયુ આદિ વડે બધા યેલ હોય છે તેને રાલિક કહેવામાં આવે છે પાંચ શરીરમાં માત્ર દારિક શરીર જ માંસ, અથિ આદિથી યુક્ત હોય છે--અન્ય શરીર Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाही उक्तंच-तत्थोदारमुरालं, उरलं ओराल महव विन्नेयं । ओरालियं तु पढमं, पडुच्च तित्थेसरसरीरं ॥१॥ भन्नइ य तहोरालं, वित्यरवंत वणस्सइं पप्प । पगईए नत्थि अन्नं, एइहमेत्तं विसालंति ॥२॥ उरलं थेवपए सोचचियपि महल्लगं जहा भिडं। मंसद्विण्हारपद्धं, ओरालं समयपरिभासा ॥३॥ छाया-तत्रोदारमुरालमुरलमोरालमथवा विज्ञेयम् । औदारिकमिति प्रथमं प्रतीत्य तीर्थेश्वरशरीरम् ॥१॥ भण्यते च तथोरालं विस्तरवन्तं वनस्पतिं प्राप्य । प्रकृते नास्ति अन्यत् एतावन्मानं विशालमिति ।।२।। उरलं स्तोकप्रदेशोपचितमपि महद् यथा भिण्डम् । मांसास्थिस्नायुबद्धमोरालं समयपरिभाषा ।। इति ॥ शरीरस्य द्वितीय भेदमाह-वैक्रियम्-विविधा विशिष्टा वा किया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् । उक्तंच-"विविहा व विसिट्ठा वा, किरिया विकिरिया, तीए जं भवंतमिह बेउन्नियं, तयं पुण नारगदेवाण पगईए ॥" छाया-विविधा वा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां यद् भवं तदिहवैक्रिय, तत्पुनः नारकदेवानां प्रकृत्या ।। इति ॥ विविधशरीराणां विविधक्रियाणां च करणे समर्थ शरीरमित्यर्थः ॥२॥ अथ तृतीयमेदमाह-आहारकम-आह्रियते विशिष्टलध्या उपादीयते "तत्थोदारमुरालं" इत्यादि । इन गाथाओंका अर्थ पूर्वोक्त रूपसे ही है। विविध अथवा विशिष्ट क्रियाको नाम विक्रिया है, इस क्रियामें जो होताहै, वह विक्रियाहै। कहा भीहै-"विविहाव विसिहावा" विक्रियासे जो शरीर नारक और देवोंको होता है, वह वैक्रिय शरीर है २॥ जो शरीर चतुर्दश पूर्वधारियों द्वारा विशिष्ट लब्धिके प्रभावसे तथाविध भांसाध्थिी युत उतi नथा. ४धु ५५छ -" तत्थोदारमुरालं" याल. આ ગાથાઓને અર્થ ઉપર કહ્યા પ્રમાણે જ સમજે. વિવિધ અથવા વિશિષ્ટ કિયાનું નામ વિક્રિયા છે. આ ક્રિયા વડે જે શરીરનું નિર્માણ થાય છે તેને વૈદિય શરીર કહે છે. કહ્યું પણ છે કે"विविहा व विसादा वा" या वैठिय शरीरमा समानार। मन वामां खाय छे. ચૌદ પૂર્વધારીઓ દ્વારા વિશિષ્ટ લબ્ધિના પ્રભાવથી, કઈ ખાસ પ્રજન ઉદ્દભવવાથી તીર્થકર આદિની સમીપે જવાને માટે જે શરીરનું નિર્માણ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ५ उ०१ सू०८ नारकादीनां शरीरनिरूपणम् तथाविध कार्योत्पत्तौ तीर्थकरप्रभृतिसमीपगमनाय चतुर्दशपूर्वधारिभिर्यत् तत् शरीरमाहारकम् । उक्तं च " कन्जम्मि समुप्पण्णे, सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एस्थ आहरिज्जइ, भणति आहारगं तंतु ॥१॥ छाया-कार्ये समुत्पन्ने श्रुत केवलिना विशिष्टलब्ध्या । यदत्र आहियते भणन्ति आहारकं तत्तु ॥१॥ इति । आहारकशरीरकरणे चामूनि कारणानि भवन्ति । - पाणिदय रद्धिदरिसण छउमत्थोवग्गहण हेउं वा । संसयवोच्छेयत्थं, गमणं जिणपायमूलम्मि ॥१॥" छाया-प्राणिदयद्धि दर्शनार्थम् छद्मस्थोवग्रहण हेतो वा । संशयव्युच्छेदार्थ वा गमनं जिनपादमूले ॥१॥ इति । इदं च कार्यसमाप्तौ पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवत् । एतच्चाहारकं लोके कदाचित् सर्वथाऽपि न भवति । तस्य विरहस्तु जघन्यत एक समयम् उत्कर्पतः कार्थकी उत्पत्तिके समय तीर्थङ्कर आदिके समीप जाने के लिये निर्मित किया जाता है, यह आहारक शरीर है। कहा भी है-“फज्जस्मि समुपपणे " इस गाथाका अर्थ पूर्वोक्त जैसाही है। ओहारक शरीरके करनेमें ये चार कारण हैं-" पाणियरिद्धिदरिलण" इत्यादि । प्राणियोंके ऊपर दयाके निमित्त ऋद्धि दर्शनके लिये२ छमस्थोंके ऊपर अनुग्रह करने के लिये ३ संशय निराकरण करने के लिये ४ भगवानके समीप जाते हैं । इससे आहारक शरीरका निर्माण होताहै, जब ये पूर्वोक्त कार्य समाप्त हो जाते हैं, तब यह आहारक शरीर जिसके शरीरमेंसे प्रकट होता है, उसी में समा जाता है, यह आहारक शरीर लोकमें કરવામાં આવે છે તે શરીરને આહારક શરીર કહે છે. કહ્યું પણ છે કે" कज्जम्मि समुप्पण्णे " त्यात मा सायानी अर्थ ५९सा प्रमाणे ०४ छ. माडा२४ शरीर वामन मा यार ४१२णे! छे. " पाणिदयरिद्धिदरिसणं " त्याह-प्राणीमा ५२ च्या ४२वाने सिभित्त, ऋद्धि દર્શનને માટે, છઠ્ઠસ્થ પર અનુગ્રડ કરવાને માટે, અને શંકા નિવારણ કરવા ભગવાનની પાસે જવાને માટે તેઓ આહારક શરીરનું નિર્માણ કરે છે જ્યારે તેમનું તે કાર્ય સિદ્ધ થઈ જાય છે ત્યારે તે આહારક શરીર જેના શરીરમાંથી પ્રકટ થયું હોય છે તેને જ શરીરમાં સમાઈ જાય છે. કયારેક તે લેકમાં Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ स्थानाङ्गसूत्रे पामासान यात्रत् । आहारकशरीरं चतुर्वारं कन्वाऽवश्यमेवमुक्तो भवतीति भावः तथा न सर्ने चतुर्दशपूर्व विद आहारकशीर कर्तुमर्हन्ति, अपितु केचिदेवेति ३। अथ चतुर्द मे दमाह-तैजसम्-तेजसोभावस्तैजसम् - ऊमादिलिङ्गसिद्धम् । उक्तंच-" सबस्स उम्हसिद्धं, रसाइ आहारपागजणगं च । तेयगलद्विनिमित्तं च-तेयगं होइ नायव्यं ॥१॥" छाया--सर्वय उन्मसिद्धं रसाद्याहारपाकजनकं च । तैनसलब्धिनिमित्तं च तैजसशरीरं भवति ज्ञातव्यम् ॥ १॥ इति । शरीरसहचारिसदमारीरविशेष इत्यर्थः ४ । अय पञ्चमं शरीरभदमाहकमज-कार्मिणं शरीरम् । उक्तंच-- " कम्मविगारो कम्मण,-मढविह विचित्तकम्मनिष्फन्न । सव्वेसि पि सरीराण कारणभूयं मुणेयच्वं ।।१।।" कदाचित् सर्वथा भी नहीं होना है, इसका विरहकाल जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टले ६ मास तकका है, आहारक शरीरवी लब्धि चार चालत रूझोरण करके जीव मोक्ष में जाता है, समस्त चतुर्दश पूर्व. धारी इन आहारक शरीरको नहीं करते हैं, किन्तु कोई २ ही करते हैं। तेजका जो भाव है, वह तैजस शरीर है, इसकी सिद्धि उष्मादि__ रूप ग्लिसे होती है । कहा भी है-" सव्वस्न उम्सिद्ध” इत्यादि यह तैजस शरीर तेजाम लब्धिके निमित्तसे होता है, तथा आहारादिके परिपाकका हेतु होता है, यह अन्य शरीरों के साथ रहनेवाला वृक्ष्म शरीर चिशेष है। ज्ञानावरणीयादि कमों का समूह ख्य फार्मेण शरीर होता है। कहा भी है-" कम्मविगारो करमण" इत्यादि । कर्मका जो આહારક શરીરને બિલકુલ સદુભાવ હેત નથી. તેને વિરહકાળ ઓછામાં એ છે એક સમયનો અને વધારેમાં વધારે ૬ માસને કહો છે આહારક શરીરની લબ્ધિ ચાર વાર પ્રકટ કરીને જીવ મોક્ષમાં જાય છે. સમસ્ત ચોટ પર્વધારી, આહારક શરીરનું નિર્માણ કરતા નથી, પણ કઈ કઈ ચૌદ પૂર્વધારી જ તેનું નિર્માણ કરે છે તેજને જે ભાવ છે તે તેજસ શરીર છે. ઉન્માદિ રૂપ ચિહ્ન વડે તેનું मस्तित सिद्ध थाय छे. ४युं छ 3-" सव्वस्स उम्हसिद्ध" त्याहिતેજસ લબ્ધિના નિમિત્તથી આ તેજસ શરીરનું નિર્માણ થાય છે, તથા અહારાદિના પરિપાકમાં તે શરીર કારણભૂત બને છે. અન્ય શરીરની સાથે રહેનારું તે એક સૂક્ષ્મ શરીર વિશેષ જ છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના સમૂહ રૂપ म २२१२ 14 छे. ४घु पY छ " कम्मविगारो कम्मण" त्याह Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा गैका स्था०५ उ०१ सू०८ नारकादीनां शरीरनिरूपणम् छाया--कर्मविकारः कार्मणम् अष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम् । - सर्वेषामपि शरीराणां कारणभूतं ज्ञातव्यम् ॥१॥ इति । कर्म पुद्गलैनिर्मित सकलशरीरकारणभूतं शरीरमित्यर्थः । औदारिकादि क्रमेण निर्देशस्तु यथोत्तरं सूक्ष्मत्वात् प्रदेशवाहुल्याच बोध्य इति । सम्पति' औदारिकादि शरीराणां पञ्चवर्णत्वं पञ्चरसत्वं चास्तीति प्रतिपादयितुमाह-ओरालियसरीरे पंचवन्ने ' इत्यादि । अर्थः स्पेष्टः । अथ बादरशरीराणां वर्णविकार है, वह कार्मण है, यह कार्मण शरीर समस्त शरीरोंका कारणभूत होता है, तात्पर्य यह कि जो शरीर कर्म पुद्गलोले निवर्तित होता हुआ समस्त शरीरोंका कारणभूत होता है, वह कार्मण शरीर है । औदारिक आदि शरीरोंका जो इस प्रकारके क्रमसे निर्देश हुआ है, वह औदारिक शरीरकी अपेक्षा वैक्रिय शरीर सूक्ष्म है, वैक्रियकी अपेक्षा आहारक सूक्ष्म है, आहार की अपेक्षा तैजस शरीर सूक्ष्म है, और औदारिक अपेक्षा वैक्रिय शरीरके प्रदेश असंख्यातगुणे होते हैं, वैक्रियकी अपेक्षा आहारक शरीरके प्रदेश असंख्यात गुणे होते हैं, आहारक शरीरकी अपेक्षा तैजस शरीरके प्रदेश अनन्तगुणे होते हैं, और तैजस शरीरकी अपेक्षा कार्मण शरीरके प्रदेश अनन्तशुणे होते है. ___ इन औदारिक आदि शरीरों में पंचवर्णवत्ता और पंचरसवत्ता है, इस बातका कथन करनेके लिये अब सूत्रकार-“ओरालियसरीरे पंचवन्ने पन्नत्ते" ऐसा सूत्र कहते हैं-तात्पर्य इसका यही है, कि औदा. કમને જે વિકાર છે તે કામણ છે. તે કામણનું આઠ પ્રકારના વિચિત્ર કર્મો વડે નિર્માણ થાય છે. તે કામણ શરીર સમસ્ત શરીરના કારણભૂત હોય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે શરીર કર્મપત વડે નિવર્તિત થઈને સમસ્ત શરીરની ઉત્પત્તિમાં કારણભૂત બને છે, તે શરીરને કામેણું શરીર કહે છે. ઔદારિક આદિ શરીરનું આ પ્રકારના ક્રમથી જે નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે– દારિક શરીર કરતાં વૈક્રિય શરીર સૂમ છે. વક્રિય શરીર કરતાં આહારક શરીર સૂક્ષમ છે અને રસાહારક કરતાં તજસ શરીર સૂકમ છે પ્રદેશની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે ઔદારિક કરતાં વૈકિય શરીરના પ્રદેશ અસંખ્યાગણું હોય છે, વક્રિય શરીર કરતાં આહારક શરીરના પ્રદેશ અસંખ્યાતગણું હોય છે, આહારક શરીર કરતાં તેજસ શરીરના પ્રદેશ અનંત. ગણું હોય છે અને તૈજસ શરીર કરતાં કામણ શરીરના પ્રદેજ અનંતગણ હોય છે. આ ઔદારિક આદિ શરીર પાંચ વર્ણવાળાં અને પાંચ રસવાળાં છે, मा पातनुं प्रतिपादन ४२वाने भाट सूत्र॥२ मा सूत्र ४ छ-" ओरा स्था-६७ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० गानाशाचे स्पर्शादिसंख्यामाह---' सव्वेवि णं' इत्यादि-सर्वाण्यपि वादग्रूपधराणि पर्याप्तकत्वेन रथूलाकारधारीणि कलेवराणि शरीराणि पश्चवर्णानि मनुम्यादीना. मवयवभेद भिन्नानि कृणादि शुक्लान्तानि पञ्चवर्णानि, यक्षिगोलकादिषु तथैवोपलच्धेः, तथा-द्विग पानि सुरभिदुरभिमंदगन्धद्वयविमिष्टानि, अष्ट. स्पर्शानि-कठिनमृदुशीतोष्णगुरुळपुस्निग्यरक्षात्मकानि च भवन्ति । अवादररूपधराणि शरीराणि तु न नियत-वर्ण रसगन्धस्पर्शसंपन्नानि भवन्ति, थप. प्तित्वेन अरयविभागाभावादिति ॥मू० ८॥ ___शरीराणि प्ररूपितानि, सम्नति शरीरगतान धर्मविशेषान ‘पंचहि ठाणेहि । इत्यारभ्य ‘पच अज्जबहागा' इत्यन्तेन सन्दर्भगाह मूलम् ----पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भनइ, तं जहा-दुआइयवं दुविभज्नं दुपस्सं दुतितिक्खं दुररिक शरीर में पांच वर्ण और पांच रस होते हैं। यादररूपको धारण करनेवाले पर्यातक होनेसे स्यूलाकारको धारण करनेवाले समस्त शरीर पांच वर्णों वाले मनुष्यारिकों के शरीरोंके वर्णो के भेदसे भिन्न २ कृष्णादि शुक्लान्तवर्णों वाले होले जैसे-अक्षिगोलक आदिकोंमें देखा जाता है, तथा दो गंधोंवाले सुन दुरभि गंधोंवाले होते हैं, एवं कठिन, मृदु, शीत, उष्ण, तुल, लस, मिनग्ध और रुक्ष इन आठ स्पर्शो वाले होते हैं। परन्तु जो सादर रूपको धारण करनेवाले शरीर हैं, वे नियत वर्गी, रस, गंब, और पन इन वाले नहीं होते हैं, क्योंकि ये अपर्याप्तक होते हैं, अतः इनमें अपयद विभागका अभाव रहता है ।मृ.८॥ लियसरीरे पचवन्ने पण्णत्ते " मा थनना भावार्थ में मोहारि શરીરમાં પાંચ વર્ણ અને પાંચ રસને સદ્દભાવ હોય છે બાદર રૂપને ધારણ કરનારા પર્યાપ્તક હોવાથી સ્થૂલાકારને ધારણ કરનારા સમસ્ત શરીરે પાંચ વર્ણવાળા મનુષાદિકેના શરીરના વર્ષોના ભેદથી ભિન્ન ભિન્ન એવાં કૃષ્ફથી લઈને શકલ પર્યન્તના વર્ણવાળાં હોય છે. અક્ષિગોલક વગેરેમાં એવું જોવામાં આવે છે, તથા તેમના શરીરે બે ગવાળાં-સુમિ અને સુરભિ ગવાળ डाय छ, भने नि, भृढ, शीत, Got], गुरु, मधु, विनय भने ३क्ष, मा આઠ સ્પર્શીવાળાં હોય છે પરંતુ જે અબાદર રૂપને ધાર કરનારાં શરીર છે, તેઓ નિયત વર્ણ, રસ, ગન્ય અને સ્પર્શવાળાં હેતા નથી, કારણ કે તેઓ અપર્યાપ્તક હોય છે. તેથી તેઓમાં અવયવ વિભાગનો અભાવ રહે છે સૂ૦ ૮ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ५ स०१ सू०९ शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् ५३१ णुचरं । पंचहि ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुगमं भवइ, तं जहा-सुआइक्खं सुविभज्जं सुपस्सं सुतितिक्खं सुरणुचरं । पंच ठाणाई समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिरगंथाणं णिच्चं वणियाइं णिच्चं कित्तियाई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाइं णिच्चमब्भणुन्नायाई भवंति, तं जहा-खंती १, सुत्ती २, अज्जवे ३, महवे ४, लाघवे ५। पंजडाणाई समणेणं भगवया महावीरेणं जाव असणुन्नायाई भावंति, तं जहा-सच्चे १, संजमे २, तवे ३, चियाए ४ बंभरवाले ५१ पंच ठाणाई सम्मणेणंजाव अब्भणुन्नायाई भवंति,तं जहाउनिहत्तचरए१,निक्खित्तवरए २, अंतचरए ३, पंतचरए ४, लूहचरव ५पंच ठागाई जाव अब्भणुण्णायाइं भवति, तं जहा- अण्णायचरए १, अन्नइलायचरए २, मोणचरए ३, संसहकापिए ४, तज्जायसंसट्टा कप्पिए ५। पंच ठाणाई जाव अब्भणुचायाई भवति, तं जहा-- ओवणिहिए १, सुद्धेसणिए २, संखादत्तिए ३, दिठुलाभिए ४, पुट्ठलाभिए ५। पंच ठाणाइं जाव अब्मणुषणायाई भवंति, तं जहा--आयंबिलिए १, निविगिइए २, पुरिमड्डिए ३, परिमियपिंडवाइए ४, भिन्नपिंडवाइए ५॥ पंच ठाणाई जाव अब्भणुनायाइं भवंति, तं जहा--अरसाहारे १, विरसाहारे २, अंताहारे ३, पंताहारे ४, लूहाहारे ॥ पंच ठाणाइं जाव अब्भणुण्णायाई भवति, तं जहा.-अरसजीवो १, विरसजीवी २, अंतजीवी ३, Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ स्थाना पंतजीवी ४, लुहजीवी || पंचठाणाई जाव अब्भणुण्णायाई भवंति तं जहा - ठाणाइए १, उक्कुडुआसणिए २, पडिमहाई ३, वीरासणिए ४ सज्जिए ५। पंच ठाणाई जाव अब्भणुपणायाई भवंति, तं जहा- दंडायइए १, लगंडसाई २, आयावए ३, अवाउडए ४, अकडूयए ५ ॥ सू० ९ ॥ , छाया -- पश्चभिः स्थानैः पूर्वपश्चिमकानां जिनान दुर्गमं भवति, तद्यथादुराख्येयं १, दुर्विभाज्यं २, दुर्दर्श ३, दुस्तितिक्षं ४, दुरनुचरम् ५ । पञ्चसु स्थानेषु मध्यमकानां जिनानां सुगमं भवति, तद्यथा - स्वाख्येयं १, सुविभाज्यं २, सुदर्श ३, सुतितिक्षं ४, स्वनुचरम् ५ । पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां नित्यं वर्णितानि नित्यं कीर्तितानि नित्यम् उक्तानि नित्यं प्रशंसितानि नित्यमभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा - क्षान्तिः १, मुक्तिः २, आर्जवं ३, मार्दवं ४, लाघवम् ५। पञ्च स्थानानि श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा - सत्यं १, संयमः २ तपः ३ त्यागो ४ ब्रह्मचर्यवासः ५। पञ्च स्थानानि श्रमणेन यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथाउत्तर: १, निक्षिप्तचरकः २, अन्तचरकः ३, प्रान्तचरकः ४, रुक्षचरकः ५। पञ्च स्थानानि यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा - अज्ञातचरकः १, अन्नग्लायकचरकः २, मौनचरकः ३२, संष्टष्टकल्पिकः ४, वज्जाव संप्रकल्पिकः ५। पञ्च स्थानानि यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा - औपनिधिकः १ शुद्वैपणिकः २ संख्यादत्तिकः ३ दृष्टलाभिकः ४ पुप्टलाभिक: ५ । पञ्च स्थानानि यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तथथा - आचामालिका १, निर्विकृतिकः २ पौर्वाकिः ३, परिमितपिण्डपातिकः ४ भिन्नपिण्डपातिकः ५। पञ्च स्थानानि यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा - अरसाहारः १ विरसाहारः २ अन्ताहारः ३ प्रान्ताहारः ४, रूक्षाहारः ५) पञ्च स्थानानि यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तथा - अरसजीवी १ विरसजीवी २ अन्तजीवी ३ प्रान्तजीवी ४ रूक्षजीची ५॥ पञ्च स्थानानि यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति तद्यथा - स्थानातिगः १ उत्कुटुकासनिकः २ प्रतिमास्थायी ३ वीरासनिकः ४, नैवधिकः ५| पञ्च स्थानानि यावत् अभ्यनुज्ञातानि भवन्ति, तद्यथा दण्डायतिकः १, लगाण्डशायी ३ आतापकः ३ अमावृतकः ४ अकण्डूयकः ५ ॥ सू० ९|| Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ५ उ० १ सू०९ शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् ५१३ टीका--' पहि ठाणेहि ' इत्यादि पञ्चभिः स्थानः पूर्वपश्चिमकानां जिनानां भरतैरवतेषु प्रत्येकं ये चतुर्विंशतिर्जिनास्तेषु प्रथमान्तिमजिनानां दुर्गमं भवति । दुःखेन गम्यते-ज्ञायत इति दुर्गम काठिन्यं कृच्छ्रवृत्तिः,, तान्येव स्थानान्याह-तद्यथा-दुराख्येयम्-दुःखेन आख्यायते कथ्यते यद् वस्तुतत्वं तत्-आसेवनशिक्षाग्रहणशिक्षारूपमित्यर्थः । शिष्याणाम् ऋजुजडत्वेन वक्रजडत्वेन च वस्तुतत्वाख्याने प्रथमान्तिमतीर्थकृतां काठिन्यं भवतीति बोध्यम् १। तथा-दुर्विभाज्यम्-शिष्याणां बुद्धौ, वस्तु इस प्रकारसे शरीरोंका प्रतिपादन करके अब सूत्रकार शरीरगत धर्म विशेषोंका " पंचहि ठाणेहिं" यहाँसे लगाकर "पंच अज्जवट्ठाणा" यहां तक सन्दर्भ द्वारा प्रतिपादन करते हैं___ 'पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं' इत्यादि सू० ९ ॥ टीकार्थ-भरतक्षेत्र एवं ऐरवत क्षेत्र संबंधी जो चौघीस तीर्थङ्कर हैं, उनमेंसे प्रथम और अन्तिम जो जिन हैं, उनको पांच कारणोंसे कठिनता होती है-वे पांच कारण इस प्रकारसे हैं-दुराख्येव १ दुर्विभाज्य २ दुर्दश ३ दुस्तितिक्ष ४ और दुरनुचर ५। जो वस्तुतत्त्व दुःखसे-कठिनतासे कहा जाता है, वह दुराख्येय है, यह आसेवन शिक्षा एवं ग्रहणशिक्षारूप होता है, तात्पर्य इसका ऐसा है, कि शिष्योंको ऋजुजड होनेसे और वक्रजड होने से वस्तुतत्त्वके कथनमें प्रथम और अन्तिम इन दो तीर्थ આ પ્રકારે શરીરનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર શરીરગન ધર્મविशेबान " पंचहि ठाणेहि " ! सूत्रथी र “ पंच अज्जवट्ठाणा " AL સૂત્ર પર્યન્તના સૂત્ર દ્વારા પ્રતિપાદન કરે છે– “पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं " त्या ટીકાઈ–ભરતક્ષેત્ર અને એરવત ક્ષેત્રના જે ૨૪ તીર્થકર થયા છે, તેમાંના પહેલા અને છેલ્લા તીર્થ કરોને નીચેના પાંચ કારણોને લીધે ઉપદેશ આપqाम 6नता-४२४८०- ५६ 80-(१) (२७येय, (२) दुKिelorय, (3) ६ (४) दुस्तितिक्ष भने (५) हुनुय२. . (૧) જે વસ્તુતત્વને ખપૂર્વક-ઘણું મુશ્કેલીથી પ્રતિપાદિત કરી શકાય છે, તેને રાખેય કહેવાય છે. તે આસેવનશિક્ષા અને ગ્રહણુશિક્ષા રૂપ હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે પહેલા અને છેલ્લા તીર્થંકરના શિષ્ય બાજુ જડ અને વજડ હેવાથી વસ્તુતત્વનું કથન કરવામાં પહેલા અને છેલ્લા તીર્થંકરને Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 છે crime , तवं विभागशः संस्थापयितुं दुःशकमिति २ तथा दुर्दर्शम् - दुःखेन दर्श्यते = अयोध्यते यत् तत् शिष्यान वस्तुतस्थं दर्शयितुं ते काठिन्यमनुभवन्तीति ३| तथा - दुस्तितिक्षम् - दुःखेन तितिक्ष्यते = सद्यते यत् तत् उत्पन्नं परीपदादिकं शिष्यैस्तितिक्षयितुं महान्तमायासमनुभवन्तीति ४| तथा दुग्नुचरम् - दुःखेन अनुचर्यते = अनुष्ठाप्यते यत्तत् । शिष्यैराचारमनुष्ठापयितुं ते महापरिश्रमवन्तो भवन्तीति । अत्र चरतिरन्तर्भावितण्यर्थो बोध्यः । यद्यपी स्थानानि दुराख्यानादीनि वक्तव्यानि तथापि येषु स्थानेषु कृच्छ्रवृत्ति भवति स्थानान्यपि कृच्छ्रवृत्तियोगात् आश्रयाश्रमिणोरभेदोपचारेण कृच्छ्रवृत्तीत्युच्यन्ते । int कठिनता हुई है । दुर्विभाज्य शिष्यों की बुद्धिमें जो वस्तुको विभागशः संस्थापन करना दुःशक्य होता है, यह दुर्विभाज्य है २ जो वस्तु शिष्यों को बड़ी कठिनता से दिग्वलाया जाता है, अर्थात् जिस वस्तु को समझाने में उन्होंने कठिनताका अनुभव किया है, यह दुर्दर्श है, जिन उत्पन्न हुए परीपह आदिकों का सहन शिष्यों से उन्होंने कठिनता से कराया है, अर्थात् उत्पन्न हुए परीपोको शिष्योंसे सहन कराने में जिस कठिनाईका उन्हें अनुभव हुआ है वह दुस्तितिक्ष है ४ । तथा शिष्यजनोंसे उन्होंने जिस आधारका परिपालन घड़ी कठिनतासे पाया है वह दुरनुचर है ५ । यद्यपि यहां इन पांच स्थानोंको दुराख्यान आदि रूपसे कहना चाहिये था, दुराख्येय आदि रूपसे नहीं कहना चाहिये था, परन्तु फिर भी धली ४ महिनताना अनुभव अरवा पयेो हतो. (२) " दुर्विभान्न्य "— શિષ્યાની બુદ્ધિમાં જે વસ્તુતત્વનું' વિભાગશઃ સંસ્થાપન કરવાનુ` કા` દુઃશક્ય होय छे, तेनु नाम दुविलाय छे. ( 3 ) ने वस्तुतत्व शिष्याने धणी भुश् લીથી દેખડી શકાય છે-એટલે કે જે વસ્તુતત્વ શિષ્યાને સમજાવવામાં તેમને નતાના અનુભવ કર્યાં હતા, તેને દુશ કહેવામાં આવેલ છે. (૪) ઉત્પન્ન થયેલા જે પરીષહાને શિષ્યા દ્વારા સહન કરાવવામાં તેમને કિઠનાઈને અનુ. ભવ કરવા પડચા હતા, તે પરીષહાને અહીં દુસ્તિતિક્ષ કહ્યાં છે. (૫) તેમણે શિષ્યેા પાસે જે અચારાનુ` પાલન ઘણી મુશ્કેલીથી કરાવ્યું હતું તે આચારેને અહીં દુરનુચર કહ્યાં છે. જો કે આ પાંચ સ્થાનાને અહીં દુરાખ્યાન આદિ રૂપે -કહેવા જોઇતાં હતાં, દુરાગ્યેય અાદિ રૂપે કહેવા જોઈતા ન હતાં, પરન્તુ અહીં આશ્રય અને Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०१ १०९ शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् अतएवात्र-दुराख्येयमित्यादीनि स्थानत्वेनोक्तानीति । अथवा-प्रथमान्तिमतीर्थकृतां तीर्थे आचार्यादीनां शिष्यान् मति दुराख्येयं दुविमाज्यं च भवति, आत्मनाऽपि च दुर्दश दुस्तितिक्षं दुरनुचरं च भवति । अत्र पक्षे अन्तर्भावितण्यथता नाश्रीयते इति । तथा-मध्यमकानां द्वाविंशतितीर्थकराणाम् आख्यानादिषु पञ्चसु स्थानेषु सुगमम् अकृच्छूटत्ति भवति । तान्येवाह- स्वाख्येयं मुविभाज्यम् ' अकृच्छत्तियोगात् एतानि स्थानानि अकृच्छ्त्तीत्युच्यन्ते, अत एवात्र ऐसा जो इन्हें कहा गयाहै, उसका कारण आश्रय (आधार)और आश्रयीमें अभेदके उपचारसे कहा गया है । अर्थात् जिन स्थानों में कृच्छ्र (दुःख) वृत्ति होती है, वे स्थान भी कृच्छ्रवृत्तिके योगले कृच्छ्रवृत्तिरूप (दुःखरूप) मान लिये गये हैं । इसी कारण दुराख्येय आदि रूपसे इन स्थानों को. कहा है, अथवा-प्रथम और अन्तिम तीर्थकरोंके तीर्थमें आचार्य आदिके शिष्यों के प्रति तत्वका दुराख्येय और दुविभाज्य होता है, और स्वयंके द्वारा भी यह दुर्दर्श दुस्तितिक्ष और दुरनुचर होता है तथा मध्यके जो २२ तीर्थंकर हैं उनकी आख्यान आदि पांच स्थानों में अकृच्छ्रवृत्ति होती है, इनमें उन्हें कठिनता नहीं होती है, वे इन पांच स्थानों में अकृच्छकृत्तिवाले होते हैं, वे पांच स्थान ये हैं-स्वाख्येय १ सुवि. भाज्य २ सुदर्श ३ सुतितिक्ष४ और सु अनुचर५ अकृच्छ्रवृत्तिके योगसे આશ્રયીમાં અભેદના ઉપચારથી તેમને દુરાગ્યેય આદિ રૂપે કહેવામાં આવેલ છે. એટલે કે જે સ્થાનમાં કુ (ખ) વૃત્તિ હોય છે તે સ્થાનને પણ કૃચ્છવૃત્તિના ગથી કચ્છવૃત્તિ રૂપ (દુ:ખરૂપ) માનવામાં આવ્યાં છે. એ જ કારણે અહીં તે સ્થાને દુરાગ્યેય આદિ રૂપ અહીં કહ્યાં છે. અથવા-પહેલા અને છેલા તીર્થકરોના તીર્થમાં આચાર્ય આદિકેને માટે શિષ્યોને વસ્તુતવ કહેવાનું દુરાગ્યેય હતું અને તેમની બુદ્ધિમાં વસ્તુતત્વની વિભાગશઃ સ્થાપના કરવાનું કાર્ય પણ મુશ્કેલ હતું. અને પિતાને માટે પણ તે દુશ, દુસ્તિ તિક્ષ અને દુરનુચર હતું. આ પ્રમાણે અર્થ પણ અહીં ગ્રહણ કરી શકાય છે. જે વચ્ચેના ૨૨ તીર્થ કેરો થઈ ગયા તેમની આખ્યાન આદિ પાંચ સ્થાનોમાં અકૃચ્છવૃત્તિ (સુખરૂપ વૃત્તિ) હતી. તેમને આખ્યાન આદિમાં કઠિનતાનો અનુભવ કરે પડયો ન હતો. તેઓ આ પાંચ સ્થાનમાં અકચ્છ વૃત્તિવાળા (સુખરૂપ વૃત્તિવાળા) હતા. (१) सु माध्येय, (२) सु विमान्य, (3) सुश, (४) सुतितिक्ष (૫) સુ અનુચર, અકુચ્છવૃત્તિના રોગથી આ સ્થાનને અવૃત્તિરૂપ કહ્યાં છે. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ Frान स्वारूपेयमित्यादीनि स्थानत्वेन निर्दिष्टानि । मध्यमकानां तीर्थकराणां शिष्या ऋजुपज्ञा भवन्ति, अत एव तेषां भगवतामाख्यानादौ अकृच्छ्रवृत्ति र्भवति । अन्तर्भावितण्यर्थता पूर्ववदेव बोध्या । यद्वा - मध्यमकानां तीर्थकृतां तीर्थे आचा र्थाणामारुपानादिषु पञ्चसु स्थानेषु अकृच्छ्रवृत्ति र्भवति । अत्र क्षेत तपतानाश्रीयते । पूर्वानुसारेणैवात्राऽपि व्याख्या भावनीयेति । 'सुरणुचरं ' इत्यत्र रेफागमः प्राकृतत्वाद् बोध्यः ॥ सम्मति भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां कर्त्तव्यत्वेन यदुक्तं तदाह'पंच ठागोई ' इत्यादिना । Arda भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां पञ्च स्थानानि नित्यं सर्वदा वर्णितानि, फउन नित्यं कीर्त्तितानि= संशदितानि नामतः, नित्यम् उक्तानि= ( सुखसे समझाने के योग्य) होनेसे इन स्थानों को अकृच्छ्रवृत्तिरूप कहा है, इसीलिये स्वाख्येय आदि स्थानरूपले निर्दिष्ट हुए हैं, मध्यके २२ तीर्थकरों के शिष्य ऋजुप्राज्ञ होते हैं, इसीलिये उनके प्रति वस्तुतव कथनमें भगवान्को अकृच्छ्रवृत्ति होती है, कठिनता नहीं होती है, यद्रा - मध्यके तीर्थ करोंके तीर्थमें आचार्यों की आख्यान आदि पांच स्थानों में अकृच्छ्रवृत्ति रहती है, इस पक्षमें अन्तर्भावित व्यर्थता आश्रित गृहीत नहीं हुई है। पूर्व के अनुसार ही यहां व्याख्या कर लेनी चाहिये अब सूत्रकार भगवान महावीरके द्वारा श्रमणजनोंको कर्तव्य रूपसे जो कहा गया है, सूत्रकार उसे प्रकट करते हैं-श्रमण भगवान् महावीर श्रमण निर्ग्रन्थोंके पांच स्थान सर्वदा फलकी अपेक्षा वर्णित किये हैं, नामकी अपेक्षा कीर्तित किये हैं, स्वरूपकी अपेक्षा स्पष्टवाणी से તેથી તે સ્થાને ને સુ આખ્યેય આદિ રૂપે અહીં ખતાવવામાં આવ્યાં છે વચ્ચેના ૨૨ તીર્થંકરાના શિષ્યેા ઋજુપ્રાગ્ય હતા તેથી તેમને વસ્તુતત્વ કહે વામાં-સમજાવવામાં ભગવાનને કિઠનતાના અનુભવ થતે નહી. અહી છુ ઉપર મુજબના પાંચે સ્થાનનું કથન થવું જોઈએ. અથા વચ્ચેના ૨૨ તીકાના તીમાં આચાર્યોને આખ્યાન આદિ પાંચ સ્થાનામાં કંઠનતા અનુલવવી પડતી નથી આ પક્ષે આગળ પ્રમાણે જ અહીં વ્યાખ્યા સમજી લેવી. હવે મહાવીર પ્રભુએ શ્રમશુ નિથાના જે કવ્યા ખતાવ્યાં છે, તેને સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે—શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે નીચેનાં પાંચ સ્થાન શ્રમશેને માટે સદા ફલદાયી ર્શિત કર્યાં છે, નામની અપેક્ષાએ કીર્તિત કહ્યાં છે, સ્વરૂપની અપેક્ષાએ સ્પષ્ટવાણીથી કહ્યાં છે, નિત્ય પ્રશસાને ચાગ્ય કહ્યાં Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ - सुभा का स्था०५३०१ सू९ शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् व्यक्तवाचा कथितानि स्वरूपतः, नित्यं प्रशंसितानि=श्लपितानि, नित्यम् अभ्यनुज्ञातानि-कर्तव्यतया अनुमतानि च भवन्ति । तानि पञ्च स्थानानि कानि ? इत्याह-तद्यथा-क्षान्ति. १ मुक्तिः २ आर्जवम् ३, मार्दवस् ४ लापत्रम् ५ इति । तत्र-क्षान्तिः क्षमा, इयं हि क्रोधत्यागतो भवति । मुक्तिः निमिता, इयं लोभत्यागतः, आर्जवम्-ऋजुता, इदं मायात्यागतः, माई-मृदुता, इदं मानत्यागतः, तथा-लाघवं लघुता, इदमल्योपकरणतऋद्धिरससातगौरवनयत्यागतश्च भवति । इतोऽग्रेऽपि प्रतिसूत्रं 'पंघहि ठाणेहिं समणेणं भगवया महावीरेणं' इत्यादि सूत्रोत्क्षेपस्यार्थः- पूर्ववद् विभावनीयो वैयावृत्यमूत्रपर्यन्तम् । कहे हैं, नित्य वे प्रशंसित कियेहैं और कर्तव्यरूपसे वे माने हैं, वे पांच स्थान ये हैं-क्षान्ति १. सुक्ति २ आर्जव ३ मार्दव ४ और लाघव ५ इनमें क्षमाका नाम क्षान्ति है, यह क्षान्ति क्रोधके त्यागसे होती है, ऋजुताका - (सरलता) नाम आर्जव है, यह मायाके त्यागसे होता है, मृदुताका नाम मादेव है, यह मानके त्यागसे होता है, लघुताका नाम लाघव है, यह अल्प उपकरणसे और ऋद्धि रस सात तीन प्रकारके गौरवके त्यागसे होताहै, यहाँसे आगेके जो सूत्र वैयावृत्य सूत्र तरूहैं, उनमें प्रत्येक सत्र में "पंचहि ठाणेहिं समणेणं भगवया महावीरेण" इत्यादि सूत्रोक्षेपका अर्थ पहिलेकी तरहसे विभावित कर लेना चाहिये-लगा लेना चाहिये। अर्थात जिस प्रकारसे पूर्वोक्त स्थानों में ऐसा कहा गया है, किथे स्थान श्रमण भगवान महावीर द्वारा यावत् अभ्यनुज्ञात आज्ञापित हुए हैं, उसी છે અને કર્તવ્ય રૂપ (કરવા ગ્ય) બતાવ્યાં છે. તે પાંચ સ્થાને નીચે પ્રમાણે छ-(१) शान्ति, (२) भुति, (3) भाष, (४) भाई मन (५) साधq. ક્ષમાને ક્ષાતિ કહે છે, તે ક્રોધના ત્યાગથી ઉદ્દભવે છે, તેમના ત્યાગનું નામ મુક્તિ છે, અજુતાનું નામ આર્જવ છે, માયાના ત્યાગથી જુતા આવે છે. મૃદુતાનું નામ માવ છે, તે માનના ત્યાગથી ઉત્પન્ન થાય છે. લઘુતાનું નામ લાઘવ છે, અથવા અલ્પ ઉપકરણ અને વ્યક્તિ રસ અને ગૌરવના ત્યાગથી આ ગુણ ઉત્પન્ન થાય છે. हवे पछीना यावृत्य सुधाना प्रत्येः सूत्रमा पy "पंच हि ठाणेहि समणेणं भगवया महावीरेण " त्या सूत्रा४ मा २ प्रमाणे ४i તે પ્રમાણે કહેવું જોઈએ. એટલે કે જે પ્રકારે પૂર્વોક્ત સ્થાનમાં એવું કહે વામાં આવ્યું છે કે શ્રમને માટે આ સ્થાને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર દ્વારા पार्शत, जाति, त, प्रशसित मने तय (४२१याय) मनाया छ, मे । स्था-६८ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ - खत्र-सत्यं १ संयमः २ तपः ३ त्यागो ४ ब्रह्मचर्यवासः ५, इति पञ्च स्थानानि। तत्र-सत्यं-यथार्थमापणम्, तच्चतुर्विधमुक्तम् । तथाहि" अविसंवादनयोगः १, भाय २ मनोवाग ३ जिलता ४ चैत्र । सत्यं चतुर्विधं तप जिनबरमतेऽस्ति नान्यत्र ।।१॥” इति । अविसंवादनयोगः अङ्गीतपरिपालनम्, कायमनोवागजिह्मता कायमनोवचसामकुटिलता चेति चतुर्विधं सत्यं विज्ञेयमिति भावः । तथा-संयमःसंयमनं संयमः-पृथिव्यादिरक्षण लक्षणः, स च सप्तदशविधः । तदुक्तम् -- " पुढविदगअगणिमारुययणप्फइविति चउपचिदिअंजीवे । पेहोपेहपमज्जण परिसृष्ण मणोवईकाए ॥१॥ . छाया-पृथ्वीदकाग्निमारुतवनस्पति द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया जीवेषु । प्रेक्षोत्प्रेक्षप्रमार्जन परिष्ठापनमनोवाक्कायेषु ।।१॥ प्रकारले सत्य १ संघमर तप३ त्याग और ब्रह्मचर्यवाम ये पांच स्थान भी श्रमण भगवान महावीर द्वारा यावत् अभ्यनुज्ञान हुए हैं। यहां समस्त सत्रों में ग्रावत्पदसे " वर्णिनानि, कीर्तितानि, उक्तानि, प्रशं. सितानि " इन चार पदोंका संग्रह हुआ है, यथार्थ भापणका नाम सत्य है ? यह सत्य चार प्रकारका कहा गया है-जैसे-' अविसंवादनयोगः" इत्यादि अङ्गीकृतका (स्वीकार किये हुवेका) परिपालन करना इस का नाम अविसंवादनयोग है, एवं काय, मन वचनकी अकुटिलता सरलता का काय मनोवागजिस्मता है, इस प्रकारसे सत्यके ये चार भेद हैं। पृथिव्यादिकोंका रक्षणकरने रूप संयम होता है, अर्थात् छह कायके जीवोंकी रक्षा करना यह संयम १७ प्रकारका कहा गया है, जैसे-“पुढविदग अगणि" इत्यादि । પ્રમાણે સત્ય, સંયમ, તપ, ત્યાગ અને બ્રહ્મચર્યવાસ રૂપ આ પાચ સ્થાને પણ વર્ણિત, કીર્તિત આદિ રૂપ માનવામાં આવેલ છે યથાર્થ ભાષણ અથવા पयननु नाम सत्य . मा सत्य न्या२ ५४२नु ४[ छ-" अविसंवादनयोगः" ઈત્યાદિ. અગીકૃતનું પાલન કરવું તેનું નામ અવિસંવાદન ગ છે. અને મન, વરાન અને કાયાની અકુટિલતા રૂપ બીજા ત્રણ ભેદો મળીને સત્યના કુલ ચાર ભેદ પડે છે. પૃથ્વીકાય આદિનું રક્ષણ કરવા રૂપ સંયમ હોય છે. એટલે કે છકાયના જાની રક્ષા કરવી તેનું નામ સંયમ છે. તે સંયમના ૧૭ સત્તર પ્રકાર छ. भ? " पुढविदाजगणि" छत्यादि. आसाथी वि२४॥ था ३५ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०१ सू०९ शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् अथवा-संयमः-आस्रवविरमणादिरूपः सोऽपि ससदशविधः । " पञ्चास्रवाद विरमणं ५, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः १० कपायजय' १४ । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥इति।। तथा-तप-तप्यन्ते रसरुधिरादीनि अशुभकर्माणि माऽनेनेति तपः । उक्तंच-" रसरुधिरमांस मेदोस्थिमज्जशुक्राण्यनेन तप्यन्ते । कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम् ' ।।इति। आस्रवसे विरमण-विरक्त होने रूप जो आत्मपरिणति है, वह संयम है। इस प्रकारका भी संयम १७ प्रकारका कहा गया है-जैसे “पञ्चास्त्रघाद विरमणं" संयमके सत्रह प्रकार इस तरहसे है-पूक्ति पांच स्थावर जीवोंके और चार बस जीवों के विषयमें यतना रखना नौ तो ये संयमके भेद हुए तथा अजीवके विषयमें संयम प्रेक्षा संयम, उत्पेक्षा संयम प्रमार्जन संयम परिष्ठापन संयम एवं मनका संयम वचनका संयम और कायसंयम एवं आठ भेद ये हुए, इस प्रकारसे १७ भेद ये संयमके "पुढविदग" आदि गाथा द्वारा प्रकट किये गये हैं, तथा पांच आस्रवोंसे विरक्त होना पांच इंन्द्रियोंका निग्रह करना उन्हें वशमें रखना-चार कषायोंका जीतना एवं मन वचन कायकी अशुभ क्रिया ओंसे विरक्त होना, इस प्रकारसे भी ये १७ प्रकारके संयमके भेद प्रकट किये गये हैं, जिसके द्वारा शरीरगत रस रुधिर आदि अथवा अशुभ कर्म तपाये जाते हैं, वह तप है। कहा भी है-" रसજે આત્મપરિણતિ છે, તેને સંયમ કહે છે. આ પ્રકારના સંયમના પણ ૧૭ સત્તર १२ zan छ. रेम " पञ्चानवादविरमण " त्याहि-सयभना १७ प्रा। નીચે પ્રમાણે છે–પૃથ્વીકાય આદિ પાંચ સ્થાવર જીના વિષયમાં યતના રાખવી, ચાર પ્રકારના ત્રસ જીવેની યતના કરવી, આ પ્રકારે નવ ભેદ સમજવા બાકીના આઠ ભેદ નીચે પ્રમાણે છે-પ્રેક્ષા સંયમ, ઉપ્રેક્ષા સંયમ, પ્રમાર્જન સંયમ, પરિઝાપન સંયમ, મન સંયમ, વચન સંયમ, કાય સંયમ मन विषयमा सयम "पुढविदग" त्यादि गाथा द्वा२१ सयमना सत्तर ભેદ અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે તથા પાંચ આસ્ત્રોથી વિરક્ત થવું, પાંચ ઈન્દ્રિયને નિગ્રહ કરવો–તેમને વશ રાખવી, ચાર કષાયોને જીતવા અને મન, વચન અને કાયાની અશુભ કિયાએથી વિરક્ત થવું, એ પ્રકારને આ થી વિરક્ત થવા રૂપ જે સંયમ છે તેના પણ ૧૭ સત્તર ભેદ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. જેના દ્વારા શરીરમાં રહેલા રસ, રુધિર આદિને અથવા અશુભ भने तपााम मा छ, तेन त५४ छ. युं पण छे , रसरुधिर. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० स्थाना एतच बाह्याभ्यन्तरमेदेन द्वादशविधं भवति तदुक्तम्-" अणसणमृणो यरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य वज्झो तवो होइ ॥१॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । शाणं उस्सग्गो वि य, अभितरओ तवो होइ ||२||" छाया-अनशनमूनोदरिका वृत्ति संक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संटीनता च बाह्यं तपो भवति ॥१॥ प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं व्युत्सोऽपि च आभ्यन्तरिकं तपो भवति ॥२॥ इति। तथा-त्यागः-त्यजनं-प्रदान-त्यागः-सांभोगिकेभ्यो भक्तादिदानं तदि. तरेभ्यः श्राद्धादिकुलप्रदर्शनं च।। तदुक्तम्-" तो कय पच्चक्खाणो, आयरियगिलाणवालधुणं । देज्जाऽसणाइ संते, लाभे कयवीरियायारो ॥१॥ रुधिरमांसदो" इत्यादि । इसका अर्थ स्पष्ट है। यह तप वाद्यतप और आभ्यन्तर तपके भेदसे दो प्रकारका होता है -बाद्यतप और आ. भ्यन्तर तपके भेद इस प्रकारसे हैं-" अणसणमूगोयरिया" इत्यादि । अनशन १ ऊनोदर २ वृत्तिसंक्षेप ३ रसत्याग ४ कायक्लेश ५ और संलीनता ये वायतपके ६ भेद हैं। . - प्रायश्चित्त १ विनय २ वैयावृत्त्य ३ स्वाध्याय ४ ध्यान ५ और व्युत्सर्ग ६ ये आभ्यन्तर तपके ६ भेद हैं। सांभोगिक साधुजनोंके लिये भक्तादि लाकर देना और इनसे भिन्न साधुओंको श्रावक आदिकोंका घर दिखाना यह त्याग है, तदुमांसदो" त्याहि-तना अर्थ २५४ छ. मा तपना भु५ मे छબાહ્ય તપ અને આભ્યન્તર તપ બાહ્ય તપના નીચે પ્રમાણે છ ભેદ કહ્યા છે " अणसणमूणोयरिया" त्याह (१) अनशन, (२) AQEN, (3) वृत्ति २५, (४) रसत्या (५) य४वेश माने (6) दीनता. माझ्यन्त२ तपन नी2 प्रमाणे छ से छे-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (3) वैयाकृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान गने (6) Sत्स. સાંગિક સાધુઓને માટે આહાર પાણી લાવી દેવાં અને સાંગિક ન હોય એવા સાધુઓને શ્રાદ્ધ (શ્રાવક) આદિકનાં ઘર બનાવવા તેનું નામ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था. ५ उ. १९ शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् संविग्ग अन्नभोइयाण देसिज्ज सङ्कगकुलाणि । अतरंतो वा संभोइयाण दे से जहसमाही ||२|| " छाया - ततः कृतप्रत्याख्यानआचार्यग्लानबालवृद्धेभ्य. । दधात् अशनादि सति लाभे कृतवीर्याचारः ॥ १ ॥ संविग्नान्यभोगिकेभ्यो देशयेत् श्राद्धककुलानि । अशक्तोवा (स्वयं) सांभोगिकेभ्यो देशयेत् यथासमाधि || २ || इति | ब्रह्मचर्यवासः - ब्रह्मवर्षे मैथुनविरमणरूपे वासः = अवस्थानम्, ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचर्यवासः-ब्रह्मचर्ये ५४१. वासः । इत्थं क्षान्त्यादि ब्रह्मचर्यवासान्तो दशविधः श्रमणधर्म प्रोक्तः || सम्पति वृत्तिसंक्षेपनामकस्य धर्मरूपवाद्यतपोविशेषस्य भेदानाह - " उतिचरए " इत्यादिना । उत्क्षिप्तचरकः - उक्षिप्तम्- गृहस्थेन स्वार्थी पाकभाजक्तम्- " तो कयपच्चक्खाणो " इत्यादि । इन श्लोकोंका भाव ऐसा है कि जिसने प्रत्याख्यान कर लिया है, ऐसा साधु आचार्य ग्लान एवं वृद्ध साधुजनोंके लिये भिक्षा लाकर देवे तथा अपने सांभोगिक साधुअसे अन्य सांभोगिक साधुओंके लिये वह श्रावकके घरोंको बतावे और यदि वह स्वयं अशक्त हो, तो सांभोगिक के लिये अपनी समाधिके अनुसार श्रावकों के घरोंको बतावे ब्रह्मचर्यमें मैथुनविरमणरूप व्रतमें- जो वास अवस्थान है, वह या ब्रह्मचर्य से जो रहता है, वह ब्रह्मवास है, इस प्रकार यह क्षान्ति से लेकर ब्रह्मचर्य तक दश प्रकारका श्रमण धर्म कहा गया है. - अब सूत्रकार साधुका धर्मरूप जो वृत्ति संक्षेप नामका बाह्यतप है, उसके भेदोंका कथन - " उक्खिन्तचरए " इत्यादि सूत्रद्वारा करते हैं त्याग छे. अह्यु' यछे ! " तोकयपच्चक्खाणो " त्याहि मा सोध्नो भावार्थं એવે છે કે જેણે પ્રત્યાખ્યાન કરી લીધાં છે એવા સાધુ આચાય, ગ્લાન અને વૃદ્ધ સાધુઓને માટે ભિક્ષા વડેરી લાવીને તેમને આપી દે. તથા પેાતાના સાંભાગિક સાધુને, અન્ય સાંભાગિક સાધુઓ માટે આહાર પાણી પ્રાપ્ત કરવા ચેાગ્ય શ્રાવકના ઘરે બતાવે અને જે પેતે અશકત હાય, તેા સાંભાગિકને પેાતાની સમાધિ અનુસાર શ્રવકેનાં ઘરો ખતાવે તેને તથા બ્રહ્મચર્યોંમાં-મૈથુન વિરમણુ રૂપ વ્રતમાં જે વાસ (અવસ્થાન) છે તેને બ્રહ્મચવાસ કહે છે, એટલે કે બ્રહ્મચર્યના પાલનપૂર્વક રહેવુ તેનુ નામ બ્રહ્મચય વાસ છે. આ પ્રકારના ક્ષાન્તિથી લઈને બ્રહ્મચય પ્રયન્તના દસ પ્રકા રના શ્રમણ ધમ કહ્યા છે. હવે સૂત્રકાર સાધુના ધરૂપ જે વ્રુત્તિક્ષેપ નામનુ બાહ્યતપ છે, તેના Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाहरु नाद् यद् भोजनम् उद्घृतम् अभिग्रहवशात् तद् गवेषयितुं यश्वरति सः । तथानिक्षिप्तचरकः-निक्षिप्त-पाकपात्रादुद्धृत्यान्यभाजने स्थापितं तदग्रहणाय अभिग्रहवशाद् यश्वरति सः । तथा-अन्तचरकः-यो भिक्षुरभिग्रहविशेषाद् अन्त-क्रोद्रवादिनिस्सारधान्यरूपमाहारं गवेषयितं चरति सः । तथा-प्रान्तचरकः मान्तं-पर्युपिततक्रमिश्रितवल्लचणकादिरूपभोजनं गवेपयितुमभिग्रहवशाद् यश्चरति सः। तथा-रुक्षचरकः-योऽभिग्रहविशेषवंशाद् रूक्षं=निः श्रमण भगवान द्वारा ये पांच स्थान यावत् अभ्यनुज्ञात हुए है-आज्ञादी है जैसे-उत्क्षिप्तचरक १ निक्षिप्तचरक २ अन्तचरक ३ प्रान्तचरक ४ एवं रूक्षचरक ५ इनमें गृहस्थके द्वारा अपने लिये पाक भाजन से जो भोजन दूसरे भाजनमें रख लिया हो, साधु अभिग्रहवाशसे उसकी गवेपणाके लिये जो विचरण करताहै, वह उत्क्षिप्तचरकहै । पाक भाजनसे उठाकर अन्य पात्रमें स्थापित किया भोजन निक्षिप्त हैं, उसे ग्रहण करने के लिये जो सोधु अभिग्रह वशसे विचरण करता है, वह निक्षिप्तचरक है। जो भिक्षु अभिग्रह विशेषके वश क्रोद्रवादि निस्सार धान्यरूप आहारकी गवेपणा करने के लिये विचरण करता है, वह अन्नचरक है । जो भिक्षु अभिग्रहवशसे पर्युषित ठंडा (वासी) छाछ मिश्रित बालचना आदि अन्नरूप भोजनकी गवेपणा करनेके लिये विचरण करता लेटोनु ४थन ४रे छ-उक्खित्तचरए " याहि-श्रम लगवान महावीर દ્વારા નીચેના પાંચ સ્થાન વર્ણિત, કીર્તિત આદિ રૂપ ગણાવ્યા છે –(૧) ઉક્ષિપ્ત ५२४, (२) निक्षिH A२४, (3) मन्त य२४, (४) प्रान्त य२४ भने (५) ३६ ५२४ ગ્રહ પાક ભેજનમાંથી (જેમાં કોઈ ભેજન બનાવ્યું હોય તે પત્રમાંથી) બીજા ભાજનમાં જે ભેજન મૂકી રાખ્યું હોય એવાં ભેજ ની ગવાને માટે વિચરણ કરતા સાધુને ઉક્ષિપ્ત ચરક કહે છે. આ પ્રકારનું ભજન ગ્રહણ કરવાને તેણે અભિગ્રહ કર્યો હોય છે. પાક ભાજનમાંથી લઈને અન્ય પાત્રમાં સ્થાપિત કરી નાખવામાં આવેલા ભજનને નિશ્ચિત કહે છે. એવા ભેજનને ગ્રહણ કરવાના અભિગ્રહપૂર્વક જે સાધુ વિચરણ કરે છે, આહારની ગવેષણ કરે છે, તેને નિશ્ચિત ચરક કહે છે જે સાધુ અભિગ્રહ વિશેષને લીધે કેકરા આદિ નિઃસાર ધાન્યરૂપ અ હા રની ગવેષણ કરવાને માટે વિચરણ કરે છે, તે સાધુને અન્તચરક કહે છે. જે ભિક્ષ અભિગ્રહપૂર્વક પર્યુંષિત ઠંડા (વાસી) છાશમિશ્રિત, વાલ, ચણું આદિ અન્નરૂપ ભેજનની ગવેષણ કરવાને માટે વિચરણ કરે છે, તેને પ્રત Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुधा टीका स्था०५ उ०१ सू०९ शरीरगतधर्मविशेषनिखपणम् स्नेहमाहारं गवेषयितुं चरति सः । रुक्षाहारमात्रग्रहणशीलो भिक्षुरित्यर्थः । तथाअज्ञातचरकादीनि पञ्च स्थानान्येवं विज्ञेयानि, तत्र-अज्ञातचरक -अज्ञात: अनुपदर्शितसौजन्यादि भावःसन् योऽभिग्रहवशाद् भिक्षार्थ चरति,अज्ञातेषु वा गृहेषु तथाविधाभि ग्रहवशाद भिक्षार्थं यश्चरति सः। तथा-अनग्लायकचरः-अन्नं विना ग्लायतिम्लायति यः सोऽन्नग्लायकः अभिग्रहवशात्तथाविधः सन् आहारार्थ यश्चरति सःरात्रिपर्युपितान्नभोजीत्यर्थः तथा-मौनचर:-अभिग्रहवशाद् यो मौनेन भिक्षार्थ है, वह प्रान्तचरकहै४। जो भिक्षु अभिग्रह वशसे नि:स्नेह (विगयरहित) आहारकी गवेषणाके लिये विचरण करता है, वह रूक्षचरक है। सक्षघरक भिक्षु रुक्ष आहार मात्रको ग्रहण करनेवाला होता है तथा अज्ञात चरक आदि जो पांच स्थान हैं, वे इस प्रकार से हैं, जो भिक्षु अपने सौजन्यादि भावको दिखाये बिनाही अभिग्रहवाशसे शिक्षाके लिये भ्रमण करताहै, वह १ अथवा अज्ञात घरों में तथाविध अभिग्रहके वशसे भिक्षाके लिये भ्रमण करता है, वह अज्ञोतचरक है २१ अन्नके विना जो म्लानमुख हो जाता है, कुम्हलासा जाता है, ऐसा वह भिक्षु अन्नग्लायक है, ऐसा वह अन्नग्लायक भिक्षु अभिग्रहके वशले जो तथाविध होता हुआ आहारके लिये भ्रमण करता है, वह अन्नग्लायकचर है २. यह अन्नग्लायकचर रात्रि पर्युषित (वासी) अन्नका भोगी होता है, अर्थात् खट्टी छाछमें मिलाया हुआ वाल चणा आदिके बने हुए वाली ચરક કહે છે. જે સાધુ અભિગ્રહપૂર્વક નિરનેહ-ઘી, તેલ આદિ નિગ્ધતાથી રહિત-આહારની ગષણને માટે વિચરણ કરે છે તેને રૂક્ષચરક કહે છે. તે માત્ર રૂક્ષ (ખા) આહારને જ ગ્રહણ કરે છે. તથા અજ્ઞાત ચરક આદિ જે પાંચ સ્થાન છે તેનું સૂત્રકાર હવે સ્પષ્ટીકરણ કર છે—જે સાધુ પિતાના સૌજન્ય આદિ ભાવેને દેખાડયા વિના જ અભિગ્રહ ધારણ કરીને શિક્ષાને માટે ભ્રમણ કરે છે તેને અજ્ઞાતચરક કહે છે, અથવા અજ્ઞાત ઘરમાંથી જે ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવાને અભિગ્રહ ધારણ કરીને શિક્ષાને માટે ભ્રમણ કરે છે તેને અજ્ઞાતચરક કહે છે. અન્ન વિના જે સાધુ જ્ઞાનમુખ થઈ જાય છે, જેનું મુખ જાણે કે કરમાઈ જાય છે, એવા ભિક્ષુને અન્નગ્લાયક કહે છે. એ તે અન્નગ્લાયક ભિક્ષ અભિગ્રહ વિશેષને અધીન રહીને તે પ્રકારની સ્થિતિ થવા છતાં પણ ભ્રમણ કર્યા કરે છે, એવા ભિક્ષને અન્નગ્લાયચર કહે છે. તે અન્નગ્લાયક ચાર રાત્રિ પર્યાષિત (વાસી) અન્નને ભેગી હોય છે. એટલે કે ખાટી છાશ આદિ વડે स Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ स्थानाम चरति सः । तधा-संस्पृष्टकल्पिका-संसृप्टेनकावरण्टिनेन हस्तभाजनादिना दीय. मानस्यैव भक्तादेहिणे कल्पो नियमोऽभिग्रहदशाद यस्य सः, तथाविधाभिग्रह विशेषधारकाः साधुरित्यर्थः तथा-तज्जातमंसष्ट कल्पिका-तज्जातेन देवद्रव्याविरोधिना दातव्यद्रव्येणैवेत्यर्थः यत् संमष्ट-वरण्टिनं हस्तभाजनादि, तेन दीयमानस्यैव भक्तादे ग्रहणे कल्पो-नियमोऽभिमहत्रशाद् यस्य सः । तथाऔपनिधिकादीनि पञ्च स्थानान्येवं विज्ञेयानि, तथाहि-औपनिधिका-उपनिधीयते इत्युपनिधिः-प्रत्यासन्नं यथास्थंचितानोत, न तु साधर्थ, तेन यश्चरति अभिग्रहवगात् स औपनिधिकः । यद्वा-औषनिहित इति चलाया । उपनिहितं अन्नकी गवेषणा करता है, जो भिक्षु अभिग्रह विशेषसे मौनपूर्वक भिक्षाके लिये भ्रमण करता है, वह लौनचर है, तथा जिसका संमृष्ट अन्नादि भरे हुए हस्त भाजन आदिसे दिये गयेही आहार आदिको लेनेका कल्प नियम है, ऐमा वह तथाविध अभिग्रहका धारी साधु संसृष्ट कल्पिक है, तथा जिस लाधुका देने योग्य द्रव्यसे ही संसृष्ट हुए हस्त भाजनादि से दिये जाते ही भक्तादिके ग्रहणमें अभिग्रहवश नियान है, वह साधु तज्जात संसृष्ट कल्पिक है, तथा-औपनिधिकादि पांच स्थान इस प्रकारले है-औपनिधिक १ शुद्धषणिक २ संख्यादत्तिक ३ इण्ट लाभिक ४ और पुष्ट लाभिक ५ इनमें जो लिखु दाता अपने पास में भोजन के समय अन्नादि रखा हो उस अन्नादिको लेनेके लिये नियमवाला होता है, वह या जो चाहे जिस किसी तरह ले लाये गये भाहार મિશ્રિત વાલ, ચણ આદિવાસી અન્નની ગષણા કરે છે જે સાધુ અભિગ્રહ વિશેષ ધારણ કરીને મૌનપૂર્વક ભિક્ષાને માટે ભ્રમણ કરે છે, તેને મૌનચર કહે છે. જેણે સંસદ અન્નાદિ ભરેલા હસ્તભાજન આદિ વરુ દેવામાં આવેલ આહાર આદિને ગ્રહણ કરવાને ક૯૫ (નિયમ) કરેલો છે, એવા પ્રકારના અભિગ્રહધારી સાધુને સંસ્કૃષ્ટ કલ્પિક કહે છે. અર્પણ કરવા એગ્ય દ્રવ્યથી જ સંસૂઇ એવા હરત ભાજનાદિ વડે આપવામાં આવતા આહારાદિને જ ગ્રહણ કરવાનો જેણે અભિગ્ર ધારણ કરે છે એવા સાધુને “તજજાત સંસૃષ્ટ કલ્પિક કહે છે. તથા ઔપનિધિક આદિ પાંચ સ્થાન આ પ્રમાણે છે (१) मीपनिधि४, (२) शुद्धपनि, (3) सात्ति:, (४) ya HY અને (૫) પુછલાજિક. દાતાએ ભેજન કરતી વખતે જે અન્નાદિને પિતાની પાસે રાખેલ હોય તે અન્નદિને જ ગ્રહણ કરવાના નિયમવાળે જે સાધુ હેય છે તેને અથવા તેણે જે પ્રકારને અભિગ્રહ કર્યો હોય તે પ્રકારે આહાર Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ० १सू०९ नारकादीनां शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् ५४५ यथाकथंचिदानीतं, तेन यश्वरति अभिग्रहवशात् सः। पज्ञादित्वादण्प्रत्ययेन प्रयोगसिद्धिः। तथा-शुद्वैपणिकः-शुद्धपणा-शुद्धस्य-निव्यञ्जनस्य भक्तादेरेपणा, तया यश्चरति अभिग्रहवशात् सः । तथा-संख्यादत्तिका-संख्याप्रधाना:एकद्वित्रादि संख्यापरिमिता दत्तया दीयमानाहारादेरविच्छिन्नरूपेण-निक्षेपरूपाः ता ग्राह्या यस्य सः, तथाविधाभिग्रहधारकः साधुः । दत्तिलक्षणं तु " दत्ती उ जत्तिए वारे, खिवई होति तत्तिया । अयोच्छिन्न णिवायाओ, दत्ती होइ दवेयरा ॥१॥" छाया-दत्तयस्तु यावतो वारान् क्षिपति भवन्ति तावत्यः । अव्युच्छिन्ननिपाताद् दत्ति भवति द्रवेतरा ॥१॥ इति । द्रयेतरा-पानीयान्नरूपा । तथा-पृष्टल भिका-दृप्टस्यैव भक्तादेलाभःयद्वा-दृष्टात्-प्रथमदृष्टादेव दातु हाहा लाभो दृष्टलाभः यदर्थ योऽभिग्रहआदि वस्तुको लेनेका अभिग्रहवाला होता है, वह औपनिधिक या औपनिहित भिक्षु है, जिस भिक्षुका ऐसा नियम है, कि मैं नियंजनही आहार लूंगा, वह इस प्रकारके आहारकी गवेषणा करनेवाला साधु शुद्ध षणिक है, जिस साधुका ऐसा अभिग्रह है, कि मैं दिये जाते हुए आहा. रकी अविच्छिन्न रूपसे पात्रमें डाली गई दो तीन आदि दत्तियांही लूंगा ऐसा वह तथाविध आहारका अभिनहधारी साधु संख्यादत्तिकहै, दत्तिका लक्षण इस प्रकारसे है-"दत्ती उ जत्तिए वारे" चिना किसी व्यव. धानके अन्नपानी जितनी वार दाता पात्रमें डालताहै, वह दत्तिहै, जिस भिक्षुका ऐसा नियम है, कि मैं देखे गयेही भक्तादिको लूगा, या प्रथम दृष्ट दाताके गृहसेही आहार लूंगा, इस प्रकारका अभिग्रहधारी वह આદિને ગ્રહણ કરવાના નિયમવાળો હોય છે, તેને ઓપનિધિક અથવા ઔપ નિહિત ભિક્ષુ કહે છે જે સાધુને એ અભિગ્રહ હોય છે કે હુ નિચેંજન આહારને જ ગ્રહણ કરીશ, અને તે પ્રકારની આહારની તે ગવેષણ કરતા હાય, તે તેને શુષણિક કહે છે. જે સાધુએ એવો અભિગ્રહ કર્યો હોય કે હુ અવિચ્છિન્ન રૂપે પાત્રમાં નંખાયેલી આહારની એક, બે, ત્રણ એમ અમુક દરિયે જ ગ્રહણ કરીશ, એવા અભિગ્રહધારી સાધુને સંખ્યાદત્તિક કહે છે દત્તિનું સ્વરૂપ નીચે પ્રમાણે કહ્યું છે– " दत्ती उ जत्तिए वारे" याहि dat व्यवधान दिन (આંતરા વિના) દાતા અન્નપાણી આદિને સાધુના પાત્રમાં નાખે તે એક દત્તી ગણાય. આતરો પડે ત્યારે બીજી દત્તી ગણાય જે ભિક્ષુને એ નિયમ હોય કે હુ મારી નજરે દેખાય એવી જગ્યાએથી લાવવામાં આવેલા આહાस-६९ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाचे वशाच्चरति सः । तारा-कृष्टलाभिका-पृष्टस्यैव-' हे साधो । किंभवते दीयते ?' इत्यादिरूपेण प्रशिनरत्र मान लामा, तदर्थ यश्चरति सः । सम्पति आचामामिल कादि विषयाणि परनाम आचामाम्लिका-विकृतिरहितस्य अचित्ते जले क्षिप्तस्य भनिनयमानत्य मध्याहे पकवारमाहरणम्-आचामाम्लं, तेन यश्वरति-अभिनयात्मः । तपा-नविकृतिका-निर्गता विकृतयो घतादि. रूपा यस्मात् स आहारो नितिकः, तेन चानि यः सः। तथा-पौर्वादिक:पूर्वार्द्ध-पूर्वाह्न एवाभिग्रहबशाद भिक्षार्थ यश्चरति सः । तथा-परिमितपिंडपातिकः साधु दृष्टलांभिक है । तथा जिस साधुका नियम है, कि मैं जय कोई मुझसे ऐसा पूछेगा कि शिक्षो! आपके लिये मैं क्या दं तो ही आहार आदि ग्रहण करूंगा, वह इस प्रकारके अभिग्रहसे पान होकर उसकी गवेषणा करनेवाला साधु लाभिक साधु है, अब आरामाम्लिक आदिविषयक जोपांच स्थान कहे गये हैं, उनका स्पष्टीशरण किया जाता है विकृति रहित अर्थात् लूखे अन्न आदि अथवा भुने हुए चणेको अचित्त जल में डाल कर दो पहरमें एकवार भोजन करना यह आचामाम्लहै, ऐसा आचामारल जो करताहै, वह आचामाम्लिकडे, जिस आहारमें धुतादिरूप विकृति (विगय)नहींहै,ऐसा बह आहार निर्विकृतिक है, इस प्रकारके आहारकी जो अपने नियमके अनुसार गवेपणा करने के लिये विचरण करता है, वह नैविकृतिक है, तथा जिसका રને જ રહણ કરીશ અથવા જે દાતા પ્રથમ નજરે પડશે તેને ત્યાંથી જ આહાર ગૃહણ કરીશ એવા અભિગ્રહયારી શિશુને દછલામિક કહે છે જ્યારે કેઈ ભિક્ષુ એવો નિયમ કરે છે કે કેઈ દાતા જ્યારે મને એવું પૂછશે કે હે ભિક્ષો હુ આપને માટે શું અર્પણ કરુ?” ત્યારે જ હું તેને ત્યાંથી આહાર ગ્રહણ કરીશ, આ પ્રકારના અભિગ્રહપૂર્વક તેની ગવેષણ કરતા સાધુને પૃષ્ઠલામિક કહે છે. હવે આચામાજ્ઞિક આદિ વિષયક જે પાંચ સ્થાન કહ્યાં છે, તેમનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે– | વિકૃતિ રહિત એટલે કે લુખાં અન્ન આદિનું અથવા શેકેલા ચણાને અચિત્ત પાણીમાં પલાળી રાખીને બે પ્રહરમાં એક વાર ભોજન કરવું તેનું નામ આચામામ્સ છે. એવું આચામા જે કરે છે તેને આચામાગ્લિક કહે છે જે આહારમાં ઘી આદિ રૂપ વિકૃતિને અભાવ છે તે આહારને નિર્વિકૃતિક કહે છે આ પ્રકારના અભિગ્રહપૂર્વક જે ભિક્ષુ આહારની ગવેષણ કરવાને માટે વિચરણ કરે છે, તેને નિર્વિકૃતિક ભિક્ષુ કહે છે પૂર્વાહણકાળ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टीका स्था. ५ उ. १८. ९ नारकादीनां शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् ५४७ परिमितो यः पिण्डपात: भक्तादिलाभः स परिमितपिण्डपातः, तेन चरति यः सः। तथा-भिन्नपिण्डपातिकः-भिन्नस्य खण्डीभूतस्य पिण्डस्य-मोदकादे: पातो लाभ:-भिन्नपिण्ड पातः, तदर्थमभिग्रहवशाद् यश्चरति सः । तथाविधाभिग्रहधारकः साधुरित्यर्थः । सम्पति-भरसाहारादिविषयाणि पश्च स्थानान्याहअरसाहारः-अरसा-हिङ्ग्यादिभिरसंस्कृतः, स आहारो यस्य सः । हिङ्ग्याय. संस्कृताहारग्रहणाभिग्रहवान् भिक्षुरित्यर्थः । तथा-विरसाहारः-विरस:-विगतरसः ऐसा नियम है, कि मैं पूर्वाह्नकालमें ही भिक्षाके लिये जाऊंगा, इस प्रकार के नियमसे बद्ध होकर जो साधु पूर्वाह्न कालमही भिक्षाके लिये उपाश्रयसे निकलता है, वह पौर्वाङ्गिक साधु है । तथा जिस साधुका ऐसा नियम है कि मैं परिमित पिण्डकाही आहार लूंगा, इस नियनसे बद्ध होकर जो भिक्षाके लिये विचरण करता है, वह साधु परिनितपिण्डपातिकहै, तथा जिसका ऐसा नियमहै, कि मोदकादिक (लड्डु) खण्ड २ किये जाने पर ही मैं आहारके निमित्त ग्रहण करूगा, इस प्रकार के नियमसे युक्त होकर जो उस प्रकारके आहारकी गवेषणा करने के लिये विचरण करता है, वह भिन्नपिण्डपातिक लाधु है, अरसाक्षारादि विषयक जो पांच स्थान कहे गये हैं, वे इस प्रकारसे हैं-अरसाहार हिंगु आदिसे असंस्कृत हुए आहारकोही मैं लूंगा, इस प्रकार के नियमसे बद्ध होकर जो साधु इसी प्रकारके आझारकी गवेषणा करने के लिये दाता. ओंके गृह पर भ्रमण करता है, वह अरसाहार भिक्षु है, अर्थात् अरसाहारी साधु अरसाहार है । जो साधु विरस विगत रसबाले पुराने માં જ ભિક્ષા પ્રાપ્તિ માટે હું નીકળીશ, આ પ્રકારના નિયમપૂર્વક જે ભિક્ષુ પૂર્વાહૂણકાળે જ શિક્ષા પ્રાપ્તિ માટે ઉપાશ્રયમાંથી નીકળે છે, તેને પૌહિક સાધુ કહે છે. જે સાધુને એ નિયમ છે કે હું પરિમિત પિંડ જ (અમુક પ્રમાણમાં જ) આહાર ગ્રહણ કરીશ, આ પ્રકારના નિયમપૂર્વક ગોચરીને માટે વિચરણ કરતા પાધુને પરિમિતપિંડ પાતિક કહે છે. જે સાધુનો એ નિયમ છે કે હું લાડુ આદિ આહારના કકડા કર્યા બાદ જ તેને ગ્રહણ કરીશ, તે તે પ્રકારના નિયમપૂર્વક તે પ્રકારના આહારની ગવેષણ કરતા સાધુને ભિન્નપિંડ પાતિક કહે છે. અરસ આહારદિ વિષયક જે પાંચ સથાન કહ્યાં છે તે નીચે મુજબ છે હિંગ આદિથી રહિત આહારને જ હું ગ્રહણ કરીશ, આ પ્રકારના નિયમપૂર્વક જે સાધુ આ પ્રકારના આહારની ગવેષણ કરવા નિમિત્તે દાતાઓને ઘેર જાય છે, તે સાધુને અરસાહારી ભિક્ષુ કહે છે. જે સાધુ વિરસે (રસ રહિત) Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासू पुराणधान्यकुलत्थादिनिष्पन्न आहारो यस्य सः । अन्ताहारः - अन्तः - क्रोद्रादि निस्सारधान्यनिष्पन्नः आहारो यस्य सः । मान्ताहारः-- प्रान्तः-‍ :- पर्युपित तक्रमिश्रितवल्लचणकादिरूपः आहारो यस्य सः । रूक्षाहारः- रूक्षः निःस्नेहः - वृतादिरहित आहारो यस्य सः । तथा-अरसजीव्यादि विपयानि पञ्च स्थानानि मादअरसे जीवी - अरसेन आहारेण जीवितुं शीलमस्येति मरणपर्यन्तम् अरसाहाराभिग्रहधारको मुनिः । एवमेव विरसजीव्यादिरधानचतुष्टयमपि भावनीयम् । सम्पति स्थानातिगादिराणि पञ्च स्थानान्याह - स्थानातिगः-स्थानं काय त्सर्गम् अतिगच्छति = प्रकरोति यः सः, कायोत्सर्गकारीत्यर्थः । ' स्थानातिदः ' धान्य कुलत्थादिसे बने हुए आहारको लेता है, वह बिरसाहार है, started freसार धान्यसे निष्पन्न हुए आहारको ग्रहण करता है, वह अन्ताहार है । प्रान्ताहारवाला वह साधु है, जो पर्युपित तक मिश्रितचल्ल चना आदिकाही आहार लेता है। तथा रुक्षाहारवाला पढ़ साधु है, जो घृतादि स्नेहसे रहित आहारको लेता है । अरस जीवी आदि पांच स्थान इस प्रकार से हैं जिसका जीवन पर्यन्त तकका ऐसा नियम है, कि मैं रसविहीन ही आहार लूंगा वह भिक्षु अरम जीवी है । इसी प्रकार से चिरसजीवी आदि चार स्थान समझ लेना चाहिये स्थानातिग आदि पांच स्थान इस प्रकारसे हैं जो साधु कायोत्सर्ग करता है, वह स्थानातिग साधु है "स्थानातिद " ऐसी छायाके पक्ष में - थी આદિ જુના ધાન્યમાંથી નિર્મિત ( બનાવેલ ) આહારને જ ગ્રહણુ કરવાના નિયમપૂર્વક તે પ્રકારના આહારની ગવેષણા કરતા વિચરે છે, તેને વિરસાહારી સાધુ કહે છે જે સાધુ કેાદરા આદિનિસ્સાર ધાન્યમાંથી તૈયાર કરેલા આહારને જ ગ્રહણ કરે છે, તેને અન્તાહારી કહે છે જે સાધુ વાસી છાશમિશ્રિત વાલ, ચણા આદિના જ આહાર કરે છેતેને પ્રાન્તાહારી કહે છે. જે સાધુ ઘી આદિ સ્નિગ્ધ પદાર્થોથી રહિત વસ્તુઓનેા જ આહાર ગ્રહણ કરે છે તેને રૂક્ષાહારી કહે છે. ५४८ 1 અરસજીવી આદિ પાંચ સ્થાન નીચે પ્રમાણે છે—જેણે એવા નિયમ કર્યો છે કે હુ જીવનપર્યંન્ત રસવિહીન આહાર જ લઇશ, એવા સાધુને અરસજીવી કહે છે. એ જ પ્રમાણે વિરસતી આદિ ચાર સ્થાને વિષે પણ સમજી લેવું જોઈએ, સ્થાનાતિગ આદિ પાંચ સ્થાન નીચે પ્રમાણે છે—જે કરે છે, તે સ્થાનાનિંગ સાધુ છે. સ્થાનાતિગની સંસ્કૃત છાયા સાધુ કાર્યાત્સગ " स्थानातिः " Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीकास्था०५उ० १ सू०९ नारकादीनां शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् ५४२ इतिच्छायापक्षे तु-स्थानम् अतिददाति-इति विग्रहः, अर्थस्तु स एव । तथा- उत्कुटुकासनिकः-उत्कुटुकासनम्-पुतस्य अलगनेन उपवेशनम् , तद् यस्यास्ति सः । तथा-मतिमास्थायी-प्रतिमया एकरात्रिक्यादिक्रया कायोत्सर्गविशेषरूपयैव तिष्ठ. तीत्येवं शीलो यः कायोत्सर्ग स्थितो भिक्षुरित्यर्थः । तथा-वीरासनिका बीरा सनं धीरस्येदमासन वीरासनं, यथा सिंहासनोपरि समुपविष्टस्य सिंहासनापनयने कृसे सिंहासनोपविष्टवत् कायस्य य आकारो भवति तदाकारकमासनं वीरासनमु " स्थानं अति ददाति" इति स्थानातिद, ऐसा विग्रह होता है, इसका अर्थ स्थानातिगके जैसाही है, उत्कुटुकासनिक-जो हर प्रकार से है, कि बैठक जमीन पर जिस बैठने में नहीं लगती हैं, ऐसा आसन जिसका होता है, वह उत्कृटुकासनिक है, प्रतिमास्थायी-एक रात्रिक आदि कायोत्सर्ग विशेषरूप प्रतिमासे रहनेका जिसका स्वभाव है, ऐसा वह कायोत्सर्ग विशेषमें स्थित हुआ साधु प्रतिमास्थायी है, वीरासनिक-दीरके आसन जैसा आसन जिसका होता है, वह धीरासनिक है, सिंहासन के ऊपर बैठे हुए व्यक्तिके नीचेसे सिंहासनको हटा लेने पर बैठे हुएकी तरहसे हो जता है, ऐसा ही आकार जिस आसनमें होता है, वह वीरासन है । यह आसन अति कठिन होता है, वीर पुरुषही इस आसनको कर सकते हैं, ऐसा आसन जिसका होता है, वह वीरासनिक है। इस आसनमें कुरसी के जैसे आ. देवामा माता, “स्थानं अति ददाति इति स्थागातिदः" मेवा विग्रह થાય છે તેને અર્થ પણ સ્થાનાતિગ જેવો જ થાય છે ઉકુટુંકાસનિક” જે આસને બેસવાની જાણે જમીન પર બેઠક જ ન જમાવી હોય એવું લાગે છે, એવા આસને જે સાધુ બેઠે હોય છે તેને ઉકુટુકાસનિક કહે છે આ આસનમાં ઉભડક બેસવું પડે છે. “પ્રતિમાથાયી”—એક રાત્રિક આદિ કાર્યોત્સર્ગ વિશેષરૂપ પ્રતિમા ધારણ કરીને રહેવાને જેને નિયમ છે એવા કાયોત્સર્ગ વિશેષમાં સ્થિત સાધુને પ્રતિમા સ્થાયી કહે છે. વાસનિક–વીરના આસન જેવું જેનું આસન હોય છે, તેને વિરાસનિક કહે છે. સિંહાસન પર બેઠેલી વ્યક્તિના નીચેથી સિંહાસનને ખસેડી લેવાથી શરીરને જેવો આકાર-સિંહાસન પર જ બેઠા હોય એવો આકાર જે આસનમાં થઈ જાયે છે, તે આસનને વીરાસન કહે છે. તે આસન ઘણું જ કઠણ છે, વીર પુરુષ જ તે આસન કરી શકે છે એવું આસન જેનું હોય છે તેને વીરાસનિક કહે છે. આ આસને બેઠેલા માણસને આકાર ખુરસી જેવો Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाही च्यते, अति कठिनतया वीरपुरुपेणेवादरणीयत्वात् , तयस्यास्ति सः । तथा-नेपधिः-निपद्या आसनविशेपरूपा, सा पञ्चधा भवति, तत्र-यस्यां पादयोः पुनयोश्च स्पर्शः समो भवति सा समपादपुता ॥ १ ॥ यस्यां तु गोरियोपवेशनं भवति सा गोनिषधिका ॥ २ ॥ यस्यां तु पुताभ्यामुपविष्टः सन् एकं पादमुत्थाप्य आस्ते सा हस्तिशुण्डिका ।। ३ ।। पर्याऽर्थपर्यवे तु प्रसिद्ध एत्र ।। ४ ॥ एतादृशी निपया आसनं यस्य सः नैपधिकः । अथ दण्डायतिकादिविपयाणि पश्वस्थानान्याहकारमें मनुष्यका आकार बन जाता है, कुरसीके पीछेके दो पाद हटा देने पर और आगेके दो पैर रखने पर उसका जैसा आकार इस आ. सनमें होता है, यह आसन बहुत कठिनतासे युक्त होता है, ने. धिक निपया आसनविशेष रूप होती है, यह पांच प्रकारकी है, जिस निषामें दोनों चरणोंका और हाथोंका स्पर्श छूना समानरूपले होताहै, वह समपादपूता निषचाहै, जिस निपद्यामें गायके दूहने के जैसा पैठा जाता है, वह मोनिषधिका है २ जिम निपटामें दोनों चरणोंको जमीन पर रखकर बैठना होता है, और एक पैरको उठाया जाता है, घुटनेको ऊंचा किया जाता है, वह हस्तिशुण्डिका निपया है ३ पर्यशासन और अर्धपर्यङ्कामन ये दो आसन तो प्रसिद्धही हैं। ऐसी निषद्या आसन जिसके होते हैं, वह नैषधिक है, दण्डायतिक आदि पांच आलन इस થઈ જાય છે. ખુરસીના પાછલા બે પાયા ખસેડી લેવાથી અને આગલા બે પાયા રહેવા દેવાથી તેને જે આકાર થઈ જાય છે, તે જ આકાર આ આસને બેઠેલી વ્યક્તિને થઈ જાય છે. તેથી જ આ આસને બેસવું ઘણું જ मुस गाय छे. પેધિક-નિષદ્યા આસન વિશેષરૂપ હોય છે, તે પાંચ પ્રકારની છે– (૧) જે આસનમાં બને ચરણને અને હસ્તોને સ્પર્શ સમાનરૂપે થાય છે તેનું નામ “સમપાદપૂતા નિષદ્યા છે (૨) જે આસનમાં ગાયને દેતી વખતે બેએ તેમ मेसामा माछे, मासनने “गानिषधि" ४ छ. (3)२ मासनमा બને ચરણેને જમીન પર રાખીને બેસવું પડે છે અને ત્યારબાદ એક પગને ઊંચા કરવામાં આવે છે-ઘુંટણને ઊંચે કરવામાં આવે છે, તે આમનને હસ્તિશુડિકાનિષદ્યા કહે છે (૪) પર્યકાસન અને અર્ધ પર્યકાસન, આ બે સન તે જાણીતાં છે. આ પ્રકારની નિષદ્યા (આસન) જેમની હોય છે, તેમને નિયધિક કહે છે. દંડાયતિક આદિ પાંચ આસન નીચે પ્રમાણે છે(१) यति, (२)- शायी, (3) माता५, (४) अपावृतमने (५) म४य Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधीका स्था०५ उ०१ सू०९ नारकाठीनां शरीरगतधर्मविशेषनिरूपणम् ५५९ दण्डायतिकः-दण्डस्येव आयतिः दीर्घत्वं चरणप्रसारणेन यत्र भवति तद् दण्डायति. तद्यस्यास्ति सः । तथा-लगण्डशायी-लगण्डं चक्रकाष्ठम् , तद्वत्-अर्थान्मस्तक पार्धादिभागानां भूमिसंवन्धेन पृष्ठस्य च तदसंबन्धेन यदासनं भवति तद् लगण्डम् , तेन यः शेते सः। तथा-आतापका-आतापयति-शीतातपादिसहनरूपामातापनां करोति यः सः । तथा-अपातका न विद्यते पाहतंभावरणं यस्य सः । तथा-अकण्डूयका-न कण्डूयतीत्यकण्डूयकः-कण्डूतौ संजातायामपि गात्रसंघर्षणवर्जितः । 'स्थानातिगः' इत्यारभ्य · अकण्डूयकः' इत्यन्ताः सर्वेऽपि प्रकार से हैं-दण्डायतिक १ लगण्डशायी २ आतापक ३ अपावृतक ४ और अकण्डूयक ५ जिसके आसनमें पैर पसारनेसे दण्डकी तरह दीर्घता होती है, वह दण्डायतिकहै । वक्र काष्ठका नाम लगण्ड है, इस वक्र काष्ठकी तरह जो आसन होता है, वह लगण्ड आसन है। इस लगण्ड आसनसे जो सोता है, वह लगण्डशायी है। अर्थात् जो मस्तक और एडी आदि भागों को तो जमीन पर लगाता है, एवं पृष्ठ भागको जमीन पर नहीं लगाता है, उसको ऊंचा रखता है, ऐसे आसनसे जो सोता है, वह लगण्डशायी है, अर्थात वक्र काष्ठके दोनों कोने तो जमीन पर टिके रहते हैं, और बीचका भाग जमीनले ऊपर उठा रहता है, इसी प्रकारसे जो सोता है, वह लगण्डशायीहै । जो शीत आतप आदि सहने रूप अतापनाको करता है, वह ओतापकहै । जिसके प्रावरण नहीं हैं, वह अप्रावृतक है, जो खुजली चलने पर भी शरीरको नहीं खुजलाता है, वह अकण्डूयक है, - જે પ્રકારના આસનમાં પગ પહોળા કરવાથી દંડના જેવી દીર્ઘતા થાય છે, તે આસનવાળાને દંડાયેતિક કહે છે. વક્ર કાણને લગંડ આસન કહે છે. આ વક્ર કાષ્ઠના જેવું જે આસન હોય છે તેને લગંડ આસન કહે છે. આ લગંડાસને શયન કરનારને લગંડશાયી કહે છે. આ આસનમાં મસ્તક અને એડી આદિ ભાગે તે જમીનને સ્પર્શ કરે છે, પરંતુ પૃષ્ઠભાગ જમીનને અડકતું નથી, તે તે જમીનથી અદ્ધર જ રહે છે. આ પ્રકારના આસને શયન કરનારને લગંડશાયી કહે છે. એટલે કે જેમ વર્ક કાષ્ટના બને છેડા તે જમીનને ટેકવીને રહેલા હોય છે, પણ વચ્ચેને ભાગ જમીનથી અદ્ધર રહેલે હોય છે, આ પ્રકારે શયન કરનાર વ્યક્તિને લગંડશાયી કહે છે. જે સાધુ શીત, ઉષ્ણતા આદિ સહન કરવા રૂપ આતાપના કરે છે તેને આતાપક કહે છે. જે સાધુને પ્રાવરણ હોતું નથી તેને અપ્રાવૃતક કહે છે. ખંજવાળ આવવા છતાં પણ જે શરીરને ખંજવાળ નથી, તે સાધુને અકયક Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ स्थानास्त्रे अभिग्रहधारकाः साधयो बोध्याः । यद्यपि स्थानातिगत्वादीनामानापनायामन्तआँवो भवति, तथापि प्रधानाधानानां भेदविवक्षयाऽत्र भेदेन निर्देशः, गन एव नात्र पीनरुत्य शल्यमिति ।। मू० ९ ॥ - संमति यः स्थानः श्रमणा निर्गन्धा महानिर्जग महापर्यवसानाश्च भवन्ति, तानि स्थानान्याह-- मूलम्-पंचहि ठाणेहिं समणे निरगंथे महानिज्जरे महाएज्जवसाणे सवइ, तं जहा-अगिलाए आयरियवेयावच्चं करेमाणे १, एवं उबज्झायवेयावच्चं करेमाणे २, थेरवेयावच्चं करेमाणे ३, तरस्लिवेयावच्चं करेमाणे ४, गिलाणवेयावच्चं करेमाणे ५। पंचहिं ठाणेहिं समगे निगंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ, तं जहा-अगिलाए सेहवे यावच्चं करेमाणे १, अगिलाए कुलवेधावच्चं करेमाणे २, अगिलाए गणवेयावच्चं करेनाणे ३, अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे ४, अगिलाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे ५॥ सू० १०॥ स्थानातिगसे लेकर अकण्डूयक तकके समस्त साधुजन अभिग्रहधारी हैं, ऐसा जानना चाहिये यद्यपि स्थानानिग आदि साधु मनोका अन्त आव आतापकमें हो जाता है, तो भी प्रधान अप्रधानके भेदकी विकक्षासे यहां उनका भेद रूपसे निर्देश किया गया है, इसलिये हम कथ. नमें पुनरुक्ति दोपकी संभावना नहीं करनी चाहिये ।। स्तू० १॥ अव सूत्रकार उक्त स्थानोंको प्रकट करते हैं, कि जिन स्थानों द्वारा श्रमण निग्रन्थ महानिर्जरावाले और महापर्यवसानवाले होते हैं-- કહે છે. સ્થાનાતિગથી લઈને અકડૂચક પર્વતના સમસ્ત સાધુઓ અભિગ્રહ. ધારી હોય છે, એમ સમજવું. જો કે સ્થાનાતિગ આદિ સાધુજનેને આતાપકમાં સમાવેશ કરી શકાય છે, છતાં પણ પ્રધાન અપ્રધાનના ભેદની વિવક્ષાની અપેક્ષાએ અહીં તેમનું અલગ ભેદ રૂપે કથન કર્યું છે. તેથી આમાં પુનરુક્તિ દોષની સંભાવના રહેતી નથી. છે સૂ ૯ ! હવે સૂત્રકાર એ સ્થાને (કારણે)ને પ્રકટ કરે છે કે જે સ્થાનો દ્વારા શ્રમણ નિર્ગથે મહાનિર્જરાવાળા અને મહાપર્યવસનવાળા (તે ભવમાં જ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०१ सू०१० निर्ग्रन्थानां महानिर्जरादिप्राप्तिकारणम् ५५३ छाया- पञ्चभिः रथानः श्रमणो निनन्थो महानिर्जगे महापर्यवसानो भवति, तद्यथा-अग्लानः आचार्यवैयाकृत्यं कुणः १, एवर उपाध्यायथैयाकृत्यं कुर्वाण २, स्थविरवैयावश्यं कुर्वाणः ३. तपस्विवैयाकृत्यं कुर्वाणः ४, ग्लानौयावृत्यं कुर्वाणः ॥ ५ ॥ पश्चभिः स्थानः श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति, तद्यथा-अग्लानः शैक्षवयासत्यं कुर्वाणः १, अग्लानः कुलवेयावृत्त्यं कुर्वाणः २ अग्लानो गणवैवात्य कुर्माणः ३, अग्लानः सङ्घयावृत्यं कुर्वाणः ४, अग्लानः साधर्मिकवेयावत्यं कुर्वाणः ५ ॥ सू० १० ॥ टीका-'पंचर्हि ठाणेहिं '. इत्यादि पञ्चभिः स्थानः कारणैः श्रमणो निन्धो, महानिर्जरः महती निर्जरा कर्म क्षयो यस्य सः-बृहत्कर्मक्षयकारी, अतएव-महापर्यवमानः-महत्-आत्यन्तिकम् , पुनरुत्यत्त्यभावात् , तम् पर्यवसानम् अन्तो यस्य सः-अपुनर्जन्मा-तद्धरमोक्षगामी भवति । तान्येव स्थानान्याठ-तद्यथा-अग्लान:-अखिन्नः बहुमान युक्तः सल् आचार्य वेयावत्यं धर्मोपग्रहकारिवस्तुभिर्भक्तादिभिरूपग्रहकरणं, तत्कुर्वाण इति प्रथम 'पंचहिं जेहि समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवलाणे' इत्यादि टीकार्थ-श्रमण निर्ग्रन्थ पांच कारणोंसे महा निर्जरावाला और महापर्यव सानबाला होताहै, समस्त कर्मों का सर्वथा क्षयही मोक्षहै, और उसका अंशतः क्षय निर्जरा है, इस तरह निर्जरा मोक्षका पूर्वगासी अङ्ग है। महानिर्जरावाला होताहै, इसका तात्पर्यही यहहै, कि वह बृहत्कर्मक्षय करनेवाला होकर महापर्यवसानवाला होता है, तद्भवमोक्षगामी होता हैअपुनर्जन्या होता है, वे पांच कारण इस प्रकारसे हैं अग्लान होकर आचार्यकी वैयावृत्ति कर ना १ आचार्यकी वैयावृत्ति करनेमें अग्लान - खेदखिन्न नहीं होना अर्थात उस कार्यों बहुमान भाक्षाभी थना२१ ) थाय छे. टी14-“प'चहि ठाणेहि समणे निगथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे" त्याह નીચેના પાચ કારણોને લીધે શ્રમણ નિર્ચ થ મહાનિર્જરાવાળા અને મહાપર્યાવસનવાળો થાય છે સમસ્ત કર્મોને સર્વથા ક્ષય થ તેનું નામ જ મોક્ષ છે, તેમને અંશતઃ ક્ષય થવો તેનું નામ નિર્જરા છે આ રીતે નિર્જરા મેક્ષનું પૂર્વગામી અંગ છે મોટા પ્રમાણમાં કર્મોનો ક્ષય કરનારને મહાનિજ'રાવાળે કહે છે આ પ્રકારનો મહાનિ. રાવાળા જીવ જ મહાપર્યાવસનવાળા—એ જ ભવમાં મોક્ષ પ્રાપ્ત કરનાર અપુનર્જન્મ હોઈ શકે છે. હવે તે પાંચ કારણે પ્રકટ કરવામાં આવે છે (૧) અશ્કાન ભાવે ( ખિન્નતા અથવા ખેદના પરિત્યાગપૂર્વક) આચાર્યનું વૈિયાવૃત્ય કરવાથી તે મહાનિ જરાવાળે અને મહાપર્યવસાનવાળા બની શકે છે. स्था०-90 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ स्थानाङ्गो स्थानम् १। एवमुत्तरत्रापि भावगीगम् । विगेपम्वयम्-उपाध्यायः सूत्रमदाता । स्थविर संयमनागात् प्रचलनः साधून पुनः संयगे स्थिरीकर्ता, अथवा-जन्मना पष्टिवापिका, पर्यायेण विंगतियर्पपर्यायः, श्रुनेन स्थानागसपवायङ्गधारी । तपस्त्री-मासक्षपणादि की, यावज्जीवमेसान्तरनपःकर्ता वा । ग्लाना=व्या. ध्यादिभिरशक्तः । द्वितीयरयावान्तरमत्रस्याप्यर्थः पूर्ववदेव बोध्यः । विगे परत्वयुक्त होना यह प्रथम स्थान - कारण है आचार्यका वैयावृत्य करनेवाला धर्मापग्रह करनेवाली वस्तुओं मारा भक्तादिकों द्वारा उपग्रह करनेवाला इसी प्रकारले सत्र प्रदाता उपाध्यायकी अग्लान भावसे वैधावृत्ति करनेवालार संघम मार्गस शिथिल बने हुए या उस मार्गसे चलायमान हुए साधुजनों को पुनः संयम मार्गमें स्थिर करनेवाले स्थविरकी अथवा जन्म से ६० वर्षकी दीक्षापर्यायवाले एवं श्रुतकी अपेक्षा स्थानाग और समवापाडके धारी स्थविर जनकी वैयावृत्ति करनेवाला३ मासक्षपण आदिती तपस्या करने थाले अथधा-यावज्जीव एकान्तर तप करनेवालेकी वैयावृत्ति करनेवाला और ग्लानकी व्याधि आदिसे अशक्त सुनिकी वैयावृत्ति करनेवाला५ श्रमण निर्घन्ध महा निर्जरावाला और महापर्यवसानवाला होता है। ऐसा इस कथनका सारांशा है। ન આચાર્યની વૈયાવૃત્ય કરનાર એટલે કે ધર્મોપગ્રેડ કરનારી વસ્તુઓ દ્વારા આહાર પાણી આદિ દ્વારા ઉપગ્રહ કરનાર શ્રમણ નિગ્રંથ મહાનિર્જરાવાળા અને મહાપર્યવસાનવાળો બને છે એ જ પ્રમાણે સૂત્ર પ્રદાન કરનાર ઉપાધ્યાયની અગ્લાન ભાવે સેવા કરનાર, સયમ માર્ગેથી ચલાયમાન થયેલા સાધુઓને ઉપદેશ દ્વારા ફરી સંયમ માર્ગ સ્થિર કરનાર સ્થવિરોનું અગ્લાનભાવે વૈયાવૃત્ય કરનાર, અથવા ૬૦ વર્ષની ઉમર જેણે વ્યતીત કરી નાખી છે એવા સ્થવિરેનું વૈયાવૃત્ય કરનાર અથવા સ્થ નાંગ, સમવાયાંગ આદિ શ્રતધારી સ્થવિરેનું વૈયાવૃત્ય કરનાર શ્રમણ નિગ્રંથ મહાનિર્જરાવાળો અને મહાપર્યવસાનવાળે બને છે. મા ખમણ આદિ તપસ્યા કરનારનું અથવા આજીવન એકાન્તર તપ કરનારનું તથા ગ્લાન-બીમ ૨ સાધુનું વૈયાવૃત્ય કર નાર શ્રમણ નિથ પણ મહાનિર્જરાવાળે અને મહાપર્યવસાનવાળો હોય છે मा थनना सारांश छे-(१) मायाय नु, (२) अध्यायनु, (3) स्थविर्नु, (४) त५२वीनु, मने (५) व्याधिय साधुन मानावे વૈયાવૃત્ય કરનાર શ્રમણ નિગ્રંથ મહાનિર્જરાવાળો અને મહાપર્યવસાનવાળે (अधुनमा ) गने छे. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभा टीका स्था०५ उ०१ मु०१० निग्रंथानां महानिर्जरादिप्राप्तिकारणम् ५५५ यम्-शैक्षा अभिनवः साधुः । कुलम् एकगुरुकशिष्यसमुदायरूपम् । गण = कुलसमुदायः । सधोगपसमुदायः । साधर्मिकः-मुखनिवद्धसदोरकमखवत्रिकत्वादिलिङ्गतः समानश्रद्धाप्ररूपणादिरूपप्रवचनतश्च समानधर्मा । इति । अनेन अवान्तरसूत्रद्वयेन आभ्यन्तरतपोभेदात्मकं दशविधं वैयावृत्त्यं पतिपादितम् । तदुक्तमन्यत्रापि " आयरिय उवज्झाय थेर तवस्सि गिलाण सेहाणं । साहम्मि य कुलगणसंघसंगय तमिह कायध्वं ॥१॥ छाया-आचायोपाध्यायस्थविरतपस्विग्लानशक्षाणाम् । ' . सार्मिककुलगणसंघस्य संगतं तदिन कर्तव्यम् ॥ इति ।। स्थानस्थानिनोरभेदात् स्थानी एवात्र स्थानत्वेनोक्तः इति ॥ सू० १०॥ पुनश्च-इन पांच स्थानरूप कारणों से भी श्रवण निर्ग्रन्थ महानिर्जरावाला एवं सहापर्यवसानवाला होता है, जैसे-अग्लान भावसे शैक्षकी-नवीन शिष्यकी वैयावृत्ति करनेवाला १ अग्लान साबसे कुलकी-एवं गुरुके शिष्य समूहकी वैयावृत्ति करनेवाला २ अग्लानभावले गणकी ३ कुल समुदायकी वैयावृत्ति करनेवाला अग्लान भावसे संघकी ४-गणसमुदायकी वैयावृत्ति करनेवाला और आग्लान भावसे मुखनिधद्धसदोरक मुखस्त्रिकादि लिङ्ग से एवं समान श्रद्धा तथा प्ररूपणा आदि रूप समान धर्मों वाले मुनिजनोंकी वैयावृत्ति करनेवाला श्रमण निश्च महा निर्जराबोला और - महापर्यवसानवाला होता है, अर्थात् अपुनर्जन्मा होता है । इस अवान्तर वन्यसे आभ्यन्तर तएका भेद जो वैयावृत्य तप है, उसके ये १० अद प्रतिपादित हुए हैं। अन्यन्न सी ऐसाही कहा गया है-- નીચેનાં પાંચ સ્થાનરૂપ કારણોને લીધે પણ શ્રમણ નિથ મહાનિર્જરા. વાળે અને મહાપર્યવસાનવાળે થાય છે –(૧) અશ્કાન ભાવે શૈક્ષનું (નવ દીક્ષિતનું) વૈયાવૃત્ય કરવાથી, (૨) અલાન ભાવે કુલનું (એક જ ગુરુના શિષ્ય સમૂહનું) વૈયાવૃત્ય કરવાથી, (૩) અગ્લાન ભાવે ગણનું (કુલસમુદાયનું) વિયાવૃત્ય કરવાથી, (૪) અગ્યાન ભાવે સંઘનુ ( ગણસમુદાયનું) વૈયાવૃત્ય કરવાથી, (૫) અગ્લાના ભાવે મુખનિબદ્ધ સદરક મુખત્રિકાદિ લિંગથી અને સમાન શ્રદ્ધા તથા પ્રરૂપણ આદિ રૂપ પ્રવચનથી સમાન ધર્મોવાળા મુનિજનેનું વૈયાનૃત્ય કરનાર શ્રમણ નિર્ગથ મહાનિર્જરાવાળા અને મહાપર્યવસાનવાળે (अधुनमा ) मन छ આ બે અવાતર સૂત્રો દ્વારા આભ્યન્તર તપના બે ભેદ રૂપ જે પૈયાત્ય તપ છે, તેના ૧૦ લેનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે. કહ્યું પણ છે કે– Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ५५६ श्रमणो निर्ग्रन्थो यैः स्थानः साम्भोगकान साधर्मिकान विसंमोगिकान् पाराञ्चितकां कुर्वाण आज्ञाया विराधको न भवतीति तानि स्थानान्याह — मूलम् - पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसं भोइ यं करेसाणे णाइकमइ, तं जहा सकिरियद्वाणं पडिसेवित्ता भवड़ १, पडिसेवित्ता णो आलोएड २, आलोइना णो पट्टवेई ३, पट्टवित्ता णो णजिइ ४, जाई इमाई थेराणं ठिड़कप्पाई भवति ताई अयंचि २ डिसेबेइ से हृदऽहं पडिलेवामि किं मं थेरा करिस्तंति ? || पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं पारचियं करेमाणे णाइकमइ, तं जहा सकुले वसइ सकुलस्स भेषाए अन्सुहिता भवइ १, गणेवसइ गणस्स भेयाए अच्युता भइ २, हिंसपेही ३, छिप्पेही ४, अभिक्खणं २, परिणाययणाई परंजिता भवइ २ ॥ सू० ११ ॥ " छाया - पञ्चभिः स्थानैः श्रमणो निर्ग्रन्थः साधर्मिकं सांभोगि विसांमोगिकं कुर्राणो नाविक्रामति, तथथा सक्रियस्थानं प्रतिसेविता भवति १, प्रतिसेव्य नो आलोचयति २, आलोच्य नो प्रस्थापयति ३, प्रस्थाप्य नो निर्विशति ४, यानि इमान स्थविराणां स्थितिकल्प्यानि भवन्ति तानि अतिक्रम्य २ प्रति - " आयरिय उवज्ञाय 19 इत्यादि । आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, सावर्मिक, कुल, गण और संघ इनकी वैयावृत्ति करने से वैयावृत्य तप १० प्रकारका होता है । यहाँ स्थान और स्था नीमें अभेद होने की विवक्षा से स्थानीकोही स्थानरूपसे कहा गया है। सू१०॥ “ आयरिय उत्रज्झाय " इत्यादि -- वैयावृत्य तपना १० लेट नीचे प्रभाशे छे – (१) मायार्यनुं, (२) उपाध्यायनु, (3) स्त्रविरनु, (४) तपस्वीलु, (4) ग्याननु' ( व्याधिग्रस्तनु ), (६) शैक्षनु ( नवहतीक्षितनु ), (७) साधभिज्नु, (८) सनु, (८) गथुनु भने (१०) सौंधनु, भाइस प्रकार वैयावृत्य કહ્યું છે. અહીં સ્થાન અને સ્થાયી વચ્ચે અભેદ માની લઈને સ્થાનીને જ સ્થાનરૂપે કહેવામાં આવેલ છે. ! સૂ॰ ૧૦ | Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टी. स्था. ५ उ १ सू.११ आशायाऽविराधककाणम् सेवते, तत् हन्त ! अहं पतिले वे किं मां स्थविराः करिष्यन्ति ? ||५|| पञ्चभिः स्थानः श्रमणो निर्ग्रन्थः साधर्मिकं पाराश्चितं कुर्वाणो नातिकामति, तद्यथास्वकुले वसति रदकुलस्य भेदाय अभ्युत्थाता भवति १, गणे वसति गणस्य भेदाय अभ्युत्थाता भवति २, हिंसाप्रेक्षी :, छिद्रप्रेक्षी ४, अभीक्ष्णं २ प्रश्नायतनानि प्रयोक्ता भवति ५ ॥सू०११॥ • टीका-पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि । पञ्चभिः स्थानः कारणैः श्रमणो निग्रन्थः साधर्मिक-समानधर्माणं सांभोगिकम् एकमण्डलस्थितं समानसामाचारीमुक्तं साधु वितांमोगिकं-मण्डलीवायं कुर्माणः नातिकासति-जिनाज्ञां नो ल्लङ्घयति । तद्यथा-तान्येव स्थानान्याह-सक्रियस्थानम्-क्रियया सहितं स जिन कारणों से श्रमण निन्थ लामोगिक सार्षिक साधुओंको विलासोगिक (संभोगने अलग करना) करते हैं, उन कारणों को सूत्रकार कहते हैं-'पंचहिं ठाणेहिं सक्षणे णिग्गंधे साहन्मियं संभोइयं इत्यादि टीकार्थ-इन पांच कारणों को लेकर साधर्मिक किसी सांभोगिक साधुको यदि विसांभोगिक कर दिया जाता है, तो करनेवाला जिलाज्ञाका उल्लइनका नहीं होता है, अर्थात् एक मंडलमें स्थित समान समाचारी युक्त जो साधु है, वह साधर्मिक लाभोगिक कहा गया है, इसे यदि दिलांभोगिक-मंडलीसे बाहर कर दिया जाता है, तो ऐसा करने में ये पांच कारण हैं, इन कारणोंले उसे मंडली से बाहर करनेवाला जिना ज्ञाका विराधक नहीं होता है, उन पांच कारणों में एक कारण ऐसा है, જે કારણોને લીધે શ્રમણ નિગ્રંથ સાનિક સાધર્મિક સાધુઓને વિસાનિક ( સ ભોગથી અલગ કરવો તે) જાહેર કરવામાં આવે છે, તે કારણોનું હવે સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે– ___“पंच हि ठाणेहि समणे णिग्गंथे साहम्मियं सभोइयं ” त्या. ટીકા-નીચેના પાંચ કારણોને લીધે કોઈ પણ સાધર્મિક સાંગિક સાધુને વિસાંગિક જાહેર કરવામા આવે, તે એવું કરનાર જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતો નથી એટલે કે એક જ મંડળમાં– અણુમાં રહેલા સમાન સમાચારી યુક્ત જે સાધુઓ છે તેમને સાધર્મિક સાગિક કહે છે. નીચેના પાંચ કાર ને લીધે કઈ પણ સાગિક સાધુને વિસામે ત્રિક જાહેર કરી શકાય છે, એટલે કે મડળ અપવા ગણમાંથી કાઢી મૂકી શકાય છે. આ પ્રકારે તેને વિસાંગિક જાહેર કરનાર જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણને નથી. તે પાચ કારણે Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ स्थानाङ्गसूत्रे क्रियं-प्रस्तावादशुभकर्मवन्धयुक्तं स्थानम्-प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेविता भवतीति प्रथमं स्थानस् १। प्रतिसेव्य-सक्रियस्थानस्य सेवन कृल्या, न आलोचयति गुरवे न निवेदयतीति द्वितीय स्थानम् । आलोच्य-गुरूवे निवेद्यापि तदपदिष्टं प्रायश्चित्तं नो प्रस्थापयति=कर्तुं नैवारभते, इति तृतीय स्थानम् ३। प्रस्थाप्य= गुरूपदिष्टं प्रायश्चित्तमारभ्यापि नो निर्विशति-समग्रं नो परिपालयति, इति चतुर्थ स्थानम् ४ । तथा यानि इमानि गच्छप सिद्धानि स्थविराणां स्थविर कि यदि उस लाधुने " सक्रियस्थान प्रतिसेविता भवति"१ अशुभ फर्मका बन्ध जिस स्थानले-कारणले होना है, ऐसे कारणका सेवन कर लिया है, प्रायश्चित्त स्थान का वह प्रतिसेवन करनेवाला बन गया है, तो वह इस स्थिति में विसांभोगिक कर दिया जाता है, ऐसा यह प्रथम स्थान है, दूसरा स्थान-" प्रतिसेव्य नो आलोचयति" सक्रिय स्थानका सेवन करके भी जो उसकी बह आलोचता नहीं करता है, तो ऐसी स्थिति में भी वह चिलाभोगिक कर दिया जाता है, २। गुरुले निवेदन करना इसका नाम आलोचना है। तृतीय कारण ऐसा है "आलोच्य नो प्रस्था० " गुरूसे निवेदन करने पर भी उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चि तको जो प्रारम्भ नहीं करता है, ऐसी स्थितिम यह चिसांभोगिक कर दिया जाता है। चतुर्थे कारण ऐसा है “प्रस्याप्य नो निर्वि" गुरु प्रदत्त प्रायश्चित्तको प्रारम्भ करकेभी जो उसे पूर्ण रूपसे नहीं पालता है, ऐसी स्थिति भी बह विसांभोगिक कर दिया जाता है। नाये प्रभारी छ-(१) से ते साधु “ सक्रियस्थान प्रनिसेविता भवति" જે કારણે અશુભ કર્મને બધું થતું હોય એના કારણનું એટલે કે દુષ્કૃત્યનું પ્રતિસેવન કર્યું હોય, તે તેને વિસાંગિક જાહેર કરી શકાય છે. (૨) " प्रतिसेव्य नो आलोचयति ” सठिय स्थान-त्यतुं सेवन ४३२ ५५ ने તે તેની આલેચના ન કરે, તો તેને વિસ ભગિક જાહેર કરી શકાય છે કૃત ५।५४मन शुरु समक्ष २ २ तेनु नाम सायना छे. (3) " आलोच्य नो प्रस्था० " गुरुनी पासे सावायत। ४२ डाय ५ शुरु २२ प्रायશ્ચિત્ત આપવામાં આવ્યું હોય તે પ્રાયશ્ચિત્ત લેવાને પ્રારંભ ન કરનાર સાધ भि समाजिक साधुने ५Y विमोies १२ ४२ शय छे. (४) " प्रस्थाप्य नो निर्वि" गुरु द्वारा रे प्रायश्चित ४२ानु सूयन रायु डाय, ते પ્રાયશ્ચિત્તને પ્રારંભ તો કરવામાં આવે, પણ જે તેનું પૂર્ણ રૂપે પાલન કરવામાં ન આવે, તે પ્રાયશ્ચિત્તનું પૂર્ણ રૂપે પાલન નહીં કરનાર સાધુને વિસાંભોગિક જાહેર કરી શકાય છે. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५ उ०१ सू०११ आशायाऽविराधककारणम् ५५९ कल्पिकसाधूनां स्थितिप्रकल्प्यानि-स्थितौ सामाचार्या प्रकल्प्यानि आसेवनीयानि विशुद्धपिण्डशय्यामनादीनि, यद्वा-स्थिति: मासकल्पादिरूपा, प्रकल्प्यानिच विशुद्वपिण्डशय्यासनादीनि-भवन्ति, तानि अतिक्रस्य अतिक्रस्य प्रति पांचवां कारण ऐलाहै-'यानि इमानि स्थविराणां स्थिति कल्प्यानि" गच्छ प्रसिद्ध स्थविर कल्पिक साधुओंके स्थिति प्रकल्पयोंको यदि वह बार २ अतिक्रमण करके अन्य अकल्पयका सेवन करताहै, तो ऐसी स्थितिमें भी वह विमा भोगिक कर दिया जाता है, तात्पर्य कहनेका यही है, कि जिस कारणले उस्ले प्रायश्चित्त लेला पडे ऐसे प्रायश्चित्ताह कारणका जब कोई सांभोगिक साधु प्रनि सेवन करनेवाला होता है, सक्रिय स्थानकी प्रतिसेवना करके भी यदि वह गुरूसे निवेदन नहीं करता है, निवेदन करके भी यदि वह गुरू द्वारा कथित प्रायश्चित्तका सेवन करना प्रारम्भ नहीं करता है, प्रायश्चित्तका सेवन करना प्रारम्भ करके भी यदि वह उसे पूर्णरूपले नहीं पालताहै, और अच्छप्रसिद्ध स्थविर कल्पिक माधुओंकी स्थिति में सामाचारीमें आलेखनीय विशुद्ध पिण्डशच्या आ सन आदिकोंको यहा-मासकल्पोदि रूप स्थितिको और विशुद्ध पिण्डशय्या आनन आदिकोंको बार २ उल्लङ्घन करके साधुजनके लिये अकल्प्य आचारका सेवन करता है, तो वह इस स्थितिमें विसांभो हवे पाय ॥२६ अट ४२वामा मावे छ-" यानि इमानि स्थवि राणां स्थितिकल्प्यानि" २७प्रसिद्ध स्थविर ४५४ साधुसाना स्थितियानु જે તે વારંવાર ઉલ્લંઘન કરે છે–એટલે કે સાધુઓને માટે જે અકલય ગણાય એવા આચારને વારંવાર સેવન કરે છે, તે તેને વિસાંગિક १२ '४ सय छे. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે જે કારણે તેને પ્રાયશ્ચિત્ત લેવું પડે. એવા પ્રાયશ્ચિત્તના કારણભૂત સ્થાનનું (દુષ્કૃત્યનું) જે કઈ સાધુ પ્રતિસેવન કરનારે હોય છે, સક્રિય સ્થાનનું પ્રતિસેવન કરવા છતાં પણ જે ગુરુ પાસે તેની આલેચન કરતો નથી, આલોચના કરવા છતાં પણ જે ગુરુ દ્વારા પ્રદત્ત પ્રાયશ્ચિત્તનું સેવન કરવાને પ્રારંભ કરીને જે તેનું પૂર્ણરૂપે પાલન કરતો નથી, અને ગચ્છપ્રસિદ્ધ સ્થવિરકદિપક સાધુઓની સ્થિતિમાં-સમા. ચારીમાં સેવનીય વિશુદ્ધ પિંડશય્યા આસન વગેરેનું અથવા માસકમ્પાદિ રૂપ સ્થિતિનું અને વિશુદ્ધ પિંડ, શય્યા, આસન આદિ કેનું જે વારંવાર ઉલંઘન કરીને સાધુઓને માટે અકથ્ય ગણાય એવા આચારોનું સેવન કરે છે, તેને વિસાંગિક જાહેર કરી શકાય છે, એટલે કે તેને ગણમાંથી કાઢી Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामसूत्रे =मधु मल्यानि परित्यज्य नदन्यानि सेवते ? इत्याह-' सेहन्द्रऽहं 'म्यादि-हन्त ! अनि सोम याजना कल्यं मतिसेवे, हि मां स्वनिः करिष्यन्ति ? इति । उनि प स्थानम् ५। तथा श्रमणो निर्ग्रन्थः पयेभिः स्वानः सामिकं पाश्चिम= अपहृत लिङ्गादिरूपदममायवित्तमेववन्तं कुणी नाविक्रामति । तया-ता न्येव स्थानाम्यादस्वकुळे - एक कविष्यमुदाने सति मन्नति स्वकुग्भवाय अन्योन्यमधित्यायनेन “फोटना अभ्यु स्थातान्ययत्नशम् सवतीति प्रथम स्थानम वाकुलमुदायरूपे गति बन्न ५६० की स्वास्तीति द्वितीयं जिक कर दिया जाता है "सेपटिसेवासि "जो मापुसा. माचारीके अयोग्य आचारका सेवन करता है उस समय विचार करता है कि मैं जो साधुजनों लिये करता है, तो इस पर मेरे गुरुजन वे क्या कर सकते है। पुनव्य-य निर्ब्रन्थ पांव को सार्मिक साधुको पातिर देना है कि जिसमें साधुकालि लिया जाता है, कर देता है नमें वह जिनालाका विराधकहीं होता है, ये ऐसा सेवन ܕ यदि किसी तवाय करने पांच कारण इस प्रकार से हैं- "स्वमस्य सदाय अभ्युत्याना भवति १ एक गुम्वा समुप अपने में रहना हुआ भी जो उम कुलको भिन्न २लिये परस्परमिति आदिप कलहके उत्पादन में प्रयत्नशाली होता है अर्थात् संघ छेदમૂકવામા આવે છે તે માધુ ત્યારે સમચારીને માટે અર્થગ્ય ગણી શકાય એવા આચારેનુ સેવન કરે છે ત્યારે તેના મનમાં એવે વિચાર થાય છે "से हदs पडि सेवामि " ઇત્યાદિ-હું સાધુએને માટે અપેાગ્ય ગણુાય એવા આચારાનું સેત્રન કરૂ છુ', પશુ મારા ગુરુ મને શું કરી શકવાના છે? નીચેના પાંચ કારણેાને લીધે કેઈ સાધર્મિક સાધુને પાાંચિત કરી ઢવામાં આવે તેને સાધુ વેષ છેડાવી દેવામાં આવે તે એમ કરનાર જિતા જ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. સાધુને પરાંચિત કરવા ચેગ્ય કારણેા નીચે प्रभा ४श्रां छे-(१) स्वकुळेवमति वकुलस्य भेदाय अभ्युरवाप्ता भवति " એક જ ગુરુના સમુદાય રૂપ પેાતાના કુળમા રહેવા છતા પ! જે સાધુ તે કુળને છિન્નભિન્ન કરાવવાની પ્રવૃત્તિ કરતા ય-પરસ્પરમાં કલહના ખીજ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधारीका स्था०५ उ०१ सू०१२ आशायाऽघिराधिककारणम् ५६१ स्थानम् २। तथा-हिंसाप्रेक्षी-हिंसां आचार्यादेवधं प्रेक्षते अन्वेषयति यः सः, आचार्यादे बंधार्थमयसरगरेपीत्यर्थः । इति तृतीय स्थानम् ३। बधा-छिद्रप्रेक्षीछिद्राणि-प्रमत्ततादीनि प्रेक्षते यः सः, धामपमानार्थ वा आचार्यादेछिद्र. गवेषक इत्यर्थः । इति चतुर्थ स्थानम् ४॥ तथा-अभीक्ष्णम् अभीक्ष्णम्-पुनः पुनः प्रश्नायतनानि-प्रश्ना-अङ्गुष्ठकुडयप्रश्नादयः सायद्यानुष्ठानपृच्छया चा, त एव आयतनानि असंयमानां स्थानानि तानि प्रयोक्ता-अनुष्ठाता भवतीति पश्चम स्थानम् ५ इति ॥१० ११॥ भेद करनेवाला १। द्वितीय कारण-"गणे वसति गणस्य भेदाय अभ्युस्थाता भवति २"ऐसा है, कि जो कुल समुदाय रूप गणमें रहता हुआ भी उत्ती गणको छिन्नभिन्न करनेके लिये प्रयत्नवाला होताहै, २। तीसरा कारण-"हिंसाप्रेक्षी" ऐसा है-कि जो अपने आचार्य आदिके वध करनेके अवसरकी प्रतीक्षामें रहता है, ३। चतुर्थ कारण-" छिद्रपेक्षी" ऐसा है. कि जो आचार्य आदिके वधके लिये या उन्हे अपमानित करनेके लिये उनके प्रसत्तता आदि छिद्रोंकी गवेषणा करने में लगा रहता है, पांचवां कारण-" अभीक्ष्णं २ प्रश्नायतनानि प्रयोक्ता भवति" ऐसा है, कि जो बार २ अङ्गुष्ठकुड्यप्रश्नादि रूप या सावध अनुछान पृच्छारूप असंयम स्थानोंका अनुष्ठाता होता है ५। इन पांच कारणोंसे साधर्मिक साधुको पाराश्चित करनेवाला जिनोज्ञाका विराधक नहीं होता है॥० ११ ॥ पतडाय, तेने पायित ४१ शय छ (२) “गणे वसति गणस्य भेदाय अभ्यु थाता भवति" (सना समूडने र ४ छ) रे साधु गाभा २हीन, ગણને જ છિન્નભિન્ન કરવામાં પ્રયત્નશીલ રહે છે, તેને પણ પારાંચિત કરી शय छे. (3) "हिंसाप्रेमी" २ साधु पाताना माया माहिना १५ કરવાના અવસરની પ્રતીક્ષામાં રહે છે, તેને પણ પારાંચિત (સાધુના લિંગથી २हित ) श शायछ. (४) “छिद्र क्षीरे साधु मायाय माहिन अ५માનિત કરવાને માટે તેમના છિદ્રો જ-પ્રમત્તતા આદિ દે જ શોધ્યા કરે छे, ते ५५ पायित ४३१ शय छ (५) “ अभीक्ष्णं २ प्रश्नायतनानि प्रयोक्ता भवति "रे साधु पार :२ अY४४७५ प्रश्न ३५ अथवा सावध અનુષ્ઠાન પૃચ્છારૂપ અસંયમ સ્થાને અનુછાતા હોય છે, તેને પણ પારાં ચિત કરી શકાય છે આ પાંચ કારણોને લીધે સાધર્મિક સાધુને પારાંચિત કરનારે શ્રમણ નિર્ચ થ જિનાજ્ઞાને વિરાધક બનતો નથી. છે સૂ. ૧૧ છે स्था०-७१ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tra म्यामागम आचागपाध्याययोगणे यथा पा व्युदयरस्थानानि पञ्च अच्युग्रहस्था. नानि च भवन्ति, नानि प्राद-~ मृलम्-मायरिय उवज्झायस्त णं गणंमि पंचवुरगदाणा पण्णता, तं जहा-आयरियउवझापणं गर्णनि आणं वा धारणं वा नो सम्म पउंजित्ता भरड १, आयरिय यज्झाय गं गणसि आहाराइणियाए किइकम्मं नो गुम्मं पउंजिना भवइ २, आयरिय उवज्झाए गणसि जे उत्तपनवजाए धाग्इ ने काले काले णो लम्समणुष्पवाइत्ता नवइ ३, आयरिय उवमा गणंति गिलाणसेहवेयावचं नो सम्ममभुष्ट्रिता भवड़, 2 आवरियउबज्झाए गणलि अणापुच्छ्यिचारी यावि हवइ. नो आपुन्छिय. चारी ५। आयरियउबज्झायरस णं गर्णसि पंच अवुरगहटाणा पण्णता, तं जहा-आयरिय उज्झाए गणमि आणं वा धारण वा सम्म पउंजित्ता भवइ, एवं आहाराइणियाए सम्म किइकम्न पउंजित्ता भवइ २, आयरिय उवज्झाए णं नणंसि जे सुयपज्जवजाए धारेइ ते काले काले सम्मं अणुप्पबाइत्ता भवइ ३, आयरिय उवज्झाए गणंसि गिलाणसेहरयावच्चं नम्नं अम्भुद्वित्ता भवइ ४, आयरियउवज्झाए गणसि आपुच्छियचारी यावि भवइ णो अणापुच्छियचारी ६॥ सू० १२ ॥ छाया-आचार्योपाध्यायस्य खलु गणे पञ्च व्युद्यहस्थानानि प्रजातानि, तद्यथा-आचार्योपाध्यायं खलु गणे आज्ञा वा धाग्णां वा नो सम्यक् प्रयोक्त भवति १, आचार्योपाध्यायं खलु गणे यथारानिकतया कृतिम नो सम्यक् प्रयोक्त भवति २, आचार्योपाध्यायं गणे यानि श्रुतपर्यवनातानि धारयति तानि काले काले नो सम्पर अनुपावाचगि भवति ३, आचार्योपाध्यायं गणे Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५३०१ सू०१२ पञ्च विग्रहस्थानादिनिरूपणम् ५६३ ग्लानशैक्षवैयावृत्यं नो सम्यक् अभ्युत्थात् भवति ४, आचार्योपाध्याय गणे अनापृच्छयचारि चापि भवति नो आपृच्छयवारि ५। आचार्योपाध्यायस्य खल्ल । गणे पञ्च अव्युद्ग्रहस्थानानि, तद्यथा-आचार्योपाध्यायं गणे आज्ञा वा धारणा वा सम्यक् प्रयोक्त भवति १, एवं यथारानिकतया सम्यक कृतिकने प्रयोक्त भवति २, आचार्योपाध्यायं खलु गणे यानि श्रुतपर्यवजातानि धारयति तानि काले काले सम्यक् अनुप्रवाचयित भवति ३, आचार्योपाध्यायं गणे ग्लानशैक्षवैयावृत्त्यं सम्यक् अभ्युत्थातृ भवति ४, आचार्योपाध्यायं गणे आपृच्छयचारिचापि भवति नो अनापृच्छयचारि ५ ॥१० १२॥ टीका-'आयरिय उवज्झायल्स' इत्यादि आचार्योपाध्यायस्य-आचार्यश्च उपाध्यायश्च-आचार्योपाध्यायं, समाहारद्वन्द्वः, तस्य आचार्यख्य उपाध्यायस्य च खलु निश्चयेन पञ्च व्युद्ग्रहस्थानानि-विग्रहस्थानानि कलहोत्पादकानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-तान्याह-आचार्योपाध्यायम्-आचार्य उपाध्यायश्च पृथक पृथक् समुदितो वा गणेगणविपये आज्ञाम्-'हे सुने ! भवतेदं विधेयम् ' इत्येवं रूपाम्, यद्वा-देशान्तरस्थ गीतार्थनिवेदनाय अगीतार्थस्याने गीतार्थों गूढार्थपदैयदतिचारनिवेदनं करोति सा आज्ञा, तां तथाभूतामाज्ञाम् , वा-अथवा धोरणाम्-' नेद विधेयम् ' इति रूपाम् , असकृदालोचनादानेन आचार्य और उपाध्यायके गणमें जैसे पांच व्युग्रह (क्लेश)के स्थान होते हैं वैसेही पांच अज्युग्रहके ली स्थान होते हैं, इसी यातको अप सूचकार कहते हैं-'आयरिय उक्झायमणं गणसिइत्यादि सूत्र १२॥ टीकार्थ-यहां आचार्य और उपाध्यायमें समाहारवन्द्व समास है, इन आचार्य और उपाध्यायके गणमें पांच व्युत्ग्रह स्थाल विग्रहके स्थान कलहको उत्पन्न करनेवाले कारण कहे गये हैं, उनमें प्रथम कारण-"आ. चार्योपाध्यायं खलु गणे आज्ञा वा धारणां वा नो सम्यक् प्रयोक्त भवति ' આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના ગણમાં ચુદ્રગ્રહના (કલેશન) જેમ પાંચ સ્થાન હોય છે, એ જ પ્રમાણે અબુદુગ્રહના (અકલેશન) પણ પાંચ સ્થાન હોય છે, એ જ વાતને હર્યું સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. ---" आयरिय उवज्झायस्व ण गणंसि" त्याहઆચાર્ય ઉપાધ્યાય અહી સમાહાર દ્રસમાસ રૂપે વપરાયેલ છે. આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના ગણમાં પાંચ યુદ્ગ્રહસ્થાન એટલે કે કલહ ઉત્પન્ન કરનારા કારણે કહ્યા છે. તેમાંનું પહેલું કારણ નીચે પ્રમાણે છે— " आचर्योपाध्यायं खलु गणे आज्ञा वो धारणा वा नो सम्यक् प्रयोक्त भवति " Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामात्र यत् मायश्चित्तविशेपावधारणं सा धारणा तां वा नो नैव सम्यक् याथातथ्येन प्रयोक्त भवति । इति प्रथम स्थानम् ११ तशा-आचार्योपाध्यायम् गणे, यथा. रानिकतया-रत्नानि द्रव्यतो भावतश्च द्विधा । तत्र--रन्नानि द्रव्यनः कर्कतना१ ' पृथक् पृथक जो आचार्य और उपाध्याय अथवा समुदित जो आचार्य उपाध्याय गणमें गणके विषयमें आज़ाको-" हे मुने ! आपको यह करना चाहिये " इस प्रकारकी आज्ञाहो यदा-देशान्तरस्थ किसी गीतार्थले निवेदन करने के लिये-" अगीतार्थके आगे जो गीतार्थ गढार्य पदों द्वारा जिस अतिचारका निवेदन करता है" ऐसी आज्ञाको अथवा धारणाको-" यह तुम्हें नही करना चाहिय" इन रूप धारणाको धारवार आलोचना देनेले जो मायश्चित्त विशेषका अवधारण है, वह धारणा है, इस धारणाको अच्छी तरह से प्रयोक्ता कगनेवाला नहीं होता है, मुनि जनोंसे पालन करानेवाला नहीं होता है, उस आचार्य और उपाध्याय के गणमें कलहको उत्पन्न करानका यह प्रथम कारण है। द्वितीय कारण-" आचार्योपाध्यायं ग्वट गणे यथा रानिपतया कृतिकर्म नो सम्यक् प्रयोत्तृ भवति २ " ऐसा है, कि जो आचार्य या उपाપૃથક પૃથફ જે આચાર્ય અને ઉપાધ્યાય અથવા સમુદિત જે આચાર્ય ઉપાધ્યાય ગણમાં ગણના વિષયમાં આજ્ઞાનું અથવા ધારણાનું પાલન કરાવનારા હોતા નથી, તે આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના ગણમાં કલહ થવાની સંભાવના રહે છે. આ રીતે આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયની તેમની આજ્ઞા અથવા ધારણાનું પાલન કરાવવાની અશક્તિ તેમના ગણમા કલ ઉત્પન્ન કરવામાં ४२भूत गने छ. " उ भुनि! तमारे या प्रमाणे ४२ मे , " तेनु નામ આજ્ઞા છે અથવા દેશાન્તરસ્થ કઈ ગીતાર્થ સાધુ સમક્ષ નિવેદન કરવાને માટે અગીતાર્થની સમક્ષ ગીતાર્થ ગૂઢાર્થ પદે દ્વારા જે અતિચારનું નિવેદન કરે છે, તેનું નામ આજ્ઞા છે. ___" या तमा न ४२७ मे," तेनु नाम धारणा छ. 24441 વારંવાર આલોચના દેવાથી જે પ્રાયશ્ચિત્ત વિશેષનું અવધારણ થાય છે તેનું નામ ધારણા છે. આ પ્રકારની આજ્ઞા અને ધારણાનું પિતાના ગણના સાધુઓ પાસે પાલન ન કરાવી શકનાર આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના ગણમાં કલહ ઉત્પન્ન થાય છે. भीभु १२४ नी२ प्रभारी है-" आचार्योपाध्यायं स्लु गणे यथारनि इत्तया कृतिकर्म नो सम्यक् प्रयोक्त भनति " २ माया मा अध्याय Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ सुधा टीका स्था० ५ ०१ सू०१२ पञ्चं विग्रहस्थानादिनिरूपणम् दीनि, भावतो ज्ञानादीनि अत्र भावरस्नाधिकाराद रत्नैः=ज्ञानादिभिः व्यवहरतीति रात्निकः, तम् अनतिक्रम्य यथारात्निकं, तस्य भावस्तत्ता तया पर्यायज्येष्ठानुसारेणेत्यर्थ, कृतिकर्म-वन्दनकं न सम्यक् प्रयोक्तृ - अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् प्रयोजयितृ भवतीति द्वितीयं स्थानम् २ | तथा - आचाचेपिाध्यायं यानि श्रुतपर्यवजातानि= सूजार्थप्रकारान् सूत्रभेदान् धारयति - अवगच्छति तानि काले काले = यथावसरं नो सम्यक् प्रवाचयितृ=पाठयि भवतीति तृतीयं स्थानम ३, सम्प्रति ' आचार्येण उपाध्यायेन च कस्मै कस्य सूत्रस्य अनुमवाचनादातच्या ' इति प्रोच्यते । तथाहि त्रिवर्षपर्यायेभ्यः साधुभ्य आचारकल्पनामाध्याय अपने गण में पर्याय ज्येष्टके अनुसार बन्दना आदि कृतिकर्मका सम्यक् रीति से प्रयोक्ता-फरानेवाला नहीं होता है, उस आचार्य उपा ध्यायके गणमें कलहको उत्पन्न करानेवाला यह द्वितीय कारण है २ । तृतीय कारण ऐसा है- "आचार्योपाध्यायं गणे यानि श्रनपर्यवजातानि धारयति तानि काले काले नो सम्यक् अनुप्रवाचयिता भवति ३ " हि जो आचार्य और उपाध्याय जिन श्रुतपर्ययजनों को सूत्रार्थ प्रकारोंकोसूत्र भेदोंको जानता है, उनको वह यदि समय २ पर अच्छी तरह से अपने शिष्यों नहीं पाता है, तो इससे भी आचार्य या उपाध्याय के गणमें कलहको उत्पन्न करानेवाला यह तृतीय कारण है, अब आचार्य और उपाध्यायको किस शिष्य के लिये किस सूत्रकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये, यह प्रकट किया जाता है-तीन वर्षकी जिसकी दीक्षा हो गई है, ऐसे साधुके लिये आचारकल्प नामक अध्यપેાતાના ગણુમા દીક્ષાપર્યાયની અપેક્ષાએ જ્યેષ્ઠતા અનુસાર વણા આદિ કૃતિક નુ સારી રીતે પાલન કરાવનારા હાતા નથી, તેમના ગણુમાં કલહુ ઉત્પન્ન થવાને! સંભવ રહે છે. त्रीनु ४२ - " आचार्योपाध्यायं गणे यानि श्रुतपर्यवजातानि धारयति तानि काले काले नो सम्यक् अनुश्वाचयितो भवति " के मायार्य अने या ધ્યાય જે શ્રુત પર્યં વાતાને-જે સૂત્રા પ્રકારાને-જે સૂત્ર ભેદને જાણે છે, પણ પેાતાના શિચેને ચેગ્ય સમયે તેના સારી રીતે અભ્યાસ કરાવતા નથી, તે આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના ગણમાં પશુ કલહે ઉત્પન્ન થવાના સભવ રહે છે. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે આચાય અથવા ઉપાધ્યાયે કયા શિષ્યને કયારે ઠયા સૂત્રની અનુપ્રવાચના દેવી એઇએ, એટલે કે કયા શાસ્ત્રના અભ્યાસ કરાવવે! જોઇએ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ स्थानासूत्रे ध्ययनस्य अनुप्रवाचना दातव्या । तथा चतुर्वर्षपर्यायेभ्यः सूत्रकृताङ्गस्य, पञ्चवर्षपर्यायेभ्यो दशाकल्पव्यवहाराणाम्, अष्टवर्षपर्यायेभ्यः स्थानाङ्गसमचायाङ्गयोः, दश वर्ष पर्यायेभ्यो भगवतीसुत्रस्य, एकादश वर्षपर्यायेभ्यः क्षुल्लकविमानादीनामध्ययनानाम्, द्वादशवर्षपर्यायेभ्यः अरुणोपपातादीनां पञ्चाध्ययनानाम्, त्रयोदश वर्षपर्यायेभ्यः उत्थानश्रुतादीनां चतुर्णामध्ययनानां चतुर्दशवर्षपर्यायेभ्यः स्वप्नभावनायाः, पञ्चदश वर्षपर्यायेभ्यः चरण भावनायाः, पोडशयनकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये । चार वर्षकी जिसकी दीक्षापर्याय हो गई है, ऐसे साधुके लिये सूत्र कृताङ्गकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये। पांच वर्षकी जिसकी दीक्षा पर्याय हो गई है, ऐसे साधुके लिये दशाकल्प व्यवहारकी अनुप्रवचना देनी चाहिये। जिसकी दीक्षापर्याय आठ वर्षकी हो गई है, ऐसे साधुके स्थानाङ्ग और समवायाङ्गकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये दश वर्षकी जिसकी दीक्षापर्याय हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये भगवती सूत्रकी अनुप्रवचना देना चाहिये। जिसकी दीक्षापर्याय ११ वर्ष की हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये क्षुल्लकविमान आदि अध्ययनों की अनुप्रवाचना देनी चाहिये। जिसकी दीक्षापर्याय १२ वर्षकी हो चुकी है, ऐसे लघुके लिये अरुणोपपात आदि पांच अध्ययनोंकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये । जिसकी दीक्षापर्याय १३ वर्षकी हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये उत्थान शुत समान सूत्र, देविदोपपातानागपरिचार य चार अध्ययनोंकी अनुमाना देनी चाहिये | जिसकी दीक्षा पर्याय १४ वर्ष की हो चुकी हैं, ऐसे साधु के જે શિષ્યની દીક્ષાપર્યાય ત્રણુ વર્ષની હાય, એવા શિષ્યને આચાર ૩૫ નામના અધ્યયનના અભ્યાસ કરાવે જોઇએ ચાર વર્ષની દીક્ષાપર્યાયવાળા શિષ્યને સૂત્રકૃતાંગની અનુપ્રવાચના દેવી જોઇએ. પાંચ વષઁની દીક્ષાપર્યાયવાળા સાધુને દશાકક્ષ વ્યવહારની અનુપ્રાવચના દેવી જોઇએ. આઠ વર્ષની દીક્ષાપર્યાયવાળા સાધુને સ્થાનાંગ સૂત્રની અને સમવાયાંગ સૂત્રની અનુપ્રાવચના દેવી જોઈએ. દસ વર્ષની દીક્ષાપર્યાયવાળા સાધુને ક્ષુલ્લ વિમાન આદિ અય્ય ચાની અનુપ્રાવચના દેવી જોઈએ. ખાર વર્ષની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને અરુણાપપાત આદિ પાંચ અધ્યયનેની અતુપાવચના દૈવી જોઇએ અને તેર વર્ષની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને ઉત્ખન શ્રુત સમુત્થાન સૂત્ર, દેવિદેપાપાત નાગપરિચાર ચારે અધ્યયનાની અનુપ્રવાચના દેવી જોઈએ. જે સાધુને પ્રત્રજ્યા અગીકાર કર્યાંને વર્ષના આ ૧૪ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ सुधा टीका स्था० ५ उ०१० १२ पञ्च विग्रहस्थानादिनिरूपणम् वर्षपर्यायेभ्यस्तेजोनिसर्गस्य सप्तदश वर्षपर्यायेभ्यः आशीविषभावनाया, अष्टादशवर्षपर्यायेभ्यो दृष्टिविपभावनायाः, एकोनविंशतिवर्षपर्यायेभ्यश्च द्वादशाङ्गस्य दृष्टिवादस्यानुप्रवाचना दातव्या । तथा-त्रिशतिवर्ष पर्यायेभ्यश्च सकलमूत्राणामप्रवाचना दातव्या । अयमेवार्थो व्यवहार - त्रस्य दशमोद्देशे प्रोक्तः । इति । तथा - आचार्योपाध्यायं गणे ग्लानशैलवैयावृत्यं प्रति नो स्वयम् सम्यक् अभ्युत्थातृ= प्रयत्नगीलो भवतीति चतुर्थ स्थानम् ४| तथा - आचार्योपाध्यायं लिये स्वप्नभावनाकी अनुप्रवचना देनी चाहिये | जिसकी दीक्षापर्यांय १५ वर्षकी हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये वरणभावनाकी अनुप्रावाचना देनी चाहिये | जिसकी दीक्षापर्याय १६ वर्षकी हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये तेजो निसर्गकी अनुमनाचना देनी चाहिये। जिसकी दीक्षापर्याय १७ वर्षकी हो चुकी है। ऐसे साधुके लिये आशीविष भावनाकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये । जिसकी दीक्षापर्याय १८ वर्षकी हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये दृष्टिविष भावनाकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये। जिसकी दीक्षा १९ वर्षकी हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये द्वादशाङ्ग दृष्टिवादकी अनुप्रवाचना देनी चाहिये । तथा जिसकी दीक्षापर्याय २० वर्षकी हो चुकी है, ऐसे साधुके लिये समस्त सूत्रोंकी अनुप्रवाचना देनी चो हिये । यही अर्थ व्यवहारसूत्रके १० दें उद्देशेमें कहा गया है 1 तथा - चतुर्थ धारण - " आचार्योपाध्यायं गणे ग्लानशैक्षवैयावृत्त्यं नो सम्यक् अभ्युत्थाता भवति ४ " ऐसा है, कि जो आचार्य या સમય વ્યતીત થઇ ગયેા હાય, તે સાધુને સ્વપ્ન ભાવનાની અનુપ્રવાચના देवी लेखे. ૧૫ વર્ષની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને ભગવતી સૂત્રની અને અગિયાર વર્ષની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને ચરણુ ભાવનાની અનુપ્ર વાચના દેવી જોઇએ. ૧૬ વષઁની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને તેમણે નિસગની અનુપ્રવાચના દેવી જોઇએ. ૧૭ વર્ષની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને તેમણે આશી વિષ ભાવનાની અનુપ્રાવયના દેવી જોઈએ. ૧૮ વર્ષની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને તેમણે દૃષ્ટિવિષ ભાવનની અનુપ્રવાચના દેવી જોઇએ. ૧૯ વષઁની દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને દ્વાદશાંગ દૃષ્ટિવાદની અતુપ્રવાચના દેવી જોઇએ. જે સાધુને દીક્ષા અ'ગીકાર કર્યોને ૨૦ વર્ષના સમય થઈ ગયા હૈાય તેમને સમસ્ત સૂત્રેાની અનુપ્રાવચના દેવી ોઈએ. આ વિષયનુ વ્યવહાર સૂત્રના ૧૦ માં ઉદ્દેશામાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે હવે ગણુમાં કલેશ થવાનું ચાથું સઁકારણ પ્રકટ કરવામાં આવે છે— “ आचार्योपाध्यायं गणे ग्जानशैश्ववैयावृत्यं ना सम्यक् अभ्युत्थाता भवति " Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ स्थानाने गणे अनापृच्छयचारि-अनापृच्छय-अपृष्ट्वा चरतीत्येवं गीलं भवति, नो आपृच्छयचारि-पृष्ट्वाचरणशीलं न भवति । आचार्य उपाध्यायश्च गणम् अपृष्दैव क्षेत्रान्तरसंक्रमणशीलो भवति, न तु पृष्ट्रत्यर्थः । इति पञ्चसं स्थानम् ५। 'तपरीत्येन आचार्योपाध्यायोगगपिपये पञ्च अव्युद्ग्रहरथानानि अक्लेशकररशानानि पाह- आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच अबुग्गहाणा पण्णत्ता' इत्यादि। व्याख्या सुगमा ॥१० १२।। उपाध्याय गण में ग्लान एवं शैक्षके वैयावृत्यके प्रति स्वयं अच्छी तर हसे प्रयत्नशील नहीं होता है, उस आचार्य और उपाध्यायके गणमें यह चौथा कलहका कारण है । पांचवां कलहका कारण--" आगों . पाध्यायं गगे अनापृच्छय चारि चापि भवति, नो आपृच्छयचारि" ऐसा है, कि यदि आचार्य और उपाध्याय गणमें बिना पूछेही क्षेत्रान्तरमें गमनशील होता है, पूछ करके गलनशील नहीं होता है, तो यह भी गण में कलह उत्पन्न करने का पांचवां कारण है, इन पूर्वोक्त कारणोंसे विपरीत जो पांच कारण है, वे गणमें अव्युद्ग्रहके स्थान है-अक्लेशके कारण हैं, शांति और संपके कारण हैं। "आयरिय उवज्झायस्स गं गणंमि पंच अयुग्गहवाणा पण्णत्ता” इत्यादिकीव्याख्या सुगम है । सू० १२ ॥ જે આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય ગણને ગ્લાન (વ્યાધિગ્રસ્ત) અને શૈક્ષ (બાલદીબિત) ને વૈયાવૃત્ય માટે જાતે જ સારી રીતે પ્રયત્નશીલ હોતા નથી, તે આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાયના ગણમાં કલહ ઉત્પન્ન થવાની સંભાવના રહે છે. ४ानु' ५.यभु १२-' आचार्योपाध्याय गणे अनोपृच्छयचारि चापि भवति नो अ पृन्छ यचारि" माया मय41 6पाध्याय ने अपने पूच्या विना શ્રેત્રાન્તરમાં ગમનશીલ રહે છે ગણના અન્ય સાધુઓને પૂછીને ગમનશીલ થતા નથી, તે એવી પરિસ્થિતિમાં પણ તેમના ગણુમાં કલહ ઉત્પન્ન થવાને સંભવ રહે છે આ પાંચ કારણેથી વિપરીત કારણોને લીધે ગણમાં આકલેશનું વાતા १२ . 21 मा शान्ति टी २९ छ. " आयरिय उवज्झाय. रवण गणंसि पच अवुग्गहट्ठाणा पणत्ता" त्या सूत्रांनी याच्या सुगम छे ઉપર્યુક્ત ૫ચ કારણેથી ઉલટાં પાંચ કારણોને લીધે ગવમાં શાન્તિ જળવાઈ રહે છે, એમ સમજવું. છે સૂ. ૧૨ છે Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ५ उ०१ सू०१३ निषधादिस्थाननिरूपणम् । सम्पति निषद्यादि स्थानानि निरूपयति मूलम्-पंच निसिजाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उक्कुडुई १, गोदोहिया २, समपायपुता ३, पलियंका ४, अद्धपलियंका ॥ पंच अज्जवट्ठाणा पण्णत्ता, तं -जहा-साहु अज्जवं, १ साहु महवं २, साहु लाघवं ३, साहु खेती ४, साहु मुत्ती ५॥ सू०१३॥ ____ छाया-पञ्च निपयाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-उत्कुटुका १, गोदोहिका २, समपादपुता ३. पर्यका ४, अर्द्ध पर्यङ्का ५। पञ्च आर्जवस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथासाध्वार्जवम् १, साधु मार्दवम् २, साधु लाघवम् ३, साधु शान्तिः ४, साधु मुक्तिः ५॥९० १३॥ - टीका-पंच निसिज्जाओ' इत्यादि निपदनानि-उपवेशनानि निषधाः आसनविशेषरूपाः, ताः पञ्चविधा: प्रज्ञप्ताः । ता एवाह-उत्कुटुका-पुतस्य अलगनेन उपवेशनम् । गोदोहिका-गोदो. इनकाले यया उपवेशनं भवति, तद्वद् य आसनविशेषः सा गोदोहिकेत्युच्यते अब सूत्रकार निषद्या आदि स्थानोंका निरूपण करते हैं-- 'पंच निसिज्जाओ पण्णत्तोओ' इत्यादि सूत्र १३ ॥ सूत्रार्थ-आसन विशेष रूप जोनिषद्याहै, वे पांच प्रकारकीहैं जैसेउस्कुटुका १ गोदोहिका २ समपादपूता ३ पर्यङ्का ४ और अर्द्ध पर्यङ्का५ । पांच आर्जव स्थान कहे गये हैं, जैसे-साध्वार्जव १ साधुमार्दव २ साधु लाघव ३ सोधुक्षान्ति ४ और साधु मुक्ति ५।। टीकार्थ-जमीन पर जिस आसनमें पुत(बैठक)नहीं लगतेहैं, ऐसा वह पैठने रूप आसन उत्कुटुकासन है, गायका दोहन जिस आसनसे बैठ હવે સૂત્રકાર નિષવા આદિ સ્થાનેનું નિરૂપણ કરે છે. सूत्राथ-"पंच निसिज्जाओ पण्णत्ताओ" त्याहસૂત્રાથ-આસનવિશેષ રૂપ જે નિષદ્યા છે, તેની નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર કહ્યાં 8-(१) , (२) all, (3) समायूता, (४) ५५ ॥ मन (५) अ यय". - नीय प्रमाणे पाय मा स्थान ह्यां छ-(१) सापा, (२) साप भा, (3) सांधु वाधव, (४) साधु शान्ति अने. (५) साधु भुलित. ટીકાર્ય–જે આસનમાં જમીન પર પુતને (કુલાને) રાખવામાં આવતા નથીતે આસનને “ઉત્કટકાસન” કહે છે. આ આસનમાં ઉભડક બેસવું પડે છે. स्था-७२ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासस २। समपादपुता-समौ-समतया भूमिस्पर्शयुक्तौ पादौ पुतौ च यस्यां सा । ३ । पर्यका-पद्मासनमिति प्रसिद्धा ॥ ४ ॥ तथा-अपर्या-करावे पादं निवेश्य य उपवेशनमकारः सः 'अर्धपयडा । इत्युच्यते । तथा-आर्जवस्थानानि-ऋजो:रागद्वेपवक्रत्व-वर्जितस्य सामायिकवतः कर्यभानो वा आर्जवं संवर इत्यर्थः, तस्य स्थानानि भेदाः पञ्च- प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-सावाजवम्-साधु-सम्यगू दर्शनपूर्वकतया शोभनम् , तच्च आर्जवम् मायानिग्रहरूपं च । यद्वा-साघोरार्जवं साध्वाजचम् । एवं साधुमार्दवादि स्थानचतुष्टयमपि 'विज्ञेयम् । तत्र-मार्दवं माननिग्रहतो कर किया जाताहै, ऐसा वह आसन गोदोहिका आसनहै, जिस आसन में दोनों पैर एवं दोनों पुत (अधोभाग)भूमिको समानरूपसे स्पर्श करते हैं, ऐसे आसनका नाम समपादपुता आसन है, पद्मासनका नाम पर्यङ्कासन है, जंघा पर एक चरण रखकर जो बैठा जाताहै, वह अर्द्धपद्मासनहै,इसी का नाम-अद्धपयेंडालनहै। रागद्वेषरूप वक्रतासे जित सामायिकवोलेका जो कर्म या भानहै, उसका नाम आजवहै, (सरलता) यह आर्जव संवर रूप होता है, इस आर्जवरूप संवरके पांच स्थान हैं, जो आर्जव सम्यग्दशनपूर्वक होता है, यह शोभन आर्जव साध्वार्जव है, यह आर्जव माया कषायके निग्रहरूप होता है, अर्थात्-माया कषायके अभावमें होता है, यदा-साधुका जो आर्जव है, वह सा वार्जव है, इसी तरहका कथन साधुमार्दव ( सम्पम् विनय ) आदि पदोंके विषय में भी समझ लेना चाहिये । मान मायके निग्रहसे मार्दव होताहै, उपकरणसे और गौरજે આસને બેસીને ગાયને દેહવાની ક્રિયા થાય છે, તે પ્રકારના આસનનું નામ દેહિકા, આસન છે. જે આસનમાં બન્ને પગ અને બને પુત જમીનને સમાન રૂપે સ્પર્શ કરે છે, એવા આસનનું નામ “સમપાદપતા આસન છે. પદ્માસનને પર્યકાસન પણ કહે છે. જંઘા પર એક પગ ગઠવિને જે બેઠક જમાવવામાં આવે છે, તે આસનને “અર્ધ પર્યકાસન” કહે છે. , રાગદ્વેષ રૂપ વકતાથી રહિત સામાયિકવાળાને જે-ભાવ છે, તેનું નામ આર્જવ છે. તે, આર્જવ સુંવર રૂપ હોય છે. આ આર્જવ રૂપ સંવરના પાંચ સ્થાન છે. જે આર્જવ સમ્યદર્શનપૂર્વક ઉદ્ભવે છે, તે શોભન આર્જવને સાવાજંલ કહે છે. તે આર્જવું. માયા કષાયના નિગ્રહ રૂપ હોય છે એટલે કે માયા કષાયના અભાવમાં જ સંભવી શકે છે. અથવા સાધુનું જે આજીવ છે તેનું નામ સાધવા જેવી છે. એ પ્રકારનું કથન સાધુભાઈવ આદિ વિષે પણ સમજવું. માનકષાયના નિગ્રહથી માર્દવ આવે છે, ઉપકરણ અને ગૌરવન્નયના Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटीको स्था. ५ . १ १४ देवानां पञ्चविधत्वनिरूपणम् भर्वति लाघत्रम् - उपकरण तो गौरवत्रयस्यागतश्च क्षान्तिः क्रोधनिग्रहतः तथामुक्ति:-लोभनिग्रहतो भवति इति ॥ सू० १३ ॥ 6 युक्ता मरणानन्तरं प्रायो देवा भवन्तीति देवानां पञ्चविधत्वं चविहा जो सिया' इत्यारभ्य ईसाणस्स णं' इत्यन्तेन सूत्रपञ्चकेन प्राहमूलम् - पंचविहा जोइसिया पण्णत्ता, तं जहा - चंदा १ सूरा २ गहा ३ नक्खत्ता ४ ताराओ पापंचविहा देवा पणती, तं जहा- भवियदव्व देवा १ णरदेवा, २. धम्मदेवा ३ देवाहिदेवा ४ भावदेवा ॥ सू० १४ ॥ in छाया - पञ्चविधा ज्योतिष्काः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा चन्द्राः १ सूर्या २, महा ३ नक्षत्राणि ४, ताराः ५। पञ्चविधा देवाः, मज्ञताः, तद्यथा - भव्यद्रव्यदेवाः १, नरदेवाः २, धर्मदेवाः ३ देवाधिदेवाः ४, भावदेवाः ५ ॥ सू० १४ ॥ टीका - पंचविहा' इत्यादि ज्योतिष्काः-ज्योतीपि=विमानभेदाः, तत्र भवाः, देवविशेषा इत्यर्थः । ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पञ्चविधत्वमेवाह - चन्द्राः सूर्या इत्यादि । तथाके त्याग से लाघव होता है, क्रोध कषाय के निग्रहसे क्षान्ति होती है, तथा लोभके निग्रहसे मुक्ति (निलोना) होती है | सू० १३ ॥ आर्जवयुक्त जीवप्रायः मरणके बाद देव होते हैं, इसलिये सूत्रकार अब " पंचविह जोइसिया " यहाँसे लेकर " ईसाणस्स णं " यहां ash सूत्रपञ्चसे उनकी पंच विधताका कथन करते हैं } टीकार्थ- पंचविहा जोइसिया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र १४ ।। विमानविशेषका नाम ज्योति है, इस ज्योतिमें जो देव होते हैं वे ज्योतिष्कदेव है, ये ज्योतिष्कदेव पाँच प्रकार के कहे गये हैं--:' લાઘવ ઉદ્ભવે છે, ક્રોધકધાયના નિગ્રહથી શાન્તિ ઉદ્દભવે છે અને લાભના નિગ્રહથી મુક્તિ ઉદ્ભવે છે. ૫ સે. ૧૩ ૫ G જૈવ યુક્ત જીવ સામાન્ય રીતે દેવની પાંચ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી 'डवे सूत्रार "पचंविहा जोइसिया” मा सूत्रथी सपने " ईसांणस्स णं " આ સૂત્ર પન્તના પાંચ સૂત્રા દ્વારા દેવાની પંચવિધતા પ્રકટ કરે’ છે.— टीकार्थ–“ पञ्चविद्दा जोईसिया पण्णत्ता " धत्याहि- વિમાન ભેદનું નામ ચાતિ છે, તે ચૈાતિમા જે વા હાય છે.તેમને જ્યાતિષ્ક દેવે કહે છે; તે હંÀાતિક દેવેના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર ના છે. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- __-५७२ स्थानासूत्रे देवाः-दीव्यन्ति-क्रीडन्ति ये ते, दीव्यन्ते स्तूयन्ते ये ते वा देवाः । ते-च पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः । तेषां पञ्चविधत्वमाह-तद्यथा-भव्यद्रव्यदेवाः-द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः, भव्याश्च ते द्रव्यदेवाश्चेति समासः । देवतयोत्पत्स्यमानत्वाद् भाविदेवपर्याययोग्या इत्यर्थः १। नरदेवाः-नराणां देवाः चक्रवर्तिमभृतयः २। धर्मदेवाः-धर्मेण-श्रुतादिदेवाः, धर्मप्रधानावा देवाः, चारित्रवन्तः ३। देवाधिदेवाःदेवेभ्योऽपि-इन्द्रादिभ्योऽपि अधि-अधिकाः श्रेष्ठाः, तैः पूज्यमानत्वात् देवाः, देवाधिदेवाः अहन्त इत्यर्थः ४। तथा भावदेवाः-भावेन-देवगत्यादिकर्मोदयजातपर्यायेण देवाः-भावदेवाः देवायुष्कादिकमनुभवन्तो वैमानिकादय इत्यर्थः५॥२०१४॥ चन्द्र १ सूर्य २ ग्रह ३ नक्षत्र ४ और तारा । देव पांच प्रकारके कहे हैं, जैसे-भव्यद्रव्यदेव १ नरदेव २.धर्मदेव ३ देवाधिदेव ४ और भाव. देय ५ । जो विविध प्रकारकी क्रीडाएँ करते हैं, अथवा जिसकी स्तुति की जाती है वे देव हैं, जो जीव आगे देवरूप पर्यायसे उत्पन्न होने वाला होता है, अभी वर्तमानमें उस पर्यायवाला नहीं है, ऐसा जीव भव्यद्रव्यदेव हैं, चक्रवती आदि नरदेव हैं, क्योंकि ये मनुष्योंमें देव. तुल्य माने जाते हैं, धर्मसे श्रुतादिसे-जो देव हैं, अथवा-धर्मप्रधान जो देव हैं, वे धर्मदेव हैं, ऐसे धर्मदेव चारित्रधारी :मुनिजन होते हैं। जो देवोंसे भी इन्द्रादिकोंसे भी अधिक श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे उनके द्वारा पूज्य होते हैं, ऐसे देव देवाधिदेव होते हैं-ऐसे देवाधिदेव अहन्त हैं। तथा देवगति नामकर्मके उदयसे जिनकी देवपर्यायमें स्थिति हैं, वे . (१) यन्द्र, (२) सूर्य, (3) अड, (४) नक्षत्र मने (५) तारा. દેવોના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકારે પણ કહ્યાં છે – (૧) ભવ્ય દ્રવ્યદેવ, (२) न२३१, (3) भव, (४) देवाधिदेव मन (५) माहे. २ विविध પ્રકારની કીડાઓ કરે છે, અથવા જેની સ્તુતિ કરાય છે, તે દેવ છે. જે જીવ ભવિષ્યમાં દેવની પર્યાયે ઉત્પન્ન થવાનો હોય છે–વર્તમાન સમયે તે દેવપર્યાયવાળે નથી, એવા જીવને ભવ્ય દ્રવ્યદેવ કહે છે. ચક્રવતી આદિને નરદેવ કહે છે, કારણ કે તેમને મનુષ્યમાં દેવતુલ્ય માનવામાં આવે છે. ધમની દષ્ટિએ | શ્રતાદિની અપેક્ષાએ જે દેવ છે અથવા ધર્મપ્રધાન જે દેવ છે તેમને ધર્મદેવ કહે છે. ચારિત્રધારી શ્રમણ નિર્ગથે જ એવાં ધર્મદેવ રૂપ છે. જેઓ દેવે કરતાં પણ શ્રેષ્ઠ છે અને દેવે પણ જેમને પૂજનીય અને વન્દનીય ગણે છે, . सेवा वान देवाधिदेव ४९ छ. सवा देवाधिदेव महतो छ. देवशति नाम: કર્મના ઉદયથી જેમની દેવપર્યાયમાં સ્થિતિ છે, તેમને ભાદેવ કહે છે. દેવ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ० १ सू०१५ देवपरिचारणानिरूपणम् देवप्रस्तावादेव परिवारणामाह - मूलम् - पंचविहा परियारणा पण्णत्ता, तं जहा- कायपरियारणा १. फासपरियारणा २, रूवपरियारणा ३, सदपरियारणा ४, मणपरियारणा ५ ॥ सू० १५ ॥ छाया - पञ्चविधा परिचारणा प्रज्ञप्ता तद्यथा - काय परिचारणा १, स्पर्शपरिचारणाः २, रूपपरिचारणा ३, शब्दपरिचारणा ४ मनःपरिचारणा ५ ॥ ० १५ ॥ टीका - पंचविद्या' इत्यादि परिचारणा - परिचारणं परिचारणा - देवमैथुन प्रवृचिरित्यर्थः । सा पञ्चविधा प्रज्ञप्ता । तद्यथा - पञ्चविधत्वमाह - काय परिचारणा - कायेन परिचारणा, - कायेन देवदेव्योः मैथुनमवृत्तिः । इयं परिचारणा - भवनपति - व्यन्तर ज्योतिष्कप्रयमद्वितीयसौधर्मेशान देवलोकस्थितानां देवानामेव भवति । एते हि देवाः भावदेव हैं, ऐसे वे भावदेव देव सम्बन्धी आयुका अनुभव करनेवाला वैमानिक आदि देव हैं । सू० १४ ॥ देवके प्रस्ताव को लेकर अब सूत्रकार देवपरिचारणाका कथक करते हैं. 'पंचविहार परियारणा - पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र १५ ॥ टीकार्थ- परिवारणा पांच प्रकारकी कही गई है, जैसे- कायपरिचारणा. १ रूपपरिचारणा ३ शब्दपरिचारणा ४ और मन: ५७३ 1 स्पर्शपरिचारणा परिचारणा ५ । देवोंकी जो मैथुन क्रियामें प्रवृत्ति है, उसका नाम परिचारणा है, शरीर से जो देव देवियोंकी मैथुन क्रियामें प्रवृत्ति होती है, मनुष्य और मानवीकी तरह वह कायपरिचारणा है, यह परिचारणा भवनपनि व्यन्तर ज्योतिष्क और सौधर्म एवं ईशानदेव लोकस्थित देवोंकोही है, સબધી આયુને અનુભવ કરી રહેલા વૈમાનિક આદિ દેવે આ પ્રકારના भावहेवे।' ३५ छे. ॥ सू. १४ ॥ દેવના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર દેવપરિચારણાનું " त्यिाहि ४थन ४ . " पंचविहा परियारणा पण्णत्ता ટીકા-દેવાની મૈથુન ક્રિયામાં જે પ્રવૃત્તિ છે, તેનું નામ પરિચારણા છે. તે પરિચારણાના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકારે છે—(૧) કાયપરિચારણા, (૨) સ્પર્શ परियार, (3) ३५परियारा, (४ शब्दपरियार, (५) मनःपरियारथा. માનવ સ્રીપુરુષની જેમ શરીરથી દેવદેવીની મૈથુન ક્રિયામાં જે પ્રવૃત્તિ छे, ते अवृत्ति अर्थपरियार ! छे भवनयति व्यन्तर, ज्योतिण्ड, સૌધમ અને ઈશાન લેાકસ્થિત દેવામાં કાયપરચારણાના સદ્ભાવ હાય છે, Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gee स्थान संक्लिष्टोदय पुरूप वेदकर्ममभावात् मनुष्यत्रदेव कायेनैव मैथुनं सेवन्ते इति बोध्यम् । तथा स्पर्शपरिचारणा स्पर्शेन शरीरस्पर्शमात्रेणैव परिचारणा = | इयं परिचारणा तृतीयचतुर्थ सनत्कुमार- माहेन्द्र फल्पस्थितानां देवानां भवति । तथारूपपरिचारणा-रूपे गरूपमात्रदर्शनेन परिचारणा - इयं पञ्चमपष्टवान्तकस्थितानां देवानां भवति । तथा शब्दपरिचारणा-शब्देन देवाङ्गनाशब्दश्रव्य मात्रेणैव या परिचारणा सां । इयं सप्तमातृममा शुक्रसद्दमा स्कल्पस्थितानां देवानां भवति । तथा - मनः परिचारणा-मनसा मनः संकल्पेनैव परिचारणा । अन्य देवोंको नहीं होती है, क्योंकि संक्लिष्ट उदयवाले पुरुष वेदके प्रभाव से मनुष्य की तरहही कायसे मैथुन क्रियामें प्रवृत्त होते हैं। जो परिचारणा स्पर्शसे शरीर के छूने मात्र से ही होती है, यह स्पर्शपरिचारणा है, यह परिचारणा तृतीय और चतुर्थ देवलोक में स्थित देवोंको होती है, सनत्कुमार और माहेन्द्र ये दो देवलोक तृतीय और चतुर्थ देवलोक हैं । रूपमात्र के देखने से जो परिचारणा होती है, वह रूपपरिचारणा है, यह परिचारणा पांचवें देवलोक ह्म देवलोक में और छट्ठे देवलोक में लान्तक देवलोक में स्थित देवोंकोही होती है, तथा शब्द से देवाङ्गनाओं के शब्द सुनने मात्र से ही जो परिचारणा होती है, यह शब्द परिचारणा है, पह परिचारण सातवें और आठवें देवलोक में स्थित देवोंके होती है, मनः परिचारणा केवल संकल्पसे एई परिचारणा आनत प्राणत आरण और अच्युत इन नौवें दावें ग्यारहवें કારણ કે સંકિલષ્ટ ઉદયવાળા પુરુષર્વેદના પ્રભાવથી તેઓ મનુષ્યેાની જેમજ કાયા વડે મૈથુન ક્રિયામાં પ્રવૃત્ત રહેતા ડાય છે. જે પરિયારશુા માત્ર સ્પ શરીરના સ્પ દ્વારા જ થાય છે, તે પરિચારણાના કાયપરિચારણા કહે છે. સનત્યુમાર અને માહેન્દ્ર નામના ત્રીજા અને ચેાથા દેવàકમાં જે દેવ-દેવીએ રહે છે, તેમનામાં કાયપરિચારણાના સદ્ભાવ ડાય છે. માત્ર રૂપ જેને જે પરિચારણા થાય છે, તેને ૩૫૫રિચારણા કહે છે. પાંચમાં બ્રાલેાક અને છઠ્ઠા લાન્તક દેવલાકના દેવામાં આ પ્રકારની પરિચારણાને સદ્ભાવ હોય છે. શબ્દ દ્વારા જ એટલે કે દેવાંગનાએના શબ્દને શ્રવણુ કરવા માત્રથી જ જે પર ચારણા થાય છે તેને શબ્દ પરિચારણા કહે છે. સાતમાં અને આર્ટમાં દેવદેવલેાકમાં રહેલા દેવામાં શબ્દ પરિચારણાને સદ્નભાવ્ ય છે. જે પર ચારણા કેવળ સંકલ્પ દ્વારા જ થાય છે તે પ્રચારણાને મના પરિચારણા કહે Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ७०१ सू०१६ देवानामग्रमहिषीनिरूपणम् इयं नवमदशमैकादशद्वादशाऽऽजत प्राणतारणाच्युतकल्पस्थितानां देवानां भवति। प्रैवेयकादि स्थितानां देवानां तु परिचारणा न भवतीति बोध्यम् ॥ सू० १५ ॥ 'अथ देवाधिकारादेवानामग्रमहिषीप्ररूपणामाह मलम्-~-चमरस णं असुरिंदस्स असुरकुमाररपणो पंच अग्गमहितीओं पण्णताओ, तं जहा-काली १, राई २, रयंणी ३, विज्जू ४, मेहा ५। बलिस्स णं वइरोयणिंदस्त वइरोयणरणो पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सुमा १, णिसुंभा २, रंभा ३ णिरंभा ४, मयणा ५॥ सू० १६ ॥ छाया- चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य पञ्च अग्रमहिष्यः' मज्ञप्ताः, तथथा-काली १ रात्री २, उजनी ३, विद्युत् ४, मेघा ५ । बलेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य पञ्च अग्रमहिष्यः प्राप्ताः, तद्यथा-शुम्भा १,. निशुम्भा २, रम्भा, ३, निरम्भा ४, मदना ५ ० १६॥ एवं बारहवें देवलोकोंमें स्थित देवलोकोंके होती है, वेयक आदिमें स्थित देवोंको तो परिचारणा है ही नहीं ॥ सू० १५ ॥ अव देवोंकी अग्रमहिषियोंकी प्ररूपणा सूत्रकार करते हैं-- 'चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररणो' इत्यादि सूत्र १६ ॥ . टीकार्थ-असुरोंके इन्द्र असुरकुमार राज चमरकी पांच अनतहिषियां कही गईहैं, जैसे-काली १ रात्री २ रजनी ३ विद्युत् ४ और.मेघा ५१. दक्षिणनिकायका यह चमर इन्द्र है, तथा उत्तर निकायका इन्द्र जो. છે. નવથી લઈને ૧૨ માં દેવલોકના દેવોમાં મનઃ પરિચારશુને સદૂભાવ * હોય છે. વેયક આદિ વિમાનમાં તે પરિચારણને સદૂભાવ જ ' डात नथी. ॥ सू. १५ ॥ હવે સૂત્રકાર ની અમીષીઓની પ્રરૂપણ કરે છે– . . " चमसणं असुरि'दस्स असुरकुमाररण्णो" त्याह ટીકાઈ–અસુરોના ઈન્દ્ર, અસુરકુમાર રાય ચમરને પાંચ અઠ્ઠમહિષીઓ છે. तमना नाम मा प्रभारी छे-(१) tel, (२) रात्री, (3) २४ नी, (४) विधुत અને (૫) મઘા. આ ચમર દક્ષિણનિકેયને ઈન્દ્ર છે. ઉત્તરનિકાયને જે બલિ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ स्थानाशस्त्रे टीका - ' चमरेस्स णं' इत्यादि -- व्याख्या म्रुगमा, नवरम् - चमरो दक्षिणनिकायेन्द्रो, चलिस्तु उत्तर निकायेन्द्रः || सू० १६ ॥ सम्प्रति चमरेन्द्रादीनां सांग्रामिकान् अनीकान् अनीकाधिपतींश्च निरूपयति मूलम् - चमरस्त पणं असुरिंदस्त असुरकुमाररण्णो पंच संगामिया अणिया, पंच संग्रामियाणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहापायत्ताणिए १, पीढाणिए २, कुंजराणिए ३, महिसाणिए ४, रहाणिए ६ | दुमे पायाणियाहिवई सोदामी आसराया पीढाणियाहिवई, कुन्धू हत्थिराया कुंजराणियाहिवई, लोहियक्खे महिलाणियाहिवई, किन्नरे रहाणिपाहिवई । बलिस्स णं वइरोयनिंदस्स वइरोयणरण्णो पंच संगामिया अणिया पंच संगामियाणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा - पायत्ताणिए जांव रहाणिए । महद्दुमे पायताणयाहिवई, महासोयामो आसराया पीढाणियाहिवई, मालंकारो हत्थिराया कुंजराणियाहिवई, महालोहियक्खो महिसाणियाहिवई, किंपुरिसे रहाणिया हिवई । धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमारण्णो पंच संगामिया अणिया पंच संगामियाणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा - पायत्ताणिए जाव रहाणिए । भद्दसेणे पायत्ताणियाहिवई, जसोधरे आसराया पोढाणियाहिवई, सुदंसणे हत्थराया कुंजराणियाहिवई, नीलकंठे महिसा - णियाहिवई, आणंदे रहाणियाहिवई । भूयाणंदस्स नागकुमा पलि है, इसकी भी पांच अग्रमहिषियां कही गई हैं। जैसे- शुम्भा १ निशुम्मा २ रम्भा ३ निरम्भा और मदना ५ ॥ नू० १६ ॥ 1 નામના ઈન્દ્ર છે તેની પાંચ અગ્રમહિષીઓનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે— (१) शुम्भा, (२) निशुम्ला, ( 3 ) २'ला, (४) निर'ला मने (4) महना. सू. १९ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीकास्था०५३०१ सू०१७ चमरेन्द्रादीनां अनीकान् अनीकधिपती श्चनि० ५७७ रिंदस्त नागकुमाररणो पंच संगामिया अणिया पंच संगामियाहिवई पण्णता, तं जहा-पायत्ताणिए जाव रहाणिए । दक्खे पायत्ताणियाहिबई, सुरगीवे आसराया पीढाणियाहिबई, सुबिकमे हस्थिराया कुंजराणिवाहिवई, सेयकंठे महिलाणियाहिबई, नंदुत्तर रहाणियाहिबई । वेणुदेवस्ल णं सुवणिदस्स सुवण्णकुमाररणो पंच संगालिया अणिया पंच संगामियाणियाहिबई पण्णता, तं जहा-पायन्ताणिए जाव रहाणिए, एवं जहा धरणस्स सहा वेणुदेवस्स वि । वेणुदालियस्त जहा सूयाणंदस्त । जहा धरणस्त तहा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव घोलल । जहा भूयाणंदस्स तहा लव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाइ महाघोलस्स । लकरल जं देविंदस्त देवरज्णो पंच संगामिया अणिया पंच संगामियाणियाहिबई पण्णत्ता, तं जहा-पायत्ताणिए जाव उसआणिए रहाणिए । हरिणेगमेसी पायत्ताणियाहिवई, वाऊ आलराया पीढाणियाहिवई, एरावणे हत्थिराया कुंजराणियाहिबई, दामड्नी उसमाणियाहिबई, माढरो रहाणियाहिबई। ईसाणस्स णं देविंदल देवरन्नो पंच संगामिया अणिया जाव पायत्ताणिए १, पीढाणिए २, कुंजराणिए ३, उसमाणिए ४, रहागिए ५। लहुपरकामे पायत्ताणियाहिबई, महाबाऊ आसराया पीढाणियाहिवई पुष्पदंते हत्थिराया कुंजराणियाहिबई, सहादामडी उसभाणियाहिवई, महामाढरे रहाणियाहिबई । जहा सकस्स तहा सव्वेसि दाहिणिलाणं, जाब आरणल्स । जहा ईसाणस्स तहा सठनेति उत्तरिल्लाणं जाव अच्चुयस्स ॥ सू० १७ ॥ स्था-७३ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ स्थानामसूत्रे छाया-चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य पञ्च सोग्रामिका अनीकाः पञ्च सांग्रामिकाऽनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पादातानीका, पागनीकः, कुञ्जरानीरुः, महिपानीका स्थानीकः । हुमः पादातानीकाधिपतिः सौदामी अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः, कुन्युहस्तिराजः कुञ्जरानीकाधिपतिः, लोहिताक्षो महिपा नीकाधिपतिः, किन्नरो स्थानीकाधिपतिः यलेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य पञ्च सांग्रामिका अनीशाः पञ्च सांग्रामिका नीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पादातानीको याबद्रधानीकः । महाद्रुमः पाहातानीकाधिपतिः, महालौदामः अश्वराजः अब बन्नकार चनरेन्द्र आदिकों के सांघालिके अनीकों एवं अनीकाधिपतियों की प्ररूपणा करते हैं-- __'चनरल अरिदल असुरकुमाररगो' इत्यादि सूनार्थ-असुरकुमार इन्द्र एवं अनुरकुमार राज चमरकी पांच सांया निक अनीक सेनाएँ और पांचही उनके अधिपति सेनापति कहे गये हैं, जैसे-पादातानीक १ पीठानीक २ कुञ्जरानीक ३ महिषानीक ४ और रथानीक ५। पाहातानीकका अधिपति द्रुम है, अश्वराज सौदामी पीठानीकका अधिपति है, हरितराज कुन्यु कुञ्जरानीकका अधिपति है, महिषानीकका अधिपलि लोहिताक्ष है, रानीकका अधिपति किन्नर है, वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि इन्द्र के पांच सांप्रामिक अनीकहैं, और पांचही सांग्रामिक अनीकाधिपति है, जैले-पादातानीक यावत् रथानीक पादा હવે સૂત્રકાર ચમરેન્દ્ર આદિના સાંઝામિક અનીક (સેનાઓ) ની અને અનાકાધિપતિઓની પ્રરૂપણ કરે છે. सूत्रा-" चमस्स णं असुरिदस्त अरकुमाररणो" याह અસુરકુમારના ઈન્દ્ર અસુરકુમારરાય ચમરની પાંચ સાંઝામિક સેનાઓ છે અને તેમના અધિપતિ (સેનાપતિ) પણ પાંચ કહ્યા છે. પાંચ અનકે (सेनासा) नीचे प्रमाणे छे--(१) पाहातानी, (२) चीनी:, (3) २१नी, (४) महीपानी मने (५) २थानि. पाहाताली (पाम सेना) ना अधिपति द्रुम छ. पानी (38) નો અધિપતિ હસ્તિરાજ કુળ્યું છે. મહીષાનીક (પાડાઓ પર સવાર થનારું સૈન્ય) ને અધિપતિ લેહિતાક્ષ છે, અને રથાનિકને અધિપતિ કિન્નર છે. વૈચિનેન્દ્ર વૈરચનરાય બલિની પણ ચમરની સેનાઓ જેવી જ પાંચ સેનાએ છે, અને તે સાંઝામિક સેનાના પાંચ અધિપતિ છે. તેની પાયદળ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५०१०१७ चमरेन्द्रादीनां अनोकान् अनीकाधिपतञ्चनि० ५७९ पीठानीकाधिपतिः, मालंकरो दस्तिरानः कुञ्जरानीका विपतिः महालोहिताक्षी महिपानीकाधिपतिः किंपुरुषो स्थानीकाधिपतिः । धश्णस्य खलु नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पञ्च सग्रामका अनीकाः पञ्च सांग्रामिकानीकाधिपतयः प्रज्ञाः तथा - पादातानीको यावद् रथानीकः । भद्रसेनः पादातानीकाधिपतिः, यशोधरः अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः सुदर्शनो हस्तिराजः कुञ्जरानीकाधिपतिः, नीलकण्ठो महिपानीकाधिपतिः आनन्दो स्थानीकाधिपतिः । भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पञ्च सांग्रामिका अनीकाः पञ्च सांग्रामिकानी काधिपतयः मज्ञताः, तद्यथा - पादातानीको यावद् स्थानीकः । दक्षः पादातानीतानीकका अधिपति महादुम है, इत्यादि सब नाम कथन चमरके अनीकाधिपतिके जैसाही जानना चाहिये अर्थात् पादातानीकका अधिपति महाम है, पीठानीकका अधिपति अश्वराज महासौदाम है, कुञ्जराareer अधिपति हस्तिराज मालङ्कार है, महिपानीकका अधिपति महालोहिताक्ष है, और रथानीकका अधिपति किंपुरुष है, नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरणके पांच सांग्रामिक अनीक हैं, और पांचही सांग्रामिक अनीकाधिपति हैं, पादातानीक यावत् रथानीक ये पांच अनोक हैं, और इनके अधिपति क्रमशः भद्रसेन यशोधर सुदर्शन नीलकण्ठ और आनन्द हैं, अर्थात् पादातानीकका अधिपति भद्रसेन हैं, पीठाother अधिपति अश्वराज यशोवर है, कुंजरानीकका अधिपति हस्तिराज सुदर्शन है, महिषानीकका अधिपति नीलकण्ठ है, और रधानीaar अधिपति आनन्द है, नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द के पाँच सांग्रामिक अनीक और पांचही इन के सांभा સેનાના અધિપતિ મહાકુમ છે હયદળના અધિતિ અશ્વરાજ મહાસૌદામ હસ્તિદળના અધિપતિ હસ્તિરાજ માલ'કાર છે મહિષાનીકને અધિપતિ મહાલેાહિતાક્ષ છે, અને રથાનીકના અધિપતિ કિંપુરુષ છે. નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાય ધરણુની પાંચ સાંગ્રામિક સેનાએ છે, તેમનાં નામેા પણ પાદાતાનીક ( પાયદળ સૈન્ય ) માઢિ છે. તે સેનાના પણ પાંચ અધિપતિ છે તેમનાં નામ અનુક્રમે ભદ્રસેન, યોાધર, સુદર્શન, નીલક અને આનંદ છે એટલે કે તેની પાયદળ સેનાના અધિપતિ ભદ્રસેન હયદળના અધિપતિ અવરાજ યશેાધર, કુજરાનીકના અધિપતિ હસ્તિરાજ સુદર્શન, મહિષાનીકને અધિપતિ નીલક'ઠ અને રથાનીકના અધિપતિ અ નન્દ્વ છે. નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાય ભૂતાનન્દની પાસે પશુ અસુરેન્દ્ર ચમરના Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० स्थानाङ्गसूत्रे काधिपतिः, सुग्रीवः अश्वराजः पीठानीकाधिपतिः, सुविक्रमो हस्तिराजः कुञ्जरा. नीकाधिपतिः, नीलकण्ठो महिपानीकाधिपतिः, नन्दोत्तरो रथानीकाधिपतिः । वेणुदेवस्य खलु सुपर्णेन्द्रस्य सुपर्णकुमारराजस्य पञ्च लाग्रामिका अनीकाः पञ्च सांग्रामिकानीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पादातानीका, यावद् रथानीकः, एवं यथा धरणस्य तथा वेणुदेवरयापि। वेणुदालिकस्य, यथा भूतानन्दस्य । यथा धरणस्य तथा सर्वेपो दाक्षिणात्यानां यावद् घोपस्य । यथा भूतानन्दस्य तथा मिक अनीकाधिपति हैं, अनीक के नाम पादातानीक यावत् स्थानीक है, और इनके अधिपनियोंके नाम दक्ष सुग्रीच लुधिक्रम नीलकण्ठ और नन्दोत्तर हैं, इनमें दक्ष पादालानीकका अधिपति है, अश्वराज लुग्रीव पीठानीकका अधिपति है, हस्तिराज सुविक्रम - जरानीकका अधिपति है, नीलकण्ठ महिपालीकका अधिपति है, और नन्दोत्तर स्थानीकका अधिपति है, सुपर्णेन्द्र सुपर्णकुमारराज देणुदेवके पांच सांगानिक अनीकाधिपति हैं, धरणके अनीकाधिपलियोंक्षा जैसा नाम है, वैसाही नाम वेणुदेवके सांग्रामिक अनोकाधिपतियोंकाभीहै, वेणुदालिकके अनीक और अनीकाधिपतियोंके नामका कथन जैसा भूतानन्द के अनीक और अनीकाधिपतियोंका नाम कहा गया है, बैला ही है । जैसा धरणके अनीक और अनीकाधिपतियों नामका कथन है, वैसाही समस्त दक्षिणके घोष तकके अनीक और अनीकाधिपति. જેવી જ પાંચ સાંડ્યામિક સેનાઓ (અનીકે) છે. અને પાંચ સાંગ્રમિક અનીકા ધિપતિ છે. તેના નામ પાદાનાનીક યાવત રથાનીક તેના પાદાતાનીક (પાયદળ सैन्य ) मधिपति ६१ छ, पीनी ने। (यहना) अधिपति म. રાજ સુગ્રીવ છે, કુંજરાનીકને અધિપતિ હસ્તિરાજ સુવિક્રમ છે, મહિષાનીકનો અધિપતિ નીલકંઠ છે અને રથાનીકને અધિપતિ નન્દાત્તર છે. સુપણેદ્ર સુપર્ણ કુમારરાય વેણુદેવની પણ એવી જ પાંચ સાંઝામિક સેનાઓ છે. તેની સેનાના અધિપતિઓનાં નામ ધરણની સેનાના અધિપતિઓનાં નામ પ્રમાણે જ સમજવા. ગુદાલિકની સેનાઓ અને સેનાધિપતિઓના નામનું કથન ભૂતાનંદની સેનાએ અને સેનાધિપતિની અનુસાર જ સમજવું. જેવું ધરણની સાંઝામિક સેનાઓનું અને તે સેનાઓના અધિપતિઓના તેમનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન શેષ પર્યાના સમસ્ત Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंघाटोका स्था०५३०१९०१७ चमरेन्द्रादीनां अनीकान् अनीकाधिपश्चिति० ५.१ सर्वेषाम् उत्तरीयाणां यावद् महाघोपस्य । सकल्प खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य पञ्च सांग्रामिका अनीकाः पञ्च सांग्रामिकानीकाधिपतयः प्राप्ताः, तद्यथा-पादा तानीको यावद् पभालीको स्थानीकः । हरिणैगमैपी पादातानीकाधिपतिः, वायुरश्वराजः पीठानीकाधिपतिः ऐरावणो हस्तिरानः छाजरानीकाधिपतिः, दामद्धि: वृषभानीकाधिपतिः, माठरो स्थानीजाविपतिः । ईशानत्य खलु देवेन्द्रस्य देव राजस्य पश्च सांग्रीमिका अनीकाः यावत् पादातानी १ पीठानी : २, झुञ्जरानीक., ३ वृषभानीकः ४, स्थानीसः ५। लघुपरामामः पाहातानीकाधिपति', महावायुरश्चरान पीठानीकाधिपतिः पुष्पदन्तो हरितराजः कुञ्जरानीकाधिपतिः। योंके नासका कथन है, और जैसा भूनानन्दके अनीक और अनीकाधिपतियोंका नाम है, वैसाही नाम समस्त उत्सरके महाघोष तसके निकायेन्द्रोंके अनीक और अनीकाधिपतियोंका है। देवेन्द्र देवराज शकके पांच सांग्रामिक अनीक और पांचही मानाभिक अनीकाधिपति कहे गये हैं। पांच अनीका इस प्रकार हैं-पादासानीक यावत् वृषभा. नीक रथानीक । इनका पादातानी शाधिपति हरिगलेषी है, अम्बराज वायु पीठानीकाधिपति है । हरितराज ऐरावण कुञ्जरानीकाधिपति है, दामद्धि वृषभानीकाधिपति है, और माठर रथानीकाधिपति है, देवेन्द्र देवराज ईशानके पांच सांग्राषिक अनीक हैं, थावत् पांचही सांघामिक अनीकाधिपति हैं, इनमें पादानीकका अधिपति लघुपराकम है, अश्व. राज महावायु पीठानीकका अधिपति है, पुष्पदन्त हस्लिराज कुञ्जराદક્ષિણના ઈદ્રોની સેનાઓ અને સેનાધિપનિઓ વિષે પણ સમજવુ. જેવાં ભૂતાનન્દની સાંદ્યામિક સેનાઓના નામ કહેવામાં આવ્યાં છે, એવાં જ મહાઘેષ પર્યન્તના ઉત્તરનિકાયના ઈન્દ્રોની સેનાઓ અને સેનાધિપતિઓનાં નામ સમજી લેવાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ શુક્રની પણ પાંચ જ સાંશ્રામિક સેનાએ કહી છે. તે સેનાઓના અધિપતિ પણ પાંચ જ કહ્યાં છે. भनी पांय सेनामाना नाम नाथे प्रमाणे छ-(१) पाहातानी, (२) पानी, (3) रानी, (४) वृषलानी मने (५) २थानी.. તેમને પાદાતાનીકાધિપતિ હરિગમિલી છે, પીઠાનિકાધિપતિ અબ્ધરાજ વાયુ છે, કુંજરાનીકાધિપતિ હસ્તિરાજ અરાવણ છે, વૃષભાનીકાધિપતિ દામદ્ધિ છે અને રથાનીકાધિપતિ માઠરે છે. દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનની પણ શકના જેવી જ પાંચ સાંઝામિક સેનાએ છે. તે સેનાઓના અધિપતિઓનાં નામ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२. स्थानाशय महादामद्धिः कृपभानीकाधिपतिः महामाठरः रथानीकाधिपतिः यथा शकस्य तथा सर्वे पां दाक्षिणात्यानां यावत् आरणस्य । यथा ईशानस्य तथा सर्व पाम् उत्तरीयाणां यावदच्युतस्य ॥ १७॥ टीका- सररहणं' इत्यादि उपाख्या सुगा । विशपस्तयाम्--अनीका सैन्यानि । 'मांधामिके-ति विशेषणोपादानं गान्धर्वनाटयानीकयोव्र्यवच्छेदार्थम् । पादातानीकाधिपतिः-पदातीनां समूहः पादातं, तद्रूपस्यानीकस्याधिपति स्वामी । अयं पदातिरेव बोव्यः। पीठानीकाधिपतिः-पीठानीकम्-अश्वसैन्यं, तस्याधिपतिः । अयमश्व एव बोध्यः । नीकका अधिपति है, जिस प्रकारसे शकके अनीक और अनीकाधिपतियोंके ये नाम कहे गये है, उसी प्रकार से समरत दाक्षिणात्योंके यावत् आरण तकके इन्द्रों के अनीकके और अनीकाधिपतियों के नाम जानना चाहिये और ईशानके अनीक और अनीकाधिपतियोंके जैसेनाम कहे गये हैं वैसे ही समस्न उत्तरके इन्द्रोंके चावत् अव्युत तक इन्द्र के अनीक और अनीकाधिपतियों के नाम जानना चाहिये टोकार्थ-इस सूत्र में जो सांग्रामिक विशेषण दिया गयाहै, वह गान्धर्वा नीक और नाटयानीकके व्यवच्छेदके लिये दिया गया है, पादातियोंकापैदल चलनेवालों का जो समूह है, वह पादाति है, इन पादातोंकी जो लेना है, वह पानातानीक है, इस पादातानीकका जो अधिपति-स्वामी होता है, वह पादातानीकाधिपति है, यह पादातानीकाधिपति भी पदाति हो होता है, पीठानीक अश्व सैन्यरूप होता है, इस अश्वसन्यका जो નીચે પ્રમાણે છે–ાદાનીકના અધિપતિ લધુપરાક્રમ છે, પીઠાનીકના અધિપતિ અશ્વરાજ મહાવાયુ છે, કુંજરાનીકને અધિપતિ હસ્તિરાજ પુષ્પદન્ત છે. શકની સાંઝામિક સેનાઓ અને સેનાપતિઓનાં જેવા નામ આપવામાં આવ્યાં છે, એવાં જ આરણ પર્યન્તના દક્ષિણના ઈન્દ્રીતી સેનાઓ અને સેના. ધિપતિઓનાં નામ સમજી લેવા. ઈશાનેન્દ્રની સેવાઓ અને સેનાધિપતિના જેવા નામ આપવામાં આવ્યાં છે એ જ અમ્યુત પર્યન્તના ઉત્તરના ઈદ્રોની સેવાઓ અને સેનાધિપતિઓના નામ સમજવા જોઈએ. ટીકાઈ–આ સૂત્રમાં અનીકેની આગળ જે સાંગ્રામિક વિશેષણને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યો છે, તે ગાન્ધર્વોનીક અને નાટયાનીકને વ્યવછેર કરવા નિમિત્તે કરવામાં આવેલ છે. પાદતિ અથવા પાયદળ સેનાને પાદાતાનીક કહે છે. તે પાદાતાનીકને જે અવિપતિ હેચ છે તેને પાદાતાનીકાધિપતિ કહે છે. તે પાદાતાનીકાધિપતિ પણ પદાતિ જ હોય છે. અશ્વદળને પીઠાનીક કહે છે. તે Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुधाटीका स्था०५३०१सू०१७ चमरेन्द्रादीनां अनीकान् अनीकाधिपतींश्चनि० ५८३ एवमेव कुञ्जरानीकाधिपतिः कुञ्जरः, महिपानीकाधिपतिर्महिषः, कृपभानीकाधिपतिषभः, स्थानीकाधिपतिश्च रथो बोध्य इति । भवनपतिनिकायेषु दश दक्षिणनिकायेन्द्रा दशउत्तरनिकायेन्द्राश्च सन्ति । तत्र दक्षिणनिकायेन्द्राः चमरो १, धरणो २, वेणु देवो ३, हरिकान्तः ४, अग्निशिखः ५, पूर्णः ६, जलकान्तः ७, अमितगतिः ८, वेलस्वो ९, घोपश्च १० । उत्तरनिकायेन्द्राश्न-बलिः १, भूतानन्दः २, वेणुदालिः ३, हरिसहः ४, अग्निमाणः ५, वसिष्ठः ६, जलप्रमः ७, अमितवाहनः ८, प्रभञ्जनः ९, महाघोपश्चेति १०) सौधर्मादिषु कल्पेषु दश अधिपति होता है, वह पीठानीकाधिपति कहा गया है। यह पीठानी. काधिपति अश्वरूपही होता है, इसी प्रकार से जो कुञ्जराधिपति होता है, वह भी कुंजर रूपही होता है। महिषानीकका जो अधिपति होतो है वह महिष-मैला रूप होताहै, और वृषभानीकका जो अधिरति होताहै है, वह वृषभ होता है। तथा रथानीकका जो अधिपति होताहै, वह रथ होता हैं। भवनपति निकायमें दश दक्षिण निकायके इन्द्र होते हैं और दश उत्तर निकायके इन्द्र होते हैं। इनमें दक्षिण निकायके इन्द्रों के नाम इस प्रकारसे हैं-चमरेन्द्र १' धरण २ वेणुदेव ३ हरिकान्त ४ अग्निशिख ५ पूर्ण ६ जलकान्त अमितगति८ वेलम्ब९ और घोष १० उत्तरनिकायके इन्द्रोंके नाम इस प्रकारसे हैं-बलि १ भूतानन्द २ वेणुदालि ३ हरिसह ४ अग्निमाणव ५ वसिष्ठ ६ जलप ७ अमितवाहय ८ मञ्जन ९ एवं અશ્વદળના અધિપતિને પીડાનીકાધિપતિ કહે છે. તે પીઠાનીક વિપતિ અશ્વરૂપ જ હોય છે. હક્તિદળને કુંજરાનીક કહે છે અને તેના અધિપતિને કુંજરાનીકાધિપતિ કુંજર રૂપ (હાથી રૂપ) જ હોય છે મહીપ એટલે પાડો. એવી પાડાઓની સેનાને મહીષાનીક કહે છે. તેને અધિપતિ પણ મહીષ રૂપ જ હોય છે. વૃષભ એટલે બળદ, વૃષભેની સેનાને વૃષભાનિક કહે છે અને તેને અધિપતિ પણ વૃષભ જ હોય છે. રથાનીકને અધિપતિ પણ રથ જ હોય છે. ભવનપતિ નિકાયમાં ઉત્તરનિકાયના દસ ઈન્દ્રો હોય છે. દક્ષિણનિકાયના धन्द्रीन नाम नाये प्रभारी छ-(१) यसरेन्द्र, (२) ५२५, (3) वो देव, (४) ४२al-d, (५) भग्निशिप, (१) ५०, (७) ४६zl-d, (८) मभितगति (6) वेसम्म भने (१०) प. उत्तनियन -द्रोनi नाम नीय प्रभा 2-(१) माल, (२) भूतान-४ (3) हालि, (४) रिस, () अनिमात्र, (6) पसिष्ट, (७) Aver, (८) मभितवाडन, (6) Art भ२ (१०) मा. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानने इन्द्रा भवन्ति । तत्र दाक्षिणात्यानां सौ वर्मसनत्कुमार ब्रह्मलोकशुकानतारणानां पणां चत्वार इन्द्रा भान्ति । तथा उत्तरीयाणाम् ईशानमाहेन्द्रलान्तकसहस्रारप्राणताच्युतानां पष्णां पडिन्द्रा अवन्ति । आनतारणो यधपीन्द्रानधिष्ठितौ तथापि माणतान्युनेन्द्राधीनत्वादेवावयत्र सेन्द्रायुक्तानिति न कश्चिद् दोष इति ।।सू०१७॥ ___ सम्पनि शकरयाभ्यन्तरगरिगद्गतिनां देवानाम् , ईशानस्याभ्यन्तरपरिषद्चर्तिनीना देवीनां च स्थितिप्रमाणामाह___ मूलम् --सकल पा देविदास देवरन्नो अभितरपरिसाए देवाणं पंच पलिओनलाई टिपण्णता । ईसागस्त तं देविंदस्त देवरन्नो अतिरिमाए देवीण पंच पलिओवसाई दिई एण्णता ॥ सू० १८॥ महाबोध १० सोधर्मादि करगोंमें १० इन्द्र होते हैं, इनमें दाक्षिणात्य कल्पोंके सौधर्म सनत्कुमार ब्रह्मलोक शुक आनत और आरण इन छह देवलोकोंके चार इन्द्र होते हैं, लथा उत्तर दिशाके कल्पोंके-ईशान, माहेन्द्र, लान्तक, सहकार, पाणत और आरण ये दो कल्प इन्द्रसे अनधिष्ठित हैं, तो भी प्राणतेन्द्र और अच्युतेन्द्र इनके अधीन होनेसे ये दोनों भी इन्द्र सहित कहे गये हैं इस तरहसे इस कथनमें कोई दोष नहीं है। सू० १७॥ अब स्त्रकार शककी आभ्यन्तर परिषदाके देवोंकी और ईशानकी आरधन्तर परिपदाकी देवियों की स्थितिका प्रमाण कहते हैं સીધર્માદિ કપના ૧૦ ઇન્દ્ર હોય છે. તેમાંથી સૌધર્મ, સનકુમાર, બ્રહ્મક, શુક, આનત અને પ્રાણત, આ છ દાક્ષિણાત્ય કપે છે. તે છે કોના ૪ ઈન્દ્રો હોય છે, અને ઈશાન, મહેન્દ્ર, લાન્તક, સહસાર, પ્રાણત અને અમૃત, આ છે ઉત્તર દિશાન કરે છે. તે છ કપના છ ઈન્દ્રો હોય છે. જો કે આનત અને આરણ આ બે કપ ઈન્દ્ર દ્વારા અનધિષિત છે, છતાં પણ પ્રાણતેન્દ્ર અને અમૃતેન્દ્ર તેમને અધીન હોવાથી, એ બને કોને ઈન્દ્ર સહિતના કહેવામાં આવ્યાં છે આ રીતે આ કથનમાં કઈ દેષ નથી. છે સૂ. ૧૭ છે હવે સૂત્રકાર શકની આ યન્તર પરિષદના દેવેની તથા ઈશાનની આજ્યcર પરિષદના દેવોની સ્થિતિ કેટલી છે તે પ્રકટ કરે છે. Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ सुधा टीका स्था. ५ उ. रसू. १९ प्रतिघातनिरूपणम् छाया-शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य आभ्यन्तरपरिषदो देवानां पश्च परयोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य आभ्यन्तरपरिपदो देवीनां पश्च पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ताः ॥सू० १८॥ टीका-'सकस्स णं" इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा ।। सू०१८ ॥ इत्थं देववक्तव्यता प्रोक्ता । दुष्टाध्यवसायवतः पाणिनस्तु तद्गतिस्थित्यादीनां प्रविघातो भवतीति तन्निरूपणाय पाह मूलम्-पंचविहा पडिहा पण्णत्ता, तं जहा-गइपडिहा १, ठिइपडिहा २, बंधणपडिहा ३, भोगपडिहा ४, बलबीरियपुरिसकारपरकमपडिहा ॥ ५॥ सू० १९ ॥ __ छाया--पञ्चविधः प्रतिषः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-गतिप्रतिघः १, स्थितिप्रतिघः बन्धनपविघः ३, भोगप्रतिघः ४, बलवीर्य पुरुषकारपराक्रमप्रतिघः५ सू१९ टीका-पंचविहा' इत्यादि प्रतिहननं प्रविघा, 'अन्यत्रापि श्यते' इति सूत्रेण हन्धातो ङ प्रत्यये न्यकवादित्वात् कुत्वम् , पतिघात इत्यर्थः, स च पञ्चविधः प्रज्ञप्तः । तद्यथा 'सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो' इत्यादि सूत्र १८ ॥ सूत्रार्थ-देवेन्द्र देवराज शक्रकी आम्धन्तर परिषदाके देवोंकी स्थिति पोच पल्यापम प्रमाण कही गई है, इसी प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशानकी आभ्यन्तर परिषदाशी देवियां हैं, उनकी भी स्थिति पांच पल्पोपम ममाण कही गई है ।। सू० १८ ।। इस प्रकारसे देव वक्तव्यता कहकर अब सूत्रकार दुष्ट अध्यवसायवाले प्राणीके देवगतिका और उसकी स्थिति आदिका प्रतिघात होता है, इस बातकी अब प्ररूपणी करते हैं " सकस्म ण देविदस्स देवरण्णो" त्याहસૂત્રાર્થ દેવેન્દ્ર દેવરાય શકની આભ્યન્તર પરિષદના દેવની સ્થિતિ પાંચ પત્યે પમ પ્રમાણુ કહી છે. એ જ પ્રમાણે દેવેન્દ્ર, દેવરાય ઈશાનની આભ્યન્તર પરિપદાની દેવીઓની સ્થિતિ પણ પાંચ પલ્યોપમ પ્રમાણુ કહી છે. એ સ. ૧૮ આ પ્રકારે દેવવક્તવ્યતાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર દુષ્ટ અધ્યવસાયવાળા જીની દેવગતિને તથા તેમની સ્થિતિ આદિને જે પ્રતિઘાત થાય छे, तेनु नि३५ ४३ छ. " पंचविही पडिहा पण्णत्ता" त्याहि - - Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानान पञ्चविधत्वं यथा-गति-प्रतिघः-गते प्रकरणवशात् शुभरूपाया देवादिगतेः प्रतियः, शुभदेवादिगतिप्राप्तियोग्यनायां सत्यामपि विपरीत-कर्मकरणाद तदमाप्तिरूपो गतितिघातः कण्डरीकस्येव बोध्य इति १ । तथा-स्थितिप्रतिघः स्थिते। शुभ देवादि गतिमायोग्यकर्मवन्धनरूपायाः स्थितेः प्रतिघः बदाना. मेव शुभदेवगतिमायोग्यकर्मणाम् अध्यवसायविशेपा प्रतिघातो भवति । तदुक्तम् "दीहकालठिईयाओ हस्सकालठिईयाओ पगरेइ ॥" छाया-दीर्घकालस्थितिकाः (प्रकृती:) स्विकालस्थितिकाः प्रकरोति । 'पंचविहा पडिहा पण्णत्ता' इत्यादि सत्र १९ ॥ टीकार्थ-प्रतिघात पांच प्रकारका कहा गयाहै-जैसे-गति प्रतिघात१ स्थिति प्रतिघात २ बन्धनप्रतिघात ३ भोगप्रविघात ४ और थलवीर्यपुरुषकारपराक्रम प्रतिघात ५ प्रतिहननका नाम प्रतिघ है, इसका अर्थ प्रतिघात होता है, यह पांच प्रकारका कहा गया है-गलिका प्रकरणके वशले देवादिगतिरुप शुभगतिका जो प्रतिघात है, यह गतिप्रतिघ है, शुभदेवादि गतिकी प्राप्तिकी योग्यताके होने पर भी जो विपरीत कर्मके करनेसे उसकी प्राप्ति नहीं होती है, वह गतिप्रतिघात है, जैसे कण्डरीफको यह गतिप्रतिघात हुआ है, शुभदेवगतिके प्रायोग्य कर्मवन्धन रूप स्थितिका जो प्रतिघ-प्रतिघात है, वह स्थितिप्रतिघात है, क्योंकि घद्धही शुभदेवगतिके पायोग्य कौका अध्यवसाय विशेषसे प्रतिघात होता है, कहा भी है-" दीहकालठिईयाओ" इत्यादि । Atथ-प्रतिधात ( विनाश) पांय प्रान! या छ-(१) गति प्रतिधात४, (२) स्थिति प्रतियात, (3) मन्टन प्रतिधात, (४) सास प्रतिपात भने (५) બલવીય પુરુષકાર પરાક્રમ પ્રતિઘાત, પ્રતિહનનનું નામ પ્રતિઘ છે. તેને અર્થ પ્રતિઘાત થાય છે. તેના પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે. ગતિની અપેક્ષાએ જે વિચાર કરવામાં આવે, તો દેવાદિગતિ રૂપ જ ગતિને જે પ્રતિઘાત (વિનાશ) છે, તેને ગતિપ્રતિષ કહે છે. શુભ દેવાદિ ગતિની પ્રાપ્તિ થવાની ગ્યતા હોવા છતાં પણ વિપરીત કર્મ કરવાને કારણે તેની પ્રાપ્તિ ન થાય, તે તે પ્રતિઘાતને ગતિ પ્રતિઘાત કહે છે. જેમકે કંડરીકને આ પ્રકારને ગતિ પ્રતિઘાત થયો હતે. શુભ દેવગતિને વેગ્ય કર્મબન્ધન રૂપ સ્થિતિને જે પ્રતિઘાત છે, તેને સ્થિતિ પ્રતિઘાત કહે છે, કારણુ કે બદ્ધ દેવગતિને એવાં કર્મોને અધ્યવસાય વિશેષ દ્વારા પ્રતિવાત थाय छे. ४थु छे ?-“ दीहकालठिईयाओ" त्याल, Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्या५३०१ सू०१९ प्रतिघातनिरूपणम् इति २॥ तथा-पन्धनमतिघः बन्धनं नामकर्मणउत्तरप्रकृतिरूपम् औदारिकादि पञ्चमेदभिन्नम् , इह प्रशस्तस्य प्रक्रमात् प्रशस्तं चन्धनं गृह्यते, तस्य प्रतिषः= प्रतिघातो बन्धनप्रतिघः । बन्धनग्रहणमुपलक्षणम् , तेन तत्सहचरितानां प्रशस्त शरीरतदहोपाङ्गसंहननसंस्थानानामपि प्रतिघातो वोध्य इति । तथा-भोगप्रतिषः-भोगाना-प्रशस्तगत्यादिहेतुकानां प्रतिषः पतिघातः । प्रशस्तगत्यादि रूपहेतुत्वभावे तत्कार्यभूतानां भोगानामप्यभावो वोध्यः । भवति हि कारणामाचे कार्याभाव इति । तथा-उत्थानक्रमबलवीर्थपुरुषकारपराक्रमप्रतिषः-तत्र दीर्घकालकी स्थितिवाली प्रकृतियोंको जो अल्पकालकी स्थितिवाला पनाना होता है, वही स्थितिप्रतिघात है, बन्धन प्रतिघात-नामकर्मकी उत्तरा प्रकृतिरूप यह बन्धन होता है, औदारिक बन्धन आदिके भेदसे यह बन्धनकर्म पांच प्रकारका होता है, प्रशस्तके प्रफमसे यहां प्रशस्तवन्धनही गृहीत हुआ है, इस प्रशस्त बन्धनका जो प्रतिघात है, वह बन्धन प्रतिघ है। यहां घन्धन ग्रहण उपलक्षण है, इससे इसके जो प्रशस्त शरीर प्रशस्त अङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त संहनन और प्रशस्त संस्थान हैं, उनका भी प्रतिघात ग्रहण हुआ समझ लेना चाहिये तथाप्रशस्त गति आदि हैं, कारण जिन्होंके ऐसे लोगोंका जो प्रतिघात है, वह भोगप्रतिघ है, प्रशस्तगति आदिरूप हेतुके अभाव में इसके कार्यभूत भोगोंका भी अभाव हो जाता है, क्योंकि कारणके अभावमें कार्यका अभाव होता ही है ४ तथा-उत्थानका क्रमका बलवीर्य पुरुष દીર્ધકાળની સ્થિતિવાળી કર્મપ્રકૃતિઓને જે અલ્પકાળની સ્થિતિવાળી બનાવવામાં આવે છે, તેનું નામ જ સ્થિતિ પ્રતિઘાત છે. બન્ધન પ્રતિઘાત– નામકર્મની ઉત્તર પ્રકૃતિરૂપ તે બાન હોય છે (ઔદારિક બન આદિના ભેદથી તે બન્ધન કર્મ પાંચ પ્રકારનું હોય છે) પ્રશસ્તના પ્રક્રમની અપેક્ષાએ અહીં પ્રશરત બન જ ગૃહીત થયું છે. તે પ્રશસ્ત બન્ધનને જે પ્રતિઘાત છે, તેને બન્દન પ્રતિઘ (બનધન પ્રતિઘાત) કહે છે. અહીં બધૂન ગ્રહણ ઉપલક્ષણ છે. તેથી અહીં પ્રશસ્ત શરીર, પ્રશસ્ત અગોપાંગ, પ્રશાંત સંહનન, અને પ્રશસ્ત સ સ્થાન રૂપ તેનાં જે ચરિત છે, તેમને પ્રતિઘાત પણ ગ્રહણ થે જોઈએ. પ્રશસ્ત ગતિ આદિ જેમના કારણે છે, એવા ભેગોને જે પ્રતિઘાત છે, તેનું નામ ભેગપ્રતિઘ છે. પ્રશસ્ત ગતિ આદિ રૂપ હેતુ (કારણ) ના અભાવમાં તેના કાર્યભૂત ભેગોને પણ અભાવ થઈ જાય છે, કારણ કે કારણનો અભાવ હોય તે કાર્યને પણ અભાવ જ રહે છે. તથા ઉત્થાનને, Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थानामसूत्रे 1 उत्थानम्-ऊर्ध्वोभवनरूपकायचेष्टाविशेषः क्रमः - परिभ्रमणादिक्रिया, बलं = शारीरम्, वीर्य = जीवजनितं पुरुषकारः = पौरुपं, पराक्रमः - बलवीर्ययोर्व्यापारणम् तेषां प्रतिघः =प्रतिघातः, शुभदेवगत्यादेरभावे उत्थानक्रमबलवीर्य पुरुपकारपराक्रमाणामप्यभावो भवतीति ५ ॥ सू० १९ ॥ ' चारित्रातिचावतां च देवगत्यादिप्रतिघातो भवतीति उत्तरगुणानाश्रित्य तभेदानाह मूलम् - पंचविहे आजीवे पण्णत्ते, तं जहा- जाइ आजीवे १, कुलाजीवे, २, कम्माजीवे ३, सिप्पाजीवे ४, लिंगाजी ४ ॥ ॥ सू० २० ॥ छाया -- पञ्चविध आजीवः प्रज्ञप्तः, तद्यथा जात्याजीवः १ कुलाजीवः, २ कर्माजीवः ३, शिल्पाजीवः, ४ लिङ्गा जीवः ५ ॥ सू० २० ॥ टीका - पंचविहे ' इत्यादि - ' आजीवः - आजीवति - आश्रयति लब्धिपूजताख्यात्या 14922 तपश्चर्यादिकं यः सः आजीवः - पाखण्डिविशेषः, स च पञ्चविधः प्रज्ञप्तः । तद्यथा - पञ्चविधत्वं यथापराक्रम प्रतिध है, खडे होनेका नाम उत्थान है, परिभ्रमण आदि क्रियाका नाम कम है, शारीरिक शक्तिका नाम बल है, आत्मिक शक्तिका नाम वीर्य है, पुरुषार्थका नाम - पौरुषका नाम - पुरुषकार है, और बल एवं धीर्यको किसी कार्य में लगाना इसका नाम पराक्रम है, इन सबका भी शुभदेवगति आदिके अभाव में अभाव होता है || सू० १९ ॥ चारित्र में जो अतिचार लगाते हैं, ऐसे चारित्राचारवाले जीवोंकी देवगति आदिका प्रतिघात होता है, इस बात को चित्तमें धारण कर अब सूत्रकार उत्तरगुणों को लेकर उनके भेदों को कहते हैं ક્રમનેા, ખલવીયના અને પુરુષકાર પરાક્રમના જે પ્રતિષ્ઠાત છે, તેને ઉત્થાન ક્રમ અલવીય પુરુષ પરાક્રમ પ્રતિવ્ર કહે છે. ઊભા થવું તેનું નામ ઉત્થાન છે, પરિભ્રમણ આદિ ક્રિયાનું નામ ક્રમ છે, શારીરિક શક્તિનું નામ મળ છે, આત્મિક શક્તિનું નામ વીય છે, પુરુષાર્થ (પૌરુષ ) નું નામ પુરુષકાર છે, તથા ખ૩ અને વીને કાઇ કામમાં લગાડવુ તેનું નામ પરાક્રમ છે. આ બધાના પશુ શુભ દેવગતિ આદિના અભાવમાં અભાવ જ રહે છે. । . ૧૯ ॥ જે જીવોના ચારિત્રમાં અતિચાર લાગી જાય છે એવા ચારિત્રાતિચારવાળા જીવાની દેવગતિ આદિના પ્રતિઘાત થાય છે. આ વાતને ચિત્તમાં Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४९ सुघाटीका स्था०५ उ०१ सू०२० उत्तरगुणमेदनिरूपणम् जात्याजीवा-जाति क्षत्रियादि जातिष्याजीवति-तज्जातीयमात्मानं निर्दिश्य तेभ्यो भक्तपानादिकं गृह्णातीति जात्याजीवः । आत्मीयां क्षत्रियादिजातिमुपदर्य जीविकोपार्जक इत्यर्थः । एवं कुलाजीवादयोऽपि वोध्याः। विशेषत्व यम्-कुलम्-उग्रादिकं गुरुकुलं वा । कर्म-कृष्यादिकम् । शिल्प-चित्रादि विज्ञानम् । अथवा-सार्वकालिकं कर्म । कादाचित्कं शिरपम् ५। लिङ्गम् ज्ञानादि शून्यानां रजोहरणमुखवस्त्रिकादिरूपं साधुलिङ्गमिति ॥सू० २०॥ _ 'पंचविहे आजीवे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र २०॥ टीकार्थ-जो लब्धि पूज्यता ख्याति आदिके निमित्त तपश्चर्याआदिको करताहै, वह आजीवहै, यह आजीव पाखण्डि विशेषरूप होताहै, इसके जास्याजीव १ कुलाजीव २ कर्माजीव ३ शिल्पाजीव ४ और लिङ्गाजीवके भेदसे ५ होते हैं, जो आजीव अपनी क्षत्रिय आदि जातिका निर्देश करके अर्थात् में क्षत्रियजातिका हूं, ऐसा प्रकट कर जो क्षत्रियादिकों से भोजनादि लेता है, वह जात्याजीव है, यह आजीव अपनी क्षत्रिधादि जातिको कहकर आजीविकाका उपार्जक होता है, इसी तरहसे कुलाजीवादिकोंके विषय में भी ममझ लेना चाहिये यहाँ कुलसे उग्रादिकुल या गुरु सम्बन्धी अलका ग्रहण करना चाहिये कर्मसे कृषी आदिको शिल्पसे चित्र आदिके विज्ञानको अथवा-सार्वकालिक कर्मको और ધારણ કરીને હવે સૂત્રકાર ઉત્તરગુણની અપેક્ષાએ એવા ચારિત્રાતિચારવાળા खाना हानु नि३५५५ ४२ छ-" पंचविहे आजीवे पण्णत्ते" त्याह જેઓ લબ્ધિ, પૂજ્યતા, ખ્યાતિ આદિની પ્રાપ્તિ નિમિત્તે તપસ્યા આદિ કરે છે તેમને આજીવ' કહે છે. તે આજીવ પાખંડિ વિશેષરૂપ હોય છે तमना पांय प्रा२ नाय प्रमाणे छ-(१) त्या७१, (२) सुदाप, (3) ४०१, (४) शिEI मने (५) वि . જે આજીવ પિતાની જાતિને નિર્દેશ કરીને એટલે કે “હું ક્ષત્રિય જાતિને શું છે એવું પ્રકટ કરીને ક્ષત્રિયાદિકના ઘરમાંથી ભેજનાદિની પ્રાપ્તિ કરે છે, તેને જાત્યાજીવ કહે છે. તે પોતાની ક્ષત્રિય આદિ જાતિ પ્રકટ કરીને આજીવિકાનું ઉપાર્જન કરતો હોય છે. એ જ પ્રમાણે કુલાઇવ આદિ વિષે પણ સમજવું. અહીં કુલ પદ દ્વારા ઉગ્રાદિ કુલ અથવા ગુરુ સંબંધી કુલ બહણ કરવું જોઇએ. કમર પદ વડે ખેતી આદિ ધંધાઓને, શિલ્પ ૫દ વડે. ચિત્ર આદિ કલાઓને અથવા સાર્વકાલિક કર્મને અને લિંગ પદ વડે જ્ઞાના Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामसूत्र लिङ्गप्रक्रमात् राज्ञः पञ्चलिङ्गानि प्राह मूलम्-पंच रायककुहा पण्णत्ता, तं जहा-खग्गं १, छत्तं २, उपफेसं ३, उपागहाओ ४ बालवीयणी ५॥ सू० २१ ॥ छाया-पञ्च राजककुदानि प्रासानि, तद्यथा-ख १ छत्रम् २, उष्णीपम् ३, उपानहौ ४ वालव्यजनी ५ ॥ सू० २१ ॥ टीका--'पंच रायककुहा' इत्यादि । राजककुदानि-राज्ञः ककुदानि= चिह्नानि पञ्च प्रज्ञप्तानि । तयथा-तानि यथा-खङ्गं छत्रमित्यादि । तत्र उष्णीपंमुकुटम् । वालव्यजनी-चामरमिति ॥ मू० २१ ॥ अनन्तरं राज्ञां पञ्च चिहान्युक्तानि, ताजश्च ऐक्ष्वाकादयो राजानो भवन्ति, तेषु गृहीतदीक्षः कश्चित् सरागोऽपि सन् सत्वाधिक्याद् यानि वस्तून्यालम्ब्य परीपहादीन् सहते तान्याह-- मूलम् -पंचहि ठाणेहिं छउमत्थे गं उदिपणे परिसहोवसग्गे सम्मं सहेजा खमेजा तितिक्खेजा अहियासेज्जा, तं जहा-उदिपणकम्मे खलु अयंपुरिसे उम्मत्तगभूए, तेण मे एस पुरिसे अकोलइका अवहलइवा णिच्छोडेइ वा णिमंछेइ वा बंधा वा लिङ्गसे ज्ञानादिसे शून्योंका रजोहरण सदोरक सुखवस्त्रिका आदि रूप साधुलिङ्गको ग्रहण करना चाहिये ॥ सू० २० ॥ लिङ्गके सम्बन्धको लेकर अब सूत्रकार राजाके पांच लिङ्गोका कथन करते हैं-'पंच रायकुकुहा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र २१॥ टीकार्थ-राजाके ककुह-चिह्न पांच-कहे गये हैं-जैसे-खग-तलचार, छन्त्र, उष्णीष-मुकुट, उपानह और चालव्यजन चामर ॥सू०२१॥ દિથી રહિત મુખવચિકા, રજોહરણ આદિ રૂપ સાધુના લિંગને (ચિહને) ४ ४२ . ॥ सू. २० ॥ લિંગના સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર રાજાના પાંચ લિંગ ( यिनी) नु थन ४२ है-"पंच रायकुकुहा पण्णता "त्या. રાજાના નીચે પ્રમાણે પાંચ ચિહ કહ્યાં છે-(૧) ખડ્રગ (તલવાર) (२) छत्र, (3) भु४८, (४) पान ( ५२मां-भाडीसी) मन (५) मालयन (न्याभ२). ॥ सू. २१ ॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ३० १२०२२ परीषद्सहननिरूपणम् ५९१ रुभइ वा छविच्छेयं करेइ वा, पसारं वा नेइ उदवेइ वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अच्छिदइ वा विच्छिद वा दिइ वा अवहर वा १। अक्खाइट्टे खलु अयं पुरिले, तेणं मे एस पुरिसे अक्कोस वा तहेव जाव अवहरइ वा २ ममं च तव्भवणिजे कम्मे उदिष्णे भवइ, तेण से एस पुरिसे अक्कोस वा जाव अवहरइ वा ३ ममं च षणं सम्मं असहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणहियासमाणस्स किं मन्ने कज्जइ १, एगंतसो मे पावे कम्मे कजइ ४ ममं चणं सम्मं सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स किं मन्त्रे कज्जइ ?, एतसो मे निज्जरा कज्जइ । इच्चे एहिं पंचहि ठाणेहिं छउमत्थे उदिपणे परीसहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव अहियासेज्जा । पंचहि ठाणेहिं केवली उदिष्णे परीसहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव अहियासेजा, तं जहा - खित्तचित् खलु अयं पुरिसे, तेण मे एस पुरिसे अकोस वा तहेव जाव अवहरइ वा ? | दत्तचित्ते खल अयं पुरिसे, तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरइ वा २ जसा खलु अयं पुरिसे, तेण मे एल पुरिसे जाव अवहरइ वा ३। ममं णं तब्भववेयणिजे कम्मे उइषणे भवइ, तेण से एस पुरिसे जाव अवहरइ वा ४। ममंच णं सम्मं सहमाणं खममाणं तितिक्खमाणं अहिया सेमाणं पासित्ता बहवे अण्णे छउ मत्था समणा णिग्गंथा उदिष्णे उदिष्णे परीसहोवसग्गे एवं सम्मं सहिस्संति Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशयत्रे जाव आहियासिस्सति ५। इच्चेएहिं पंचहि ठाणेहिं केवली उइपणे परीलहोवसन्गे सम्मं सहेजा जाब अहियासेज्जा ॥ सू० २२ ॥ छाया--पञ्चभिः स्थानः छगस्थः खलु उदीणीन् परीपहोपसर्गान् सम्यक् सहते क्षमते तितिक्षते अध्यास्ते, तद्यथा-उदीर्णकर्मा खलु अयं उन्मत्तकभूतः, तेन मे एप पुरुषः आक्रोशति वा अपहसति वा निश्छोटयति वा निर्भयति वा वध्नाति वा रुणद्धिया छविच्छेदं करोति वा प्रमारं वा नयति उपद्रवयति वा वस्त्रं वा पतद्ग्रहं वा कम्बलं वा पादपोउन वा आच्छिनत्ति वा विच्छिनत्ति वा भिनत्ति वा अपहरति वा १ । यक्षाविष्टः खलु अयं पुरुपः तेन मे एप पुरुषः आक्रोशति वा तथैव यावदपहरति वा २। मम च खलु तद्भववेदनीयं कम उदीणं भवति तेन मे एप पुरुषः आक्रोशति वा यावत् अपहरति वा ३। मम च खलु सम्पक अमहमानत्य असममाणस्य अतितिक्षमाणस्य अनध्यासीनस्प किं मन्ये नियते ? एकान्तशो मया पापं कर्म क्रियते ४। मम च खल सम्यक सहमानस्य यानत अध्यासीनस्थ किं मन्ये क्रियते ? एकान्तशो खया निजरा क्रियते ५। इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः छमस्थ उदीर्णान् परीमहोपसर्गान् सम्यक् सहते यावत् अध्यास्ते । पञ्चभिः स्थानः केवली उदीर्गान् परीपदोपसर्गान् सम्यक महते यावदध्यास्ते, तर्घथाक्षिप्तचित्तः खलु अयं पुरुषः तेन मे एप पुरुष आक्रोगति वा तथैव यावत् अपहरति वा १। इसचित्तः खलु अयं पुरुषः तेन मे एप पुरुषो यावत् अपहरति वा २। यक्षाविष्टः खलु अयं पुरुषः, तेन मे एप पुरुषो यावत् अपहरति वा ३। मम च खलु तद्भववेदनीयं कर्म उदीण भवति, तेन मे एष पुरुषो यावत अपहरति चा ४। मां च खलु सम्यक् सहमानं क्षममाण तितिक्षमाणम् अध्यासीनं दृष्ट्वा बहवोऽन्ये छद्मस्थाः श्रमणा निर्ग्रन्था उदीर्णान् उदीणान् परीपहोपसर्गान् एवं सम्यक् सहिष्यन्ते यावदध्यासिष्यन्ते ५। इत्येतः पञ्चभिः स्थानः केवली उदीर्णान् परीपहोपसर्गान् सम्यक् महते यावत् अध्यास्ते ॥ सू० २२ ॥ इन चिह्नोंवाले राजा होते हैं, और ये इक्ष्वाकु आदि कुलोंमें जन्म. घाले होते हैं, इनमें से जिस किसीने दीक्षा गृहीतकी होती है, वह सराग होता हुआ भी सत्व शक्तिकी अधिकतासे जिन वस्तुओंका अवलम्बन कर के परीषह आदिको सहता है, उनका अघ सूत्रकार ઉપર્યુક્ત ચિલોવાળા રાજાઓ હોય છે. તેઓ ઈવાકુ આદિ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા હોય છે. તેમનામાંથી જે કેઈએ દીક્ષા ગ્રહણ કરી હોય છે તે સરાગ હેવા છતાં પણ સર્વ શક્તિની અધિકતાને લીધે જે વસ્તુઓનું Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९३ सुधा टीकास्था०५७० १ सू०२२ परीपहसहननिरूपणम् टीका-पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि- . छमस्या-छादयति ज्ञानादिगुणमात्मन इति छद्मः ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायात्मकं घातिकर्मचतुष्टय, तत्र तिष्ठतीति छमस्था-सकपाय इत्यर्थः । स पश्चमिः स्थानः उदीर्णान्-उदयं प्राप्तान् परीषदोपसर्गान् परि समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मोक्षमार्गाप्रस्खलननिर्जरार्थ साध्यादिभिः समन्ते ये ते परीपहाभूतादि जनिताः पीडाः, उपसृज्यन्ते-क्षिप्यन्ते-पात्यन्ते प्राणिनो धर्मा. दिभ्यो यस्ते उपसर्गाः=देवादिकृतोपद्रवरूपाः, उभयोर्द्वन्द्वः तान् सम्यक् कपायोदयनिरोधादिना सहते-योधो योधमिव निर्भीकतयाऽविचलः सन् महते, क्षमतेक्षमावलेन सहते, तितिक्षते अदैन्येन सहते, तथा-अध्यास्ते-परीपहोपसर्गेषु सप्राप्तेषु अधि-आधिक्येन आस्ते=तिष्ठति न तु ततः प्रचलतीति। तद्यथाकथन करते हैं-पंचहि ठाणेहिं छउमत्थे णं उदिण्णे' इत्यादि सूत्र २२॥ _____टीकार्थ-आत्माके ज्ञानादिक गुणोंका जो छादन-आवरण करे उसका नाम छम है, ऐसा यह छद्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार धातिया कर्मो रूप होता है, इस छद्ममें जो रहता है, इस छद्मवाला जो होता है, वह छगस्थ है, कषाय सहित जीव छमस्थ होता है। यह छमस्थ उदित हुए परीषहों को एवं उपसर्गों को अच्छी तरह से सहता है, क्षमा धारण करके सहता है, दीनता रहित हो करके सहता है। जैसे २ ये आते हैं वैसे २ वह दृढता के साथ उनका अविचलित भावसे सामना करता है। इसमें ये पांच कारण हैं, इनमें पहिला कारण इस प्रकारसे हैઅવલંબન કરીને પરીષહ આદિને સહન કરે છે, તે વસ્તુઓનું (તે અવલંબનના કારણેનું હવે સૂત્રકાર કથન કરે છે– "पंच हिं ठाणेहि छउमत्थे णं उदिण्णे " त्याह ટીકાર્ય–આત્માના જ્ઞાનાદિક ગુણનું જે છાદન (આવરણ) કરે તેનું નામ છઘ છે. જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણય, મોહનીય અને અત્તરાય, આ ચાર ઘાતિયા. કમરૂપ જ તે છ હોય છે. આ છઘમાં જ રહે છે–એટલે કે જે જીવે આ છ% (આવરણ) વાળા હોય છે, તેમને છદ્મસ્થ કહે છે. કષાયયુક્ત જીને છદ્યસ્થ કહેવાય છે. જે પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે છે તેમને છવાસ્થ જીવ સારી રીતે સહન કરે છે, સમતાભાવપૂર્વક તેમને સહન કરે છે, દીનભાવને ત્યાગ કરીને તેમને સહન કરે છે, અને જે જે પરીષહ અને ઉપરાર્ગો આવી પડે તેને અવિચલભાવે (દઢતાપૂર્વક) સામને કરે છે, એવું स्था०-७५ . Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाने नानि रयानानि यथा-अयं संमुवस्थितउपदार्ता पुरुषः खलु-निश्चयेन उदीर्णमामां-उदीगम्-उदयावनिकायां प्रविष्ट कर्म यरय स:-उदितमिथ्यात्वमोहनीया. विकर्मा, उनकभूनः-उन्मना=अदिरादिना तितचित्तः स इव सएव वा चास्ति; न हेतुना पत पुरुषों से मार, सम्बन्धमामान्ये पाठी, आक्रोशति-गाल्यादिकंददानि वा अथवा असति-उपहामं करोति, निश्छोटयति-मम हस्तादितो रबादिक बलाद वियोजयति वा, निर्भसंपति-दुर्वचनैस्तर्जयति वा, वनातिरादिना कमायुनं करोनि वा, रुगद्धि-कारागारादी मम निरोधं करोति वा, लपि-वेगरीरावयवस्य हस्तादे छेद कर्त्तनं करोति वा, प्रमारं-मूर्छाविनयं मागन्यानं या न पतिपारयनि बा, उपद्रवयति-उपद्रवं करोति वा, तथा "विष्णकम् स्वलु अयं पुरिले अम्मत्तगभूए " इत्यादि यां उदीर्ण गन्द से जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट हो गया है, Pा वह कर्म उदीर्ण कहा गया है। जिसका मिथ्यात्व मोहनीयादि कर्म उदयारम्बावाला हो रहा है, और इसीसे जो मदिरादिकके सेवन से विक्षिप्त चित्ताले के जैसा बना हुआ है । ऐसा कोई पुरुष यदि मेरे लिये गाली आदि देता है, अयवा मेरी हंसी करता है, अथवा मेरे हाथ में ले वन्न पान आदिको बलात्कारसे छडानाहै,या मुझे दुर्वचनोले तर्जित पारना है या रस्सी आदिसे बांधता है या कारागार आदिमें मुझे चन्द पर देता है, अधरा मेरे शरीर के अवयव प हस्त आदिका छेदन करता या मुझे लिंग कर देता है, या मुझे मरण स्थान पर ले जाकर पटक देना है। अथवा नहीं करने योग्य उपद्रव मेरे ऊपर करता है। ના પાચ કા ને લીધે બને છે તેમાં પહેલું કારણ આ પ્રમાણે છે– " अविणकरगे रजनु अयं पुरिने अम्मनगभूए " त्यादि અ “ ' પદ દ્વારા ઉદયાવલિકામાં પ્રવિણ થઈ ગયેલા કમને - २ ०\७. "रेनु भिल्या भारतीय गाया . વડા પ્રવિણ થઈ શકે છે, અને તે કારણે મદિરાનું સેવન કરનાર વ્યક્તિના છે, જેનું વિત્ત વિશિત થઈ ચુખ્યું છે, એ પુરુષ જે મને ગાળે રે, િક , મારી પાવથી બ, પાત્ર આદિ વસ્તુને પરાણે પડાવી છે, એવા મારી સામે દુર્વચનને પ્રયોગ કરે, મને દેરડી અાદિ વડે રાધે, અને કરને ૨ આદિમ પરી , અથવા વાઘ આદિ શરીરના અવયવને છેતી म नाणे, 144 भने भने २५ पBina १, ५१.71 : ४२३॥ २:२५ 3५४ोशन भने सुशन ४२वानी प्रयत्न रे, Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५ उ०१ सू०२२ परीपहसहननिरूपणम् ५९५ वस्त्रं-चोलपट्टादिकं वा. पतद्ग्रहं यात्रं वा, कम्बलं वा, पादपोन्छन पादपरिमाजनार्थ साधूपकरणरूपं वस्त्रखण्डं वा आच्छिनत्ति बलादादत्ते वा, विच्छिनत्ति= - विच्छिन्नं वा करोति, भिनत्ति-पात्रादिकं स्फोटयति, वस्त्रादिकं स्फाटयति वा, वस्त्र-चोलपट्टक आदिको पात्रों को कम्बल को एवं पादप्रोन्छन पैरों को पोंछने के लिये सोधनबूत साधुके उपकरणरूप वस्त्राखण्डको बलात्कार से छुडाता है, उन्हें फाड देता है, या नष्टभ्रष्ट कर देता है, पात्रादिकको फोड डालता है या चुरा लेता है, तो ऐसे उपसर्गों को और परीषहों को मुझे समताभाव पूर्वक सहन करना चाहिये । अपने कर्तव्य से इस स्थितिमें विचलित नहीं होना चाहिये । इस प्रकारकी दृढ धारणा से जो उपसर्ग और परीषहों को सहन करता है। ऐसा वह साधु गृहीत मोक्षमार्ग से विचलित नहीं होता है । अंगीकार किये हुए धर्म मार्गमें स्थिर रहने और कर्मबन्धनों के विनाशार्थ जो स्थिति समभाव पूर्वक सहन करने योग्यहै, उसे परीषह कहते हैं, एवं देवादिकृत उपद्रवों को उपसर्ग कहतेहैं । तात्पर्य कहने का यहहै कि छद्मस्थ मोक्षाभिलाषी मुनिजनोंको उपसर्ग एवं परीषहों को इसलिये अच्छी तरहसे सहन करना चाहिये कि वे समझदार प्राणियों द्वारा उदीरित नहीं किये जाते हैं, किन्तु अज्ञानी प्राणियों द्वारा कि जो मिथ्यात्व मोहनीयादि कर्मके उद्य ચેલ પટ્ટક આદિને, પાત્રોને, પાદuછન (પગ લૂછવા માટેના સાધુના ઉપકરણ રૂપ અખંડ) આદિને બળજબરીથી પડાવી લે છે, તેને ફાડી નાખે છે, નષ્ટ-ભ્રષ્ટ કરી નાખે છે, અથવા પાત્રોને ફાડી નાખે છે, મારા ઉપકરણોને ચરી જાય, તો મારે એવાં ઉપસર્ગો અને પરીષહેને સમભાવપૂર્વક સહન કરવા જોઈએ. તેને કારણે મારે મારા કર્તવ્ય માર્ગમાંથી વિચલિત થવું જોઈએ નહીં, ” આ પ્રકારના દઢ મનોબળપૂર્વક જે સાધુ ઉપસર્ગ અને પરીષહેને સહન કરે છે, તે સાધુ ગૃહીત મોક્ષમાર્ગેથી વિચલિત થતો નથી. તે તે પિતે અંગીકાર કરેલા ધર્મમાર્ગમાં સ્થિર રહે છે. કમબન્યોના વિનાશને માટે જે સ્થિતિ સમભાવપૂર્વક સહન કરવા યોગ્ય છે, તેને પરીષહ કહે છે અને દેવાદિકૃત ઉપદ્રવોને ઉપસર્ગ કહે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-છવાસ્થ સુનિ ઉપસર્ગો અને પરીષહેને સમભાવપૂર્વક એ કારણે સહન કરે છે કે તે એવું સમજે કે આ ઉપસર્ગો અને પરીષહ સમજદાર જીવો દ્વારા ઉત્પન્ન કરાતાં નથી, પણ અજ્ઞાની છો Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यामसूत्र अपहरति चोरयति वा । इति प्रथम स्थानम् १। तथा-यक्षाविष्टः-यक्षेण देववि. शेपेण आविष्टोऽधिष्ठितोऽयं पुरुषः, तेन हेतुनाऽयं पुरुषो मेमाम् आक्रोशति वेत्यादि । अर्थः पूर्ववद्वोध्यः । इति द्वितीय स्थानम् २। तथा-मम च खल के वशवर्ती हो रहे हैं, उत्पन्न किये जाते हैं, अतः वे रोप के कारण नहीं हैं यह प्रथम कारणहै १। द्वितीय कारण इस प्रकारसे है___ "यक्षाविष्टः खलु अयं पुरुषः तेन मे एष पुरुषः आक्रोशति" इत्यादि यह पुरुष यक्ष से देवविशेप से अधिष्ठित हो रहा है, इस कारण __ यह मेरे प्रति आक्रोश कर रहा है, मुझे गाली आदि दे रहा है, मेरी हंसी कर रहा है, इत्यादि सब कथन यहां पर भी कह लेना चाहिये। अतः मुझे इसके द्वारा किये उपद्रवों का या परीषहों को शान्तिपूर्वक अच्छी तरह से सहन करना चाहिये । ऐसे विचार से उन्हें सहन करता है, उसके प्रति वह कषाय नहीं करता है, क्षमायल से उनका सामना करता है, उनके आने पर वह अपनी दीनता प्रकट नहीं करता है, प्रत्युत एक वीर के समान वह उनको सहन करता है, ऐसा यह द्वितीय कारण है। इस द्वितीय कारण में केवल यही प्रदर्शित किया गया है । परीषहादि प्रदाता अपने स्वभावमें नहीं है, क्योंकि वह किसी यक्षके आवेश से आक्रान्त हो रहा है। દ્વારા જ ઉત્પન્ન થાય છે. અજ્ઞાની છ મિથ્યાત્વ, મેહનીય આદિ કર્મોના ઉદયના કારણે આ ઉપસર્ગો અને પરીષહ ઉત્પન્ન કરતા હોય છે. તેથી તેઓ રેષ કરવાને પાત્ર નથી પણ દયા ખાવાને પાત્ર છે. ____भा ४।२० २॥ प्रभारी छे-" यक्षाविष्टः खलु अयं पुरुषः तेन मे एष पुरुष आनोशति" त्या-ते साधुना भनमा सवी वियारधारा यावे છે કે આ પુરુષ યક્ષ વડે અધિષિત થઈ રહ્યો છે, એટલે કે કઈ યક્ષ તેના શરીરમાં પ્રવેશ કરીને તેના દ્વારા ઉપસી કરાવી રહ્યા છે. તે કારણે જ તે મારા પ્રત્યે ક્રોધ કરી રહ્યો છે, મને ગાળ દઈ રહ્યો છે, મારી મજાક કરી રહ્યો છે, વગેરે કથન અહીં પણ આગળ મુજબ જ સમજવું. તેથી આ પ્રકારના પરીષહ અને ઉપસર્ગો મારે શાન્તિપૂર્વક સહન કરવા જોઈએ. આ પ્રકારની વિચારધારાથી પ્રેરાઈને તે તેમને સમભાવપૂર્વક સહન કરે છે અને પસર્ગ કરનાર પ્રત્યે તે ફોધ કરતો નથી, દૈન્યભાવ પ્રકટ કરતું નથી, પરંતુ ક્ષમાભાવપૂર્વક એક વીરની જેમ તે પરીષહ અને ઉપસર્ગોનો અડગતાપૂર્વક સામનો કરે છે. આ બીજા કારણમાં એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે પરીષહ આદિ ઉત્પન્ન કરનાર વ્યક્તિના શરીરમાં યક્ષનો પ્રવેશ થવાને કારણે તે પિતાના મૂળ સ્વભાવને ગુમાવી બેઠી હોય છે. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०५ उ०१ सू०२२ परीपहसहननिरूपणम् ५९७ तद्भववेदनीयं-तेन भवेन-मानुष्य केण जन्मना वेधते अनुभूयते यत्तत् कर्म-पूर्वोपार्जितं कर्म उदीर्णम् उद्यावलिकां प्रविष्टं भवति, तेन हेतुना अयं पुरुषो मे आक्रोशतीत्यादि । इति - तृतीय स्थानम् । एतत्पुरुषकृताक्रोशनादिकम् सम्यक असहमानस्य अक्षममाणस्य अतितिक्षमाणस्य अनध्यासीनस्य च मम खलु, 'मन्ये' तृतीय कारण-मम च खलु तद्भववेदनीयं कर्म उदीण भवति तेन मे" इत्यादि--ऐसा है कि परीषहादि सहन करनेवाला साधक ऐसा विचारता है कि-मैंने पूर्वजन्ममें ऐसे ही कर्म किये हैं कि जिनका वेदन मुझे इस प्राप्त मनुष्य भवमें करना योग्य है । अतः वही कर्म मेरे इस समय उद्यमें आ रहा है, इस कारण यह पुरूष मुझे गाली आदि दे रहा है, मेरो हंसी आदि कर रहा है । ऐसा विचार कर वह परीषह और उपसर्गों को सहन करता है। चौथा कारण इस प्रकार है--"ममच खलु सम्यक असहमानस्य अक्षममाणस्य अतितिक्षमाणस्य अनध्यासीनस्थ" इत्यादि-वह मोक्षाभिलाषि साधु उपसर्गादिकके आने पर ऐसा विचार करताहै कि मैं यदि इन पुरुष कृत आक्रोश आदिकोंको जो अच्छे प्रकार से नहीं सहता इं, क्षमा धारण नहीं करता हूं, दीनता प्रदर्शित करता हूं और अपने कर्तव्य पथसे विचलित होतो हूं वो मुझे एकान्ततः पाप का उपार्जन श्री १२६-" मम च खलु तद्भववेदनीय कर्म उदीर्ण भवति तेन से" ઈત્યાદિ–ઉપસર્ગ આદિ સહન કરનાર તે સાધક એવો વિચાર કરે છે કે મેં પૂર્વભવમાં એવાં કર્મો કર્યા છે કે જેમનું વેદને મારે આ પ્રાપ્ત મનુષ્ય ભવમાં કરવા ગ્ય છે. મારા તે કર્મો આ ભવમાં આ સમયે ઉદયમાં આવી રહ્યાં છે. તેથી જ આ પુરુષ મને ગાળ આદિ દઈ રહ્યો છે અને મારી મજાક ઉડાવી રહ્યો છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે પરીષહો અને ઉપસર્ગોને સહન કરી લે છે. याथु ४२६-" मम च खलु सम्यक् असहमानस्य अक्षममाणस्य अतितिक्षमाणस्य अनध्यासीनस्य " याह-५स माह सहन ४२वानी प्रस આવે ત્યારે તે સાધક સાધુ એવો વિચાર કરે છે કે “જે હું આ વ્યક્તિ દ્વારા પ્રકટ કરાત ક્રોધ આદિ સમતાપૂર્વક સહન નહીં કરૂ, ક્ષમા ધારણ નહી કરૂં, દીનતા પ્રકટ કરીશ અને મારા કર્તવ્યમાર્ગેથી ચલાયમાન થઈશ, तो भारे मेान्तत: ५५नु पान २ ५७. " मी “ मन्ये " मा Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ धानामधे इति निपातो वितर्क, किं क्रियतेसम्पद्यते ?, इत्थं वितर्कणायां विनिश्रयार्थमाहएकान्तशः निश्चयेन मया पापं कर्मक्रियते-उपाय॑ते । इति चतुर्थ स्थानम् । पूर्वपरीत्येनाह-एतत्पुरुपकृताक्रोशनादिकं सम्यक् सहमानस्य क्षममाणस्य तिति क्षमाणस्य अध्यासीनस्य च मम-मया खलु मन्ये किं क्रियते ?, एकान्तशो मया निर्जरा क्रियते-मय निर्जरा भवतीत्यर्थः । इति पञ्चमं स्थानम् ५। इत्येतेः पञ्चभिः स्थानः छद्मस्थ उदीर्णान् परीपहोपसर्गान् सम्यक् सहते यान्त अध्यास्ते इति निगमनम् । सम्पनि केवली तीर्थकरगणधरादिः यैः स्थानः उदीर्णान् परीपहोपसर्गान् सम्यक् सहते यावदध्यास्ते तानि पञ्च स्थानानि प्राह-तद्यथा-क्षिप्तचित्ता होगा। यहां " सन्ये" यह वितर्क में निपात है. ऐसे विचार से भी वह आगत परीपहादिकों को अच्छी तरहसे सहता है। पांचवां कारण ऐला है-" मम च खलु सम्यक् सहमानस्य यावत् अध्यासीनस्थ " इत्यादि--वह पुरुप ऐसा विचारता है कि यदि मैं इन पुरुषों आदि द्वारा कृत उपसर्ग आदिकों को अच्छी तरह से सहन कर लेता हूं, यावत् अपने कर्तव्य कर्म से विचलित नहीं होता हूँ, अविचलित बना रहता हूं, तो यह बात निश्चित है कि मेरे कमों की एकान्ततः निर्जर। होगी। इस प्रकारके ये पांच स्थान हैं, इन पांच कारणों को लेकर छद्मस्थ संयत उदीर्ण परीषह और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार सहन करता है, यावत् उनसे अपने गृहीत मार्गसे विचलित नहीं होता है। अब सूत्रकार उन स्थानों को प्रकट करते हैं, कि जिन स्थानों को लेकर तीर्थंकर और गणधर आदि उदीर्ण परीषहों को और उपसर्गों પદ આ પ્રકારને વિતર્ક પ્રકટ કરે છે આ પ્રકારના તેના વિતકને લીધે પણ તે પરીષહ અને ઉપસર્ગોને અડગતાથી સહન કરે છે. यां, ४१२२-" मम च खलु सम्यक सहमानास यावत् अध्यासीनस्य " ઈત્યાદિ-તે સાધક સાધુ એવો વિચાર કરે છે કે “જે આ પુરુષે આદિ દ્વારા ઉત્પન્ન કરાયેલા ઉપસર્ગ આદિને હું સમભાવપૂર્વક સહન કરીશ, મારાં કર્તવ્ય માર્ગમાં (સંયમ માર્ગમાં) દઢતાપૂર્વક આગળ વધીશ, તે એ વાત તે નિશ્ચિત જ છે કે મારાં કર્મોની એકાન્તતઃ નિર્જરા થશે ? આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરિત થઈને પણ તે પરીષહ તથા ઉપસર્ગોને સહન કરે છે, દીનભાવને ત્યાગ કરીને સમભાવપૂર્વક તેમને સહન કરે છે અને સંયમ પથે ढतापू' माग धे छ. २. स्थान। (२)-२ सीधे तीथ । मने गधरे। ही परी બહ તથા ઉપસર્ગોને સારી રીતે સહન કરે છે, તે સ્થાનોનું હવે સૂત્રકાર Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ३०१ सू०२२ परीषहसहननिरूपणम् ५९९ पुत्रकलत्रादिशोकेन विनष्टचित्तत्वेन उन्मत्त एव एष पुरुषः, तेन एष पुरुषो मेंआक्रोशनीत्यादि । इति प्रथमं स्थानम् १। तथा-चित्तः हप्ते-दर्पयुक्तम्-अहझारयुक्तं चित्तं यस्य सः, पुत्रजन्मादिना उद्धतचित्ततया उन्मत्त एप एव पुरुषः, तेन हेतुना एप पुरुषो मे आक्रोशतीत्यादि । इति द्वितीय स्थानम् २। तृतीयं चतुर्थं च स्थानद्वयं व्याख्यातप्रायम् । तथा-एत पुरुषकताक्रोशनादिकं सम्यक को अच्छी तरह से सहन करते हैं, यावत् अपने मार्ग से विचलित नहीं होते हैं, ऐसे ये स्थान भी पांच हैं, जो इस प्रकार से है___"क्षिप्तचित्तः खलु अयं पुरुषः तेन मे एष पुरुषः आक्रोशति तथैव अपहरति वा" उपसर्गादिक के किये जाने पर वे ऐसा विचार करते हैं-पुत्र कलत्र आदि के शोक से विनष्ट चित्तवाला होने से यह पुरुष क्षिप्त चित्तवाला हो गया है । अतः यह पुरुष उन्मत्त ही है, इस कारण यह पुरुष मेरे प्रति आक्रोशादि रूपसे व्यवहार कर रहा है, यह प्रथम स्थान है। द्वितीय स्थान ऐसा है कि " दृप्तचित्तः" इत्यादि-- . यह उपसर्गादि करनेवाला मनुष्य अहङ्कारयुक्त चित्तवाला है, अथवा पुत्र जन्मादिसे उद्धत चित्तवाला है, इसलिये यह उन्मत्तही है, इन कारण यह मेरे प्रति उपसर्गादि कर रहाहै, तृतीय स्थान इस प्रकार से है, परीषहादि सहनेवाले तीर्थंकर आदि ऐसा विचारते हैं, कि मैंने पूर्वजन्म में ऐसेही कर्म किये हैं, कि जिनका वेदन छुझे इस प्राप्त मनुष्य કથન કરે છે. તે સ્થાને પણ પાંચ છે. પહેલું કારણ નીચે પ્રમાણે છે "क्षिप्तचित्तः खलु अयं पुरुषः तेन एप पुरुषः आक्रोशति तथैव अपहरति वा " ५ मा ४२वामा मावे त्यारे तमा सेवा વિચાર કરે છે કે “પુત્ર, પત્ની આદિના શકને કારણે આ માણસની બુદ્ધિ ભમી ગઈ છે–તે મગજ પરનો કાબૂ ગુમાવી બેઠે છે. તેથી તે પુરુષ ઉન્મન જ છે. તે કારણે તે મારી સાથે આ પ્રકારને આક્રોશ કરવા રૂપ, ગાળે દેવા રૂપ વગેરે વ્યવહાર કરી રહ્યો છે. ” मी २४-"प्तचित्तः " त्याह. ते विया२ ४२ छ, “म! ઉપસર્ગ આદિ કરનાર મનુષ્ય અહંકારયુક્ત ચિત્તવળે છે. અથવા પુત્ર જન્માદિને કારણે ઉદ્ધત ચિત્તવાળે બની ગયો છે, તેથી તે ઉન્મત્ત જ છે. તે કારણે જ તે મને ઉપસર્ગાદિ દ્વારા હેરાન કરી રહ્યો છે.” e ત્રીજું કારણ–પરીષહાદિ સહન કરનાર તીર્થ કર અથવા ગણધર એ. વિચાર કરે છે કે પૂર્વજન્મમાં મેં જે કર્મો કર્યા છે, તે આ લવમાં અત્યારે ઉદયમાં આવી રહ્યાં છે. તેથી જ આ પુરુષ અને ગાળ દઈ રહ્યો છે, મારી Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० स्थानास्त्रे सहमानं क्षममाणं तितिक्षमाणम् अध्यासीनं च खलु मां दृष्ट्वा अन्येऽपि ववछश्रमणा निर्ग्रन्थाः ममानुकरणं कृत्वा भूयो भूय उदयावस्थां प्राप्तान् परीपहोपसर्गान् एवम्=अनेन प्रकारेण यथा मया ते सह्यन्ते तथैव सहिष्यन्ते यावत् अध्यासिप्यन्ते । अयं भावः - साधारणा जना उत्तमानुयायिन एवं प्रायो भवन्ति, भव करना योग्य है, अतः वही कर्म मेरे इस समय उदयमें आ रहा है, मेरी हँसी आदि कर रहा है, ऐसा विचार कर वह परीपह और उपसर्गो को सहन करता है ३। चौधा कारण इस प्रकार से है - वह साधु उपसर्गादिकके आने पर ऐसा विचार करता है, कि मैं यदि इन पुरुषकृत आकोश आदिकोंको जो अच्छी तरहसे नहीं सहता हूँ क्षना धारण नहीं करता हूँ दीनता प्रदर्शित करता हूँ और अपने कर्त्तव्य पथ से विचलित होता हूँ तो मुझे एकान्ततः पापका उपार्जन होगा | पांचवां स्थान ऐसा है, कि वे विचारते हैं, यह पुरुष जो हमारे प्रति उपसर्गादि कर रहा है, इन्हें सम्यक रीति से सहन करते हुए क्षमाभावपूर्वक सहन करते हुए दीन भावरहित होकर महन करते हुए एवं अपने मार्ग से विचलित न होकर सहन करते हुए मुझे देखकर और भी अन्य अन्य अनेक छद्मस्थजन मेरा अनुकरण करके यार २ उदयावस्था प्राप्त परीषह और उपसर्गो को मेरी तरहसेही सहन करेंगे यावत् अपने मार्ग से विचलित नहीं होंगे इसका भाव ऐसा है, साधा હાંસી ઉડાડી રહ્યો છે. ” તેથી તે ઉપસર્ગાદિકાને તે સહન કરે છે. ચેાથુ' કારણ આ પ્રમાણે છે—તે ઉપસર્ગાઢિ સહન કરનાર સાધુ પેાતાના મનમાં એવે વિચાર કરે છે કે “જો હું આ પુરુષકૃત આક્રોશ આદિને સારી રીતે સહન નહીં કરૂ, ક્ષમા ધારણુ નહીં કરૂં. દીનતા પ્રકટ કરીશ, અને મારા કન્ય માગ માંથી વિચલિત થઈશ, તેા મારે એકાન્તતઃ थायनुं उपार्जन थशे. " પાંચમુ. કારણ આ પ્રમાણે છે—તે એવા વિચાર કરે છે કે “ આ પુરુષ મને જે પરીષહેા અને ઉપસર્યાં પહોંચાડી રહ્યા છે તે ઉપસર્ગા અને પરીષહાને સમભાવપૂર્ણાંક સહન કરવાથી, ક્ષમાભાવપૂર્વક સહન કરવાથી, દૈન્યભાવના ત્યાગપૂર્વક સહન કરવાથી અને સયમના માર્ગેથી ચલાયમાન થયા વિના સહન કરવાથી, અન્ય સાધુએપર પણ સારા દાખલેા બેસશે, અન્ય અનેક છદ્મસ્થ સાધુએ પણ મારૂ અનુકરણુ કરીને વારંવાર ઉદયાવસ્થામાં આવતા પરીષા અને ઉપસર્ગાને મારી જેમ જ સહન કરશે, ઈત્યાદિ સમસ્ત પૂર્વોક્ત કથન અહીં. ગ્રહણુ થવુ. તેઇએ, તેઓ પેાતાના સંયમ માથી 66 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सधा टीका स्था०५ उ०१ सू०२२ परीषहसहननिरूपणम् ६०१ अत एवं-उत्तमपुरुषाः प्रतिकर्तुं समर्था अपि नीचकृतपरिपहोपसर्गान् प्रतिकर्तुं नोद्यतन्ते । यदि ते पतीकारपरायणा भवेयुस्तदा तदनुयायिनोऽप्येवं कुर्युः, ततस्तदनुयायिनोऽनन्तकालं यावत् संसारावर्ते निमज्जेयुः । तेषामुद्धारार्थमेव करूणापरायणाः केवलिनो अज्ञानिकृतापकारान् सहन्ते, ताँस्तथा सहमानान् दृष्ट्वा छमस्था अपि सहन्ते । उक्तं च " जो उत्तमे हिं मग्गो, पहओ सो दुकरो न सेसाणं । , आयरियम्मि जयंते, तयणुचरा केण सीएज्जा ? ॥१॥" छाया-य उत्तमै गिः प्रहतः स दुष्करो न शेषाणाम् । - आचार्य यतमाने तदनुचराः केन सीदेयुः ? ॥ इति । रण मनुष्य उत्तमजनोंका प्रायः अनुकरण करनेवाले होते हैं, उत्तम पुरुष यद्यपि प्रतिकार करने की शक्तिवाले होते हैं, फिर भी वे नीचजन कृत परीपह और उपसर्गोका प्रतीकार करने के लिये उद्यत नहीं होते हैं, यदि वे प्रतिकार करने में कटिवद्ध होने लगे तो फिर जो उनके अनुयायीजन हैं वे भी इसी प्रकार से करने लगेगे तो फिर उनके अनुयायियोंका अनन्त संसार सान्त कैसे हो सकेगा अनन्तकाल तफही वे इस संसाररूपी भंवर में डूबे रहेंगे, अतः इनका उद्धार हो इस अभिप्रायसेही कृपापरायण केवली अज्ञानीजल कृत अपकारोंको सहन करते हैं, और उन्हें सहन करते हुए देखकर छद्मस्थजन भी उन्हें सहन करते हैं। कहा भी है " जो उत्तमेहिं मग्गो पहओ" इत्यादि । इस गाथाका पूर्वक्ति ચલાયમાન નહીં થાય” આ કથન પર્યન્તનું સમસ્ત કથન અહીં ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે સામાન્ય મનુષ્ય સામાન્ય રીતે ઉત્તમજનેનું અનુકરણ કરનારા હોય છે. ઉત્તમ પુરુષે છે કે પ્રતિકાર કરવાને સમર્થ હોય છે, છતાં પણ તેઓ નીચે પુરુષો દ્વારા કરાતા પશષ અને ઉપસીને પ્રતિકાર કરવા પ્રયત્ન કરતા નથી. જે તેઓ તેમને પ્રતિકાર કરવા માંડે, તો તેમના અનુયાયીઓ પણ એ જ પ્રમાણે કરવા લાગી જાય. જો તેઓ એ પ્રમાણે વર્તતા થઈ જાય, તે તેમને સંસાર પશુ કેવી રીત સાન્ત (અતયુક્ત ) બની શકે ! એવું કરનારને તે અનંતકાળ પર્યા સંસાર રૂપી વમળમાં ડૂબકીઓ ખાધા જ કરવી પડે. તેથી તેમને ઉદ્ધાર કરવામાં આવતા અપકારોને સહન કર્યા કરે છે, અને તેમને તે સહન કરતા જોઇને છસ્થજને પણ તેમને સહન કરે છે. કહ્યું પણ છે કે – ___“जो उत्तमेहि मगो पहो" इत्यादि-२५ थाना 6५२ Bal स्था०-७६ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ स्थानागपत्र इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः केवली उदितान् परीपहोपसीन, सम्यक् सहते यावत् अध्यास्ते । इति । सू० २२ ॥ सम्प्रति मिथ्याष्टि सम्यग्दृष्टयोरेकैकमाश्रित्य हेतोः पञ्चविधत्वं, छमस्थकेवलिनोः प्रत्येकमाश्रित्य अहेतोश्च पश्चविधत्वमाह मूळम्-पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेडं न जाणइ, १ हेर्ड ण पालइ, २ हेडं ण बुज्झइ ३, हेडं णाभिगच्छइ ४, हेडं अन्नाणमरणं मरइ १॥ पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेउणा ण जाणइ जाव हेउणा अपणाणसरणं मरइ । पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेडं जाणइ जाव हेडं छउमस्थमरणं मरइ । पंच हेऊ पणत्ता, तं जहा-हेउणा जाणइ जाव हेउणा छउमत्थमरणं परइ । पंच अहेऊ पण्णता, तं जहा-अहेडं ण जाणइ जाव अहेडं छउमत्थमरणं मरइ । पंच अहेऊ पण्णता, तं जहा-अहेउणा न जाणइ जाव अहेउणा छउमत्थमरणं मरइ । पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेडं जाणइ जाव आहेडं केवलिमरणं मरइ । अहेउणा जाणइ जाव अहेउणा केवलिमरणं मरइ । केवलिस्स णं पंच अणुत्तरा पण्णत्ता, तं जहा-अणुत्तरे जैसाही भावहै, इस तरह के विचारखे तीर्थ कर भगवान् उदित परीपहों और उपसर्गों को अच्छी तरइसे सहते हैं, यावत् सहते हए अपने मार्गले विचलित नहीं होते हैं-प्रत्युत इनके आने पर और अधिक दृढताके साथ अपने गृहीत मार्ग पर अटलही पने रहते हैं । सू० २२ ॥ પ્રમાણે જ છે. આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરિત થઈને કેવલી ભગવાન ઉલત પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સારી રીતે સહન કરે છે, (યાવત) તેઓ પરીષહ આ પડે ત્યારે પિતાના માર્ગેથી વિચલિત થતા નથી, પરંતુ પરીષ તથા ઉપસર્ગોને દઢતાપૂર્વક સામને કરીને પોતે ગ્રહણ કરેલા જ માગે અડગતા પૂર્વક આગળ વધે છે. જે સૂ. ૨૨ છે Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०५ उ०१ सू०२३ हेत्वहेत्वोः स्वरूपनिरपणम् ६०३ णाणे १, अणुत्तरे दसणे २, अणुत्तरे चरित्ते, ३ अणुत्तरे तये ४, अणुत्तरे वीरिए ५॥ सू० २३ ॥ छाया-पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-हेतुं न जानाति १, हेतुं न पश्यति २, हेतुं न बुध्यते ३, हेतुं नाभिगच्छति ४, हेतुमज्ञानमरणं म्रियते ५। पञ्च हेतवः मज्ञप्ताः, तद्यथा-हेतुना न जानाति, यावत् हेतुना अज्ञानमरणं नियते । पश्च हेतवः प्राप्ताः, तद्यथा-हेतु जानाति यावत् हेतुं छनस्थमरणं म्रियते । पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-हेतुना जानाति यावत् हेतुना छनस्थमरणं नियते । पञ्च अहेतवः मज्ञताः, तपथा-अहेतुं न जानाति यावत् अहेतुं छन्नस्थमरणं म्रियते । पञ्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तयथा-अहेतुना न जानाति यावत् अहेतुना छमस्थमरणं म्रियते । पश्च अहेतवः मज्ञप्ताः, तयथा अहेतुं जानाति यावत् अहेतुं केवलिमरणं म्रियते । पत्र मोतयः प्राप्ताः, तद्यथा-अहेतुना जानाति यावत् अहेतुना केवलिमरणं म्रियते । केवलिनः पञ्च अनुत्तराणि प्रज्ञप्तानि, तवथा-अनुत्तरं ज्ञानम् १, अनुत्तरं दर्शनम् २, अनुत्तरं चारित्रम् ३, अनुत्तरं तपः ४, अनुत्तरं वीर्यम् ५।०२३।। टीका-'पंच हेऊ ' इत्यादि हिनोति गमयति पमेयरूपमर्थ, हीयते-गम्यते प्रयेयरूपोऽर्थोऽनेनेति वा हेतुःप्रमेयस्य अग्न्यादेः कारणं साध्याविनाभूतं धूमादिरूप लिङ्गम् , तत्र वर्तमाना: ___ अब सूत्रकार मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिमेंसे एक २ का आश्रय करके हेतु, पांच प्रकारता और छमस्थ एवं केवलीमें से एक २ का आश्रय करके अहेतुमें पांच प्रकारता कहते हैं-- 'पंच हेऊ पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र २३ ॥ टीकार्थ--हेतु पांच कहे गये हैं, प्रमेयरूप अर्थको जो कहता है, वह हेतु है, अथवा-प्रमेयरूप अर्थ जिसके द्वारा जाना जाता है, वह हेतु है, ऐसा हेतु अपने साध्यके साथ अविनाभाव सम्बन्धवाला होता है, जैसे धूमरूप हेतु अपने साध्य अग्निके साथ अविनाभाव लम्बन्ध હવે સૂત્રકાર મિથ્યાણિ અને સમ્યગૃષ્ટિ, એ પ્રત્યેકના હેતુમાં પચવિધતાનું અને છવાસ્થ અને કેવલીના અહેતુમાં પણ પંચવિધતાનું કથન ४२ छ.. " पच हेऊ पण्णत्ता त्याह ટીકાથ-હેતુ પાંચ કહ્યા છે. પ્રમેયરૂપ અર્થને જે કહે છે તે હેતુ છે. અથવા પ્રમેય રૂ૫ અર્થ જેના દ્વારા જાણી શકાય છે, તે હેતુ છે. એ હેતુ પિતાના સાધ્યની સાથે અવિનાભાવ સંબંધવાળે હેય છે. જેમકે ધૂમરૂપ હેતુ પિતાના Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसुत्रे ૯૦૩ पुरुपा अपि तदुपयोगानन्यत्वाद हेतवः ते च पञ्चविधाः प्रज्ञप्ता, तद्यथाहेतु = धूमादिं न- नञः कुत्मार्थत्वात् असम्यक् जानाति = सम्यक्तया नावबुध्यते । तथा - हेतुं न पश्यति धूमादिमसम्यक् पश्यति । अत्रापि नल कुत्सार्थः । एवमग्रेऽपिवोध्यम् । हेतुं न बुध्यते = असम्यक् श्रद्धत्ते, वोधेः श्रद्धानपर्यायत्वात् । हेतुं न समभिगच्छति भवनिस्तरणकारणतया न प्राप्नोति । इत्थं मिथ्यादृष्टिमपेक्ष्य चतुर्विधो हेतुरुक्तः । अथ तदपेक्षयैव पञ्चमं हेतुमाह - हेतुम् =अध्यवसानादिहेतु युक्तत्वाद हेतुम् अज्ञानमरणं म्रियते = करोति - मिध्यादृष्टित्वेनासम्यग्ज्ञानत्वादिति वाला होता है, इस लिङ्गमें वर्तमान जो पुरुष हैं, वे भी हेतु के उपयोग से अभिन्न होने के कारण हेतुरूप होते हैं, ये पांच प्रकारके होते हैं-जो हेतुको नहीं जानता है, अर्थात् धूमादिरूप हेतुको जो असम्यक् रूपसे जानता है, हेतुको सम्यक् रूपसे नहीं जानता है | तथा जो हेतुकोधूमादिरूप लिङ्गको असम्यक्रूपसे देखता है, २ इसी तरहसे आगे भी समझना चाहिये " हेतुं न बुध्यते " यहां वुध् धातु श्रद्धानार्थक है, अतः जो हेतु पर सम्यक् श्रद्धा नहीं रखता है, ३ " हेतुं नाभि गच्छति " और जो हेतुको " भवसे यह पार करानेवाला है " इस रूपसे प्राप्त नहीं करता है, इस प्रकार से मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा से यह चार प्रकाका हेतु कहा है, अब प्रकार से " उसीकी अपेक्षा से पांचवां हेतु इस है - " हेतुमज्ञानमरणं म्रियते ५ अध्यवसान आदि हेतुसे युक्त होनेके कारण जो अज्ञानमरण करता है; मिथ्यादृष्टि होने से जो सम्यસાધ્ય અગ્નિની સાથે અવિનાભાવ સબધવાળા હાય છે, આ લિંગમાં વર્તમાન જે પુરુષા છે તેએ પણ હેતુના ઉપયાગથી અભિન્ન હાવાને કારણે હેતુરૂપ હાય છે. તે પાંચ પ્રકારના હાય છે—(૧) જે હેતુને જાણતે નથી એટલે કે ધ્રુમાદિ રૂપ હેતુને જે અસમ્યક્ રૂપે જાણે છે-હેતુને સમ્યક્ રૂપે જાણુતા નથી. (૨) જે હેતુને ધૂમાદિ રૂપ લિંગને અસમ્યક્ રૂપે દેખે છે, એ જ પ્રમાણે भागण यशु समभवु लेये (3) हेतुं न बुध्यते अडीं' धू' धातु श्रद्धा થક છે તેથી અહીં આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-“ જે હેતુપર સમ્યક્ શ્રદ્ધા રાખતા नथी, (४) हेतु नाभिगच्छंति भने ? हेतुने लथी पार उशवनार ३ये ગણતા નથી. આ પ્રમાણે મિથ્યાષ્ટિની અપેક્ષાએ ચાર પ્રકારના હેતુઓનું કથન કરીને હવે તેની જ અપેક્ષાએ પાંચમા હેતુ પ્રકટ કરવામાં આવે છે— हेतुमज्ञानमरणं म्रियते " जयवसान आहि हेतुथी युक्त डोवाने अर એટલે કે સમ્યગ્દૃષ્ટિથી રહિત ાવાને કારણે જે અજ્ઞાનાવસ્થામાં જ મૃત્યુ 66 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधी टीका स्था०५ उ०१ सू०२३ हेत्वहेत्वो' स्वरूपनिरूपणस् ६०५ ! मिथ्यादृष्टिमपेक्ष्यैव प्रकारान्तरेण पुनः पञ्च हेतूनाह - हेतवः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तथा - हेतुना = धूमादिना अनुमेयमर्थं न जानाति सम्यक्तया नावगच्छति । एवमन्येऽपि चत्वारो भावनीयाः । यो हि हेतुना असम्यग्ज्ञानादिमान् भवति सोऽपि हेतुरेव बोध्य इति ५। अथ सम्यग्दृष्टयपेक्षया हेतोः पञ्चविधत्वमाहतवः पञ्चविधाः प्राप्ताः । तद्यथा - हेतुं धूमादि जानाति = सम्यग्दृष्टित्वात् विशेषतः सम्यगवगच्छति । हेतुं पश्यति = सामान्यतः सम्यगवगच्छति । हेतु बुध्यते= सम्यकूश्रद्धत्ते । हेतुम् अभिगच्छति = साध्यसिद्धौ व्यापारणात् सम्यक् प्राप्नोति । तथा - हेतुं छम्नस्थमरणं श्रियते- हेतुः - अध्यवसानादिमरणकारणं, तद्योगान्मरणमपि हेतुः तम् =अध्यवसानादियुक्तं छद्मस्थमरणं म्रियते = करोति । छद्मस्थो हि सम्यग्दृष्टित्वादज्ञानसरणं न करोति, अनुमातृत्वाच केवलिमरणं न करोति । इति ज्ञान रहित होकर अज्ञानमरण अज्ञानावस्था में मरण करता है, यह पांच हेतु है, अब पुनः मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा करकेही प्रकारान्तर से पुनः सूत्रकार पांच हेतु ओंका कथन करते हैं जो धूमादिरूप हेतुद्वारा अनुमेयरूप अर्थको अच्छी तरहसे नहीं जानता है । इसी प्रकार से चार और भी हेतु जानना चाहिये तथा जो हेतुद्वारा असम्यक ज्ञानादिवाला होता है, वह भी हेतु ही है, ऐसा यह पांचवां हेतु है। सम्यदृष्टिकी अपेक्षा हेतुकी पंच प्रकारता इस प्रकार से है - जो सम्यग्दृष्टि होने से धूमादिरूप हेतुको विशेष रूपसे अच्छी तरह जानता है ?, सामान्य रूप से जो हेतुको अच्छी तरहसे देखता है२, हेतुकी सम्पक रूप से श्रद्धा करता है, साध्य सिद्धिमें हेतुको अच्छी तरह से प्रयुक्त करता है४, ऐसे ये चार स्थान हैं, और अध्यवसान आदि से युक्त छद्मस्थमरणको जो करता है, क्योंकि छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि होने से अज्ञानमरण नहीं પામે છે, આ પાંચમા હેતુ છે. હવે સૂત્રકાર મિથ્યાર્દષ્ટિની અપેક્ષાએ પાંચ હેતુઓનું અન્ય પ્રકારે કથન કરે છે—(૧) જે ધૂમાદિ રૂપ હેતુ દ્વારા અનુમેય રૂપ (અનુમાન કરવા રૂપ) અને સારી રીતે જાણુતે નથી એ જ પ્રમાણે અન્ય ાર હેતુએ પણ સમજવા જોઇએ તથા જે હેતુ દ્વારા અસમ્યક્ જ્ઞાનાદિવાળા હોય છે તે પણ હેતુ જ છે, એવે પાંચમે હેતુ છે. 1 સમ્યગ્દષ્ટિની અપેક્ષાએ હેતુના પાંચ પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે—(1) જે સમ્યગ્દષ્ટિ હોવાથી ધૂમાદિ રૂપ હેતુને વિશેષ રૂપે–સારી રીતે જાણે છે. (૨) સામાન્ય રૂપે જે હેતુને સારી રીતે રૃખે છે. (૩) જે હેતુની સમ્યક્ રૂપે શ્રદ્ધા ४२ छे, (४) साध्य सिद्धिमां ने डेटने 'सारी रीते प्रयुक्त हरे छे. (५) मध्यવસાન આદિથી યુક્ત છદ્મસ્થમરણુ જે પ્રાપ્ત કરે છે, કારણુ કે છદ્મસ્થ સભ્ય + Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ स्थाना सम्यग्दृष्टीनाश्रित्य पञ्च हेतवो बोध्याः । तानेवाश्रित्य पुनः प्रकारान्तरेण पञ्च हेतूनाह-हेतुना अनुमानोत्पादकेन धूमादिना लिनेन अनुगेयमथै बन्यादिकं जानाति-विशेषतः सम्यगवगच्छति । एवं पश्यति, बुध्यते, अभिगच्छति, इति स्थानत्रयमपि बोध्यम् । तथा-अकेवलित्वाद् हेतुना=अध्यवसानादिना छाम्धमरणं म्रियते इति पञ्चमं म्यानम् ५। इत्यमसम्यग्दृष्टीन् सम्यग्दृष्टींचाश्रित्य देत. रुक्तः, अथ सम्यग्दृष्टीनाश्रिन्य अहेतूनाह- पंच अहेऊ' इत्यादि । अतियःहेतु=अनुमानोत्पादको धुपादिः, स यत्र नास्ति नागो योधोऽहेतः प्रत्यक्षबोध इत्यर्थः । तत्रोपयुक्ता अपि अहेतवः, ते पश्चविधाः शताः । तानेवाह-'अहेउ' करता है, तथा अनुमाता होनेसे केवली मरण नहीं करता है, वह पांचवां स्थान है। सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा पुन: प्रकारान्तरसे हेतु इस प्रकारसे भी पांच हैं-जो अनुनानके उत्पादक धूमादिलिगसे यहि आदिरूप अनुमेय अर्थको विशेषरूपसे अच्छी तरहसे जानता है १, एक वह हेतु है, इसी प्रकारसे जो सामान्यरूपसे जानताहै२, अच्छी तरहसे उस पर श्रद्धा करताहै३, और साध्यसिद्धि में उसका अच्छी तरहसे व्यापार उपयोग करताहै४, तथा अकेवली होनेसे जो अध्यवसान आदि कारणसे छद्मस्थ मरण करताहै४, ऐसे ए चार स्थान हैं, इस तरहसे असभ्यरुदृष्टि और सम्यग्दृष्टिको आश्रित करके ये पांच हेतु कहे गये हैं, अब सम्यग्दृष्टिको आश्रित करके अहेतु इस प्रकारसे पांच होतेहैं-यह कहा जाता है-अनुमानोत्पादक धूमादि हेतु जहां नहीं होता है, ऐसा દૃષ્ટિ હોવાથી અજ્ઞાનમરણ પ્રાપ્ત કરતા નથી તથા અનુમાતા (અનુમાન કરનારો) હોવાથી કેવલિમરણ પણ પ્રાપ્ત કરતો નથી, સમ્યગ્દષ્ટિની અપેક્ષાએ સૂત્રધાર ફરી અન્ય પ્રકારે પાંચ પ્રકારના હેતુનું કથન કરે છે–(૧) જે અનુમાનના જનક ધૂમાદિ લિંગ દ્વારા અગ્નિ આદિ રૂપ અનુમેય અર્થને વિશેષરૂપે જાણે છે. (૨) એ જ પ્રમાણે સામાન્ય રૂપે જાણે છે. (૩) સારી રીતે તેના પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખે છે, (૪) સાધ્યસિદ્ધિમાં તેને સારી રીતે ઉપયોગ કરે છે, તથા (૫) તે અકેવલી હેવાથી અધ્યવસાય આદિ કારણે છસ્થ મરણ પ્રાપ્ત કરે છે. આ રીતે અસમ્યક્ દષ્ટિ અને સમ્યક્ દષ્ટિને અનુલક્ષીને હેતુના પાંચ સ્થાનેનું કથન અહીં પૂરૂ થાય છેહવે સમ્યગ્દષ્ટિને આશ્રિત કરીને પાંચ અહેતુઓનું સૂત્રકાર કથન કરે છે – , અનુમાનત્પાદક ધૂમાદિ, હેતુઓને જ્યાં સદ્ભાવ હેતે નથી, એવા પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનને અહીં “અહેતુ” પદ દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ५७.१ सू.२३ हेत्वहेत्वोः स्वरूपनिरूपणम् ६०७ इत्यादि । धृमादिकं हेतुम् अहेतुम् अहेतुमावेन-प्रत्यक्षतया न जानातिन सर्वथा जानाति, कथंचिदेवजानातीति भावः । ज्ञाता चान अवध्यादिकेवलित्वेन अनुमानाव्यवहता, अतोऽत्र नल देशनिषेधार्थको बोध्य इति । एवम् अहेतुं, न पश्यति, न बुध्यते, नाभिगच्छत्तीति स्थानत्रयमपि बोध्यम् । तथा-अहेतुम् आयुपोनिरुपक्रमतया अध्यवसानादि हेतुनिरपेक्ष छमस्थमरणं म्रियते । अनुमानाव्यवहत - त्वेऽपि अकेवलित्वाच्छद्मस्थमरणं बोध्यम् । इति पञ्चमं स्थानम् । सम्यदृष्टीनेवा. श्रित्य प्रकारान्तरेण पुनरहेतूनाह-अहेतुना हेत्वभावेन न जानाति सर्वथा न जानाति, कथचिदेव जानातीत्यर्थः । यो हि अहेतुना कय चिज्जानाति सोऽपि अहेतुरेव वोध्यः । एवं न पश्यति, न बुध्यते, नामिगच्छतीति स्थानत्रयं बोध्यम् । तथा-अहेतुना-उपक्रमाभावेन छद्मस्थमरणं ब्रियते । इति पञ्चमं स्थानम् । वह प्रत्यक्षज्ञान यहां अहेतुसे लिया गया है, इस अहेतुमें जो उपयुक्त हैं, वे अहेतु हैं, इनमें जो धूमादिरूप हेतुको प्रत्यक्षरूपसे नहीं जानता है, अर्थात् जो धूमादिरूप हेतुको सर्वथा प्रत्यक्षरूपसे नहीं जानता है, किन्तु कथञ्चित् रूपसेही प्रत्यक्षरूपसे जानता है, क्योंकि यहां अवधिज्ञानवाला आदि होनेसे या केवली होनेसे ज्ञाता अलुमानसे व्यवहार नहीं करता है, इसलिये यहां अहेतुमें जो न है, वह देशनिषेधार्थक है, ऐसा जानना चाहिये इसी तरहसे " अहेतुं न पश्यति न बुध्यते नाभिगच्छति" ये तीन स्थान भी समझ लेना चाहिये "जाव अहेर्ड छउभस्थमरण मरेइ " विना हेतुके आयुले निरूपक्रम होनेसे जो अध्यवसात आदिहेतुकी अपेक्षा विनाके-छमस्थपरणसे मरताहै, वह पक्षम स्थान है, यह अनुमानसे अव्यवहां होने पर भी अकेवली होतेसे અહેતુમાં જે ઉપયુક્ત છે, તેમને અહીં અહેતુ રૂપ કહ્યાં છે. પહેલુ સ્થાન નીચે પ્રમાણે છે–() જે ધૂમાદિ રૂપ હેતુને પ્રત્યક્ષ રૂપે જાણતા નથી એટલે કે જે ધર્માદિ રૂપ હેતુને સર્વથા પ્રત્યક્ષ રૂપે જાણતો નથી, પણ અમુક અંશે જ તેને પ્રત્યક્ષ રૂપે જાણે છે, કારણ કે અહીં અવવિજ્ઞાન આદિવાળે અથવા કેવલી હોવાથી જ્ઞાતા અનુમાનથી વ્યવહાર કરતો નથી. અહીં અહેતુમાં જે નકાર વાચક “અ” છે, તે દેશનિષેધાર્થક છે એમ समापु. मे ४ प्रभारी मात्र स्थान पा सभ an RA. “ अहेतु न पश्यति, न बुध्यते, नाभिगच्छति " पायभु स्थान नीचे प्रमाणे छ" जाप अहे छउपत्थमरण मरेड" मायुना निरुपम याथी रे २५६यવસાન આદિ હેતુની અપેક્ષા વિનાના છદ્રસ્થ મરણથી મરે છે, તે અહેતુનું પાંચમું સ્થાન છે. તે અનુમાન વડે અવ્યવહર્તા હોવા છતાં પણ અકેવલ્લી હોવાથી છાસ્થ મરણથી મરે છે. Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ स्थानाङ्गस्थे अथ केवल्यपेक्षया पञ्चाहेतूनाह-अहेतवः पञ्च प्रज्ञशाः, नयधा-अहेतुं जानाति केवलि. न्वेन अनुमानान्यवदारित्वाद् धूमादिकम् अहेतुंअहेतुभावेन प्रत्यक्षतया जानाति । धूमादिकम् अहेतुभावेन यो जानाति सोऽप्यहेतुरेन । एवम् अद्देतं पश्यति, अहेतुं. बुध्यते, अहेतुम् अभिगच्छति-इति स्थानत्रयमपि बोध्यम् । तथा-अहेतम्उपक्रमाभावात् हेतुरहितं यथास्यात्तथा के वलिमरणम्-अनुमानाव्यवहारित्वात् केवलिनो यन्मरणं म्रियते-करोति, इति पञ्चमं स्थानम् । केवल्यपेक्षयैव पुनः छास्थप्तरणसे मरता है, सम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षासे पुनः अहेतुके पांच प्रकार इस प्रकारसे हैं-" अहेउणा न जाणह जाव अहे उणा छ उमस्यमरणं परइ " जो हेतुके अभावले अहेतुसे-कथञ्चित् जानता है, वह भी अहेतुही है, इसी तरह से " न पश्यनि न बुध्यते नाभिगच्छति" इन तीन स्थानोंको भी रामझना चाहिये, तथा उपक्रमके अभावसे जो छअस्थमरणसे मरता है, यह पांचवां स्थान है, अब केवलीकी अपेक्षासे पांच अहेतु प्रकट किये जाते हैं - " अहेतुं जानाति " जो केवली होने से अतुमानले व्यवहार करता नहीं है, वह धूमादिकको अहेतुभावसे प्रत्क्षरूपले जानता है, सो वह भी अहेतुही है, इसी प्रकारसे "अहेतुं पश्यति अहेतुं बुध्यते अहेतुं अभिगच्छति" ये तीन स्थान भी समझ लेना चाहिये तथा-"अहेरणा छ उमत्थमरण मरेइ" जो उपक्रमके अभाबसे हेतुरहित हुए केवली मरणसे मरता है, अनुमानसे अव्यवहारफर्ता होनेसे केवलीका जो मरण है, उस मरणसे जो सरता है, वह સમ્યગ્દષ્ટિઓની અપેક્ષાએ અહેતુના પાંચ પ્રકારે આ પ્રમાણે પણ मता०या छ-" अहेत्रणा न जाणइ जात्र अहे उणा छउमत्यमरणं मरेइ" २ હતના અભાવમાં અહેતુ વડે ડું થોડું જાણે છે, તે પણ અહેતુ જ છે. मे ०४ प्रमाणे “ न पश्यति, न बुध्यते, नाभिगच्छति" मा स्थानान પણ સમજી લેવા, તથા ઉપકમને અભાવે જે છઘસ્થ મરણથી મરે છે તે પાંચમું સ્થાન છે. હવે કેવલીની અપેક્ષાએ પાંચ અહેતુ પ્રકટ કરવામાં આવે - अहेतु जानामि" | उपक्षी वाथी भनुमानथी व्यवहार ४२ता નથી. તેઓ ધૂમાદિકને અહેતુ ભાવે પ્રત્યક્ષ રૂપે જાણે છે, તો તે પણ અહે. तर. १ प्रमाणे “ अहेतु पश्यति, अहेतु बुध्यते, अहेतु अभिगच्छति" मात्र स्थान ५ सभ सेवi DJ तय "अहे उणा छ उमत्थमरणं मरेइ" ર ઉપક્રમના અભાવે હેતુરહિત થઈને કેવલિમરણથી મરે છે, એટલે કે અનુમાન વડે અવ્યવહાર કર્તા હોવાથી કેવલીનું જે મરણ છે, તે મરણથી જે મારે છે, તે અહેતુનું પાંચમું સ્થાન સમજવું. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०५ उ०१ सू०२३ हेत्वहेत्वोः स्वरूपनिरूपणम् ६०९ प्रकारान्तरेण पश्चाहेतूनाह-अहेतुना हेत्वभावेन-प्रत्यक्षतया धूमादिकं जानाति सर्वथाऽवगच्छति । एवम्-अहेतुना पश्यतीत्यादि स्थानचतुष्टयमपि वोध्यमिति । सम्पति केवलिनोऽधिकारात् तस्य पञ्चानुत्तराणि माह- केवलिस णं' इत्यादि । केवलिनः स्वलु पञ्च अनुत्तराणि-नास्ति उत्तरः प्रधानो येभ्यस्तानि-सर्वथाऽऽव. रणक्षयात् सर्वोत्कृष्टानि प्रज्ञप्तालि, तद्यथा-तान्येवाह-अनुत्तरं ज्ञानम्ज्ञानावरणीयस्य सर्वथा क्षयात् सर्वोत्कृष्टं ज्ञानम् १। अनुत्तरं दर्शनम्-दर्शनावरणीयस्य सर्वथोपरमात् सर्वोत्कृष्टं दर्शनम् २। अनुत्तरं चारित्रम् ३, अनुत्तरं तपः ४। एतदद्वयं मोहस्य सर्वथाऽपगमाद् भवति । तपस्तु चारित्रभेद एव । केवलिनामनुत्तरं तपः पांचवां स्थान है, पुनः केवलीकी अपेक्षासेही प्रकारान्तरसे पांच अहेतु प्रकट किये जाते हैं, जो अहेतुले-हेतुके अभावरूपसे धूमादिको प्रत्यक्ष रूपसे सर्वथा जानता है, वह प्रथम स्थान है, इसी प्रकारसे जो " अहे. तुना पश्यति" आदि रूप चार स्थान हैं वे श्री समझ लेना चाहिये । ___ अप सूत्रकार केवलीके जो पांच अनुत्तर होते हैं, उन्हें प्रकट करते हैं, जिनकी अपेक्षा और कोई प्रधान नहीं होता है, अर्थात् जो सर्वेस्कृष्ट होते हैं, वे अनुसर हैं-इनमें सर्वोत्कृष्टता इसलिये कही गई है, कि ये अपने प्रतिपक्षी कर्मके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होते हैं, वे पांच अनुत्तर इस प्रकारसे हैं-अनुत्तर ज्ञान केवलज्ञान-यह ज्ञानावरणीय कर्मके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होता है अनुत्तर चारित्र-और अनुत्तर तप-ये दोनों मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षयसे होते हैं, तप यह - હવે સૂત્રકાર કેવલીની અપેક્ષાએ પાચ અહેતુનું અન્ય પ્રકારે કથન કરે છે–જે અહેતુ વડે હેતુના અભાવ રૂપે ધૂમાદિને પ્રત્યક્ષ રૂપે સર્વથા જાણે छे, ते प्रथम स्थान छ । प्रमाणे “ अहेतुना पश्यति" मा यार સ્થાન પણ સમજી લેવાં હવે સૂત્રકાર કેવલીના પાંચ અનુત્તરને પ્રકટ કરે છે. જેના કરતાં કોઈ પ્રધાન હેય નેફ્ટી એટલે કે જે સર્વોત્કૃષ્ટ હોય છે તેને અનુત્તર કહે છે. તે અનુત્તરમાં સર્વોત્કૃષ્ટતા એ કારણે કહેવામાં આવી છે કે તેઓ પિતાના પ્રતિપક્ષી કર્મોના સર્વથા ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પાંચ અનુત્તર નીચે પ્રમાણે છે–(૧) અનુત્તર જ્ઞાન (કેવળજ્ઞાન) તે જ્ઞાનાવરણીય કર્મના સર્વથા ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે (૨) અનુત્તર દશન-તે દર્શનાવરણ કર્મના સર્વથા क्षयथी उत्पन्न थाय छे. (3) अनुत्तर यारित्र माने (४) आनुत्तर त५-ते मन મોહનીય કર્મના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે ચારિત્રરૂપ હોય છે અને તે स्पा-७७ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० स्थानाकसूत्रे Aarati शुक्लध्यानभेदस्वरूपं वोध्यम् । ध्यानमपि तप एव, आभ्यन्तरतपोभेदरूपत्वादिति ४ तथा अनुरं वीर्यम् । एतत्तु वीर्यान्तरायक्षयाद् भव तीति बोध्यमिति ॥ स्रु० २३ ॥ केवल्यधिकारात् तीर्थकरसम्बन्धीनि चतुर्दशात्रान्तरसूत्राणि माह मूलम् - एडमप्प णं अरहा पंचचित्ते होत्था, तं जहा - चिताहिंचुए चइता गव्भवते १, चित्ताहिं जाते २ चित्ताहिं मुंडे भवेत्ता अगाराओ अणगारियं पवइए ३ चिताहिं अणते अणुत्तरे णिवाघाप णिरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरना - दंसणे सुप ४, चित्ताहिं परिणि । पुष्पदंते णं अरहा पंचमूले होत्था, तं जहा- सूलेणं चुए चइता गव्र्भ वकते, एवं प्लेव, एवसेषणं अभिलावेणं इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ । पडसपहरू चित्ता १, मूले पुण होइ पुप्फदंतस्स २। पुव्वाई आसाढा, सीयलस्सुत्तर विमलस्स भद्ददया ४ ॥ १ ॥ रेवइया अनंत जिणो ५, पुसो धम्मस्स ६ संत्तिणो भरणी ७। कुंथुस्स कत्तियाओ ८, अरस्त तह रेवईओ य ९ ॥ २ ॥ " मुणि सुम्रयस्स सवणो १०, अस्सिणि णमिणो ११ य नेमिणो चित्ता १२ | 4. array होता है, और यह शैलेशी अवस्थामें शुक्ल ध्यानका एक भेदरूप कहा गया है, ध्यान भी तपकाही एक प्रकार है, क्योंकि यह आभ्यन्तर तपका भेद है, अनुत्तर वीर्य -यह वीर्यान्तराय कर्मके क्षयसे होता है, इस तरह अनुत्तर ज्ञान १ अनुत्तर दर्शन २ अनुत्तर चारित्र ३ अनुत्तर तप और अनुत्तर वीर्य ५थे केवलियों के पांच अनुत्तर है || सु. २३ ॥ શૈલેશી અવસ્થામાં શુકલધ્યાનના એક ભેદ રૂપ કહ્યુ છે. ધ્યાન પશુ તપનાજ એક પ્રકાર છે, કારણ કે તે આભ્યન્તર તપના ભેદ છે. (૫) અનુત્તર વીય તે વીર્યાન્તરાય ક્રમના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે કૈવલીએનાં પાંચ अनुत्तरमा प्रभा छे. (१) अनुत्तर ज्ञान, (२) अनुत्तर हर्शन, (3) अनुत्तर चारित्र, (४) अनुत्तर तय भने (4) अनुत्तर वीर्य ॥ सू. २३ ॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०९ सु०२४ तीर्थङ्कराणां चनादिनिरूपणम् ૬ पारस विसाहाओ १३, पंचयत्युत्तरो वीरो १४ ॥ ३ ॥ समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुसरे होत्था - हत्थुत्तराहिं चुए चइता गर्भ वक्ते १, हत्थुत्तराहिं गभाओ गन्धं साहरिए २, हत्थुत्तराहिं जाए हत्थुत्तराहिं मुंडे भवित्ता जाव पचइए हत्थुतराहिं अनंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे ससुप्पण्णे | सू० ३४ ॥ ॥ इइ पंचमद्वाणस्स पढमो उद्देसओ समतो ॥ १ ॥ छाया – पद्मप्रभः खलु अर्हन् पञ्च चित्रोऽभवत्, तद्यथा - चित्रालु च्युतः, गर्भकान्तः १, चित्रासु जातः २ चित्रासु मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रत्रजितः ३, चित्रासु अनन्तम् अनुत्तरं नित्र्यघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ४, चित्रा परिनिर्हतः ५। पुष्पदन्तः खलु अर्हन् पञ्चमूलोऽभवत् · मूले च्युतः, च्युला गर्म व्युत्क्रान्तः १, एवरोध, एकमेतेन अभिलापेन इमा गाथा अनुगन्तव्याः - पद्ममभस्य चित्राः, मूलं पुनर्भवति पुष्पदन्तस्य । पूर्वाषाढा : शीतलस्य, उत्तरा विमलस्य भाद्रपदाः ॥ १ ॥ रेवतिका अनन्तजिनस्य, पुष्पों धर्मस्य शान्ते भरणी । कुन्थो कृत्तिकाः, अररय तथा रेवत्यश्च ॥ २ ॥ निसुव्रतस्य श्रवणा, अश्विनी नमेश्व नेमेश्वित्राः । पार्श्वस्य विशाखाः पञ्चक हस्तोत्तरो वीरः ॥ ३ ॥ श्रमणो भगवान् महावीरः पञ्चहस्तोत्तरोऽभवत् हस्तोत्तरासु च्युतः, च्युत्वा गर्भं व्युत्क्रान्तः १, हस्तोत्तरासु गर्भा गर्भ संहृतः २, हस्तोत्तरासु जातः ३, हस्तोत्तरासु मुण्डो भूत्वा यावत् प्रब्रजितः ४, दस्तोत्तरासु अनन्तम् अनुत्तरं यावत् केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ५ ॥ ० २४ ॥ ॥ इति पञ्चमस्थानकस्य प्रथम उदेशकः समाप्तः ॥ १ ॥ अब सूत्रकार केवली अधिकारको लेकर तीर्थङ्कर सम्बन्धी १४ अवान्तर सूत्रोंका कथन करते है - દેવલીઓને અધિકાર ચાલતા હાવાથી હવે સૂત્રકાર તીર્થંકરા સખ ધી १४ सूत्रानुं न रे छे - " परमपदेणं अरक्षा पंचचित्ते होत्या " त्याहि Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ' टीका-' पउमपदे णं इत्यादि - स्थानानुपत्रे पद्मप्रभः खलु अर्हन्=पद्मप्रभनामा पष्ठो जिनः खलु निश्चयेन पश्चचित्र:पञ्चसु च्यवनादिदिनेषु चित्रा यस्य स तथा अभवत् । तद्यथा-यथाऽभवत्तथादचित्रासु माघकृष्णपष्ठयां च्युतः = एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकात् नवमाद् उपरि - मोपरिमग्रैवेयकात् अवतीर्णः । च्युत्वा = अवतीर्य गर्भं व्युत्क्रान्तः कौशाम्बी नगर्यां राज्ञो धरस्य भार्यायाः सुसीमादेव्याः कुक्षौ व्युत्क्रान्तः = समागतः १ | चित्रासु कार्त्तिककृष्णद्वादश्यां जातः = जन्म गृहीतवान् २ | चित्रास कार्त्तिकशुक्लमयोदश्यां सुण्डो भूत्वा द्रव्यतः केशापेक्षया, भावतः कषायाद्यपेक्षया च मुण्डितो भूत्वा अगारात = प्रासादादिरूपद्रव्यगृहात् मूर्च्छादिरूपभावगृहाच्च निष्क्रम्य अनगा 'पउमपहे णं अरह। पंचचित्ते होत्था' इत्यादि सूत्र २४ ॥ टीकार्थ -- पद्मप्रभु जिनेन्द्र जो कि ६छडे तीर्थंकर है, वे च्यवनादि दिनों में पांच चित्रा नक्षत्रवाडे हुए हैं, जैसे वे चित्रा नक्षत्र में माघ कृष्णषष्ठी तिथि २१ सागरोपमकी स्थितिवाले नवम ग्रैवेयकमें अव तीर्ण हुए हैं, और अवतीर्ण होकर वे कौशाम्बी नगरीमें राजा धरकी धर्मपत्नी सुषमादेवीकी कुक्षिमें गर्भरूपसे उत्पन्न हुए हैं १ चित्रानक्षत्रही कार्तिक शुक्ल १३ के दिन इनका जन्म हुआ है २ कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी के दिनही इन्होंने मुंडित होकर अगारावस्थासे अनगारावस्था धारणकी है, केशोंका उपाडना ये द्रव्यकी अपेक्षा मुंडित होना है, और कषायादिसे रहित होना यह भावकी अपेक्षा सुंडित होना है, प्रासादादि रूप द्रव्य गृहसे छूटना यह गृहसे निष्क्रमण है, और सूर्च्छादिरूप भावगृह से छूटना यह भावगृह से निष्क्रमण है, છઠ્ઠા તીર્થંકર પદ્મપ્રભુ જિનેન્દ્ર થઇ ગયા. તેઓ ચ્યવનાદિ દિનામાં પાંચ ચિત્રા નક્ષત્રવાળા થયા છે. આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે સમજવું. (૧) ચિત્રા નક્ષત્રમાં મહા વદી છઠ્ઠની તિથિએ તે ૩૧ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા નવમાં ગ્રેવયકમાંથી એટલે કે ઉપરિમેાપરિમ જૈવેયકમાંથી ચ્યવીને કૌશામ્બી નગરીમાં રાજા ઘરની ધર્મપત્ની સુષમાદેવીની કુક્ષિમાં ગર્ભરૂપે ઉત્પન્ન થયા હતા (૨) ચિત્રા નક્ષત્રમાં જ કાતક શુદ ૧૩ ને દિવસે તેમને જન્મ થયેા હતેા (૩) ચિત્રા નક્ષત્રમાં જ ક તિક શુઇ ૧૩ ને દિવસે તેમણે સુ'ડિત થઈને અગારાવસ્થાના પરિત્યાગપૂર્વક અણુગારાવસ્થા ધારણ કરી હતી. કેશાના લૂચનને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ મુંડન કહેવાય છે અને કષાયૈાથી રર્હુિત થવું તેનું નામ ભાવની અપેક્ષાએ મુડન છે. પ્રાસાદ આદિ રૂપ દ્ગશ્યઘરના ત્યાગ કરવા તેનુ નામ દ્રષ્યગૃડમાંથી નિમણુ છે અને મૂર્છાદ રૂપ ભાવગૃહમાંથી છૂટવું તેનું નામ ભાવગૃહમાંથી નિષ્ક્રમણુ છે. Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५उ०रसू०२४ तीर्थङ्कराणां चधनादिनिरूपणम् रिताम् अनगारभावं-श्रमणत्वं प्रबजिता प्राप्तः ३। चित्रामु चैत्रपौर्णमास्यां तस्य अनन्तम्-अनन्त पर्यायत्वात् , अनुत्तरं-सकलज्ञानप्राधान्यात् , निव्याघातम्-अप तिपातित्वेन व्याघातरहितत्वात् , निरावरणम्-सर्वथा स्वावरणक्षयात् कटकुडयाघावरणाभावाद्वा, कृत्स्नम् सकलपदार्थविषयत्वात् , परिपूर्ण-स्वावययापेक्षया पौर्णमासीचन्द्रपदखण्डत्वात् , अनन्तादिपरिपूर्णान्तविशेषणविशिष्टं किम् इत्याहकेवलवरज्ञानदर्शनम्-केवलं-ज्ञानान्तरसाहाय्यानपेक्षत्वात् संशुद्धन्वादवा, अतएवचित्रानक्षत्रर्मेही चैत्र पौर्णमासीके दिन इन्होंने केवलज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त कियाहै, यह केवलज्ञान केवलदर्शन अनन्तपर्यायको विषय करनेवाला होनेसे अनन्त होता है, सकल ज्ञानों में प्रधान होनेसे अनुत्तर होताहै, अप्रतिपाती होनेसे नियांधान होताहै,अपने प्रतिपक्षी कर्मके सर्वथा विनाश होनेसे निरावरण होता है, अथवा कट चटाई कुड्यादि (दिवाल) रूप आवरणसे इसका प्रतिघात नहीं होता है, रूपी अरूपी समस्त पदार्थों को और समस्त उनकी पर्यायौंको यह विषय करनेवाला होताहै, इसलिये कृत्स्न होताहै, पौर्णमासीका चन्द्रमण्डल जिस प्रकार अपने अवयवोंसे परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार से यह भी अपने अवयवोंसे परिपूर्ण होता है। केवल इसलिये कहा गया है, कि यह अपने विषयको जानने के लिये अन्य ज्ञानोंकी सहायतावाला नहीं होता है, अथवा अत्यन्त शुद्ध होता है, अतएव अन्य ज्ञानोंकी अपेक्षा (૪) ચિત્રા નક્ષત્રમાં જ ચિત્રી પૂનમને દિવસે જ તેમણે કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શનની પ્રાપ્તિ કરી હતી, તે કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન અનઃ પર્યાયને વિષય કરનારૂ-તેમનું પ્રતિપાદન કરનારૂ હોવાથી અનન્ત હોય છે તે સકળ જ્ઞાને માં શ્રેષ્ઠ હોવાથી અનુત્તર હોય છે તે અપ્રતિવા ની હોવાથી નિઘાત હોય છે. પિતાના પ્રતિપક્ષી કમને સર્વથા વિનાશ થઈ જવાથી તે નિરાવરણ હોય છે. એડલે કે ચટ્ટાઇ, દીવાલ આદિ આવરણથી તેને પ્રતિઘાત થત નથી. રૂપી અરૂપી સમસ્ત પદાર્થોને અને તેમની સમસ્ત પર્યાને તે વિષય કરનારું હોય છે, તેથી તે કૃશ્ન હોય છે. પૂનમને ચન્દ્ર જેમ સેબે કલાએથી પરિપૂર્ણ હોય છે- સમસ્ત અવયથી પરિપૂર્ણ હોય છે, તેમ આ જ્ઞાન પણ પિતાના સમસ્ત અવયથી પરિપૂર્ણ હોય છે તેને કેવળ વિશેષણ લગાડવાનું કારણ એ છે કે તે પિતાના વિષયને જાણવા માટે અન્ય જ્ઞાનની સહાયતાની અપેક્ષા રાખતું નથી. અથવા અત્યંત શુદ્ધ હવાને કારણે તેને Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફૈઝ स्थानiver वरं=श्रेष्ठं-मभानम्, ज्ञानं च - विशेषावभासम्, दर्शनं च - सामान्यावभासम्, ज्ञानदर्शनयोर्द्वन्द्वे केवल वरशब्देन सह कर्मधारयो बोध्यः । एताद्याविशेषणविशिष्टं केलवरप्रानदर्शनं समुत्पन्नं जातम् । तथा चित्राणु मार्गशीर्ष कृष्णैकादश्यां परि निर्वृतः = निर्माणं प्राप्तः ५ ॥ १ ॥ तथा-पुष्पदन्तः खलु नवमः अर्हन् पञ्चमूल:पञ्चसु पवनादिद्दिनेषु मूल = मूलनक्षत्रं यस्य स तथा अभवत् । तद्यथा-यथाऽभवतवाह - मूल नक्षत्रे फाल्गुनकृष्ण नवम्याम् एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकात् आनतकल्पात् च्युतः च्युत्वा गर्म व्युत्क्रान्तः काकन्दी नगर्यां राज्ञः सुग्रीवस्य माया रामादेव्याः कुक्षौ समागतः १ एवमेव = अनेन प्रकारेणेव जन्मादिकमपि योजनीयम् । अर्थात् मूलनक्षत्रे मार्गशीर्ष कृष्णपञ्चम्यां जातः २, मूलनक्षत्रे मार्ग. यह श्रेष्ठ प्रधान कहा गया है, और विशेषको यह विषय करता है, इसलिये ज्ञानरूप कहा गया है, इसी प्रकारका केवलदर्शन भी होता है, केवलदर्शन पदार्थो को सामान्य रूप से विषय करता है | ज्ञानदर्शन में इन्छ समास करके फिर केवलवर शब्द के साथ उनका कर्मधारय समास कर देना चाहिये | तथा चित्रा नक्षत्र मेंही मार्गशीर्ष कृष्णपक्षकी एकादशी के दिन उन्होंने मुक्ति प्राप्तकी है, तथा पुष्पदन्त raai सुविधिनाथ तीर्थकर, जिन मूल नक्षत्र में फाल्गुन कृष्ण के दिन १९ सागरकी स्थितिवाले आननकल्पसे ( नववे देवलोक में ) चवे हैं - गर्भमें आये हैं, काकन्दी नगरी में राजा सुग्रीवकी भार्या रामादेबीकी क्षिमें अवतीर्ण हुए हैं, मूलनक्षत्र में ही वे मार्गशीर्ष कृष्णपक्षकी पंचमी दिन उत्पन्न हुए हैं, मूलनक्षत्रमें ही वे मार्गशीर्ष कृष्णपक्षकी અન્ય જ્ઞાનેા કરતાં શ્રેષ્ઠ કહ્યું છે, અને વિશેષતુ તે પ્રતિપાદન કરૂ છે, તેથી તેને જ્ઞાન? કહ્યુ છે. એ જ પ્રકારનુ` કેન્નર્દેશન પડ્યુ હ્રાય છે. કેવલર્દેશન પડાતું સામાન્ય રૂપે પ્રતિપાદન કરે છે. જ્ઞાનકનમાં દ્વન્દ્વ સમાસ કરીને કેવલ વર શબ્દની સાથે તેને કમધારય સમાસ કરવે જોઇએ, (૫) ચિત્રા નક્ષત્રમાં જ માગશર વઢી ૧૧ ને ને તેમણે મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી હતી. 1 હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે પુષ્પદન્ત જિનેશ્વરતા જીવતંત્રા પાંચ પ્રસંગે સ્કૂલ નક્ષત્રમાં જ બન્યા હતા, મુખ્ય (૧) તે મૂલ 'નક્ષત્રમાં ફૅાગણુ વઢી ૯ ને દિને ૧૯ સાગરાપમની સ્થિતિ વાળા અશ્રુત કલ્પમાંથી ચ્યવીને, કાકઢી નગરીના રાજા સુગ્રીવની રામાદેવી નામની રાણીના ગર્ભમાં 'ગભરૂપે ઉત્પન્ન થયા હતા. (૨) મૂલ નક્ષત્રમાં જ માગશર વદી પાંચમે તેમના જન્મ થયેા હતે. (૩) મૂલ નક્ષત્રમાં જ માગશર Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ १०१ सू०२४ तीर्थकराणां चवनादिनिरूपणम् ६१५ शीर्ष-कृष्णषष्ठयां लुण्डो भूत्वा अगारात अनगारितां प्रबजितः ३, तथा-मूलनक्षत्रे कार्तिक शुक्लहतीयायां तस्य अनन्तादि विशेषणविशिष्ट केवलबरज्ञानदर्शनं सम्मुत्पनम् ४, तथा च सूलनक्षत्रे भाद्रपद शुक्लनवस्याम् , परिनितः ५। एवम् अनया रीत्या एतेनैव अभिलापेन-सूत्रपाठेन इमाः दक्ष्यमाणारितम्रो गाथा अनु. गन्तव्याः अभ्ययाः । ता एव गाथाः प्राह-'पउमप्पभरस' इत्यादि । पदाप्रमय च्यवनादिपञ्चकल्याणकनक्षत्रं चित्रानक्षत्रं भवति । पुना तथा पुष्पदन्तस्य मूलं नक्षत्रं भवति । शीतलस्य दशमतीर्यकरस्य पूर्वाषाढा भवन्ति । स हि भगवान् विशतिसागरोपमस्थितिकात प्राणतकल्पात पूर्वाषाढासु वैशाखकृष्णपाठयां च्युतः, च्युत्वा महिलपुरे राज्ञो दृढस्थस्य माया नन्दाया देव्या गर्ने व्युत्क्रान्तः पष्ठीके दिन मुंडित होकर अगारावस्थाले अनगारावस्थावाले हुए हैं। मृलनक्षत्रमेंही उन्होंने कार्तिक शुक्ल तृतीयाके दिन अनन्तादि विशेषणोंवाले केवल वरज्ञानको केवल घर दर्शनको प्राप्त किया है, और मूलनक्षत्र ही उन्होंने याद्रपदकी शुक्ल नवमीके दिन निर्वाणपद पाया है, इसी रीतिसे इसी अभिलापसे-चूत्रपाठसे-ये तीन गाथाएँ कही गई हैं, जिनका भाव ऐसा है-कि पद्मप्रभ स्वामीके गर्भ, जन्म, तप केवल और निर्वाण ये पांचों कल्याणक चित्रा नक्षत्रमेंही हुए हैं, पुष्प दन्तके पांचों कल्याणक मूलनक्षत्र मेंही हुए हैं। दशवें शीतलनाथ भगवानन्ने गर्भ जन्म आदि पांचो कल्याणक पूर्वाषाढा नक्षत्र में हुए हैं, शीतलनाथ भगवान् २० सागरोपमकी स्थितिवाले प्राणतकल्पसे पूर्वीषाढा नक्षत्रमें चव कर वे अहिलपुरमें राजा दृढरथकी भार्या नन्दाવિદી ૬ ને દિને અમારાવસ્થાને પરિત્યાગ કરીને તેમણે મુડિત થઈને અણ. ગારાવસ્થા ધારણ કરી હતી (૪) મૂલ નક્ષત્રમાં જ કાતિક સુદી ત્રીજને દિને તેમણે અનંત આદિ વિશેષાવાળાં કેવળવરજ્ઞાન અને કેવળવરદર્શન પ્રાપ્ત કર્યા હતાં. (૫) મૂવ નક્ષત્રમાં જ ભાદરવા સુદ ૯ ને દિને તેમણે નિર્વાણ પ્રાપ્ત કર્યું હતું. આ પ્રકારના ભાવાર્થવાળી ત્રણ ગાથાઓ કહેવામાં આવી છે. તે ગાથાઓને ભાવાર્થ એ છે કે પાસ સ્વામીના ગર્ણાવતરણ, જન્મ, પ્રવજ્યા, કેવળજ્ઞાન અને નિર્વાણ આ પરી કલ્યાણકે મૂલ નક્ષત્રમાં જ થયા હતાં. પુષ્પદન્ત જિનેશ્વરના એ પાંચે કલ્યાણક પૂલ નક્ષત્રમાં જ થયાં હતાં. દેશમાં શીતલનાથ જિનેશ્વરના ગર્ભવતરણ, જન્મ આદિ પચે કલ્યા. કે પૂર્વાષાઢા નક્ષત્રમાં થયાં હતાં. તેઓ ૨૦ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા પ્રાણુત કલ્પમાંથી ચવીને ભહિલપુરના રાજા દંઢરથની રાણું નન્દાદેવીના Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१३ स्थानामुत्रे १, तथा पूर्वाषाढासु गामकृष्ण द्वादश्यामुत्पन्नः २, तस्मिन्नेव नक्षत्रे तत्रैव मासे तिथौ च माघकृष्णद्वादश्यामेव निष्क्रान्तः ३ तस्मिन्नेव नक्षत्रे पोपकृष्णचतुदेश्यां पलज्ञानं प्राप्तः ४, तरिमन्नेव नक्षत्रे च वैशाख कृष्ण द्वितीयायां निरृतः ५। तथा विमलस्य त्रयोदशतीर्थ करस्य च्यवनादि - पञ्चकल्याणकनक्षत्रम् उत्तरा भाद्रपदाः । अनन्वजिनस्य चतुर्दशतीर्थंकरस्य यवनादि पञ्चकल्याणक नक्षत्र रेवती भवति । धर्मनाथस्य पञ्चकयाकनक्षत्र पुण्यः । शान्तिनाथस्य भरणी । कुन्थुनाथस्य कृत्तिकाः । अरनाथस्य रेवत्यः । सुव्रतनाथस्य श्रवणः । नमिनाथस्य देवीके गर्भ में आये पूर्वाषाढा नक्षत्र में ही वे माघकृष्ण द्वादशीके दिन उत्पन्न हुए उसी नक्षत्रमें वे माघकृष्ण द्वादशी के दिनही दीक्षित हुए उसी नक्षत्र में पौषकृष्ण चतुर्दशीके दिनही उन्होंने केवलवरज्ञानदर्शन प्राप्त किये और उसी नक्षत्र में ही उन्होंने निर्वाणपद वैशाख कृष्ण द्वितीया के दिन प्राप्त किया है । तथा १३ वें तीर्थकर विमलनाथ भगवाके पांचों कल्याण कोंमें उतराभाद्रपदा नक्षत्र था तथा १४ वें तीर्थकर अनन्त जिनके भी पाँचों कल्याणक रेवती नक्षत्र में हुए हैं, धर्मनाथ के भी पांचो कल्याणक पुण्य नक्षत्र में हुए हैं शान्तिनाथके पांचों कल्याणक भरणी नक्षत्रमें हुए हैं । कुन्थुनाथ के पांचों कल्याणक कृतिका नक्षत्र में हुए हैं, अरनाथ भगवान् के पाँचों कल्याणक रेवती नक्षत्र में हुए हैं, सुव्रतनाथ भगवान् के पांचों कल्याणक श्रवण नक्षत्र हुए हैं, नमिनाथ भगवान् के पांचों कल्याणक अश्विनी नक्षत्र में ગર્ભમાં પૂર્વાષાઢા નક્ષત્રમાં જ ઉત્પન્ન થયા હતા. એ જ નક્ષત્રમાં મહા વદી ખારશે તેમને જન્મ થયેા હતેા. એ જ નક્ષત્રમાં મહા વદી મારશે તેમણે પ્રમા અંગીકાર કરી હતી. એ જ નક્ષત્રમાં પેષ વદી ચૌદશે તેમણે કેવલ. વર જ્ઞાનદર્શન પ્રાપ્ત કર્યાં હતાં. અને એ જ નક્ષત્રમાં વૈશાખ વદ બીજે તે નિર્વાહ્યુ પામ્યાં હતાં. ૧૩ માં તીર્થંકર ત્રિમલનાથ ભગવાનના પાંચે કલ્યાણુકે ઉત્તરાભાદ્ર પદ્મનક્ષત્રમાં જ થયાં હતાં. ૧૪ માં તીથકર અન ત જિનેશ્વરના પાંચ કલ્યાણક રેવતી નક્ષત્રમાં થયાં હતાં. ધર્માંનાથ જિનેશ્વરના પાંચે કલ્યાણકા પુષ્ય નક્ષત્રમાં થયાં હતાં. શાન્તિનાથ ભગવાનના પાંચે કલ્યાણક ભરણી નક્ષત્રમાં થયા હતાં. અરનાથ ભગવાનના પાચે કલ્યાણુકે રેવતી નક્ષત્રમાં થયા હતાં. સુવ્રતનાથ ભગવાનના પાંચે કલ્યાણુકા શ્રવણ નક્ષત્રમાં થયા હતાં. હતાં. નમિનાથ ભગવાનના પાંચે કલ્યાણુકા અશ્વિની નક્ષત્રમાં થયા હતાં. નેમિનાથના પાંચે કલ્યાણુકે ચિત્રા નક્ષત્રમાં થયા હતાં. Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ५ उ. १ सू०२४ तीर्थङ्कराणां चवनादिनिरूपणम् अधिनी । नेमिनाथस्य चित्रा । पाश्वनाथस्य विशाखाः । तथा-वीरः अन्तिमती र्थ करो वर्द्ध मानस्वामी पञ्चक हस्तोत्तरः-हस्तोपलक्षिता उत्तराः-हस्तोत्तराः, उत्तराफाल्गुन्य इत्यर्थः, च्यवनादि पञ्चकल्याणकत्वेन पञ्चकाः पञ्चसख्यका हस्तोत्तरा यस्य स तथाऽभवत् । भगवतो महावीरस्य च्यवनादि पञ्चकल्याणकमभिलापपूर्वकमाइ-'समणे भगवं' इत्यादिना । श्रमणो भगवान् महावीरः पञ्चहस्तोत्तरोऽ भवत् । यथा पञ्चहस्तोत्तरोऽभवत्तथाह-' इत्युत्तराहिं ' इत्यादिना । हस्तोत्तरासुच्युतः, च्युत्वा गर्भेऽवतीर्णः १, तस्मिन्नेव नक्षत्रे गर्भात् ब्राह्मणीगर्भात् गर्भान्तरं-क्षत्रियागर्भ संहृतः नीतः शक्राज्ञया हरिणैगमेषिदेवेन २। एवं जन्म ३ प्रव्रज्या ४ केवलज्ञानप्राप्तिषु ५ हस्तोत्तरा बोध्याः । निर्वाणं तु भगवतः स्वाति नक्षत्रे कार्तिकामावस्यां वोध्यम् ॥ मू० २४ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपधनकान्धनिर्मापक-बादिमानमर्दक - श्रीशाइछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु वालब्रह्मचारी-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री -- घासीलालचतिविरचितायां 'स्थानाङ्गसूत्रस्य' सुधाख्यायां व्याख्ययां पञ्चमस्थानस्य प्रथमोद्देशः सम्पूर्णः ।।५-१॥ हुए हैं । नेमिनाथके चित्रा नक्षत्रमें पांचों कल्याणक हुए है। पार्श्वनाथके पांचों कल्याणक विशाखा नक्षत्र में हुए हैं, तथा अन्तिम तीर्थंकर वीर प्रभुके पांचों कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें हुए हैं। “समणे भगवं महावीरे " इत्यादि सूत्रका अर्थ स्पष्ट है-यही सब विषय इन गाथाओं द्वारा प्रकट किया गया है-"पउमप्पहस्स चित्ता" इत्यादि । वीरनाथ भगवान् हस्तोत्तरा नक्षत्रमेंही-उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र मेंही चवकर गर्भमें आये,उसी नक्षत्र में वे ब्राह्मणीके गर्भसे क्षात्रियाणीके गर्भ में रखे गये यह कार्य इन्द्र की आज्ञासे हरिणैगमेषी देवने किया भगवानके પાર્શ્વનાથ ભગવાનના પાંચેકલ્યાણક વિશાખા નક્ષત્રમાં થયા હતાં તથા અન્તિમ તીર્થકર મહાવીર પ્રભુના પાંચે કલ્યાણકે ઉત્તરા ફાલ્યુની નક્ષત્રમાં થયા હતાં. से वात नायनी यास द्वारा स्पष्ट ४२वाम मावी छ-" समणे भगवं महावीरे" त्याहि. भ. यासाना मथ सुगम छे. "पउमप्पहस्स चित्ता" त्याह વીરનાથ ભગવાન હસ્તિત્તરા નક્ષત્રમાં જ-ઉત્તરા ફાલ્લુની નક્ષમાં જ ઍવીને માતાના ગર્ભમાં આવ્યા હતા. એ જ નક્ષત્રમાં તેમને બ્રાહ્મણીના ગર્ભમાંથી ત્રિશલા ક્ષત્રિયાણને ગર્ભમાં મૂકવામાં આવ્યા હતા. તે કાર્ય ઈન્દ્રની આજ્ઞાથી હરિગમેલી દેવે કર્યું હતું. ભગવાનના જન્મ સમયે, ભગ स्था०-७८ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 स्थानागस्त्रे जन्मके समय प्रवज्याके समय केवलज्ञान प्राप्तिके समय हस्तोतरा नक्षत्र था, परन्तु निर्वाण प्राप्तिके समय स्वाति नक्षत्र था कार्तिक वदी अमावास्याके दिन इन्होंने मुक्ति प्राप्त की है ।।सू० 24 // श्री जैनाचार्य श्री घासीलालजी महाराज रचित " स्थानागमन" की सुधा नामकी व्याख्याके पांचवें स्थानका पहला उद्देशा समाप्त // 5-1 // વાનની પ્રવજ્યા સમયે અને ભગવાનને જ્યારે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું ત્યારે પણ હસ્તત્તરા નક્ષત્ર જ ચાલતું હતું. પણ તેમના નિર્વાણકાળે સ્વાતિ નક્ષત્ર ચાલતું હતું કાર્તક વદી અમાવાસ્યાને દિવસે તેમણે નિર્વાણ પ્રાપ્ત 430 तु. // सू. 24 // શ્રી જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ રચિત “સ્થાનાગસૂત્ર” ની સુધા નામની વ્યાખ્યાના પાંચમા સ્થાનને પ્રથમ ઉદ્દેશક સમાપ્ત છે 5-1