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________________ ५५८ स्थानाङ्गसूत्रे क्रियं-प्रस्तावादशुभकर्मवन्धयुक्तं स्थानम्-प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेविता भवतीति प्रथमं स्थानस् १। प्रतिसेव्य-सक्रियस्थानस्य सेवन कृल्या, न आलोचयति गुरवे न निवेदयतीति द्वितीय स्थानम् । आलोच्य-गुरूवे निवेद्यापि तदपदिष्टं प्रायश्चित्तं नो प्रस्थापयति=कर्तुं नैवारभते, इति तृतीय स्थानम् ३। प्रस्थाप्य= गुरूपदिष्टं प्रायश्चित्तमारभ्यापि नो निर्विशति-समग्रं नो परिपालयति, इति चतुर्थ स्थानम् ४ । तथा यानि इमानि गच्छप सिद्धानि स्थविराणां स्थविर कि यदि उस लाधुने " सक्रियस्थान प्रतिसेविता भवति"१ अशुभ फर्मका बन्ध जिस स्थानले-कारणले होना है, ऐसे कारणका सेवन कर लिया है, प्रायश्चित्त स्थान का वह प्रतिसेवन करनेवाला बन गया है, तो वह इस स्थिति में विसांभोगिक कर दिया जाता है, ऐसा यह प्रथम स्थान है, दूसरा स्थान-" प्रतिसेव्य नो आलोचयति" सक्रिय स्थानका सेवन करके भी जो उसकी बह आलोचता नहीं करता है, तो ऐसी स्थिति में भी वह चिलाभोगिक कर दिया जाता है, २। गुरुले निवेदन करना इसका नाम आलोचना है। तृतीय कारण ऐसा है "आलोच्य नो प्रस्था० " गुरूसे निवेदन करने पर भी उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चि तको जो प्रारम्भ नहीं करता है, ऐसी स्थितिम यह चिसांभोगिक कर दिया जाता है। चतुर्थे कारण ऐसा है “प्रस्याप्य नो निर्वि" गुरु प्रदत्त प्रायश्चित्तको प्रारम्भ करकेभी जो उसे पूर्ण रूपसे नहीं पालता है, ऐसी स्थिति भी बह विसांभोगिक कर दिया जाता है। नाये प्रभारी छ-(१) से ते साधु “ सक्रियस्थान प्रनिसेविता भवति" જે કારણે અશુભ કર્મને બધું થતું હોય એના કારણનું એટલે કે દુષ્કૃત્યનું પ્રતિસેવન કર્યું હોય, તે તેને વિસાંગિક જાહેર કરી શકાય છે. (૨) " प्रतिसेव्य नो आलोचयति ” सठिय स्थान-त्यतुं सेवन ४३२ ५५ ने તે તેની આલેચના ન કરે, તો તેને વિસ ભગિક જાહેર કરી શકાય છે કૃત ५।५४मन शुरु समक्ष २ २ तेनु नाम सायना छे. (3) " आलोच्य नो प्रस्था० " गुरुनी पासे सावायत। ४२ डाय ५ शुरु २२ प्रायશ્ચિત્ત આપવામાં આવ્યું હોય તે પ્રાયશ્ચિત્ત લેવાને પ્રારંભ ન કરનાર સાધ भि समाजिक साधुने ५Y विमोies १२ ४२ शय छे. (४) " प्रस्थाप्य नो निर्वि" गुरु द्वारा रे प्रायश्चित ४२ानु सूयन रायु डाय, ते પ્રાયશ્ચિત્તને પ્રારંભ તો કરવામાં આવે, પણ જે તેનું પૂર્ણ રૂપે પાલન કરવામાં ન આવે, તે પ્રાયશ્ચિત્તનું પૂર્ણ રૂપે પાલન નહીં કરનાર સાધુને વિસાંભોગિક જાહેર કરી શકાય છે.
SR No.009309
Book TitleSthanang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size36 MB
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