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पुद्गल-कोश
५२५ '३ अस्थि णं आउसो ! समुदस्स पारगयाई रूवाई ? हंता अस्थि, तुभेणं आउसो ! समुहस्स पारगयाइं स्वाइपासह ? णो इण? सम?।
अस्थि णं आउसों ! देवलोगगयाई रूवाइं, हंता अस्थि । 'तुम्भेणं आउसो ! देवलोगगयाइं रूवाई पासह ? णो इण? समढे । एवामेव आउसो। अहं वा तुम्भे वा अन्नो वा छउमत्थो जह जो जं न जाणइन पासइ तं सव्वं न भवति, एवं भे सुबहुए लोए ण भविस्सीति कटुx xx।
-भग० श १८ । उ ७ । सू १५ । पृ० ७७४ टीका-'अस्थि ण' मित्यादि, 'घाणसहगय' त्ति घ्रायते इति घ्राणो-गंध गुणस्तेन सहगताः तत्सहचरितास्तद्वन्तो ध्राणसहगताः 'अरणिसहगए' त्ति अरणिः- अग्न्यर्थ निर्मन्थनीयकाष्ठं तेन सहगतो यः स तथा तं x x x।
ध्राण सहगत अर्थात् गंध गुणवाले पुद्गलों को छमस्थ जीव नहीं देख सकता है। अरणि के काष्ठ में स्थित अग्नि को भी नहीं देख सकता है। समुद्र के पारगत स्थित रूपी-पुद्गल पदार्थ है उनको भी नहीं देख सकता है।
देवलोक में स्थित रूप-पुद्गल पदार्थों को भी नहीं देख सकता है ।
यदि यह मान लिया कि छदमस्थ जिन-जिन वस्तुओं को नहीं जानता है, नहीं देख सकता है उन-उन सब वस्तुओं को अवस्थिति नहीं होती है तो लोक में बहुत वस्तुओं का अभाव हो जाता है परन्तु लोक में ऐसे बहुत से पदार्थ है जिनको छद्मस्थ नहीं देख सकता है। यहाँ छद्मस्थ से अवधि ज्ञान रहित जीव समझना चाहिए । ( छद्मस्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवसेयः । न, पुनरकेवलिमात्रम् )।
.३ पुद्गल का ज्ञान मतिज्ञान से-शब्द-रस-स्पर्श-रूप-गंधादि का ज्ञान
x xxईविय-णोइदिएहि सद्द-रस-परिस-रूव-गंधादि विसएसु ओग्गह-ईहावाय-धारणाओ मदिणाणंxxx।
--कसायपा० भा १ । गा १ । टीका । पृ० ४२
इन्द्रिय और मन के निमित्त से शब्द-रूप-स्पर्श-रस-गंधादि विषयों में अवग्रह-ईहाअवाय और धारणा रूप जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है ।
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