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पुद्गल - कोश
भाष्य - जघन्य गुणांश स्निग्धों का तथा जघन्य गुणांश रूक्षों का परस्पर में बंधन नहीं होता है ।
जघन्य गुणांश को बाद देकर स्निग्धों का रूक्ष के साथ तथा रूक्षों का स्निग्ध के साथ बंध होता है । क्या तुल्य गुणांश के बंधन का नितांत प्रतिषेध है । यह 'न जघन्य गुणानाम्' सूत्र के अधिकार से ही सिद्ध है ।
टीका - जघन्य गुणांश स्निग्धों का और जघन्य गुणांश रूक्षों का बंध नहीं होता है । इसके ( जघन्य गुणांश के ) निषेध हो जाने से अन्य जो जघन्य गुणांश वर्जित हैं उनके बंध के प्रसंग में सदृशों के प्रतिषेध में यत्न करना चाहिए । यह अर्थापत्ति के द्वारा प्राप्त हुआ अर्थात् उसकी भी प्रसंग आया ; यदि - द्विगुणांश स्निग्ध का एक गुणांश रूक्ष के साथ तथा एक गुणांश स्निग्ध का द्विगुण रूक्ष के साथ बंध होता है ।
निकृष्ट – जघन्य गुणांश स्निग्ध और जघन्य गुणांश रूक्षों के बंध के प्रतिषेध से मध्यम और उत्कृष्ट गुणांश स्निग्ध और रूक्षों का बंध होता है - ऐसा अर्थापत्ति से ज्ञात होता है ।
अब प्रश्न उठता है कि क्या तुल्य गुणांशों के बंध का अत्यन्त प्रतिषेध है । तुल्य गुणांश स्निग्धों का एक-एक गुणांश वाले पुद्गलों का बन्ध क्या एकान्ततः नहीं होता है - ऐसा प्रश्न करने पर कहा जाता है कि "अत्यन्त प्रतिषेध ही है ।"
'न जघन्य गुणानाम्' इस सूत्र से ही यह बात सिद्ध होती है । जिस प्रकार जघन्य गुणांश स्निग्धों तथा जघन्य गुणांश रूक्षों का बन्ध नहीं होता है उसी प्रकार गुणसाम्य रहने पर सदृशों का भी बन्ध नहीं होता है ।
अथवा भिन्नाधिकरण वाले स्निग्ध और रूक्षों को बन्ध का प्रतिषेध किया गया है । अब तुल्य गुणों का क्या समझना चाहिए। इसके लिए अल्पाहार करके व्याख्या करनी चाहिए - अस्तु तुल्य गुण वाले स्निग्धों का तथा रूक्षों का बन्थ नहीं होता है - अर्थात् अत्यन्त प्रतिषेध ही है ।
भाष्य - गुणसाम्ये सति सदृशानां बंधो न भवति तद् यथा - तुल्यगुणस्निग्धस्य तुल्य गुणस्निग्धन, तुल्यगुणरूक्षस्य तुल्यगुणरूक्षेणेति ।
टीका- गुणसाम्ये सतीत्यादि भाष्यम् । गुणाः - स्निग्धरूक्षास्तेषां समता साम्यं तस्मिन् गुणसाम्ये, सतीत्यनेन विशिष्टार्थ सप्तमीं सूचयति । ,'यस्य च भावेन भावलक्षणम्" ( पा० अ २, पा० ३, सू० ३७ )।
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