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________________ D स्थाना ___" व्यवहारः पुं-नारिन्योऽन्यं रक्तयोरतिप्रकृतिः शशारः" इति १, तथाकरुणाः कामा मनुजानां मनुष्याणां भवन्ति, यतस्ते तादृशमनोज्ञा न भवन्तीति तथा क्षणेन दृष्टाः सन्तो नपन्तीति तथा-शुक्रशोणितप्रभृतिशरीराश्रविणो भवन्तीति शोचनरूपा अवन्तीति करुणो हि रसः शोकस्वभावो भवति. उक्तं च"करुणः शोकप्रकृति-रिति २, तथा-बीभत्साः कामास्तिर्यगयोनिकानातिर्यग्योनिजातानां माणिनां पक्षिप्रभृतीनां भवन्ति, वीभत्सकामानां निन्दनीयत्वात् , वीभत्सरसो हि जुगासात्मको भवति, यदाह--" भवति जुगुप्साप्रकृति. वीभत्सः " इति ३, तथा-रौद्राः-दारुणा अत्यन्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात् , शृंगार रतिरूप होताहै, और देव ऐकान्तिकरूपसे अत्यन्त मनोज्ञ होते हैं। इसलिये वे प्रकृष्ट रतिरसके आश्रयभूत होते हैं। सो ही कहा है व्यवहारः पुं-नारिन्योन्यं रक्तयोरतिप्रकृतिः गंडारः" परस्परमें रक्त स्त्री पुरुषोंका जो व्यवहारहै वह रति है, कारण जिसका ऐसा होता है वह रतिही शृङ्गारहै। करुणारूप जो कामहैं वे मनुष्योंको होते हैं, क्योंकि वे देवों के जैसे मनोज्ञ नहीं होते हैं। देखते २ वे एक क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं शुक्र शोणितके सम्बन्धसे जनित शरीरवाले होते हैं और ज्ञाचनरूप होते हैं करुणरस शोक स्वभाववाला होता है कहा भी है" करुणः शोकप्रकृतिरिति” २१ बीभत्सकाम तिर्यश्च योनिमें उत्पन्न हुए पक्षि आदि प्राणियोंके होते हैं । वीभत्सकाम निंदनीय होते हैं क्योंकि बीभत्सरस जुगुप्सात्मक होताहै। कहा भीहै-" भवति जुगुप्सी प्रकृतिः वीभत्सरसः " जुगुप्सा प्रकृतिवाला वीभत्सरस होता है रौद्रદેવમાં હોય છે, કારણ કે શૃંગાર રતિરૂપ હોય છે અને દેવો એકાતિક રૂપે पूर्णतः) भनाश डाय छ, तथी तो अट २तिरसथी सपन्न डाय . ४४ छ -" व्यवहारः पु-नारिन्योन्यं रक्तयोरतिप्रकृतिःश्रृंगारः" પિરસ્પરમાં રક્ત (આસક્ત) સ્ત્રી પુરુષને જે વ્યવહાર છે તેનું નામ રતિ છે, અને તે રતિ જ મૃગાર રૂપ છે. કરુણરૂપ કામને સદૂભાવ મનુષ્યમાં હોય છે, કારણ કે તેઓ દેવના જેવા મણ હોતા નથી, તેઓ જોતજોતામાં એક ક્ષણ માત્રમાં જ નષ્ટ થઈ જાય છે, અને શોચનરૂપ હોય છે -:.४५ २८ ४ मावाणी डाय छे. मधु ५५ छ है-" करुणा शीप्रकृतिरिति " भील भिना समाप तिय य योनिभा उत्पन्न येai પક્ષીઓ પ્રાણીઓ આદિમાં કાય છે બીભત્સ કામ નિંદનીય હોય છે, કારણ यास)शुसासन डाय छे. ४यु ५ छ है-" भवति जुगुप्ता प्रकृति बीभत्सरसः" शुसा प्रतिवाणी भीमसरस डाय छे.
SR No.009309
Book TitleSthanang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size36 MB
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