SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 612
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थानाने नानि रयानानि यथा-अयं संमुवस्थितउपदार्ता पुरुषः खलु-निश्चयेन उदीर्णमामां-उदीगम्-उदयावनिकायां प्रविष्ट कर्म यरय स:-उदितमिथ्यात्वमोहनीया. विकर्मा, उनकभूनः-उन्मना=अदिरादिना तितचित्तः स इव सएव वा चास्ति; न हेतुना पत पुरुषों से मार, सम्बन्धमामान्ये पाठी, आक्रोशति-गाल्यादिकंददानि वा अथवा असति-उपहामं करोति, निश्छोटयति-मम हस्तादितो रबादिक बलाद वियोजयति वा, निर्भसंपति-दुर्वचनैस्तर्जयति वा, वनातिरादिना कमायुनं करोनि वा, रुगद्धि-कारागारादी मम निरोधं करोति वा, लपि-वेगरीरावयवस्य हस्तादे छेद कर्त्तनं करोति वा, प्रमारं-मूर्छाविनयं मागन्यानं या न पतिपारयनि बा, उपद्रवयति-उपद्रवं करोति वा, तथा "विष्णकम् स्वलु अयं पुरिले अम्मत्तगभूए " इत्यादि यां उदीर्ण गन्द से जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट हो गया है, Pा वह कर्म उदीर्ण कहा गया है। जिसका मिथ्यात्व मोहनीयादि कर्म उदयारम्बावाला हो रहा है, और इसीसे जो मदिरादिकके सेवन से विक्षिप्त चित्ताले के जैसा बना हुआ है । ऐसा कोई पुरुष यदि मेरे लिये गाली आदि देता है, अयवा मेरी हंसी करता है, अथवा मेरे हाथ में ले वन्न पान आदिको बलात्कारसे छडानाहै,या मुझे दुर्वचनोले तर्जित पारना है या रस्सी आदिसे बांधता है या कारागार आदिमें मुझे चन्द पर देता है, अधरा मेरे शरीर के अवयव प हस्त आदिका छेदन करता या मुझे लिंग कर देता है, या मुझे मरण स्थान पर ले जाकर पटक देना है। अथवा नहीं करने योग्य उपद्रव मेरे ऊपर करता है। ના પાચ કા ને લીધે બને છે તેમાં પહેલું કારણ આ પ્રમાણે છે– " अविणकरगे रजनु अयं पुरिने अम्मनगभूए " त्यादि અ “ ' પદ દ્વારા ઉદયાવલિકામાં પ્રવિણ થઈ ગયેલા કમને - २ ०\७. "रेनु भिल्या भारतीय गाया . વડા પ્રવિણ થઈ શકે છે, અને તે કારણે મદિરાનું સેવન કરનાર વ્યક્તિના છે, જેનું વિત્ત વિશિત થઈ ચુખ્યું છે, એ પુરુષ જે મને ગાળે રે, િક , મારી પાવથી બ, પાત્ર આદિ વસ્તુને પરાણે પડાવી છે, એવા મારી સામે દુર્વચનને પ્રયોગ કરે, મને દેરડી અાદિ વડે રાધે, અને કરને ૨ આદિમ પરી , અથવા વાઘ આદિ શરીરના અવયવને છેતી म नाणे, 144 भने भने २५ पBina १, ५१.71 : ४२३॥ २:२५ 3५४ोशन भने सुशन ४२वानी प्रयत्न रे,
SR No.009309
Book TitleSthanang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy