Book Title: Sthanang Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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स्थानासूत्रे
५५६
श्रमणो निर्ग्रन्थो यैः स्थानः साम्भोगकान साधर्मिकान विसंमोगिकान् पाराञ्चितकां कुर्वाण आज्ञाया विराधको न भवतीति तानि स्थानान्याह — मूलम् - पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसं भोइ यं करेसाणे णाइकमइ, तं जहा सकिरियद्वाणं पडिसेवित्ता भवड़ १, पडिसेवित्ता णो आलोएड २, आलोइना णो पट्टवेई ३, पट्टवित्ता णो णजिइ ४, जाई इमाई थेराणं ठिड़कप्पाई भवति ताई अयंचि २ डिसेबेइ से हृदऽहं पडिलेवामि किं मं थेरा करिस्तंति ? || पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं पारचियं करेमाणे णाइकमइ, तं जहा सकुले वसइ सकुलस्स भेषाए अन्सुहिता भवइ १, गणेवसइ गणस्स भेयाए अच्युता भइ २, हिंसपेही ३, छिप्पेही ४, अभिक्खणं २, परिणाययणाई परंजिता भवइ २ ॥ सू० ११ ॥
"
छाया - पञ्चभिः स्थानैः श्रमणो निर्ग्रन्थः साधर्मिकं सांभोगि विसांमोगिकं कुर्राणो नाविक्रामति, तथथा सक्रियस्थानं प्रतिसेविता भवति १, प्रतिसेव्य नो आलोचयति २, आलोच्य नो प्रस्थापयति ३, प्रस्थाप्य नो निर्विशति ४, यानि इमान स्थविराणां स्थितिकल्प्यानि भवन्ति तानि अतिक्रम्य २ प्रति - " आयरिय उवज्ञाय 19 इत्यादि । आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, सावर्मिक, कुल, गण और संघ इनकी वैयावृत्ति करने से वैयावृत्य तप १० प्रकारका होता है । यहाँ स्थान और स्था नीमें अभेद होने की विवक्षा से स्थानीकोही स्थानरूपसे कहा गया है। सू१०॥
“ आयरिय उत्रज्झाय " इत्यादि -- वैयावृत्य तपना १० लेट नीचे प्रभाशे छे – (१) मायार्यनुं, (२) उपाध्यायनु, (3) स्त्रविरनु, (४) तपस्वीलु, (4) ग्याननु' ( व्याधिग्रस्तनु ), (६) शैक्षनु ( नवहतीक्षितनु ), (७) साधभिज्नु, (८) सनु, (८) गथुनु भने (१०) सौंधनु, भाइस प्रकार वैयावृत्य કહ્યું છે. અહીં સ્થાન અને સ્થાયી વચ્ચે અભેદ માની લઈને સ્થાનીને જ સ્થાનરૂપે કહેવામાં આવેલ છે. ! સૂ॰ ૧૦ |

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