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पुद्गल-कोश .०४.०५ अद्धपोग्गलपरियट्ट ( अर्द्ध पुद्गलपरावर्त )
___ कसापा० । गा २२ । टीका २९० । भाग २ । पृ० २५३ एक पुद्गल परावर्त में जितना काल होता है उसके आधे काल को अर्द्धपुद्गल परावर्त कहते हैं । यथा
जो जीव एक बार क्षायिक सम्यक्त्व से भिन्न' सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है, वह अनन्त संसार को छेदकर संसार में रहने के काल को उत्कृष्टतः अर्द्धपुद्गल परावर्त प्रमाण कर लेता है। .०४ ०६ अपोग्गला ( अपुद्गलाः )
- ठाण० स्था २ । उ १ । सू ५७ । पृ. १८५ अपुद्गल -अर्थात् पुद्गलरहित टीका-सपुद्गलाः कर्मादिपुद्गलवंतो जीवा, अपुद्गला:-सिद्धाः ।
यहाँ जीव के दो भेद किये गये हैं, यथा-सपुद्गल जीव और अपुद्गल जीव । कर्मपुद्गलों से रहित जीव को अपुद्गल-सिद्ध कहते हैं। .०४.०७ असंखेज्जलोगमेत्तपोग्गलपरियट्ट ( असंख्यातलोकप्रमाणपुद्गल
परावर्त )
---कसापा० गा २२ । टीका १८४ । भाग ४ । पृ० १०० असंख्यात लोकप्रमाणपुद्गलपरावत ।
यहाँ पर यह कहा गया है कि असंख्यात लोकप्रमाण पुद्गलपरावर्त में जितने समय होते हैं उतने चतुर्गतिनिगोद जीवों का प्रमाण होता है। .०४.०८ असुभपोग्गलावहार ( अशुभपुद्गलापहार )
–णाया० श्रु १ । अ९। सू ८० । पृ० १०३९ अशुभपुद्गलापहार-अर्थात् पुद्गलों का अपहरण करना-अशुभपुद्गलों को शरीर से बाहर निकालना । ___मांकदीपुत्रों की कथा में रत्नदेवी द्वारा उनके शरीर से अशुभ पुद्गलों के अपहार करने का कथन है। •०४.०९ आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाल ( आनप्राणपुद्गलपरावर्त
निर्वर्तनाकाल) आन-प्राण पुद्गल परावर्त के निष्पन्न होने का काल-इसमें अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी जितना काल लगता है।
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