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पुद्गल-कोश
५६१ तीन प्रदेश वाले स्कंध की अपेक्षा दो प्रदेश वाला स्कंध अकृत्स्न स्कंध जानना चाहिए। इसलिए पूर्वोक्त अचित्त स्कंध से इसका भेद है। पूर्व में दो प्रदेशी स्कंध से लेकर सम्पूर्ण उत्कृष्ट अनंताणुक स्कंध पर्यन्त के सर्व स्कंध सामान्यत: अचित्त स्कंध कहे जाते हैं। यहां पर सम्पूर्ण उत्कृष्ट अनंताणुवाला एक स्कध का ग्रहण नहीं किया है क्योंकि वह परिपूर्ण होने से कृत्स्न स्कंध है ।
सचित्त-अचित्त रूप अनेक द्रव्यों से बना हुआ स्कंध-अनेक द्रव्य स्कंध है। वह देशापचित-उपचित अश्व-हस्ति आदि स्कंध जानना चाहिए ।
नख-दंत केशादि रूप प्रदेश में जीव प्रदेश से रहित-देशापचित है और पीठ हृदय, बाहु, उर आदि रूप प्रदेश में जीव प्रदेश से व्याप्त-देशोपचित है। इस प्रकार विशिष्ट परिणाम से परिणत सचेतन और अचेतन देश के समुदायात्मकअश्वादि स्कंध अनेक द्रव्य स्कध जानना चाहिए । '८२ पुद्गल और पर्याय १ पुद्गल और पृथकृत्व
पविभत्तपदेसत्त पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतब्भावो तब्भवं होदि कधमेगं ॥
-प्रव० अ २ । गा १४ । पृ० १४६ जयसेन टोका-'पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तं' पृथक्त्वं भवति पृथक्त्वाभिधानो भवति । कि विशिष्टम् । प्रकर्षण विभक्तप्रदेशत्व भिन्नप्रदेशत्वम् । किंवत् । दंडदंडिवत् ।
जिन पुद्गल द्रव्यों के प्रदेश अत्यन्त भिन्न हो उसे पृथक्त्व कहते हैं। जैसे दंड और दंडी में प्रदेश भेद है वैसे ही प्रदेश-भेद को पृथक्त्व कहते हैं। .२ पुद्गल और काल पुग्गलकरण जीवा खंधा खलु कालकरणादु।
-पंचास्तिकाय प्राभृत में अर्थात् धर्म द्रव्य के विद्यमान होते हुए भी जीवों की गति में कर्म, नोकर्म पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कंध-इन दो भेदों से भेद को प्राप्त हुए पुद्गलों के गमन में काल द्रव्य सहकारी कारण होता है ।
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