Book Title: Pudgal kosha Part 1
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 732
________________ ६४० पुद्गल-कोश जीवें लइयउ जाइ जियत्तहु । तिव्व - कसाय - रसेहिं पमत्तहु ॥ -वीरजि० संधि १२ । कड ५ जिस प्रकार दीपक में जलता हुआ तेल अग्नि की शिखा रूप परिवर्तित होता रहता है, उसी प्रकार कर्मरूपी पुद्गल परमाणु भी जीव द्वारा ग्रहण किये जाते और तीब कषायरूपी रसों के बल से उस जीव में प्रमत्तभाव उत्पन्न करते हैं। पुद्गल और संस्थान रूपादिसंस्थानपरिणामो मूत्तिः । -तत्त्वराज• अ ५ । सू ५ । १ की व्याख्या में संस्थान भी वर्ण-गंध-रस-स्पर्श के सिवाय मूर्तत्व का एक लक्षण है। अथाजीवपरिगृहीतं वृत्त-व्यस्र-चतुरस्रायतपरिमण्डलभेदात् । -तत्त्व० अ ५ । सू २४ भाष्य संस्थान का अर्थ आकृति या आकार है। संस्थान को पुद्गल का गलन मिलनकारी स्वभाव जन्य कहा जा सकता है । बन्ध बन्धो द्विविधः-वैनसिकः प्रायोगिकश्च । पुरुषप्रयोगानपेक्षो वैससिकः। तद्यथा-स्निग्धरूक्षत्वगुणनिमित्तो विद्य दुल्काजलधाराग्नीन्द्रधनुरादिविषयः । पुरूषप्रयोगनिमित्तः प्रायोगिकः अजीवविषयो जीवाजीवविषयश्चेति द्विधा भिन्नः। तत्राजीवषियो जतुकाष्टादिलक्षणः जीवाजीव विषयः कर्मनोकर्म वन्धः । -सर्वसि० अ ५ । सू २४ । टीका बन्ध के दो भेद हैं—बैस्रसिक और प्रायोगिक । जिसमें पुरुष का प्रयोग अपेक्षित नहीं है वह वैस्रसिक बन्ध है। जैसे-स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्तसे होने वाला बिजली, उल्का, मेघ, अग्नि और इन्द्रधनुष आदि का विषय भूत बन्ध वैस्रसिक बन्ध है और जो बन्ध पुरुष के प्रयोग से निमित्त होता है वह प्रायोगिक बन्ध है। इसके दो भेद हैं-अजीव सम्बन्धी और जीवाजीव सबन्धी। लाख, लकड़ी आदि का अजीव सम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है तथा कर्म और नोकर्म का जीव से बन्ध होता है वह जीवाजीव प्रायोगिक बन्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790