SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 601
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुधाटीका स्था०५३०१सू०१७ चमरेन्द्रादीनां अनीकान् अनीकाधिपतींश्चनि० ५८३ एवमेव कुञ्जरानीकाधिपतिः कुञ्जरः, महिपानीकाधिपतिर्महिषः, कृपभानीकाधिपतिषभः, स्थानीकाधिपतिश्च रथो बोध्य इति । भवनपतिनिकायेषु दश दक्षिणनिकायेन्द्रा दशउत्तरनिकायेन्द्राश्च सन्ति । तत्र दक्षिणनिकायेन्द्राः चमरो १, धरणो २, वेणु देवो ३, हरिकान्तः ४, अग्निशिखः ५, पूर्णः ६, जलकान्तः ७, अमितगतिः ८, वेलस्वो ९, घोपश्च १० । उत्तरनिकायेन्द्राश्न-बलिः १, भूतानन्दः २, वेणुदालिः ३, हरिसहः ४, अग्निमाणः ५, वसिष्ठः ६, जलप्रमः ७, अमितवाहनः ८, प्रभञ्जनः ९, महाघोपश्चेति १०) सौधर्मादिषु कल्पेषु दश अधिपति होता है, वह पीठानीकाधिपति कहा गया है। यह पीठानी. काधिपति अश्वरूपही होता है, इसी प्रकार से जो कुञ्जराधिपति होता है, वह भी कुंजर रूपही होता है। महिषानीकका जो अधिपति होतो है वह महिष-मैला रूप होताहै, और वृषभानीकका जो अधिरति होताहै है, वह वृषभ होता है। तथा रथानीकका जो अधिपति होताहै, वह रथ होता हैं। भवनपति निकायमें दश दक्षिण निकायके इन्द्र होते हैं और दश उत्तर निकायके इन्द्र होते हैं। इनमें दक्षिण निकायके इन्द्रों के नाम इस प्रकारसे हैं-चमरेन्द्र १' धरण २ वेणुदेव ३ हरिकान्त ४ अग्निशिख ५ पूर्ण ६ जलकान्त अमितगति८ वेलम्ब९ और घोष १० उत्तरनिकायके इन्द्रोंके नाम इस प्रकारसे हैं-बलि १ भूतानन्द २ वेणुदालि ३ हरिसह ४ अग्निमाणव ५ वसिष्ठ ६ जलप ७ अमितवाहय ८ मञ्जन ९ एवं અશ્વદળના અધિપતિને પીડાનીકાધિપતિ કહે છે. તે પીઠાનીક વિપતિ અશ્વરૂપ જ હોય છે. હક્તિદળને કુંજરાનીક કહે છે અને તેના અધિપતિને કુંજરાનીકાધિપતિ કુંજર રૂપ (હાથી રૂપ) જ હોય છે મહીપ એટલે પાડો. એવી પાડાઓની સેનાને મહીષાનીક કહે છે. તેને અધિપતિ પણ મહીષ રૂપ જ હોય છે. વૃષભ એટલે બળદ, વૃષભેની સેનાને વૃષભાનિક કહે છે અને તેને અધિપતિ પણ વૃષભ જ હોય છે. રથાનીકને અધિપતિ પણ રથ જ હોય છે. ભવનપતિ નિકાયમાં ઉત્તરનિકાયના દસ ઈન્દ્રો હોય છે. દક્ષિણનિકાયના धन्द्रीन नाम नाये प्रभारी छ-(१) यसरेन्द्र, (२) ५२५, (3) वो देव, (४) ४२al-d, (५) भग्निशिप, (१) ५०, (७) ४६zl-d, (८) मभितगति (6) वेसम्म भने (१०) प. उत्तनियन -द्रोनi नाम नीय प्रभा 2-(१) माल, (२) भूतान-४ (3) हालि, (४) रिस, () अनिमात्र, (6) पसिष्ट, (७) Aver, (८) मभितवाडन, (6) Art भ२ (१०) मा.
SR No.009309
Book TitleSthanang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy