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५.४८
पुद्गल-कोश थिरजुम्मस्स थिराथिररसरुहिरादीणि सुहजुगस्ससुहं । असुहं देहावयवं सरपरिणदपोग्गलाणि सरे॥
-कम्मगो० गा ८३
स्थिर कर्म का नो कर्म अपने-अपने ठिकाने पर स्थिर रहने वाले रस, लोही आदि है और अस्थिर प्रकृति के नो कर्म अपने-अपने ठिकाने से चलायमान हुए रस, लोही आदि हैं। शुभ प्रकृति के नो कर्म द्रव्य शरीर के शुभ अवयव है तथा अशुभ प्रकृति के नो कर्म द्रव्य शरीर के अशुभ अवयव हैं।
.३ पुद्गल और कर्मों का फल विषाक
कदि आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्संति कस्स आवलियं । खेत्त - भव - काल - पोग्गल - दिदिविवागोदयखयो दु॥
- कसापा० भा १० । गा ५९ । पृ. ३
टोका-xxx। खेत्तमिदि भणिदे णिरयादिखेत्तस्स गहणं कायव्वं । भव इदि भणिदे एइंदियाभवस्स गहणं कायव्वं । काल इदि भणिदे सिसिरवसंतादिकाल विसेसस्स गहणं कायव्वं । वाल-जोवण-थविरादिकालजणिदप ज्जायस्स वा। पोग्गल इदि भणिदे गंध-तंबूल-वत्याभरणविसेसत्थकंदयादि दव्वाणमिट्ठाणि?सरूवाणं ( गहणं ) कायव्वं । एवमेदे खेत्त-भव-कालपोग्गले पडुच्च कमाणमुदयोदोरणसरूवो फलविवागो होदि ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थोxxx।
क्षेत्र, भाव, काल और पुद्गलों का आश्रय ले कर जो स्थितिविपाक और उदय क्षय होता है उसे क्रम से उदीरणा और उदय कहते हैं। क्षेत्र-नरकादि का क्षेत्र ग्रहण करना चाहिए। भव-एकेन्द्रियादि रूप भव का ग्रहण करना चाहिए। काल--शिषिर और वसन्त आदि काल विशेष का ग्रहण करना चाहिए अथवा बालकाल, यौवनकाल और स्थविर आदि काल के आलम्बन से उत्पन्न हुई पर्याय का ग्रहण करना चाहिए। पुद्गल-इष्टानिष्ट रूप गध, ताम्बूल, वस्त्र और आभमण विशेष रूप स्कंधादि द्रव्यों का ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इन क्षेत्र, भाव, काल और पुद्गलों का आलम्बन लेकर कर्मों का उदय और उदीरणा रूप फलवियाक होता है।
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